अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (26) खंड तीन
जब बेनकाब किए गए और निकाल दिए गए लोगों के प्रकार की बात आती है तो उनके विभिन्न बुरे कर्मों की अभिव्यक्तियाँ और साथ ही दैनिक जीवन में वे जो दुर्भावनापूर्ण शब्द और कथन प्रकट करते हैं, वे स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। और फिर भी कुछ अगुआ और कार्यकर्ता इन बुरे लोगों का यह भेद पहचानने में सक्षम नहीं होते हैं कि वास्तव में वे क्या हैं या वे उनके प्रकृति सार की असलियत नहीं पहचान पाते हैं। ये अगुआ और कार्यकर्ता इस बात से अनजान लगते हैं कि वे बुरे लोग और छद्म-विश्वासी हैं और इसलिए उनके पास उन्हें कलीसिया से दूर करने या उनके साथ उचित तरीके से निपटने की कोई योजना नहीं होती है। यह अगुआओं और कार्यकर्ताओं के तौर पर जिम्मेदारी की घोर अवहेलना है। वे आँखें फाड़कर यह ताकते रहते हैं कि कैसे ये राक्षसी प्रकृति के लोग परमेश्वर के घर के किसी भी नियम का पालन नहीं करते हैं, कि कैसे वे बेलगाम हो जाते हैं और बेहूदगी से कलीसिया के कार्य और कलीसियाई जीवन की व्यवस्था को बिगाड़ और छिन्न-भिन्न कर देते हैं; यहाँ तक कि जब ये लोग अपना कर्तव्य करने के नाम पर बेधड़क और लापरवाही से कार्य करते हैं, अराजक होकर व्यवहार करते हैं और परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाते हैं तो वे इन लोगों को तुष्ट भी करते हैं। परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाने में कई चीजें शामिल हैं : परमेश्वर के घर की मशीनरी और विभिन्न उपकरणों को नुकसान पहुँचाना, इसके विभिन्न कार्यालय के उपकरणों और सामान को नुकसान पहुँचाना, यहाँ तक कि परमेश्वर के चढ़ावों को अपनी मर्जी से लुटा देना, वगैरह। इससे भी गंभीर चीज यह है कि वे बेहूदगी से विभिन्न पाखंड और भ्रांतियाँ फैलाते हैं जिससे ऐसा विघ्न उत्पन्न होता है कि परमेश्वर के चुने हुए लोग शांति से अपने कर्तव्य नहीं कर पाते हैं, ऐसा विघ्न कि कमजोर और नकारात्मक लोग अपने कर्तव्यों का त्याग कर देते हैं और परमेश्वर का अनुसरण करने में आस्था खो देते हैं। ये बुरे लोग ये सब बुरी चीजें करते हैं, वे ये सब बुरे कर्म करते हैं जो कलीसिया के कार्य में बाधा डालते हैं और गड़बड़ करते हैं और भाई-बहनों को नुकसान पहुँचाते हैं, और फिर भी अगुआ और कार्यकर्ता आँखें मूँद लेते हैं, उनके कानों पर जूँ नहीं रेंगती; उनमें से कुछ तो यह तक कहते हैं, “मुझे पता नहीं चला, किसी ने मुझे बताया ही नहीं।” जानवरों और शैतानों के उस गिरोह ने कलीसिया में कहर बरपा दिया है, उथल-पुथल मचा दी है, फिर भी अगुआ और कार्यकर्ता इसके बारे में पूरी तरह से बेखबर और अनजान हैं! क्या वे कमीने नहीं हैं? उनके दिल कहाँ हैं? वे क्या कर रहे हैं? क्या वे सिर्फ बेकार की बकवास में नहीं लगे हुए हैं? क्या वे अपने उचित कार्यों के प्रति लापरवाह नहीं हो रहे हैं? हर रोज जब ऐसे नकली अगुआ कार्य कर रहे होते हैं तो सभी प्रकार के बुरे लोगों को कलीसिया में अँधाधुँध बाधा डालने और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाने के लिए एक दिन और मिल जाता है। क्योंकि नकली अगुआ अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं करते हैं, इसलिए जानवरों का वह गिरोह दिन भर निठल्ले होकर आवारागर्दी करता रहता है, कोई कर्तव्य नहीं निभाता है या किसी भी नियम का पालन नहीं करता है, परमेश्वर के घर से जीवनयापन का सामान जुटाता है, परमेश्वर के घर के विभिन्न भौतिक लाभों और कल्याण का बेझिझक आनंद उठाता है—वे जानबूझकर कलीसिया के कार्य में बाधा डालते हैं, परमेश्वर के घर की मशीनों और उपकरणों को नुकसान पहुँचाते हैं। वे इसी तरह से कार्य करते हैं और फिर भी वे आरामदायक जीवन जीने और परमेश्वर के घर में जो चाहे वही कर पाने की उम्मीद करते हैं, किसी को भी उन्हें परेशान करने या उकसाने की अनुमति नहीं है। यह बहुत ही गंभीर मुद्दा है, फिर भी अगुआ और कार्यकर्ता इसे टाल देते हैं, दूसरों द्वारा रिपोर्ट किए जाने पर भी इसे हल नहीं करते हैं—क्या वे ऐसा कचरा नहीं हैं जो कोई वास्तविक कार्य नहीं करता है? क्या यह जिम्मेदारी के प्रति गंभीर लापरवाही नहीं है? (है।) कुछ कहते हैं, “मैंने उस समस्या का समाधान इसलिए नहीं किया क्योंकि मैं दूसरे कार्य में व्यस्त था। मैं इसके लिए वास्तव में समय निकाल ही नहीं पाया!” क्या इस बात में दम है? अगर तुम इतनी गंभीर समस्या हल नहीं करते हो तो तुम किस चीज में इतने व्यस्त हो? क्या उन मामलों का कोई महत्त्व है जिनमें तुम व्यस्त हो? क्या तुम अपने काम की प्राथमिकताएँ तय करने में सक्षम हो? तुम कार्य में चाहे कितने भी व्यस्त क्यों न हो, क्या समस्याओं का समाधान करना सबसे महत्वपूर्ण नहीं होना चाहिए? कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी और बाधा पैदा करने वाले विभिन्न प्रकार के लोगों को तुरंत समझना और उनसे निपटना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी है। अगर तुम वास्तविक समस्याएँ दरकिनार कर अन्य मामलों में व्यस्त रहते हो तो क्या तुम वास्तविक कार्य कर रहे हो? अगर तुम्हें किसी समस्या का पता चलता है या कोई अन्य तुम्हें किसी समस्या की सूचना देता है तो तुम्हें फिलहाल चल रहे कार्य को एक तरफ रख देना चाहिए और तुरंत मौके पर जाना चाहिए और देखना चाहिए कि समस्या का स्रोत क्या है। अगर कोई बुरा व्यक्ति कलीसिया के कार्य में बाधा डाल रहा है और गड़बड़ी कर रहा है तो तुम्हें सबसे पहले उसे दूर कर देना चाहिए। उसके बाद दूसरी समस्याओं का समाधान करना आसान हो जाएगा। अगर तुम्हें किसी समस्या का पता चलता है और तुम उसे हल नहीं करते, यह दावा करते हो कि तुम बहुत व्यस्त हो तो क्या तुम वास्तव में पिंजरे में बंद गिलहरी की तरह यहाँ-वहाँ दौड़ नहीं कर रहे? आखिर तुम किस चीज में इतने व्यस्त हो? क्या यह वास्तविक कार्य है? क्या तुम इसे स्पष्ट रूप से समझा सकते हो? क्या तुम्हारे कारणों और बहानों में दम है? तुम समस्याएँ हल करने को महत्वहीन क्यों समझते हो? तुम समय पर समस्याओं का समाधान क्यों नहीं करते हो? तुम बहाने क्यों ढूँढ़ते हो और जैसे-तैसे चीजों से अपनी जान छुड़ा लेते हो, कहते हो कि तुम इतने व्यस्त हो कि उनका ध्यान नहीं रख पाओगे? क्या यह गैर-जिम्मेदार होना नहीं है? कलीसिया में एक अगुआ के रूप में समस्याओं के समाधान को प्राथमिकता नहीं देना, खुद को विभिन्न तुच्छ मामलों में व्यस्त रखना, अत्यंत गंभीर समस्याओं का अस्तित्व पहचानने में विफल होना, कार्य में महत्व और तात्कालिकता को पहचानने में असमर्थ होना और अत्यंत महत्वपूर्ण बिंदुओं को समझने में असमर्थ होना—ये बहुत ही ज्यादा खराब काबिलियत की अभिव्यक्तियाँ हैं और ऐसा व्यक्ति गड़बड़ी फैलाने वाला व्यक्ति है। तुम चाहे कितने ही वर्षों से अगुआ रहे हो, तुम कलीसिया के कार्य का अच्छी तरह से निर्वहन करने में समर्थ नहीं हो। तुम्हें जवाबदेही स्वीकार कर इस्तीफा दे देना चाहिए। अगर किसी अगुआ की काबिलियत बहुत ही ज्यादा खराब है तो कोई भी प्रशिक्षण बेकार है; वह निश्चित रूप से कोई भी कार्य पूरा करने में असमर्थ होगा—वह एक नकली अगुआ है जिसे बर्खास्त किया जाना चाहिए और दूसरा कर्तव्य दिया जाना चाहिए। जब नकली अगुआ कार्य कर रहे हों तो क्या दुष्परिणाम होते हैं? वस्तुगत रूप से कहा जाए तो नकली अगुआ जो कुछ भी करते हैं उससे कलीसिया को बहुआयामी नुकसान होते हैं। एक चीज तो यह है कि कलीसिया का अनिवार्य कार्य ठीक से नहीं किया जाता है जिससे कलीसिया के कार्य की विभिन्न मदों की प्रभावशीलता में सीधे बाधा आती है। साथ ही यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश को भी नुकसान पहुँचाता है और प्रभावित करता है। सबसे महत्वपूर्ण रूप से यह स्वर्ग के राज्य का सुसमाचार फैलाने को प्रभावित करता है। ये सभी परिणाम नकली अगुआओं द्वारा वास्तविक कार्य नहीं करने से सीधे संबंधित हैं। इसे और स्पष्ट रूप से कहा जाए तो ये सभी नकली अगुआओं द्वारा वास्तविक कार्य में शामिल नहीं होने के कारण होते हैं। अगर दूसरे अगुआ और कार्यकर्ता सक्रिय रूप से कुछ वास्तविक कार्य में शामिल हो पाएँ, रफ्तार में तेजी ला पाएँ और समस्याओं के समाधान में लगने वाले समय को कम कर पाएँ तो क्या नकली अगुआओं द्वारा परमेश्वर के घर को पहुँचाए गए विभिन्न नुकसान कुछ हद तक कम नहीं हो जाएँगे? कम-से-कम उनमें कमी तो लाई जा सकती है। भले ही परमेश्वर के घर की यह अपेक्षा न हो कि तुम समस्याएँ उत्पन्न होते ही उन्हें तुरंत सँभालो लेकिन कम-से-कम एक बार जब समस्याओं की सूचना दे दी जाती है तो तुम्हें उनका समाधान तुरंत शुरू कर देना चाहिए : भाई-बहनों से स्थिति पता करो और समस्याएँ सुलझाने के तरीके पर दूसरे अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साथ चर्चा और संगति करो। अगर मुद्दा गंभीर है और तुम्हें नहीं पता है कि इसे कैसे हल करना है तो तुम्हें तुरंत इसकी रिपोर्ट ऊपर कर देनी चाहिए और समाधान खोजने चाहिए। सभी अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यही हासिल करना चाहिए। लेकिन मौजूदा समस्या यह है कि भले ही ये अगुआ और कार्यकर्ता समस्याएँ सुलझा नहीं पाएँ, वे इनकी सूचना ऊपर नहीं देते हैं। वे अपनी खुद की अयोग्यता, बहुत ही ज्यादा खराब काबिलियत और वास्तविक कार्य करने में अपनी असमर्थता प्रकट हो जाने के डर से ऊपर सूचना देने से बहुत डरते हैं; वे बर्खास्त किए जाने के बारे में चिंतित रहते हैं। फिर भी वे कार्य करने की पहल नहीं करते हैं; वे मंदबुद्धि और जड़ हैं और कार्य करने में धीमे हैं। समस्याएँ सुलझाने के किसी मार्ग के बिना वे बस जैसे-तैसे आगे बढ़ते रहते हैं जिससे बहुत सारे अनसुलझे मुद्दों का एक ढेर लग जाता है और इससे बुरे लोगों को अवसर मिल जाते हैं। इस समय यह देखकर कि नकली अगुआ नाकारा हैं, वे बुरे लोग और वे महत्वाकांक्षी लोग बेहूदगी से बुरे कर्म करने के मौके का फायदा उठाते हैं, जिससे कलीसिया अराजकता और गड़बड़ी में डूब जाती है, कार्य के सभी पहलू ठप पड़ जाते हैं। वैसे तो नकली अगुआओं को प्राथमिक जिम्मेदारी लेनी चाहिए लेकिन दूसरे अगुआओं और कार्यकर्ताओं ने भी अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं की होती हैं। क्या यह अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा जिम्मेदारी के प्रति गंभीर लापरवाही नहीं है? दरअसल कलीसिया में उत्पन्न होने वाली ज्यादातर समस्याएँ बुरे लोगों और छद्म-विश्वासियों द्वारा उत्पन्न की गई बाधाओं से सीधे संबंधित हैं। अगर अगुआ और कार्यकर्ता तुरंत समस्याओं की जड़ पहचान नहीं पाते हैं, समस्याएँ उत्पन्न करने वाले मुख्य अपराधियों को ढूँढ़ नहीं पाते हैं और हमेशा कारणों की तलाश कहीं और करते रहते हैं तो फिर वे समस्याओं को मूल रूप से सुलझाने में समर्थ नहीं होंगे और भविष्य में समस्याएँ लगातार उभरती रहेंगी। अगर परेशानी उत्पन्न करने वालों या पर्दे के पीछे समस्याएँ उत्पन्न करने वालों को पकड़ लिया जाता है और सीधे जवाबदेह ठहराया जाता है तो समस्याओं से निपटने का यह तरीका सबसे प्रभावी है। कम-से-कम, इससे यह सुनिश्चित होता है कि वे छद्म-विश्वासी और बुरे लोग वहशियों जैसा व्यवहार करना और गड़बड़ियाँ और बाधाएँ उत्पन्न करना जारी रखने की हिम्मत नहीं करेंगे। क्या अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यही हासिल नहीं करना चाहिए? (हाँ।) यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि कलीसिया की समस्याओं की संख्या में जो वृद्धि हो रही है और समय पर उन्हें हल नहीं किया जा रहा है, उसका मुख्य कारण अगुआओं और कार्यकर्ताओं का गैर-जिम्मेदार होना है या ऐसा इसलिए है क्योंकि झूठे अगुआओं में सत्य वास्तविकता की कमी है और वे वास्तविक कार्य नहीं कर सकते हैं। अगर अगुआ और कार्यकर्ता कलीसिया में उत्पन्न होने वाली विभिन्न समस्याएँ नहीं सुलझा सकते हैं तो निश्चित रूप से वे अपने पदों में निहित कार्य नहीं कर सकते हैं। ऐसी कई परिस्थितियाँ और कारण हैं जिन्हें यहाँ स्पष्ट रूप से समझा जाना चाहिए : अगर अगुआ और कार्यकर्ता अनुभवहीन नौसिखिए हैं तो उनकी धैर्यपूर्वक मदद की जानी चाहिए, उन्हें समस्याएँ सुलझाने के लिए और समस्याएँ सुलझाने की प्रक्रिया में कुछ चीजें सीखने और सत्य सिद्धांतों को समझने के लिए प्रेरित करना चाहिए। इस तरह से वे धीरे-धीरे समस्याएँ सुलझाना सीख जाएँगे। अगर अगुआ और कार्यकर्ता सही लोग नहीं हैं, वे सत्य स्वीकार करने से पूरी तरह से इनकार करते हैं और इसके बजाय समस्याएँ सुलझाने के लिए अविश्वासियों के नजरिये और तरीकों का उपयोग करते हैं तो यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है। ऐसे लोग अगुआ और कार्यकर्ता बनने के लिए उपयुक्त नहीं हैं और उन्हें समय पर बर्खास्त कर देना चाहिए और निकाल देना चाहिए; फिर उपयुक्त अगुआ और कार्यकर्ता चुनने के लिए दोबारा चुनाव करवाना चाहिए। सिर्फ इसी तरीके से समस्या पूरी तरह से सुलझ सकती है। कलीसियाई अगुआ बनना कोई आसान काम नहीं है और यह अवश्यंभावी है कि कुछ समस्याएँ सँभाली नहीं जा सकती हैं। लेकिन अगर किसी में सूझ-बूझ है तो जब उसे ऐसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है जिन्हें वह सुलझा नहीं सकता है तो उसे ये समस्याएँ छिपानी या दबानी नहीं चाहिए और उन्हें नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। इसके बजाय उसे ऐसे कई लोगों से सलाह लेनी चाहिए जो सत्य समझते हैं ताकि सामूहिक रूप से समाधान ढूँढ़ा जा सके, जिससे सत्तर से अस्सी प्रतिशत समस्याएँ हल हो सकती हैं और कम-से-कम कुछ समय के लिए प्रमुख मुद्दों को उत्पन्न होने से रोका जा सकता है। यह एक व्यवहार्य मार्ग है। अगर समस्याएँ सही मायने में सुलझाई नहीं जा सकती हैं तो व्यक्ति को ऊपरवाले से समाधान माँगने चाहिए जो कि एक समझदारी भरा विकल्प है। अगर तुम इसलिए समस्याएँ छिपाते हो और उनकी सूचना नहीं देते हो क्योंकि तुम्हें शर्मिंदा होने का डर है या यह डर है कि ऊपरवाला अयोग्यता के लिए तुम्हारी काट-छाँट करेगा तो यह पूरी तरह से निष्क्रिय होना है। अगर तुम एक जड़, मंदबुद्धि बेवकूफ व्यक्ति की तरह कार्य करते हो और इस बारे में भ्रमित हो कि क्या करना है तो इससे मामलों में देरी होगी। ऐसी परिस्थितियाँ बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों को आसानी से अवसर प्रदान करती हैं, उन्हें कार्य करने के लिए अराजकता का फायदा उठाने देती हैं। ऐसा क्यों कहते हैं कि वे कार्य करने के लिए अराजकता का फायदा उठाते हैं? क्योंकि वे बिल्कुल इसी अवसर की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं। जब अगुआ और कार्यकर्ता कोई भी समस्या सँभालने में असमर्थ होते हैं और परमेश्वर के चुने हुए लोग चिंतित और बेचैन महसूस कर रहे होते हैं और पहले से ही उन पर भरोसा खो चुके होते हैं तो बुरे लोग और मसीह-विरोधी इस फासले का फायदा उठाने का प्रयास करते हैं। उन्हें लगता है कि कलीसिया में अगुवाई या प्रबंधन के अभाव की स्थिति है। वे अपनी क्षमताओं का दिखावा करने के लिए इस मौके का उपयोग करना चाहते हैं ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोग उनका सम्मान करें, उनका समर्थन करें और यह विश्वास करें कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं की तुलना में उनकी काबिलियत बेहतर है, वे समस्याएँ सुलझाने और बाहर निकलने का रास्ता दिखाने में ज्यादा सक्षम हैं और अराजकता के बीच बेहतर तरीके से हवा का रुख मोड़ सकते हैं। क्या यह वही चीज नहीं है जो बुरे लोग और मसीह-विरोधी सबसे ज्यादा करना चाहते हैं? इस समय जब अगुआ और कार्यकर्ता शक्तिहीन होते हैं और बुरे लोग और मसीह-विरोधी उठ खड़े होते हैं और समस्याएँ सुलझाते हैं, यहाँ तक कि वे बाहर निकलने का रास्ता भी दिखाते हैं तो परमेश्वर के चुने हुए लोग किस पर विश्वास करेंगे? स्वाभाविक रूप से वे बुरे लोगों पर और मसीह-विरोधियों की शक्तियों पर विश्वास करेंगे। इससे क्या पता चलता है? इससे पता चलता है कि अगुआ और कार्यकर्ता नाकारा हैं और कुछ भी हासिल नहीं करते हैं, महत्वपूर्ण क्षणों में विफल हो जाते हैं। क्या ऐसे लोग अब भी अगुआ और कार्यकर्ता होने के योग्य हैं? वैसे तो मसीह-विरोधियों में सत्य वास्तविकता की कमी होती है और वे वास्तविक कार्य नहीं कर सकते हैं लेकिन उन सभी के पास अलग-अलग मात्रा में कुछ खूबियाँ होती हैं और वे बाहरी मामलों में अपेक्षाकृत अधिक चतुर होते हैं जो वास्तव में उनके लिए लाभ की स्थिति है और इसी से वे लोगों को गुमराह कर सकते हैं। लेकिन अगर वे अगुआ और कार्यकर्ता बन जाते तो क्या वे वाकई परमेश्वर के चुने हुए लोगों की समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य का उपयोग कर पाते? क्या वे सही मायने में परमेश्वर के चुने हुए लोगों को परमेश्वर के वचन खाने-पीने, सत्य समझने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए प्रेरित कर पाते? बिल्कुल नहीं। वैसे तो उनके पास कुछ खूबियाँ हैं और वे वाक्पटु हैं लेकिन उनमें किसी भी तरह की सत्य वास्तविकता नहीं है। क्या वे कलीसिया के अगुआ और कार्यकर्ता बनने के लिए उपयुक्त हैं? बिल्कुल नहीं! यह कुछ ऐसा है जिसकी असलियत परमेश्वर के चुने हुए लोगों को पहचाननी चाहिए; उन्हें कभी भी बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों द्वारा गुमराह नहीं होना चाहिए या उनके फुसलाव में नहीं आना चाहिए। छद्म-विश्वासी, कुकर्मी और मसीह-विरोधी बिल्कुल भी सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं और उनके पास रत्ती भर सत्य वास्तविकता नहीं है। तो मुझे बताओ, क्या वे जमीर और विवेक से कुछ कह सकते हैं, जैसे कि “भले ही अभी कलीसिया में कोई प्रभारी न हो लेकिन हमें अपनी सूझ-बूझ का उपयोग करके कार्य करना चाहिए। परमेश्वर के घर के विनियम तोड़े नहीं जा सकते हैं, परमेश्वर के घर द्वारा अपेक्षित सिद्धांत बदले नहीं जा सकते हैं। हमें वही करना चाहिए जो हमें करना चाहिए; हर किसी को अपने कर्तव्य अपेक्षित रूप से करते रहना चाहिए, अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करते रहना चाहिए और व्यवस्था में बाधा नहीं डालनी चाहिए”? क्या वे ऐसा कुछ कह सकते हैं? (नहीं।) बिल्कुल नहीं! ये छद्म-विश्वासी और कुकर्मी क्या क्रियाकलाप करेंगे? निरीक्षण और पर्यवेक्षण के बिना वे अपने कर्तव्य भी नहीं करते हैं, खाने-पीने, खेलने और मौज-मस्ती करने में लिप्त रहते हैं, बेकार की बकवास करने में, हँसी-ठिठोली करने में और यहाँ तक कि इश्कबाजी करने में लगे रहते हैं। कुछ लोग पूरी रात अविश्वासी दुनिया के वीडियो देखते हुए बिताते हैं, फिर कामचोरी करने और बहुत ज्यादा सोने के लिए देर रात तक अपना कर्तव्य करने के बहाने का उपयोग करते हैं। ये कुकर्मियों के क्रियाकलाप हैं जो दानवों की श्रेणी के हैं। क्या ये बुरे कर्म करते हुए उन्हें कोई अपराधबोध होता है? क्या उनका जमीर अचानक जाग उठेगा और वे कुछ मानवीय जिम्मेदारियाँ पूरी करने और परमेश्वर के घर, कलीसिया और भाई-बहनों के लिए कुछ फायदेमंद करने की पहल करेंगे? बिल्कुल नहीं। जब कोई देख रहा होता है तो वे एक वक्त की रोटी का जुगाड़ करने के लिए अनिच्छा से कुछ ऐसा कार्य करते हैं जिससे वे अच्छे दिखते हैं। यही एकमात्र चीज है जो वे कर सकते हैं; इसके अलावा इन लोगों में एक भी ऐसी विशेषता नहीं होती है जो इन्हें मुक्ति दिला सके। तो क्या इन लोगों का परमेश्वर के घर में ठहरने का कोई अर्थ है? इसका कोई अर्थ नहीं है। ऐसे लोग अनावश्यक हैं और उन्हें दूर कर दिया जाना चाहिए।
तुम यह कैसे मापते हो कि कोई व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है या नहीं? मैं तुम लोगों को समझाने के लिए एक मिसाल देता हूँ। कुछ लोग किसी पेशे से जुड़े होते हैं और वे जितना ज्यादा सीखते हैं, जितना ज्यादा अपना अध्ययन आगे बढ़ाते हैं, जितना ज्यादा समझते हैं, उतना ही ज्यादा वे इसमें जुटने के इच्छुक होते हैं और उतना ही कम वे यह पेशा छोड़ने के इच्छुक होते हैं। यह किस तरह की अभिव्यक्ति है? क्या इसका अर्थ यह है कि उन्हें यह पेशा सही मायने में पसंद है? (हाँ।) वे चाहे कितने भी कष्ट क्यों न सहें, चाहे कीमत कुछ भी हो, वे चाहे कितनी भी मेहनत क्यों न करें, वे बिना किसी पछतावे के, बिना डगमगाए, इस पेशे में बने रहते हैं। यही सच्चा स्नेह है, एक गहरी, दिली पसंद है। मान लो कि कोई व्यक्ति कोई खास कार्य पसंद करने का दावा करता है लेकिन पेशेवर कौशल सीखने की प्रक्रिया के दौरान कष्ट सहने या कीमत चुकाने का इच्छुक नहीं है और जब कार्यस्थल पर कई समस्याएँ उत्पन्न होती हैं तो वह समाधान नहीं ढूँढ़ता है, मुसीबत खड़ी होने से डरता है और यहाँ तक कि वह अक्सर यह महसूस करता है कि इस पेशे में बने रहना एक झंझट या बोझ है। लेकिन पेशा बदलना आसान नहीं है और वह इस पेशे से मिल सकने वाले भौतिक फायदों को ध्यान में रखकर अनिच्छा से इसमें बना रहता है लेकिन वह इस पेशे में कभी भी अपनी अलग पहचान नहीं बना पाता है। तो क्या उसे यह पेशा सही मायने में पसंद है? (नहीं।) जाहिर है कि उसे यह पेशा पसंद नहीं है। एक दूसरे प्रकार का व्यक्ति होता है जो किसी विशेष पेशे के लिए मौखिक रूप से लगाव व्यक्त करता है और उसमें शामिल रहता है लेकिन अच्छी तरह से पेशेवर कौशल सीखने के लिए कभी भी कष्ट नहीं सहता है या कीमत नहीं चुकाता है। सीखने की प्रक्रिया के दौरान उसके मन में पेशे के प्रति अरुचि या नफरत भी विकसित हो सकती है जिससे वह सीखने के प्रति लगातार अनिच्छुक होता जाएगा। जब उसकी अरुचि एक खास स्तर पर पहुँच जाती है तो वह अपना पेशा बदल लेता है और उसके बाद वह उस पेशे से जुड़े रहने के समय की किसी भी प्रक्रिया, कहानी या किसी दूसरी चीज का जिक्र करने का अनिच्छुक होता है। क्या ऐसे लोग सही मायने में इस पेशे को पसंद करते हैं? (नहीं।) वे उसे पसंद नहीं करते हैं। वे आसानी से इस पेशे में विश्वास खो सकते हैं और उसके प्रति नफरत महसूस कर सकते हैं और यहाँ तक कि अपना पेशा भी बदल सकते हैं जिससे साबित होता है कि उन्हें यह पेशा सही मायने में पसंद नहीं है। वे यह पेशा इसलिए छोड़ सकते हैं क्योंकि बहुत सारा समय, ऊर्जा और लागत लगाने के बाद भी इस पेशे ने उन्हें वह संपन्न जीवन नहीं जीने दिया जिसकी उन्हें चाहत थी या अच्छी भौतिक चीजों का आनंद नहीं लेने दिया। वे अपने दिल में इस पेशे से विमुख हो जाते हैं और उसे कोसते हैं, यहाँ तक कि दूसरों को भी इसका जिक्र करने से मना करते हैं, खुद भी अब इसका जिक्र नहीं करते हैं और यहाँ तक कि इससे पहले इस पेशे से जुड़े होने और इसे अपनी आकांक्षा और जीवन में अनुसरण करने के लिए सर्वोच्च लक्ष्य मानने के लिए शर्मिंदगी भी महसूस करते हैं। वे जिस हद तक इस पेशे से विमुख हो सकते हैं उसे देखते हुए, क्या इस पेशे के प्रति उनके शुरुआती लगाव का प्रदर्शन सच्चा था? (नहीं।) सिर्फ एक ही प्रकार का व्यक्ति है जो सही मायने में इस पेशे को पसंद करता है—वह पेशा चाहे उसे एक अच्छा भौतिक जीवन या पर्याप्त फायदे प्रदान करे या न करे और वह इस पेशे में चाहे कितनी भी कठिनाइयों का सामना करे या कितना भी कष्ट सहे, वह इसमें अंत तक बिना डगमगाए डटा रह सकता है। यही सच्चा लगाव है। यही बात इस पर भी लागू होती है कि क्या कोई व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है। अगर तुम सही मायने में सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हो, सकारात्मक चीजों से प्रेम करने से आगे बढ़कर सत्य से प्रेम करते हो तो चाहे तुम्हें किसी भी परिस्थिति का सामना क्यों न करना पड़े, तुम बिना अपने जीवन का लक्ष्य बदले सत्य खोजने और उसका अनुसरण करने में डटे रहोगे। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास रखना यूँ ही छोड़ सकते हो और उद्धार के मार्ग का त्याग कर सकते हो तो यह सही मायने में सत्य से प्रेम करना नहीं है। जहाँ तक उन लोगों का प्रश्न है जो सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं लेकिन हार भी नहीं मानते हैं, उनकी दृढ़ता का सिर्फ एक ही कारण है : वे सोचते हैं कि जब तक एक अच्छे परिणाम और गंतव्य की, एक अच्छे भविष्य की आशा की किरण मौजूद है तब तक यह दाँव लगाने योग्य है और उन्हें अंत तक दृढ़ रहना चाहिए। वे मानते हैं कि यह दृढ़ता जरूरी है; संयोग से ऐसा है कि आपदाएँ बढ़ रही हैं और जाने के लिए कोई और जगह नहीं है, इसलिए क्यों न वे यहीं प्रयास करना जारी रखें और अपनी किस्मत आजमाएँ। क्या ऐसे लोगों के दिलों में सत्य के लिए रत्ती भर भी प्रेम है? (नहीं।) उनके दिल में सत्य के लिए प्रेम नहीं है। जब वे पहली बार परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करते हैं तो ये लोग दुनिया से नफरत करने, शैतान से नफरत करने, नकारात्मक चीजों से नफरत करने, सकारात्मक चीजों से प्रेम करने और प्रकाश के लिए तरसने की बात भी करते हैं। लेकिन परमेश्वर के घर में, कलीसिया में कदम रखने पर उनका व्यवहार कैसा होता है? जब उन्हें पता चलता है कि वे श्रमिक हैं, जब उन्हें एहसास होता है कि उनके क्रियाकलाप, व्यवहार और प्रकृति परमेश्वर को नाखुश करते हैं तो उनका रवैया क्या होता है? वे किस तरह के व्यवहार प्रदर्शित करते हैं? यह कहा जा सकता है कि जब उन्हें आभास होता है, वे महसूस करते हैं या सोचते हैं कि परमेश्वर के घर में अब वे कृपापात्र नहीं हैं, वे निकाल दिए जाने वाले हैं तो कुछ लोग चले जाने का फैसला करते हैं। वैसे तो दूसरे लोग अनिच्छा से कलीसिया में रहते हैं लेकिन वे मायूसी में डूब जाते हैं और अंत में वहाँ से चले जाने पर मजबूर हो जाते हैं। ऐसे लोग सत्य से बिल्कुल भी प्रेम नहीं करते हैं; जब आशीषों की उनकी इच्छा चूर-चूर हो जाती है तो वे परमेश्वर के साथ विश्वासघात कर सकते हैं और उससे मुँह फेर सकते हैं। ये विभिन्न अभिव्यक्तियाँ सत्य के प्रति विभिन्न लोगों के रवैये दर्शाती हैं।
IV. इन तीन प्रकार के लोगों के अलग-अलग परिणाम
अभी-अभी हमने तीन प्रकार के लोगों की विशेषताओं के बारे में संगति की : श्रमिक, भाड़े के कार्यकर्ता और परमेश्वर के लोग। उनकी विशेषताओं से यह स्पष्ट है कि उनके अंतिम परिणाम वस्तुनिष्ठ परिवेशों या परिस्थितियों से नहीं, बल्कि उनके अपने अनुसरणों और उनके प्रकृति सार से निर्धारित होते हैं। यकीनन वस्तुनिष्ठ रूप से कहा जाए तो परमेश्वर ही लोगों की किस्मतें निर्धारित करता है लेकिन परमेश्वर ये निर्धारण इस आधार पर करता है कि क्या लोग सत्य से प्रेम करते हैं और क्या वे सत्य स्वीकारने में समर्थ हैं। श्रमिक भी सत्य और सकारात्मक चीजों से प्रेम करने की घोषणा करते हैं लेकिन अंत में जब परमेश्वर का कार्य समाप्त होता है तो परमेश्वर के बारे में उनकी धारणाएँ और कल्पनाएँ, परमेश्वर से उनकी अनुचित माँगें और परमेश्वर के साथ उनका विश्वासघात पहले जैसा ही बना रहेगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर के कार्य की अवधि के दौरान, परमेश्वर का अनुसरण करने और अपने कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में उन्होंने कभी भी अपने भ्रष्ट स्वभाव हल नहीं किए होंगे। उनके द्वारा अपने भ्रष्ट स्वभाव न सुलझाने का मूल कारण यह है कि वे मूल रूप से सत्य स्वीकार नहीं करते हैं। वैसे तो उनमें परमेश्वर के प्रति समर्पण करने की इच्छा है लेकिन वे सही मायने में जो अभिव्यक्त करते हैं वह सिर्फ त्याग करने की क्षमता और कीमत चुकाने की इच्छा भर है, वे कभी भी सत्य सिद्धांतों या परमेश्वर के प्रति समर्पण के तरीके की तलाश नहीं करते हैं। अंतिम नतीजा यह है कि अत्यधिक प्रयास करने के बावजूद उन्हें परमेश्वर का रत्ती भर भी ज्ञान नहीं होता है। वे अब भी परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने और दूसरे लोगों और शैतान के सामने उसके बारे में अपनी धारणाएँ और कल्पनाएँ और उससे अपनी अनुचित माँगें व्यक्त करने में सक्षम होते हैं। जब परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाता है तब भी वे खुद को “अच्छी मानवता वाले, परमेश्वर में सच्चा विश्वास रखने वाले, त्याग करने और कष्ट सहने में समर्थ और यकीनन बचाए जाने में समर्थ” ही मानते हैं और वे इससे शांति महसूस करते हैं। वास्तव में वे हमेशा एक श्रमिक के मार्ग पर चले हैं, उन्होंने सत्य का अनुसरण कभी नहीं किया है; इस प्रकार वे हमेशा एक श्रमिक की पहचान बनाए रखते हैं। जहाँ तक लोगों की दूसरी श्रेणी, भाड़े के कार्यकर्ताओं का प्रश्न है, हम उन पर चर्चा नहीं करेंगे। एक और श्रेणी में परमेश्वर के लोग हैं जिनका हमने अभी-अभी जिक्र किया। परमेश्वर का अनुसरण करने के दौरान वे श्रमिकों की तरह ही उसके लिए खुद को खपाते हैं, अपना समय और ऊर्जा और यहाँ तक कि अपनी जवानी भी समर्पित कर देते हैं और अत्यधिक कष्ट सहते हैं और अत्यधिक कीमत चुकाते हैं। यह श्रेणी श्रमिकों के समान ही है। तो फिर अलग क्या है? अलग यह है कि जब परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाएगा तो उनकी बहुत सारी धारणाएँ, कल्पनाएँ और परमेश्वर से अनुचित माँगें सुलझ चुकी होंगी। उनके भ्रष्ट स्वभावों में परमेश्वर का स्पष्ट रूप से प्रतिरोध करने वाली भ्रष्टता की अभिव्यक्तियाँ, दशाएँ और खुलासे छोड़े जा चुके होंगे। जो अभी तक हल नहीं हुए हैं वे अनुभव के माध्यम से धीरे-धीरे सत्य समझने के साथ मिटने लगेंगे। वैसे तो उनके भ्रष्ट स्वभाव पूरी तरह से छोड़े नहीं गए होंगे लेकिन उनके जीवन स्वभावों में कुछ बदलाव आ चुके होंगे। ज्यादातर समय वे उन सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने में समर्थ होंगे जिन्हें वे समझते हैं और उनके भ्रष्ट स्वभावों के खुलासे काफी कम हो चुके होंगे। वैसे तो ऐसा नहीं है कि वे किसी भी परिवेश में उन्हें प्रकट नहीं करेंगे लेकिन ये लोग एक मूलभूत अपेक्षा पूरी कर चुके होंगे : वे परमेश्वर की यह अपेक्षा पूरी कर चुके होंगे कि वे ईमानदार रहेंगे; वे मूल रूप से ईमानदार लोग होंगे। इसके अलावा जब ये लोग भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करेंगे या अपराध करेंगे या मन में परमेश्वर के खिलाफ धारणाएँ और विद्रोह रखेंगे तो चाहे वे किसी भी परिवेश में ऐसा क्यों न करें, उनमें पश्चात्ताप करने वाला रवैया होगा। और एक और बिंदु है जो सबसे महत्वपूर्ण है : परमेश्वर जो भी विशिष्ट क्रियाकलाप करता है और अंत के दिनों के न्याय के कार्य में जैसे भी कार्य करता है, भविष्य में जो भी करने का इरादा रखता है, मानवजाति की किस्मत की व्यवस्था जैसे भी करेगा, और वे खुद उसके द्वारा व्यवस्थित परिवेश में जैसे भी रहेंगे, उन सभी के पास एक विनम्र दिल और समर्पण का रवैया होगा जो व्यक्तिगत पसंदों और व्यक्तिगत योजनाओं और मंसूबों से मुक्त होगा। इन विभिन्न सक्रिय और सकारात्मक अभिव्यक्तियों के कारण वे पहले से ही उस प्रकार का व्यक्ति बन चुके होंगे जिसकी परमेश्वर को अपेक्षा है, ऐसा व्यक्ति जो परमेश्वर के मार्ग पर चलता है जो कि उसका भय मानना और बुराई से दूर रहना है। वैसे तो वे अब भी परमेश्वर के बताए गए सच्चे मानक—“परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना, और एक पूर्ण मनुष्य होना”—से दूर होंगे, जब उनका परमेश्वर के परीक्षणों से सामना होगा तो वे खोज और समर्पण करने में समर्थ होंगे जो कि पर्याप्त है। उन्हें कोई शिकायत नहीं होगी; वे सिर्फ प्रतीक्षा और समर्पण करेंगे। वैसे तो तुम लोगों की वर्तमान परिस्थितियाँ अब भी ऐसे परिणाम से कोसों दूर हो सकती हैं और कुछ लोगों के लिए यह बहुत ही दूर और अप्राप्य लग सकती हैं लेकिन अगर तुम सत्य स्वीकार सकते हो और परमेश्वर के वचनों को अपने सिद्धांत और अस्तित्व के लिए आधार मान सकते हो तो विश्वास करो कि एक दिन तुम या तुम सभी लोग परमेश्वर के ऐसे सच्चे लोग बनने से दूर नहीं होगे जिनसे वह प्रेम करता है—विश्वास करो कि वह दिन दिखाई दे रहा है। चाहे वर्तमान में इसकी भविष्यवाणी की गई हो या यह दिखाई दे रहा हो, जो भी हो, अंतिम परिणाम एक फंतासी नहीं है बल्कि एक सच्चाई है जो साकार और पूरी होने ही वाली है। वास्तव में यह सच्चाई किसमें पूरी होगी, यह किन लोगों में पूरी होगी, यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम लोग वास्तव में सत्य का अनुसरण कैसे करते हो। दूसरे शब्दों में, क्या तुम सही मायने में सत्य से इस हद तक प्रेम करते हो कि तुम उसका अनुसरण और अभ्यास कर सकते हो या तुममें सत्य के लिए सिर्फ थोड़ा-सा ही प्रेम है और तुम इसे पूरी तरह से स्वीकार और इसका पूरी तरह से अभ्यास नहीं कर सकते हो, अंतिम नतीजा तुम्हें उत्तर प्रदान करेगा। तो ठीक है, हम इस विषय पर अपनी संगति यहीं समाप्त करेंगे।
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