अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (26) खंड चार
विभिन्न प्रकार के बुरे लोगों को पहचानने के मानक और आधार
II. व्यक्ति की मानवता के आधार पर
इसके बाद हम अगुआओं और कार्यकर्ताओं की चौदहवीं जिम्मेदारी के बारे में संगति करना जारी रखते हैं : “सभी प्रकार के बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों को तुरंत पहचानो और फिर बहिष्कृत या निष्कासित कर दो।” सभी प्रकार के बुरे लोगों को पहचानने के मानकों को तीन मुख्य श्रेणियों में विभाजित किया गया है। इससे पहले हम व्यक्ति के परमेश्वर में विश्वास रखने के उद्देश्य के बारे में संगति कर चुके हैं और फिर आगे हमने उसकी मानवता पर संगति की। व्यक्ति की मानवता के संबंध में हमने कई अलग-अलग अभिव्यक्तियों को भी श्रेणीबद्ध किया है। वे विभिन्न अभिव्यक्तियाँ कौन-सी हैं जिनके बारे में हम पहले ही संगति कर चुके हैं? उन्हें पढ़ो। (सभी प्रकार के बुरे लोगों को पहचानने की दूसरी मद व्यक्ति की मानवता से संबंधित है। पहला, तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करना पसंद करना; दूसरा, फायदा उठाना पसंद करना; तीसरा, स्वच्छंद और असंयमित होना; चौथा, प्रतिशोध की तरफ झुकाव होना; पाँचवाँ, अपनी जबान पर लगाम नहीं लगा पाना।) हमने पाँचवें बिंदु—अपनी जबान पर लगाम नहीं लगा पाने—तक संगति की है। हम चाहे मानवता की विशिष्ट अभिव्यक्तियों के बारे में संगति कर रहे हों या दूसरी चीजों की विशिष्ट अभिव्यक्तियों के बारे में, जैसा कि मैंने कहा है, इसका अलग-अलग प्रकार के लोगों पर अलग-अलग प्रभाव पड़ेगा। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, वे इसे सुनने के बाद अपनी जाँच करने पर ध्यान केंद्रित करेंगे; वे मेरी संगति की कसौटी पर खुद को मापेंगे और उनका प्रवेश सक्रिय और सकारात्मक होगा। लेकिन जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं, जैसे कि श्रमिक, वे सिर्फ सुनेंगे और कुछ नहीं करेंगे। वे इसे दिल पर नहीं लेते हैं या सुनने में अपना दिल नहीं लगाते हैं। कभी-कभी धर्मोपदेश सुनते-सुनते उनकी आँख भी लग सकती है। वे इसे आत्मसात नहीं कर पाते हैं और यहाँ तक सोचते हैं, “इन तुच्छ मामलों को सुनने का क्या फायदा है? यह समय की बर्बादी है—मैंने अभी तक अपना कार्य भी पूरा नहीं किया है!” वे हमेशा उन कार्यों के बारे में चिंतित रहते हैं जिनमें मेहनत लगती है। वे मेहनत करने के लिए विशेष रूप से उत्साही और समर्पित होते हैं, निष्ठा दिखाते हैं, लेकिन वे सत्य से जुड़े मामलों के लिए ऊर्जा जुटा ही नहीं पाते हैं। इससे यह स्पष्ट रूप से प्रकट होता है कि ऐसे लोगों को सत्य में कोई दिलचस्पी नहीं होती है; वे सिर्फ कड़ी मेहनत करके संतुष्ट रहते हैं। परमेश्वर का घर सत्य पर चाहे कैसे भी संगति कर ले, एक और समूह ऐसे लोगों का है जो एक जैसा रवैया कायम रखते हैं : “मैं बस प्रतिरोधी और विरोधी हूँ। अगर तुम मेरी समस्याओं की तरफ इशारा भी करो और मेरी अभिव्यक्तियों, खुलासों और स्वभावों को उजागर भी करो, तो भी मैं ध्यान नहीं दूँगा या इसे गंभीरता से नहीं लूँगा। तो क्या हुआ अगर दूसरों को पता चल गया कि मुझे उजागर किया जा रहा है?” वे बस बेशर्मी से अवज्ञा और विरोध करना जारी रखते हैं, जो कि सुधार योग्य नहीं है। चाहे जो भी हो, विभिन्न प्रकार के लोगों की अभिव्यक्तियाँ अलग से पहचानी जा सकती हैं। सत्य लोगों के लिए एक दोधारी तलवार, एक कसौटी की तरह कार्य करता है, फिर चाहे वे लोग सत्य का अनुसरण करने वाले हों, कड़ी मेहनत करने को तैयार लेकिन सत्य को पसंद न करने वाले हों या सत्य से घिनाने वाले और इससे विमुख रहने वाले हों। यह सत्य के प्रति लोगों के रवैयों को और उस मार्ग को भी माप सकता है जिस पर वे चल रहे हैं।
च. अविवेकी और जानबूझकर परेशान करने वाला होना, जिन्हें कोई भी भड़काने की हिम्मत नहीं करता है
इससे पहले हमने विभिन्न बुरे लोगों की पाँच अभिव्यक्तियाँ पहचानने पर संगति की थी। आज हम छठी अभिव्यक्ति पर संगति करना जारी रखते हैं। छठी अभिव्यक्ति भी एक प्रकार के बुरे व्यक्ति की अभिव्यक्ति है, या यूँ कहें कि भले ही लोग इस प्रकार को बुरा नहीं मानते हों, फिर भी हर कोई उन्हें नापसंद ही करता है। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि इन लोगों में जमीर और विवेक की कमी होती है, सामान्य मानवता की कमी होती है और उनके साथ बातचीत विशेष रूप से परेशान करने वाली और कठिन होती है, जो घिन उत्पन्न करती है। इन लोगों की विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? यह अविवेकी और जानबूझकर परेशान करने वाला होना है, जिन्हें कोई भी भड़काने की हिम्मत नहीं करता है। क्या कलीसिया में ऐसे लोग होते हैं? बहुत सारे तो नहीं, लेकिन यकीनन ऐसे लोग होते हैं। और उनकी विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ क्या होती हैं? सामान्य हालातों में ये लोग अपने कर्तव्य सामान्य रूप से कर सकते हैं और दूसरों के साथ काफी सामान्य रूप से बातचीत कर सकते हैं; तुम्हें उनमें कोई शातिर स्वभाव दिखाई नहीं देगा। लेकिन जब उनके कार्य सत्य सिद्धांतों के खिलाफ जाते हैं और उनकी काट-छाँट की जाती है तो वे आग बबूला हो जाते हैं, सत्य को पूरी तरह से अस्वीकार कर देते हैं और अपने लिए बेतुके बहाने बनाते हैं। अचानक तुम्हें एहसास होता है कि वे काँटेदार साही की तरह, एक बाघ की तरह हैं जिसे छुआ नहीं जा सकता है। तुम सोचते हो, “मैं इस व्यक्ति से बहुत समय से बातचीत करता आया हूँ, मैं यही सोचता रहा कि वह अच्छी मानवता वाला है, समझदार है और उससे बात करना आसान है, मैं यही मानता रहा कि वह सत्य स्वीकार कर सकता है। मैंने यह उम्मीद नहीं की कि वह कोई अविवेकी और जानबूझकर परेशान करने वाला व्यक्ति होगा। भविष्य में उससे बातचीत करते समय मुझे ज्यादा सावधान रहना चाहिए, जब तक जरूरी न हो तब तक कम-से-कम संपर्क रखना चाहिए और उसे भड़काने से बचने के लिए मुझे दूरी बनाए रखनी चाहिए।” क्या तुम लोगों ने ऐसे लोग देखे हैं जो अविवेकी और जानबूझकर परेशान करने वाले होते हैं? आम तौर पर जो लोग उन्हें समझते हैं उन्हें पता होता है कि वे कितने डरावने हैं और उनसे विशेष विनम्रता और सावधानी से बात करते हैं। विशेष रूप से, जब तुम उनसे बात करते हो तो तुम उन्हें बिल्कुल भी ठेस नहीं पहुँचा सकते, वरना इससे तुम्हें उनके साथ अंतहीन परेशानी होगी। कुछ लोग कहते हैं, “ये असभ्य लोग आखिर हैं कौन? हम अभी तक उनसे नहीं मिले हैं।” ऐसे में हमें वाकई इस बारे में बात करने की जरूरत है। मिसाल के तौर पर, भाई-बहनों के अपने अनुभवों के बारे में संगति करते समय जब कुछ लोग अपनी भ्रष्ट दशाओं या व्यक्तिगत कठिनाइयों का जिक्र करते हैं तो यह अवश्यंभावी है कि दूसरे लोग सहानुभूति व्यक्त करेंगे, क्योंकि उन्हें भी मिलते-जुलते अनुभव या एहसास हो चुके होते हैं। यह बिल्कुल सामान्य है। सुनने के बाद कोई ऐसा सोच सकता है, “मुझे भी ऐसे अनुभव हो चुके हैं इसलिए आओ, हम सब मिलकर इस विषय पर संगति करें। मैं सुनना चाहता हूँ कि तुम इस अनुभव से कैसे गुजरे हो। अगर तुम्हारी संगति में प्रकाश है और यह मेरे किसी मुद्दे से संबंधित है, तो मैं इसे स्वीकार करूँगा और तुम्हारे अनुभवों और मार्ग के अनुसार अभ्यास करूँगा और देखूँगा कि क्या नतीजे होते हैं।” ऐसा सिर्फ एक ही प्रकार का व्यक्ति है जो खुद को जानने और अपनी भ्रष्टता और बदसूरती को बेनकाब करने के बारे में दूसरों को संगति करते हुए सुनकर यह मानता है कि यह अप्रत्यक्ष रूप से उसे उजागर करना और उसके बारे में राय बनाना है और वह जोर से अपने हाथ मेज पर पटकने और आग बबूला होने से खुद को रोक नहीं पाता है : “भ्रष्टता किसमें नहीं होती है? कौन शून्य में जीता है? मेरी नजर में, तुम लोगों की भ्रष्टता मुझसे भी बदतर है! मुझे निशाना बनाने, मुझे उजागर करने के लिए तुम लोगों में क्या योग्यता है? मेरी नजर में तुम लोग बस मेरे लिए चीजें कठिन बनाना चाहते हो, मेरा बहिष्कार करना चाहते हो! क्या सिर्फ इसलिए नहीं कि मैं देहात से हूँ और तुम सभी की चापलूसी करने के लिए खुशामदी बातें नहीं कर पाता? क्या इसका कारण यह नहीं है कि मैं तुम लोगों जैसा उच्च शिक्षित नहीं हूँ? परमेश्वर भी मुझे नीची नजर से नहीं देखता है तो तुम्हें मुझे नीची नजर से देखने का अधिकार कहाँ से मिला!” दूसरे लोग कहते हैं, “यह सामान्य संगति है, तुम्हें निशाना नहीं बनाया जा रहा है। क्या सभी के भ्रष्ट स्वभाव एक जैसे नहीं हैं? जब कोई किसी विषय पर संगति कर रहा होता है और अपनी भ्रष्ट दशा का जिक्र करता है, तो यह अवश्यंभावी है कि दूसरे लोग भी खुद को ऐसी ही दशा में पाएँगे। अगर तुम्हें लगता है कि तुम भी ऐसी ही दशा में हो, तो तुम भी अपने अनुभवों के बारे में संगति कर सकते हो।” जवाब में वह कहता है, “अच्छा, ऐसी बात है? मैं एक व्यक्ति से ऐसी संगति बर्दाश्त कर सकता हूँ, लेकिन तुम दो-तीन लोग मुझे डराने-धमकाने के लिए गुट क्यों बना रहे हो? क्या तुम्हें लगता है कि मुझ पर धौंस जमाना आसान है?” क्या वह जितना ज्यादा बोल रहा है, उसके शब्द उतने ही अपमानजनक नहीं होते जा रहे हैं? (हाँ।) क्या ऐसे लोगों के पास ये शब्द कहने का कोई कारण है? (नहीं।) अगर तुम सही मायने में सोचते हो कि दूसरों की संगति के विषय का निशाना तुम हो तो तुम इस विषय पर चर्चा या संगति कर सकते हो; इसमें एक किसान के रूप में अपनी पृष्ठभूमि, अपनी कम शिक्षा या लोगों का तुम्हें नीची नजर से देखने की बात को घसीटने के बजाय सीधे पूछ लो कि क्या इसका निशाना तुम हो। ऐसी बातें कहने का क्या फायदा है? क्या यह सही और गलत के बारे में बकवास करना नहीं है? क्या यह अविवेकी और जानबूझकर परेशान करने वाला होना नहीं है? (हाँ।) क्या तुम्हें नहीं लगता है कि ऐसे लोग भयावह होते हैं? (हाँ।) जब वह ऐसा तमाशा करता है तो उसके बाद सबको यह पता चल जाता है कि वह किस तरह का व्यक्ति है और भविष्य में होने वाली सभाओं में संगति करते समय उन्हें हमेशा ध्यान से बोलना पड़ता है और उसके भावों को पढ़ना पड़ता है। अगर उसका चेहरा उदास हो जाता है तो दूसरे लोग बोलने में हिचकिचाने लगते हैं और सभाओं में संगति के दौरान हर व्यक्ति घुटन महसूस करता है। क्या यह बेबसी और बाधा उसके अविवेकी और जानबूझकर परेशान करने वाला व्यक्ति होने के कारण नहीं आई है? (हाँ।) अविवेकी और जानबूझकर परेशान करने वाले सभी लोग तर्क से परे होते हैं; ऐसे व्यक्ति सत्य स्वीकार नहीं करेंगे और संभवतः बचाए नहीं जा सकते हैं।
इस प्रकार का व्यक्ति जो अविवेकी और जानबूझकर परेशान करने वाला होता है, उसकी एक और अभिव्यक्ति होती है। सभाओं के दौरान कुछ लोग हमेशा कहते हैं, “मैं अब लापरवाही से कार्य नहीं कर सकता। मुझे सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है; मुझे पूर्णता का अनुसरण करने की जरूरत है। मैं श्रेष्ठ होने के लिए स्वाभाविक रूप से प्रयास करता हूँ। मैं जो भी करूँ, मुझे उसे अच्छी तरह से करना चाहिए।” वे बेहद आत्मविश्वास के साथ बात करते हैं लेकिन वास्तव में, अपना कर्तव्य निभाते समय वे लापरवाही से ही कार्य करते हैं और वे जो कर्तव्य निभाते हैं उसमें कई समस्याएँ होती हैं और उससे परमेश्वर की गवाही देने का प्रभाव प्राप्त नहीं होता है। जब अगुआ उनके कर्तव्य निर्वहन में समस्याओं पर ध्यान दिलाते हैं और उनकी काट-छाँट करते हैं तो उन्हें तुरंत गुस्सा आ जाता है, वे कहते हैं, “मुझे पता था। तुम सब लोग मेरी पीठ पीछे मेरे बारे में राय बनाते हो, कहते हो कि मेरे पेशेवर कौशल खराब हैं। क्या बात बस यही नहीं है कि तुम सभी मुझे हेय दृष्टि से देखते हो? यह सिर्फ एक छोटी-सी गलती थी, बस। क्या इस तरह से मेरी काट-छाँट करनी जरूरी है? इसके अलावा, गलतियाँ कौन नहीं करता है? यह कहना कि मैं लापरवाही से कार्य करता हूँ—क्या तुम भी पहले अपने कार्य में लापरवाह नहीं हुआ करते थे? क्या तुम मेरी आलोचना करने के योग्य हो? मेरे सहयोग के बिना तुम लोगों में से कौन इस कार्य की जिम्मेदारी ले सकता है?” तुम ऐसे लोगों के बारे में क्या सोचते हो? वे जो कुछ भी करते हैं उसमें वे दूसरों को उनकी खामियों पर ध्यान दिलाने या सुझाव देने की अनुमति नहीं देते हैं; यहाँ तक कि वे जायज काट-छाँट करना भी स्वीकार नहीं करते हैं। जो भी आवाज उठाता है, वे उसका सामना करते हैं और उसका विरोध करते हैं, अनुचित शब्द बोलते हैं, यहाँ तक कि यह भी कहते हैं कि उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाता है या अकेले और बेबस होने या ऐसी ही दूसरी बातों के कारण उन्हें डराया-धमकाया जाता है। क्या यह बेलगाम, अविवेकी और जानबूझकर परेशान करने वाला होना नहीं है? यहाँ तक कि ऐसे भी कुछ लोग हैं जो काट-छाँट किए जाने के बाद अपना कर्तव्य छोड़ देते हैं : “मैं अब यह कार्य नहीं करूँगा। अगर तुम लोग इसे कर सकते हो तो जरूर करो। फिर मैं देखूँगा कि क्या तब भी तुम लोग मेरे बिना कार्य जारी रख पाते हो!” भाई-बहन उन्हें मनाने का प्रयास करते हैं लेकिन वे नहीं सुनते हैं। यहाँ तक कि जब अगुआ और कार्यकर्ता उनके साथ सत्य पर संगति करते हैं तो वे स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं; वे रोब जमाने लगते हैं और अपना कर्तव्य छोड़ देते हैं। सभाओं के दौरान वे रूठे रहते हैं, न तो परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं और न ही संगति करते हैं, हमेशा सबसे बाद में आते हैं और सबसे पहले चले जाते हैं। जाते समय वे अपने पैर पटकते हैं और जोर से दरवाजा बंद करते हैं, और ज्यादातर लोगों की समझ में नहीं आता है कि उनसे कैसे निपटा जाए। जब ऐसे लोगों के साथ कुछ होता है तो वे बेतुकी दलीलें देते हैं और बकवास करते हैं; वे बेकाबू हो जाते हैं और यहाँ तक कि चीजें फेंकने लग जाते हैं, तर्क का उन पर कोई असर नहीं होता। कुछ लोगों में तो और गंभीर अभिव्यक्तियाँ होती हैं—अगर भाई-बहन उनका अभिवादन नहीं करते तो वे नाराज हो जाते हैं और सभाओं के दौरान विलाप करने का मौका ढूँढ़ते रहते हैं : “मुझे पता है कि तुम सभी मुझे हेय दृष्टि से देखते हो। सभाओं के दौरान तुम सब लोग सिर्फ परमेश्वर के वचनों की संगति करने और अपनी ही अनुभवजन्य समझों पर चर्चा करने पर ध्यान केंद्रित करते हो। कोई मेरी परवाह नहीं करता है, कोई मुझे देखकर मुस्कुराता नहीं है और जब मैं जाने लगता हूँ तो कोई मुझे विदा नहीं करता है। तुम किस तरह के विश्वासी हो? तुम लोगों में सही मायने में मानवता की कमी है!” वे कलीसिया में इस तरह के नखरे दिखाते हैं। वे मामूली बातों पर भी भड़क जाते हैं, अपनी सारी भड़ास निकाल लेते हैं। स्पष्ट रूप से वे अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर रहे हैं, लेकिन वे न तो आत्म-चिंतन करते हैं और न ही खुद को जानते हैं और उनमें बदलाव या सत्य का अनुसरण करने की कोई इच्छा नहीं होती है। इसके बजाय, वे दूसरों में परेशानी तलाशते हैं, अपनी मानसिकता को संतुलित करने के लिए विभिन्न बहाने ढूँढ़ते हैं—और ऐसा करते समय वे अपनी भड़ास निकालने के अवसर तलाशते हैं। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि उनका लक्ष्य ज्यादा लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचने और उन्हें डराने का होता है, ताकि लोगों के बीच वे कुछ हद तक प्रतिष्ठा और ध्यान हासिल कर सकें। इस तरह के लोग बहुत ही परेशान करने वाले होते हैं! वे जो भी कहते हैं, उस पर कोई भी “नहीं” कहने की हिम्मत नहीं करता है; कोई भी उनका हल्के में मूल्यांकन करने की हिम्मत नहीं करता है; और कोई भी उनसे खुलकर बात करने और उनके साथ संगति करने की हिम्मत नहीं करता है। अगर उनमें कुछ खामियाँ और भ्रष्ट स्वभाव दिखाई दे भी जाएँ तो भी कोई भी उन पर ध्यान दिलाने की हिम्मत नहीं करता है। सभाओं के दौरान जब सभी अपने व्यक्तिगत अनुभवों और परमेश्वर के वचनों की अपनी समझ के बारे में संगति करते हैं तो वे चतुराई से “बर्र के छत्ते” यानी इस व्यक्ति से बचते फिरते हैं, उसे भड़काने और परेशानी पैदा करने से डरते हैं। कुछ लोग यह महसूस करने के बाद कि उनके साथ बुरा व्यवहार किया गया है या घर में या कार्यस्थल पर नाराजगी का सामना करने के बाद सभाओं के दौरान अपनी भड़ास निकालते हैं। स्पष्ट रूप से वे भाई-बहनों को अपनी भड़ास निकालने का निकास द्वार और पंचिंग बैग बना रहे हैं। जब वे परेशान होते हैं तो बेतुकी दलीलें देते हैं, रोने लगते हैं और नखरे दिखाते हैं। फिर उनके साथ सत्य पर संगति करने की हिम्मत कौन करेगा? अगर उनके साथ संगति की जाए और कोई शब्द उनकी किसी दुखती रग को छेड़ दे तो वे आत्महत्या करने की धमकी देंगे। यह तो और भी ज्यादा परेशानी वाली बात होगी। ऐसे लोगों के साथ सामान्य संगति नहीं चलेगी; सामान्य बातचीत नहीं चलेगी; बहुत ज्यादा गर्मजोशी वाला या बहुत ज्यादा ठंडा व्यवहार दोनों ही नहीं चलेंगे; उनसे बचना नहीं चलेगा; बहुत ज्यादा पास जाना नहीं चलेगा; और अगर भाई-बहन उनकी खुशी से मेल खाने वाली खुशी व्यक्त नहीं करते हैं तो यह नहीं चलेगा; और जब इन लोगों का किसी कठिनाई से सामना होता है तो अगर भाई-बहन उनकी पीड़ा से मेल खाने वाली पीड़ा व्यक्त नहीं कर पाते है तो वह भी नहीं चलेगा। उनके साथ कुछ भी काम नहीं करता है। जो कुछ भी किया जाता है वह उन्हें चिढ़ा सकता है और उन्हें भड़का सकता है। उनके साथ चाहे कैसा भी व्यवहार किया जाए, वे कभी संतुष्ट नहीं होते हैं। यहाँ तक कि कुछ लोगों की दशाओं के बारे में मेरे धर्मोपदेश और संगति भी उन्हें भड़का सकती है। यह उन्हें कैसे भड़काती है? वे सोचते हैं, “क्या यह मुझे उजागर नहीं कर रहा है? तुमने मुझसे बातचीत भी नहीं की है और मैंने इस बारे में तुम्हें कुछ नहीं बताया है कि मैंने गुप्त रूप से क्या किया है। तुम्हें कैसे पता चल सकता है? जरूर किसी ने चुगली की होगी। मुझे यह पता लगाना होगा कि कौन तुम्हारे संपर्क में रहा है, किसने चुगली की है, किसने मेरी रिपोर्ट की है; मैं इसे यूँ ही जाने नहीं दूँगा!” इस प्रकार का व्यक्ति जो अविवेकी और जानबूझकर परेशान करने वाला होता है, उसके मन में किसी भी चीज के बारे में विकृत विचार हो सकते हैं और वह किसी भी चीज को सही तरीके से सँभाल नहीं पाता है। वह विवेक से परे होता है! तार्किकता उससे बिल्कुल परे होती है और सत्य तो वह बिल्कुल भी स्वीकार नहीं पाता है। उसके कलीसिया में रहने से कोई फायदा नहीं होता, बल्कि नुकसान ही होता है। वह बस एक रुकावट है, एक ऐसा बोझ है जिससे तेजी से छुटकारा पा लेना चाहिए; उसे तुरंत दूर कर दिया जाना चाहिए!
चीन में परमेश्वर में विश्वास रखने का परिणाम होता है बड़े लाल अजगर द्वारा उत्पीड़ित किया जाना और सताया जाना, और ऐसे बहुत से लोग हैं जिनका पीछा किया जाता है और वे घर नहीं जा पाते हैं। लेकिन कुछ लोग सताए जाने और घर लौटने में असमर्थ होने पर यह मानते हैं कि उन्होंने श्रेष्ठता या योग्यता अर्जित कर ली है। वे मेजबान परिवारों के साथ रहते हैं और लोगों से सिर्फ सेवा ही नहीं करवाते हैं—अगर कुछ भी उनकी इच्छा के खिलाफ होता है या उन्हें घर की याद आने लगती है तो वे हंगामा करना शुरू कर देते हैं, और दूसरों को उन्हें मनाना और बर्दाश्त करना पड़ता है। क्या ऐसे लोग अविवेकी और जानबूझकर परेशान करने वाले नहीं हैं? बहुत सारे लोग सताए जाते हैं और मेजबान परिवार बहुत सारे नहीं हैं। भाई-बहन प्रेम के कारण उन लोगों की मेजबानी करते हैं जो घर वापस नहीं लौट पाते हैं। वे उन्हें सड़कों पर भटकने नहीं देते हैं और उन्हें अपने घरों में रहने देते हैं। क्या यह परमेश्वर का अनुग्रह नहीं है? फिर भी, कुछ लोग न सिर्फ परमेश्वर के अनुग्रह की सराहना करने में विफल रहते हैं बल्कि भाई-बहनों का प्रेम देख पाने में भी विफल रहते हैं। वे दुखी हो जाते हैं और यहाँ तक कि शिकायत भी करते हैं और बेकाबू हो जाते हैं। भाई-बहनों के घरों में जीवनयापन की स्थितियाँ वास्तव में उसके अपने घर की तुलना में कुछ हद तक बेहतर होती है। विशेष रूप से परमेश्वर में विश्वास रखने और अपना कर्तव्य करने के लिहाज से भाई-बहनों के घरों में रहना अपने खुद के घर में रहने से भी बेहतर होता है और भाई-बहनों के साथ मिलजुलकर सहयोग करना हमेशा अकेले रहने से कहीं बेहतर होता है। भले ही कुछ क्षेत्रों में जीवनयापन की स्थितियों में थोड़ी कमी हो, फिर भी वे औसत जीवन स्तर के बराबर होती हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे भाई-बहनों के साथ रहने में, अक्सर इकट्ठा होने और परमेश्वर के वचन खाने-पीने में, ज्यादा सत्य समझने में और यह जानने में समर्थ होते हैं कि उनके अनुसरण के लक्ष्य क्या हैं। इसलिए जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं वे उस कीमत को चुकाने और उस कष्ट को सहने में समर्थ होते हैं। ज्यादातर लोग इसके प्रति सही रवैया रखते हैं; वे इसे परमेश्वर से स्वीकार करने में समर्थ होते हैं, यह जानते हैं कि वह कष्ट सार्थक है और इसे उन्हें सहना है। वे इसे सही नजरिए से देख पाते हैं। लेकिन कुछ अविवेकी, जानबूझकर परेशान करने वाले लोग जो बेकाबू हैं, वे बस चीजों को इस तरह से समझ ही नहीं पाते हैं। वे एक सप्ताह तक घर नहीं लौट पाना बड़ी मुश्किल से बर्दाश्त कर पाते हैं, लेकिन दो सप्ताह बाद वे तुनकमिजाज हो जाते हैं और एक या दो महीने पूरे होते-होते वे बेकाबू हो जाते हैं, कहते हैं, “ऐसा क्यों है कि तुम लोगों का परिवार खुशी से इकट्ठे रह सकता है और मैं अपने घर नहीं लौट सकता? मेरे पास आजादी क्यों नहीं है, जबकि तुम सभी अपनी मर्जी से आ-जा सकते हो?” दूसरे लोग जवाब देते हैं : “क्या यह बड़े लाल अजगर द्वारा सताए जाने के कारण नहीं है? क्या यही सही नहीं है कि हम परमेश्वर के अनुयायियों के रूप में इस तरह के कष्ट सहें? इस जरा-से कष्ट में क्या बड़ी बात है? इन परिस्थितियों को देखते हुए इसमें नखरेबाज होने की क्या बात है? अगर दूसरे लोग यह कष्ट सहन कर सकते हैं तो तुम क्यों नहीं कर सकते?” अविवेकी और जानबूझकर परेशान करने वाले लोग बिल्कुल भी कष्ट नहीं सहना चाहते हैं। अगर उन्हें पकड़कर जेल में डाल दिया जाए तो वे निश्चित रूप से यहूदा बन जाएँगे। एक मेजबान परिवार के साथ रहने में आखिर कितना कष्ट होता है? पहली बात, वह भोजन भी मानव का ही भोजन है; दूसरी बात, कोई भी जानबूझकर तुम्हारे लिए मुश्किलें खड़ी नहीं करता है; और तीसरी बात, कोई भी तुम्हें डराता-धमकाता नहीं है। बात बस इतनी है कि तुम अपने घर नहीं जा सकते और अपने परिवार के साथ नहीं रह सकते—और यह थोड़ा-सा कष्ट अविवेकी, जानबूझकर परेशान करने वाले लोगों को बिल्कुल अस्वीकार्य है। जब दूसरे लोग उनके साथ सत्य पर संगति करते हैं तो वे इसे स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं, लेकिन ऐसी बातें कहते हैं, “मुझे उन भव्य धर्म-सिद्धांतों के बारे में उपदेश मत दो। मैं तुमसे कम नहीं समझता; मुझे यह सब कुछ मालूम है! बस मुझे बताओ कि मैं घर कब जा सकता हूँ? बड़ा लाल अजगर मेरे घर की निगरानी करना कब बंद करेगा? मैं बड़े लाल अजगर द्वारा गिरफ्तार किए बगैर कब घर जा पाऊँगा? अगर मुझे यह नहीं पता है कि मैं कब घर जा सकता हूँ तो क्यों न मैं मर ही जाऊँ!” वे फिर से तमाशा करते हैं और ऐसा करते-करते वे जमीन पर बैठ जाते हैं, अपने पैर पटकते हैं—और जितना ज्यादा वे अपने पैर पटकते हैं, उतना ही अधिक क्रोधित होते जाते हैं और उनका अनियंत्रित गुस्सा भी फूट पड़ता है, जिसके साथ ही उनका रोना-पीटना शुरू हो जाता है। दूसरे लोग कहते हैं, “अपनी आवाज नीची रखो। अगर तुम ऐसा ही करते रहे और पड़ोसियों ने सुन लिया, उन्हें यह पता चल गया कि यहाँ बाहर के लोग रह रहे हैं तो इससे हम उजागर हो जाएँगे, है ना?” वे जवाब देते हैं, “मैं परवाह नहीं करता, मैं बस तमाशा करना चाहता हूँ! तुम सब घर जा सकते हो, लेकिन मैं नहीं जा सकता। यह उचित नहीं है! मैं ऐसा तमाशा करूँगा कि तुम लोग भी घर नहीं जा पाओगे, बिल्कुल मेरी तरह!” उनका बेकाबू गुस्सा कम नहीं होता है और उनका द्वेष बाहर आ जाता है; कोई भी उन्हें समझा नहीं सकता है, कोई भी उन्हें मना नहीं पाता है। जब उनका मिजाज थोड़ा ठीक हो जाता है तो वे शांत हो जाते हैं और तमाशा करना बंद कर देते हैं। लेकिन कौन जाने—किसी भी दिन, वे फिर से बेकाबू हो सकते हैं और तमाशा कर सकते हैं : उन्हें बस टहलने के लिए बाहर जाना होगा और आजाद रहना होगा और घर के अंदर जोर-जोर से बोलना होगा; वे लगातार घर जाने की साजिशें रचते रहेंगे। भाई-बहन उन्हें खबरदार करते हैं : “घर जाना बहुत ही जोखिम भरा है; पुलिस ने उस जगह को घेर रखा है और उस पर लगातार नजर रखे हुए है।” वे जवाब देते हैं, “मैं परवाह नहीं करता, मैं वापस जाना चाहता हूँ! अगर वे मुझे पकड़ लेते हैं तो पकड़ लें! इसमें क्या बड़ी बात है? सबसे बुरा यही होगा कि मैं बस एक यहूदा बन जाऊँगा!” क्या यह पागलपन नहीं है? (है।) वे खुलेआम कहते हैं कि वे यहूदा बनने के इच्छुक हैं। कौन उनकी मेजबानी करने की हिम्मत करेगा? क्या कोई यहूदा की मेजबानी करना चाहता है? (नहीं।) क्या ऐसा व्यक्ति परमेश्वर में विश्वासी है? भाई-बहन परमेश्वर में विश्वासी के रूप में उनकी मेजबानी करते हैं। अगर उनकी मानवता में कुछ हद तक कमी है तो उसे बर्दाश्त किया जा सकता है; सत्य का अनुसरण नहीं करना भी बर्दाश्त किया जा सकता है। लेकिन वे कलीसिया से विश्वासघात कर और यहूदा बनकर भाई-बहनों को नुकसान पहुँचाने और इस तरह बहुत से लोगों को अपने घर लौटने या सामान्य रूप से अपने कर्तव्य करने में असमर्थ बना देने में सक्षम हैं—कौन इन परिणामों का दोष अपने सिर ले सकता है? क्या तुम इस तरह के दुश्मन की मेजबानी करने की हिम्मत करोगे? क्या उसकी मेजबानी करना अपने लिए मुसीबत को न्योता देना नहीं है?
जो लोग अविवेकी और जानबूझकर परेशान करने वाले होते हैं, वे जब कार्य करते हैं, तो सिर्फ अपने हितों के बारे में सोचते हैं, और वही करते हैं जो उन्हें अच्छा लगता है। उनके शब्द ऊटपटाँग तर्कों और पाखंडों के अलावा और कुछ नहीं होते हैं और वे विवेक से अप्रभावित रहते हैं। उनके शातिर स्वभाव सारी हदें पार कर चुके हैं। खुद पर आपदा आमंत्रित करने के डर से कोई उनके साथ जुड़ने की हिम्मत नहीं करता और कोई उनके साथ सत्य के बारे में संगति करने को तैयार नहीं होता। दूसरे लोग जब भी अपने मन की बात उनसे कहते हैं तो बेचैन रहते हैं, वे डरते हैं कि अगर उन्होंने एक भी शब्द ऐसा कह दिया जो उन्हें पसंद या उनकी इच्छा के अनुरूप न हो, तो वे उसे लपक लेंगे और उसके आधार पर घोर आरोप लगा देंगे। क्या ऐसे लोग बुरे नहीं हैं? क्या वे जीते-जागते राक्षस नहीं हैं? बुरे स्वभाव और खराब विवेक वाले सभी लोग जीते-जागते राक्षस हैं। और जब कोई जीते-जागते राक्षस के साथ बातचीत करता है तो वह पल भर की लापरवाही से अपने ऊपर आपदा ला सकता है। अगर ऐसे जीते-जागते राक्षस कलीसिया में मौजूद हों तो क्या इससे एक बड़ी मुसीबत नहीं खड़ी हो जाएगी? (हो जाएगी।) अपनी भड़ास निकालने और गुस्सा उतारने के बाद ये जीते-जागते राक्षस कुछ देर के लिए एक इंसान की तरह बोल सकते हैं और माफी माँग सकते हैं, लेकिन बाद में वे नहीं बदलते। कौन जानता है कि कब उनका मूड खराब हो जाएगा और वे फिर से नखरे दिखाने लगेंगे, अपने ऊटपटाँग तर्क बकने लगेंगे। हर बार उनके नखरे दिखाने और भड़ास निकालने का लक्ष्य अलग होता है; और ठीक ऐसा ही उनकी भड़ास का स्रोत और पृष्ठभूमि होती है। यानी, कोई भी चीज उन्हें उकसा सकती है, कोई भी चीज उन्हें असंतुष्ट महसूस करवा सकती है, और कोई भी चीज उन्हें उन्मादी और अविवेकी तरीके से प्रतिक्रिया करने पर मजबूर कर सकती है। यह कितनी भयानक, कितनी तकलीफदेह बात है! ये विक्षिप्त बुरे लोग किसी भी समय पगला सकते हैं; कोई नहीं जानता कि वे क्या करने में सक्षम हैं। मुझे ऐसे लोगों से सबसे ज्यादा नफरत है। उनमें से हर एक का सफाया कर देना चाहिए—उन सभी को बाहर कर देना चाहिए। मैं उनके साथ जुड़ना नहीं चाहता। वे भ्रमित विचारों वाले और पाशविक स्वभाव के होते हैं, वे ऊटपटाँग तर्कों और शैतानी शब्दों से भरे होते हैं, और जब उनके साथ कोई अनहोनी होती है, तो वे प्रचंड रूप से इसके बारे में अपनी भड़ास निकालते हैं। भड़ास निकालते समय इनमें से कुछ लोग रोते हैं, दूसरे लोग चीखते-चिल्लाते हैं तो अन्य लोग अपने पैर पटकते हैं और यहाँ तक कि कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो अपने सिर हिलाते हैं और अपने हाथ-पैरों को हवा में लहराते रहते हैं। सीधे शब्दों में कहें तो वे जंगली जानवर हैं, इंसान नहीं। कुछ रसोइये अपना आपा खोते ही बर्तन और थालियाँ इधर-उधर फेंकने लगते हैं; दूसरे लोग, जो सूअर या कुत्ते पालते हैं, अपना आपा खोते ही इन जानवरों पर लात-घूँसे बरसाने लगते हैं और अपने गुस्से की सारी भड़ास उन पर निकालते हैं। ये लोग, चाहे कुछ भी हो जाए, हमेशा गुस्से से प्रतिक्रिया देते हैं; वे न तो चिंतन करने के लिए खुद को शांत करते हैं और न ही इसे परमेश्वर से आया मानकर स्वीकारते हैं। वे प्रार्थना नहीं करते हैं या सत्य नहीं खोजते हैं, और न ही वे दूसरों के साथ संगति की तलाश करते हैं। जब उनके पास कोई विकल्प नहीं होता तो वे सहते हैं; जब वे सहने के इच्छुक नहीं होते तो पागल हो जाते हैं, ऊटपटाँग तर्क बकते हैं, दूसरों पर आरोप लगाते हैं और उनकी निंदा करते हैं। वे अक्सर ऐसी बातें कहते हैं, “मुझे पता है कि तुम सभी पढ़े-लिखे हो और मुझे नीची नजर से देखते हो”; “मुझे पता है कि तुम लोगों के परिवार रईस हैं और तुम मुझे गरीब होने के कारण तुच्छ समझते हो”; या “मुझे पता है कि तुम लोग मुझे इसलिए तुच्छ समझते हो क्योंकि मेरी आस्था में ठोस आधार नहीं है और तुम लोग इसलिए मुझे तुच्छ समझते हो क्योंकि मैं सत्य का अनुसरण नहीं करता हूँ।” अपनी खुद की कई समस्याओं के बारे में स्पष्ट रूप से जानने के बावजूद वे कभी भी उन्हें सुलझाने के लिए सत्य की तलाश नहीं करते हैं और न ही वे दूसरों के साथ अपनी संगति में आत्म-ज्ञान पर चर्चा करते हैं। जब उनकी अपनी समस्याओं का जिक्र किया जाता है तो वे पलट जाते हैं और दोष किसी और के मत्थे मढ़ देते हैं, सभी समस्याएँ और जिम्मेदारियाँ दूसरों पर डाल देते हैं, और यहाँ तक कि यह शिकायत भी करते हैं कि उनके व्यवहार का कारण यह है कि दूसरे उनके साथ बुरा व्यवहार करते हैं। ऐसा लगता है जैसे उनके नखरे और बेतुके भड़कावे दूसरे लोगों के कारण हुए हैं, जैसे कि बाकी सभी दोषी हैं और उनके पास इस तरह से कार्य करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है—वे मानते हैं कि वे जायज तरीके से खुद का बचाव कर रहे हैं। वे जब भी असंतुष्ट होते हैं, तो अपनी नाराजगी की भड़ास निकालना और बकवास करना शुरू कर देते हैं, अपने ऊटपटाँग तर्कों पर ऐसे अड़े रहते हैं मानो बाकी सभी गलत हैं, वे दूसरों को खलनायक के रूप में चित्रित करते हैं और खुद को अकेला अच्छा व्यक्ति बताते हैं। चाहे वे कितने भी नखरे दिखाएँ या ऊटपटाँग तर्क क्यों न बकें, वे अपेक्षा करते हैं कि उनके बारे में अच्छी-अच्छी बातें कही जाएँ। जब वे गलत करते हैं, तब भी वे दूसरों को उन्हें उजागर करने या उनकी आलोचना करने से रोक देते हैं। अगर तुम उनके किसी मामूली मुद्दे की तरफ भी ध्यान दिलाते हो तो वे तुम्हें अंतहीन विवादों में फँसा देंगे और फिर तुम शांति से जीना तो भूल ही जाओ। यह किस किस्म का व्यक्ति है? यह अविवेकी और जानबूझकर परेशान करने वाला व्यक्ति है और जो लोग ऐसा करते हैं, वे बुरे लोग हैं।
जो लोग अविवेकी और जानबूझकर परेशान करने वाले होते हैं, हो सकता है वे आमतौर पर कोई अहम विश्वासघाती या बुरे कर्म न करें, लेकिन जैसे ही उनकी रुचियों, प्रतिष्ठा या गरिमा पर आँच आती है तो तुरंत उनका गुस्सा उबाल पर आ जाता है, वे झल्ला जाते हैं, बेकाबू होकर कार्य करते हैं और यहाँ तक कि आत्महत्या तक की धमकी देते हैं। मुझे बताओ, अगर ऐसा बेतुका और बेतुका अपरिष्कृत इंसान किसी परिवार में सामने आ जाए तो क्या पूरा परिवार कष्ट नहीं सहेगा? फिर घर-परिवार में खलबली मच जाएगी, चीखने-चिल्लाने का शोर भर जाएगा और जीना दूभर हो जाएगा। कुछ कलीसियाओं में ऐसे लोग होते हैं; हालाँकि सब-कुछ सामान्य होने पर हो सकता है यह स्पष्ट दिखाई न दे, फिर भी तुम्हें पता नहीं चलेगा कि ज्वालामुखी कब फटेगा और वे कब खुद को प्रकट कर देंगे। ऐसे लोगों की मुख्य अभिव्यक्तियों में शामिल होते हैं झल्लाहट दिखाना, बेमतलब की बहसबाजी करना, सार्वजनिक रूप से कसमें खाना, वगैरह-वगैरह। भले ही ये व्यवहार सिर्फ महीने में एक बार या हर छह महीने में एक बार दिखाई दें, फिर भी इनसे जबरदस्त संताप और कठिनाई पैदा होती है जिससे ज्यादातर लोगों के कलीसियाई जीवन में किसी-न-किसी हद तक बाधा उत्पन्न होती है। अगर यह सचमुच पक्का हो जाता है कि कोई व्यक्ति इस श्रेणी में है तो उससे मुस्तैदी से निपटना चाहिए और उसे कलीसिया से बाहर निकाल देना चाहिए। कुछ लोग कह सकते हैं, “ये लोग कोई बुरे काम नहीं करते। इन्हें बुरे लोग नहीं माना जा सकता; हमें उनके साथ सहनशील और धैर्यवान होना चाहिए।” मुझे बताओ, क्या ऐसे लोगों से न निपटना ठीक रहेगा? (नहीं, यह ठीक नहीं रहेगा।) क्यों नहीं? (क्योंकि उनके क्रियाकलापों से ज्यादातर लोगों को बहुत अधिक तकलीफ और खीझ होती है और साथ ही कलीसियाई जीवन भी बाधित होता है।) इस परिणाम के आधार पर यह स्पष्ट है कि जो लोग कलीसियाई जीवन को बाधित करते हैं, भले ही वे बुरे लोग या मसीह-विरोधी न हों, उन्हें कलीसिया में नहीं रहना चाहिए। क्योंकि ऐसे लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, बल्कि उससे विमुख होते हैं और वे चाहे जितने भी वर्ष परमेश्वर में विश्वास रखें या वे चाहे जितने भी धर्मोपदेश सुन लें, वे सत्य को स्वीकार नहीं करेंगे। एक बार जब वे कुछ बुरा करते हैं और उनकी काट-छाँट की जाती है तो वे झल्लाहट दिखाते हैं और बेकार की बातें उगलने लगते हैं। जब कोई उनके साथ सत्य पर संगति करता है तो भी वे इसे स्वीकार नहीं करते। कोई भी उनके साथ तर्क नहीं कर सकता। यहाँ तक कि जब मैं भी उनके साथ सत्य पर संगति करता हूँ तो हो सकता है कि वे बाहर से मौन रहें, लेकिन वे इसे अंदर से स्वीकार नहीं करते। वास्तविक स्थितियों का सामना होने पर भी वे हमेशा की ही तरह कार्य करते हैं। वे मेरे वचन नहीं सुनते, इसलिए तुम लोगों का परामर्श तो उनके लिए और भी कम स्वीकार्य होगा। हालाँकि ये लोग हो सकता है कोई बड़े बुरे कर्म न करें, फिर भी वे सत्य को लेशमात्र भी स्वीकार नहीं करते हैं। उनके प्रकृति सार को देखें तो न केवल उनमें अंतरात्मा और विवेक का अभाव है, बल्कि वे अविवेकी, जानबूझकर परेशान करने वाले और विवेक से अप्रभावित होते हैं। क्या ऐसे लोग परमेश्वर का उद्धार प्राप्त कर सकते हैं? बिल्कुल नहीं! जो लोग सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं कर सकते वे छद्म-विश्वासी होते हैं, वे शैतान के नौकर-चाकर हैं। जब चीजें उनके ढंग से नहीं होतीं, तो वे झल्लाते हैं, लगातार बेमतलब की बहसबाजी करते हैं और सत्य के बारे में चाहे जैसे संगति की जाए वे उसे नहीं सुनते। ऐसे लोग अविवेकी और जानबूझकर परेशान करने वाले होते हैं, विशुद्ध रूप से दानव और दुष्टात्मा होते हैं; वे जानवरों से भी बदतर होते हैं! वे असंतुलित विवेकवाले मानसिक रोगी होते हैं और कभी भी सच्चा प्रायश्चित्त करने में सक्षम नहीं होते हैं। वे कलीसिया में जितने लंबे समय तक रहते हैं, परमेश्वर के बारे में उतनी ही अधिक धारणाएँ पालते हैं, वे परमेश्वर के घर से उतनी ही ज्यादा अनुचित माँगें करते हैं और कलीसियाई जीवन को वे उतनी ही बड़ी बाधा और हानि पहुँचाते हैं। यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश और कलीसियाई कार्य की सामान्य प्रगति पर उतना ही ज्यादा असर डालता है। कलीसियाई कार्य को उनके द्वारा पहुँचाई जाने वाली हानि बुरे लोगों के मुकाबले कम नहीं होती; उन्हें कलीसिया से जल्दी ही बाहर निकाल देना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “क्या वे सिर्फ थोड़े-से बेकाबू नहीं हैं? वे बुरे होने की कगार पर नहीं पहुँचे हैं तो क्या यह बेहतर नहीं होगा कि उनसे प्रेम से पेश आया जाए? अगर हम उन्हें रखे रहें तो हो सकता है वे बदल जाएँ और उन्हें बचाया जा सके।” मैं तुमसे कहता हूँ, यह असंभव है! इस बारे में “हो सकता है” की कोई गुंजाइश नहीं है—इन लोगों को बिल्कुल भी बचाया नहीं जा सकता। क्योंकि वे सत्य को नहीं समझ सकते, उसे स्वीकार करना तो दूर की बात है; उनमें अंतरात्मा और विवेक का अभाव होता है, उनकी विचार प्रक्रियाएँ असामान्य होती हैं और उनमें अपने आचरण के लिए आवश्यक सबसे बुनियादी आम समझ का भी अभाव होता है। वे असंतुलित तर्कशक्ति वाले इंसान होते हैं। परमेश्वर ऐसे लोगों को नहीं बचाता है। यहाँ तक कि थोड़ी-सी ज्यादा सामान्य सोच और बेहतर काबिलियत वाले लोग भी अगर सत्य बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते हैं तो उन्हें भी बचाया नहीं जा सकता है, फिर उन लोगों की तो बात ही छोड़ दो जिनकी सूझ-बूझ खराब है। ऐसे लोगों के साथ अब भी प्रेम से पेश आना और उनके लिए उम्मीद बनाए रखना, क्या यह बहुत ही बेवकूफी और नासमझी भरा काम नहीं है? अब मैं तुम लोगों को यह बता रहा हूँ : अविवेकी, जानबूझकर परेशान करने वाले और उन लोगों को जिन पर तर्क का कोई असर नहीं होता, कलीसिया से दूर कर देना बिल्कुल सही है। यह कलीसिया और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के प्रति उनका उत्पीड़न मूल रूप से रोक देता है। यही अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी है। अगर किसी कलीसिया में ऐसे अविवेकी लोग हैं तो परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उनकी रिपोर्ट करनी चाहिए और एक बार जब अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ऐसी रिपोर्ट मिल जाती है तो उन्हें तुरंत ऐसे लोगों को सँभालना चाहिए। यह छठे प्रकार के लोगों को सँभालने का सिद्धांत है—जो अविवेकी और जानबूझकर परेशान करने वाले लोग हैं।
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