अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (26) खंड दो

II. परमेश्वर के लोग

वफादार श्रमिकों की अभिव्यक्तियों के बारे में संगति करने के बाद आओ, हम दूसरे प्रकार के लोगों की अभिव्यक्तियों के बारे में बात करें। ये व्यक्ति सभी प्रकार के लोगों के भ्रष्ट स्वभावों पर परमेश्वर के विभिन्न प्रकाशन और न्याय सुनने के बाद तुलनात्मक रूप से अपने खुद के भ्रष्ट स्वभाव के पिछले विभिन्न खुलासों के बारे में और परमेश्वर और सत्य के प्रति उन विभिन्न रवैयों के बारे में ज्यादा सोचते हैं जो उनके भ्रष्ट स्वभाव के प्रभुत्व के अधीन उत्पन्न होते हैं—वे अपनी विभिन्न अभिव्यक्तियों पर चिंतन करना और उन्हें जानना शुरू कर देते हैं, अपनी तुलना परमेश्वर के वचनों से करते हैं, अपने कर्तव्य के प्रति अपने रवैये की जाँच करते हैं, और अपना कर्तव्य करते समय और परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों के बीच अपने द्वारा प्रकट की गई विभिन्न भ्रष्टताओं की जाँच करते हैं। वे परमेश्वर के न्याय, प्रकाशन और अनुशासन को स्वीकारने का प्रयास करते समय एक-एक विवरण की कसौटी पर अपनी जाँच करते हैं और खुद को जानते हैं। ये व्यक्ति श्रमिकों से किन तरीकों से बेहतर हैं? वे सत्य, परमेश्वर के वचनों और परमेश्वर द्वारा उजागर किए गए हर भ्रष्ट स्वभाव को सक्रियता से और सकारात्मक रूप से स्वीकार पाते हैं। हालाँकि वे कभी-कभी नकारात्मक, उदासीन हो सकते हैं या यहाँ तक कि हार मान लेने के बारे में भी सोच सकते हैं लेकिन चाहे कुछ भी हो, उनके पास खुद से सत्य स्वीकार करवाने की प्रेरणा होती है। यह प्रेरणा क्या है? यह प्रेरणा है : “परमेश्वर के वचन लोगों को बदल सकते हैं। अगर कोई व्यक्ति सत्य स्वीकारता है तो इन सभी समस्याओं और भ्रष्ट स्वभावों का समाधान किया जा सकता है और तब उसे बचाया जा सकता है। अगर मैं बचा लिया जाना चाहता हूँ तो मुझे परमेश्वर के कार्य में सहयोग करना चाहिए और सत्य स्वीकारना चाहिए।” मिसाल के तौर पर, ईमानदार व्यक्ति होने के बारे में सत्य सुनकर कुछ लोग आत्म-चिंतन करना शुरू कर देते हैं और अपने द्वारा किए जाने वाली धोखेबाजी और चालबाजी के साथ-साथ अपने कपटी और दुष्ट पहलुओं को ज्यादा स्पष्ट रूप से देखने लगते हैं। वे अपने पिछले झूठ और धोखेबाजी करने के तरीके याद करते हैं जो उनके दिलों में या धारणाओं में रहते हैं, जो उनके दिमागों में किसी फिल्म के दृश्यों की तरह बार-बार चलते रहते हैं, जिससे वे लगातार शर्मिंदा, दुःखी और उदास महसूस करते हैं। लगातार आत्म-परीक्षण और आत्म-चिंतन के बाद वे अपराधियों जैसा महसूस करते हैं, वे तुरंत पूरी तरह से लंगड़े हो जाते हैं और उठकर खड़े नहीं हो पाते हैं। उन्हें लगता है कि वे अच्छे लोग नहीं बल्कि बुरे लोग हैं और उन्हें लगता है कि यह खुशकिस्मती है कि उन्होंने परमेश्वर का सीधे प्रतिरोध नहीं किया है जो कि सचमुच बाल-बाल बच निकलना है! फिर वे जागना शुरू करते हैं, एक व्यक्ति के रूप में इस तरह से विफल होने के अनिच्छुक होते हैं और एक संकल्प लेते हैं : “मुझे नए सिरे से शुरुआत करनी चाहिए और एक ईमानदार व्यक्ति बनना चाहिए, नहीं तो मैं परमेश्वर द्वारा बचाया नहीं जा सकता। बचाए जाने के लिए मुझे एक ईमानदार व्यक्ति होना चाहिए। मैं अभी बिल्कुल हार नहीं मान सकता!” ये लोग सत्य को चाहे पहले स्वीकारते हों या बाद में और परमेश्वर के वचनों की इनकी समझ चाहे गहरी हो या सतही, परमेश्वर के वचनों के प्रति इनका रवैया तिरस्कार का नहीं है और यह द्वेष या प्रतिरोध का तो बिल्कुल भी नहीं है। इसके बजाय वे सक्रिय रूप से परमेश्वर के वचनों को स्वीकारते हैं और फिर उन्हें अभ्यास में लाने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। जब वे कार्य करते हैं या अपना कर्तव्य निभाते हैं तो वे परमेश्वर के वचनों में सिद्धांतों की तलाश करने का भरसक प्रयास करते हैं और फिर सचेत रूप से इन सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते हैं। भले ही कभी-कभी वे विशिष्ट सिद्धांत ढूँढ़ नहीं पाते हों या दिशा समझ नहीं पाते हों, उनका इरादा अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना होता है, इसे परमेश्वर के इरादों के अनुसार और सत्य सिद्धांतों के अनुरूप करना होता है। इन लोगों की और श्रमिकों की मानवता ज्यादातर एक जैसी ही होती है; उच्च और निम्न या कुलीन और नीच के बीच कोई अंतर नहीं होता है। यकीनन इस प्रकार के लोगों में से कई लोग खुद को “अच्छी मानवता वाले, सही मायने में परमेश्वर में विश्वास रखने वाले और परमेश्वर में विश्वासी के रूप में त्याग करने की क्षमता और अपना कर्तव्य करने के लिए कीमत चुकाने और कष्ट सहने के इच्छुक व्यक्ति” के रूप में देखते हैं। लेकिन इन लोगों और श्रमिकों के बीच क्या अंतर है? लोगों का न्याय और उजागर किए जाने के परमेश्वर के वचन सुनने के बाद उनका रवैया अनदेखा करने का नहीं होता है, टाल-मटोल करने का नहीं होता है बल्कि सक्रिय रूप से और ईमानदारी से स्वीकारने का होता है। भले ही ये वचन सुनने के बाद वे चिंतित और हताश महसूस करते हों, यहाँ तक कि अपनी खुद की प्रकट हो चुकी भ्रष्टता के प्रति गुस्सा भी व्यक्त करते हों, अंत में वे अब भी उनका सही तरह से सामना करने, सक्रिय रूप से स्वीकारने और सक्रियता से अभ्यास करने और उनमें प्रवेश करने में समर्थ होते हैं। क्या यह भी व्यक्तियों का एक प्रकार नहीं है? (है।) क्या ये लोग एक निश्चित हद तक प्रतिनिधिक नहीं हैं? (हैं।) क्या ऐसे लोग बहुत हैं? (बहुत नहीं हैं।) वैसे तो अभी बहुत नहीं हैं लेकिन उम्मीद है कि इनकी संख्या बढ़ेगी। तो इन लोगों को किस श्रेणी में वर्गीकृत किया जाना चाहिए? क्या ये विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ दर्शा सकती हैं कि ये लोग सत्य से प्रेम करते हैं और सत्य स्वीकारने में समर्थ हैं? (हाँ।) वे दर्शा सकती हैं। वैसे तो समझने की खराब क्षमता वाले कुछ लोग सत्य को अपेक्षाकृत धीरे स्वीकारते हैं, लेकिन अपने दिलों की गहराई में वे सत्य स्वीकारते हैं और उनमें इसमें सक्रिय रूप से प्रवेश करने की मानसिकता होती है। जब भी कोई व्यक्ति अभ्यास के लिए ऐसे नए प्रकाश या मार्गों की संगति करता है जो सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हैं तो उनकी आँखें चमक उठती हैं, उनके दिल स्पष्ट हो जाते हैं और वे आनंदित हो उठते हैं, सोचते हैं “आखिरकार किसी ने इस प्रकाश पर संगति कर ही दी। मुझमें इसी चीज की कमी है।” वे हमेशा यह समझने में समर्थ होते हैं कि उनमें क्या कमी है, वह प्रकाश और प्रबुद्धता प्राप्त करने में समर्थ होते हैं जिसकी उन्हें तत्काल जरूरत है और जिसकी उनमें कमी है, और अपने भाई-बहनों द्वारा संगति की गई सच्ची अनुभवजन्य समझ से वे सत्य सिद्धांत पाने में समर्थ होते हैं जिनकी उन्हें जरूरत है। इन विशिष्ट अभिव्यक्तियों के आधार पर क्या उनके दिल सत्य की लालसा नहीं रखते हैं? (रखते हैं।) अगर हम यह कहें कि ये लोग सत्य से प्रेम करते हैं तो यह कथन बहुत वस्तुनिष्ठ या सटीक नहीं है। लेकिन उनकी विशिष्ट अभिव्यक्तियों के आधार पर ये लोग सत्य की लालसा बिल्कुल रखते हैं। यह लालसा कहाँ से आती है? यह अपने भ्रष्ट स्वभाव हल करने की उनकी उम्मीद से आती है, अपने जीवन प्रवेश में आने वाली विभिन्न समस्याओं और कठिनाइयों को हल करने की उनकी उम्मीद से आती है और सत्य में प्रगति करने और गहरी खोजबीन करने की उनकी उम्मीद से आती है, साथ ही सिद्धांतों के साथ सही मायने में कार्य करने, एक मार्ग के साथ अभ्यास करने, अपने भ्रष्ट स्वभावों के खुलासों से यह ज्यादा सटीक रूप से पहचानने में समर्थ होने की उनकी उम्मीद से आती है कि उनके भ्रष्ट स्वभावों का सार क्या है और उन्हें कैसे हल करना है और उन्हें कैसे छोड़ देना है। भले ही ये लोग अक्सर भ्रष्ट स्वभावों में रहते हों, जैसे कि रुतबे के लिए होड़ करना, हठपूर्वक अपने तरीके पर अड़े रहना और आत्मतुष्ट, घमंडी, धोखेबाज या यहाँ तक कि अड़ियल भी होना लेकिन लगातार परमेश्वर के वचन खाने-पीने और परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के जरिए इन स्पष्ट समस्याओं की धीरे-धीरे जाँच की जाएगी और उन्हें पहचान लिया जाएगा। फिर वे इन्हें समस्याओं, भ्रष्ट स्वभावों के खुलासों, सत्य के अनुरूप नहीं होने वाली और परमेश्वर द्वारा नफरत की जाने वाली चीजों के रूप में पहचान सकते हैं। अपने भ्रष्ट स्वभावों के बारे में जागरूक होने के बाद वे उन्हें हल करने और उन्हें छोड़ देने की और ज्यादा लालसा रखने लगते हैं। यह सत्य के लिए उनकी लालसा का एक स्रोत है। दूसरे शब्दों में, उनमें अपने भ्रष्ट स्वभाव हल करने की जरूरत होती है, उनमें अपने भ्रष्ट स्वभाव तत्काल छोड़ देने की मानसिकता होती है। साथ ही अपने भ्रष्ट स्वभावों द्वारा प्रकट की गई विभिन्न दशाओं, समस्याओं और कठिनाइयों का पता चलने के बाद वे यह समझने के लिए ज्यादा उतावले होते हैं कि इन मुद्दों के लिए परमेश्वर के सटीक वचन और अपेक्षाएँ क्या हैं और कौन-से सत्य या परमेश्वर के कौन-से वचन उन्हें हल कर सकते हैं। सत्य के लिए उनकी लालसा की विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ और स्रोत यही हैं। क्या यह एक वस्तुनिष्ठ कथन है? (हाँ।) इन लोगों के बारे में यह नहीं कहा जा सकता है कि वे सत्य से प्रेम करते हैं। अगर वे सत्य से प्रेम करते तो वे बहुत सक्रिय होते और उनकी विभिन्न अभिव्यक्तियाँ ज्यादा सकारात्मक होतीं। लेकिन इन लोगों की विभिन्न अभिव्यक्तियों और उनके वास्तविक आध्यात्मिक कद के आधार पर वे सत्य से प्रेम करने के बिंदु तक नहीं पहुँचे हैं बल्कि सिर्फ इसके लिए लालसा रखते हैं। यह कथन पहले से ही काफी वस्तुनिष्ठ है। इसलिए इन लोगों की विभिन्न अभिव्यक्तियों को देखा जाए तो उन्हें किस श्रेणी में वर्गीकृत किया जाना चाहिए? सटीक रूप से कहा जाए तो ये लोग परमेश्वर के लोगों की श्रेणी के हैं। इस दावे का एक आधार है। क्या आधार है? इन लोगों के भ्रष्ट स्वभाव वही हैं जो दूसरों के हैं। मानवता के संबंध में बात करें तो यह नहीं कहा जा सकता है कि उनकी मानवता अच्छी है और न ही यह कहा जा सकता है कि वे परमेश्वर की नजर में परिपूर्ण हैं; इनमें से ज्यादातर लोगों की मानवता औसत है। यहाँ “औसत” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है एक निश्चित स्तर का जमीर और विवेक होना। लेकिन यह सबसे महत्वपूर्ण पहलू नहीं है। सबसे महत्वपूर्ण पहलू क्या है? वह यह है कि परमेश्वर के वचन और परमेश्वर की अपेक्षाएँ सुनने के बाद, परमेश्वर के वचनों द्वारा उजागर किए गए सभी प्रकार के लोगों के भ्रष्ट स्वभावों के बारे में सुनने के बाद वे बेपरवाह नहीं रहते हैं बल्कि वे बेचैन हो जाते हैं और वे कार्रवाई करते हैं। कार्रवाई करने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि परमेश्वर के ये वचन और ये सत्य सुनने के बाद अब वे भ्रष्ट स्वभावों में जीने और जीवन जीने के अपने पिछले तरीकों को जारी रखने के अनिच्छुक हैं। इसके बजाय वे उन विभिन्न विचारों, नजरियों और अस्तित्व और जीवन शैली के तरीकों को बदलने का प्रयास करते हैं जिन पर वे पहले भरोसा करते थे। साथ ही वे अपना कर्तव्य निभाने में और परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित विभिन्न हालातों में सक्रियता से सत्य खोजते हैं, लापरवाह और उद्दंड बनने के बजाय अभ्यास के आधार और सिद्धांतों के रूप में परमेश्वर के वचनों का उपयोग करते हैं। उनकी मानवता, काबिलियत, परमेश्वर के वचनों, परमेश्वर के कार्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं आदि के प्रति उनके रवैयों और विचारों से ये लोग बिल्कुल वही लोग हैं जिन्हें परमेश्वर बचाने का इरादा रखता है। श्रमिकों की तुलना में उनके द्वारा अपने भ्रष्ट स्वभाव छोड़ देने और बचाए जाने की ज्यादा उम्मीद है। जो लोग सत्य स्वीकारते हैं और बचाए जाने के लिए अपने भ्रष्ट स्वभाव त्याग सकते हैं, सिर्फ उन्हें ही परमेश्वर के लोग माना जाता है। क्या यह परिभाषा पूरी तरह से उपयुक्त नहीं है? (है।) यह सबसे उपयुक्त है। बचाए जाने का अर्थ यह नहीं है कि कायम रहने के लिए सिर्फ थोड़ा-सा प्रयास करो और थोड़ी-सी कीमत चुकाओ और फिर सब कुछ निपट जाता है। उन लोगों की क्या स्थिति है जिन्हें बचाया जा सकता है? यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें परमेश्वर के वचन और कार्य स्वीकारने और अनुभव करने के जरिए उनके भ्रष्ट स्वभाव हल होते हैं। इस प्रक्रिया में वे परमेश्वर को जानने लगते हैं, अपने भ्रष्ट स्वभाव समझने लगते हैं और परमेश्वर के वचनों के वास्तविक और ठोस अनुभव प्राप्त करते हैं, इस प्रकार वे परमेश्वर के लिए गवाही देने में समर्थ होते हैं—वे परमेश्वर की गवाही दे पाते हैं। वे परमेश्वर के किन पहलुओं के बारे में गवाही देते हैं? वे परमेश्वर के इरादों, परमेश्वर के स्वभाव, जो परमेश्वर के पास है और जो वह स्वयं है, परमेश्वर की पहचान और इस बात की कि परमेश्वर ही सृष्टिकर्ता है, गवाही देते हैं। उद्धार प्राप्त करने के बाद एक व्यक्ति में यही अभिव्यक्त हो सकता है। बचाए जाने के बाद लोग ये नतीजे क्यों प्राप्त कर सकते हैं? वे इसे इसलिए प्राप्त नहीं करते हैं कि वे खुद को “अच्छी मानवता वाला, सही मायने में परमेश्वर में विश्वास रखने वाला और परमेश्वर में विश्वासी के रूप में त्याग करने की क्षमता और अपना कर्तव्य करने के लिए कीमत चुकाने के इच्छुक” मानते हैं। इसका एकमात्र कारण—और सबसे महत्वपूर्ण बात—यह है कि वे परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन के रूप में स्वीकार सकते हैं, वे अपने भ्रष्ट स्वभाव छोड़ देने के लिए सत्य का अभ्यास करने में समर्थ होते हैं, अपने मूल, पुराने जीवनयापन के तरीकों और नजरियों को एक तरफ रख पाते हैं और परमेश्वर के वचनों को अपने नए जीवन के रूप में अपना पाते हैं। वे परमेश्वर के वचनों का उपयोग आचरण करने, चीजों को करने, परमेश्वर का अनुसरण करने, परमेश्वर के प्रति समर्पण करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के आधार के रूप में करते हैं। यही वह नतीजा है जो ऐसे लोगों में प्राप्त किया जा सकता है। उद्धार प्राप्त करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण पहलू क्या है? (सत्य स्वीकारने में समर्थ होना।) सही कहा। सत्य स्वीकारने में समर्थ होना ही सबसे महत्वपूर्ण चीज है।

कुछ लोग कहते हैं, “अगर मैं अंत तक परमेश्वर के लिए खुद को खपाता रहूँ तो क्या परमेश्वर मुझे अपार आशीष देगा?” अगर तुम सत्य नहीं स्वीकारते लेकिन अभी भी अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करने में, अंत तक मेहनत करने में दृढ़ रह पाते हो, जिस दौरान कोई बड़ा अपराध नहीं होता है और तुम परमेश्वर के स्वभाव को नाराज नहीं करते हो तो ऐसे हालात में परमेश्वर तुम्हें एक वफादार श्रमिक मानेगा जिसे बने रहने की अनुमति है। कुछ लोग पूछते हैं, “बने रहना किस तरह का आशीष है?” यह कोई मामूली आशीष नहीं है! अगर मौका और संभावना हो तो तुम परमेश्वर का असली व्यक्तित्व देख सकते हो और यह इस बात पर निर्भर करता है कि परमेश्वर अगले युग में क्या करता है। अगर कई और दशकों तक बने रहने और जीने का अवसर है तो वह आशीष काफी महत्वपूर्ण है। यह आशीष कैसे प्राप्त होता है? यह वफादारी से मेहनत करके और इस नजरिये को पकड़कर रखने से प्राप्त होता है कि “मेरे पास अच्छी मानवता है, मैं सही मायने में परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, मैं त्याग कर सकता हूँ और अपना कर्तव्य करने के लिए कीमत चुकाने का इच्छुक हूँ और कष्ट सहने में सक्षम हूँ।” क्या श्रमिकों को संतुष्ट होना नहीं आना चाहिए? (हाँ।) उन्हें यह आशीष प्राप्त कर संतुष्ट होना चाहिए। तुम तो परमेश्वर के वचन भी स्वीकार नहीं करते हो लेकिन चूँकि परमेश्वर तुम्हारी वफादारी और अंत तक मेहनत करने की क्षमता देखता है जो तुम इस अवधि के दौरान परमेश्वर को छोड़े बिना, परमेश्वर के स्वभाव को नाराज किए बिना या उसके प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन किए बिना, बड़े अपराध किए बिना करते हो, इसलिए वह तुम्हें यह आशीष और अनुग्रह प्रदान करता है—मानवजाति के सृजन के बाद से यह सबसे बड़ा उपहार है जो परमेश्वर उन भ्रष्ट मनुष्यों को देता है जिन्होंने सिर्फ वफादारी से मेहनत की है लेकिन उद्धार प्राप्त नहीं किया है। तुमने सिर्फ थोड़ा-सा प्रयास किया है और तुम परमेश्वर के वचन भी स्वीकार नहीं करते हो—इतना बड़ा आशीष प्राप्त कर पाना पहले ही काफी अच्छा है; यह परमेश्वर का अपार अनुग्रह है। एक दूसरी श्रेणी परमेश्वर के लोगों की है जिनके बारे में हमने अभी-अभी बात की। परमेश्वर के लोगों को प्राप्त आशीष श्रमिकों को मिलने वाले आशीषों से निश्चित रूप से बड़े हैं। तो परमेश्वर के लोगों का आशीष क्या है? यकीनन यह सिर्फ बने रहने की क्षमता या परमेश्वर का वास्तविक व्यक्तित्व देखने का अवसर पाने जितना सरल नहीं है। आशीष इससे भी कहीं ज्यादा हैं लेकिन यहाँ हम उनकी चर्चा नहीं करेंगे। उस बारे में बात करना यथार्थवादी होना नहीं है और इसके अलावा अगर मैं तुम लोगों को बता भी दूँ तो भी तुम लोग अभी उन्हें समझ नहीं पाओगे या प्राप्त नहीं कर पाओगे। परमेश्वर के लोग ही वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर बचाने का इरादा रखता है और सारी मानवजाति में उन्हें ही सबसे बड़े आशीष मिलते हैं; यह किसी भी तरह से बढ़ा-चढ़ाकर कहना नहीं है। ऐसा क्यों है? क्योंकि परमेश्वर के कार्य में, मानवजाति को बचाने के लिए परमेश्वर की छह हजार साल की प्रबंधन योजना के कार्य में, परमेश्वर के लोगों ने परमेश्वर के वचन स्वीकारने में समर्थ होकर, परमेश्वर के वचनों को सत्य और अपने अस्तित्व के सिद्धांत मानने में समर्थ होकर और परमेश्वर के वचनों को अपना जीवन बनाकर शैतान का भ्रष्ट स्वभाव छोड़ दिया है और उन्होंने परमेश्वर के वचन जीये हैं जिससे उन्होंने परमेश्वर के लिए मजबूत और जोरदार गवाही दी है। शैतान पर उलटवार करने और उसे शर्मिंदा करने के लिए वे जो जीते हैं उसका, अपने जीवन का उपयोग करने में समर्थ हैं, मानवजाति के बीच परमेश्वर की गवाही देने में समर्थ हैं, जिससे वे परमेश्वर को महिमा प्रदान करते हैं। इसलिए परमेश्वर के लोग ही वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर बचाना चाहता है और यही वे लोग हैं जो उद्धार प्राप्त करते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “चूँकि ये लोग परमेश्वर के वचनों को अपना जीवन बना सकते हैं, परमेश्वर के वचनों को जी सकते हैं और परमेश्वर की गवाही दे सकते हैं तो क्या यह उन्हें परमेश्वर के प्रिय पुत्र बनाता है जिनसे परमेश्वर खुश होता है?” तुम बहुत ज्यादा सोच रहे हो; परमेश्वर के लोगों में से एक होना ही काफी अच्छा है। अगर परमेश्वर तुम्हें अपना पुत्र, अपनी संतान या अपना प्रिय पुत्र बुलाता है तो यह परमेश्वर का मामला है लेकिन चाहे कोई भी समय हो, तुम्हें कभी भी खुद को परमेश्वर का प्रिय पुत्र, परमेश्वर का पुत्र या परमेश्वर का लाडला होने का दावा नहीं करना चाहिए। अपने बारे में ऐसे दावे मत करो और न ही खुद को ऐसा समझो; तुम एक सृजित प्राणी हो—यह सही है। भले ही एक दिन तुम्हें परमेश्वर के लोगों में से एक कहकर बुलाया जाए या तुम पहले से ही बचाए जाने के मार्ग पर चल पड़े हो फिर भी तुम बस एक सृजित प्राणी ही हो। अगर तुम इस तरह से सोचते हो तो इससे यह साबित होता है कि तुम जिस मार्ग पर चल रहे हो वह सही है। अगर तुम हमेशा परमेश्वर का प्रिय पुत्र बनने का, परमेश्वर द्वारा प्रेम किए जाने का, परमेश्वर को खुश करने का प्रयास करते हो तो तुम जो मार्ग अपना रहे हो वह गलत है; यह मार्ग कहीं नहीं ले जाता है और तुम्हें ऐसा ख्याली पुलाव नहीं पकाना चाहिए। इससे फर्क नहीं पड़ता है कि परमेश्वर ने कभी ऐसे वचन बोले हैं या नहीं या लोगों से कोई ऐसा वादा किया है या नहीं, तुम्हें खुद को इस तरह से नहीं समझना चाहिए; तुम्हें इसे हासिल करने का प्रयास नहीं करना चाहिए। परमेश्वर के लोगों में से एक होना पहले से ही काफी अच्छा है; परमेश्वर के लोग पहले से ही सृजित प्राणियों के रूप में मानक स्तर के हैं—बड़े अफसोस की बात है कि तुम अभी तक उनमें से एक नहीं हो। इसलिए उन अस्पष्ट, भ्रामक, खोखली चीजों का अनुसरण मत करो। बचाए जाने का अनुसरण करने में समर्थ होना एक निश्चित हद तक पहले से ही बचाए जाने के मार्ग पर चल पड़ना है। परमेश्वर के लोगों की प्राथमिक विशेषताएँ ये हैं कि वे सत्य स्वीकारने में समर्थ होते हैं और वे सत्य के प्रति प्रेम प्रदर्शित करते हैं। परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने और उद्धार का अनुसरण करने की प्रक्रिया में उनके भ्रष्ट स्वभाव, पुराने विचार और उनके भ्रष्ट स्वभावों से संबंधित विभिन्न नकारात्मक दशाओं और अभिव्यक्तियाँ हल की जा सकती हैं, छोड़ी जा सकती हैं और विभिन्न हदों तक बदली जा सकती हैं। फिर वे एक ईमानदार व्यक्ति होने की परमेश्वर की अपेक्षाएँ वास्तव में पूरी कर सकते हैं, एक ऐसा व्यक्ति हो सकते हैं जो सत्य सिद्धांत समझता है, एक ऐसा व्यक्ति हो सकते हैं जिसके पास वफादारी और समर्पण है और एक ऐसा व्यक्ति हो सकते हैं जो परमेश्वर का भय मान सकता है और बुराई से दूर रह सकता है। जहाँ तक इस बात का प्रश्न है कि परमेश्वर का एक ऐसा व्यक्ति कैसे बनें जो मानक स्तर का हो और मानदंड पूरा करने वाला हो तो इसके बारे में हम यहाँ विस्तार से नहीं बताएँगे; वह आज हमारी संगति का विषय नहीं है।

III. भाड़े के कार्यकर्ता

श्रमिकों और परमेश्वर के लोगों के अलावा एक और श्रेणी के व्यक्ति हैं, जो परमेश्वर द्वारा चुने गए लोगों में सबसे दयनीय हैं। परमेश्वर द्वारा मानवजाति को व्यक्त किए गए विभिन्न सत्यों और परमेश्वर द्वारा उजागर किए जाने के विभिन्न वचनों को सुनने के बाद उनके व्यवहार, वे जो चीजें जीते हैं और उनके अनुसरणों में कोई बदलाव दिखाई नहीं देता है। तुम उनके साथ सत्य के बारे में चाहे कितनी भी संगति क्यों न कर लो, वे बेपरवाह ही रहते हैं : “मैं बदलना नहीं चाहता। मैं जैसे चाहता हूँ वैसे ही जिऊँगा और कोई भी मुझे नियंत्रित नहीं कर सकता है। तुम जो चाहे करो मैं परवाह नहीं करता! अभी मेरा मिजाज अच्छा नहीं है इसलिए तुम लोगों में से किसी को भी मुझे उकसाना नहीं चाहिए। अगर तुमने ऐसा किया तो मैं विनम्र नहीं रहूँगा!” वे खुद को इस निश्चित रवैये या नजरिये से नहीं देखते हैं कि “मेरे पास अच्छी मानवता है, मैं सही मायने में परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, मैं त्याग कर सकता हूँ और कष्ट सहने और कीमत चुकाने का इच्छुक हूँ,” लेकिन वे भाई-बहनों के बीच एक ज्यादा निश्चित रवैया प्रदर्शित करते हैं। यह रवैया क्या है? यह है, “मैं जैसे चाहूँगा वैसे कार्य करूँगा, जो चाहूँगा वही करूँगा। किसी को भी मुझसे सत्य स्वीकारने का आग्रह नहीं करना चाहिए, किसी को भी मुझे बदलने का प्रयास नहीं करना चाहिए। जो कोई भी मुझसे सत्य स्वीकारने का आग्रह करने का प्रयास करता है वह बस मुसीबत को दावत दे रहा है और अगर किसी ने मेरी काट-छाँट करने का प्रयास किया तो मैं जी-जान से लड़ूँगा!” उन्हें परमेश्वर द्वारा बोले गए किसी भी वाक्य में या परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले कार्य में रत्ती भर दिलचस्पी नहीं होती है। यकीनन लोगों के भ्रष्ट स्वभावों और चीजें करने के सिद्धांतों और साथ ही लोगों को परमेश्वर के प्रति जो रवैया रखना चाहिए और पारस्परिक बातचीतों में जिन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए—जिनका जिक्र भाई-बहन सभाओं के दौरान या अपना कर्तव्य निभाते समय करते हैं—वे उनसे तिरस्कार के रवैये के साथ पेश आते हैं। कुछ लोग कोई कर्तव्य तो करते हैं लेकिन वे परमेश्वर के घर द्वारा अपेक्षित सिद्धांतों को पूरी तरह से नजरअंदाज कर देते हैं और चीजें अपनी बनाई योजना के अनुसार ही करते हैं। जब तुम उनके साथ सिद्धांतों की संगति करना समाप्त करते हो, उसके तुरंत बाद वे तुम्हारे सामने तो सहमत होते हैं लेकिन फिर पलट जाते हैं और लापरवाही और मनमाने तरीके से कार्य करना शुरू कर देते हैं और अपना राक्षसी रूप दिखाते हैं। ऐसे भी व्यक्ति हैं जो बाहर से सभ्य मनुष्य लगते हैं लेकिन जब तुम उनसे बात करते हो या गपशप करते हो तो उनके विचार गलत होते हैं, उनका लहजा गलत होता है और इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि उनका स्वभाव गलत होता है जिससे उनसे बातचीत करना असंभव होता है। जब तुम उनसे पूछते हो, “क्या परमेश्वर दुनिया में मौजूद है?” तो वे कहते हैं, “मुझे नहीं पता।” तुम कहते हो, “इसे इस तरह से किया जाना चाहिए, यह परमेश्वर का इरादा है।” वे जवाब देते हैं, “क्या मैं तुम्हें अप्रिय लगता हूँ? क्या तुम मुझे परेशान करना चाहते हो? क्या तुम मुझे निष्कासित करने का प्रयास कर रहे हो?” तुम कहते हो, “इस तरह से कार्य करना धारणाएँ और नकारात्मकता फैलाना है जिससे कुछ नए विश्वासी लड़खड़ा सकते हैं। हमें परमेश्वर के घर के नियमों का पालन करना चाहिए और हमें उन सिद्धांतों के बारे में स्पष्ट होना चाहिए जिनका लोगों के बीच बातचीतों और मेलजोल रखने में पालन किया जाना चाहिए। अगर जो कहा और किया गया है वह दूसरों को शिक्षित नहीं कर सकता है या उनकी मदद नहीं कर सकता है तो कम-से-कम दूसरों पर इसका नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। यही वह सूझ-बूझ है जो सामान्य मानवता वाले किसी व्यक्ति में होनी चाहिए।” वे कहते हैं, “मुझसे सामान्य मानवता के बारे में बात करना, मुझे नियमों पर उपदेश देना, तुम खुद को समझते क्या हो? मेरे द्वारा नकारात्मकता फैलाने में क्या गलत है? हर नए विश्वासी के लड़खड़ाने का अर्थ है एक नया विश्वासी कम हो जाना—इससे मैं उन्हें देखने की परेशानी से बच जाता हूँ!” उनके साथ नियमों पर बात करना बेकार है और मानवता पर चर्चा करना भी। सत्य की संगति करने, परमेश्वर के वचनों की संगति करने के बारे में क्या कहें? वे परमेश्वर के वचनों की संगति भी नहीं सुनते हैं। कोई भी उनकी आलोचना करने की हिम्मत नहीं करता है, कोई भी उन्हें परेशान करने या उकसाने की हिम्मत नहीं करता है। क्या कलीसिया में ऐसे लोग हैं? (हाँ।) जिन लोगों को निष्कासित कर दिया गया है उनमें सचमुच ऐसे व्यक्ति हैं। क्या ये लोग श्रमिक हैं, परमेश्वर के लोग हैं या क्या हैं? (ये वही लोग हैं जिन्हें निकाल दिया गया।) उन्हें क्यों निकाल दिया गया? (सत्य स्वीकार न करने के कारण; सत्य से विमुख होने के कारण।) यही समस्या का सार है। फिर वे सत्य स्वीकार क्यों नहीं करते हैं? वे सत्य से विमुख क्यों हैं? इसका मूल कारण क्या है? (इन लोगों का सार छद्म-विश्वासियों वाला सार है।) सही कहा, उनका सार छद्म-विश्वासियों वाला सार है। कलीसिया में बहुत सारे छद्म-विश्वासी हैं, लेकिन क्या सभी छद्म-विश्वासी ऐसे ही होते हैं? (नहीं।) ये व्यक्ति जिनमें सबसे मूलभूत मानवीय नैतिकताएँ और परवरिश तक नहीं है—क्या उन्हें सिर्फ इसलिए निकाल दिया जाता है क्योंकि वे छद्म-विश्वासी हैं? उन्हें क्यों निकाल दिया जाता है? इसके मूल में मानवता की समस्या है; इन लोगों में बुरी, दुर्भावनापूर्ण मानवता है। सटीक रूप से कहा जाए तो उनमें मानवता की कमी है। चूँकि उनमें मानवता की कमी है तो वे क्या हैं? वे शैतानी प्रकृति के लोग हैं। शैतानी प्रकृति के लोग पशुओं की तुलना में कैसे है? मुझे लगता है कि वे पशुओं से भी बदतर हैं; कुछ पशु आज्ञाकारी हो सकते हैं और गलत कार्य करने से बच सकते हैं। मिसाल के तौर पर, कुत्ते काफी अच्छे हो सकते हैं; कुछ कुत्ते सही मायने में बहुत अच्छे पालतू पशु होते हैं, मनुष्यों के साथ बेहतरीन तरीके से घुलमिल जाते हैं! वे विशेष रूप से आज्ञाकारी और समझदार होते हैं, लोगों की कही हर बात समझते हैं और वे घर में रखने के लिए उपयुक्त होते हैं। ऐसे कुत्ते अवज्ञाकारी मनुष्यों से कहीं बेहतर हैं। ऐसे कई लोग हैं जो अच्छे कुत्तों से भी बदतर हैं। तो क्या फिर भी वे मनुष्य हैं? नहीं, वे मनुष्य नहीं हैं; वे अमानुष हैं। बहुत से लोग मानवीय भाषा नहीं समझते हैं; उनसे बातचीत करना असंभव है। वे सत्य स्वीकार नहीं करते हैं चाहे इसके बारे में कैसे भी संगति क्यों न की जाए, वे काट-छाँट किए जाने पर शिकायत करते हैं और जब उन्हें निकाल दिया जाता है तो वे आगबबूला होकर गाली-गलौज करने लगते हैं, चाहे उन्होंने कितने भी वर्षों से विश्वास क्यों न रखा हो उनमें कोई बदलाव नहीं आता है। क्या अब भी ऐसे लोगों को परमेश्वर के घर में ठहरने की अनुमति दी जा सकती है? (नहीं।) उन्हें ठहरने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। इन व्यक्तियों को किस श्रेणी में वर्गीकृत किया जाना चाहिए? सबसे पहले, क्या इन व्यक्तियों को परमेश्वर के चुने हुए लोगों में श्रेणीबद्ध किया जाना चाहिए? (नहीं।) अगर वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों में नहीं हैं तो उन्हें किस श्रेणी में रखा जाना चाहिए? परमेश्वर के चुने हुए लोगों में न होना—इसकी व्याख्या कैसे की जानी चाहिए? इसका अर्थ यह है कि वे जो मानवता प्रदर्शित करते हैं और जीते हैं उस परिप्रेक्ष्य से यह छद्म-विश्वासी होने का सरल मामला नहीं है; उनका सार मानवीय नहीं है। ऐसे बहुत से लोग हैं जो छद्म-विश्वासी हैं—क्या वे सभी इन व्यक्तियों की तरह बुरे और दुर्भावनापूर्ण हैं? नहीं। अविश्वासियों में भी हर कोई उतना बुरा नहीं है; कुछ लोगों में सबसे मूलभूत नैतिक मानक होते हैं। तो फिर इन व्यक्तियों के बारे में क्या कह सकते हैं? उनमें वे सबसे मूलभूत नैतिकताएँ और परवरिश तक नहीं होती है जो अविश्वासियों में होती है; सटीक रूप से कहा जाए, तो उनके खुलासे और वे जो जीते हैं वे मानवीय नैतिकता के मानक पूरे नहीं करते हैं। इन लोगों का सार शैतानियत है। तो फिर उनके सार के परिप्रेक्ष्य से क्या परमेश्वर उन्हें बचाता है? (नहीं।) परमेश्वर उन्हें नहीं बचाता है। और ऐसा क्यों होता है? क्योंकि उनकी मानवता बुरी और दुर्भावनापूर्ण है, राक्षसी प्रकृति की है और इस तरह से वे सत्य से विमुख हैं और उसका प्रतिरोध करते हैं। दरअसल, इसे इस तरह से कहना उन्हें ऊपर उठाना है; सटीक रूप से कहा जाए तो ये व्यक्ति सकारात्मक चीजों से विमुख होते हैं और उनसे नफरत करते हैं, वे सत्य से विमुख होने और उसे स्वीकार नहीं करने के स्तर तक नहीं उठते हैं। वे सबसे मूलभूत सकारात्मक चीजों से भी विमुख होते हैं, उनसे नफरत करते हैं और उनका प्रतिरोध करते हैं; सामान्य मानवता वाले व्यक्ति को जिन नियमों का पालन करना चाहिए और उसकी जिस तरह की परवरिश होनी चाहिए वे सभी चीजें उन्हें घिनौनी लगती हैं। क्या वे सत्य स्वीकार सकते हैं? (वे वहाँ तक नहीं पहुँचते हैं।) सही कहा, वे वहाँ तक नहीं पहुँचते हैं; वे तो श्रमिक भी नहीं हैं। कुछ लोग कहते हैं, “चूँकि वे श्रमिक भी नहीं हैं तो उन्हें परमेश्वर के घर में क्या माना जाता है? वे परमेश्वर के घर में आए कैसे?” अगर हमें उनकी व्याख्या करनी हो, उन्हें एक श्रेणी में रखना हो तो, सटीक रूप से कहा जाए तो ये व्यक्ति अविश्वासियों के बीच से लाए गए भाड़े के कार्यकर्ता या अस्थायी कार्यकर्ताओं जैसे हैं। क्या इसका अर्थ स्पष्ट है? यही उनकी श्रेणी है और साथ ही यही उनकी भूमिका भी है जो वे परमेश्वर के घर में निभाते हैं। वे तो श्रमिक भी नहीं हैं; मैं उन्हें श्रमिक नहीं मानता, वे योग्य नहीं हैं! श्रमिकों में अच्छी मानवता होना, परमेश्वर में सही मायने में विश्वास रखना, कीमत चुकाने की इच्छा और कष्ट सहने की क्षमता होना जैसी विशेषताएँ होती हैं और वे इन चीजों को जीते हैं। इन व्यक्तियों में ये गुण भी नहीं होते हैं, इसलिए उन्हें भाड़े के कार्यकर्ताओं के रूप में वर्गीकृत करना पहले से ही उनके प्रति अत्यंत दयालुता दिखाना है और यह बहुत विनम्र होना है। भाड़े का कार्यकर्ता या अस्थायी कार्यकर्ता होने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि विशेष अवधियों के दौरान विशेष जरूरतों के कारण परमेश्वर का घर खास कार्य पूरे करने के लिए कुछ ऐसे व्यक्तियों की भर्ती करता है जिनका संबंध बचाए जाने से नहीं है। ये कार्य पूरे कर लेने के बाद इन व्यक्तियों के असली रंग प्रकट होते हैं। परमेश्वर के चुने हुए लोगों ने उनके साथ बातचीत करके काफी कष्ट सहे हैं, वे असहनीय हद तक उनसे तंग आ चुके हैं और उनकी पर्याप्त पहचान भी प्राप्त कर चुके हैं। ऐसी परिस्थितियों में इन व्यक्तियों को बहिष्कृत या निष्कासित कर दिया जाना चाहिए; इस तरह के क्रियाकलापों के लिए यह सबसे उपयुक्त समय है। क्या इसे अभी-अभी स्पष्ट रूप से समझाया गया कि ये व्यक्ति कैसे आते हैं? (हाँ।) वे भाड़े के कार्यकर्ता हैं जिनका संबंध बचाए जाने से नहीं है, जिन्हें कलीसियाई कार्य की विशेष अवधियों के दौरान लाया जाता है। कुछ समय तक छोटे-मोटे कार्य करने और सेवा प्रदान करने के बाद ये व्यक्ति परमेश्वर के घर में बेपरवाही से कुकर्म करते हैं जिससे कई विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न होती हैं। वे नकारात्मक चरित्रों की भूमिका निभाते हैं। वे पूरी तरह से शैतान और राक्षसों का असली चेहरा दिखाते हैं, कलीसिया के कार्य में बाधा डालते हैं और कलीसियाई जीवन की व्यवस्था को नष्ट करते हैं। ज्यादा ठोस रूप से कहें तो ये व्यक्ति परमेश्वर के घर के हितों को बहुत ही ज्यादा नुकसान पहुँचाते हैं, जैसे परमेश्वर के घर के ज्यादातर उपकरणों, मशीनों, कीमती सामान आदि को नुकसान पहुँचाना। कहा जा सकता है कि इन व्यक्तियों के क्रियाकलापों और व्यवहारों से दूर-दूर तक गुस्सा भड़क उठा है। यकीनन उन्होंने अन्य लोगों को भी सबक सीखने और पहचान प्राप्त करने में, यह जानने में कि दुष्ट लोग क्या होते हैं और मानवता की कमी का क्या अर्थ है, और अविश्वासियों के असली चेहरे स्पष्ट रूप से देखने में सक्षम बनाया है; उन्होंने लोगों को यह स्पष्ट और ज्यादा ठोस तरीके से देखने में सक्षम बनाया है कि अविश्वासियों के विचार और नजरिये क्या हैं, वे क्या अनुसरण करते हैं, वे अपने दिलों की गहराई में क्या आकांक्षा करते हैं, वे परमेश्वर और सत्य के प्रति क्या रवैया रखते हैं और अपने कर्तव्यों और सकारात्मक चीजों के प्रति क्या रवैया रखते हैं और यहाँ तक कि ये व्यक्ति परमेश्वर के घर द्वारा बनाए गए खास विनियमों के प्रति क्या रवैया रखते हैं, आदि। जब यह इतना विशिष्ट हो जाता है तो यह पूरी तरह से उजागर हो जाता है कि ये व्यक्ति अपनी मानवता को, अपने मानवता सार को कैसे जीते हैं और वे क्या अनुसरण करते हैं। तब इन व्यक्तियों को कलीसिया में रखना निरर्थक लगता है; इससे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को बहुत नुकसान पहुँचेगा और उन्हें बिल्कुल भी लाभ नहीं होगा। यही उनके जाने का समय है। फिर अगर हम यह कहें कि परमेश्वर के घर ने उन्हें सत्य स्वीकारने और परमेश्वर की आराधना करने के लिए पर्याप्त समय और अवसर दिए हैं तो क्या यह कथन सही है? (नहीं।) तो फिर इसे कैसे कहना चाहिए? परमेश्वर के घर ने उन्हें सकारात्मकता की ओर वापस मुड़ने के ढेरों अवसर और पर्याप्त समय दिया है लेकिन अंतिम परिणाम से एक सच्चाई प्रकट होती है : किसी भी समय पर दानव हमेशा दानव ही रहता है और कभी नहीं बदल सकता है। यही सच्चाई है। क्या बड़े लाल अजगर से परमेश्वर का दर्जा और पहचान स्वीकार करवाना संभव है? इन दानवीय प्रकृति वाले लोगों को बदलना और कुछ नियमों का पालन करवाना—क्या यह हासिल किया जा सकता है? (नहीं।) वे इसे हासिल नहीं कर सकते हैं। उन्हें अवसर देने का उद्देश्य उनके द्वारा सत्य स्वीकारना, परमेश्वर द्वारा किया गया कार्य पहचानना या सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना नहीं है, बल्कि उन्हें सकारात्मकता की ओर वापस मुड़ने का मौका देना है। अगर इस चीज का जरा-सा भी संकेत मिल जाए कि वे सकारात्मकता की ओर वापस मुड़ गए हैं तो उनका अंतिम परिणाम बदल सकता है। लेकिन इन लोगों को यह नहीं पता है कि उनके लिए क्या अच्छा है; उनकी दानवीय प्रकृति हमेशा बिल्कुल वही रहेगी। चाहे उन्हें कितना भी समय या कितने भी अवसर क्यों न दे दिए जाएँ, वे जो चीजें जीते हैं और उनका जो सार है वह नहीं बदलेगा; यह एक सच्चाई है। इसलिए इन लोगों को सँभालने का अंतिम तरीका यही है कि उन्हें उनके कर्तव्यों से मुक्त कर दिया जाए, उन्हें कलीसिया से बाहर कर दिया जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि परमेश्वर के घर से अब उनका कोई संबंध या रिश्ता न रहे। क्या ऐसे लोग हैं जो उन्हें जाते हुए देखने के अनिच्छुक होंगे और उन पर तरस खाएँगे और कहेंगे, “ये लोग अब भी बच्चे हैं; अगर उन्हें समय दिया जाए तो वे उत्कृष्ट बन जाएँगे। उनमें इतनी अच्छी काबिलियत है, वे इतने गुणी और प्रतिभाशाली हैं—कितना अच्छा होगा अगर वे सत्य स्वीकार पाएँ! अगर परमेश्वर का घर ज्यादा प्रेमपूर्ण और सहनशील हो सकता है और उन्हें पश्चात्ताप करने के ज्यादा अवसर दे सकता है तो उनके बड़े होने पर शायद चीजों का परिणाम अलग होगा”? किस तरह के लोग इस तरह से सोचते हैं? (भ्रमित लोग, उलझन में पड़े लोग।) सही कहा। वे सभी भ्रमित, उलझन में पड़े लोग हैं—पूरी तरह से बदमाश हैं! परमेश्वर ऐसे लोगों को नहीं बचाता है और परमेश्वर का घर उन्हें ठहरने की अनुमति नहीं देता है—उन पर तरस खाने वाली क्या बात है? परमेश्वर कहता है कि वह ऐसे लोगों को नहीं बचाएगा, फिर भी तुम उन्हें पश्चात्ताप का एक मौका देने का सुझाव देते हो। क्या तुम लोगों को बचा सकते हो? क्या यह परमेश्वर के खिलाफ जाना नहीं है? क्या तुम दूसरों को यह सोचने के लिए उकसाने का प्रयास कर रहे हो कि तुम परमेश्वर से ज्यादा प्रेममय हो? क्या तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है? क्या तुम किसी व्यक्ति के सार की असलियत पहचान सकते हो? लोगों को कौन बचा सकता है, परमेश्वर या तुम? परमेश्वर के खिलाफ जाने की हिम्मत करना—यह बहुत ही घमंडी, आत्मतुष्ट और सूझ-बूझ से रहित होना है, है ना? क्या यह एक बड़ा विद्रोह नहीं है? क्या यह शैतान और दुष्ट आत्माओं को पुनर्जीवित किया जाना नहीं है जो हमेशा परमेश्वर के खिलाफ जाकर खुश होते हैं? अभी जिन छद्म-विश्वासियों का जिक्र किया गया वे पशुओं से भी गए गुजरे हैं। उनसे सत्य पर संगति चाहे कैसे भी की जाए, उसका कोई फायदा नहीं है; यहाँ तक कि उनकी काट-छाँट करना भी बेकार है। यह कहा जा सकता है कि उनमें शैतान की प्रकृति है और वे कभी नहीं बदलेंगे। अगर कोई इन शैतान जैसे लोगों को पश्चात्ताप करने का एक मौका देना चाहता है तो उसे ऐसे लोगों का भरण-पोषण करने दो; हम देखेंगे कि क्या उनमें सही मायने में प्रेम है। जो छद्म-विश्वासी सत्य बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते हैं वे कलीसिया में सबसे बदतर हैं; वे सब पशुओं जैसे हैं, सूझ-बूझ से परे हैं और उन्हें बचाया नहीं जा सकता है। चाहे अतीत में हो या वर्तमान में कलीसिया का उनके साथ व्यवहार सबसे उचित रहा है; कलीसिया ने उनके प्रति अपार धीरज और सहिष्णुता दिखाई है और उन्हें पर्याप्त अवसर दिए हैं। लेकिन अब तक वे बिल्कुल भी नहीं बदले हैं, बल्कि उनके तरीकों ने और जोर पकड़ लिया है। शुरू में जब ये लोग अपनी धारणाओं, कल्पनाओं और आशीषों की इच्छा के साथ परमेश्वर में विश्वास रखने लगते हैं तो वे कुछ हद तक संयमित हो पाते हैं, कुछ उत्साह और जोश के साथ अपने कर्तव्य निभाते हैं। लेकिन अंत में जब वे देखते हैं कि “परमेश्वर में विश्वास रखने का अर्थ है सत्य का अनुसरण करना, परमेश्वर का कार्य जानना और परमेश्वर के प्रति समर्पण करना, और बस यही सब कुछ है” तो परमेश्वर और सत्य के प्रति उनका रवैया और साथ ही उनके असली रंग पूरी तरह से उजागर हो जाते हैं। ऐसा क्या है जो उजागर हो जाता है? उनमें न सिर्फ मानवता, जमीर और विवेक की कमी है, बल्कि वे अत्यंत शातिर, दुष्ट और क्रूर भी हैं। वे परमेश्वर और सत्य का तिरस्कार करते हैं और यहाँ तक कि परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं और नियमों के साथ—और परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों के साथ भी—शत्रुता और अवज्ञा से पेश आते हैं। उनकी इन अभिव्यक्तियों ने परमेश्वर के चुने हुए लोगों में उनके प्रति नाराजगी और नफरत की भावना और बढ़ा दी है और जिस गति से परमेश्वर का घर उन्हें दूर करता है उसमें भी तेजी आ गई है, जिससे अंत में यह तेजी से निर्धारित हो जाता है कि वे ठहरें या चले जाएँ जिससे उनके परिणाम और नियतियाँ तय हो जाती हैं। उनके परिणाम और नियतियाँ उनके द्वारा अर्जित की गईं, वे किसी के उकसाने या भड़काने के कारण नहीं आईं या इसलिए नहीं आईं कि किसी ने इन लोगों को मजबूर किया या प्रलोभन दिया और वे यकीनन वस्तुनिष्ठ परिस्थितियों के कारण नहीं आईं; उनके परिणाम और उनकी नियतियाँ स्वयं-प्रदत्त थीं, वे उनके खुद के चयनों के कारण आईं और उनके प्रकृति सार और उनके द्वारा चुने गए मार्गों द्वारा निर्धारित की गई थीं। इन लोगों के परिणाम और नियतियाँ निर्धारित कर दी गई है; एक बार जब उन्हें अपने कर्तव्य निभाने वाले लोगों की श्रेणियों से हटा दिया जाएगा तब वे श्रमिक भी नहीं रहेंगे। तुम यह अच्छी तरह से कल्पना कर सकते हो कि उनकी नियति कैसी होगी—वह यहाँ जिक्र करने योग्य नहीं है क्योंकि वे अयोग्य हैं।

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