अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (25) खंड एक

मद चौदह : सभी प्रकार के बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों को तुरंत पहचानो और फिर बहिष्कृत या निष्कासित कर दो (भाग चार)

विभिन्न प्रकार के बुरे लोगों को पहचानने के मानक और आधार

आज हम अगुआओं और कार्यकर्ताओं की चौदहवीं जिम्मेदारी : “सभी प्रकार के बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों को तुरंत पहचानो और फिर बहिष्कृत या निष्कासित कर दो” पर संगति जारी रखेंगे। पिछले कुछ समय में हमने ऐसे कई पहलुओं के बारे में संगति की जिन्हें अगुआओं और कार्यकर्ताओं को पहचानना चाहिए; साथ ही हमने उन प्रमुख सत्यों के बारे में भी संगति की जिन्हें उन्हें यह काम करते समय समझना चाहिए; यानी हमने इस बारे में संगति की कि सभी प्रकार के बुरे लोगों को कैसे पहचानें। सभी प्रकार के बुरे लोगों को कैसे परिभाषित किया जाता है? वे ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर में विश्वास रखने की आड़ में परमेश्वर के घर में घुसपैठ करते हैं, मगर सत्य स्वीकार नहीं करते और कलीसिया के कार्य में भी बाधा डालते हैं; ऐसे सभी लोग बुरे लोगों की श्रेणी में आते हैं। वे उनमें से हैं जिन्हें कलीसिया को बहिष्कृत या निष्कासित कर देना चाहिए; यानी वे लोग जिन्हें कलीसिया के भीतर रहने की अनुमति नहीं है। हम तीन मुख्य मानदंडों के जरिए सभी प्रकार के बुरे लोगों को पहचानते हैं और उनका गहन-विश्लेषण करते हैं। ये तीन मानदंड क्या हैं? पहला है व्यक्ति का परमेश्वर में विश्वास रखने का उद्देश्य। दूसरा है व्यक्ति की मानवता—व्यक्ति की मानवता का गहन-विश्लेषण करना ताकि स्पष्ट रूप से यह देखा जा सके कि क्या वह उनमें से है जिन्हें कलीसिया को बाहर निकाल देना चाहिए। तीसरा मानदंड क्या है? (अपने कर्तव्यों के प्रति व्यक्ति का रवैया।) अपने कर्तव्यों के प्रति व्यक्ति का रवैया तीसरा मानदंड है। पहले मानदंड पर पहले संगति की गई थी। जहाँ तक दूसरे मानदंड—व्यक्ति की मानवता—की बात है, दो बातों पर संगति की गई थी। पहली बात क्या थी? (तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करना पसंद करना।) और दूसरा? (फायदा उठाना पसंद करना।) इन दो बातों में जो कहा गया है उसके हिसाब से इन्हें बुरे लोगों की अभिव्यक्ति मानना अपर्याप्त लग सकता है मगर मैंने पहले जिन विस्तृत अभिव्यक्तियों के बारे में संगति की है उनके आधार पर इन दो प्रकार के लोगों ने बिना किसी सच्चे पश्चात्ताप के वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखा है; उनकी विभिन्न अभिव्यक्तियाँ पहले ही कलीसियाई जीवन, परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के बीच के संबंधों में बाधाएँ और विनाश लेकर आई हैं। उनकी अभिव्यक्तियों के अनुसार और उनके प्रकृति सार के आधार पर इन दो प्रकार के लोगों को बुरे लोगों की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। कलीसिया के अगुआओं और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उनकी पहचान और चरित्र-चित्रण करना चाहिए और समय रहते उन्हें बहिष्कृत कर देना चाहिए। क्या यह उचित है? (हाँ।) यह पूरी तरह से उचित है। कलीसिया में इन दो प्रकार के लोगों के व्यवहार का बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ता है; उन्हें सत्य में कोई रुचि नहीं होती, ना ही वे परमेश्वर के कार्य के प्रति जरा भी समर्पण करते हैं। भाई-बहनों के बीच वे जैसा जीवन जीते हैं वह अविश्वासियों से अलग नहीं लगता; वे अक्सर झूठ बोलते हैं और दूसरों को धोखा देते हैं, अपने कर्तव्यों को लापरवाही से और बिना किसी जिम्मेदारी की भावना के निभाते हैं और बार-बार चेतावनी दिए जाने के बाद भी नहीं बदलते। वे न केवल कलीसियाई जीवन को प्रभावित करते हैं बल्कि कलीसिया के कार्य में भी बुरी तरह से बाधा डालते हैं। बेशक वे उन लोगों में से हैं जिन्हें कलीसिया को बहिष्कृत या निष्कासित कर देना चाहिए और उन्हें बुरे लोगों के रूप में पहचानना और ऐसे लोगों की श्रेणी में रखना पूरी तरह से उचित है—ऐसा करना हद पार करना बिल्कुल नहीं है। जहाँ तक पहले प्रकार के लोगों की बात है जो तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करना पसंद करते हैं, उनकी समस्या सिर्फ इतनी साधारण नहीं होती कि वे ऐसी बातें कहते हैं जो बहुत उचित नहीं हैं या उनमें दूसरों के साथ बातचीत करने में बाधाएँ होती हैं, आदि, बल्कि उनके स्वभाव में समस्या होती है। गहरे स्तर पर उनके स्वभाव की समस्या उनके प्रकृति सार की समस्या है। उथले स्तर पर यह उनकी मानवता की समस्या है; कहने का मतलब यह है कि उनकी मानवता बेहद घृणित और घिनौनी है जिससे उनके लिए दूसरों के साथ सामान्य रूप से बातचीत करना नामुमकिन हो जाता है। उनमें न केवल पोषण देने, मदद करने या दूसरों से प्रेम करने जैसी सकारात्मक अभिव्यक्तियों की कमी होती है बल्कि उनके क्रियाकलाप और व्यवहार केवल बाधाएँ डालने, नष्ट करने और ध्वस्त करने का काम करते हैं। अगर कुछ लोग आदतन तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करने में लगे रहते हैं और चाहे खुले तौर पर हो या गुप्त रूप से हमेशा ऐसा ही करते रहते हैं जिससे कलीसिया के कार्य और भाई-बहनों पर गंभीर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है तो वे उन लोगों में से हैं जिन्हें कलीसिया को बहिष्कृत कर देना चाहिए। दूसरे प्रकार के लोग वे हैं जो फायदा उठाना पसंद करते हैं। स्थिति चाहे कोई भी हो वे हमेशा लाभ उठाने की कोशिश करते हैं, उनकी नजर हमेशा अपने हितों पर टिकी रहती है। वे सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने पर ध्यान नहीं देते और न ही वे अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभाने या अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने पर ध्यान देते हैं। इससे भी बढ़कर वे भाई-बहनों के साथ सामान्य रूप से बातचीत करने, अपनी कमियों की भरपाई करने के लिए दूसरों की ताकतों का उपयोग करने और सामान्य रिश्ते बनाने या सामान्य कलीसियाई जीवन जीने पर ध्यान नहीं देते हैं। वे इनमें से किसी भी चीज पर ध्यान नहीं देते हैं—वे केवल फायदा उठाने के लिए कलीसिया और भाई-बहनों के बीच आते हैं। जब तक वे कलीसिया में मौजूद हैं और जब तक भाई-बहन उनके संपर्क में हैं तब तक भाई-बहन अंदर से असहज महसूस करेंगे। भाई-बहन न केवल उनके क्रियाकलापों और व्यवहारों के प्रति घृणा महसूस करते हैं बल्कि मुख्य रूप से वे अक्सर अपने दिलों में काफी हद तक हस्तक्षेप और बेबसी महसूस करते हैं। “काफी हद तक” का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि वास्तविक जीवन की परिस्थितियों में कुछ व्यक्तियों को जब गैर-विश्वासियों या बुरे लोगों के उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है तो वे अपनी भावनाओं से बेबस हो जाते हैं और इनसे मुक्त नहीं हो पाते जबकि अन्य लोग इसे नापसंद करने के बाद भी आवाज उठाने की हिम्मत नहीं करते और हमेशा अंदर से बेबस और अशांत महसूस करते हैं। क्या यह भाई-बहनों के लिए गंभीर परेशानी नहीं है? (हाँ, है।) इसलिए परमेश्वर के चुने हुए लोगों को इन दो प्रकार के व्यक्तियों को पहचानना चाहिए; वे सभी जिन्हें बुरे लोगों के रूप में वर्गीकृत किया गया है उनमें से हैं जिन्हें कलीसिया को बहिष्कृत कर देना चाहिए। ऐसे व्यक्तियों से निपटने के विशिष्ट सिद्धांतों पर पिछली सभा में पहले ही संगति की जा चुकी है, इसलिए अब उन पर विस्तार से संगति नहीं की जाएगी। संक्षेप में, ऊपर जिन दो प्रकार के लोगों के बारे में संगति की गई है उन्होंने न केवल भाई-बहनों के कलीसियाई जीवन में बल्कि उनके कर्तव्यों के व्यवस्थित निर्वहन में भी बाधाएँ उत्पन्न की हैं; उनमें से कुछ के व्यवहार से ऐसे नए विश्वासी गलतियाँ कर सकते हैं या उन्हें कठिनाई हो सकती है जिनके पास अभी कोई नींव नहीं है। इसलिए उनके व्यवहार करने के तरीकों और साधनों के आधार पर, साथ ही उनकी मानवता की विभिन्न अभिव्यक्तियों और इन अभिव्यक्तियों के कारण होने वाले प्रतिकूल परिणामों के आधार पर, ये दो प्रकार के लोग उन लोगों में से हैं जिन्हें बहिष्कृत कर दिया जाना चाहिए और उन्हें बुरे लोगों की श्रेणी में रखना बिल्कुल भी गलत नहीं है। भले ही तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करना पसंद करने वाले और फायदा उठाना पसंद करने वाले लोगों के व्यवहार मानवीय धारणाओं में परिभाषित बुरे लोगों की तरह बेहद अशिष्ट या दुष्ट न लगें—भले ही उनमें ऐसी स्पष्ट अभिव्यक्तियों का अभाव हो—मगर उनके व्यवहारों और उनकी मानवता के प्रतिकूल परिणामों के कारण उन्हें कलीसिया से बहिष्कृत करना जरूरी है। ये उन दो प्रकार के लोगों की अभिव्यक्तियाँ और उनसे निपटने के सिद्धांत थे, जिनके बारे में पिछली बार चर्चा की गई थी।

II. व्यक्ति की मानवता के आधार पर

ग. स्वच्छंद और असंयमित होना

आज हम तीसरे प्रकार के लोगों से शुरू करते हुए, कई अन्य प्रकार के लोगों की मानवता के संबंध में उन की अभिव्यक्तियों पर संगति करना जारी रखेंगे। इन लोगों की मानवता की प्राथमिक विशेषता क्या है? यह नैतिक पतन और संयम की कमी है। शाब्दिक परिप्रेक्ष्य से नैतिक पतन और संयम की कमी को समझना काफी आसान है; इसका मतलब है कि इन व्यक्तियों का व्यवहार, आचरण और बोली अनुचित प्रतीत होती है—वे सम्मानित और सभ्य व्यक्ति नहीं हैं। यह इस प्रकार के लोगों की अभिव्यक्तियों की एक बुनियादी समझ है। यह अपरिहार्य है कि कलीसिया में परमेश्वर में विश्वास रखने वाले कुछ लोगों के विचारों और उनके अनुसरण के तरीकों में भटकाव या त्रुटियाँ होंगी। उनके भाषण और आचरण में किसी भी प्रकार की भक्ति का अभाव होता है, जीवन में उनकी अभिव्यक्तियाँ और उनकी मानवता की गुणवत्ता संतों की शिष्टता पर बिल्कुल भी खरी नहीं उतरती हैं और उनमें परमेश्वर का भय मानने वाला दिल बिल्कुल नहीं होता है। कुल मिलाकर, उनके भाषण, व्यवहार और आचरण को केवल स्वच्छंद और असंयमित के रूप में वर्णित किया जा सकता है। बेशक विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ अनेक हैं जो सभी को दिखाई देती हैं और जिन्हें पहचानना आसान है। ये लोग छद्म-विश्वासियों और अविश्वासियों के समान हैं; खास तौर पर वे बहुत अनैतिक व्यवहार करते हैं। जब सभाओं की बात आती है तो उनका पहनावा और सजना-संवरना काफी बेपरवाह होता है। कुछ लोग अपने घरों से निकलने से पहले खुद को साफ-सुथरा करने की जहमत नहीं उठाते, अस्त-व्यस्त अवस्था में, बालों को कंघी किए बिना और चेहरा धोए बिना सभाओं में आ जाते हैं। कुछ लोग गंदे दिखते हैं, सभाओं में पुरानी चप्पल या पुराना पजामा पहनकर जाते हैं। अन्य लोग गंदे तरीके से रहते हैं, व्यक्तिगत स्वच्छता पर कोई ध्यान नहीं देते और सभाओं में गंदे कपड़े पहनने से गुरेज नहीं करते। ये सभी लोग सभाओं को बहुत लापरवाही से लेते हैं, मानो कि किसी पड़ोसी के घर जा रहे हों, इसे गंभीरता से नहीं लेते। सभाओं के दौरान उनका भाषण और व्यवहार भी असंयमित होता है और वे बिना किसी संकोच के जोर-जोर से बोलते हैं, यहाँ तक कि खुश होने पर काफी उत्तेजित हो जाते हैं और अजीबोगरीब मुद्राएँ बनाते हैं और अत्यधिक भोगविलासिता दिखाते हैं। चाहे कितने भी लोग मौजूद हों, वे हँसते हैं, मजाक करते हैं, हाथ लहराकर बातें करते हैं, पैर पर पैर चढ़ाकर बैठते हैं, और ऐसा व्यवहार करते हैं मानो वे बाकी सभी से ऊपर हैं; वे विशेष रूप से तड़क-भड़क वाले और यहाँ तक कि घमंडी होते हैं, किसी से बात करते समय कभी भी सीधे आँखों में नहीं देखते, बल्कि उनकी निगाहें इधर-उधर घूमती रहती हैं। क्या यह स्वच्छंदता नहीं है? (बिल्कुल है।) यह विशेष रूप से भोगविलासी और असंयमित होना है। बेशक, अविश्वासी ऐसे व्यक्तियों के इस भाषण और व्यवहार का कारण अच्छी परवरिश न होना मान सकते हैं मगर हम इसे अलग तरह से समझते हैं; यह केवल अच्छी परवरिश न होने का मामला नहीं है। वयस्कों के रूप में लोगों को दूसरों से बात करने, व्यवहार करने और मेलजोल करने के सही और उचित तरीके साफ तौर पर पता होने चाहिए—खासकर उन्हें यह जानना चाहिए कि ऐसा कैसे किया जाए जो संतों की मर्यादा के अनुकूल हो, जो भाई-बहनों का नैतिक उत्थान करे और जो सामान्य मानवता के अंतर्गत हो—उसे यह बताए जाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। खासकर कलीसियाई जीवन जीते हुए भाई-बहनों की मौजूदगी में भले ही मुखौटा लगाने की कोई जरूरत नहीं है लेकिन संयमित होना जरूरी है। तो फिर इस संयम का मापदंड और अपेक्षित मानक क्या है? यह संतों की मर्यादा के अनुरूप होना है। व्यक्ति की वेशभूषा सम्मानित और सभ्य होनी चाहिए, उसे अजीबोगरीब कपड़ों से परहेज करना चाहिए। परमेश्वर की उपस्थिति में व्यक्ति को श्रद्धापूर्ण रवैया रखना चाहिए और बड़ी-बड़ी बातें नहीं करनी चाहिए; बेशक अन्य लोगों के सामने भी उन्हें श्रद्धा भाव रखना चाहिए और मानव के समान बने रहना चाहिए, ताकि वे खुद को ऐसे तरीके से पेश करें जो दूसरों के लिए उपयुक्त, लाभकारी और शिक्षाप्रद हो। यही परमेश्वर को संतुष्ट करता है। जो लोग स्वच्छंद और असंयमित होते हैं वे मानवता के सबसे बुनियादी पहलुओं को जीने पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं देते और उनकी उदासीनता का एक निश्चित कारण यह है कि उन्हें इस बात का कोई अता-पता नहीं है कि एक श्रद्धेय या ईमानदार और सम्मानित व्यक्ति कैसे बनें जो सम्मान का पात्र हो; वे इन चीजों को समझते ही नहीं हैं। इसलिए कलीसिया द्वारा सभाओं में अजीब कपड़े पहनने के बजाय साफ-सुथरे, सम्मानित और सभ्य कपड़े पहनने की बार-बार रखी गई शर्तों और माँगों के बावजूद वे इन नियमों को गंभीरता से नहीं लेते, वे अक्सर चप्पल पहनकर, अस्त-व्यस्त हालत में या यहाँ तक कि पजामा पहनकर आ जाते हैं। यह स्वच्छंद और असंयमित लोगों की कई अभिव्यक्तियों में से एक अभिव्यक्ति है।

जो लोग स्वच्छंद और असंयमित होते हैं वे एक और तरह का व्यवहार प्रकट करते हैं, वह है फैशन के हिसाब से कपड़े पहनना और सभाओं में मोटा, आकर्षक मेकअप लगाकर आना। वे हर सभा से दो दिन पहले सजना-संवरना शुरू कर देते हैं, इस बात पर विचार करते हैं कि क्या मेकअप करें, कौन-से गहने पहनें, कौन-सा हेयरस्टाइल चुनें, कौन-से कपड़े पहनें, कौन-सा बैग ले जाएँ और कौन-से जूते पहनें। कुछ महिलाएँ तो विमोहक लिपस्टिक, आईशैडो और नोज कॉन्टोर भी लगाती हैं और कुछ चरम मामलों में तो वे अत्यधिक विमोहक तरीके से खुद को सजाती हैं, अपने कंधे और पीठ दिखाने वाले अजीबोगरीब कपड़े पहनती हैं। सभाओं में ये लोग भाई-बहनों की संगति को ध्यान से नहीं सुनते, न ही वे प्रार्थना करते हैं; वे संगति में भाग तो लेते ही नहीं या अपनी व्यक्तिगत समझ और अनुभवजन्य गवाहियाँ भी दूसरों के साथ साझा नहीं करते। इसके बजाय वे हर किसी से खुद की तुलना करते हैं, इस बात पर ध्यान देते हैं कि कौन उनसे बेहतर या खराब कपड़े पहने हुए है, किसने विशेष रूप से लोकप्रिय ब्रांड के कपड़े पहने हैं, किसने सस्ते बाजारू कपड़े पहने हैं, किसके कंगन की कीमत कितनी है, वगैरह-वगैरह; वे केवल इन मामलों पर ध्यान देते हैं, यहाँ तक कि अक्सर खुलेआम ऐसी टिप्पणियाँ करते हैं। इन व्यक्तियों के पहनावे, साथ ही इनके भाषण, व्यवहार और आचरण से यह स्पष्ट है कि कलीसियाई जीवन में उनकी भागीदारी और भाई-बहनों के साथ उनकी बातचीत का उद्देश्य सत्य समझना नहीं है और स्वभाव में बदलाव लाने के लिए जीवन प्रवेश का अनुसरण करना तो और भी नहीं है; इसके बजाय वे सभाओं के दौरान समय का उपयोग अपने धन और भौतिक जीवन के आनंद का दिखावा करने के लिए करते हैं। कुछ लोग दिखावा करने के लिए नामी ब्रांड के कपड़े पहनकर सभा स्थलों पर आते हैं, भाई-बहनों के बीच फैशन और सामाजिक रुझानों की अपनी इच्छाएँ पूरा करते हैं और दूसरों को इन रुझानों का अनुसरण करने के लिए लुभाते हैं ताकि वे उनसे ईर्ष्या करें और उनका आदर करें। कुछ भाई-बहनों की नजरें और उनके प्रति घृणा के रवैये को देखने के बाद भी वे उपेक्षा करते रहते हैं, अपने तरीके से काम करना जारी रखते हैं, और ऊँची एड़ी के जूते पहनते हैं और डिजाइनर बैग साथ रखते हैं। कुछ लोग तो सभाओं में खुद को संपन्न, धनी व्यक्ति के रूप में पेश करने की कोशिश में घटिया किस्म का परफ्यूम लगाकर आते हैं जिससे कमरे में प्रवेश करने के बाद परफ्यूम, ब्लशर और हेयर ऑयल की मिली-जुली खुशबू तीखी और खराब दुर्गंध बन जाती है। सभा में भाग लेने वाले कई अन्य लोग गुस्सा होते हैं मगर आवाज उठाने की हिम्मत नहीं करते, इन लोगों को देखकर ही घृणा महसूस करते हैं और जो लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास रखते हैं वे उनसे दूरी बनाए रखते हैं। चाहे उनका पहनावा और सजना-संवरना काफी आलीशान हो या काफी साधारण, ऐसे व्यक्तियों की पहचान उनका असाधारण रूप से स्वतंत्र और अनुशासनहीन भाषण, व्यवहार, आचरण और जीवनशैली है, वो भी न केवल सभाओं के दौरान बल्कि भाई-बहनों के साथ उनकी रोजमर्रा की बातचीत में या उनके दैनिक जीवन में भी। सटीक रूप से कहें तो वे विशेष रूप से भोगविलासी होते हैं, उन में जरा-सा भी संयम नहीं होता। उनके दैनिक जीवन में नियमित पैटर्न नहीं होते; वे जो मन चाहे बोल देते हैं, बेपरवाह होकर और मनमर्जी से काम करते हैं, कभी व्यक्तिगत अनुभवों पर चर्चा नहीं करते, परमेश्वर के वचनों के बारे में अपनी समझ शायद ही कभी साझा करते हैं और अपने कर्तव्यों को करने में आने वाली कठिनाइयों के बारे में बिल्कुल भी बात नहीं करते हैं। वे किन गिने-चुने विषयों पर चर्चा करते हैं? सामाजिक रुझान, फैशन, लजीज भोजन, समाज के मशहूर व्यक्तियों और यहाँ तक कि सितारों के निजी जीवन, और समाज की असामान्य कहानियों और किस्सों के बारे में चर्चा करते हैं। उनके इन स्वाभाविक खुलासों से यह देख पाना मुश्किल नहीं है कि ऐसे लोगों का परमेश्वर में विश्वास केवल जीवन में जैसे-तैसे काम करने के लिए है। उनका जीवन कलीसियाई जीवन जीने, अपना कर्तव्य निभाने या सत्य का अनुसरण करने जैसे मामलों के बजाय पूरी तरह से खाने, पीने और मौज-मस्ती करने पर केंद्रित होता है। “स्वच्छंद और असंयमित” का अर्थ यह है कि इन व्यक्तियों की जीवनशैली, वे मानवता में क्या जीते हैं, और चीजों को सँभालने, दूसरों के साथ व्यवहार करने और दूसरों के साथ बातचीत करने के उनके तरीके, सभी स्वच्छंद और असंयमित होते हैं। वे अक्सर समाज की लोकप्रिय अभिव्यक्तियों की नकल करते हैं; चाहे भाई-बहन उन्हें सुनना पसंद करें या न करें, चाहे वे उन्हें समझ पाएँ या नहीं, ये लोग बस बोलते ही रहते हैं। वे अक्सर समाज की कुछ मशहूर हस्तियों और संगीत और फिल्मी सितारों की बातों की नकल भी करते हैं। जहाँ तक परमेश्वर के घर में और भाई-बहनों के बीच अक्सर इस्तेमाल की जाने वाली सकारात्मक शब्दावली की बात है, वे इसमें कभी भी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाते; वे अपने दैनिक जीवन में कभी भी सत्य के बारे में संगति नहीं करते हैं। वे सांसारिक प्रवृत्तियों को आदर्श मानते हैं; वे विभिन्न मशहूर हस्तियों और सितारों को आदर्श मानकर उनकी पूजा और नकल करते हैं। उदाहरण के लिए, वे इंटरनेट पर प्रचलित शब्दों और वाक्यांशों को तुरंत पकड़ लेते हैं और उनका अपने जीवन में और भाई-बहनों के साथ बातचीत में इस्तेमाल करते हैं। बेशक ये शब्द यकीनन कहीं से भी सकारात्मक या शिक्षाप्रद नहीं होते हैं; ये सभी नकारात्मक हैं जो परमेश्वर में विश्वास रखने वालों के लिए कोई मूल्य और मायने नहीं रखते। ये भ्रष्ट और बुरी मानवजाति द्वारा निर्मित लोकप्रिय अभिव्यक्तियाँ हैं जो पूरी तरह से बुरी शक्तियों के विचारों और दृष्टिकोणों का प्रतिनिधित्व करती हैं। ऐसे शब्दों पर अक्सर कलीसिया में मौजूद वे छद्म-विश्वासी जो बुरी प्रवृत्तियों के शौकीन हैं, ध्यान देते हैं, उन्हें स्वीकारते और उनका इस्तेमाल करते हैं। वे परमेश्वर के घर की आध्यात्मिक शब्दावली और शब्दकोश से बहुत दूर रहते हैं, उन्हें गंभीरता से नहीं सुनते या उनके बारे में नहीं सीखते। इसके विपरीत वे अविश्वासी संसार की नकारात्मक और ऐसी चीजों को जल्दी से समझ लेते हैं और उनका इस्तेमाल करते हैं जिन पर घटिया लोग ध्यान देते हैं। इस प्रकार ये व्यक्ति, चाहे उनके बाहरी पहनावे, भाषण और आचरण से देखा जाए या उनके द्वारा प्रकट की गई चीजों के प्रति विभिन्न विचारों और दृष्टिकोणों और रवैये से देखा जाए, वे भाई-बहनों के बीच असाधारण रूप से अलग दिखते हैं। अलग होने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि उनके भाषण, व्यवहार और आचरण अविश्वासियों जैसे हैं, जिनमें कोई भी बदलाव नहीं दिखता; वे बस छद्म-विश्वासी हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग परमेश्वर के घर के मंच पर दो भजन गाकर सबसे वाह-वाही पाते हैं और खुद को सितारा या कोई बड़ी हस्ती समझने लगते हैं, हमेशा अपनी परफॉरमेंस के लिए भारी मेकअप लगाने की मांग करते हैं, किसी सेलिब्रिटी का हेयरस्टाइल अपनाने पर जोर देते हैं, और बालों को अजीब रंगों में रंगते हैं। जब दूसरे कहते हैं : “विश्वासियों को गरिमा और शालीनता के साथ कपड़े पहनने चाहिए; तुम्हारा पहनावा परमेश्वर के घर की आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं है” तो वे शिकायत करते हुए कहते हैं, “परमेश्वर के घर के नियम बहुत सख्त हैं; क्या मुसीबत है! यहाँ सितारा बनना इतना मुश्किल क्यों है?” सिर्फ दो भजन गाकर वे खुद को सितारा मान लेते हैं और सोचते हैं कि वे बहुत बढ़िया हैं, और अपने खाली समय में विचार करते हैं : “अविश्वासी संसार के सितारे माइक्रोफोन को पकड़ने के लिए कितनी उँगलियों का उपयोग करते हैं? मंच पर आने के लिए वे कितने कदम उठाते हैं? जब मैं इतना अच्छा गाता हूँ तो मुझे फूल क्यों नहीं मिलते? अन्य जाति राष्ट्रों के सितारों के पास एजेंट और सहायक होते हैं; उन्हें ज्यादातर मामलों को खुद से सँभालना या हल करना नहीं पड़ता, उनके सहायक सब कुछ कर देते हैं। मगर परमेश्वर के घर में एक गायक के रूप में मुझे भोजन लेना, कपड़े पहनना और खरीदारी जैसी साधारण कामों का ध्यान खुद ही रखना पड़ता है। परमेश्वर का घर बहुत रूढ़िवादी है!” अपने दिलों में वे हमेशा परमेश्वर के घर में रहते हुए दुखी महसूस करते हैं; वे विशेष रूप से अन्याय से पीड़ित, हमेशा असंतुष्ट और शिकायतों से भरे हुए महसूस करते हैं। क्या ऐसा व्यक्ति सत्य से प्रेम कर सकता है? क्या वे सत्य का अभ्यास करेंगे? वे आत्म-चिंतन क्यों नहीं करते? चीजों को लेकर उनका परिप्रेक्ष्य बहुत विकृत है, अविश्वासियों के समान है; उन्हें यह एहसास कैसे नहीं होता? परमेश्वर का घर उन्हें सितारा बनने से नहीं रोकता मगर क्या उनके ये दृष्टिकोण और रवैये—जो छद्म-विश्वासियों के हैं—परमेश्वर के घर में व्यावहारिक हैं? वे मूल रूप से असमर्थनीय हैं। उनके सामान्य भाषण और आचरण ज्यादातर लोगों के लिए घृणित हैं। अपने “खुले विचारों” और अत्यधिक भोगविलास के कारण ऐसे लोग जो कुछ भी कहते या करते हैं वह स्वच्छंद और असंयमित होता है जिससे शैतान के स्वभाव के अलावा और कुछ भी प्रकट नहीं होता।

परमेश्वर का घर बार-बार इस बात पर जोर देता है कि भाई-बहनों को पुरुषों और महिलाओं के बीच की सीमाओं को बनाए रखना चाहिए और विपरीत लिंग के साथ गहरा जुड़ाव नहीं रखना चाहिए। लेकिन कुछ लोग स्वच्छंद और असंयमित होते हैं जो इस सलाह पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं देते हैं और यहाँ तक कि दूसरों को चोरी-छिपे लुभाने या उनसे प्रेम संबंध बनाने की कोशिश करते हैं जिससे कलीसियाई जीवन में बाधा पड़ती है। वे विपरीत लिंग के लोगों से मेलजोल करना पसंद करते हैं, यहाँ तक कि उनसे संपर्क करने और उनके साथ मजाकिया ढंग से बातचीत करने के लिए कारण और बहाने भी खोजते रहते हैं। विपरीत लिंग के किसी आकर्षक व्यक्ति या जिसके साथ उनका मेलजोल है उसे देखकर अपनी ओर खींचने लगते हैं, छेड़खानी और मजाक करते हैं, उनके कपड़ों के साथ छेड़छाड़ करते हैं और उनके बालों को बिखेरते हैं और यहाँ तक कि सर्दियों में उनके कपड़ों में बर्फ के गोले भी फेंकते हैं; वे बिना किसी सीमा या सम्मान की भावना के, बेशर्म होकर जानवरों की तरह एक-दूसरे के साथ खेलते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “इसे मजाकिया व्यवहार कैसे माना जा सकता है? वे स्नेह दिखा रहे हैं; इसे प्रेमपूर्ण होना, रूमानी होना कहते हैं।” अगर तुम रूमानियत की तलाश में हो तो तुमने गलत जगह चुनी है। कलीसिया में भाई-बहन अपने कर्तव्य निभाते हैं; यह परमेश्वर की आराधना करने की जगह है न कि इश्कबाजी करने की। सबके सामने इस तरह के व्यवहार का सार्वजनिक प्रदर्शन करने से ज्यादातर लोगों को घृणा और विरक्ति होती है। मुख्य मुद्दा यह है कि इससे दूसरों का कोई नैतिक उत्थान नहीं होता और तुम अपनी ईमानदारी और गरिमा भी खो देते हो। तुम्हारी उम्र कितनी है? क्या तुम अपने दाएँ और बाएँ हाथ में अंतर नहीं बता सकते? क्या तुम पुरुषों और महिलाओं के बीच का अंतर नहीं समझते? और फिर भी तुम इश्कबाजी में लगे रहते हो! सात-आठ साल के बच्चों का इधर-उधर खेलना सामान्य बात है; इस तरह का व्यवहार और रुचियाँ उनकी उम्र के हिसाब से सामान्य हैं। लेकिन अगर वयस्क इस तरह का व्यवहार करें तो क्या यह बचकाना नहीं है? सीधे शब्दों में कहें तो यह बिल्कुल ऐसा ही है। सार के संदर्भ में, यह क्या है? (भोगविलास, स्वच्छंदता।) यह पूरी तरह से स्वच्छंदता है! परमेश्वर में विश्वास रखते हुए, व्यक्ति को सम्मान की भावना रखना आना चाहिए। अविश्वासियों में भी बहुत कम लोग इस तरह का स्वच्छंद व्यवहार करते हैं। ऐसे स्वच्छंद व्यक्ति कितने तुच्छ और घृणित होते हैं! उत्तेजना के लिए अन्य पुरुषों और महिलाओं के कपड़ों में बर्फ के गोले फेंकते हैं, न केवल उनके पीछे भागते हैं बल्कि मजाकिया ढंग से प्रेमालाप में उनके पीछे लात भी मारते हैं—जब कोई इस तथ्य को उजागर करता है कि ऐसा व्यवहार बहुत ही अनैतिक है और पुरुषों और महिलाओं के बीच की सीमाओं को धुँधला करता है तो वे जवाब देते हैं, “हम सिर्फ इसलिए इस तरह से खिलवाड़ करते हैं क्योंकि हम बहुत करीब हैं; लोगों को समझना चाहिए।” वे इस हद तक भोगविलासी हो जाते हैं, न केवल खुद भोगविलास में लिप्त होते हैं बल्कि दूसरों को भी अपने साथ भोगविलास में लिप्त होने के लिए लुभाते हैं। यह कैसी दुष्टता है? मुझे बताओ, क्या ऐसे लोगों को कलीसिया में रहना चाहिए? (नहीं।) इस तरह के व्यक्ति के आस-पास रहना हमेशा असहज और अजीब लगता है। जब वे किसी को देखते हैं तो सामान्य रूप से उनका अभिवादन नहीं करते; बल्कि वे उन्हें एक मुक्का मारते हुए कहते हैं, “तू इतने सालों से कहाँ था? मुझे तो लगा कि तू इस दुनिया से चला गया! कैसा रहा?” यहाँ तक कि उनके अभिवादन का तरीका भी बहुत अक्खड़ और घमंडी है; वे न केवल अक्खड़ तरीके से बोलते हैं बल्कि वे दूसरों के साथ धक्का-मुक्की भी करते हैं। क्या यह गुंडों और डाकुओं जैसा व्यवहार नहीं है? क्या तुम लोग ऐसे लोगों को पसंद करते हो? (नहीं।) क्या मजाक उड़ाए जाने और खिलवाड़ किए जाने का एहसास आरामदायक है? (नहीं।) यह असहज है और तुम इसे व्यक्त भी नहीं कर सकते; तुम्हें बस इसे सहना पड़ेगा और अगली बार जब तुम उनसे मिलते हो तो उनसे दूर से ही बच निकलते हो। संक्षेप में, यह ऐसे लोगों की मानवता की गुणवत्ता के बारे में क्या कहता है? (उनकी मानवता की गुणवत्ता खराब है।) उन्हें चाहे जिस भी पहलू से देखा जाए—चाहे उनकी बोली और चाल-चलन हो, उनका व्यक्तिगत आचरण हो, उनके संसार से निपटने और दूसरों के साथ बातचीत का तरीका हो, अविश्वासी संसार की प्रवृत्तियों के प्रति उनका दृष्टिकोण हो या भले ही परमेश्वर में विश्वास रखने का तरीका हो, परमेश्वर और उसके वचनों के प्रति उनका रवैया हो—यह देखना मुश्किल नहीं है कि इन व्यक्तियों में किसी भी प्रकार की भक्ति या परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं होता है। न ही कोई उनमें सत्य खोजने या सत्य स्वीकारने की कोई गंभीरता देख सकता है। उनमें केवल स्वच्छंद और असंयमित होना, उनके द्वारा सितारों और आदर्श व्यक्तियों का निरंतर अनुकरण देखा जा सकता है और चाहे सत्य पर कितनी भी संगति की जाए, उनका मार्ग बदलने का कोई इरादा नहीं है। उनकी मानवता की विशेषताओं को किस प्रकार संक्षेपित किया जा सकता है? स्वच्छंद और असंयमित होना। इस प्रकार यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि वे अविश्वासी हैं, जिन्होंने परमेश्वर के घर में घुसपैठ की है; वे छद्म-विश्वासी हैं।

स्वच्छंद और असंयमित लोग उन्हीं शब्दों का उपयोग करते हैं जो अविश्वासी दुनिया के डाकुओं और गुंडों द्वारा उपयोग किए जाते हैं; वे खास तौर से समाज के सितारों और नकारात्मक शख्सियतों की बोली और शैली की नकल करने का आनंद लेते हैं, उनकी ज्यादातर भाषा में एक घिनौना लहजा होता है जिसे सुनकर लगता है मानो कोई गुंडा या बदमाश बोल रहा हो। मिसाल के तौर पर, जब कोई अविश्वासी आता है, तो दरवाजा खटखटाने के बाद वह कुछ अजीब वाक्यांश बड़बड़ाता है, इस पर भाई-बहन कहते हैं, “कुछ तो गड़बड़ है; यह व्यक्ति भेदिया या जासूस जैसा क्यों लगता है?” वैसे तो फिलहाल उन्हें यकीन नहीं हो सकता है, लेकिन ज्यादातर लोग इससे असहज महसूस करते हैं। फिर भी, जो व्यक्ति स्वच्छंद है और असंयमित है, वह प्रभावशाली ढंग से बोलता है, और एक खास अंदाज में कहता है, “भेदिया? मैं नहीं डरता! उससे क्यों डरना? अगर तुम लोग डर गए हो, तो तुम्हें बाहर जाने की जरूरत नहीं है। मैं जाकर देखता हूँ कि उसका क्या मामला है।” देखो वे कितने दिलेर और दबंग हैं। क्या तुम लोग इस तरह से बोलोगे? (नहीं, यह सामान्य लोगों के बात करने का तरीका नहीं है; इस तरीके से डाकू बोलता है।) डाकू सामान्य लोगों से अलग तरीके से बोलते हैं; वे खास तौर से दबंग होते हैं। लोग अपने जैसे लोगों की भाषा सीखते हैं; अपना बचाव करने में सक्षम लोग विशेष रूप से समाज की लोकप्रिय भाषा अपनाते हैं, डाकू और गुंडे अपनी शब्दावली बोलना पसंद करते हैं, और छद्म-विश्वासी बिल्कुल अविश्वासियों जैसे होते हैं, वे वह सब कुछ कहते हैं जो अविश्वासी कहते हैं। अविश्वासियों की बोली सुनकर अच्छे, गरिमापूर्ण, सुसभ्य लोग नाराजगी और नफरत महसूस करते हैं; उनमें से कोई भी उस तरह की बोली की नकल करने का प्रयास नहीं करता है। कुछ छद्म-विश्वासी दस या बीस वर्षों तक विश्वास करने के बाद भी अविश्वासियों की भाषा का उपयोग करते हैं, जानबूझकर ऐसी बोली चुनते हैं, और यहाँ तक कि बोलते समय वे अविश्वासियों की चाल-ढाल, उनकी अभिव्यक्तियों और उनके हाव-भाव की ही नकल करते हैं; साथ ही, अपनी आँखों से भी ऐसे हाव-भाव दिखाते हैं। क्या ऐसे व्यक्ति कलीसिया में भाई-बहनों की नजरों में सुखद हो सकते हैं? (नहीं।) ज्यादातर भाई-बहनों को उन्हें देखना घिनौना और असहज लगता है। तुम लोगों के विचार से परमेश्वर उनके बारे में क्या महसूस करता है? (नफरत।) इसका उत्तर स्पष्ट है : नफरत। वे जो कुछ जीते हैं, उनके अनुसरणों, और वे अपने दिलों में जिन लोगों, घटनाओं और चीजों का आदर करते हैं, उससे यह स्पष्ट है कि उनकी मानवता में गरिमा या भद्रता शामिल नहीं है और इसमें निष्ठा का अभाव है और यह संतों की मर्यादा के उपयुक्त नहीं है। उनके मुँह से शायद ही कभी वे शब्द सुनाई देते हैं जो विश्वासियों या संतों को बोलने चाहिए और जो शब्द दूसरों का नैतिक उत्थान करते हैं और ईमानदारी और गरिमा व्यक्त करते हैं, उनके द्वारा इन्हें कहने की संभावना नहीं है। वे अपने दिलों में जिसका आदर करते हैं, जिसकी आकांक्षा करते हैं और जिसका अनुसरण करते हैं, वह मूल रूप से उसके साथ असंगत है जिसका संतों को अनुसरण और आकांक्षा करनी चाहिए, जिससे वे बाहरी रूप से जिस चीज को जीते हैं उसे उनकी बोली और उनकी चाल-ढाल को सीमित करना मुश्किल हो जाता है। उन्हें सीमित रहने, स्वच्छंद या आसक्त नहीं होने, और गरिमा और भद्रता बनाए रखने के लिए कहना एक मुश्किल कार्य है। मानवता और सूझ-बूझ वाले किसी ऐसे व्यक्ति की तरह जीने की तो बात ही छोड़ दो जो सत्य को समझता है और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करता है, वे तो ईमानदारी और गरिमा के साथ एक सामान्य व्यक्ति बनने का लक्ष्य भी हासिल नहीं कर सकते हैं जो संतों की मर्यादा के उपयुक्त हो, नियमों का पालन करता हो और बाहर से तार्किक दिखाई देता हो। इससे पहले, एक व्यक्ति था जो सुसमाचार के प्रचार के लिए ग्रामीण इलाकों में गया और उसने देखा कि कुछ भाई-बहनों के परिवार बहुत गरीब थे और टूटे-फूटे घरों में रहते थे। उसने ताना देते हुए और मजाक उड़ाते हुए कहा, “यह घर बहुत ही टूटा-फूटा है, यह लोगों के रहने लायक नहीं है; यह सिर्फ सूअरों के रहने लायक है। तुम लोगों को जल्दी से यह घर छोड़ देना चाहिए!” भाई-बहनों ने उत्तर दिया, “यह घर छोड़ देना तो आसान है, लेकिन हमें रहने के लिए दूसरा घर कौन देगा?” उसने बिना विचारे और मनमाने ढंग से बात की, उसके मन में जो भी आया, उसने वही कह दिया और यह तक नहीं सोचा कि दूसरों पर उसका क्या प्रभाव पड़ सकता है। यह एक नीच प्रकृति है। भाई-बहनों ने पूछा, “अगर हमने यह घर छोड़ दिया, तो हमें रहने के लिए घर कौन देगा? क्या तुम्हारे पास घर है?” उसके पास कोई उत्तर नहीं था। लोगों को मुश्किल का सामना करते हुए देखकर उसे बोलने से पहले उनकी मुश्किल दूर करने में समर्थ होना चाहिए। उनकी मुश्किल दूर करने में सक्षम हुए बिना ही उसके अंधाधुंध बोलने के क्या परिणाम हुए थे? क्या यह बहुत ज्यादा बेबाक और स्पष्टवादी होने की समस्या थी? बिल्कुल नहीं। यहाँ समस्या यह थी कि उसका घटियापन बहुत ज्यादा गंभीर था; वह स्वच्छंद और असंयमित था। ऐसे लोगों में ईमानदारी, गरिमा, विचार, सहनशीलता, देखभाल, सम्मान, समझ, सहानुभूति, करुणा, विचारशीलता, सहायता वगैरह की कोई अवधारणा नहीं होती है। सामान्य मानवता के लिए जरूरी ये गुण लोगों में होने चाहिए। उनमें ना सिर्फ इन गुणों का अभाव होता है, बल्कि दूसरों के साथ अपने व्यवहार में किसी को मुश्किलों का सामना करते हुए देखकर वे उसका उपहास भी कर सकते हैं, उसका मजाक उड़ा सकते हैं और उसे ताना दे सकते हैं; वे ना सिर्फ उन्हें समझने या उनकी सहायता करने में असमर्थ होते हैं, बल्कि वे उनके लिए दुःख, लाचारी, दर्द और यहाँ तक कि परेशानी भी ले आते हैं। ज्यादातर लोग ऐसे गंभीर घटियापन वाले लोगों को स्पष्ट रूप से पहचान लेते हैं और उन्हें बार-बार सहते हैं। क्या तुम लोगों को लगता है कि ऐसे लोगों को सच्चा पश्चात्ताप हो सकता है? मुझे नहीं लगता है कि यह संभव है। उनके प्रकृति सार को देखते हुए, यह स्पष्ट है कि वे सत्य के प्रेमी नहीं हैं, इसलिए वे काट-छाँट और अनुशासित किए जाने को कैसे स्वीकार सकते हैं? ऐसे लोगों का वर्णन करने के लिए अविश्वासियों के पास इस तरह के शब्द होते हैं, “अपने तरीके पर अड़े रहना” या “दूसरों की बातों की परवाह किए बिना अपने मार्ग पर चलना”—यह क्या हास्यास्पद तर्क है? इन तथाकथित मशहूर कहावतों और मुहावरों को अक्सर इस समाज में सकारात्मक चीजों के रूप में देखा जाता है, जो तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करता है और सही और गलत को उलझा देता है। जहाँ तक स्वच्छंद और असंयमित लोगों की मानवता की अभिव्यक्तियों की बात है, तो अब इस पर चर्चा पूरी हो गई है।

स्वच्छंद और असंयमित व्यक्ति चाहे कलीसियाई जीवन, भाई-बहनों के बीच सामान्य संबंधों या परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा कर्तव्य के सामान्य निर्वहन को प्रभावित करते हों या नहीं, अगर उनकी मानवता की अभिव्यक्तियों और खुलासों से प्रतिकूल प्रभाव और परिणाम होते हैं, भाई-बहन बाधित होते हैं तो इन समस्याओं को हल किया जाना चाहिए और ऐसे व्यक्तियों के खिलाफ उचित कार्रवाई की जानी चाहिए, न कि उन्हें बिना रोक-टोक काम करने दिया जाना चाहिए। छोटे-मोटे मामलों में मदद और सहायता दी जा सकती है या उनकी काट-छाँट की जा सकती है या उन्हें चेतावनी दी जा सकती है। गंभीर मामलों में जहाँ उनका व्यवहार और आचरण विशेष रूप से स्वच्छंद है, अविश्वासियों या छद्म-विश्वासियों जैसा है, जिसमें संतों जैसी मर्यादा का रत्ती भर भी अंश नहीं है, वहाँ कलीसिया के अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इन व्यक्तियों से निपटने के लिए उचित समाधान निकालना चाहिए। अगर ज्यादातर भाई-बहन सहमत हैं और परिस्थितियाँ अनुमति देती हैं तो इन व्यक्तियों को बहिष्कृत किया जाना चाहिए; कम से कम उन्हें पूर्णकालिक कर्तव्य वाली कलीसिया में अपने कर्तव्य निभाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। “छोटे-मोटे मामलों” का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि कुछ लोग नए विश्वासी हैं, जो पहले अविश्वासी थे, जिन्होंने कभी ईसाई धर्म में विश्वास नहीं किया और वे नहीं समझते कि परमेश्वर में विश्वास रखने का क्या अर्थ है। उनके भाषण और चाल-ढाल से अविश्वासियों की आदतें प्रकट होती हैं। लेकिन परमेश्वर के वचन पढ़ने, सत्य पर संगति करने और कलीसियाई जीवन जीने से वे धीरे-धीरे बदल जाते हैं और विश्वासियों जैसे बन जाते हैं, थोड़ा मनुष्य जैसा व्यवहार दिखाते हैं। इन व्यक्तियों को बुरे लोगों की श्रेणियों में नहीं रखा जाना चाहिए बल्कि उन लोगों के साथ रखा जाना चाहिए जिनकी मदद की जा सकती है। एक और श्रेणी बीस वर्ष की आयु के आसपास के युवा लोगों की है जो तीन से पाँच वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखने के बावजूद अभी भी चंचलता दिखाते हैं, पूरी तरह से व्यवस्थित नहीं हुए हैं, अपनी छोटी उम्र के कारण अपने बाहरी भाषण और चाल-ढाल में थोड़ा बचकाना भाव प्रदर्शित करते हैं—वे बच्चों की तरह बोलते, व्यवहार करते और काम करते हैं। इन लोगों के लिए, प्यार से मदद और सहयोग दिया जाना चाहिए; उन्हें बेहद सख्त माँगें थोपे बिना धीरे-धीरे बदलने के लिए पर्याप्त समय दिया जाना चाहिए। बेशक जो वयस्क कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखते आए हैं मगर फिर भी अविश्वासियों की तरह स्वच्छंद और असंयमित भाषण, चाल-ढाल, व्यवहार और क्रियाकलापों का प्रदर्शन करते हैं और जो बार-बार चेतावनी दिए जाने के बाद भी बदलने से इनकार करते हैं उनके लिए एक अलग नजरिया अपनाने की आवश्यकता है; उनसे परमेश्वर के घर के नियमों के अनुसार निपटा जाना चाहिए। अगर ऐसे व्यक्तियों का भाषण, चाल-ढाल और उनकी मानवता के खुलासों से ज्यादातर लोग परेशान होते हैं और कलीसिया में प्रतिकूल प्रभाव उत्पन्न होता है, जिससे कई लोग उन्हें देखकर घृणा महसूस करते हैं, उन्हें बोलते हुए नहीं सुनना चाहते, जब वे बोलते हैं तो उनके हाव-भाव नहीं देखना चाहते, न ही उनके पहनावे को देखने के लिए तैयार होते हैं और जब ऐसे व्यक्ति सभाओं में शामिल नहीं होते तो ज्यादातर लोग ज्यादा खुश और बेहतर स्थिति में होते हैं—कलीसियाई जीवन में उनकी भागीदारी मात्र से और भाई-बहनों के बीच उनकी उपस्थिति मात्र से असहज और घृणा महसूस करते हैं, मानो कोई कीड़ा व्यवधान डाल रहा हो—तो ऐसे व्यक्ति बेशक बुरे लोग हैं। यानी जब भी वे कलीसियाई जीवन जीते हैं और भाई-बहनों के साथ अपना कर्तव्य निभाते हैं तो ज्यादातर लोग परेशान और विशेष रूप से घृणा महसूस करते हैं। ऐसे मामलों में इन व्यक्तियों को जितनी जल्दी हो सके निपटाया जाना चाहिए, उन्हें अपनी मनमानी करने के लिए अकेला नहीं छोड़ा जाना चाहिए या उन पर और अधिक निगरानी नहीं रखनी चाहिए। कम से कम उन्हें पूर्णकालिक कर्तव्य वाली कलीसिया से बहिष्कृत करके पश्चात्ताप करने के लिए एक साधारण कलीसिया में भेज दिया जाना चाहिए। इनसे इस तरह क्यों निपटा जाना चाहिए? (क्योंकि उन्होंने ज्यादातर लोगों के लिए बाधाएँ और प्रतिकूल परिणाम उत्पन्न किए हैं, कलीसियाई जीवन में बाधाएँ डाली हैं।) क्योंकि उनकी अभिव्यक्तियों के परिणाम और प्रभाव बहुत ही घृणित हैं! इसके अनुसार, अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साथ-साथ परमेश्वर के चुने हुए लोगों को भी उन्हें नजरअंदाज नहीं करना चाहिए और आँखें मूँदकर उनके व्यवहार को खुली छूट नहीं देनी चाहिए। जब ऐसे व्यक्ति ज्यादातर लोगों के लिए बाधाएँ पैदा करें तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं का कुछ भी नहीं करना अनुचित है; ऐसे व्यक्तियों को परमेश्वर के घर के विनियमों के अनुसार कलीसिया से बहिष्कृत कर देना चाहिए—यह सबसे बुद्धिमानी भरा विकल्प है।

क्या कलीसिया पहले भी स्वच्छंद और असंयमित लोगों से निपटी है? (हाँ।) जब ऐसे लोगों से निपटा गया तो कुछ ने रोते हुए कहा, “मैंने यह जानबूझकर नहीं किया था। मैं कभी-कभार ऐसा ही व्यवहार करता हूँ; मैं उस तरह का व्यक्ति नहीं हूँ। मुझे एक और मौका दो! अगर मुझे अपना कर्तव्य निभाने की अनुमति नहीं दी गई तो मैं घर लौटने के बाद परमेश्वर में विश्वास नहीं रख पाऊँगा, जहाँ हर कोई अविश्वासी है।” वे बहुत याचना के साथ बोलते हैं और वास्तव में व्यथित लगते हैं, परमेश्वर को छोड़ने की अनिच्छा व्यक्त करते हैं और परमेश्वर के घर से पश्चात्ताप करने के लिए एक और मौका माँगते हैं। उन्हें एक और मौका देना संभव है मगर मूल बात यह है कि वे बदल सकते हैं या नहीं। अगर यह पूरी तरह से माना जाता है कि इस व्यक्ति में मानवता का रत्ती भर भी अंश नहीं है, उसके पास कोई अंतरात्मा या विवेक नहीं है, मूल रूप से उसके पास दिल और आत्मा नहीं है तो उसे एक और मौका नहीं दिया जाना चाहिए; यह व्यर्थ होगा। लेकिन, अगर व्यक्ति का सार अच्छा है और बात बस इतनी है कि उसकी मानवता उसकी कम उम्र के कारण अपरिपक्व है और वह कुछ वर्षों में जरूर बदल जाएगा तो ऐसे लोगों को पश्चात्ताप करने का मौका जरूर दिया जाना चाहिए। उन्हें कलीसिया से बाहर बिल्कुल भी नहीं निकालना चाहिए; कोई भी अच्छा व्यक्ति कभी बर्बाद नहीं हो सकता। कुछ लोग स्वाभाविक रूप से अविश्वासी होते हैं; वे स्वाभाविक रूप से स्वच्छंद, अज्ञानी और मूर्ख होते हैं और अपनी मानवता में उनमें स्वाभाविक रूप से सम्मान की अवधारणा का अभाव होता है, वे नहीं जानते कि शर्म की भावना क्या होती है। सबके सामने असभ्य तरीके से काम करने के बाद ज्यादातर लोग दूसरों का सामना करने में पछतावा और शर्मिंदगी महसूस करेंगे। इसके अलावा, जब वे ऐसा करना चाहेंगे तो वे भाई-बहनों की भावनाओं और राय के प्रति विचारशील होंगे और अपनी खुद की ईमानदारी और गरिमा के प्रति सचेत होंगे और वे इस तरह से व्यवहार नहीं करेंगे; वे शायद घर पर अपने बच्चों या भाई-बहनों के साथ बस बखेड़ा खड़ा कर सकते हैं। बाहर घूमते समय, अजनबियों से मिलते-जुलते समय, लोगों को सम्मान, शालीनता, नियम और गरिमा का अर्थ समझना चाहिए। क्या कोई व्यक्ति जो इन अवधारणाओं को नहीं समझता, तुम्हारी मदद के बाद भी बदल सकता है? भले ही वह अभी संयमित हो, वह कब तक रुका रहेगा? बहुत जल्द ही वह अपने पुराने तौर-तरीकों पर लौट आएगा। क्योंकि ऐसे लोगों की मानवता में गरिमा और शर्म की भावना की कमी होती है, वे नहीं जानते कि नियम, शालीनता या संतों जैसी मर्यादा का क्या मतलब है और उनकी मानवता में स्वाभाविक रूप से ये गुण नहीं होते इसलिए तुम उनकी मदद नहीं कर सकते। जिन लोगों की मदद नहीं की जा सकती वे ऐसे लोग हैं जो बदल नहीं सकते, जिन्हें निर्देशित या प्रभावित नहीं किया जा सकता। ऐसे व्यक्तियों को तुरंत और जितनी जल्दी हो सके बहिष्कृत कर देना चाहिए ताकि उन्हें भाई-बहनों के बीच विघ्न-बाधाएँ पैदा करने और सबको शर्मिंदा करने से रोका जा सके। परमेश्वर के घर को सिर्फ संख्याएँ बढ़ाने वाले किसी व्यक्ति की कोई जरूरत नहीं है। अगर परमेश्वर किसी व्यक्ति को नहीं बचाएगा तो सिर्फ संख्याएँ बढ़ाने से उस व्यक्ति को कोई फायदा नहीं होगा। जिन्हें परमेश्वर स्वीकार नहीं करता है उन्हें बहिष्कृत कर देना चाहिए—उन लोगों को बाहर कर दो जिन्हें परमेश्वर के घर में नहीं रहना चाहिए, ऐसा न हो कि इस एक व्यक्ति की उपस्थिति कई अन्य लोगों को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करे, जो ज्यादातर लोगों के लिए अनुचित है। अगर तुम लोग स्वच्छंद और असंयमित लोगों के सार की असलियत समझते हो तो तुम्हें उन्हें निपटाते हुए जल्द से जल्द बहिष्कृत कर देना चाहिए न कि उन्हें अनिश्चित काल तक बर्दाश्त करते रहना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “वे अपना कर्तव्य निभाते समय कभी-कभी कुछ नतीजे देते हैं। काम के उस पहलू के लिए अभी भी उनकी आवश्यकता है। उनके दिल में प्रेम है और वे थोड़ी कीमत चुका सकते हैं।” मगर परमेश्वर के घर में बचे हुए लोगों में से कौन थोड़ी कीमत नहीं चुका सकता? कौन अपना कर्तव्य करते समय कुछ नतीजे प्राप्त नहीं कर सकता? अगर हर कोई कुछ नतीजे प्राप्त कर सकता है तो कर्तव्यों को करने के लिए ऐसे अच्छे लोगों को क्यों नहीं चुना जाता जो सम्मानित और सभ्य हैं? घिनौने, बदमाश और मूर्ख लोगों को बाधाएँ पैदा करने के लिए पूर्णकालिक कर्तव्य वाली कलीसिया में रखने पर जोर क्यों दिया जाता है? परमेश्वर के घर में श्रम करने के लिए उन छद्म-विश्वासियों को रखने पर जोर क्यों दिया जाता है जो अविश्वासियों की तरह जीते हैं? परमेश्वर के घर में श्रमिकों की कमी नहीं है; परमेश्वर के घर को केवल ईमानदार लोग चाहिए जो सत्य से प्रेम करते हैं, जो सच्चे हैं और जो खुद को परमेश्वर के लिए खपाने के लिए सत्य का अनुसरण कर सकते हैं।

वर्तमान में कर्तव्य निभा रहे ज्यादातर लोग ऐसे हैं जिन्होंने पाँच या छह वर्षों से अधिक समय से परमेश्वर में विश्वास रखा है और अपने कर्तव्यों को निभाने की प्रक्रिया में सभी प्रकार के लोगों को पूरी तरह से बेनकाब किया जा चुका है—जो छद्म-विश्वासी, भ्रमित लोग, झूठे अगुआ, बुरे लोग और मसीह-विरोधी हैं, वे सभी बेनकाब हो चुके हैं। परमेश्वर के चुने हुए बहुत से लोगों ने स्पष्ट रूप से देखा है कि इनमें से ज्यादातर लोग बार-बार चेतावनी दिए जाने के बाद भी बदलने से इनकार करते हैं और परमेश्वर के घर के काम में पहले ही गंभीर विघ्न-बाधाएँ पैदा कर चुके हैं। अब समय आ गया है जब इन छद्म-विश्वासियों, बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों को बहिष्कृत कर दिया जाना चाहिए। उन्हें बहिष्कृत नहीं करने से कलीसिया के कार्य के संचालन और परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार फैलाने पर असर पड़ेगा। उन्हें बहिष्कृत नहीं करने से परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश पर असर पड़ेगा; कलीसियाई जीवन में बाधाएँ पड़ती रहेंगी और कभी शांति नहीं मिलेगी। इसलिए सभी स्तरों पर कलीसिया के अगुआओं और कार्यकर्ताओं को परमेश्वर के इरादों के अनुसार और परमेश्वर के वचनों के आधार पर कलीसिया को स्वच्छ करना शुरू कर देना चाहिए। मैं देखता हूँ कि बहुत से लोगों में मानवता की कमी है। सभाओं के दौरान कुछ लोग सभी प्रकार के अनुचित व्यवहार प्रदर्शित करते हैं और चाहे बैठे हों या खड़े हों, उचित चाल-ढाल नहीं दिखाते; चाय, मोबाइल फोन, फेशियल क्रीम और परफ्यूम, सब उनके आस-पास तैयार रहते हैं। कुछ लोग जो सुंदर दिखना पसंद करते हैं वे लगातार आईने में अपना चेहरा देखते हैं और अपना मेकअप ठीक करते रहते हैं और अन्य लोग हमेशा पानी पीते रहते हैं, समाचार पढ़ने या अविश्वासी संसार के वीडियो देखने के लिए अपने फोन पर स्क्रॉल करते रहते हैं, बोलते और बातचीत करते समय अपने पैर एक दूसरे पर चढ़ाकर रखते हैं, अपने शरीर को दो जगहों से मरोड़कर साँप की तरह दिखते हैं और सही मुद्रा में बैठ भी नहीं पाते हैं। मैंने यह भी सुना है कि कुछ लोग रात को अपने बेडरूम में लौटते हैं और बिना जूते उतारे बिस्तर पर लेट जाते हैं, सुबह होने तक सोते रहते हैं। सुबह वे प्रार्थना करने या आध्यात्मिक भक्ति में शामिल होने के लिए नहीं, बल्कि पहले अपने मोबाइल फोन पर समाचार देखने के लिए अपनी आँखें खोलते हैं। भोजन के समय जब वे स्वादिष्ट भोजन या मांस देखते हैं तो वे उसे बड़े चाव से खाते हैं—जब तक उनका पेट भरा हुआ है, इस बात की कोई परवाह नहीं करते कि दूसरों को खाने को मिलेगा या नहीं—और फिर सीधे सोने चले जाते हैं। वे जो कुछ भी करते हैं उसमें मनुष्य जैसे व्यवहार का अभाव होता है, वे बिना किसी नियम का पालन किए अविश्वासियों की तरह स्वच्छंद और असंयमित व्यवहार करते हैं, उनमें जानवरों की तरह रत्ती भर भी आज्ञाकारिता या समर्पण नहीं होता। मुझे बताओ, क्या ऐसे लोग जिनकी प्रकृति इतनी ज्यादा घटिया है, उन्हें बचाया जा सकता है? (नहीं।) तो क्या उनका परमेश्वर में विश्वास रखने का कोई मतलब है? सत्य के बिल्कुल भी अनुरूप नहीं होने की इतनी खराब काबिलियत के साथ क्या वे परमेश्वर के वचनों को पढ़ते समय उन्हें समझ सकते हैं? अपने आचरण के नियमों के बिना क्या उनका श्रम मानक के अनुरूप हो सकता है? अंतरात्मा या विवेक के बिना क्या वे धर्मोपदेशों को सुनते समय और सत्य पर संगति सुनते समय उन्हें स्वीकार सकते हैं? (नहीं।) जो लोग इस तरह के व्यवहार प्रदर्शित करते हैं उनमें मूल रूप से किसी भी मानवता का अभाव होता है, तो वे सत्य कैसे प्राप्त कर सकेंगे? मानवता के बिना वे जानवर, शैतान, आत्मा से रहित मृत लोग हैं, जो सत्य सुनते समय उसे समझ नहीं सकते और सत्य सुनने के लायक नहीं हैं। उन्हें सत्य समझने और प्राप्त करने देना मछलियों को जमीन पर रहने को बाध्य करने या सूअरों को उड़ने को बाध्य करने जैसा है—असंभव! पहले जब इस बारे में बात की जाती थी कि किस तरह के लोग जानवर हैं तो अक्सर “जानवर” शब्द के पहले “कुत्ते” शब्द जोड़ दिया जाता था इसलिए उन्हें “कुत्ते जानवर” कहा जाता था। लेकिन कुत्तों को पालने और उनके साथ नजदीकी से समय बिताने के बाद मैंने पाया है कि कुत्तों में वे सबसे अच्छी चीजें होती हैं जो इंसानों में भी नहीं होतीं : वे नियमों के अनुसार व्यवहार करते हैं, आज्ञाकारी होते हैं और उनमें आत्म-सम्मान की भावना होती है। तुम उनके लिए व्यायाम करने की एक सीमा तय करते हो और वे केवल उसी सीमा के भीतर व्यायाम करेंगे, और बिना किसी अपवाद के वे उन जगहों पर बिल्कुल नहीं जाएँगे जहाँ तुम उन्हें जाने से मना करते हो। अगर वे गलती से सीमा पार कर भी दें तो वे जल्दी से पीछे हट जाते हैं, अपनी दुम हिलाते हुए लगातार माफी माँगते हैं और अपनी गलती मानते हैं। क्या इंसान ऐसा कर सकते हैं? (नहीं।) इंसान उनसे कमतर हैं। भले ही कुत्ते इंसानों जितना नहीं समझते, मगर वे एक बात समझते हैं : “यह मालिक का इलाका है, मालिक का घर है। जहाँ मालिक जाने देता है मैं वहीं जाता हूँ और उन जगहों पर नहीं जाता जहाँ जाने की मुझे मनाही है।” बिना मारे-पीटे ही, वे वहाँ जाने से परहेज करते हैं; उनमें आत्म-सम्मान की भावना होती है। कुत्ते भी जानते हैं कि शर्म क्या होती है तो इंसान क्यों नहीं जानता? क्या उन लोगों को जानवर कहना अतिशयोक्ति है जो शर्म करना नहीं जानते? (नहीं।) यह बिल्कुल भी अतिशयोक्ति नहीं है; ज्यादातर लोगों में तो कुत्ते के गुण भी नहीं होते। भविष्य में जब हम कहेंगे कि कुछ लोग जानवर हैं, तो हम उन्हें अब “जंगली कुत्ते” नहीं कह सकते; यह कुत्तों का अपमान होगा, क्योंकि ये लोग, ये जानवर, कुत्तों से भी बदतर हैं। इसलिए जब ऐसे लोग कलीसियाई जीवन में या भाई-बहनों के कर्तव्य निर्वहन में बाधाएँ पैदा करते हैं तो उन्हें तुरंत बाहर निकाल देना चाहिए—यही उचित है, सही है और बिल्कुल भी अति नहीं है। यह प्रेमहीन होना नहीं है; यह सिद्धांत के अनुसार काम करना है। जो लोग स्वच्छंद और असंयमित हैं वे अगर अपने कर्तव्यों में कुछ नतीजे भी दिखाते हैं तो क्या उन्हें बचाया जा सकता है? क्या वे सत्य स्वीकारने वाले लोग हैं? वे अपने खुद के क्रियाकलापों को भी नियंत्रित नहीं कर सकते तो क्या वे सत्य स्वीकार सकेंगे? वे अपनी ईमानदारी और गरिमा बनाए नहीं रख सकते, तो क्या वे सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं? यह नामुमकिन है। इसलिए इन व्यक्तियों से इस तरह से निपटना बिल्कुल भी अति नहीं है; यह पूरी तरह से सिद्धांत पर आधारित है और इसका मकसद पूरी तरह से परमेश्वर के चुने हुए लोगों को शैतान की बाधाओं से बचाना है। संक्षेप में, ऐसे व्यक्तियों का पता चलने पर उनसे मेरे द्वारा अभी बताए गए कई सिद्धांतों के आधार पर निपटा जाना चाहिए। क्या उन लोगों को जो वास्तव में स्वच्छंद और असंयमित हैं और जो वास्तव में संतों जैसी किसी मर्यादा के बिना देह-सुख में लिप्त होते हैं, अविश्वासियों और छद्म-विश्वासियों की श्रेणी में रखना अतिशयोक्ति है? (नहीं।) चूँकि उन्हें अविश्वासियों और छद्म-विश्वासियों की श्रेणी में रखा गया है, उन्हें उन विभिन्न प्रकार के बुरे लोगों की श्रेणी में शामिल करना जिन्हें कलीसिया को निष्कासित कर देना चाहिए, अतिशयोक्ति नहीं है। जो लोग अपने व्यवहार और आचरण को भी संयमित नहीं कर सकते वे निश्चित रूप से सत्य स्वीकार नहीं कर सकेंगे। क्या वे लोग जो सत्य स्वीकार नहीं सकते, सत्य के दुश्मन नहीं हैं? (हाँ, वे हैं।) क्या उन लोगों को जो सत्य के दुश्मन हैं, बुरे लोगों के रूप में चित्रित करना अतिशयोक्ति है? (नहीं।) यह बिल्कुल भी अतिशयोक्ति नहीं है। इसलिए उनसे निपटने के सिद्धांत पूरी तरह से उचित हैं।

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