अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (25) खंड दो

घ. प्रतिशोध की तरफ झुकाव होना

तीसरी किस्म के लोग—जो स्वच्छंद और असंयमित होते हैं—उनकी अभिव्यक्तियों पर हमारी संगति पूरी हो गई है। इस किस्म के लोगों के अलावा, कई अन्य लोग भी हैं जो कुकर्मियों की श्रेणी में आते हैं, और कलीसिया को इन सभी किस्म के कुकर्मियों को पहचानना चाहिए और उन्हें निष्कासित कर देना चाहिए। इसके बाद, हम चौथी किस्म के लोगों पर चर्चा करेंगे। कलीसिया को जिन अलग-अलग तरह के कुकर्मियों को पहचानना चाहिए और उन्हें निष्कासित कर देना चाहिए, उनमें से चौथी किस्म के लोग बहुत बड़ी चुनौती और परेशानी खड़ी करते हैं। ये कौन हो सकते हैं? ये वे लोग हैं जिनका झुकाव प्रतिशोध की तरफ होता है। “प्रतिशोध की तरफ झुकाव” वाक्यांश से यह जाहिर है कि ये लोग बिल्कुल भी अच्छे नहीं हैं; बोलचाल की भाषा में कहें, तो ये बुरे लोग हैं। उनकी मानवता की लगातार अभिव्यक्तियों और खुलासों और साथ ही, उनके क्रियाकलाप के सिद्धांतों को देखते हुए, यह कह सकते हैं कि उनके दिल उदार नहीं हैं। जैसी कि आम कहावत है, वे “घटिया कारीगरी” हैं। हम कहते हैं कि वे उदार किस्म के लोग नहीं हैं; ज्यादा खास तौर से, ये व्यक्ति रहमदिल नहीं हैं, बल्कि अपने भीतर प्रतिशोध, दुर्भावना और क्रूरता की भावनाएँ रखते हैं। जब कोई व्यक्ति कुछ ऐसा कहता या करता है जिससे इन व्यक्तियों के हितों, मान-सम्मान या रुतबे पर असर पड़ता है, या जो उन्हें नाराज करता है, तो एक बात यह है कि वे अपने दिलों में शत्रुता रखते हैं। दूसरी बात यह है कि इस शत्रुता के आधार पर वे कार्य करते हैं; वे अपनी नफरत की भड़ास निकालने और अपने गुस्से को शांत करने के उद्देश्य और निर्देश से कार्य करते हैं, जिसे प्रतिशोध लेना कहते हैं। लोगों के बीच हमेशा इस तरह के कुछ लोग होते हैं। चाहे यह कुछ ऐसा हो जिसे लोग नीच या दबंग होना या अति संवेदनशील होना कहते हैं, चाहे उनकी मानवता का वर्णन करने या उसे संक्षेप में प्रस्तुत करने के लिए किसी भी शब्द का उपयोग क्यों न किया जाए, दूसरों के साथ उनके व्यवहार की सामान्य अभिव्यक्ति यह है कि जो कोई भी गलती से या जानबूझकर उन्हें चोट पहुँचाता है या नाराज करता है, उसे कष्ट सहना पड़ता है और उसके अनुरूप परिणाम भुगतने पड़ते हैं। यह वैसी बात है जैसा कुछ लोग कहते हैं : “उन्हें नाराज कर दो, और फिर तुम अपने अनुमान से ज्यादा ही भुगतोगे। अगर तुम उन्हें भड़काते हो या चोट पहुँचाते हो, तो हल्के में बचकर निकल जाने की मत सोचो।” क्या ऐसे व्यक्ति लोगों के बीच मौजूद हैं? (हाँ, मौजूद हैं।) यकीनन वे मौजूद हैं। चाहे कुछ भी हो जाए, चाहे यह गुस्सा करने या नीचता दिखाने के लायक हो या ना हो, प्रतिशोध की ओर झुकाव रखने वाले लोग इसे अपनी दैनिक कार्यसूची में शामिल करते हैं, इसे सबसे महत्वपूर्ण मामले की तरह देखते हैं। चाहे कोई भी उन्हें नाराज करे, यह अस्वीकार्य है, और वे उतनी ही कीमत चुकाए जाने की माँग करते हैं, जो लोगों के साथ व्यवहार करने, किसी भी ऐसे व्यक्ति के साथ व्यवहार करने के लिए उनका सिद्धांत है जिसे वे शत्रु मानते हैं। मिसाल के तौर पर कलीसियाई जीवन में कुछ लोग अपनी दशा के बारे में संगति करते हैं या सामान्य रूप से अपने अनुभव बताते और साझा करते हैं, अपनी दशाओं और भ्रष्टता पर चर्चा करते हैं। ऐसा करने के दौरान, वे अनजाने में दूसरों की दशाओं और भ्रष्टताओं को शामिल कर लेते हैं। हो सकता है कि वक्ता अनजाने में ऐसा कर दे, लेकिन श्रोता इसे दिल पर ले लेता है। सुनने के बाद, यह व्यक्ति इसे सही तरीके से समझ नहीं पाता है या उससे निपट नहीं पाता है, और उसमें प्रतिशोधी मानसिकता विकसित होने की संभावना बन जाती है। अगर वह इस बात को जाने नहीं देता है और आक्रमण करने और प्रतिशोध लेने पर अड़ा रहता है, तो यह कलीसिया के कार्य के लिए परेशानी उत्पन्न करेगा, इसलिए इस मामले को तुरंत निपटाया जाना चाहिए। जब तक कलीसिया में कुकर्मी मौजूद हैं, तब तक गड़बड़ियाँ अवश्यंभावी रूप से उत्पन्न होंगी, इसलिए बुरे लोगों द्वारा कलीसिया में बाधा डालने की घटनाओं को हल्के में नहीं लेना चाहिए। चाहे जानबूझकर किया गया हो या नहीं, अगर तुम उन्हें भड़काते हो या चोट पहुँचाते हो, वे इसे आसानी से जाने नहीं देंगे। वे अपने मन में सोचते हैं : “तुम अपनी खुद की भ्रष्टता के बारे में बात करो, मेरा जिक्र क्यों करते हो? तुम अपने आत्म-ज्ञान के बारे में बात करो, मुझे क्यों उजागर करते हो? मेरी भ्रष्टता को उजागर करने से मेरे मान-सम्मान और गरिमा को ठेस पहुँचती है, भाई-बहनों के बीच मेरी स्थिति असहज हो जाती है, मेरी प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल जाती है और मेरी साख पर बट्टा लग जाता है। इसलिए मैं तुम्हारे खिलाफ प्रतिशोध लूँगा; तुम्हें अपने अनुमान से कहीं अधिक भुगतना होगा! यह मत सोचो कि मुझे डराना-धमकाना आसान है, यह मत सोचो कि तुम मुझ पर सिर्फ इसलिए रोब जमा सकते हो क्योंकि मेरी पारिवारिक स्थिति खराब है और मेरा सामाजिक रुतबा ऊँचा नहीं है। मुझे कोई कमजोर व्यक्ति मत समझो; मुझसे कोई खिलवाड़ नहीं कर सकता!” यह मत सोचो कि वे अपना प्रतिशोध कैसे लेते हैं; आओ हम इन लोगों पर ही गौर करें : जब वे इन छोटे-छोटे मामलों का सामना करते हैं—ऐसे मामले जो कलीसियाई जीवन में आम हैं—तो वे ना सिर्फ इन मामलों को सही तरीके से सँभालने या समझने में असमर्थ होते हैं, बल्कि उनमें नफरत भी उत्पन्न हो जाती है और वे प्रतिशोध लेने के लिए अवसरों की प्रतीक्षा करते हैं, और यहाँ तक कि अपना प्रतिशोध लेने के लिए अनैतिक साधनों का भी सहारा लेते हैं। यह उनकी मानवता के बारे में क्या कहता है? (यह दुर्भावनापूर्ण है।) क्या वे उदार लोग हैं? (नहीं।) सबसे अच्छी किस्म के लोग वे होते हैं जो सत्य को स्वीकार सकते हैं। जब वे दूसरों को संगति करते हुए और अपने अनुभव साझा करते हुए सुनते हैं, तो वे सोचते हैं : “मुझमें भी यह भ्रष्टता है। वे जिस चीज का वर्णन कर रहे हैं, वह मेरी दशा जैसा ही लगता है। चाहे वे जानबूझकर मुझे उजागर कर रहे हों या अनजाने में किसी ऐसी चीज के बारे में बोल रहे हों जो मेरी दशा से मिलती-जुलती है, मैं इसे सही ढंग से समझूँगा—मैं यह सुनूँगा कि उन्होंने इसका अनुभव कैसे किया है, वे इस दशा को सुलझाने के लिए सत्य की तलाश कैसे करते हैं, और वे कैसे अभ्यास करते हैं और प्रवेश करते हैं।” यह ऐसा व्यक्ति है जो सही मायने में सत्य को स्वीकारता है। थोड़ा कमजोर व्यक्ति यह सुनकर सोच सकता है, “वे जिस भ्रष्ट स्वभाव को पहचानते हैं, वह बिल्कुल मेरी दशा जैसा कैसे है? क्या वे मेरे बारे में बात कर रहे हैं? खैर, उन्हें बोलने दो। आखिर मुझे कोई नुकसान तो नहीं हुआ है, और शायद ज्यादातर लोगों को यह बात मालूम भी नहीं है। हो सकता है कि वे बस अपने बारे में बात कर रहे हों, और यह सिर्फ संयोग से मेरी दशा से मेल खाता हो; हम सभी की दशा एक जैसी है।” वे इसे गंभीरता से नहीं लेते हैं, अपने दिल में कोई नफरत नहीं रखते हैं और प्रतिशोध लेने की मानसिकता को बढ़ावा नहीं देते हैं। लेकिन, अनुदार लोगों, कुकर्मियों के लिए यह बात अलग है। दूसरे लोग इसी मामले को मामूली घटना के रूप में देखेंगे, और उसी के अनुसार उसे संभालेंगे और उससे निपटेंगे। बेशक, सत्य को स्वीकारने वाले अच्छे लोग इसे सक्रियता से और सकारात्मक तरीके से सुलझाएँगे। साधारण लोग, वैसे तो इसे सकारात्मक रूप से नहीं सुलझाते हैं, लेकिन वे नफरत भी नहीं पालते हैं, प्रतिशोध तो बिल्कुल नहीं लेते हैं। लेकिन उन अनुदार लोगों के लिए, ऐसा आम और बिल्कुल साधारण मामला उनके भीतर उथल-पुथल मचा सकता है, जिससे वे शांत नहीं हो पाते हैं। वे जो चीजें उत्पन्न करते हैं, वे सकारात्मक या साधारण नहीं होती हैं, बल्कि शातिर और दुष्ट होती हैं; वे प्रतिशोध लेना चाहते हैं। उनके प्रतिशोध का कारण क्या है? वे मानते हैं कि लोग जानबूझकर दुर्भावनापूर्ण टिप्पणियों से उन्हें बदनाम करते हैं, उनकी वास्तविक परिस्थितियों के साथ-साथ उनके बदसूरत पक्ष और उनकी भ्रष्टता को उजागर करते हैं। वे लोगों की कही बातों को जानबूझकर कहा गया मान लेते हैं, और इस तरह से उन्हें अपने शत्रु समझने लगते हैं। फिर, वे मामले को निपटाने के लिए प्रतिशोध लेना जायज महसूस करते हैं, और अपने प्रतिशोधी लक्ष्यों को हासिल करने के लिए अलग-अलग साधनों का उपयोग करते हैं। क्या यह शातिर स्वभाव नहीं है? (है।) कलीसियाई जीवन में जब भाई-बहन अपनी दशाओं के बारे में बात करते हैं तो ज्यादातर श्रोता इसे परमेश्वर से जोड़ पाते हैं और उससे आया मानकर स्वीकार कर पाते हैं। सिर्फ वे लोग जो सत्य से विमुख हैं और जिनका स्वभाव दुष्ट है, वे इसे सुनकर द्वेष और यहाँ तक कि प्रतिशोध लेने वाली मानसिकता भी उत्पन्न कर लेते हैं, जो उनके प्रकृति सार को पूरी तरह से प्रकट कर देता है। एक बार जब प्रतिशोध लेने वाली मानसिकता उत्पन्न हो जाती है, तो उसके बाद प्रतिशोध वाले व्यवहारों और कार्रवाइयों का सिलसिला शुरू हो जाता है। जब प्रतिशोध लेने के क्रियाकलाप सामने आते हैं, तो लोगों के बीच रिश्तों का क्या होता है? वे अब सामाजिक तौर पर स्वीकार्य नहीं रहते हैं। और इसमें वास्तविक पीड़ित कौन है? (वह व्यक्ति जिसके खिलाफ वे प्रतिशोध लेना चाहते हैं।) सही कहा। वास्तविक पीड़ित वे हैं जो अपने अनुभवजन्य गवाही पर संगति करते हैं। प्रतिशोध की तरफ झुकाव रखने वाले लोगों का अगला लक्ष्य होता है अलग-अलग परिस्थितियों में शब्दों या क्रियाकलापों का उपयोग करके उन लोगों की आलोचना करना, उन पर आक्रमण करना और यहाँ तक कि उन्हें फँसाना या बदनाम करना जिन्हें वे उन्हें उजागर करने वाले या उनके प्रति शत्रुता रखने वाले मानते हैं। प्रतिशोध की तरफ झुकाव रखने वाले लोग अपने दिलों में सिर्फ अस्थायी तौर पर नफरत नहीं रखते हैं; वे उन लोगों के खिलाफ प्रतिशोध लेने के सभी तरह के अवसरों की ताक में रहते हैं और उन्हें रचते भी हैं जो उनके प्रतिशोध का लक्ष्य होते हैं, जिनके प्रति वे शत्रुतापूर्ण होते हैं, और जिन्हें वे अपने लिए प्रतिकूल मानते हैं। मिसाल के तौर पर, अगुआओं के चुनाव के दौरान, वे जिस व्यक्ति के प्रति शत्रुतापूर्ण हैं, अगर वह परमेश्वर के घर में लोगों का उपयोग करने के सिद्धांतों को पूरा करता है और अगुआ चुने जाने के योग्य है, तो अपनी शत्रुता के कारण वे उस व्यक्ति की आलोचना करेंगे, उसकी निंदा करेंगे और उस पर आक्रमण करेंगे। यहाँ तक कि अपना प्रतिशोध लेने के लिए वे परदे के पीछे रहकर काम कर सकते हैं या ऐसी चीजें कर सकते हैं जो उस व्यक्ति के लिए नुकसानदायक हो। संक्षेप में, अपना प्रतिशोध लेने के उनके साधन तरह-तरह के होते हैं। मिसाल के तौर पर, वे किसी के खिलाफ लाभ उठाने वाली चीजें खोज सकते हैं और उसे लेकर बुरा-भला कह सकते हैं, बढ़ा-चढ़ाकर बातें करके और निराधार चर्चा करके उस व्यक्ति के बारे में अफवाहें फैला सकते हैं, या उस व्यक्ति और दूसरों के बीच अनबन फैला सकते हैं। यहाँ तक कि वे अगुआओं के सामने उन पर झूठे आरोप भी लगा सकते हैं, यह दावा कर सकते हैं कि वह व्यक्ति वफादार नहीं है, अपने कर्तव्यों को करने में नकारात्मक और प्रतिरोधी है। ये सभी वास्तव में जानबूझकर बनाई गई मनगढ़ंत बातें हैं, तिल का ताड़ बनाना है। देखो कि कैसे उस व्यक्ति के प्रति उनके संदेहों और गलतफहमियों से कितने सारे बेबुनियाद व्यवहार और क्रियाकलाप उत्पन्न होते हैं; ये सभी तरीके उनकी प्रतिशोधी प्रकृति से उत्पन्न होते हैं। दरअसल, जब उस व्यक्ति ने अपनी अनुभवजन्य गवाहियाँ साझा कीं, तो यह बिल्कुल भी उन पर लक्षित नहीं था; उनके प्रति किसी भी किस्म की कोई दुर्भावना नहीं थी। इसका कारण बस यह है कि वे सत्य से विमुख हैं और उनमें प्रतिशोध की तरफ झुकाव वाला शातिर स्वभाव है, इसलिए वे दूसरों को उन्हें उजागर करने की अनुमति नहीं देते हैं, ना ही वे आत्म-ज्ञान पर चर्चा करने, भ्रष्ट स्वभावों पर चर्चा करने या किसी की शैतानी प्रकृति के बारे में बात करने की अनुमति देते हैं। जब ऐसे विषयों पर चर्चा की जाती है, तो वे गुस्सा हो जाते हैं, यह मान लेते हैं कि उन्हें लक्षित और उजागर किया जा रहा है, और इसलिए वे प्रतिशोधी मानसिकता विकसित और निर्मित कर लेते हैं। इस तरह के व्यक्ति द्वारा अपना प्रतिशोध लेने की अभिव्यक्तियाँ सिर्फ एक परिस्थिति तक ही सीमित नहीं हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? इसका कारण यह है कि ऐसे व्यक्ति शातिर प्रकृति के होते हैं; कोई भी उन्हें उत्प्रेरित नहीं कर सकता है या उकसा नहीं सकता है। उनमें बिच्छू या कनखजूरे की तरह, स्वाभाविक रूप से किसी भी व्यक्ति और किसी भी चीज के प्रति आक्रामकता रहती है। इसलिए, चाहे कोई जानबूझकर या अनजाने में बोलकर उन्हें उत्प्रेरित करे या चोट पहुँचाए, जब तक उन्हें लगेगा कि उनके गौरव या प्रतिष्ठा को ठेस पहुँची है, वे अपने गौरव और प्रतिष्ठा को बचाने के तरीके ढूँढ़ कर निकालते रहेंगे, जिससे प्रतिशोधी क्रियाकलापों का एक सिलसिला शुरू हो जाएगा।

इसके बाद मैं प्रतिशोध की तरफ झुकाव रखने वाले लोगों की अन्य अभिव्यक्तियों के बारे में संगति करूँगा। अगुआ कुछ लोगों की काट-छाँट इसलिए करते हैं क्योंकि उन्होंने अपने कर्तव्यों को लापरवाही से किया जिसके कारण उनमें असंतोष पनपा। मुझे बताओ, क्या उनकी काट-छाँट करना उचित है? (हाँ।) यह पूरी तरह से उचित और सामान्य है। अगर तुम अपना कर्तव्य लापरवाही से निभाते हो, कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचाते हो और सिद्धांतों के अनुरूप काम नहीं करते हो, और कोई व्यक्ति तुम्हें उजागर करने और तुम्हारी काट-छाँट करने के लिए आगे आता है तो यह उचित है और तुम्हें इसे स्वीकारना चाहिए। लेकिन प्रतिशोध की तरफ झुकाव रखने वाले लोग न केवल इसे स्वीकारने से इनकार करते हैं बल्कि असंतोष भी पालते हैं। अगुआओं के जाते ही वे गाली-गलौज करने लगते हैं : “तुम किस बात का दिखावा कर रहे हो? क्या बात बस इतनी-सी नहीं है कि तुम्हारे पास एक आधिकारिक पद है? अगर मेरे पास ऐसा कोई पद होता तो मैं तुमसे बेहतर करता! मेरी काट-छाँट करने वाले तुम होते कौन हो? मेरी काट-छाँट करने के लिए मैं तुमसे नफरत करता हूँ। मैं तुम्हें श्राप देता हूँ कि तुम गाड़ी से कुचले जाओ, पानी पीते समय दम घुटकर मर जाओ, भोजन करते समय दम घुटकर मर जाओ। मैं तुम्हें श्राप देता हूँ कि तुम बेमौत मरो! तुमने मेरी काट-छाँट करने की जुर्रत की? वह माई का लाल पैदा ही नहीं हुआ जो मेरी काट-छाँट करने की जुर्रत करे!” जब उच्च स्तर के अगुआ किन्हीं मामलों की वजह से उन अगुआ की काट-छाँट करते हैं तो ये लोग उन अगुआओं के दुर्भाग्य पर आनंदित और बेहद खुश होते हैं, गुनगुनाते हुए मन-ही-मन सोचते हैं : “कैसा लगा? तुमने दिखावा किया और अब तुम्हें प्रतिशोध मिल रहा है! जो कोई भी मेरी काट-छाँट करेगा, मैं उसका जीना दूभर कर दूँगा!” ऐसे लोगों के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है? (वे दुर्भावनापूर्ण हैं।) चाहे उनकी काट-छाँट कितनी भी उचित क्यों न हो वे इसे स्वीकार नहीं सकते। वे लगातार बहस करते हैं और अपना बचाव करते हैं और इसके बाद भी वे अपने कर्तव्यों को लापरवाही से करना जारी रखते हैं, बार-बार दी गई चेतावनियों के बावजूद नहीं बदलते हैं। अगर तुम परमेश्वर के घर में हमेशा लापरवाह ढंग से काम करते हो तो तुम्हारे साथ केवल काट-छाँट ही की जाएगी; अगर तुम लौकिक संसार में नौकरी कर रहे हो और वहाँ लापरवाही से काम करते हो तो तुम्हें नौकरी से निकाला जा सकता है और तुम अपनी आजीविका खो सकते हो। परमेश्वर के घर में ज्यादातर समय सत्य पर संगति करने और प्रेम के साथ सहयोग करने का सिद्धांत काम करता है ताकि ज्यादातर लोग सत्य का अनुसरण कर सकें और अपने कर्तव्यों को सामान्य रूप से निभा सकें। वास्तव में अगुआओं और कार्यकर्ताओं के बीच केवल गिने-चुने लोगों को ही कठोर काट-छाँट का सामना करना पड़ सकता है। ज्यादातर लोग आस्था, जागरूकता, अंतरात्मा और विवेक के आधार पर काम करते हैं, परमेश्वर की जाँच-पड़ताल को स्वीकारते हैं और गंभीर गलतियाँ नहीं करते इसलिए उन्हें कठोर काट-छाँट का सामना नहीं करना पड़ता है। लेकिन काट-छाँट होना एक अच्छी बात है; कितने लोगों को काट-छाँट का सामना करना पड़ता है, खासकर ऊपरवाले से? यह आत्म-ज्ञान और जीवन के विकास के लिए एक महान अवसर प्रस्तुत करता है। विश्वासियों को कम से कम काट-छाँट का महत्व जरूर समझना चाहिए, इसे कोई अच्छी चीज मानना चाहिए। भले ही कुछ व्यक्तियों द्वारा की गई काट-छाँट पूरी तरह से सिद्धांतों के अनुरूप न हो, उसमें निजी प्रवृत्तियों और उग्रता की मिलावट हो, फिर भी तुम्हें यह देखने के लिए खुद की जाँच करनी चाहिए कि तुम्हारे क्रियाकलापों के कौन-से पहलू सिद्धांतों के अनुरूप नहीं हैं और फिर सकारात्मक रूप से इसे स्वीकारना चाहिए; ऐसा करना तुम्हारे लिए मददगार है। मगर ये बुरे लोग उचित काट-छाँट को भी स्वीकार नहीं सकते। भले ही वे प्रतिशोध लेने के लिए कार्रवाई न करें पर उनके दिलों में बहुत असंतोष भरा होता है और वे कोसते हैं और अपशब्द कहते हैं। जब उनकी काट-छाँट करने वाले लोग खुद अपनी काट-छाँट का सामना करते हैं या उनके सामने कोई विपत्ति आती है तो ये लोग नए साल का जश्न मना रहे बच्चे से भी ज्यादा खुश होते हैं। यह बुरे लोगों की अभिव्यक्ति है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो अपना कर्तव्य निभाने में प्रतिस्पर्धा करते हैं; वे अक्सर सिद्धांतों का पालन नहीं करते और लापरवाही से काम करते हैं जिससे उनके कर्तव्यों का निर्वहन बेकार हो जाता है। जब अगुआ प्रतिशोध की तरफ झुकाव रखने वाले लोगों के मसलों के बारे में संगति करते हुए उनकी काट-छाँट करता है तो ये लोग इस मामले को सही ढंग से नहीं ले पाते हैं। भले ही वे मन-ही-मन अपने कर्तव्य निभाने में अपनी लापरवाही और सिद्धांत की कमी को स्वीकारते हों, फिर भी वे अपनी काट-छाँट के जवाब में प्रतिशोध लेने पर विचार और कार्य करते हैं। बाद में वे अगुआओं पर झूठा आरोप लगाते हुए पत्र लिखते हैं, उनके कुछ अभ्यासों और उनकी भ्रष्टता के खुलासों का फायदा उठाते हुए उन्हें बर्खास्त कराने की कोशिश में उच्च अधिकारियों से बढ़ा-चढ़ाकर शिकायत करते हैं। अगर उनका उद्देश्य पूरा नहीं होता तो वे परदे के पीछे रहकर अगुआओं की व्यवस्थाओं का हठपूर्वक विरोध करते हुए, उसे कमजोर करते और बाधाएँ उत्पन्न करते हैं। वे कलीसिया के कार्य, परमेश्वर के घर द्वारा अपेक्षित सिद्धांतों या अपने कर्तव्य निर्वहन की प्रभावशीलता पर विचार नहीं करते; वे केवल अपनी भड़ास निकालने में लगे रहते हैं। वे किसी की भी बात सुनने से इनकार करते हैं, यहाँ तक कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं की चेतावनियों को भी ठुकरा देते हैं। हालाँकि वे उनके सामने पलटकर जवाब नहीं देते या विरोध नहीं करते मगर परदे के पीछे वे नकारात्मकता फैला सकते हैं, विरोध में अपना कार्य छोड़ सकते हैं, और परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं या अगुआओं और कार्यकर्ताओं के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए किसी भी अवसर का लाभ उठा सकते हैं। वे धारणाएँ भी फैलाते हैं; वे खुद तो नकारात्मक होते हैं और अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते, मगर साथ ही वे और भी लोगों को नकारात्मक होने और ढिलाई बरतने और अपने कर्तव्यों की उपेक्षा करने के लिए उकसाने की कोशिश करते हैं। उनका सिद्धांत क्या है? “मैं मरने से नहीं डरता; मुझे बस कोई ऐसा व्यक्ति खोजना है जो मेरे साथ नीचे घसीटा जाए। अगुआ यह कहते हुए मेरी काट-छाँट करते हैं कि मेरा कर्तव्य निर्वहन मानक के अनुरूप नहीं है—तो फिर मैं यह सुनिश्चित करूँगा कि हर कोई अपना कर्तव्य ठीक से निभाने में विफल रहे। अगर मैं ठीक से काम नहीं कर रहा हूँ, तो तुम लोगों में से कोई भी नहीं करेगा! अगुआ मेरी काट-छाँट करते हैं और तुम लोग मुझ पर हँसते हो; मैं तुम सब लोगों का जीना मुश्किल बना दूँगा!” जब वे अपने कर्तव्य को लापरवाही से या सिद्धांतों के विरुद्ध करते हैं और कोई व्यक्ति अगुआओं को इसकी रिपोर्ट करता है तो वे इस मामले की छानबीन करते हैं : “किसने मेरी रिपोर्ट की? किसने मेरे बारे में अगुआओं को बताया? अगुआओं के साथ किसका उठना-बैठना है? अगर मुझे पता चल गया कि किसने उच्च स्तर के अगुआओं से मेरी शिकायत की है, तो मैं उस व्यक्ति के प्रति कोई शिष्टता नहीं दिखाऊँगा! मैं इस बात को कभी नहीं भूलूँगा!” वे न केवल कठोर बयान देने में सक्षम हैं बल्कि निश्चित रूप से वे ऐसी धमकियों को अंजाम भी दे सकते हैं। इन व्यक्तियों के पास प्रतिशोध लेने के लिए कई घिनौने और कपटपूर्ण हथकंडे होते हैं, वे केवल दूसरों की आलोचना और निंदा करने के अवसर का लाभ ही नहीं उठाते बल्कि कुछ लोग जानबूझकर उस व्यक्ति के लैपटॉप का चार्जर चुरा लेते हैं जिसके खिलाफ वे प्रतिशोध लेना चाहते हैं, जिससे वह अपना लैपटॉप चार्ज नहीं कर पाता और उसके कर्तव्य निर्वहन में बाधा आती है। दूसरे लोग जानबूझकर किसी के खाने में बहुत ज्यादा नमक मिला देते हैं जिससे वह खाने लायक नहीं रह जाता। प्रतिशोध लेने के इन भद्दे तरीकों को, जो अविश्वासियों के बीच आम हैं, कलीसिया के भीतर बुरे लोग भी अपनाते हैं। उनके प्रतिशोध लेने के तरीके इनसे कहीं बढ़कर होते हैं, जिनमें कुछ ऐसे अनैतिक हथकंडे शामिल हैं जो हमने पहले कभी नहीं देखे; हम बस कुछ सरल उदाहरण दे रहे हैं। उनमें से कुछ व्यक्ति जानबूझकर दूसरों के लिए परेशानियाँ, बाधाएँ और कठिनाइयाँ उत्पन्न करते हैं; यह एक सामान्य घटना है। हर समूह में, विभिन्न परिस्थितियों और परिवेशों में, प्रतिशोध की तरफ झुकाव रखने वाले लोगों का क्रूर स्वभाव लगातार उजागर होता रहता है। बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों की प्रतिशोधी अभिव्यक्तियाँ और भी अधिक स्पष्ट हैं। जब तक कलीसिया के भीतर बुरे लोग और मसीह-विरोधी हैं, तब तक परमेश्वर के चुने हुए लोग, जो वास्तव में उसमें विश्वास रखते हैं और सत्य का अनुसरण करते हैं, बाधित किए जाएँगे। हर उस दिन जब कलीसिया में बुरे लोग और मसीह-विरोधी मौजूद होते हैं, कलीसिया में अशांति रहती है—अच्छे लोगों पर हमला किया जाएगा और उन्हें बहिष्कृत किया जाएगा; विशेष रूप से, सत्य का अनुसरण करने वालों को बुरे लोगों और मसीह-विरोधी लोगों की शत्रुता और प्रतिशोध का सामना करना पड़ेगा। बुरे लोग और मसीह-विरोधी दूसरों को कैसे सताते हैं और कैसे उनके खिलाफ अपना प्रतिशोध लेते हैं? सबसे पहले, वे सत्य का अनुसरण और सिद्धांतों का पालन करने वाले लोगों को निशाना बनाते हैं। ये बुरे व्यक्ति साफ-साफ यह जानते हैं कि केवल सत्य का अनुसरण करने वाले लोग ही उनके लिए सबसे ज्यादा हानिकारक हैं। पहली बात, जो लोग सत्य समझते हैं वे उन्हें पहचान सकते हैं; अगर वे कुछ बुरा करते हैं, तो सत्य समझने वाले लोग उनकी असलियत पहचान लेंगे। दूसरी बात, जब सत्य समझने वाले लोग मौजूद रहेंगे, तो उनके कुकर्म कुछ हद तक प्रतिबंधित होंगे, जिससे उनके लिए अपने लक्ष्य प्राप्त करना मुश्किल हो जाएगा। इस परिप्रेक्ष्य से, केवल वे लोग जो सत्य का अनुसरण करते हैं कलीसिया के काम के रक्षक हैं। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं उनकी उपस्थिति में मसीह-विरोधी और बुरे लोग अत्याचारी ढंग से काम करने की हिम्मत नहीं कर सकते और उन्हें कुछ संयम बरतना पड़ेगा। इस प्रकार जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, वे मसीह-विरोधियों और बुरे लोगों के लिए एक काँटा और सिरदर्द बन जाते हैं और इसीलिए वे अपना प्रतिशोध लेने के तरीके खोजते हैं।

जब बुरे लोग अपना प्रतिशोध लेते हैं तो वे एक क्रूर स्वभाव प्रदर्शित करते हैं, वे अविवेकी होते हैं और उनमें तर्कसंगतता की कमी होती है। जो लोग उनके साथ कुछ समय बिता चुके हैं और उन्हें समझते हैं वे कुछ हद तक उनसे डरते हैं। उनसे बातचीत करने के लिए बहुत सावधानी और विनम्रता की जरूरत होती है, और उन्हें अत्यधिक सम्मान देने की भी आवश्यकता होती है। उन लोगों को लगातार उन्हें संतुष्ट रखना और समायोजित करना पड़ता है और उनमें जो भी समस्याएँ या दोष हैं उन पर सीधे तौर पर उँगली नहीं उठाई जा सकती। इसके बजाय उन्हें इन समस्याओं पर घुमा-फिराकर, अनुनय-विनय करके चर्चा करनी होती है और बोलने के बाद उन्हें यह कहते हुए उनकी प्रशंसा भी करनी होती है, “भले ही तुममें यह दोष या कमी है मगर तुम हमसे ज्यादा तेजी से कौशल सीख लेते हो, तुम्हारी पेशेवर क्षमताएँ दूसरों से ज्यादा मजबूत हैं और तुम्हारी कार्यकुशलता हमसे ज्यादा है। मैं तुम्हारी कमियों को ताकत के रूप में देखता हूँ।” उन्हें उनकी चापलूसी भी करनी पड़ती है। वे ऐसा क्यों करते हैं? यह उनके प्रतिशोध के डर के कारण है। इस तरह ये बुरे व्यक्ति खुश होते हैं और अपने दिल में शांति महसूस करते हैं। उनके प्रतिशोध से बचने के लिए ज्यादातर लोग उनके सामने कोई भी समस्या उठाने से डरते हैं, न ही वे इन समस्याओं की रिपोर्ट करने की हिम्मत करते हैं। यहाँ तक कि जब यह स्पष्ट हो जाता है कि वे परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचा रहे हैं और उनकी जिद और बेपरवाह मनमानी के कारण कलीसिया के काम में देरी हो रही है या यहाँ तक कि जब उनके दिशा-निर्देश और सिद्धांतों में कुछ विकृतियाँ देखी जाती हैं तो कोई भी आपत्ति जताने या उच्च अधिकारियों से उनकी रिपोर्ट करने की हिम्मत नहीं करता। उनके क्रूर स्वभाव और प्रतिशोध की तरफ झुकाव वाली उनकी मानवता के कारण दूसरे लोग उनसे कुछ हद तक डरते हैं, वे गुस्सा होते हैं मगर इसके बारे में आवाज उठाने से काफी डरते हैं। उनके प्रति बहुत ज्यादा उदार, सौम्य और परिष्कृत रवैया दिखाते हुए उनके साथ बड़ी विनम्रता और चालाकी से बातचीत करनी चाहिए। जब लोग उनसे सम्मान और विनम्रता से बात करते हैं, उनके आगे झुकते हैं तो वे अंदर से सहज महसूस करते हैं। लेकिन अगर कोई सीधा-सादा है, उनकी समस्याओं को उजागर करते हुए उन्हें सुझाव देता है तो वे घृणा करते हैं, इसे अपना अपमान मानते हैं मानो कि दूसरों को उनसे आपत्ति या दुश्मनी है। यह उन्हें उस व्यक्ति से प्रतिशोध लेने और उसे सताने के लिए उकसाता है; उन्हें उसे नीचे लाना और उसका नाम बदनाम करना होता है। अगर वह व्यक्ति उनके कब्जे में आ जाए तो उसका अंत अच्छा नहीं होगा। क्या ऐसे लोग डरावने होते हैं? (हाँ।) अगर तुम उन्हें नहीं समझते और उन्हें नाराज करते हो तो वे तुम्हारे खिलाफ द्वेष रखेंगे, खाते-पीते और सोते समय भी तुमसे बदला लेने के बारे में सोचेंगे। अगर तुम उनकी नजर में आ जाते हो तो मुसीबत आना तय है क्योंकि प्रतिशोध लेने का उनका संकल्प बहुत दृढ़ होता है। ऐसा हो सकता है कि वे बाहरी तौर पर तुमसे पहले की तरह बात करें मगर जैसे ही वे प्रतिशोध लेने के बारे में सोचते हैं तो तुमने उनके साथ पहले जो कुछ भी किया या कहा, वह उनके लिए हथियार बन जाता है। वे तुम्हारे साथ दुश्मन की तरह व्यवहार करेंगे, थोड़ा-थोड़ा करके अपना प्रतिशोध लेते रहेंगे जब तक कि उनका बदला पूरा न हो जाए और उन्हें पूरी तरह से संतुष्टि न मिल जाए। बुरे लोगों से जुड़ने का यही परिणाम होता है।

प्रतिशोध की तरफ झुकाव रखने वाले लोगों के विभिन्न व्यवहारों और कार्य और आचरण के सिद्धांतों और तरीकों के आधार पर देखा जाए तो वे लगभग सबके लिए खतरा पैदा करते हैं, सिवाय उन लोगों के जो सभी के प्रति दयालु और मिलनसार होते हैं और जिनमें किसी व्यक्ति से निपटते समय सिद्धांतों की कमी होती है—ऐसे व्यक्ति क्रूर लोगों के आसपास सुरक्षित रहते हैं। लेकिन जिनके पास थोड़ी-सी भी अंतरात्मा या न्याय की भावना होती है वे प्रतिशोध की तरफ झुकाव रखने वाले लोगों की मौजूदगी में अलग-अलग सीमा तक और ज्यादा या कम खतरा महसूस करेंगे। गंभीर मामलों में उन्हें शारीरिक नुकसान या यहाँ तक कि जान का खतरा भी हो सकता है जबकि सामान्य मामलों में उन्हें गाली-गलौज, बदनामी या साजिशों का सामना करना पड़ सकता है। ये प्रतिशोध की तरफ झुकाव रखने वाले लोगों के क्रूर स्वभाव के समग्र खुलासों और अभिव्यक्तियों में से हैं। उनकी समग्र अभिव्यक्तियों के आधार पर, ऐसे लोग भाई-बहनों के बीच और कलीसिया के भीतर भी बाधाएँ पैदा करते हैं। इन प्रतिशोधी लोगों के साथ बातचीत करने वाला लगभग हर एक व्यक्ति उनके प्रतिशोध का निशाना बन जाता है और लगभग हमेशा ही पीड़ित होता है। प्रतिशोध की तरफ झुकाव रखने वाले लोगों का स्वभाव क्रूर होता है, वे टिक-टिक करते टाइम बम की तरह होते हैं जो किसी भी पल फट सकते हैं। भले ही वे अपने कर्तव्य करने के लिए भीड़ का अनुसरण कर सकते हैं और एक सामान्य कलीसियाई जीवन जी सकते हैं मगर उनकी मानवता का आकलन किया जाए तो वे किसी भी समय प्रतिशोध लेने और दूसरों के लिए खतरा पैदा करने की कोशिश कर सकते हैं जिससे लोग उनसे डरने और सतर्क रहने के लिए मजबूर होते हैं। क्या यह पहले ही ज्यादातर लोगों के लिए बाधाओं का कारण नहीं है? (है।) उन्हें नाराज करने से बचने के लिए, उन्हें खुश करने के लिए और उनके द्वेष और प्रतिशोध से बचने के लिए लोगों को हमेशा उनके हाव-भाव का ध्यान रखना पड़ता है और उनके भाषण के निहित अर्थों को सुनना पड़ता है, जब वे बोलते हैं तो उनके इरादों, लक्ष्यों और निर्देशों को समझने की कोशिश करनी पड़ती है। इस परिप्रेक्ष्य से, क्या ज्यादातर लोग न केवल उनसे बाधित होते हैं बल्कि उनके द्वारा नियंत्रित भी होते हैं? (हाँ।) इसलिए इस मामले की प्रकृति को देखते हुए क्या ऐसे प्रतिशोधी व्यक्ति बुरे लोग नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) यह बहुत स्पष्ट है कि उन्हें बुरे लोगों के रूप में देखा जाना चाहिए। अगर कोई ऐसे व्यक्तियों की स्थिति को समझने की कोशिश करता है, तो ज्यादातर लोग उनके बारे में सच बोलने से डरते हैं, और उनके बारे में हर सवाल को “कोई बात नहीं” जैसे गैर-जिम्मेदाराना जवाबों के साथ टाल देते हैं; वे न तो उनकी समस्याओं की रिपोर्ट करने की हिम्मत करते हैं, न ही उनके बारे में बात करने या उनका मूल्यांकन करने की। क्या यह एक परेशानी वाली स्थिति नहीं है? कुछ लोग कहते हैं, “ऐसे बुरे लोग कभी भी और कहीं भी प्रतिशोध ले सकते हैं; उन्हें भड़काने की हिम्मत कौन करेगा? यही नहीं, वे हमेशा अंडरवर्ल्ड और वैध हलकों दोनों में संबंध होने का दावा करते हैं, धमकी देते हैं कि अगर कोई उन्हें नाराज करता है तो उस व्यक्ति के साथ अच्छा नहीं होगा, वे उसे सबक सिखाएँगे और उसके परिवार को एक दुखद मौत देंगे। इसलिए कोई भी उन्हें भड़काने की हिम्मत नहीं करता। उन्हें ऐसे ही रहने दो और सिर्फ अपने बारे में सोचो।” तुमने देखा, जब कलीसिया में ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है तो इसका मतलब है कि उन्होंने पहले ही इन लोगों को काबू में कर लिया है। प्रतिशोध लेने के उनके क्रूर स्वभाव को देखकर लोग उन पर आरोप लगाने या उनकी काट-छाँट करने की हिम्मत नहीं करते और न ही उनके बारे में अपना सही मूल्यांकन देने की हिम्मत करते हैं। उन्हें नाराज करने के डर से बातचीत उनके इर्द-गिर्द ही घुमानी पड़ती है और यहाँ तक कि उनकी पीठ पीछे उनकी वास्तविक अभिव्यक्तियों के बारे में विशेष रूप से बात करना भी भयावह रूप से डरावना लगता है। लोग किस बात से डरते हैं? उन्हें डर है कि उनके शब्द प्रतिशोधी व्यक्ति के कानों तक पहुँच जाएँगे, जो उनसे बदला लेना चाहेगा। बोलने के बाद वे अपना माथा पीटते हुए कहते हैं, “अरे नहीं, मैंने आज कुछ ज्यादा ही बोल दिया। देखते रहो, मुझे इसके लिए भुगतना पड़ेगा। मैं अपना मुँह बंद क्यों नहीं रख सकता?” तब से वे निरंतर भय और चिंता में रहते हैं, सावधानी बरतते हुए जीवन जीते हैं, हमेशा उस व्यक्ति के आस-पास होने पर नजर रखते हैं, सोचते हैं, “क्या उसे पता है कि मैंने क्या कहा था? क्या यह बात उसके कानों तक पहुँच गई है? क्या मेरे प्रति उसका रवैया पहले जैसा ही है?” जितना ज्यादा वे सोचते हैं उतना ही ज्यादा अशांत होते जाते हैं और जितने लंबे समय तक यह चलता है उनका डर उतना ही बढ़ता जाता है इसलिए वे तय करते हैं कि उससे पूरी तरह दूर रहना ही बेहतर है; वे सोचते हैं, “मैं उसे भड़काने का जोखिम नहीं उठा सकता मगर मैं कम से कम उससे बच तो सकता ही हूँ। चाहे वह जानता हो या नहीं कि मैंने क्या कहा है, क्या मैं उससे दूर नहीं रह सकता?” यह डर इतना प्रबल हो जाता है कि वे सभाओं में जाने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाते, ऐसी किसी भी जगह से दूर रहते हैं जहाँ यह दुष्ट व्यक्ति हो सकता है, फिर चाहे यह वही जगह क्यों न हो जहाँ उन्हें अपना कर्तव्य निभाना पड़ता है, वे बुरी तरह डरे हुए होते हैं।

प्रतिशोध की तरफ झुकाव रखने वाले बुरे लोगों से कैसे निपटा जाना चाहिए? (उन्हें बाहर निकाल दो।) यह काफी सरल है : बस चार शब्द—उन्हें बाहर निकाल दो—और काम हो गया। अगर उन्हें बाहर निकाल देने पर ज्यादातर लोग खुशी मनाते हैं, अंदर से गहरी संतुष्टि महसूस करते हैं तो उन्हें बाहर निकालने का फैसला उचित था। पहले, सभाओं के दौरान बुरे लोगों की मौजूदगी का मतलब यह था कि ज्यादातर लोग संगति करते समय बेबस होते थे; उन्हें डर होता था कि कोई गलत शब्द उन बुरे लोगों को नाराज कर सकता है इसलिए वे बोलते समय सतर्क रहते थे और उनसे बचते थे। सभाओं के दौरान एक अनकहा नियम बन गया था : अगर कोई अपनी आँखों से संकेत देता तो विषय तुरंत बदल जाता। यह वह स्थिति थी जो सामने आई थी। प्रतिशोध की तरफ झुकाव रखने वाले लोगों को बाहर निकाल दिए जाने के बाद कलीसिया में शांति आ गई, कलीसियाई जीवन सामान्य हो गया और लोगों के बीच संबंध भी सामान्य हो गए। भाई-बहन अब खुलकर परमेश्वर के वचन साझा कर सकते थे और प्रार्थना-पाठ कर सकते थे और बिना किसी के नियंत्रण के, बिना किसी से डरे और बिना किसी की अभिव्यक्तियों के प्रति सावधानी बरते स्वतंत्र रूप से अपनी अनुभवजन्य गवाहियाँ साझा कर सकते थे। इस नतीजे के आधार पर, क्या ऐसे बुरे लोगों को बाहर निकाल देना सही था? (हाँ।) बिल्कुल। उन्हें बाहर निकाल दिया जाना चाहिए। उन्हें बाहर निकाले बिना सभी के लिए जीवन असहनीय हो जाएगा और बहुत-से लोग सभाओं में जाने से भी डरेंगे। कुछ डरपोक व्यक्ति डरावने सपने भी देख सकते हैं, हमेशा बुरे राक्षसों द्वारा गला घोंटने के सपने देख सकते हैं। वे सभाओं के दौरान हमेशा अत्यधिक सतर्क रहेंगे, कभी बोलने की हिम्मत नहीं करेंगे, मुक्त और स्वतंत्र महसूस करने में असमर्थ होंगे। जब से बुरे लोगों को बाहर निकाला गया है वे पूरी तरह से बदल गए हैं : वे अब सभाओं के दौरान बोलने की हिम्मत करते हैं, संगति में पहले से ज्यादा सक्रिय हो गए हैं और वे मुक्त और स्वतंत्र महसूस करते हैं। क्या यह अच्छी बात नहीं है? (हाँ, है।) क्रूर स्वभाव वाले ऐसे प्रतिशोधी व्यक्तियों को पहचानना आसान है। आम तौर पर, किसी व्यक्ति के साथ छह महीने से ज्यादा समय तक बातचीत करने के बाद हर किसी को यह समझने और स्पष्ट रूप से देखने में सक्षम होना चाहिए कि क्या वह उस तरह का व्यक्ति है; उसके साथ कुछ समय बिताने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है। कलीसिया में अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ऐसे बुरे लोगों से निपटने में निष्क्रिय नहीं होना चाहिए। निष्क्रिय न होने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि उनसे निपटने से पहले तब तक इंतजार नहीं करना जब तक कि वे कुछ लोगों को गुमराह करके और बुरे कर्म करके सभी को आक्रोशित न कर दें—यह बहुत निष्क्रिय होना कहलाएगा। तो फिर बुरे लोगों से निपटने का सबसे अच्छा समय कब है? जब कुछ लोगों को पहले ही नुकसान पहुँचाया जा चुका होता है और वे उनके प्रति काफी बेरुखी और सतर्कता महसूस करते हैं और जब उनका पूरी तरह से बुरे लोगों के रूप में चरित्र-चित्रण किया जा चुका हो। इस मुकाम पर उनसे तुरंत निपटा जाना चाहिए और उन्हें बाहर निकाल देना चाहिए ताकि ज्यादा लोगों को नुकसान पहुँचने से बचाया जा सके और डरपोक लोग उनसे न डरें और ठोकर न खाएँ। यहाँ सबसे अहम बात क्या है? अगर बुरे लोगों को कलीसिया के भीतर बहुत लंबे समय तक गड़बड़ी पैदा करने से रोका नहीं जाता है तो इसका अंतिम नतीजा यह होता है कि वे कलीसिया और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को काबू में कर लेते हैं। अगर बात यहाँ तक पहुँच जाती है तो हर कोई पीड़ित होता है। सभी को नुकसान से बचाने के लिए यह जरूरी है कि जब कुछ लोगों को नुकसान पहुँचाया गया हो या जब कुछ लोगों ने ऐसे व्यक्तियों के प्रति गहरी नाराजगी विकसित कर ली हो और उनकी असलियत को पहचान लिया हो, तभी प्रतिशोध की तरफ झुकाव रखने वाले बुरे लोगों के रूप में उनकी पहचान करके कलीसिया के अगुआओं को तुरंत उन्हें बाहर निकाल देना चाहिए। कोई कार्रवाई करने से पहले उन्हें बुरे लोगों द्वारा अनेक बुराइयाँ करने और सार्वजनिक आक्रोश भड़काने का इंतजार नहीं करना चाहिए—यह बहुत निष्क्रिय होना होगा; और क्या ऐसे कलीसिया अगुआ बेकार नहीं होंगे? (हाँ।) इस तरह का काम करने में कलीसिया अगुआओं को ऐसे व्यक्तियों की दशाओं, अभिव्यक्तियों और खुलासों के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील होना चाहिए, जल्दी से उनके स्वभावों की असलियत समझकर यह निर्धारित करना चाहिए कि वे ऐसे बुरे लोग हैं जिन्हें बाहर निकाल दिया जाना चाहिए और जल्द से जल्द उनसे निपटना चाहिए। अगर शुरुआत में यह निर्धारित करना मुमकिन नहीं है तो उनके भाषण, व्यवहार और चाल-ढाल पर बारीकी से ध्यान देते हुए, उनके विचारों और उनके क्रियाकलापों की प्रवृत्तियों को समझते हुए जाँच-परख पर ध्यान देना जरूरी होता है। एक बार जब यह पता चल जाए कि वे अपना प्रतिशोध लेने का इरादा रखते हैं तो उन्हें बाहर निकालने के लिए तुरंत कदम उठाए जाने चाहिए ताकि ज्यादा लोगों को नुकसान पहुँचने और उनके प्रतिशोध का शिकार होने से बचाया जा सके।

कुछ कलीसिया अगुआ कहते हैं, “हम बुरे लोगों से नहीं डरते; परमेश्वर से डरने के अलावा हम किसी से नहीं डरते। हमारे लिए बुरे लोग क्या हैं? हम शैतान से भी नहीं डरते, न ही हम बड़े लाल अजगर द्वारा की जाने वाली गिरफ्तारियों और उत्पीड़न से डरते हैं तो हमें बुरे लोगों से क्यों डरना चाहिए? एक बुरा व्यक्ति बस एक छोटा शैतान है, उससे कैसा डरना? हम उन्हें कलीसिया में बनाए रखेंगे और ज्यादातर भाई-बहनों को नुकसान पहुँचने देंगे। पीड़ित होने के बाद लोगों को पहचानने की उनकी क्षमता बढ़ेगी और इससे वे अब ऐसे बुरे लोगों से बंधे और बेबस नहीं रहेंगे। यह बहुत बढ़िया होगा!” क्या ज्यादातर लोग इस आध्यात्मिक कद को प्राप्त कर सकते हैं? (नहीं।) वे नहीं कर सकते। उनकी आस्था बहुत कमजोर है, वे गिने-चुने सत्य समझते हैं और उनका आध्यात्मिक कद भी बहुत छोटा है। जब भी वे बुरे लोगों को देखते हैं तो उनसे दूर रहते हैं, उन्हें नाराज करने की हिम्मत नहीं करते। मृत्यु से डरने और अपने जीवन को महत्व देने के अलावा, ज्यादातर लोग अपने विभिन्न दैहिक हितों की भी रक्षा करते हैं; वे बुरे लोगों द्वारा की जाने वाली विभिन्न चीजों से लोगों को पहचानने या सबक सीखने में असमर्थ होते हैं। इसलिए यह विचार मौलिक रूप से अव्यावहारिक है और इससे कोई नतीजा नहीं मिल सकता। अगर कोई बुरा व्यक्ति कलीसिया में दिखता है और जब ज्यादातर लोग उस व्यक्ति को पहचान लेते हैं और निर्धारित कर चुके होते हैं कि वह एक बुरा व्यक्ति है तो उनमें से कितने लोगों में न्याय की भावना होती है कि वे उठ खड़े हों, उस बुरे व्यक्ति से नाता तोड़ें और उसके खिलाफ लड़ते हुए परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करें? ऐसे लोगों का प्रतिशत कितना है? क्या यह 10% है? अगर 10% नहीं तो क्या यह 5% है? (लगभग इतना ही है।) इसका मतलब है कि बीस लोगों के समूह में एक व्यक्ति ऐसा हो सकता है जो बुरे व्यक्ति के खिलाफ लड़ने, परमेश्वर के वचनों की मदद से उसे उजागर करने और चुनौती देने, बहस में शामिल होने और उसे कलीसिया से बाहर निकालने के लिए खड़ा होगा। ऐसे व्यक्ति परमेश्वर के चुने हुए लोगों के बीच हीरो हैं, कलीसिया के प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता बुरे लोगों से निपटने से डरते हैं। क्या ऐसे लोग अपनी भूमिकाओं के लिए उपयुक्त हैं? क्या वे परमेश्वर के लिए गवाही देने के योग्य हैं? जब वे ऐसे किसी बुरे व्यक्ति के बारे में सुनते हैं जिसे कलीसिया से बाहर निकालने की आवश्यकता है तो वे कहते हैं, “उसे बाहर निकालना थोड़ा परेशानी भरा है। मैं उसे अच्छी तरह जानता हूँ। उसे पता है कि मैं कहाँ रहता हूँ और मेरे परिवार में कौन-कौन परमेश्वर में विश्वास रखता है। अगर मैंने उसे निष्कासित किया तो वह जरूर मुझसे प्रतिशोध लेगा।” तुम लोगों का क्या ख्याल है, क्या ऐसे लोग अगुआ और कार्यकर्ता बनने के लायक हैं? (नहीं।) ऐसे किसी बुरे व्यक्ति का पता चलने पर, जिसे बाहर निकालना जरूरी है, उनका पहला विचार अपने हितों के बारे में होता है, उन्हें उस बुरे व्यक्ति के प्रतिशोध का डर होता है। वे इस बात पर विचार नहीं कर पाते कि क्या यह बुरा व्यक्ति, जिसे भाई-बहनों के कुछ सभा स्थलों और संपर्क-सूत्रों की जानकारी है, बाहर निकाले जाने के बाद कलीसिया या भाई-बहनों को धोखा दे सकता है, और उसे कैसे रोका जाना चाहिए। उनकी पहली चिंता परमेश्वर के घर के हितों की नहीं बल्कि इस डर की होती है कि यह बुरा व्यक्ति, उनके परिवार की स्थिति को जानकर गद्दारी कर सकता है और उनके परिवार पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। क्या ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता गवाही देते हैं? (नहीं।) कुछ अगुआ और कार्यकर्ता बुरे लोगों को अत्याचारी तरीके से व्यवहार करते हुए और कलीसिया को नियंत्रित करने की कोशिश करते हुए देखकर भी आवाज उठाने की हिम्मत नहीं करते। इसके बजाय वे समझौता करके बच निकलते हैं, बुरे लोगों से निपटने की हिम्मत नहीं करते। जब वे बुरे लोगों को देखते हैं तो वे ऐसे भयभीत हो जाते हैं जैसे कि उन्होंने तीन सिर और छह हाथों वाले किसी बुरे राक्षस को देख लिया हो, वे परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करने में विफल होते हैं। इस बीच कुछ साधारण भाई-बहनों में थोड़ी न्याय की भावना होती है, उनमें बुरे लोगों को पहचान कर उनके खिलाफ खड़े होने और उन्हें उजागर करने की हिम्मत और आस्था होती है, उन्हें इस बात का डर नहीं होता कि बुरे लोग उनके खिलाफ प्रतिशोध लेंगे। लेकिन ऐसे व्यक्ति कलीसिया में बहुत कम हैं। तुम लोगों ने पहले जिस 5% का जिक्र किया, वह अतिशयोक्ति हो सकती है, एक सतर्क अनुमान नहीं। इस परिप्रेक्ष्य से, प्रतिशोध की तरफ झुकाव रखने वाले क्रूर स्वभाव के व्यक्तियों के प्रति ज्यादातर लोगों का रवैया क्या है? (ज्यादातर लोग पहले अपनी सुरक्षा देखते हैं।) उनका पहला विचार खुद की रक्षा करना होता है, वे यह नहीं सोचते कि परमेश्वर के घर और भाई-बहनों के हितों की रक्षा के लिए कैसे बुरे लोगों के खिलाफ खड़े होकर लड़ना है, वे बस आत्म-रक्षा पर ध्यान देते हैं। यह आत्म-रक्षा किस समस्या का संकेत देती है? (ऐसे लोग बहुत स्वार्थी होते हैं।) पहली बात, यह एक गहरी स्वार्थी मानवता को दर्शाता है और दूसरी बात, यह दर्शाता है कि ज्यादातर लोगों की परमेश्वर में आस्था बहुत कमजोर है। वे मौखिक रूप से दावा करते हैं, “परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है; परमेश्वर हमारा सहारा है,” मगर वास्तविकता का सामना होने पर उन्हें लगता है कि वे परमेश्वर पर भरोसा नहीं कर सकते और उन्हें खुद पर निर्भर रहना चाहिए, अपनी आत्म-रक्षा को प्राथमिकता देनी चाहिए, जिसे वे सर्वोच्च बुद्धिमत्ता के रूप में देखते हैं। इसका मतलब है : “कोई भी मेरी रक्षा नहीं कर सकता, परमेश्वर पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता। परमेश्वर कहाँ है? हम उसे देख नहीं सकते! और फिर, मुझे नहीं पता कि परमेश्वर मेरी रक्षा करेगा या नहीं। अगर वह मेरी रक्षा नहीं करता है तो क्या होगा?” लोगों की आस्था बहुत दयनीय है। वे लगातार दावा करते हैं, “परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है; परमेश्वर हमारा सहारा है,” मगर जब परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं तो वे सिर्फ आत्म-रक्षा चाहते हैं, शैतान के खिलाफ लड़ने और अपनी गवाही में दृढ़ रहने में असमर्थ होते हैं, उनमें इतनी-सी भी आस्था नहीं होती। लोगों की आस्था बहुत दयनीय है; यह भी इस मामले से पूरी तरह उजागर हो जाता है। उनका आध्यात्मिक कद इतना छोटा है। प्रतिशोध की तरफ झुकाव रखने वाले उन बुरे लोगों के संबंध में, अगर कुछ ऐसे व्यक्ति हैं जो उन्हें उजागर करना चाहते हैं मगर वे अलग-थलग और शक्तिहीन महसूस करते हैं और बुरे लोगों द्वारा दबाए जाने से डरते हैं तो उन्हें कई अगुआओं और कार्यकर्ताओं या समझदार भाई-बहनों के साथ एकजुट होना चाहिए। एकजुट होने के बाद उन्हें जीत का पूरा भरोसा होगा। फिर वे ऐसे बुरे लोगों के क्रियाकलापों और व्यवहारों को उजागर कर उनका गहन-विश्लेषण कर सकते हैं जिससे ज्यादातर लोग बुरे लोगों के असली चेहरों को पहचान सकेंगे और स्पष्ट रूप से देख सकेंगे ताकि हर कोई दिल और दिमाग से एकजुट हो सके और मिलकर बुरे लोगों को बाहर निकाल सके। पहले, तुम लोगों ने जिक्र किया था कि जब बुरे व्यक्ति दिखते हैं तो परमेश्वर के चुने हुए करीब बीस लोगों में से एक के पास न्याय की भावना हो सकती है, उसमें न्यायपूर्ण ढंग से बोलने और ऐसे बुरे लोगों के खिलाफ खड़े होकर उन्हें बाहर निकालने की हिम्मत होगी। बीस में से एक बहुत ही कम है; अगर किसी कलीसिया में केवल दस लोग ही हैं तो वे बुरे व्यक्तियों को कैसे बाहर निकालेंगे? वे ऐसा नहीं कर सकेंगे; वे दस लोग बुरे लोगों के काबू में होंगे और उनके दुर्व्यवहार सहेंगे, जो स्वीकार्य नहीं है। दस में से एक या पाँच में से एक व्यक्ति में बुरे लोगों के खिलाफ खड़े होने और लड़ने का साहस होना बहुत अच्छा होगा! लगातार खुद को बचाने की कोशिश करने से न केवल शैतान के सामने गवाही खोनी पड़ सकती है, बल्कि इससे भी बदतर, परमेश्वर के सामने सत्य प्राप्त करने का अवसर खोना पड़ सकता है। कलीसिया में एक बुरा व्यक्ति होने पर कम से कम कुछ लोगों को नुकसान पहुँचेगा; अगर दो बुरे व्यक्ति हैं तो ज्यादातर लोगों को नुकसान होगा; और अगर कोई मसीह-विरोधी सत्ता में है जिसके अधीन कई साथी और अनुचर हैं तो कलीसिया में परमेश्वर के चुने हुए सभी लोगों को नुकसान होगा। क्या यही बात है? (हाँ।) बुरे लोगों के खिलाफ खड़ा होने वाला एक व्यक्ति ताकत की एक इकाई का प्रतिनिधित्व करता है जबकि बुरे लोगों के खिलाफ खड़े होने वाले दस लोग ताकत की दस इकाइयों का प्रतिनिधित्व करते हैं। तो तुम लोगों को क्या लगता है, बुरे लोग एक व्यक्ति से ज्यादा डरते हैं या दस लोगों से? (दस लोगों से।) फिर अगर बीस, तीस या पचास लोग बुरे व्यक्तियों के खिलाफ खड़े हो जाते हैं तो आखिरकार कौन जीतेगा? (भाई-बहन ही जीतेंगे।) अंत में भाई-बहन ही जीतेंगे। क्या इससे बुरे लोगों को बाहर निकालना ज्यादा आसान नहीं हो जाता है? संख्या में ताकत होती है—यह सरल अवधारणा तुम लोगों को स्पष्ट होनी चाहिए। इसलिए बुरे लोगों को पहचानना और उन्हें बाहर निकालना सिर्फ किसी अगुआ या कार्यकर्ता की जिम्मेदारी नहीं है बल्कि यह कलीसिया में परमेश्वर के चुने हुए सभी लोगों की सामूहिक जिम्मेदारी है। बुरे लोगों को बाहर निकालने के लिए परमेश्वर के चुने हुए लोगों के सहयोग के साथ-साथ अगुआओं और कार्यकर्ताओं की कोशिशों से हर कोई अच्छे दिनों का आनंद ले सकता है। अगर बुरे लोगों को बाहर नहीं निकाला जाता और उन्हें उनके पश्चात्ताप की उम्मीद में कलीसिया में रहने दिया जाता है मगर छह महीने या एक साल के बाद भी कोई सुधार नहीं दिखता और वे लगातार परमेश्वर के चुने हुए लोगों को असहनीय परेशानी देते रहते हैं तो यह बुरे लोगों पर दया दिखाने का नतीजा है। बुरे लोगों को अत्याचारी ढंग से व्यवहार करने देना और कलीसिया को काबू में करने देना खुद को और भाई-बहनों को बुरे व्यक्तियों के हाथों में सौंपने के बराबर है; यह उन्हें परमेश्वर के चुने हुए लोगों को स्वतंत्र रूप से नियंत्रित करने और गंभीर रूप से नुकसान पहुँचाने की अनुमति देना है। क्या ऐसे परिवेश में सत्य समझना और प्राप्त करना आसान होगा जिसमें बुरे लोग और मसीह-विरोधी सत्ता में हैं? (नहीं।) समय अनमोल है। बुरे लोगों को जल्द से जल्द बाहर निकालकर, तुम शांति बहाल कर सकते हो और जल्द से जल्द उचित कलीसियाई जीवन का आनंद ले सकते हो और ज्यादा सत्य समझ सकते हो। अगर तुम बुरे लोगों को बाहर नहीं निकालते तो वे पागल कुत्तों की तरह लोगों के बीच बाधा और विनाश का कारण बनेंगे, वे जो चाहते हैं वही कहेंगे और करेंगे। इससे तुम्हारे पास सत्य प्राप्त करने के लिए समय नहीं बचेगा, यानी तुम्हारे समय और तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन पर बुरे लोगों का नियंत्रण होगा। यह अच्छी बात है या बुरी? (बुरी बात।) सैद्धांतिक तौर पर, हर कोई जानता है कि यह बुरी बात है मगर जब बुरे लोग कलीसिया में बाधाएँ उत्पन्न करते हैं तो वे अब इस तरह से नहीं सोचते, केवल इस बात पर ध्यान देते हैं कि बुरे लोगों द्वारा उनके खिलाफ कोई साजिश न रची जाए या उन्हें गंभीर रूप से नुकसान न पहुँचाया जाए। अगर कलीसिया में परमेश्वर के चुने हुए सभी लोग इसी तरह बुरे लोगों से डरने लगें तो कलीसिया आसानी से इन बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों के नियंत्रण में आ जाएगी और परमेश्वर के चुने हुए लोग भी उनके द्वारा नियंत्रित होंगे। क्या तब परमेश्वर उन्हें बचा सकता है? यह कहना मुश्किल है। अगर कलीसिया में दो या तीन ऐसे लोग नहीं हैं जो सत्य समझते हों और परमेश्वर की गवाही देने और उसकी सेवा करने में एकदिल और एकमन हों तो यह निराशाजनक कलीसिया है और यह एक दुखद स्थिति है।

प्रतिशोध की तरफ झुकाव होना बुरे आचरण की अभिव्यक्ति है और यह क्रूर स्वभाव से उत्पन्न व्यवहारों और अभिव्यक्तियों में से एक है। ऐसे व्यक्ति जब इस तरह का विशिष्ट व्यवहार प्रदर्शित करते हैं तो उनका बुरे लोगों के रूप में चरित्र-चित्रण किया जाना चाहिए। बेशक कुछ लोग, क्योंकि वे दयनीय स्थिति में थे, उनमें अंतर्दृष्टि की कमी थी या वे नए विश्वासी थे जो सत्य नहीं समझते थे, हमेशा दूसरों में मीन-मेख निकालते और उन लोगों के प्रति घृणा का भाव रखते थे जो उनके प्रतिकूल थे या जिन्होंने उन्हें नुकसान पहुँचाया था या कभी कुछ लोगों के खिलाफ अपना प्रतिशोध लेने के लिए कुछ साधनों का इस्तेमाल किया था—मगर यह सुनकर कि प्रतिशोध की तरफ झुकाव रखने वाले बुरे लोग हैं और उन्हें कलीसिया से बाहर निकाल दिया जाना चाहिए, वे अपने विचार बदल देते हैं, भीतर से खुद को बदल लेते हैं और अपने व्यवहार में कुछ संतुलन और संयम प्रदर्शित करते हैं। मुझे बताओ, क्या ऐसे लोगों को बुरे लोगों की श्रेणी में माना जाता है? (नहीं।) यह किससे पता चलता है? (खुद को बदलने की उनकी क्षमता से।) खुद को बदलने की उनकी क्षमता क्या प्रदर्शित करती है? यही कि वे सत्य स्वीकार सकते हैं; यह एक अच्छी घटना है। हम ऐसा क्यों कहते हैं कि वे सत्य स्वीकार सकते हैं? क्योंकि इस संबंध में सत्य सुनने और यह महसूस करने के बाद कि प्रतिशोध लेना बुरे लोगों की अभिव्यक्ति है, वे अपनी खुद की भ्रष्ट दशा पर चिंतन करते हैं, अपने भ्रष्ट सार को स्वीकार कर परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप करते हैं, परमेश्वर के वचनों के अनुसार काम करते हैं और अपने व्यवहार को संयमित रखते हैं। यह सत्य स्वीकारने की अभिव्यक्ति है। हम यहाँ जिन बुरे लोगों की बात कर रहे हैं वे सत्य नहीं स्वीकारते। चाहे तुम उनके साथ सत्य के बारे में कितनी भी स्पष्टता से संगति करो, वे इसे स्वीकार नहीं करते; वे जिद्दी बने रहते हैं, किसी की भी बात सुनने से इनकार करते हैं। भले ही तुम उन्हें चेतावनी दो, “तुम्हारे क्रियाकलाप तुम्हें कलीसिया से बाहर निकाले जाने का कारण बनेंगे,” वे इसकी परवाह नहीं करते और अपने तरीके से चलते रहते हैं, जिसे कोई भी नहीं बदल सकता। जब तुम उन्हें उजागर करते हो तो वे अपनी गलतियाँ स्वीकार नहीं करते। जब तुम उन्हें बताते हो कि वे प्रतिशोध की तरफ झुकाव रखने वाले व्यक्ति हैं, वे बुरे हैं और उन्हें बाहर निकाल दिया जाना चाहिए तब भी वे अपने बुरे कामों को नहीं छोड़ेंगे और कतई पीछे नहीं हटेंगे। ये किस तरह के लोग हैं? वे ऐसे लोग हैं जो सत्य से विमुख हैं। वे सत्य बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते—चाहे उनके स्वभाव सार का कैसे भी चरित्र-चित्रण किया जाए, उनके बुरे कर्मों को कैसे भी उजागर किया जाए या उनसे कैसे भी निपटा जाए उन पर कोई फर्क नहीं पड़ता, वे सिर झुकाकर अपनी गलतियाँ बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करेंगे और निश्चित रूप से तुम्हें नहीं छोड़ेंगे। यह खुद को बदलने में असमर्थ होना है। खुद को नहीं बदल पाने का सार क्या है? यह सत्य स्वीकारने से इनकार करना है। अगर वे एक भी सही कथन या सत्य का एक भी पहलू स्वीकार सकते तो वे बिना मुड़े गलत मार्ग पर नहीं चलते रहते। वे अपना मार्ग बदलकर अपनी गलतियाँ स्वीकार लेते और कुछ हद तक उस चीज को छोड़ देते जिस पर वे पहले कायम थे। क्योंकि वे बुरे लोग हैं, क्योंकि वे क्रूर स्वभाव वाले बुरे व्यक्ति हैं इसलिए जब ऐसे स्वभाव से उनका प्रतिशोध लेने का व्यवहार उत्पन्न होता है तो वे न केवल परमेश्वर के वचनों द्वारा उजागर की गई चीजें, अपनी काट-छाँट या इस तरह का चरित्र-चित्रण स्वीकारने से इनकार करते हैं बल्कि इसके विपरीत वे अंत तक अपने तरीकों पर अड़े रहते हैं। वे अपना चरित्र-चित्रण या उजागर किया जाना स्वीकारने की नहीं सोचते, न ही वे अपनी भ्रष्टता स्वीकारने का इरादा रखते हैं। बेशक, अपनी भ्रष्टता स्वीकार किए बिना वे प्रतिशोध लेने के अपने व्यवहार और क्रियाकलापों को छोड़ने की भी नहीं सोचते, न ही आचरण के अपने सिद्धांत छोड़ने के बारे में सोचते हैं। वे एकदम और पूरी तरह से बुरे लोग हैं। क्या ऐसे बुरे लोग राक्षस नहीं हैं? (हैं।) वे राक्षस हैं जिनमें पूरी तरह से शैतान का सार है। तुम उन्हें बदल नहीं सकते। उन्हें क्यों नहीं बदला जा सकता? मूल कारण सत्य स्वीकारने से उनका पूर्ण इनकार है। वे जरा-से सत्य, किसी भी सही कथन, सकारात्मक शब्द या सकारात्मक चीज को भी अस्वीकार कर देते हैं। भले ही वे मौखिक रूप से परमेश्वर के वचनों को सत्य और सकारात्मक चीजों के रूप में स्वीकारते हों मगर उनका दिल बिल्कुल भी सत्य स्वीकार नहीं करता, और न ही वे अपने आचरण और चीजों को करने के तरीकों को बदलने के लिए परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और उन्हें अनुभव करने की सोचते हैं। कभी-कभी वे मौखिक रूप से स्वीकार सकते हैं कि उनके क्रियाकलाप पूरी तरह से शैतान के फलसफों पर आधारित हैं मगर वे अभी भी सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करेंगे। जो कोई भी उनके साथ सत्य पर संगति करता है उसे उनकी अत्यधिक घृणा और यहाँ तक कि उनकी नफरत और आलोचना का सामना करना पड़ता है और जो कोई भी उन्हें उजागर करता है और पहचानता है वह उनकी घृणा और प्रतिशोध का निशाना बन जाता है, फिर चाहे वह कोई भी हो—यहाँ तक कि उनके माता-पिता भी नहीं बख्शे जाते। क्या वे उद्धार से परे नहीं हैं? (बिल्कुल।) वे उद्धार से परे हैं। क्या उन्हें बाहर निकालना दयनीय है? (नहीं।) ऐसे व्यक्तियों को बहिष्कृत या निष्कासित करना ही चाहिए। ये मूल रूप से प्रतिशोध की तरफ झुकाव रखने वाले लोगों की अभिव्यक्तियाँ हैं; ये उनकी विशेषताएँ, उनके स्वभाव, उनके रास्ते और काम करने के तरीके, उनका सोचने का तरीका और साथ ही सत्य के प्रति उनका रवैया है—बस इतना ही। कलीसिया और भाई-बहनों पर उनके प्रभाव पर पहले ही चर्चा की जा चुकी है इसलिए इस पर फिर से संगति करने की कोई जरूरत नहीं है। इसके साथ ही चौथे प्रकार के लोगों की अभिव्यक्तियों पर संगति समाप्त होती है—जो प्रतिशोध की तरफ झुकाव रखते हैं।

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