अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (24) खंड चार
ख. फायदा उठाना पसंद करना
दूसरे प्रकार के लोग वे होते हैं जो फायदा उठाना पसंद करते हैं। फायदा उठाना पसंद करने के बारे में संगति करने की बात पर कुछ लोग यकीनन यह सोचकर धारणाएँ रखते हैं, “कौन-सा भ्रष्ट इंसान फायदा उठाना पसंद नहीं करता? यह मानव स्वभाव है; अगर यह बुरे कर्म करना नहीं है, तो थोड़ा फायदा उठाने में इतनी गंभीर बात क्या है?” फायदा उठाना पसंद करना जिस पर हम संगति कर रहे हैं, सामान्य लोगों के फायदा उठाना पसंद करने के दायरे से बाहर तक जाता है—यह बुराई की सीमा तक पहुँच जाता है। कलीसिया में इस प्रकार के काफी सारे लोग होने चाहिए, या कम-से-कम लोगों का एक हिस्सा होना चाहिए। इस बहाने से कि “हम सब भाई-बहन हैं,” वे हर जगह फायदा उठाते हैं, भाई-बहनों के बीच, परमेश्वर के घर में और कलीसिया में फायदा उठाते रहते हैं। वे कौन-से फायदे उठाते हैं? उदाहरण के लिए, अगर उनके परिवार को घर खरीदने की जरूरत हो मगर उनके पास पर्याप्त पैसे नहीं हैं तो वे उधार लेने के लिए रिश्तेदारों या मित्रों के पास नहीं जाते, न ही वे ऋण लेने के लिए बैंक जाते हैं; वे भाई-बहनों से उधार लेते हैं, यह बताए बिना कि ब्याज कितना देंगे या ऋण कब चुकता करेंगे—वे बस उधार ले लेते हैं। यह कहना कि वे “उधार” ले रहे हैं, बात को अच्छे ढंग से कहना है; सच्चाई यह है कि वे बस ले रहे हैं, क्योंकि वे पैसा चुकता करने या ब्याज देने का कोई इरादा नहीं रखते। वे भाई-बहनों को क्यों निशाना बनाते हैं? वे सोचते हैं कि चूँकि वे सब भाई-बहन हैं इसलिए उन्हें कठिनाई के दौर में मदद करनी चाहिए और अगर कोई मदद न करे, तो वह भाई या बहन नहीं है। इस तरह, वे भाई-बहनों के पास पैसे उधार लेने जाते हैं और ऐसे कारण बताते हैं जिससे भाई-बहनों को लगे कि उन्हें पैसे उधार देना ही सही और उचित है। कुछ दूसरे लोग देखते हैं कि किसी भाई या बहन के परिवार के पास अपनी कार है और वे उस बारे में सोचते रहते हैं, लगातार हर कुछ दिन में उसे उधार माँगते रहते हैं। वे उसे उधार ले लेते हैं मगर लौटाते नहीं हैं, उसमें गैस नहीं भरवाते और कभी-कभार उसमें गड्ढे और खरोंच डाल देते हैं या उससे टक्कर मार देते हैं। वे दूसरों के घर में जो भी बढ़िया भोजन, उपयोगी चीजें या कोई भी मूल्यवान वस्तु देखते हैं तो उसे पाने के लिए लालायित रहते हैं और साजिश रचते हैं, और उसे अपने लिए पाने का लालच करते हैं। वे जिस किसी के भी घर जाते हैं, वहाँ हर जगह खोजते और देखते हुए उनकी आँखें एक चोर की तरह लालच से चमक उठती हैं, वे नजर दौड़ाते हैं कि क्या वे कोई फायदा उठा सकते हैं या क्या कोई चीजें ले जा सकते हैं—गमले में लगा छोटा-सा पौधा भी उनकी पकड़ से नहीं बचेगा। दूसरों के साथ बाहर जाने या बाहर खाना खाने पर, वे कभी भी आने-जाने या खाने का भुगतान करने की पेशकश नहीं करते हैं। जब भी वे कोई बढ़िया चीज देखते हैं, उसे खरीद लेना चाहते हैं, लेकिन जब पैसे चुकाने की बात आती है तो वे अपना बिल का भुगतान करने के लिए किसी दूसरे से कहते हैं और बाद में वे उसे पैसे लौटाने की बात भी नहीं करते; वे सिर्फ फायदा उठाना चाहते हैं, भले ही यह एक पैसा या एक रुपया पाना ही क्यों न हो। अगर तुम बढ़िया चीजें चाहते हो तो उनकी कीमत तुम खुद चुका सकते हो; अगर तुम खुद अपने पैसे नहीं खर्च करना चाहते तो दूसरों का फायदा उठाने की कोशिश भी मत करो और इतने लालची मत बनो; दूसरे लोगों से सम्मान अर्जित करने के लिए तुममें थोड़ी सत्यनिष्ठा होनी चाहिए। लेकिन इस प्रकार के व्यक्ति में सत्यनिष्ठा नहीं होती, वह सिर्फ फायदा उठाना चाहता है और वह जितना ज्यादा फायदा उठाता है उतना ही प्रफुल्लित महसूस करता है। कलीसिया में ऐसे लोगों का उभरना अपमान की बात है या महिमा की? (अपमान की।) यह अपमान की बात है। क्या तुम लोग कहोगे कि उनका इस तरह से फायदा उठाना जरूरी है? क्या इसका कारण यह है कि वे भोजन का खर्च नहीं उठा सकते या अपने परिवार के लिए भोजन का प्रबंध नहीं कर सकते? बिल्कुल नहीं। दरअसल, उनके पास खर्च करने के लिए पर्याप्त पैसा है और खाने के लिए पर्याप्त भोजन है; बात बस इतनी है कि उनका लालच बहुत ज्यादा है, इस हद तक कि यह उनकी सत्यनिष्ठा छीन लेता है, और इस हद तक कि यह दूसरों में उनके प्रति घृणा और विकर्षण पैदा करता है। क्या ऐसा व्यक्ति अच्छा होता है? (नहीं।) कुछ लोग अपने कर्तव्य करते समय हमेशा फायदा उठाने पर ध्यान देते हैं, थोड़ा-सा भी मौका चूकने पर व्यथित हो जाते हैं और उसके बारे में बात करना जरूरी समझते हैं। कोई काम सौंपे जाने पर वे हमेशा पैसे का विषय उठाते हैं : “एक दौरे पर आने-जाने का खर्च इतना होगा, रहने का खर्च इतना होगा और खाने का खर्च इतना होगा, इत्यादि।” उन्हें बताया जाता है, “पैसे की फिक्र मत करो, यह खर्च कलीसिया उठाएगी।” लेकिन पैसे मिल जाने के बाद, वे सोच में पड़ जाते हैं और कहते हैं : “यह काफी नहीं है। सिर्फ 200 युआन से मैं वहाँ क्या करूँगा? एक कहावत है, ‘घर में किफायती रहो लेकिन यात्रा करते समय बहुत-से पैसे ले जाओ।’ मुझे थोड़े ज्यादा पैसे ले जाने होंगे; अगर मैंने सारे खर्च नहीं किए तो बचे हुए पैसे कलीसिया को लौटा दूँगा।” जब वे वापस लौट आते हैं तो वे पैसों के बच जाने का जिक्र भी नहीं करते, न ही अपने खर्चों की सूचना देते हैं। वे कलीसिया तक का फायदा उठाने की हिम्मत करते हैं; क्या वे परमेश्वर की भेंटों का गबन करने की हिम्मत करेंगे? (हाँ।) वे किस प्रकार के प्राणी हैं? उनमें सत्यनिष्ठा नहीं है और साथ ही अंतरात्मा और विवेक भी नहीं है। क्या परमेश्वर ऐसे लोगों को स्वीकृति देगा? कुछ दूसरे लोग नहाने, बाल धोने और कपड़े धोने के लिए सभा स्थलों या मेजबान स्थानों में जाते हैं और कलीसिया की वाशिंग मशीन, वाटर हीटर, शैंपू, कपड़े धोने के डिटरजेंट आदि का उपयोग करते हैं; वे इन सुविधाओं का भी फायदा उठाते हैं, अपनी बचत करने के लिए कलीसिया की चीजों का इस्तेमाल करते हैं। वे सोचते हैं कि क्योंकि वे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं इसलिए वे परमेश्वर के घर का हिस्सा हैं और इस तरह परमेश्वर के घर की किसी भी चीज के इस्तेमाल की उन्हें खुली छूट है, वे यह सोचते हैं कि इसका उपयोग नहीं करना, या उसे नहीं लेना या उससे थोड़ा फायदा नहीं उठाना उसे व्यर्थ करना है; और अगर वे इसे तोड़ भी दें तो उसकी भरपाई करने का उनका कोई इरादा नहीं होता। अपनी खुद की चीजों की बात आने पर, वे जानते हैं कि उनका किफायत से उपयोग कैसे करें और सावधानी से उनकी देखभाल कैसे करें, लेकिन वे परमेश्वर के घर के उपकरणों और चीजों का अपनी इच्छानुसार इस्तेमाल करते हैं और यदि वे उन्हें तोड़ देते हैं तो कोई मुआवजा नहीं देते। क्या ये अच्छे लोग हैं? वे यकीनन जरा भी अच्छे नहीं हैं। खास तौर पर ऐसे मामलों में जहाँ कलीसिया को कुछ चीजें खरीदने की जरूरत पड़ती है, वे सक्रियता से स्वयंसेवा करते हैं, और ऐसे काम सँभालने के लिए खास तौर पर इच्छुक रहते हैं। वे इतने आतुर क्यों होते हैं? वे मानते हैं कि इसमें लाभ हासिल किया जा सकता है, फायदे उठाए जा सकते हैं; चीजें खरीदने के बाद बचा हुआ पैसा वे अपनी जेब के हवाले कर देते हैं। वे जिस चीज का भी हो सके फायदा उठाना चाहते हैं, यह सोचते हुए कि ऐसा नहीं करना बर्बादी होगी; वे इस तर्क का पालन करते हैं। अगर वे फायदा नहीं उठा सकते तो भाई-बहनों को कोसते हैं, परमेश्वर के घर को कोसते हैं—वे सभी को कोसते हैं; वे बस बुरे राक्षस हैं, बदबूदार भिखारी हैं, हाथों में कार्ड लिए माँगने वाले हैं जो चालबाजी से लाभ कमाने और फायदा उठाने के लिए हर जगह अपने कटोरे फैलाते रहते हैं। लोग कहते हैं, “तुम हमेशा कुछ-न-कुछ माँगते रहते हो; क्या तुम बस एक बदबूदार भिखारी नहीं हो?” वे जवाब देते हैं, “ठीक है, मुझे कुछ भी पुकारो—कंजूस, कृपण, बदबूदार भिखारी, माँगने वाला, कंगाल—अगर मैं फायदा उठा सकूँ तो ठीक है।” क्या इस प्रकार के लोगों में कोई सत्यनिष्ठा होती है? (नहीं।) क्या ऐसे लोग भाई-बहनों के लिए एक खास स्तर की बाधा नहीं डालते? खास तौर पर कठिन परिस्थितियों में रहने वाले, कमजोर आर्थिक स्थिति वाले उन परिवारों के लिए क्या ये एक खास स्तर की बाधा और हानि का कारण नहीं बनते? (हाँ।) क्या वे उन लोगों को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकते हैं जो आध्यात्मिक कद में छोटे और विशेष तौर पर कमजोर होते हैं? (हाँ।) उन्हें देखने मात्र से ही लोग घृणा महसूस करते हैं; उन्हें देखने वाला हर व्यक्ति परेशान हो जाता है, फिर भी वे सब इनकार करने में बेहद शर्मिंदा महसूस करते हैं, इस तरह वे खुद को उनके द्वारा बेहद खुले आम शोषित होने देते हैं। हर कोई जानता है कि वे खराब मानवता और नीच चरित्र के हैं, लेकिन यह विचार करके कि वे सब भाई-बहन हैं और यह देखकर कि कभी-कभी वे कुछ कर्तव्य निभाने में सक्षम हैं और किंचित विश्वास रखते हैं और कभी-कभार अपने घर में मेजबानी करके थोड़ा प्रयास कर सकते हैं—इन चीजों की खातिर, वे जहाँ भी जाते हैं उनके फायदे उठाने के व्यवहार से ज्यादातर लोग आँख फेर लेते हैं और उसे गंभीरता से नहीं लेते। लेकिन कलीसिया में वे जो विघ्न-बाधाएँ पैदा करते हैं वे लगातार तेजी से गंभीर होती जाती हैं और ज्यादातर लोगों को बेचैन करने के लिए काफी होती हैं; क्या यह एक समस्या नहीं है? (हाँ, है।) ये लोग भले ही पागल कुत्ते न हों जो हर जगह लोगों को काटते हैं और काट-काट कर मार सकते हैं, वे ऐसे बदबूदार मक्खियों जैसे होते हैं जिनके तंग करने से लोगों को राहत नहीं मिलती। अगर उन्हें बाहर नहीं निकाला गया तो वे अंतहीन विघ्न-बाधाएँ पैदा करेंगे। कलीसिया में उनका बने रहना लगातार विपत्ति की ओर ले जाएगा, जिससे लोगों की शांति छिन जाएगी। बाधित होने के बाद, लोग काफी चिढ़ जाते हैं, अक्सर ऐसे व्यक्तियों के प्रति विमुखता पाल लेते हैं; फिर भी कोई हल नहीं होने के कारण वे बार-बार बस इसे सहते रहते हैं। वे किस प्रकार के व्यक्ति हैं? लोगों के बीच ऐसे घिनौने बदमाश भी रहते हैं; ऐसे व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास रखते ही क्यों हैं? वे तो जीवित रहने लायक भी नहीं हैं! हर संभव चीज का फायदा उठाना—कितनी शर्मनाक बात है! केवल उतनी ही भौतिक चीजों का आनंद लो जितनी तुम्हारी क्षमता में है; अगर तुममें क्षमता नहीं है, तो उन चीजों का आनंद मत लो या उन चीजों का गबन मत करो जो दूसरों की हैं। क्योंकि दूसरे लोग कभी-कभी दान के रूप में कुछ चीजें मुफ्त में दे देते हैं इसलिए अगर तुम किसी छोटे मामूली तरीके से फायदा उठाते हो या क्योंकि तुम्हें कोई खास चीज पसंद है या तुम किसी चीज से प्रेम करने लगते हो, तो हर कोई उसे माफ कर सकता है। जैसे कि कहावत है, “गरीबी महत्वाकांक्षा को सीमित कर देती है”; यह कोई बड़ी समस्या नहीं है। लेकिन अगर तुम हमेशा ऐसे फायदे खोजते रहते हो, बेशर्म और निर्लज्ज होने की सीमा तक, और एक बदबूदार भिखारी बन जाते हो, या सबकी नजरों में किसी पागल कुत्ते या मक्खी में तब्दील हो जाते हो, तो तुम्हें तुरंत बाहर निकाल दिया जाना चाहिए। इन तमाम मसलों को खत्म करने के लिए इस प्रकार के लोगों से हमेशा के लिए पूरी तरह से निपटा जाना चाहिए।
जो लोग फायदा उठाना पसंद करते हैं उन्हें तुम लोग कितना बरदाश्त कर सकते हो? अगर तुम लोग उन्हें सहन नहीं कर पाते और उनके द्वारा फायदा उठा लिए जाने के बाद तुम्हें लगता है कि तुमने कोई मरी हुई मक्खी निगल ली है—और तुममें से ज्यादातर लोग अनियंत्रित रूप से क्रोधित हो जाते हैं और एक साथ होने पर निरंतर उनके बारे में शिकायत करते रहते हैं—तो इस मुकाम पर, क्या उन्हें पहले ही बाहर नहीं निकाल दिया जाना चाहिए था? (हाँ।) जब यह बरदाश्त के बाहर हो जाता है, जब हद हो जाती है, तो उन्हें बाहर निकालने के लिए हर किसी को एक साथ हो जाना चाहिए। यह परमेश्वर के घर से किसी बला को निकाल देना है, यह ऐसा मामला है जो लोगों को बहुत ज्यादा खुशी देता है। ऐसा व्यक्ति बस एक नीच होता है जो ज्यादातर लोगों के बीच अशांति पैदा करता है। यह एक घातक घटना है जो कलीसियाई जीवन को अस्त-व्यस्त कर देती है, जिससे लोग इस व्यक्ति से संबंधित समस्या पर संगति कर उसे सुलझाने के लिए एक साथ आने को मजबूर हो जाते हैं। अभ्यास का यह तरीका न्यायोचित है, क्योंकि बुरे व्यक्ति द्वारा पैदा की गई बाधा ने पहले ही कुछ लोगों को नुकसान पहुँचा दिया है। बुरे व्यक्ति को बुरे काम करते रहने से रोकने के लिए, कलीसियाई जीवन की सामान्य व्यवस्था को बनाए रखने के लिए और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को और अधिक नुकसान होने से बचाने के लिए बुरे व्यक्ति का शीघ्र निपटान कर उसे दूर कर देना चाहिए। अगर बाहर निकाल दिए जाने के बाद वे कलीसिया में रिपोर्ट कर सकते हैं तो उन्हें बुद्धिमानी से बताया जाना चाहिए : “तुम्हें बहिष्कृत या निष्कासित नहीं किया जा रहा है। अलग-थलग रहने के लिए घर जाओ और आत्म-चिंतन करो। एक बार तुम उचित ढंग से आत्म-चिंतन कर लो, तो प्रायश्चित्त का एक पत्र लिखो और फिर हम तुम्हारा वापस कलीसिया में स्वागत कर सकेंगे। अभी के लिए, तुम्हें ज्यादा पैसे कमाने और जीवन के मजे लेने की कोशिश करनी चाहिए; इसके अलावा, परमेश्वर में विश्वास रखने के मामले पर विचार करो। इस प्रकार, तुम किसी भी पहलू की अनदेखी नहीं करोगे।” यह कैसा लगता है? (अच्छा।) हम नहीं कहेंगे कि उन्हें बहिष्कृत या निष्कासित किया जा रहा है; बात बस इतनी है कि आज से यह व्यक्ति कलीसिया में नहीं रहेगा। इससे इस तरह निपटना कैसा रहेगा? (अच्छा है।) बढ़िया है! कोई बहस करने या हिसाब चुकता करने की जरूरत नहीं है, बस एक सरल और साफ हल है, उन्हें दुनिया में काम करने, पैसे कमाने और अपनी जिंदगी जीने के लिए वापस जाने देना है। संक्षेप में कहूँ तो जो लोग फायदा उठाना पसंद करते हैं उनकी मानवता उतनी महान नहीं है। हालाँकि उसे बुरी नहीं कहा जा सकता, फायदा उठाना पसंद करने का उनका चरित्र उन्हें बहुत गुस्सा दिलाने वाला और घिनौना बना देता है। वे हर संभव अवसर का फायदा उठाते हैं! भले ही ऐसे लोग गैर-कानूनी या अपराधिक गतिविधियों में शामिल न हों, फिर भी उनके क्रियाकलापों और व्यवहारों से कलीसियाई जीवन को आने वाली दीर्घकालिक विघ्न-बाधाएँ—ये दुष्परिणाम—किसी भी बुरे कर्म से अधिक गंभीर होते हैं; वे उन्हें कलीसिया से बाहर निकालने के लिए छद्म-विश्वासियों या बुरे लोगों के रूप में चित्रित करने के लिए पर्याप्त हैं। यह करने से छद्म-विश्वासियों द्वारा कलीसिया में बाधाएँ पैदा करना और भाई-बहनों का उत्पीड़न करना पूरी तरह से बंद हो जाता है।
हमने फायदा उठाना पसंद करने वालों से निपटने के एक विशेष तरीके पर पहले संगति की थी, एक तरीका जो मुख्यभूमि में उत्पीड़न की विशेष परिस्थितियों के आधार पर तैयार किया गया था। विदेशों की कलीसियाओं में उन्हें सीधे बाहर निकाल देना ठीक रहता है। लेकिन, निपटान के तरीके के निशाने पर चाहे जिस भी प्रकार के लोग हों, यह सुनिश्चित करना अनिवार्य है कि यह तरीका सिद्धांतपूर्ण और बुद्धिमत्तापूर्ण दोनों हो। कलीसिया में प्रशासनिक आदेश और नियम होते हैं जिनका लक्ष्य भाई-बहनों के लिए सामान्य कलीसियाई जीवन और कर्तव्य निभाने की सामान्य व्यवस्था की रक्षा करना होता है। अगर कोई भाई-बहनों के कलीसियाई जीवन या उनके कर्तव्य निर्वहन को बाधित करता है तो इसकी अनुमति नहीं होती; ऐसे व्यक्ति को परमेश्वर ठुकरा देगा। निश्चित रूप से, भाई-बहनों के दैनिक जीवन में किसी भी उत्पीड़न या हस्तक्षेप की अनुमति नहीं होती। यह एक ऐसा मुद्दा है जिसे सुलझाने की जिम्मेदारी अगुआओं और कार्यकर्ताओं की होनी चाहिए। हो सकता है कि भाई-बहनों के रिश्तेदार, मित्र या परिचित व्यक्ति “भाई-बहनों” के बहाने उन्हें फुसलाने और गुमराह करने का प्रयास करते हों और उन्हें अपने कर्तव्य करने से रोकते हों। ऐसे व्यक्तियों से निपटने का उत्तरदायित्व और जिम्मेदारी अगुआओं और कार्यकर्ताओं या भाई-बहनों की होती है। उनके व्यवहार और क्रियाकलाप दूसरों के अपने कर्तव्य करने और परमेश्वर का अनुसरण करने में अवरोध बनते हैं और कलीसियाई कार्य में भी बाधा डालते हैं, तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इस स्थिति को सुलझाने और प्रतिबंध लगाने के लिए आगे आना चाहिए। निश्चित रूप से हमारे पास ऐसे व्यक्तियों से निपटने और उन्हें सँभालने के उपयुक्त तरीके हैं। पीटने या डाँटने की कोई जरूरत नहीं है; हम बस उन्हें यह स्पष्ट कर देते हैं कि उनकी समस्या का सार क्या है और उनके विरुद्ध परमेश्वर के चुने हुए अधिकतर लोगों के अभियोग और आरोप क्या हैं और अंततः उन्हें बता देते हैं : “तुम्हें बाहर निकालने का निर्णय बहुमत से लिया गया और बहुमत से स्वीकृत निर्णय है। भले ही तुम सहमत हो या नहीं हो, कलीसिया के पास यह निर्णय लेने और उसके अनुसार तुमसे निपटने का अधिकार है। तुम्हें आज्ञा माननी चाहिए।” यह मसला इस तरह हल हो जाता है और ऐसा निपटान पूरी तरह से सिद्धांत पर आधारित है। जो लोग फायदा उठाना पसंद करते हैं उनसे सिद्धांतों के अनुसार पेश आना और निपटना चाहिए। अगर वे तुम्हारा फायदा उठाने के लिए कुछ उधार लेना चाहते हैं तो तुम चाहो तो उन्हें उधार दे सकते हो, या नहीं चाहो तो मना कर सकते हो; फैसला तुम्हारा है। उन्हें उधार देना दयालुता का कार्य है; मना करना तुम्हारा अधिकार है। अगर वे कहें, “क्या हम सब भाई-बहन नहीं हैं? कितने कंजूस हो, कोई चीज उधार देने को भी तैयार नहीं हो!” तो तुम जवाब दे सकते हो : “यह मेरी संपत्ति है और इसे उधार नहीं देना मेरा अधिकार है। यह सिद्धांतों के अनुरूप है। मुझ पर यह कहकर दबाव मत डालो कि ‘हम सब भाई-बहन हैं’; तुम जो कह रहे हो वह सत्य नहीं है। जब परमेश्वर कहेगा, ‘तुम्हें उसे उधार देना ही चाहिए,’ तभी मैं तुम्हें ये उधार दूँगा।” कलीसिया के बहाने से या इस विचार से कि “हम सब विश्वासी हैं और सब भाई-बहन हैं,” निजी संपत्ति को ऐंठने या उधार लेने का किसी को अधिकार नहीं है। क्या यह सत्य है? (हाँ, है।) यह सत्य है। सिर्फ इस सत्य का पालन करके सभी के लिए निष्पक्षता सुनिश्चित की जा सकती है और सभी लोग अपने सच्चे अधिकारों का आनंद ले सकते हैं। लेकिन अगर कोई निजी चीजें ऐंठने या उधार लेने के लिए “परमेश्वर के घर के कार्य की जरूरतों,” “कलीसियाई कार्य की जरूरतों,” या “भाई-बहनों की जरूरतों” के बहाने का उपयोग करे तो क्या यह सत्य के अनुरूप है? (नहीं है।) क्या तुम्हें उन अनुरोधों को अस्वीकार करने का अधिकार है जो सत्य से मेल नहीं खाते? (हाँ, है।) और अगर इनकार करने पर कोई तुम पर कंजूस, मक्खीचूस का लेबल लगा दे तो क्या तुम डर जाओगे? (नहीं।) अगर कोई इस बात का बतंगड़ बना दे, दावा करे कि तुम कलीसियाई कार्य का समर्थन नहीं करते या तुम भाई-बहनों से प्यार नहीं करते, जिस कारण से भाई-बहन तुम्हें ठुकरा कर अलग-थलग कर देते हैं तो क्या तुम डर जाओगे? तुम पीछे हट जाओगे। उस पल तुम सोचोगे, “कार उधार देने में क्या बड़ी बात है? कलीसिया, परमेश्वर का घर या भाई-बहन कोई भी इसे उधार ले, ठीक है। भाई-बहनों को नाराज नहीं करना बेहतर है। एक व्यक्ति नाराज हो जाए तो उतना डरावना नहीं है, लेकिन अगर सभी भाई-बहन नाराज हो गए, उनके दिलों में मेरे लिए बेरुखी आ जाए, मुझे वे अलग-थलग छोड़ दें, तो मुझे क्या करना चाहिए?” चूँकि तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो, इसलिए डरने की क्या बात है? उनका तुम्हें अलग-थलग कर देने का यह मतलब नहीं है कि उनके पास सत्य है या उनके क्रियाकलाप सत्य से मेल खाते हैं। सत्य हमेशा सत्य होता है। चाहे बड़ी संख्या में लोग इससे सहमत हों या कम संख्या में, यह सत्य है। सत्य के बिना वह सत्य नहीं है, भले ही कम संख्या वाले लोग बड़ी संख्या वाले लोगों के आगे समर्पण कर दें। यह एक तथ्य है जिसे कोई नकार नहीं सकता। किसी के पास सत्य वास्तविकता है या नहीं यह इस पर निर्भर नहीं करता कि वह कितनी मधुरता से बोलता है, बल्कि इस पर निर्भर करता है कि क्या वह सत्य को अभ्यास में ला सकता है और सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकता है। उदाहरण के लिए, तुमने अपना कर्तव्य निभाने के उद्देश्य से एक नया कंप्यूटर खरीदा और कोई यह कहते हुए कि कलीसियाई कार्य के लिए इसकी आवश्यकता है, उसे उधार लेना चाहता है। तुम उसे उधार देने से इनकार करते हो, और वह कहता है : “तुममें प्रेम नहीं है, तुम परमेश्वर से प्रेम नहीं करते, तुम आत्म-बलिदानी नहीं हो। यह छोटा-सा बलिदान भी तुम नहीं कर सकते।” क्या ये शब्द सही हैं? क्या ये सत्य से मेल खाते हैं? (नहीं।) तुम्हें जवाब देना चाहिए : “कंप्यूटर मेरे कर्तव्य निर्वहन के लिए है। मैं फिलहाल अपना कर्तव्य कर रहा हूँ, इसलिए मैं अपने कंप्यूटर के बिना नहीं रह सकता। अगर तुमने मेरा कंप्यूटर उधार ले लिया, तो क्या यह मेरे कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित नहीं करेगा? क्या यह सत्य के अनुरूप होगा? तुम्हें वास्तव में कंप्यूटर की जरूरत किस लिए है? तुम कहते हो कि यह कलीसियाई कार्य के लिए है; अगर यह मामला है तो तुम्हें यह साबित करने के लिए किसी को ढूँढ़ने की जरूरत पड़ेगी। इसके अलावा, अगर इसकी जरूरत कलीसियाई कार्य के लिए हो भी, तो भी तुम्हें यह मुझसे उधार नहीं लेना चाहिए। अगर तुम मेरा कंप्यूटर ले लोगे तो मैं अपना कर्तव्य करने के लिए किसका उपयोग करूँगा? तुम बेहद स्वार्थी हो! फायदा उठाने के लिए कलीसियाई कार्य की जरूरतों का बहाना मत बनाओ, मैं उस झाँसे में नहीं पडूँगा। यह मत सोचो कि मैं कोई भ्रमित व्यक्ति हूँ जो पहचान नहीं सकता; तुम फायदा उठाने की ताक में हो, लेकिन यह नहीं होने वाला!” शैतान के जाल में फँसने से बचने के लिए ऐसे लोगों से इस तरह बात करना जरूरी है। क्या इस मसले को हल करना आसान है? एक बार जब तुम सत्य समझ लेते हो, और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते हो, तो तुम्हें किसी की भी बात से डरने की कोई जरूरत नहीं है। उनके द्वारा तुम पर लगाए गए झूठे लेबल पर ध्यान मत दो; थोड़ा-सा धर्म-सिद्धांत जो वे बोलते हैं उससे कोई भी आश्वस्त नहीं होगा। फायदा उठाना पसंद करने वाले लोगों की मानवता की अभिव्यक्तियों और उनसे निपटने के सिद्धांतों पर इस तरह सरलता से संगति की गई है।
जहाँ तक कलीसिया में फायदा उठाना पसंद करने वाले लोगों की बात है तो एक लिहाज से, लोगों को उनका भेद और अधिक सटीक और व्यावहारिक ढंग से पहचानना चाहिए, और दूसरे लिहाज से, लोगों को सत्य समझना चाहिए; उन्हें अपने दिलों में इस बारे में स्पष्ट होना चाहिए कि उन्हें परमेश्वर में विश्वास रखने के प्रति कैसा रुख रखना चाहिए, क्या कार्य करना चाहिए, किन सिद्धांतों पर कायम रहना चाहिए, और लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति उन्हें कैसा रवैया अपनाना चाहिए। भीड़ के पीछे मत चलो, न ही लोगों को नाराज करने से डरो, और खास तौर पर कुछ लोगों को खुश करने के लिए उन सिद्धांतों और रुख को मत खोओ जो तुम्हारे पास होने चाहिए, ऐसा मत करो कि अंत में लोग तो प्रसन्न हों मगर परमेश्वर के हृदय को ठेस पहुँचे और परमेश्वर तुमसे घृणा करने लगे। अगर यह ऐसा क्रियाकलाप है जो सिद्धांतों से मेल खाता है, तो तुम्हारे इसे करने से भले ही लोग नाराज हों या पीठ पीछे तुम्हारी आलोचना हो, यह मायने नहीं रखता है; लेकिन अगर यह ऐसा क्रियाकलाप है जो सिद्धांतों से मेल नहीं खाता, तो उसे करने से भले ही तुम्हें सबकी स्वीकृति और समर्थन मिल जाए और तुम सबके साथ मिल-जुलकर रह लो—परंतु एक बात तय है कि तुम परमेश्वर के सामने इसका हिसाब नहीं दे सकते—तुम्हें नुकसान हो चुका है। अगर तुम अधिसंख्य लोगों के साथ रिश्ते बनाकर रखते हो, उन्हें खुश और संतुष्ट रखते हो और उनकी प्रशंसा पाते हो, मगर तुम परमेश्वर, सृष्टिकर्ता का अपमान करते हो तो तुम महामूर्ख हो। इसलिए तुम जो भी करो, तुम्हें स्पष्ट समझना चाहिए कि क्या यह सिद्धांतों से मेल खाता है, क्या इससे परमेश्वर खुश होता है, इसके प्रति परमेश्वर का रवैया क्या है, लोगों को क्या रुख अपनाना चाहिए, लोगों को किन सिद्धांतों पर कायम रहना चाहिए, परमेश्वर ने किस प्रकार निर्देश दिए हैं और तुम्हें यह कैसे करना चाहिए—तुम्हें पहले इस बारे में स्पष्ट होना चाहिए। दूसरों के साथ तुम्हारे संबंध और दूसरों के साथ तुम्हारे भौतिक आदान-प्रदान और आचरण—क्या ये सिद्धांतों के अनुरूप होने की नींव पर बने हैं? क्या ये परमेश्वर को खुश करने की नींव पर बने हैं? अगर नहीं, तो तुम जो भी काम करते हो, चाहे तुम उसे जितने भी अच्छे ढंग से कायम रखो, कितनी भी पूर्णता से उसे करो या दूसरों से चाहे जितनी भी प्रशंसा तुम्हें मिले, इन बातों को परमेश्वर याद नहीं रखेगा। इस तरह किसी के भी साथ तुम्हारे संबंधों और व्यवहार के सिद्धांतों का इस बात से कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए कि वह तुम्हारा फायदा उठाता है या तुम उसका फायदा उठाते हो—उन्हें इस आधार पर नहीं बनाना चाहिए। इसके बजाय इन सिद्धांतों का संबंध इस बात से होना चाहिए कि तुम लोग जो करते हो क्या वह सत्य सिद्धांतों से मेल खाता है। तभी इसे सही मायनों में “परमेश्वर में हमारे विश्वास की रोशनी में” माना जा सकता है; तभी तुम कह सकते हो, “हम सब विश्वासी हैं, सब भाई-बहन हैं”; तभी तुम इसे एक आधारवाक्य के रूप में ले सकते हो। जीवन प्रवेश, कर्तव्य और कलीसियाई कार्य से जुड़े मामलों के अतिरिक्त अन्य कोई भी व्यवहार “भाई-बहन” के आधारवाक्य पर आधारित नहीं होना चाहिए। अगर इसका वास्ता कर्तव्य, जीवन प्रवेश या लोगों के बीच सामान्य व्यवहार से नहीं है, लेकिन कोई व्यक्ति किसी खास लक्ष्य को पाने के बहाने के रूप में हमेशा “भाई-बहन” आधारवाक्य की आड़ का इस्तेमाल करता है, तो वह बेशक फायदा उठाने और अपने व्यक्तिगत लाभ के वास्ते षड्यंत्र करने के लिए आड़ के रूप में ऐसे कथनों, तरीकों और फायदेमंद स्थितियों का उपयोग करना चाहता है। परमेश्वर के चुने हुए लोगों को इस बारे में सतर्क रहना चाहिए, झाँसे में आने से बचने के लिए बुद्धिमत्ता से ऐसे मसलों का समाधान करना चाहिए। यह इसलिए कि कलीसिया में ज्यादातर लोग सत्य नहीं समझते, और कुछ तो छद्म-विश्वासी भी हैं, वे सिद्धांतों के बिना कार्य करते हैं और अंधाधुँध कुकृत्य करते हैं। उनका “भाई-बहन” की आड़ लेकर काम करना बड़ी आसानी से कलीसियाई कार्य को प्रभावित करता है और उसमें व्यवधान डालता है। आज ये सब कहने का क्या उद्देश्य है? यह इस बात को स्पष्ट करने के लिए है कि चाहे दूसरों के साथ बातचीत हो या व्यवहार, इसकी नींव सत्य सिद्धांतों पर आधारित होनी चाहिए। यह लोगों के बीच अनुचित व्यवहार को रोकता है; यकीनन यह उन लोगों को भी रोकता है जो शोषण करने के लिए कमियाँ खोजकर फायदा उठाना पसंद करते हैं और साथ ही साथ यह अपनी छवि को लेकर बहुत ही ज्यादा चिंतित रहने वाले या कमजोर मानवता वाले लोगों को हमेशा अपना फायदा उठा लिए जाने, हमेशा धोखा खाने और हमेशा नुकसान झेलने से भी बचाता है। कुछ लोग—अपने परिवारों की परिस्थितियों की जाहिर कठिनाइयों के बावजूद—अपने नुकसान की कीमत पर “बहादुरी दिखाते हुए” अपने खून-पसीने की कमाई उधार दे देते हैं क्योंकि कोई फायदा उठाना पसंद करने वाला व्यक्ति उनसे यह दावा करके उधार माँगता है कि उसने उन्हें इसलिए चुना है क्योंकि वह उनका बहुत सम्मान करता है। पैसा उधार देने के बाद क्या होता है? उधार लेने वाला गायब हो जाता है। तब उधार देने वाला परमेश्वर के बारे में शिकायत करता है कि उसने उसकी रक्षा नहीं की। क्या यह विवेक का होना है? क्या तुमने यह सोचा था कि परमेश्वर में विश्वास रखने का अर्थ यह है कि कुछ करते वक्त तुम्हें सोचने की जरूरत नहीं है, परमेश्वर हर चीज का ख्याल रखेगा? क्या इससे तुम एक बेकार इंसान नहीं बन जाते हो? परमेश्वर यह अपेक्षा करता है कि लोग ईमानदार हों, बुद्धिमान हों और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करें। क्या तुम यह नहीं समझ सकते? अगर तुम इन सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं कर सकते, तो हमेशा नुकसान उठाने और झाँसे में फँसने के लायक हो। अंत में जब तुम्हारे जीवन में कोई रास्ता न हो तो तुम किसे दोष दे सकते हो? तुमने खुद इसे न्योता दिया। तुम्हारे क्रियाकलाप प्रेम से प्रेरित नहीं थे; वे मूर्खतापूर्ण थे! तुमने एक ठग को खुश करने के लिए पैसे दे दिए, लेकिन जब तुम्हें पैसों की जरूरत पड़ेगी तो क्या तुम परमेश्वर के घर से माँग सकते हो? क्या परमेश्वर के घर को तुम्हारे लिए यह जिम्मेदारी उठानी चाहिए? यह अपेक्षा करके कि परमेश्वर का घर यह खर्च उठाएगा, क्या तुम परमेश्वर के ऋणी नहीं हो रहे हो? जीवन में कोई रास्ता न होने पर तुम अपना कर्तव्य कैसे कर सकते हो? अगर तुम परमेश्वर से प्रार्थना करो, तो शायद परमेश्वर तुम्हें संतुष्ट न करे; यह जैसी करनी वैसी भरनी का मामला होगा और यह बिल्कुल ठीक है। ऐसा मूर्ख होने को तुमसे किसने कहा! क्या परमेश्वर ने तुमसे उस व्यक्ति पर भरोसा करने को कहा? क्या उसने कहा कि तुम उसे पैसे उधार दो? उसने नहीं कहा; यह तुम्हारा व्यक्तिगत कार्य था, यह परमेश्वर का इरादा नहीं दर्शाता। अगर तुम्हारे व्यक्तिगत क्रियाकलाप त्रुटिपूर्ण हों और उनके परिणाम प्रतिकूल हों, तो इसकी जिम्मेदारी केवल तुम्हीं उठा सकते हो। तुम्हें अपने लिए परमेश्वर के घर को जिम्मेदार या परमेश्वर को उत्तरदायी क्यों ठहराना चाहिए? तुम अपनी रक्षा न करने के लिए परमेश्वर की शिकायत क्यों करोगे? तुम एक वयस्क हो; एक वयस्क व्यक्ति में अपेक्षित निर्णय-क्षमता का अभाव क्यों हो? क्या तुम समाज में किसी भी व्यक्ति के माँगने पर उसे पैसे उधार दे दोगे? तुम्हें इस बारे में सोचना होगा, है ना? तुम किसी को सिर्फ इस कारण पैसे उधार क्यों दे दोगे कि उसने अपने अनुरोध में “भाई-बहन” की उपाधि जोड़ दी है? क्या यह नहीं दर्शाता कि तुम नासमझ हो? तुम सिर्फ नासमझ नहीं हो, तुम मूर्ख हो; हद दर्जे के मूर्ख! क्या तुम्हें लगता है कि सारे भाई-बहन सच्चे दिल से परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, सब के सब सत्य समझते हैं? उनमें से कम से कम एक तिहाई लोग सत्य से प्रेम नहीं करते और छद्म-विश्वासी हैं। क्या तुम यह भेद नहीं पहचान सकते? क्या तुम सोचते हो कि सभी भाई-बहन परमेश्वर के उद्धार के पात्र हैं और वे सही मायनों में परमेश्वर के हैं? क्या तुम नहीं जानते कि “बुलाए बहुत जाते हैं, पर चुने कुछ ही जाते हैं”? भाई-बहन किसका प्रतिनिधित्व करते हैं? वे भ्रष्ट मानवजाति की निशानी हैं! अगर तुम उन पर विश्वास करते हो, तो क्या तुम मूर्ख नहीं बन रहे हो? तुम्हारे व्यक्तिगत क्रियाकलापों के चाहे जो भी प्रतिकूल परिणाम हों, परमेश्वर के घर या भाई-बहनों की ओर मत देखो; कोई भी तुम्हारा बचाव नहीं कर सकता, न ही कोई तुम्हारी जिम्मेदारी उठाने को बाध्य है। तुमने कड़वाहट पैदा की है, तो तुम्हीं भुगतो; जवाबदेही तुम्हारी ही है। साथ ही, इन मामलों को संगति और चर्चा के लिए कलीसियाई जीवन में मत लाओ; कोई इसे सुनना नहीं चाहता, और तुम्हारे फैलाए हुए रायते को समेटने के लिए दूसरे लोग बाध्य नहीं हैं। अगर कोई वास्तव में तुम्हारी मदद करना चाहता है तो तुम दोनों इसे निजी तौर पर सुलझा सकते हो। समझे?
इन मामलों पर संगति करना लोगों को याद दिलाने का काम करता है, उनके ज्ञान का विस्तार करता है और उनके लिए चेतावनी की घंटी बजाता है, यह स्पष्ट कर देता है कि परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोगों के बीच हर तरह के लोग होते हैं। तुम लोगों को एक अहम बात याद रखनी चाहिए, जिसका मैंने पहले कई बार जिक्र किया है : जो लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं वे भ्रष्ट मानवजाति में से चुने जाते हैं। इसका मतलब क्या है? इसका मतलब यह है कि शैतान ने प्रत्येक व्यक्ति को भ्रष्ट कर दिया है, प्रत्येक व्यक्ति का स्वभाव भ्रष्ट है और वह विभिन्न सीमाओं तक बुरे कर्म करने में सक्षम होता है, और सही संदर्भ में, परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाले काम करने में सक्षम होता है। तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करने और फायदा उठाना पसंद करने के काम, जिनके बारे में हमने अभी-अभी संगति की, विश्वासियों द्वारा किए जाते हैं; गैर-विश्वासी हमारे लिए अप्रासंगिक हैं, इसलिए हम यहाँ उनका जिक्र नहीं करेंगे। मानवता की जिन अभिव्यक्तियों पर हमने संगति की, वे निश्चित रूप से उन लोगों की अभिव्यक्तियाँ हैं जो परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। इसलिए “भाई-बहनों” की उपाधि को शानदार, श्रेष्ठ, पवित्र और अलंघनीय मत समझो। अगर तुम ऐसा समझते हो तो यह तुम्हारी मूर्खता है। परमेश्वर ने कभी नहीं कहा, “भाई-बहन अनमोल हैं। एक बार भाई-बहन बन जाने पर वे पावन हो जाते हैं, वे परमेश्वर के विश्वासपात्र, पूरी तरह से विश्वसनीय बन जाते हैं; तुम उन पर पूरी तरह से विश्वास कर सकते हो और वे जो भी कहते या करते हैं वह सत्य है।” यह कभी नहीं हुआ है; ये तुम्हारी धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं। अगर अब तक भी तुम “भाई-बहनों” की उपाधि के पीछे के वास्तविक निहितार्थ को नहीं समझ सकते हो, तो तुम सचमुच मूर्ख हो; तुमने इतने वर्षों तक व्यर्थ ही धर्मोपदेश सुने हैं। तुम यह भी नहीं समझ पाए हो कि तुम किस प्रकार के व्यक्ति हो, फिर भी तुम दूसरों पर इतना विश्वास करते हो, उन्हें—भाई-बहनों को—बहुत पवित्र और भव्य मानते हो, रिरियाते हो कि कैसे “भाई-बहन इसे नापसंद करते हैं,” “भाई-बहन नाराज हैं,” “भाई-बहन कष्ट सह रहे हैं,” “भाई-बहन ये और वो,” भाई-बहनों के बारे में इतने स्नेह से बोलते हो। क्या परमेश्वर के वचनों में कहीं भी तुमने कुछ देखा है जो कहता हो कि भाई-बहन बहुत श्रेष्ठ और पवित्र हैं, बहुत विश्वसनीय हैं? एक भी वाक्य नहीं देखा है, है ना? तो फिर तुम उन्हें उस तरह से क्यों देखते हो? यह तुम्हें सरासर मूर्ख बनाता है। इसलिए, भाई-बहनों से तुम चाहे जितना भी नुकसान या हानि उठाओ, यह पूरी तरह से तुम्हारा दोष है। अंत में, अपने द्वारा उठाई गई हानियों या नुकसानों को ट्यूशन शुल्क के रूप में मानो। यह तुम्हारे सीखने के लिए एक सबक है। तुम लोगों को हमेशा याद रखना चाहिए : भाई-बहन सत्य का प्रतिनिधित्व नहीं करते, परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करना तो दूर की बात है; वे परमेश्वर के करीबी लोगों, परमेश्वर के गवाहों या परमेश्वर के प्यारे बच्चों के समतुल्य नहीं हैं। भाई-बहन कौन हैं? वे भ्रष्ट इंसान हैं, ठीक तुम जैसे; उनके मन में परमेश्वर को लेकर धारणाएँ हैं, वे सत्य से प्रेम नहीं करते, सत्य से विमुख होते हैं, उनमें अहंकारी स्वभाव होता है, उनका स्वभाव क्रूर और दुष्ट होता है, वे हर लिहाज से खुद को परमेश्वर के शत्रु के रूप में स्थापित करने में सक्षम होते हैं, लापरवाही से अपने कर्तव्य निभाते हैं और परमेश्वर में विश्वास रखने के बहाने से दूसरे भाई-बहनों का फायदा भी उठाते हैं। ये सब कहने का उद्देश्य क्या है? यह तुम्हारे और भाई-बहनों के बीच कलह के बीज बोने के लिए नहीं बल्कि तुम्हें सबके असली चेहरे स्पष्ट रूप से दिखाने, “भाई-बहनों” की उपाधि को सही ढंग से लेने, अपने आसपास के लोगों से सही ढंग से पेश आने और सभी के साथ उचित अंतर्वैयक्तिक संबंध स्थापित करने के लिए है। व्यक्तिगत उपकारों, भौतिक आदान-प्रदान, चापलूसी, मिठू बनने, छूट देने या दूसरे ऐसे उपायों से भाई-बहनों के साथ घुलने-मिलने का लक्ष्य लेकर दूसरों से अच्छे रिश्ते स्थापित करने या बनाए रखने की कोशिश मत करो। यह अनावश्यक है और इस बारे में तुम जो भी करते हो वह परमेश्वर के लिए अरुचिकर और घिनौना होता है। तो फिर लोगों के बीच जीने का सर्वोत्तम तरीका क्या है, जीवन यापन के लिए सर्वोत्तम रवैया और सिद्धांत क्या है? यह परमेश्वर का वचन है। परमेश्वर के वचन क्या कहते हैं? वे उचित और सामान्य अंतर्वैयक्तिक संबंध स्थापित करने के लिए कहते हैं। ये संबंध कैसे स्थापित किए जा सकते हैं? परमेश्वर के वचनों के आधार पर दूसरों से बातचीत करो, बोलो और उनके साथ मिलो-जूलो। उदाहरण के लिए, अगर कोई किसी दूसरी जगह रहने जा रहा है, तुमसे पूछता है कि क्या तुम्हारे पास मदद के लिए समय है और अगर तुम तैयार हो, तो तुम जा सकते हो; अगर तुम इस डर से अनिच्छुक हो कि हो सकता है यह तुम्हारे कर्तव्य को प्रभावित करे, तो तुम मना कर सकते हो। यह तुम्हारा अधिकार है और निस्संदेह वह सिद्धांत भी है जिसका तुम्हें पालन करना चाहिए। तुम्हें छूट देने की जरूरत नहीं है, उन्हें नाराज करने और भाई-बहनों के बीच सामंजस्य को गड़बड़ करने के डर से अनिच्छा से और दुविधा में पड़कर सहमत हो जाओ, और फिर बाद में अपने दिल में अनिच्छा महसूस करो, जिससे तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन पर इसका प्रभाव पड़े, इसकी जरूरत नहीं है। तुम अच्छी तरह जानते हो कि ऐसा करना सिद्धांतों के विरुद्ध है, फिर भी तुम दूसरों को संतुष्ट करने और अच्छे संबंध बनाए रखने की खातिर उन्हें इजाजत देते हो कि वे तुम्हारा शोषण करें और एक गुलाम की तरह तुम पर हुक्म चलाएँ। तुम्हारा दूसरों को संतुष्ट करना एक अच्छा कर्म नहीं है और इसे परमेश्वर याद नहीं रखेगा। तुम जो कर रहे हो वह महज अंतर्वैयक्तिक संबंध बनाए रखने के लिए है; तुम कलीसियाई कार्य की खातिर या अपना कर्तव्य निभाने के लिए कार्य नहीं कर रहे हो, वह तुम्हारी जिम्मेदारी या दायित्व तो बिल्कुल भी नहीं है। परमेश्वर ऐसे क्रियाकलापों को कभी याद नहीं रखेगा और अगर तुम उन्हें करते भी हो तो व्यर्थ ही करते हो। इसलिए, ऐसे मामलों से सामना होने पर, क्या तुम्हें गंभीरता और सावधानी से विचार नहीं करना चाहिए कि कैसे चुनें? कुछ लोगों को मदद के लिए पूछा जाता है लेकिन उनके कर्तव्य वास्तव में उन्हें बहुत व्यस्त रखते हैं, और उन्होंने किसी सभा में भाग लेने या कुछ आध्यात्मिक भक्ति का कार्यक्रम करने के लिए बस थोड़ा समय निकाल लिया है। वे स्पष्ट रूप से जाना नहीं चाहते और सिद्धांतों के अनुसार उन्हें जाना भी नहीं चाहिए। लेकिन क्योंकि वे छवि की बड़ी परवाह करते हैं इसलिए मना नहीं कर सकते। अंत में क्या होता है? वे उन अधम, फायदा उठाने वाले व्यक्तियों के हाथो अपना शोषण होने देते हैं, वह समय बरबाद करते हैं जिसे जीवन प्रवेश के लिए समर्पित किया जाना चाहिए था। क्या यह हानि नहीं है? यह हानि है जिसके वे बिल्कुल लायक हैं! ऐसी हानि सहने पर दूसरों की सहानुभूति या दया बिल्कुल नहीं मिलनी चाहिए। क्यों कहा जाए कि वे इस हानि के लायक हैं? तुमसे परमेश्वर के वचनों की अवहेलना किसने करवायी? तुम्हारे भीतर लोगों को नाराज करने का डर किसने पैदा किया? अगर तुम परमेश्वर के वचनों को सुनने के बजाय लोगों को नाराज नहीं करना पसंद करते हो, तो तुम उचित रूप से यह हानि सहने के योग्य हो! कुछ लोग कहते हैं, “लोग शून्य में नहीं रहते; लोगों के बीच मेलजोल होना ही चाहिए।” मायने यह रखता है कि तुम मेलजोल कैसे करते हो। कौन-सा मेलजोल सत्य सिद्धांतों से मेल खाता है, परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है, और तुम्हारे जीवन प्रवेश को ज्यादा लाभ पहुँचाता है : सिद्धांतों पर आधारित मेलजोल या सिद्धांत रहित मेलजोल, लोगों की खुशामद करने वाला होना जो हर चीज को सुगम बनाने की कोशिश करता है? तुम जानते हो कि किसे चुनना है, है कि नहीं? अगर तुम जानते हो कि कैसे चुनना है, फिर भी तुम दलदल में फँस जाते हो तो अंतिम परिणाम तुम्हें ही भुगतना होगा। क्या यह स्पष्ट नहीं है? (हाँ, है।)
बुरे लोगों की मानवता की और भी अभिव्यक्तियाँ हैं, और आज की संगति सीमित थी, केवल तथ्यों और झूठों को गलत तरीके से प्रस्तुत करना पसंद करने और फायदा उठाना पसंद करने के पहलुओं पर ही ध्यान केंद्रित किया गया था। इन दो पहलुओं के बारे में सुनने के बाद ही ज्यादातर लोगों में कुछ भावनाएँ और भेद पहचानने की क्षमता आ जाती है, और वे कहते हैं, “तो खराब मानवता ऐसी होती है!” लेकिन ऐसे लोग कलीसिया में सचमुच मौजूद होते हैं, तो क्या किया जाना चाहिए? उनकी मौजूदगी कोई बहुत बड़ी बात नहीं है, क्योंकि कलीसिया में सिद्धांत और विनियम होते हैं; वह ऐसे व्यक्तियों से निपटने के लिए उपयुक्त उपाय अपना सकती है। इन मामलों पर आज की संगति का उद्देश्य ज्यादातर लोगों को इन दो प्रकार के बुरे लोगों के बारे में स्पष्ट समझ और पहचान प्राप्त करने, और फिर उन्हें बाहर निकालने के लिए एक साथ कार्य करने योग्य बनाना है।
20 नवंबर 2021
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