अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (23) खंड एक
मद चौदह : सभी प्रकार के बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों को तुरंत पहचानो और फिर बहिष्कृत या निष्कासित कर दो (भाग दो)
पिछली सभा में, हमने अगुआओं और कार्यकर्ताओं की चौदहवीं जिम्मेदारी पर संगति की थी : “सभी प्रकार के बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों को तुरंत पहचानो और फिर बहिष्कृत या निष्कासित कर दो।” संगति में इसके एक पहलू पर प्रकाश डाला गया था : कलीसिया क्या है। कलीसिया की परिभाषा पर संगति करने के बाद, क्या तुम लोग इसके और अगुआओं और कार्यकर्ताओं की चौदहवीं जिम्मेदारी के बीच संबंध के बारे में स्पष्ट हो? (परमेश्वर द्वारा एक कलीसिया की परिभाषा पर संगति करने के बाद, हम समझ पाए कि कलीसियाएँ क्यों अस्तित्व में हैं, कलीसिया कौन-सी भूमिका निभाती है और कलीसिया क्या कार्य करती है। इसके आधार पर, हम यह पहचान सकते हैं कि कलीसिया के कौन-से लोग गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा करते हैं, और सकारात्मक भूमिका नहीं निभाते और फिर हम इन लोगों को बहिष्कृत या निष्कासित कर सकते हैं।) यह समझ लेने के बाद कि कलीसिया क्या है, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को जानना चाहिए कि परमेश्वर कलीसियाएँ क्यों स्थापित करता है, कलीसियाओं के निर्माण का लोगों पर क्या असर होता है, कलीसियाओं को क्या कार्य करना चाहिए, कलीसियाएँ किस प्रकार के लोगों से बनती हैं, और कौन-से लोग सच्चे भाई-बहन हैं। इन चीजों को समझने और जानने के बाद, तुम्हारे पास एक बुनियादी अवधारणा और परिभाषा होती है, और साथ ही चौदहवीं जिम्मेदारी में प्रस्तुत रूपरेखा वाले कार्य के लिए सिद्धांतों की नींव होती है : “सभी प्रकार के बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों को तुरंत पहचानो और फिर बहिष्कृत या निष्कासित कर दो।” यह ऐसी चीज है जिसके सिद्धांत और दर्शन को लेकर तुम्हें स्पष्ट होना चाहिए और जिसे तुम्हें समझना चाहिए। इसे समझने के बाद, पहला कार्य जो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को हाथ में लेना चाहिए वह हर प्रकार के बुरे लोगों को पहचानना है। ऐसा करने के मानक और सिद्धांत क्या हैं? हर प्रकार के बुरे लोगों को पहचानना कलीसिया की परिभाषा, किसी कलीसिया के अस्तित्व की महत्ता एवं मूल्य और परमेश्वर कलीसियाओं को जिस कार्य के लिए स्थापित करता है उस पर आधारित होना चाहिए। पिछली बार, विभिन्न प्रकार के बुरे लोगों को पहचानने के मानकों और आधारों को तीन मुख्य श्रेणियों में बाँटा गया था। ये तीन श्रेणियाँ क्या हैं? (परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए किसी का प्रयोजन, किसी की मानवता, और कर्तव्य के प्रति किसी का रवैया।) क्या ये तीन मुख्य श्रेणियाँ पर्याप्त रूप से विशिष्ट और व्यापक हैं? कुछ लोग कहते हैं, “हर प्रकार के लोगों को पहचानना उनके सत्य से प्रेम करने की सीमा और उनके परमेश्वर के प्रति समर्पण करने और उसका भय मानने की सीमा पर आधारित न होकर, उनके परमेश्वर में विश्वास रखने के प्रयोजन, उनकी मानवता और अपने कर्तव्य के प्रति उनके रवैये पर आधारित क्यों होता है? क्या ये मानक बेहद निचले नहीं हैं? दूसरे शब्दों में, इन तीनों श्रेणियों की विशिष्ट विषयवस्तु पर गौर किया जाए, तो परमेश्वर और सत्य के प्रति लोगों के रवैये पर गहरा विचार-विमर्श क्यों नहीं होता है? इस बात का जिक्र क्यों नहीं है कि लोग काट-छाँट, न्याय और ताड़ना स्वीकार करने को तैयार हैं या नहीं, उनके पास परमेश्वर की आज्ञा मानने वाला और भय मानने वाला दिल है या नहीं, और सत्य से संबंधित और अधिक गहरी विषयवस्तु के बारे में जिक्र क्यों नहीं है?” क्या तुम लोगों ने कभी इस प्रश्न के बारे में सोचा है? चलो अभी के लिए इस मुद्दे में न पड़ें। आओ, पहले तीन कसौटियों पर गौर करें : लोगों का परमेश्वर में विश्वास रखने का प्रयोजन, उनकी मानवता और अपने कर्तव्य के प्रति उनका रवैया। उनके शीर्षकों को देखा जाए तो, ये तीन कसौटियाँ उथली हैं या नहीं? अगर कोई व्यक्ति इन तीन सबसे बुनियादी कसौटियों के संदर्भ में मानक स्तर का नहीं है, तो क्या उसे भाई या बहन कहा जा सकता है? (नहीं।) क्या उसे कलीसिया का सदस्य माना जा सकता है? क्या परमेश्वर द्वारा उसे कलीसिया के अंश के रूप में मान्यता दी जा सकती है? (नहीं।) इनमें से कोई भी चीज उसके लिए संभव नहीं है। इसलिए अगर कोई व्यक्ति इन सभी तीनों कसौटियों के संदर्भ में पर्याप्त या मानक स्तर का नहीं है, तो ऐसे व्यक्तियों को पहचाना जाना चाहिए; वे विभिन्न प्रकार के बुरे लोगों की श्रेणियों के हैं, और उन्हें बहिष्कृत या निष्कासित कर दिया जाना चाहिए। कोई व्यक्ति भाई या बहन है या नहीं, परमेश्वर द्वारा मान्यता-प्राप्त है या नहीं, या कलीसिया द्वारा स्वीकृत होने लायक सदस्य है या नहीं, ये सब कम-से-कम इस बात पर निर्भर करते हैं कि क्या वे मानक स्तर के हैं, और इन तीनों कसौटियों पर खरे उतरते हैं। अगर वे इन तीन कसौटियों पर भी खरे नहीं उतरते, तो वे यकीनन भाई या बहन नहीं हैं। स्वाभाविक रूप से परमेश्वर उन्हें मान्यता नहीं देता, और कलीसिया को उन्हें स्वीकार भी नहीं करना चाहिए। तो कलीसिया को उनके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए और उनसे कैसे निपटना चाहिए? (उन्हें बहिष्कृत या निष्कासित कर देना चाहिए।) एक बार उन्हें पहचान लिया जाए, तो उन्हें बहिष्कृत या निष्कासित कर देना चाहिए। बात वास्तव में ऐसी ही है।
विभिन्न प्रकार के बुरे लोगों को पहचानने के मानक और आधार
I. परमेश्वर में विश्वास रखने के उद्देश्य के आधार पर
घ. अवसरवादिता में संलिप्त होना
पिछली सभा में, हमने परमेश्वर में विश्वास रखने के तीन प्रयोजनों पर संगति कर उनकी सूची पेश की थी। अगर हम उस सूची को शीर्षकों के रूप में पेश करें, तो पहला है अधिकारी बनने की अपनी इच्छा को पूरा करना; दूसरा है विपरीत लिंग के व्यक्ति की तलाश करना; और तीसरा है आपदाओं से बचना। हमने इन तीनों प्रयोजनों पर संगति पूरी कर ली। अब हम चौथे प्रयोजन पर संगति करेंगे : कुछ लोग परमेश्वर में केवल अवसरवादी कारणों से विश्वास रखते हैं, इसलिए इस प्रयोजन का शीर्षक है “अवसरवादिता में संलिप्त होना।” कुछ लोग देखते हैं कि धार्मिक दुनिया के सभी धर्म और संप्रदाय वीरान हैं, और उनमें पवित्र आत्मा का कार्य नहीं है—लोगों की आस्था और प्रेम ठंडे पड़ गए हैं, लोग स्वयं बहुत अधिक पथभ्रष्ट हो गए हैं, उन्हें उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है, और लोग प्रभु में अनेक वर्षों से विश्वास रखने के बाद भी कुछ हासिल नहीं कर पाए हैं। यह देखकर कि धार्मिक दुनिया पूरी तरह से बंजर भूमि बन गई है, वे अपने लिए आगे का रास्ता खोजते हैं। वे सोच-विचार करते हैं, “अब किस कलीसिया में ज्यादा लोग हैं, कौन-सी कलीसिया पनप रही है और किसमें विकास की संभावनाएँ हैं?” वे पाते हैं कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया जिसका धार्मिक दुनिया प्रतिरोध और निंदा करती है, वह पनप रही है, उसमें पवित्र आत्मा का कार्य है, और यह देश-विदेश दोनों ही जगह अच्छे ढंग से विकसित हो रही है। वे सोचते हैं, “मैंने सुना कि इस कलीसिया की सदस्यता बढ़ रही है, यह अच्छी तरह से विकसित हो रही है, और इसमें प्रचुर मात्रा में श्रमशक्ति, भौतिक संसाधन और वित्तीय संसाधन हैं, और इसमें विकास की संभावनाएँ हैं। अगर मैं उनकी कलीसिया में शामिल होने के इस अच्छे अवसर का लाभ उठा लूँ, तो क्या मैं कुछ लाभ प्राप्त करने में सक्षम नहीं हो जाऊँगा? क्या मैं अपने लिए बढ़िया संभावनाएँ सुरक्षित नहीं कर लूँगा?” ऐसे इरादे और प्रयोजन और थोड़ी जिज्ञासा से वे कलीसिया में घुसपैठ करते हैं। कलीसिया में घुसपैठ करने के बाद, ये लोग सत्य में, परमेश्वर में विश्वास रखने या अपने जीवन स्वभाव में परिवर्तन करने में रुचि नहीं लेते। कलीसिया में शामिल होने का उनका प्रयोजन सिर्फ कोई समर्थक या रहने की जगह ढूँढ़ना और वे जो संभावनाएँ चाहते हैं, उन्हें हासिल करना होता है। दरअसल, उनके दिलों में परमेश्वर में विश्वास रखने में, परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए सत्यों या परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले उद्धार कार्य में कोई रुचि नहीं होती और वे इन चीजों के बारे में सुनना या उन्हें खोजना नहीं चाहते। खासतौर से, उन्हें परमेश्वर के कार्य और पवित्र आत्मा के कार्य में बिल्कुल रुचि नहीं होती। ये लोग समाज में अवसरवादियों जैसे हैं, जो किसी भी उद्योग में शामिल हों, वे ऐसा सिर्फ शोहरत, लाभ और रुतबा हासिल करने के अवसर पाने के लिए करते हैं, और सिर्फ अपनी ही संभावनाओं और नियति की खातिर निवेश करते हैं और कीमत चुकाते हैं। एक बार यह ढूँढ़ लेने के बाद कि जिस क्षेत्र या उद्योग में वे कूद पड़े हैं, उसमें फिलहाल कोई प्रत्यक्ष संभावनाएँ नहीं हैं या यह उद्योग उन्हें अपनी खूबियाँ दिखाने और दुनिया में उभरने का मौका नहीं देता तो वे अक्सर अपने मन में हिसाब लगाते हैं कि क्या उन्हें नौकरी बदल लेनी चाहिए या उद्योग बदल लेने चाहिए। ऐसे लोग जो भी काम करते हैं उसमें हमेशा अपनी चाल चलने के अवसर की प्रतीक्षा करते हैं; कलीसिया में शामिल होने की उनकी एक मंशा और प्रयोजन होता है। जब कलीसिया पनप रही होती है, जब वह दृढ़ रह सकती है और समाज या किसी देश में उसके विकास की संभावनाएँ होती हैं, तो वे सक्रिय होकर उत्साह के साथ खुद को कलीसिया के कार्य में झोंक देते हैं। लेकिन जब कलीसिया का दमन होता है और वह प्रतिबंधित हो जाती है, या उनकी व्यक्तिगत इच्छाओं और माँगों को पूरा नहीं कर सकती, तो वे विचार करते हैं कि क्या उन्हें कलीसिया छोड़ देनी चाहिए और अपने आगे बढ़ने के लिए कोई दूसरा रास्ता ढूँढ़ लेना चाहिए। स्पष्ट रूप से, कलीसिया में शामिल होने का इन लोगों का वास्तविक प्रयोजन यह नहीं है कि उन्हें सत्य में रुचि है; वे परमेश्वर के अस्तित्व और लोगों को बचाने के परमेश्वर के नए कार्य को स्वीकारने के आधार पर कलीसिया में शामिल नहीं हुए। यहाँ तक कि जब वे किसी कलीसिया को चुनते हैं, तो वे बहुत-से सदस्यों वाली जानी-मानी विशाल कलीसिया को चुनते हैं, खासतौर से ऐसी जिसकी देश-विदेश में एक खास स्तर की ख्याति हो। उनके लिए सिर्फ ऐसी कलीसिया ही उनके मानकों को पूरा करती है और उनके उन लक्ष्यों के साथ पूरी तरह से मेल खाती है जिनकी वे आकांक्षा करते हैं या जिनका वे अनुसरण करते हैं। लेकिन चाहे जो हो, उन्होंने कभी भी सत्य में सचमुच विश्वास नहीं रखा है, न ही उन्होंने परमेश्वर के अस्तित्व या परमेश्वर के कार्य को ईमानदारी से स्वीकार किया है। भले ही ऐसा प्रतीत हो कि वे कभी-कभी कलीसिया के लिए कुछ करते हैं या कलीसिया के कार्य के किसी भाग में खुद को झोंकते हैं, मगर उनके हृदय की गहराइयों में, सत्य और परमेश्वर के प्रति उनका रवैया अपरिवर्तित रहता है। उनका रवैया क्या है? उनका सतत रवैया बस फिलहाल साथ चलने का होता है, यह देखने के लिए कि वे कलीसिया से वास्तव में क्या हासिल कर सकते हैं, यह देखने के लिए कि परमेश्वर के बोले हुए कितने वचन वास्तव में और किस हद तक साकार होते हैं, और यह देखने के लिए कि परमेश्वर द्वारा मनुष्य को जिन आशीषों का वचन दिया गया वे कब मिल सकेंगे, और क्या ये आशीष अल्पकाल में ही देखे और पूरे किए जा सकेंगे। उनका रवैया हमेशा ऐसा ही होता है। वे परमेश्वर के घर में जिज्ञासा, उसे आजमाने की इच्छा और इस रवैये के साथ आते हैं कि अगर परमेश्वर के वचन पूरे और साकार हो जाएँ तो उन्हें आशीष मिलेंगे और वे मौका नहीं चूकेंगे। ऐसे लोग परमेश्वर के घर में आते हैं, और भले ही वे दूसरों के साथ मित्रवत व्यवहार करते हुए, नियमों का पालन करते हुए, गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा नहीं करते हुए, शरारतों में नहीं जुटते हुए प्रतीत होते हों, परमेश्वर और सत्य के प्रति उनके रवैये के आधार पर उन्हें स्पष्टतः छद्म-विश्वासियों के रूप में पहचाना जा सकेगा।
हम उन छद्म-विश्वासियों को कैसे पहचान सकते हैं, जो केवल अवसरवादिता से आशीष पाने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और सत्य पाने की इच्छा नहीं रखते? वे चाहे जितने भी उपदेश सुनें, उनके साथ सत्य पर चाहे जैसे भी संगति की जाए, लोगों और चीजों के बारे में उनके विचार और दृष्टिकोण, जीवन और मूल्यों के बारे में उनका दृष्टिकोण कभी नहीं बदलता। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि वे परमेश्वर के वचनों पर कभी गंभीरता से विचार नहीं करते और परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्यों या विभिन्न मुद्दों के बारे में परमेश्वर द्वारा कही गई बातों को पूरी तरह से अस्वीकार करते हैं। वे बस अपने ही विचारों और शैतान के फलसफों से चिपके रहते हैं। मन ही मन वे अभी भी यही मानते हैं कि शैतान के फलसफे और तर्क सही और ठीक हैं। उदाहरण के लिए, “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए,” “उपहार देने वालों के लिए अधिकारी चीजों को मुश्किल नहीं बनाते हैं,” या “अच्छे लोगों का जीवन शांतिपूर्ण होता है।” यहाँ तक कि ऐसे लोग भी हैं, जो कहते हैं, “जब लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, तो उन्हें अच्छा होना चाहिए, जिसका अर्थ है कभी किसी की जान न लेना; किसी की जान लेना पाप है, और परमेश्वर की नजर में यह अक्षम्य है।” यह किस तरह का दृष्टिकोण है? यह बौद्ध दृष्टिकोण है। भले ही बौद्ध दृष्टिकोण लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप हो, लेकिन उसमें कोई सत्य नहीं है। परमेश्वर में आस्था परमेश्वर के वचनों पर आधारित होनी चाहिए; केवल परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं। परमेश्वर में अपनी आस्था में कुछ लोग गैर-विश्वासियों के बेतुके विचारों और धार्मिक दुनिया के गलत सिद्धांतों को भी सत्य के रूप में स्वीकारते हैं, उन्हें प्रिय मानते हैं और उनसे चिपके रहते हैं। क्या ये वे लोग हैं, जो सत्य स्वीकारते हैं? वे मनुष्य के शब्दों और परमेश्वर के वचनों के बीच या दानवों और शैतान तथा एकमात्र सच्चे परमेश्वर, सृष्टिकर्ता के बीच अंतर नहीं कर सकते। वे परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते या सत्य नहीं खोजते, न ही वे परमेश्वर द्वारा व्यक्त किया गया कोई सत्य स्वीकारते हैं। लोगों, बाहरी दुनिया और अन्य सभी मामलों पर उनके विचार और दृष्टिकोण कभी नहीं बदलते। वे केवल उन्हीं विचारों से चिपके रहते हैं जिन्हें वे हमेशा से रखते आए हैं, जो परंपरागत संस्कृति से आते हैं। वे विचार चाहे कितने ही हास्यास्पद क्यों न हों, वे इसे नहीं समझ पाते, और फिर भी उन गलत विचारों से चिपके रहते हैं और उन्हें नहीं छोड़ते। यह छद्म-विश्वासी की एक अभिव्यक्ति है। दूसरी अभिव्यक्ति क्या है? वह यह है कि जैसे-जैसे कलीसिया का आकार बढ़ता है और समाज में उसकी स्थिति लगातार बढ़ती है, उसका उत्साह, उसके मनोभाव और उसकी आस्था बदलती रहती है। उदाहरण के लिए, जब कलीसिया का कार्य विदेशों में फैला और उसका आकार बढ़ा, जब सुसमाचार का कार्य पूरी तरह से फैलता है, तो यह देखकर वे तुरंत सबल महसूस करने लगे। उन्हें लगा कि कलीसिया अधिकाधिक प्रभावशाली होती जा रही है और अब उसे सरकार के दमन और उत्पीड़न का सामना नहीं करना पड़ेगा, उन्हें विश्वास था कि परमेश्वर में उनकी आस्था के लिए आशा है, वे अपना सिर ऊँचा रख सकते थे; और इसलिए उन्हें लगा कि परमेश्वर में विश्वास करके उन्होंने सही दाँव लगाया है, उनका जुआ आखिरकार सफल होने वाला है। उन्हें लगा कि आशीष पाने की उनकी संभावनाएँ अधिक से अधिक बढ़ रही हैं और वे अंततः खुश होने लगे। पिछले वर्षों के दौरान वे दमित, पीड़ित और व्यथित महसूस किया करते थे, क्योंकि उन्होंने अक्सर बड़े लाल अजगर को ईसाइयों की गिरफ्तारी और दमन करते देखा था। वे व्यथित महसूस क्यों करते थे? क्योंकि कलीसिया की हालत बहुत खराब थी और वे इस बात को लेकर चिंतित थे कि क्या उन्होंने परमेश्वर में विश्वास रखकर सही विकल्प चुना है, और इससे भी बढ़कर, वे इस बात से परेशान और चिंतित थे कि उन्हें कलीसिया में रहना चाहिए या उसे छोड़कर चले जाना चाहिए। उन वर्षों के दौरान कलीसिया चाहे जिन भी प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना कर रही हो, इसका उनकी भावनाओं पर प्रभाव पड़ता था; कलीसिया जो भी कार्य कर रही हो और समाज में कलीसिया की प्रतिष्ठा और रुतबे में जो भी उतार-चढ़ाव हो रहे हों, इसका उनकी भावनाओं और मनोदशा पर प्रभाव पड़ता था। उनके मन में हमेशा यह सवाल घूमता रहता था कि उन्हें रहना चाहिए या चले जाना चाहिए। ऐसे लोग छद्म-विश्वासी हैं, है न? जब राष्ट्रीय सरकार कलीसिया की निंदा करती है और उसे दबाती है, या जब विश्वासियों को गिरफ्तार किया जाता है या उनकी आलोचना की जाती है, निंदा की जाती है, उन्हें बदनाम किया जाता है और धार्मिक दुनिया द्वारा उन्हें अस्वीकार किया जाता है, तो वे कलीसिया में शामिल होने को लेकर बहुत बेइज्जती, यहाँ तक कि बहुत शर्मिंदगी और अपमान महसूस करते हैं; उनके दिल डगमगा जाते हैं और उन्हें परमेश्वर में विश्वास रखने और कलीसिया में शामिल होने का पछतावा होता है। कलीसिया की खुशियाँ और कठिनाइयाँ साझा करने या मसीह के साथ कष्ट उठाने का उनका कभी कोई इरादा नहीं होता। इसके बजाय, जब कलीसिया फल-फूल रही होती है, तो वे आस्था से लबालब भरे दिखाई देते हैं, लेकिन जब कलीसिया को सताया जाता है, अस्वीकार किया जाता है, दबाया जाता है और उसकी निंदा की जाती है, तो वे भाग जाना चाहते हैं, कलीसिया छोड़कर चले जाना चाहते हैं। जब उन्हें आशीष पाने की कोई उम्मीद नहीं दिखती, या राज्य के सुसमाचार के फैलने की कोई उम्मीद नहीं दिखती, तो कलीसिया छोड़ने की उनकी इच्छा और बढ़ जाती है। जब वे परमेश्वर के वचन पूरे होते नहीं देखते, और नहीं जानते कि बड़ी आपदाएँ कब आएँगी और कब खत्म होंगी, या मसीह का राज्य कब आकार लेगा, तो वे अनिश्चितता से डगमगा जाते हैं और शांतचित्त होकर अपना कर्तव्य करने में असमर्थ होते हैं। जब भी ऐसा होता है, वे परमेश्वर को छोड़ देना चाहते हैं, कलीसिया को छोड़ देना चाहते हैं और निकलने का कोई रास्ता ढूँढ़ना चाहते हैं। ऐसे लोग छद्म-विश्वासी हैं, है न? उनकी हर चेष्टा उनके अपने दैहिक हितों के लिए होती है। परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के माध्यम से या उसके वचन पढ़ने, सत्य पर संगति करने और कलीसियाई जीवन जीने से उनके विचार और दृष्टिकोण उत्तरोत्तर कभी नहीं बदलेंगे। जब उनके साथ कुछ होता है, तो वे कभी सत्य की तलाश नहीं करते, या यह नहीं खोजते कि परमेश्वर के वचन इसके बारे में क्या कहते हैं, परमेश्वर के इरादे क्या हैं, परमेश्वर लोगों का मार्गदर्शन कैसे करता है या वह लोगों से क्या कहता है। कलीसिया में शामिल होने का उनका एकमात्र उद्देश्य उस दिन की प्रतीक्षा करना है, जब कलीसिया “अपना सिर ऊँचा रख सकेगी,” ताकि वे वो लाभ प्राप्त कर सकें जिन्हें वे हमेशा से पाना चाहते थे। निस्संदेह, वे कलीसिया में इसलिए भी शामिल हुए थे, क्योंकि उन्होंने देखा था कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं—लेकिन वे सत्य को पूरी तरह से अस्वीकार करते हैं और यह नहीं मानते कि परमेश्वर के सभी वचन पूरे होंगे। तो तुम लोग क्या कहते हो, क्या ऐसे लोग छद्म-विश्वासी हैं? (हाँ।) कलीसिया में या बाहरी दुनिया में चाहे कुछ भी घटित हो, वे आकलन करते हैं कि उनके हितों पर कितना असर पड़ेगा और जिन लक्ष्यों का वे अनुसरण करते हैं, उन पर इसका कितना बड़ा प्रभाव पड़ेगा। परेशानी के जरा-से संकेत पर भी वे तुरंत अपनी संभावनाओं, हितों और इस बारे में तत्परता से सोचेंगे कि उन्हें कलीसिया में रहना चाहिए या उसे छोड़कर चले जाना चाहिए। यहाँ तक कि ऐसे लोग भी हैं, जो पूछते रहते हैं, “पिछले साल कहा गया था कि परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाएगा—तो यह अभी भी क्यों चल रहा है? परमेश्वर का कार्य ठीक-ठीक किस साल खत्म होगा? क्या मुझे जानने का अधिकार नहीं है? मैंने लंबे समय तक सहा है, मेरा समय कीमती है, मेरी युवावस्था कीमती है—निश्चित रूप से तुम मुझे इस तरह से लटकाकर नहीं रख सकते?” वे इस बात के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील होते हैं कि परमेश्वर के वचन पूरे हो चुके हैं या नहीं और कलीसिया की स्थिति, रुतबा और प्रतिष्ठा क्या है। वे इस बात की परवाह नहीं करते कि वे सत्य प्राप्त करने में सक्षम हैं या नहीं या उन्हें बचाया जा सकता है या नहीं, लेकिन वे इस बात के प्रति बहुत संवेदनशील होते हैं कि वे जीवित रह पाएँगे या नहीं और क्या परमेश्वर के घर में रहकर वे लाभ और आशीष पा सकते हैं। आशीष पाने की अपनी इच्छा में ऐसे लोग अवसरवादी होते हैं। भले ही वे अंत तक विश्वास करें, फिर भी वे सत्य को नहीं समझ पाएँगे और उनके पास कोई ऐसी अनुभवजन्य गवाही नहीं होगी जिसकी वे बात कर सकें। क्या तुम लोग ऐसे लोगों से मिले हो? वास्तव में, ऐसे लोग हर कलीसिया में मौजूद होते हैं। तुम लोगों को उन्हें पहचानने का ध्यान रखना चाहिए। ऐसे सभी व्यक्ति छद्म-विश्वासी हैं, वे परमेश्वर के घर में एक आफत हैं, वे कलीसिया को बहुत नुकसान पहुँचाएँगे और कोई लाभ नहीं पहुँचाएँगे, और उन्हें इससे बाहर निकाल दिया जाना चाहिए।
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