अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (23) खंड तीन

ङ. कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करना

अब हम पाँचवें प्रयोजन पर संगति करेंगे : कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखना। तुम लोग कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करने के इस विषय से परिचित हो, है ना? (हाँ।) कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करने वालों की क्या अभिव्यक्तियाँ होती हैं? किन अभिव्यक्तियों के जरिए हम यह निर्धारित कर सकते हैं कि परमेश्वर में विश्वास रखने का उनका प्रयोजन अशुद्ध है, वे ईमानदारी से परमेश्वर का अनुसरण नहीं कर रहे हैं या उद्धार प्राप्त करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं, और वे उद्धार प्राप्त करने का लक्ष्य पाने के लिए सत्य का अनुसरण करने, उसे स्वीकारने और परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास और परमेश्वर के उद्धार को स्वीकारने की इच्छा के आधार पर परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने के लिए कलीसिया में नहीं आए हैं, बल्कि कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करने आए हैं? कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करने का क्या अर्थ है? इसका सतही अर्थ बहुत स्पष्ट है। इसका अर्थ है धार्मिक विश्वास के जरिए किसी संप्रदाय में शामिल होना ताकि अपने दैनिक जीवन से जुड़े मसलों और भोजन को सुरक्षित करने की समस्या को हल कर सकें। कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करने की यही सबसे संक्षिप्त और सटीक परिभाषा है और यही सबसे स्पष्ट परिभाषा भी है। तो ये लोग कौन-सी अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करते हैं जिनसे यह पुष्ट होता है कि वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं, बल्कि कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करने आए हैं। कुछ लोगों में किसी खास कौशल में प्रवीणता और एक सामान्य व्यक्ति के रूप में कार्य करने की क्षमता होती है, लेकिन वे देखते हैं कि यह समाज अन्यायपूर्ण है और इसमें काम करते हुए जीवन-यापन करना आसान नहीं है। अपने परिवार के सभी सदस्यों को सहारा देने हेतु काम करके पैसे कमाने के लिए जल्दी उठने और देर से सोने की जरूरत होती है, ढेरों मुश्किलें सहनी पड़ती हैं, और बहुत-सी शिकायतों को सहते हुए जीना पड़ता है—इंसान को व्यवहार-कुशल और लचीला होने के साथ-साथ बहुत निर्मम और बुरा भी होना पड़ता है, उसमें युक्तियाँ और क्षमताएँ भी होनी चाहिए—तभी जाकर कोई एक स्थायी आजीविका प्राप्त कर सकता है और खुद को समाज में स्थापित कर सकता है। काम करनेवालों को देखें तो वे चाहे जिस भी उद्योग में हों, या चाहे उच्च, मध्यम या निचले किसी भी सामाजिक वर्ग में हों, जीवन-यापन करना आसान नहीं है। वे सफेदपोश कर्मचारी अपने मनभावन रंग-रूप, ऊँची पदवियों, उच्च शैक्षणिक योग्यताओं, बड़े वेतनों और सुविधाओं के साथ मनुष्य के समान होने का मुखौटा लगाते हैं, और हर कोई उनसे ईर्ष्या करता है, लेकिन कार्यस्थल में सामने आने वाली हर बाधा उनके लिए एक कठिन परीक्षा होती है। किसी भी क्षेत्र में काम करना आसान नहीं होता है। किसान होना और खेत में काम करना और भी कठिन होता है। किसान कड़ी मेहनत करते हैं, पसीना बहाते हैं, फिर भी वे अपने परिवार को खिलाने जितना अनाज ही ले पाते हैं, उनके पास कपड़े और दूसरी जरूरी चीजें खरीदने या अपने घर की मरम्मत करवाने के पैसे नहीं होते, और जब भी वे थोड़ा पैसा खर्च करना चाहते हैं, तो उन्हें सब्जियाँ बेचने या मवेशियों को पालने के भरोसे रहना पड़ता है—किसान होना और भी ज्यादा दुखदायी है! जैसा कि गैर-विश्वासी कहते हैं, “पैसा कमाना कठिन है—जन्म लेना तो आसान है, मगर जीना कठिन है”—जीवन-यापन करना बहुत मुश्किल है। कुछ लोगों के पास आजीविका कमाने का कोई साधन नहीं होता, और वे देखते हैं कि गैर-विश्वासी बहुत बुरे हैं, और वे सोचते हैं कि धार्मिक आस्था वाले लोग निष्कपट होते हैं, और कलीसिया में जीवन-यापन करना थोड़ा आसान हो सकता है, इसलिए वे कलीसिया में घुसपैठ करने के लिए परमेश्वर के घर के सुसमाचार को प्रचारित करने के अवसर का फायदा उठाते हैं। और यह सुनने के बाद कि वहाँ अपने कर्तव्य निभाने वाले लोगों को भोजन दिया जाता है, वे कर्तव्य करने के लिए आ जाते हैं। जो कुछ लोग कर्तव्य करना चाहते हैं, वे सोचते हैं, “मैं अपने परिवार का कमाऊ व्यक्ति हूँ। अगर घर में खेती करने वाले लोग हैं, और मेरे परिवार के जीवन-यापन का खर्च निकल आता है, तो मैं अपना कर्तव्य निभाऊँगा।” परमेश्वर में विश्वास रखने और कर्तव्य निभाने का उनका मुख्य प्रयोजन अपना जीवित रहना सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त भोजन और गर्म कपड़े जुटाना है—दिन में तीन वक्त का खाना मिल जाए, और अपने भरण-पोषण के लिए अब काम करने और पैसा कमाने के भरोसे न रहना पड़े; अगर उन्हें कलीसिया और भाई-बहनों की सहायता मिल जाए तो उनके लिए सब कुछ ठीक है। इस लक्ष्य को पाने के लिए वे हर वो काम कर लेते हैं जो कलीसिया उनके लिए व्यवस्थित करती है। कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो कलीसिया में प्रवेश करने के बाद यह सीखना शुरू कर देते हैं कि अगुआ कैसे बनें और उपदेशों का प्रचार कैसे करें। वे परमेश्वर के वचनों का बहुत पाठ करते हैं, परमेश्वर के बहुत सारे वचनों को हाथ से लिखकर याद करते हैं, और याद करने के बाद वे उन्हें दूसरों को प्रचारित करना सीखते हैं और समस्याएँ सुलझाने में लोगों की मदद करते हैं। वे हरेक की मदद करने की हर संभव कोशिश करते हैं, आशा करते हैं कि उनसे मदद पाकर लोग उनकी ओर मदद का हाथ बढ़ाएँगे, और आशा करते हैं कि उनके उपदेशों और उनके द्वारा प्रचारित परमेश्वर के वचन सुनने के बाद उनके प्रति कृतज्ञता महसूस करेंगे, और इस तरह उन्हें दान और सहायता प्रदान करेंगे। उदाहरण के लिए, अगर उनके पास घर के पानी और बिजली के बिल चुकाने के पैसे न हों, तो भाई-बहन ये बिल चुकाने में उनकी मदद कर सकते हैं, और अगर उनके पास बच्चों की ट्यूशन फीस देने या अपने बीमार माता-पिता के इलाज का खर्च उठाने के लिए पैसे न हों, तो कलीसिया या भाई-बहन उन्हें ये राशियाँ दे सकते हैं, क्योंकि वे कर्तव्य निभा रहे हैं। इस तरह वे परमेश्वर में विश्वास रखकर आराम महसूस करते हैं और उन्हें लगता है कि परमेश्वर में उनका विश्वास लाभप्रद है, इससे उन्हें कोई हानि नहीं हुई है, और उन्होंने अपना लक्ष्य हासिल कर लिया है। वे यह कहते हुए अपने दिल से परमेश्वर को निरंतर धन्यवाद देते हैं, “यह सब परमेश्वर का अनुग्रह है, परमेश्वर की कृपा है। परमेश्वर का धन्यवाद!” परमेश्वर के प्रेम का “प्रतिदान” करने के लिए वे कलीसिया की व्यवस्थाओं का “पालन” करते हैं, और अगर उन्हें भोजन और आजीविका के खर्चे दे दिए जाएँ, तो वे कैसा भी काम कर लेंगे—उनका लक्ष्य इसके एवज में बस एक स्थिर आजीविका प्राप्त करना है। जब कभी कलीसिया उनके जीवन-यापन की जरूरतों की अनदेखी करती है, और समय रहते उनकी कठिनाइयों को हल नहीं करती, तो वे दुखी हो जाते हैं। कलीसिया और परमेश्वर के घर द्वारा उन्हें सौंपे गए कर्तव्यों के प्रति उनका रवैया तुरंत बदल जाता है। वे कहते हैं, “इससे काम नहीं चलेगा, मुझे बाहर जाकर पैसे कमाने होंगे। पहले, मेरे पास पैसे कमाने का अवसर नहीं था, क्योंकि मैं कलीसिया का कार्य कर रहा था। यहाँ तक कि मैं वह कार्य करने के लिए खुद उपस्थित होकर अक्सर बड़े लाल अजगर द्वारा गिरफ्तार किए जाने का जोखिम भी मोल लेता था, और हर जगह लोग मुझे जानते हैं। अब मेरे लिए पैसे कमाना सुविधाजनक नहीं है। मुझे क्या करना चाहिए?” ऐसी स्थिति में, वे सक्रिय होकर भाई-बहनों के सामने अपनी कठिनाइयाँ और माँगें प्रस्तुत करेंगे, यहाँ तक कि परमेश्वर के घर के पास भी जाकर अपनी माँगें रखेंगे। कुछ लोगों के पास अपने जीवन-यापन के लिए या अपने बुढ़ापे के लिए पैसे नहीं होते, लेकिन वे ये समस्याएँ खुद नहीं सुलझाते। इसके बजाय, वे अपनी आजीविका के खर्च हेतु पैसे कमाने के लिए परमेश्वर के घर में मेहनत करने पर भरोसा करते हैं। कुछ लोग इस मामले को और आगे बढ़ाते हैं—वे न केवल परमेश्वर के घर से अपनी आजीविका का खर्च और अपने बच्चों के पालन-पोषण और अपने माता-पिता को सहारा देने की लागत देने का आग्रह करते हैं, बल्कि वे उनके इलाज का खर्च भी माँगते हैं। कुछ लोग परमेश्वर के घर से अपने कर्जे चुकाने के लिए भी पैसे माँगते हैं—उनकी माँगें धीरे-धीरे बहुत ज्यादा बढ़ जाती हैं, और वे वाकई बेशर्म हैं जो ऐसी चीजें माँगते हैं। कुछ लोगों के परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए आकर कलीसिया में शामिल हो जाने के बाद उनके खर्च उठाने के लिए परमेश्वर के घर द्वारा दिया गया पैसा और उनके द्वारा सक्रिय होकर माँगी हुई अतिरिक्त राशि, उनके कामकाज से कमाए हुए पैसे से ज्यादा हो जाती है। ये शर्तें पूरी हों तो वे बाहर से, परमेश्वर के घर द्वारा उन्हें सौंपे गए कार्य को समर्पण और बड़ी वफादारी से निभाते हुए-से लगते हैं। लेकिन एक बार जब ये लाभ घटा दिए जाते हैं, या ये गायब हो जाते हैं, तो उनका रवैया बदल जाता है। कलीसिया द्वारा उन्हें सौंपे गए कार्य के प्रति उनका रवैया, भाई-बहनों के उनके प्रति रवैये और परमेश्वर के घर द्वारा उन्हें प्रदत्त वित्तीय सहायता की राशि के आधार पर बदलता रहता है। एक बार जब वे जिस अनुग्रह का आनंद लेते हैं, उसे वापस ले लिया जाता है या वह गायब हो जाता है, तो वे उसके बाद अपने कर्तव्य करते हुए दिखाई नहीं देते। जिस क्षण ये लोग परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करते हैं, तभी से हिसाब लगाने लग जाते हैं कि वे परमेश्वर के घर में कैसे धोखे से अपनी जगह बना सकेंगे, और वहाँ पाँव जमाने के बाद कैसे भाई-बहनों के दान और मदद, और साथ ही परमेश्वर के घर से मदद और अपने दैनिक जीवन के लिए आपूर्तियों का “न्यायपूर्वक” आनंद ले सकेंगे। वे खुद को परमेश्वर के लिए जरा भी ईमानदारी से नहीं खपाते हैं, वे बिना शर्त खुद को खपाने के लिए बिल्कुल नहीं आते हैं—इसके बजाय, वे सिर्फ एक लक्ष्य से कलीसिया में शामिल होते हैं, जो उसके सहारे अपना जीवन-यापन करना और आजीविका चलाना है। जब उनकी इच्छा के अनुसार यह प्रयोजन पूरा नहीं हो पाता, तो वे शीघ्र शत्रुतापूर्ण हो जाते हैं, और तेजी से अपने असली चेहरे का खुलासा कर देते हैं, जो कि एक छद्म-विश्वासी का चेहरा होता है। जब से वे परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करते हैं, तभी से वे इसे ईमानदारी से नहीं करते; वे ईमानदारी से परमेश्वर का अनुसरण नहीं करते, या पुरस्कार माँगे बिना और बदले में कुछ भी माँगे बिना स्वेच्छा से परमेश्वर के लिए चीजों को नहीं त्यागते या खुद को नहीं खपाते। इसके बजाय, वे अपनी ही माँगें, मंशाएँ, और प्रयोजन लेकर परमेश्वर में विश्वास रखने आते हैं—परमेश्वर में विश्वास रखने के कारण, वे कृतसंकल्प होकर कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करने और अपनी आजीविका चलाने के लिए कलीसिया और भाई-बहनों के भरोसे रहने के अपने प्रयोजन से आते हैं। जब यह प्रयोजन उनकी इच्छा के अनुसार हासिल या पूरा नहीं हो पाता है, तो वे काम पर जाकर या व्यापार-व्यवसाय करके आगे बढ़ने का दूसरा रास्ता खोजते हैं। क्या इस प्रकार के लोग नहीं होते हैं? (हाँ।) कलीसिया में इस प्रकार के कुछ लोग होते हैं। शुरुआत में, जब परमेश्वर का घर या भाई-बहन उन्हें दान में कुछ देते हैं, जैसे कि कपड़े-लत्ते, दैनिक जरूरतों का सामान या पैसा, तो वे बाहर से शर्मिंदा होते हुए-से लगते हैं, लेकिन भीतर से वास्तव में वे खुशी से झूम रहे होते हैं। उदाहरण के लिए, मान लो कि वे एक या दो भाई-बहनों की मेजबानी करते हैं या अपना पूर्णकालिक कर्तव्य करते हैं, और इसलिए परमेश्वर का घर या भाई-बहन उनके परिवारों को थोड़ा दान और वित्तीय सहायता देते हैं। वे इसको लेकर बहुत खुश और संतुष्ट होते हैं, सोचते हैं कि परमेश्वर में विश्वास रखना लाभप्रद और फायदेमंद है, और उन्होंने कुछ खोया नहीं है। समय के साथ, उनके दिल ज्यादा-से-ज्यादा लालची होते जाते हैं, वे अपने हाथ और ज्यादा फैलाने लगते हैं, वे और ज्यादा बेशर्म होते जाते हैं—उन्हें चाहे जितना भी दिया जाए, वे कभी संतुष्ट नहीं होते। शुरुआत में, चीजें स्वीकार करते हुए वे शर्मिंदा महसूस करते है, लेकिन समय के साथ, उन्हें लगता है कि यह कुछ हद तक न्यायसंगत है, और फिर वे इस बात पर नाराज होने लगते हैं कि यह काफी नहीं है। बाद में, वे सीधे तौर पर माँग करते हैं कि परमेश्वर के घर को उन्हें एक विशेष राशि देनी ही चाहिए; वरना, वे जीवित रहने में सक्षम नहीं हो सकेंगे और इस तरह अपने कर्तव्य नहीं निभा सकेंगे। क्या उनका लालच और ज्यादा नहीं बढ़ता जा रहा है? (हाँ।) इतने अधिक अनुग्रह का आनंद लेने के बावजूद वे न सिर्फ उसका प्रतिदान करने के बारे में नहीं सोचते, बल्कि परमेश्वर के घर से और ज्यादा माँगने लगते हैं। वे मानते हैं कि परमेश्वर का घर ही उनका ऋणी है, भाई-बहन ही उनके ऋणी हैं, और उन्हें दान और वित्तीय सहायता दिया जाना बिल्कुल सही है। अगर उन्हें कम दिया जाता है या उन्हें बाद में मिलता है, तो वे खुश नहीं होते। उन्हें जितना भी पैसा और जितनी भी चीजें दी जाती हैं वे उन्हें स्वीकार कर लेते हैं, यह महसूस करते हैं कि यह सही है। जैसे-जैसे वे लंबी अवधि के लिए अपना कर्तव्य निर्वहन जारी रखते हैं, वे और अधिक हकदार महसूस करते हैं और माँग करना शुरू कर देते हैं कि परमेश्वर का घर उन्हें कीमती फोन और कंप्यूटर प्रदान करे। वे यह भी माँग करते हैं कि परमेश्वर का घर उनके घरों में एयरकंडीशनर लगवाए और माइक्रोवेव और डिशवाशर जैसे उपकरण लगवाए। वे यह भी माँग करते हैं कि परमेश्वर का घर उनके लिए घर खरीदे, और उन्हें एक गाड़ी दे, कुछ लोग तो कामवाली बाई की भी माँग करते हैं। उनकी माँगें बढ़ जाती हैं, उनका लालच बढ़ जाता है, और आखिरकार उनकी माँगें सुरसा के मुँह का आकार लेने लगती हैं, और वे कुछ भी माँगने की हिमाकत कर बैठते हैं। वे मानते हैं, “मैंने परमेश्वर में अपने विश्वास में परमेश्वर के घर के लिए खुद को खपाया है और काफी कड़ी मेहनत की है। मैं परमेश्वर के घर का हिस्सा हूँ। तुम लोग परमेश्वर को इतनी भेंटें चढ़ाते हो—मुझे एक हिस्सा देने में क्या नुकसान है? यही नहीं, अगर तुम मुझे एक हिस्सा दोगे, तो यह मुफ्त में दिया हुआ नहीं होगा; मैं भी परमेश्वर के घर में मेहनत करता हूँ और जोखिम उठाता हूँ, मैं भी तकलीफें सहता हूँ और कीमत चुकाता हूँ। क्या यह सही नहीं है कि मुझे भी इन चीजों का आनंद लेने का मौका मिले? इसलिए, परमेश्वर के घर को मेरी माँगें बिना किसी शर्त के मान लेनी चाहिए, मुझे जो भी चाहिए दे देना चाहिए, और उसे कंजूसी नहीं करनी चाहिए।” मुझे बताओ, क्या ये कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करने की अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं? क्या ऐसे लोग छद्म-विश्वासी नहीं हैं? (हाँ।) इन व्यवहारों का सटीक निरूपण कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करना है। कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करने का अर्थ क्या है? इसका अर्थ है परमेश्वर में विश्वास रखने की आड़ में परमेश्वर के घर से पैसा और वस्तुएँ उगाहना, और परमेश्वर के घर के लिए मेहनत करने और कर्तव्य निभाने की आड़ में परमेश्वर के घर से मुआवजे की माँग करना। कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करने का यही अर्थ है। क्या ऐसे लोग सत्य का अनुसरण कर सकते हैं? (नहीं।) वे किस लिए चीजों को त्यागते हैं, मेहनत करते हैं, और कठिनाई सहते हैं? क्या यह कर्तव्य निभाने के लिए है? क्या वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं? (नहीं।) वे अपना कर्तव्य निभाने के उद्देश्य से बिल्कुल यह मेहनत नहीं करते, कठिनाइयाँ नहीं सहते, बल्कि पूरी तरह से आजीविका चलाने के लिए करते हैं, और वे किसी को भी उनकी जरा-सी भी आलोचना नहीं करने देते—वे बस न्यायसंगत ढंग से कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करना चाहते हैं। ये वे लोग हैं जो कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करते हैं।

जो लोग कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करते हैं, वे किसी और कारण से नहीं बल्कि अपनी आजीविका चलाने के लिए, जीवन-यापन करने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। क्या तुम लोगों के आसपास ऐसे लोग हैं जो कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करते हैं? उनकी अभिव्यक्तियों के बारे में बताओ। (मैं एक ऐसे व्यक्ति से मिल चुका हूँ। शुरुआत में वह थोड़ा अक्लमंद और जोशीला लगा, इसलिए कलीसिया ने उसके लिए सुसमाचार का प्रचार करने की व्यवस्था की। उस समय, उसका परिवार तकलीफ में था, इसलिए कलीसिया ने उसे थोड़ी मदद प्रदान की। लेकिन बाद में पता चला कि उसने बिना किसी सिद्धांत के पैसे खर्च कर दिए थे, उन चीजों पर खर्च किए थे जिन पर नहीं करने चाहिए, और जिसमें बचत करनी चाहिए थी उसमें नहीं की थी। जब भाई-बहनों ने उसके साथ सत्य सिद्धांतों पर संगति की, तो वह भीतर से बेहद नाखुश और बहुत प्रतिरोधी था। क्योंकि उसने परमेश्वर के घर के पैसे का दुरुपयोग किया था, इसलिए कलीसिया ने परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं और शर्तों के अनुसार उचित समायोजन कर दिए, जिससे उसे दी जाने वाली वित्तीय सहायता घट गई। परिणामस्वरूप उसने कर्तव्य निभाने का अपना पुराना जोश खो दिया और वह ज्यादा-से-ज्यादा लापरवाह होता गया। बाद में, कलीसिया ने उसकी मदद करना बंद कर दिया, और फिर उसका दिल कर्तव्य निभाने में नहीं लगा। वह अपना सारा समय इस सोच में गुजारने लगा कि कैसे काम करे और पैसे कमाए। उसने यह दावा करके कि उसे गाड़ी लेनी है और कोई कंपनी शुरू करने में निवेश करना है, उसने भाई-बहनों से पैसे उधार भी लिए, और यह कहा कि इससे सुसमाचार का प्रचार करने में ज्यादा सुविधा होगी, और इससे ज्यादा लोग प्राप्त हो सकेंगे। स्पष्ट रूप से वह इन शब्दों से लोगों को धोखा दे रहा था, उन्हें गुमराह कर रहा था; वह भाई-बहनों को ठगकर पैसे लेने के लिए सुसमाचार का प्रचार करने के बहाने का इस्तेमाल कर रहा था।) इस व्यक्ति से कैसे निपटा गया? (उसे सीधे निष्कासित कर दिया गया।) ऐसा करना सही था। यह कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करना है। जब कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करने वाले लोग पहले-पहल परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, तो वे कुछ हद तक जोशीले लगते हैं, और खुद को थोड़ा खपाते हैं, उस वक्त उनकी माँगें ऊँची नहीं होतीं—सिर्फ भोजन मिल जाए तो उनके लिए काफी होता है। लेकिन समय के साथ, वे अब उन चीजों से संतुष्ट नहीं होते जो उन्हें दी जाती हैं, और वे ऊँची-से-ऊँची माँगें करने लगते हैं, और उनकी माँगें पूरी न की जाएँ, तो वे धूर्तता से कार्य करते हैं, और सेवा करने की इच्छा नहीं रखते। जब वे अपने कर्तव्य थोड़ा-बहुत निभाते हैं, तो भी उन पर नजर रखनी होती है, वरना वे उसे लापरवाही से करते हैं। आखिरकार, जब यह पता चलता है कि वे जो सेवा करते हैं उससे फायदे के बजाय नुकसान ज्यादा होता है, तो वे हटा दिए जाते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर का घर उनके प्रति प्यार क्यों नहीं दिखाता?” प्यार दिखाने के भी कुछ सिद्धांत हैं। वे लोग छद्म-विश्वासी हैं, वे परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ते, या सत्य स्वीकार नहीं करते, वे अपने कर्तव्य निभाते समय लगातार चिकने घड़े की तरह और लापरवाही से कार्य करते हैं, सत्य पर संगति किए जाने पर वे नहीं सुनते, या किसी प्रकार की काट-छाँट नहीं स्वीकारते, और यह कहा जा सकता है कि वे सुधरने लायक नहीं होते हैं। परिणामस्वरूप उन्हें सिर्फ बहिष्कृत और निष्कासित करके ही निपटा जा सकता है। अगर अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इस किस्म के व्यक्ति का पता चल जाए तो उन्हें उससे तुरंत निपटना चाहिए, और अगर भाई-बहनों को ऐसे व्यक्ति का पता चल जाए तो उन्हें तुरंत इसकी सूचना अगुआओं और कार्यकर्ताओं को देनी चाहिए। यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से हरेक की जिम्मेदारी है। एक बार जब इस बात की पुष्टि हो जाए कि यह व्यक्ति कलीसिया के सहारे जीवन-यापन कर रहा है, वह सिर्फ आजीविका चलाने पर ध्यान दे रहा है, वह एक छद्म-विश्वासी है, और इस बात की पुष्टि हो चुकी है कि पैसे नहीं दिए जाने पर वह काम करने से इनकार करता है, जब उसे लगता है कि उसे पर्याप्त पैसा नहीं दिया गया है तो वह अनिच्छुक और शत्रुतापूर्ण हो जाता है, और सिर्फ पर्याप्त पैसे दिए जाने पर ही वह थोड़ा कार्य करता है, तो उसके प्रति थोड़ी भी उदारता नहीं दिखानी चाहिए—उसे बाहर निकाल देना चाहिए! संक्षेप में कहें, तो इस प्रकार के लोग परमेश्वर के घर में सेवा करने लायक भी नहीं हैं। अगर तुम उन्हें पैसे न दो, तो वे सेवा करने को तैयार नहीं होंगे; लेकिन अगर तुम उन्हें पैसे देते रहोगे, तो यह जानकर भी कि वे बस सेवा कर रहे हैं, वे करने को तैयार हो जाएँगे। लेकिन ये छद्म-विश्वासी किस प्रकार की सेवा कर सकते हैं? वे अच्छी तरह सेवा भी नहीं कर सकते, और उनकी सेवा मानक स्तर की न हो, तो उन्हें हटा देना चाहिए। इसलिए एक बार यह पहचान लेने के बाद कि वे कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करने वाले लोग हैं, उनसे निपट कर उन्हें बुरे लोगों के रूप में कलीसिया से निष्कासित कर देना चाहिए। इसमें जरा भी ज्यादती नहीं है; यह पूरी तरह से लोगों को बहिष्कृत और निष्कासित करने के परमेश्वर के घर के सिद्धांतों के अनुरूप है। क्या इस प्रकार के लोगों को प्रायश्चित्त करने का मौका दिया जाना चाहिए? क्या उन्हें जाँच-परख के लिए रखा जाना चाहिए? (नहीं।) क्या वे प्रायश्चित्त करने में सक्षम हैं? (नहीं।) वास्तव में यही उनकी प्रकृति है; वे कभी भी प्रायश्चित्त नहीं करेंगे। वे शैतान की किस्म के हैं। शैतान की किस्म में, दानवी लुच्ची प्रकृति वाला एक प्रकार का व्यक्ति होता है जो जहाँ भी रहे दूसरों की मुफ्त की रोटियाँ तोड़ना चाहता है, कहीं भी जाए कोई उचित कार्य नहीं करता, और सिर्फ लोगों को ठगने और धोखा देने की कोशिश करता रहता है। वह देखता है कि परमेश्वर के विश्वासियों में मानवता है और अनुमान लगा लेता है कि ये लोग आसान शिकार हैं, इसलिए वह कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करने के लिए परमेश्वर के घर में आ जाता है। उसे यह कम ही मालूम होता है कि परमेश्वर का घर बहुत पहले ही ऐसे लोगों को पहचान कर उनसे सतर्क हो चुका है, और उसके पास ऐसे लोगों से निपटने के सिद्धांत हैं। जब कलीसिया के सहारे जीवन-यापन करने के उसके प्रयास विफल हो जाते हैं, तो वह शर्मिंदगी से गुस्से में चूर होकर अपना असली रंग दिखा देता है। उस मुकाम पर, तुम जान लोगे कि परमेश्वर का घर ऐसे लोगों को प्रायश्चित्त करने का मौका क्यों नहीं देता—इसका कारण यह है कि उनमें जरा भी मानवता नहीं होती और वे बदल पाने में अक्षम होते हैं। ये वे दानवी लुच्चे हैं जिनकी चर्चा गैर-विश्वासी करते हैं। इसलिए, परमेश्वर का घर ऐसे लोगों से, उन्हें सीधे बहिष्कृत या निष्कासित कर और कभी भी कलीसिया में वापस स्वीकार न करके निपटता है। क्या उन लोगों से बुरे लोगों के रूप में निपटना उचित है? (हाँ।) इसी के साथ इस विषय पर हमारी संगति समाप्त होती है।

च. शरण लेना

अब हम छठे प्रयोजन पर संगति करेंगे, छठे प्रकार के छद्म-विश्वासी पर, जिसे कलीसिया से बहिष्कृत या निष्कासित कर देना चाहिए : ऐसे लोग जिनका परमेश्वर में विश्वास रखने का प्रयोजन शरण लेना है। कुछ लोग कहते हैं, “शरण लेने की कौन-सी अभिव्यक्तियाँ होती हैं? क्या परमेश्वर में विश्वास रखने वालों में ऐसे लोग हैं जो शरण लेते हैं? क्या ऐसे लोग वास्तव में होते हैं?” क्या तुम लोगों ने कभी किसी को कहते सुना है, “कलीसिया एक शरणस्थली है; क्या लोग परमेश्वर में इसलिए विश्वास रखते हैं ताकि वे शरण ले सकें”? धर्म में संलग्न बहुत-से लोग यह कहते हैं। इस कहावत के सार के लिहाज से क्या इस कहावत और उस प्रयोजन जिसका हम गहन विश्लेषण करने वाले हैं—“शरण लेने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखना”—के बीच कोई अंतर है? (हाँ।) क्या अंतर है? वे किस आपदा से बचने के लिए शरण लेते हैं? (जो लोग ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, उनमें सत्य का अनुसरण करते समय कुछ अशुद्धियाँ भी होती हैं; वे आपदाओं या कठिनाइयों से बचने और थोड़ी शांति प्राप्त करने की भी उम्मीद करते हैं। लेकिन छठे प्रयोजन का व्यक्ति उस प्रकार का है जो विशुद्ध रूप से शरण लेने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखता है, और उसमें परमेश्वर में लेशमात्र भी सच्ची आस्था नहीं होती। यही अंतर है।) यहाँ अंतर परमेश्वर में विश्वास रखने के प्रयोजन में अशुद्धियाँ होने बनाम शरण लेने के एकल प्रयोजन से परमेश्वर में विश्वास रखने का है। इस अंतर के अलावा, एक और भी अंतर इस लिहाज से है कि वे किससे बचने के लिए शरण ले रहे हैं। कुछ लोगों में परमेश्वर में विश्वास रखने के उनके प्रयोजन के साथ अशुद्धियाँ भी मिली होती हैं; वे परमेश्वर में इस कारण से विश्वास रखते हैं कि विपत्तियों से बच सकें, विपत्तियों से बच कर निकल सकें, या इसलिए कि परमेश्वर उनकी रक्षा करेगा और उन पर नजर रखेगा, और फिर वे कुछ खतरों और आपदाओं से वस्तुनिष्ठ रूप से बच सकेंगे। उनका लक्ष्य इन आपदाओं से बचने का होता है। इस छठे प्रयोजन में हम एक प्रकार के व्यक्ति पर संगति कर रहे हैं—वह व्यक्ति जिसका परमेश्वर में विश्वास रखने का प्रयोजन शरण लेना है—व्यापक दायरे की आपदाओं से बचने के लिए शरण लेना। ऐसे लोगों के लिए जो चीज सबसे अधिक वास्तविक है वह भविष्य में आने वाली आपदाओं को टालने से काफी परे है। तो उनके लिए सबसे अधिक वास्तविक मुद्दे क्या हैं? समाज में भयानक दुश्मनों का सामना करना, कानूनी मुकदमों से निपटना, सरकारी अधिकारियों या प्रभावशाली लोगों को आहत करना, कानून तोड़ना, उनके देश में युद्ध या विभिन्न आपदाओं का होना, या उनके जीवन या उनके परिवार की सुरक्षा के लिए खतरा बनने वाले कुछ लोगों या घटनाओं का सामना करना, वगैरह-वगैरह। इन स्थितियों का सामना करने के बाद, उन्हें एक ऐसी कलीसिया मिल जाती है जिसे वे शरण लेने के लिए भरोसेमंद और विश्वसनीय मानते हैं; छठे प्रयोजन में जो शरण लेने की बात की गई है, वह यही है। यानी जब वे अपने दैनिक जीवन में अपने जीवन, परिवार, कार्य, करियर आदि के लिए खतरा बनने वाली कुछ कठिनाइयों का सामना करते हैं, तो वे बड़ी संख्या में लोगों से गठित एक शक्ति की मदद पाने के प्रयास में, शरण लेने के लिए कलीसिया में आते हैं। यही है शरण लेने के प्रयोजन से परमेश्वर में विश्वास रखना, जैसा कि छठे प्रयोजन में जिक्र किया गया है। क्या यह सच्चे विश्वासियों की अशुद्धियों से अलग नहीं है? (हाँ।) इस प्रकार के व्यक्ति का परमेश्वर में विश्वास रखने का प्रयोजन शरण लेना है, कलीसिया से मदद माँगना है। यानी, वह आशा करता है कि कलीसिया उसकी मदद करेगी, और वित्तीय सहायता के अलावा, वह कलीसिया से यह भी माँग करता है कि कलीसिया उसे रक्षा, समर्थन और सहायता प्रदान करे। ऐसे कुछ लोग परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोगों का दमन करने वाली और नुकसान पहुँचाने वाली दुष्ट सत्ताओं या दुष्ट शक्तियों से लड़ने के लिए समाज में कलीसिया के प्रभाव, रुतबे और प्रतिष्ठा का भी लाभ उठाना चाहते हैं, ताकि उनके जीवन या आजीविकाओं की रक्षा हो सके। यह परमेश्वर में विश्वास रखने का उनका प्रयोजन है। क्या ऐसे लोग होते हैं? वे मानते हैं कि कलीसिया एक अच्छी शरणस्थली है जिसे राजनीति और समाज से अलग किया जा सकता है, और उन्हें लगता है कि जरूरत पड़ने पर कलीसिया ईमानदारी और दया से मदद का हाथ बढ़ाकर उन्हें किसी भी प्रकार की वित्तीय सहायता दे सकती है, उनके साथ खड़ी हो सकती है, उनकी रक्षा कर सकती है, कानूनी मुकदमों में उनका प्रतिनिधित्व कर सकती है और उनके अधिकारों और हितों के लिए लड़ सकती है। परमेश्वर में विश्वास रखने का इन लोगों का यही उद्देश्य है। क्या ऐसे लोग आज भी कलीसिया में हैं? क्या तुम लोगों ने ऐसे लोगों के होने की बात सुनी है? विदेशी कलीसियाओं में निश्चित रूप से इस प्रकार के लोग हैं। ये लोग केवल शरण लेने के प्रयोजन से परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और कलीसिया में शामिल होते हैं। वे नहीं समझते कि आस्था क्या होती है, सत्य में रुचि रखना तो बहुत दूर की बात है। लेकिन जब कठिनाइयों से उनका सामना होता है और उन्हें समाज में कोई मदद नहीं मिलती, तो वे कलीसिया के बारे में सोचते हैं, और मानते हैं कि कलीसिया ही वह जगह है जहाँ वे सुरक्षा के साथ शरण ले सकते हैं, जो बचने का सर्वोत्तम रास्ता है, सबसे सुरक्षित स्थान है, इसलिए वे परमेश्वर में विश्वास रखने को चुनते हैं और आपदाओं को टालने के अपने प्रयोजन को पूरा करने के लिए कलीसिया में प्रवेश करते हैं।

आपदाएँ अब और भी ज्यादा बढ़ रही हैं और मनुष्य के पास जीने का कोई रास्ता नहीं है। कुछ ऐसे भी लोग हैं, जो पूरी तरह से आपदाओं को टालने के लिए ही परमेश्वर में विश्वास रखने को चुनते हैं। वे मानते हैं कि परमेश्वर का अस्तित्व है, लेकिन उन्हें सत्य से जरा भी प्रेम नहीं है। अगर ऐसे लोग परमेश्वर में विश्वास रखने लगते हैं, तो क्या कलीसिया को उन्हें प्रवेश देना चाहिए? बहुत-से लोग इस मुद्दे को स्पष्ट रूप से नहीं समझते और सोचते हैं कि जो कोई भी यह मानता है कि परमेश्वर का अस्तित्व है, उसे कलीसिया द्वारा प्रवेश दिया जाना चाहिए। यह एक भयानक गलती है। किसी को प्रवेश देने का कलीसिया का निर्णय इस बात पर आधारित होना चाहिए कि क्या वह इंसान सत्य को स्वीकार कर सकता है और क्या वह परमेश्वर के उद्धार का पात्र है, इस पर नहीं कि वह परमेश्वर में विश्वास रखने को तैयार है या नहीं। ऐसे कई दानव हैं, जो परमेश्वर में विश्वास रख कर आशीष पाना चाहते हैं, और आगे का रास्ता खोजना चाहते हैं—क्या कलीसिया को ऐसे लोगों को भी प्रवेश देना चाहिए? यह अनुग्रह के युग में सुसमाचार का प्रचार करने जैसा नहीं है, जब किसी भी विश्वास रखने वाले को प्रवेश दे दिया जाता था; राज्य के युग में, कलीसिया द्वारा किसी को प्रवेश देने को लेकर सिद्धांत हैं और परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों के प्रतिबंध हैं। इंसान चाहे कोई भी हो, अगर वह सत्य से प्रेम नहीं करता या उसे स्वीकार नहीं करता, तो उसे प्रवेश नहीं दिया जा सकता। ऐसे लोगों को प्रवेश क्यों नहीं दिया जाता? ऐसे लोगों को प्रवेश मुख्य रूप से इसलिए नहीं दिया जा सकता, क्योंकि हम स्पष्ट रूप से नहीं समझ सकते कि उनकी पृष्ठभूमि क्या है, या वे वास्तव में किस तरह के लोग हैं। अगर कलीसिया किसी दानव, या जघन्य दुष्टता करने वाले किसी बुरे इंसान को प्रवेश देती है, तो हर कोई जानता है कि कलीसिया पर इसके क्या दुष्परिणाम होंगे। इसके अलावा, परमेश्वर में विश्वास रखने में हमें समझना चाहिए कि उसके इरादे क्या हैं, वह किसे बचाता है और किसे हटा देता है। कलीसिया किन लोगों से बनती है? यह उन लोगों से बनती है, जो परमेश्वर का उद्धार स्वीकार करते हैं, जो सत्य से प्रेम करते हैं, जो परमेश्वर द्वारा स्वीकार किए जाते हैं। परमेश्वर उन्हें नहीं बचाता जो वास्तव में उसमें विश्वास नहीं रखते और सत्य को स्वीकार नहीं करते, क्योंकि सत्य को स्वीकार न करना इंसान की प्रकृति की एक समस्या है और इस तरह का इंसान शैतानों की श्रेणी का होता है और कभी नहीं बदलेगा। इसलिए ऐसे लोगों को कभी भी कलीसिया में प्रवेश नहीं दिया जाना चाहिए। अगर कोई किसी बुरे इंसान या दानव को कलीसिया में प्रवेश देता है तो उस इंसान को शैतान का चाकर माना जाता है। वह जानबूझकर कलीसिया का कार्य बिगाड़ने और नष्ट करने आया है और वह परमेश्वर का शत्रु है। ऐसे किसी दानव, परमेश्वर के शत्रु को कलीसिया में प्रवेश देना परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करना और उसके प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करना है, और परमेश्वर का घर इसे बिल्कुल बरदाश्त नहीं करेगा। बुरे लोगों, दानवों को कलीसिया में प्रवेश नहीं दिया जाना चाहिए—यह सुसमाचार के प्रचार कार्य को लेकर कलीसिया के स्पष्ट दृष्टिकोणों और अपेक्षाओं में से एक है। कलीसिया के पास उन लोगों को प्रवेश देने की कोई जिम्मेदारी नहीं है, जो आपदा से बच निकलने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखने को चुनते हैं, और न ही उसे कभी उन लोगों को प्रवेश देना चाहिए, जो सत्य को जरा-सा भी स्वीकार नहीं करते, क्योंकि परमेश्वर ऐसे लोगों को नहीं बचाता। जो कोई सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को सत्य के रूप में नहीं स्वीकारता, जो कोई सत्य का प्रतिरोध करता है और इससे विमुख होता है, वह एक बुरा व्यक्ति है और परमेश्वर उसे नहीं बचाता। जहाँ तक उन लोगों की बात है, जो अपने दिलों में परमेश्वर को स्वीकार करते हैं, फिर भी सत्य से प्रेम नहीं करते, और जो छद्म-विश्वासियों की श्रेणी में रखे जाते हैं, जो भरपेट रोटियाँ खाते हैं, कलीसिया को उनमें से किसी को भी प्रवेश नहीं देना चाहिए। समाज के उन निर्लज्ज लोगों का तो कहना ही क्या, जो कलीसिया में शरण लेने के लिए आना चाहते हैं—उन्हें तो बिल्कुल भी प्रवेश नहीं दिया जाना चाहिए। कारण यह है कि कलीसिया कोई खैराती संगठन नहीं, बल्कि वह स्थान है जहाँ परमेश्वर मनुष्य को बचाने का कार्य करता है। कलीसिया के कार्य का राष्ट्र की सरकार से कोई लेना-देना नहीं है। सामाजिक संगठन लोगों को अच्छे काम करने और अपने हथियार डाल देने के लिए मनाते हैं—यह राष्ट्र की खातिर है, और इसका कलीसिया से बिल्कुल कोई लेना-देना नहीं है। अगर कोई किसी गैर-विश्वासी बुरे व्यक्ति, किसी दानव, किसी छद्म-विश्वासी को कलीसिया में लाने का साहस करता है, तो वह इंसान परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करेगा और उसके प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करेगा। जो कोई किसी बुरे इंसान, किसी दानव को कलीसिया में लाता है, उस इंसान को बाहर निकाल दिया जाना या निष्कासित कर दिया जाना चाहिए। यह सुसमाचार का प्रचार करने के कार्य के प्रति कलीसिया का स्पष्ट रुख है। जब ये बुरे लोग, दानव, परमेश्वर के घर में शरण लेने के लिए आना चाहें, तो उन्हें बताया जाना चाहिए कि वे गलत दरवाजे पर आ गए हैं, उन्होंने गलत जगह चुन ली है। कलीसिया निश्चित रूप से उन्हें प्रवेश नहीं देगी। यह उन गैर-विश्‍वासी लोगों के प्रति कलीसिया का स्पष्ट रुख है, जो शरण लेना चाहते हैं। क्या यह बात स्पष्ट हो गई है? (हाँ।) तो हमें ऐसे लोगों से कैसे निपटना चाहिए? उन्हें बताने का उपयुक्त तरीका क्या है? तुम कहते हो : “कोई भी देश हो, वहाँ रेड क्रॉस सोसाइटी, कल्याणकारी संस्थान, आश्रय स्थल, बौद्ध मंदिर, और साथ ही समाज में कुछ स्वयंसेवक समूह होते हैं। अगर मुश्किलों से तुम्हारा सामना हो और तुम्हें लगे कि तुम्हारे पास ऐसी शिकायतें हैं जिनका समाधान होना चाहिए, तो तुम इन संगठनों से मदद माँग सकते हो। इसके अलावा, तुम सरकार से राजनीतिक शरण या शरणार्थी के रूप में शरण माँग सकते हो, और अगर तुम्हारी वित्तीय स्थिति इजाजत दे, तो तुम अपने मामले में सहायता के लिए कोई वकील कर सकते हो। लेकिन यह कलीसिया है; यह वह स्थान है जहाँ परमेश्वर कार्य करता है, जहाँ परमेश्वर लोगों को बचाता है, यह तुम्हारे शरण लेने की जगह नहीं है। इस प्रकार, तुम्हारा कलीसिया में प्रवेश करना अनुपयुक्त है, और तुम्हारा यहाँ रहना बेकार है। परमेश्वर ऐसे लोगों को स्वीकार नहीं करता, और कलीसिया भी ऐसे लोगों को नहीं लेती। गैर-विश्वासियों को चाहे जो भी कठिनाइयाँ हों, उन्हें परोपकारी संगठनों, राहत संगठनों या समाज में नागरिक मामलों के ब्यूरो से मदद माँगनी चाहिए—ये संगठन लोगों की सेवा करने, दान देने और दूसरों की मदद करने से संबंधित हैं। तुम्हारी चाहे जो भी शिकायत या माँग हो, तुम उन्हें बता सकते हो, या सरकार के सामने याचिका प्रस्तुत कर सकते हो। ये स्थान तुम्हारे लिए सबसे उपयुक्त हैं।” कलीसिया किसी भी छद्म-विश्वासी या गैर-विश्वासी को प्रवेश नहीं देती। अगर कोई खासतौर पर “स्नेही” है, तो वह ऐसे लोगों को व्यक्तिगत तौर पर प्रवेश दे सकता है और बस बात खत्म; वह खुद उन लोगों की चरवाही कर सकता है, और परमेश्वर का घर इसमें हस्तक्षेप नहीं करेगा। कुछ लोग पूछ सकते हैं, “तो फिर कलीसिया सुसमाचार का प्रचार क्यों करती है? सुसमाचार को प्रचारित करने का उद्देश्य क्या है?” सुसमाचार का प्रचार परमेश्वर का आदेश है। सुसमाचार के संभावित प्राप्तकर्ता वे लोग होते हैं जो परमेश्वर को खोजते हैं, सच्चे मार्ग को खोजते हैं और परमेश्वर के प्रकटन के लिए तरसते हैं, जो सत्य से प्रेम करते हैं, और सत्य स्वीकार सकते हैं, और जो वास्तव में परमेश्वर में विश्वास रखते हैं—सुसमाचार का उपदेश केवल इन्हीं लोगों को दिया जा सकता है। जहाँ तक उन लोगों का प्रश्न है जो परमेश्वर को नहीं खोजते, जो सत्य स्वीकार नहीं करते, बल्कि शरण लेने आते हैं, उन्हें सुसमाचार का उपदेश नहीं दिया जाता। कुछ भ्रमित लोग इस मामले की असलियत नहीं समझ सकते और अपने साथ कुछ घटने पर वे भ्रमित हो जाते हैं—ये वे भ्रमित लोग हैं जो कभी भी परमेश्वर के इरादों को नहीं समझेंगे।

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