अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (22) खंड तीन
विभिन्न प्रकार के बुरे लोगों को पहचानने के मानक और आधार
आओ, हम अगुआओं और कार्यकर्ताओं की चौदहवीं जिम्मेदारी पर लौटते हैं : “सभी प्रकार के बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों को तुरंत पहचानो और फिर बहिष्कृत या निष्कासित कर दो।” आओ देखें कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं को जो काम करना चाहिए, क्या वह कलीसियाओं के बारे में उन सभी विवरणों से संबंधित है जिनके बारे में मैंने अभी-अभी संगति की है। हमें इन विशिष्ट विवरणों पर संगति करने की आवश्यकता क्यों है? इन विवरणों और अगुआओं और कार्यकर्ताओं को जो काम करना चाहिए, उनके बीच क्या संबंध है? (ये बुरे लोग और मसीह-विरोधी कलीसिया के सदस्य नहीं हैं और उन्हें दूर किए जाने की आवश्यकता है। इसके अलावा, उनका अस्तित्व कलीसियाओं द्वारा किए जाने वाले काम में रोड़े डालता है और उसे बाधित करता है।) तो, इनके बीच एक संबंध है; यह संगति व्यर्थ नहीं है। कलीसिया के पदनाम या परिभाषा के बारे में प्रत्येक विवरण को समझने के बाद, आओ जाँचें कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कलीसिया के सदस्यों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, उन्हें उन विभिन्न लोगों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए जिन्हें कलीसिया से बहिष्कृत या निष्कासित करने की आवश्यकता है, वे इस काम को कैसे अच्छी तरह से कर सकते हैं, और उन्हें अपनी जिम्मेदारी कैसे पूरी करनी चाहिए और कलीसिया के काम को कैसे जारी रखना चाहिए। सबसे पहले, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यह समझना चाहिए कि कलीसिया की परिभाषा क्या है, कलीसिया का अस्तित्व क्यों होना चाहिए, और कलीसिया को क्या काम करना चाहिए। इन बातों को समझने के बाद, उन्हें देखना चाहिए कि कलीसिया के कौन-से मौजूदा सदस्य कलीसिया के अस्तित्व या उसके काम के महत्व के मामले में सकारात्मक भूमिका नहीं निभाते, या कौन कलीसिया के आवश्यक काम में विघ्न-बाधा और नकारात्मक प्रभाव डाल सकते हैं, या कलीसिया की प्रतिष्ठा को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकते हैं और परमेश्वर के नाम को बदनाम भी कर सकते हैं। इन लोगों को स्पष्ट रूप से पहचानना और तुरंत बहिष्कृत या निष्कासित करना—क्या यह वह काम नहीं है जो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को करना चाहिए? (बिल्कुल है।) तो, इस काम को अच्छी तरह से करने में क्या शामिल है? हर तरह के बुरे लोगों को बहिष्कृत या निष्कासित करने और कलीसिया को शुद्ध करने, और कलीसिया के अस्तित्व के मूल्य को अभिव्यक्त करने और कलीसिया को अपनी भूमिका निभाने देने के लिए, साथ ही साथ कलीसिया के काम को सुचारू रूप से आगे बढ़ने देने के लिए, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को सबसे पहले कलीसिया में बुरे और मसीह-विरोधी लोगों को पहचानना चाहिए। यही वह जानकारी या वास्तविक स्थिति है जिसे इस कार्य को करते समय अगुआओं और कार्यकर्ताओं को सबसे पहले समझना चाहिए। इस कार्य में अगुआओं और कार्यकर्ताओं के सामने जो सबसे पहला मामला आता है वह है विभिन्न प्रकार के लोगों को पहचानना। विभिन्न प्रकार के लोगों को पहचानने का उद्देश्य क्या है? यह उन्हें उनकी अपनी किस्म के मुताबिक छाँटना और कलीसिया के सच्चे सदस्यों की सुरक्षा करना है। परंतु, इन लोगों की सुरक्षा करने मात्र का मतलब यह नहीं है कि चौदहवीं जिम्मेदारी में उल्लिखित कार्य सफलतापूर्वक किया जा रहा है। तो, इस कार्य को सफलतापूर्वक पूरा करने का सबसे महत्वपूर्ण पहलू क्या है? यह पहलू है सभी प्रकार के ऐसे छद्म-विश्वासी और बुरे लोगों को बहिष्कृत या निष्कासित करना जिनका संबंध कलीसिया से नहीं हैं। इस बात की परवाह किए बिना कि इन्हें बुरे लोगों के रूप में चिह्नित किया जाता है या मसीह-विरोधियों के रूप में, अगर वे बहिष्कृत या निष्कासित किए जाने की शर्तों को पूरा करते हैं, तो इस काम की आवश्यकता पैदा होती है, और वह समय अगुआओं और कार्यकर्ताओं के लिए अपनी जिम्मेदारी पूरी करने का होता है। आओ, सबसे पहले इस बात पर संगति करें कि विभिन्न प्रकार के लोगों को कैसे पहचाना जाए।
I. परमेश्वर में विश्वास रखने के उद्देश्य के आधार पर
हमें अलग-अलग तरह के लोगों को कैसे पहचानना चाहिए? पहला मानदंड है कि उन्हें परमेश्वर में विश्वास करने के उनके उद्देश्य के अनुसार पहचाना जाए। दूसरा मानदंड है कि उन्हें उनकी मानवता के अनुसार पहचाना जाए। और, तीसरा मानदंड है कि उन्हें उनके कर्तव्य के प्रति उनके रवैये के अनुसार पहचाना जाए। अगर हम कुछ सरल, संक्षिप्त शीर्षकों का उपयोग करें, तो वे होंगे : पहला, परमेश्वर में विश्वास करने का उनका उद्देश्य; दूसरा, उनकी मानवता; और तीसरा, उनके कर्तव्य के प्रति उनका रवैया। अब जब हमारे पास ये तीन शीर्षक हैं, तो उनमें से प्रत्येक के बारे में तुम लोगों की समझ क्या है? हमने पहले लोगों के परमेश्वर में विश्वास करने के उद्देश्य के बारे में ज्यादा चर्चा नहीं की है। हमने लोगों की मानवता और उनके कर्तव्य के प्रति उनके रवैये के बारे में अधिक बात की है, इसलिए तुम लोग इन चीजों से ज्यादा परिचित हो। लोगों का परमेश्वर में विश्वास करने का उद्देश्य भी वास्तव में तुम लोगों के लिए बिल्कुल नया विषय नहीं है, क्योंकि स्वयं तुम लोगों ने भी एक उद्देश्य के साथ परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया था। कुछ लोग परमेश्वर पर इसलिए विश्वास करते हैं कि वे नरक में नहीं जाना चाहते, कुछ इसलिए कि वे स्वर्ग में जाना चाहते हैं, कुछ इसलिए कि वे मरना नहीं चाहते, कुछ लोग इसलिए कि वे विपत्तियों से बचना चाहते हैं, कुछ अन्य लोग इसलिए कि वे अच्छे व्यक्ति बनना चाहते हैं, और कुछ इसलिए कि वे दुर्व्यवहार से बचना चाहते हैं, आदि-आदि। यह विषय तुम लोगों के लिए नया नहीं होना चाहिए; बात सिर्फ इतनी है कि मैं जिन विवरणों के बारे में बात करूँगा, तुम लोग उनसे कुछ हद तक अपरिचित हो सकते हो—तुमको उनके बारे में अनिश्चितता महसूस हो सकती है क्योंकि तुम नहीं जानते कि मैं उनके बारे में क्या कहने जा रहा हूँ या मैं कहाँ से शुरू करने जा रहा हूँ। तो आओ, इस बारे में संक्षेप में बात करते हैं। मुझे बताओ कि परमेश्वर में विश्वास करने में किस प्रकार के इरादे और उद्देश्य रखने वाले लोगों को बहिष्कृत या निष्कासित कर दिया जाना चाहिए? (वे जो केवल प्रसिद्धि और रुतबे का पीछा करते हैं और केवल सत्ता पर कब्जा करना चाहते हैं, और जो अपने रुतबे की खातिर कलीसिया को अनैतिक रूप से बाधित करेंगे।) यह एक प्रकार का व्यक्ति है। क्या अन्य प्रकार के लोग भी हैं? (छद्म-विश्वासी जो केवल आशीष पाने के पीछे लगे रहते हैं और पेट भरने की तलाश में रहते हैं।) छद्म-विश्वासी, यह एक और प्रकार है। क्या और भी श्रेणियाँ हैं? तुम लोग शायद कुछ लोगों की अभिव्यक्तियों के बारे में सोच रहे होगे, लेकिन तुम स्पष्ट रूप से यह नहीं समझ सकते कि ये लोग सिर्फ भ्रष्ट स्वभाव को प्रकट कर रहे हैं या फिर ये वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करने के लिहाज से अशुद्ध उद्देश्य वाले लोग हैं जिन्हें बहिष्कृत या निष्कासित कर दिया जाना चाहिए। तुम इसे नहीं समझ सकते और महसूस करते हो कि यह थोड़ा अस्पष्ट है, इसलिए तुम लोग इसे स्पष्ट रूप से नहीं बता सकते। लोगों के परमेश्वर में विश्वास करने के उद्देश्य का विषय काफी व्यापक है। हर किसी के परमेश्वर में विश्वास करने के कुछ इरादे और उद्देश्य होते हैं। परंतु, परमेश्वर में विश्वास करने के लिहाज से अशुद्ध उद्देश्यों वाले जिस प्रकार के लोगों के बारे में हम यहाँ बात कर रहे हैं, वे परमेश्वर के उद्धार की शर्तों को पूरा नहीं करते। वे उद्धार प्राप्त नहीं कर सकते और श्रमिक होने के न्यूनतम मानक तक भी नहीं पहुँच सकते। इन लोगों का परमेश्वर में विश्वास करने का चाहे जो भी उद्देश्य हो, किसी भी स्थिति में, किसी उद्देश्य के साथ परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोग अवसर दिए जाने पर अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने का प्रयास करेंगे, और यदि उन्हें अवसर नहीं मिलता है, तो वे बुरे काम करेंगे और बाधाएँ पैदा करेंगे। इसके कलीसिया के काम पर या परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश पर अकल्पनीय दुष्परिणाम होंगे, और ये लोग बहिष्कृत या निष्कासित किए जाने के निशाने पर होने चाहिए। अभी इन लोगों की मानवता या अपने कर्तव्यों के प्रति उनके रवैये को अलग रखते हुए, केवल परमेश्वर में विश्वास करने के उनके उद्देश्य के संदर्भ में बात करें, तो यह सत्य स्वीकार करना और उद्धार प्राप्त करना बिल्कुल नहीं है, और परमेश्वर के प्रति समर्पण करना और उसकी आराधना करना तो और भी नहीं है। इसलिए, परमेश्वर में उनका विश्वास स्वाभाविक रूप से उद्धार में परिणत नहीं होगा। इन लोगों को कलीसिया में रहने और परमेश्वर के चुने हुए लोगों—असली भाई-बहनों—को लगातार परेशान करने देने के बजाय, बेहतर है कि उन्हें यथाशीघ्र सटीक रूप से पहचाना और चिह्नित किया जाए, और फिर उन्हें तुरंत कलीसिया से बाहर निकाल दिया जाए। उनके साथ कलीसिया के सदस्यों या भाई-बहनों जैसा व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए। तो, ये लोग कौन हैं? ठीक अभी, तुम लोगों ने कुछ अवधारणाओं के बारे में व्यापक रूप से बात कही थी। मैं कुछ ठोस उदाहरण दूँगा, और उन्हें सुनने के बाद तुम लोग समझ जाओगे।
क. अधिकारी बनने की अपनी इच्छा पूरी करना
सबसे पहले, आओ प्रथम प्रकार के व्यक्तियों के बारे में बात करें जिन्हें कलीसिया से बहिष्कृत या निष्कासित कर दिया जाना चाहिए। कुछ लोग हमेशा समाज में अधिकारी बनना और अपने पूर्वजों को गौरवान्वित करना चाहते हैं, लेकिन अपने करियर में असफल होते हैं। हालाँकि, अधिकारी बनने की उनकी इच्छा बिल्कुल भी कम नहीं होती। लेकिन उनके परिवार की सामाजिक स्थिति ऊँची नहीं होने के कारण उन्हें जीवन निराशाजनक लगता है और वे दुनिया को बहुत अन्यायपूर्ण मानते हैं जिसमें वे अपनी इस छोटी-सी इच्छा को भी पूरा नहीं कर पाते हैं। उन्हें लगता है कि उनके पास कुछ ज्ञान और योग्यता है लेकिन कोई भी उनकी सराहना नहीं करता है। उन्हें कोई समर्थक नहीं मिलता है और अधिकारी बनने की सँभावना उन्हें बहुत दूर लगती है। इस निराशाजनक स्थिति में, उन्हें कलीसिया मिली। उन्हें लगता है कि अगर वे कलीसिया में अगुआ बन सकते हैं तो यह भी अधिकारी होने जैसा है और इससे उनकी इच्छा पूरी हो सकती है। इस तरह वे महानता प्राप्त करने की इच्छा से परमेश्वर के घर आते हैं। उन्हें लगता है कि उनकी योग्यता और क्षमताएँ परमेश्वर के घर में उपयोग के लिए बिल्कुल ठीक हैं और एक अधिकारी और प्रतिष्ठित व्यक्ति बनने की उनकी उम्मीद साकार हो सकती है, जिससे उनके जीवन भर की एक इच्छा पूरी हो सकती है। परमेश्वर में विश्वास करने के बारे में उनके दृष्टिकोण को इस तरह की कहावतों द्वारा सारांशित किया जा सकता है जैसे कि “एक हाथ दो, दूसरे हाथ लो,” “सच्चा सोना अंततः चमकता ही है,” और “चतुर पक्षी अपना बसेरा बुद्धिमानी से चुनता है”—परमेश्वर में विश्वास करने के मार्ग पर चलने के उनके चुनाव की पृष्ठभूमि कुछ इसी तरह की होती है। इस व्यक्ति के सार को देखते हुए, यह स्पष्ट है कि वह दुनिया में सत्य के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करता और उद्धारकर्ता के अस्तित्व पर तो और भी कम विश्वास करता है। संक्षेप में, वह सच्चे परमेश्वर पर विश्वास नहीं करता और सृष्टिकर्ता के अस्तित्व पर तो वह और भी कम विश्वास करता है। चाहे वे बाइबल में लिखी बातें हों या धार्मिक जगत में दिए जाने वाले उपदेश हों—जैसे कि दुनिया और मानवजाति को परमेश्वर ने बनाया है, परमेश्वर संप्रभु है और मानवजाति की अगुआई करता है—ऐसे लोगों के लिए ये सभी बातें सिर्फ ऐतिहासिक अभिलेख भर हैं। कोई उनकी जाँच नहीं करता है और कोई उनका सत्यापन नहीं कर सकता; वे सिर्फ किंवदंतियाँ और कहानियाँ हैं, एक तरह की धार्मिक संस्कृति हैं। यह उनकी आस्था की सबसे बुनियादी समझ है। इसी समझ के साथ वे परमेश्वर पर विश्वास करने लगते हैं और सोचते हैं कि वे सही मार्ग पर चल रहे हैं, अंधकार को छोड़ कर प्रकाश में आ रहे हैं, वे वह “चतुर पक्षी” हैं जो अपना बसेरा बुद्धिमानी से चुनता है। बेशक, उन्होंने अधिकारी और प्रतिष्ठित व्यक्ति बनने की अपनी पसंद और इच्छा अभी त्यागी नहीं है। उन्हें लगता है कि इतने सारे लोगों वाली इस विशाल दुनिया में उनके लिए कोई जगह नहीं है, और केवल परमेश्वर का घर ही उनके लिए उम्मीदें ला सकता है। केवल कलीसिया में रह कर ही उन्हें अपनी प्रतिभाओं का उपयोग करने और विशिष्ट व्यक्ति बनने की इच्छा साकार करने का मौका मिल सकता है। ऐसा इसलिए है कि वर्तमान स्थिति के उनके नजरिये में बाहरी दुनिया तेजी से दुष्टतापूर्ण और अंधकारमय होती जा रही है—केवल कलीसिया ही इस दुनिया में शुद्धता की भूमि है; कलीसिया ही दुनिया में एकमात्र ऐसी जगह है जो लोगों को आध्यात्मिक पोषण प्रदान कर सकती है और केवल कलीसिया ही लगातार फल-फूल रही है। वे ऐसी इच्छाओं और उद्देश्यों के साथ परमेश्वर पर विश्वास करने लगते हैं। आस्था ग्रहण कर लेने के बाद परमेश्वर पर विश्वास करने, सत्य का अनुसरण करने, या सत्य, परमेश्वर के स्वभाव और परमेश्वर के कार्य से जुड़े मामलों के बारे में वे कुछ भी नहीं समझते हैं। वे इन मामलों का न तो अनुसरण करते हैं, न इन पर ध्यान देते हैं। अपने दिल में, उन्होंने रुतबा पाने और अधिकारी होने की इच्छाओं को बिल्कुल भी नहीं त्यागा होता; बल्कि, वे कलीसिया में रहते हुए भी इन धारणाओं और दृष्टिकोणों को कस कर पकड़े रहते हैं। वे कलीसिया को एक सामाजिक संगठन, एक धार्मिक समुदाय के रूप में देखते हैं और परमेश्वर के कार्य और परमेश्वर के वचनों को विश्वासियों द्वारा अंधविश्वासों के कारण बनाए गए भ्रमों के रूप में देखते हैं। इसलिए, जब भी सत्य का अनुसरण करने की बात आती है, जब भी परमेश्वर के वचनों और परमेश्वर के कार्य की बात आती है, तो वे गहरी खीझ और प्रतिरोध महसूस करते हैं। यदि कोई किसी चीज के बारे में बताता है कि यह परमेश्वर का कार्य है, यह परमेश्वर की संप्रभुता है या यह परमेश्वर का आयोजन है, तो वे घृणा महसूस करते हैं। परंतु, वे चाहे जितनी घृणा महसूस करें और चाहे वे सत्य को स्वीकारें या न स्वीकारें, अधिकार पाने की अपनी लालसा पूरी करने के लिए कलीसिया में रुतबे वाला कोई पद हासिल करने की उनकी इच्छा न कभी कम हुई होती है और न उन्होंने उसका त्याग किया होता है। चूँकि उनमें ऐसी महत्वाकांक्षा और इच्छा होती है, वे स्वाभाविक रूप से विभिन्न अभिव्यक्तियाँ प्रकट करते हैं। उदाहरण के लिए, वे लोगों को ऐसी बातें कहकर भड़काते हैं : “हर चीज को परमेश्वर के वचनों पर आधारित न करो, न ही हर चीज को परमेश्वर के वचनों और परमेश्वर से जोड़ो। वास्तव में, लोगों के बहुत से विचार और कथन सही हैं; लोगों के अपने दृष्टिकोण और रुख होने चाहिए।” लोगों को गुमराह करने के लिए वे इन कथनों को फैलाते हैं। इसी के साथ, वे अपनी प्रतिभा, खूबियों और दुनिया में चली जा सकने वाली चालों और तिकड़मों का भी दमदार तरीके से प्रदर्शन करते हैं, ताकि लोगों की नजर में आ सकें, उनका ध्यान खींच सकें और उनसे खूब सम्मान प्राप्त कर सकें। उनके जोरदार प्रदर्शन का उद्देश्य क्या है? इसका उद्देश्य लोगों को उनके बारे में ऊँचे विचार रखने और उनका आदर करने के लिए प्रेरित करना है; इसका उद्देश्य लोगों के बीच रुतबा हासिल करना और इसके माध्यम से अधिकारी के रूप में करियर को आगे बढ़ाने और अपने पूर्वजों को गौरवान्वित करने की अपनी इच्छा को संतुष्ट करना है। वे तब संतुष्ट होते हैं जब लोग उनका सम्मान करें, उनकी प्रशंसा करें, उनका अनुसरण करें, समर्थन करें, उनसे गहरा प्रेम करें, और उनका आदर करें, और उनकी चापलूसी तक करें। इसके अलावा, वे बिना थके इन चीजों के लिए लगातार प्रयास करते हैं और उनका आनंद लेते हैं। यद्यपि परमेश्वर का घर लगातार मसीह-विरोधियों, दुष्ट लोगों और लोगों के विभिन्न भ्रष्ट स्वभावों को उजागर करता है, लेकिन अपने हृदय में वे इन्हें अपने तिरस्कार के योग्य भी न मानते हुए उनसे नफरत करते हैं, वे इनसे विशेष घृणा महसूस करते हैं। दुनिया और समाज में पूरी न की जा सकी अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए वे एकाग्रचित्त होकर, पद और दूसरों से प्रशंसा और सम्मान पाने की कोशिश करते हैं। तो, परमेश्वर में विश्वास करने का उनका उद्देश्य क्या है? यह इस जीवन में सौ गुना और आने वाले संसार में अनंत जीवन पाने के लिए नहीं है, और यह निश्चित ही सत्य स्वीकार करने और बचाए जाने के लिए नहीं है। परमेश्वर में विश्वास करने का उनका उद्देश्य किसी सृजित प्राणी के रूप में कार्य करना नहीं है, बल्कि अधिकारी और प्रभु बनना है, रुतबे के लाभों का आनंद लेना है। कलीसिया में निश्चित रूप से ऐसे लोग हैं; ये कुकर्मी हैं जो कलीसिया में घुसपैठ करते हैं। कलीसिया ऐसे लोगों को परमेश्वर के चुने हुए लोगों के बीच घुलने-मिलने की अनुमति बिल्कुल नहीं देती, इसलिए ऐसे लोगों को बाहर निकाल दिया जाना चाहिए। क्या ऐसे लोगों के परमेश्वर में विश्वास करने के उद्देश्य को समझना आसान है? (हाँ, आसान है।) परमेश्वर में विश्वास करने के उनके इरादों और उद्देश्यों के साथ ही कलीसिया में उनकी विभिन्न अभिव्यक्तियों के मद्देनजर, वे किस तरह के लोग हैं? (छद्म-विश्वासी।) हाँ, वे छद्म-विश्वासी हैं। छद्म-विश्वासी होने के अलावा, वे अधिकार की अपनी लालसा को संतुष्ट करने के लिए परमेश्वर के घर में रुतबे और सँभावनाओं का भी लगातार अनुसरण करना चाहते हैं। परमेश्वर में विश्वास करने का उनका उद्देश्य अधिकारी बनना है। तो, ऐसा क्यों है कि इन लोगों को बाहर निकाल दिया जाना चाहिए? कोई कह सकता है कि “यदि छद्म-विश्वासी परमेश्वर के घर में श्रम करते हैं और कलीसिया के मित्रों के रूप में वे थोड़ी-बहुत मदद कर सकते हैं तो क्या उन्हें अपने आस-पास बने रहने देना ठीक नहीं है?” क्या यह कथन उचित है? (नहीं।) यह क्यों उचित नहीं है? (अधिकारी बनने की उनकी इच्छा निश्चित रूप से उन्हें ऐसे कामों की ओर ले जाएगी जिनसे दूसरों को परेशानी होगी, परमेश्वर के घर के काम को कोई लाभ नहीं होगा, और भाई-बहनों की सत्य की खोज पर प्रभाव पड़ेगा।) तुम इसे चाहे जैसे देखो, छद्म-विश्वासी सत्य का प्रतिरोध करते हैं और परमेश्वर को नकारते हैं, इसलिए परमेश्वर का घर उन्हें नहीं रख सकता। वे कोई सकारात्मक भूमिका नहीं निभाएँगे। वे अधिकारी बनने का प्रयास करें या न करें, छद्म-विश्वासियों के रूप में उनकी टिप्पणियाँ, अभिव्यक्तियाँ और कार्य मात्र ही बाधाएँ पैदा कर सकते हैं और उनका कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं होगा। कुछ भाई-बहन, कुछ निश्चित परिवेशों का अनुभव होने पर कहते हैं, “यह परमेश्वर की संप्रभुता है और हमें इसके आगे समर्पण करना चाहिए।” क्या छद्म-विश्वासी समर्पण कर सकते हैं? इतना ही काफी है कि वे विघ्न डालने और विरोध करने के लिए खड़े न हों। अपने हृदय में वे यह तक कहते हैं कि “ऐसा मत कहो कि सब कुछ परमेश्वर की संप्रभुता है। लोगों की अपनी कुछ राय होनी चाहिए और उन्हें कुछ स्वतंत्रता होनी चाहिए; हर चीज का श्रेय परमेश्वर की संप्रभुता को मत दो!” वे न केवल दूसरों को नीचे खींचते हैं बल्कि लोगों को गुमराह करने के लिए कुछ अस्पष्ट और दिखावटी भ्रांतियाँ भी बोलते हैं। क्या यह बेशर्मी नहीं है? वे अविश्वासियों के बीच कुछ चतुराई-भरी चालें चलने और तिकड़म करने में सक्षम हो सकते हैं, लेकिन परमेश्वर का घर ऐसी चालों और तिकड़मों के लिए गलत जगह है! कुछ लोग क्लीनिक चलाते हैं जहाँ जाना सभी को पसंद होता है क्योंकि उनके मुताबिक वहाँ सूई लगवाने से दर्द नहीं होता। सूई लगवाने से दर्द क्यों नहीं होता? सूई की नोक को निश्चेतक में डुबोया जाता है, इसीलिए उससे दर्द का पता नहीं चलता। क्या यह बुद्धिमानी भरा काम है? (नहीं, यह घातक है।) फिर भी वे इसे बुद्धिमानी भरा कदम मानते हुए इस बारे में शेखी बघारते हैं और सोचते हैं कि यह उनकी क्षमता और कौशल को प्रदर्शित करता है, और कहते हैं, “तुम केवल परमेश्वर के प्रति समर्पण, परमेश्वर के आयोजन और परमेश्वर की संप्रभुता के बारे में बात करते हो। क्या तुममें वो हुनर है जो मेरे पास है?” क्या यह बेशर्मी नहीं है? (बिल्कुल है।) वे ऐसी घातक तिकड़मों के बारे में भी डींग हाँकते हैं! वे कलीसिया में घुसपैठ करने वाले छद्म-विश्वासियों के मकसद रखने वाले लोग ही हैं जिन्हें कलीसिया से बाहर निकाल दिया जाना चाहिए। क्यों? अपने हृदय में ये लोग सत्य का प्रतिरोध करते हैं और उससे विमुख होते हैं। परमेश्वर में विश्वास करने का उनका उद्देश्य चाहे जो भी हो, चाहे यह ऐसी बात हो जिसे वे छद्म-विश्वासी होने के अपने सार के आधार पर, खुले तौर पर स्वीकार कर सकते हों या नहीं, कलीसिया को उन्हें बहिष्कृत या निष्कासित कर देना चाहिए। ये छद्म-विश्वासी अपनी प्रतिभाओं का प्रदर्शन करने, महत्वाकांक्षाओं को साकार करने, और कलीसिया के भीतर अपनी इच्छाओं को संतुष्ट करने के निश्चित उद्देश्य के साथ कलीसिया में घुसपैठ करते हैं। वे कलीसिया जैसे मूल्यवान स्थान का उपयोग सत्ता पर काबिज होने, दिखावा करने, और लोगों को गुमराह करने व नियंत्रित करने के लक्ष्य की प्राप्ति के साधन के रूप में करना चाहते हैं। परमेश्वर में विश्वास करने के उनके उद्देश्य के मद्देनजर, वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों और कलीसिया के कार्य में विघ्न-बाधा उत्पन्न करने में सक्षम लोग हैं। इसलिए, इन लोगों को परमेश्वर के घर से बहिष्कृत या निष्कासित कर दिया जाना चाहिए। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को उनके छद्म-विश्वासी सार को अच्छी तरह समझना चाहिए। चाहे तुम इसे उनकी अभिव्यक्तियों पर आधारित करो या परमेश्वर में विश्वास करने के बारे में उनके बार-बार के बयानों पर आधारित करो, एक बार जब तुम स्थिति को समझ लेते हो और स्पष्ट रूप से पहचान लेते हो कि वे छद्म-विश्वासी हैं, तो तुम्हें बिना किसी हिचकिचाहट के उन्हें निर्णायक रूप से ठुकरा देना चाहिए। उन्हें बाहर निकालने के लिए तुम चाहे कोई भी तरीका या बुद्धि लगाओ, कोई भी तरीका ढूँढ़ो—यही वह काम है जो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को करना चाहिए; यही वह काम है जिसका भार उन्हें अपने कंधों पर उठाना चाहिए। यह प्रथम प्रकार के लोग हैं जिन्हें बहिष्कृत या निष्कासित कर दिया जाना चाहिए।
ख. विपरीत लिंग के व्यक्ति की तलाश करना
तो, उन दूसरे प्रकार के लोगों की अभिव्यक्तियाँ कैसी होती हैं जिन्हें बहिष्कृत या निष्कासित कर दिया जाना चाहिए? कुछ लोगों ने कभी भी परमेश्वर में विश्वास करने से कोई मतलब नहीं रखा होता; उनमें बस इस बारे में एक अनुकूल धारणा होती है। उन्हें यह जानने में कोई दिलचस्पी नहीं होती कि परमेश्वर में विश्वास करके किसका अनुसरण करना चाहिए या क्या पाना चाहिए। उन्होंने सुना होता है कि जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं वे काफी कर्तव्यनिष्ठ और निष्कपट होते हैं, इसलिए वे कलीसिया में एक रोमांटिक साथी ढूँढ़ना चाहते हैं, फिर उससे शादी करके स्थिर जीवन जीना चाहते हैं। यही उनका इरादा और उद्देश्य है, इसलिए वे अपने आदर्श साथी की खोज में कलीसिया आते हैं। परमेश्वर में विश्वास करने में इन छद्म-विश्वासियों की कोई दिलचस्पी नहीं होती; वे सृष्टिकर्ता, सत्य, बचाए जाने, परमेश्वर को जानने, कर्तव्य करने या ऐसे दूसरे मामलो की जरा भी परवाह नहीं करते। यदि वे परमेश्वर के वचनों और धर्मोपदेशों को सुनने के बाद इन मामलों को समझ भी सकें, तो वे इन्हें हृदय से ग्रहण नहीं करना चाहते। वे बस एक आदर्श साथी ढूँढ़ना चाहते हैं और, वस्तुतः, उम्मीद करते हैं कि वे ज्यादा लोगों से मिल सकेंगे और अपने नेटवर्क का विस्तार कर सकेंगे। परमेश्वर में विश्वास करने का उनका उद्देश्य एक आदर्श जीवनसाथी खोजने का होता है। कुछ लोग कह सकते हैं, “तुम कैसे जानते हो कि उनका यही उद्देश्य है? उन्होंने तो तुमसे इस बारे में कुछ नहीं कहा या इसका उल्लेख नहीं किया!” इस बात को वे अपने व्यवहार से प्रदर्शित करते हैं। देखो कि जब वे अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं या किसी से संपर्क बनाते हैं, तो किस तरह वे हमेशा विपरीत लिंगी को ही खोजते हैं। जब वे किसी को पसंद कर लेते हैं, तो वे उसके साथ संगति करते रहते हैं और उसके करीब आते रहते हैं, हमेशा उसके बारे में जानकारी हासिल करते रहते हैं और उसे जानने की कोशिश करते हैं। इन असामान्य कार्यों और अभिव्यक्तियों की ओर अगुआओं और कार्यकर्ताओं का पर्याप्त ध्यान जाना चाहिए, उन्हें देखना चाहिए कि उनके इरादे क्या हैं और किस उद्देश्य की प्राप्ति उनका लक्ष्य है; उन्हें पता लगाना चाहिए कि उन्हें सुसमाचार का उपदेश किसने दिया, वे विशेष रूप से विपरीत लिंगियों से क्यों संपर्क करना चाहते हैं, उनके पास हमेशा विपरीत लिंगियों से कहने के लिए कुछ क्यों होता है, और उन्हें विपरीत लिंगियों से विशेष लगाव क्यों है, खास तौर पर उन्हें यह पता लगाना चाहिए कि वे उन लोगों के प्रति विशेष जिज्ञासा और चिंता क्यों दिखाते हैं जिन्हें वे पसंद करते हैं। ऐसे लोगों की परमेश्वर में विश्वास करने वालों के प्रति अनुकूल धारणा होती है। भले ही सभाओं में, धर्मोपदेश सुनने में, परमेश्वर के वचनों की संगति करने में, भजन गाने में, व्यक्तिगत अनुभवों की संगति करने में और इस तरह के अन्य मामलों में वे बहुत रुचि न रखते हों, परंतु वे आम तौर पर ऐसा कुछ नहीं कहते जिससे कोई विघ्न-बाधा पैदा होती हो। वे सारा ध्यान केवल एक रोमांटिक साथी खोजने पर केंद्रित करते हैं जिसके साथ बढ़िया जीवन व्यतीत किया जा सके। यदि उन्हें कोई साथी मिल जाता है तो वे परमेश्वर में विश्वास करने में उसका साथ दे सकते हैं; भले ही वे स्वयं उसका अनुसरण न करें, पर वे परमेश्वर में विश्वास करने में अपने साथी की सहायता कर सकते हैं। कुछ लोगों में अपेक्षाकृत स्वीकार्य मानवता होती है, वे मददगार होते हैं, और मैत्रीपूर्ण तथा दयालु होने की पूरी कोशिश करते हैं। उदाहरण के लिए, वे दूसरों के प्रति सहिष्णु हो सकते हैं, समस्याओं से जूझ रहे लोगों की हरसंभव मदद करने की सोचते हैं, या कोई सलाह दे सकते हैं, आदि-आदि। वे दूसरों के प्रति अपेक्षाकृत दयालु होते हैं और किसी के प्रति दुर्भावना नहीं रखते, लेकिन परमेश्वर में विश्वास करने के उनके उद्देश्य और लक्ष्य बहुत सम्मानजनक नहीं होते। वे सत्य का अनुसरण नहीं करते, और चाहे कोई भी उनके साथ सत्य पर संगति करे, वे सत्य स्वीकार नहीं करते। छह महीने, या एक या दो साल तक अनुसरण करने के बाद भी उनमें कोई बदलाव नहीं आता। यद्यपि वे विश्वास नहीं करने के बारे में कुछ नहीं कहते और वे कोई विघ्न-बाधा भी उत्पन्न नहीं करते, फिर भी उनमें परमेश्वर में विश्वास करने के मामलों में कोई रुचि नहीं होती। क्या ऐसे लोगों का कलीसिया में रहना उचित है? (नहीं।) क्या ऐसे लोगों को दूर कर दिया जाना चाहिए? (हाँ, उन्हें भी दूर कर दिया जाना चाहिए।) इसका कारण क्या है? (क्योंकि वे सत्य में रुचि नहीं रखते हैं, और वे उद्धार के लक्ष्य नहीं हैं। यदि वे हमेशा साथी की तलाश करते हुए कलीसिया में रहते हैं, तो यह दूसरों के लिए परेशानी खड़ी करेगा और उन्हें प्रलोभन की ओर ले जाएगा; वे सकारात्मक भूमिका नहीं निभाएँगे।) यह बिल्कुल ऐसा ही है। उदाहरण के लिए, कुछ लोगों को मांस खाना विशेष रूप से पसंद होता है। जब वे मांस खाते हैं तो वे अपने काम के बारे में भूल जाते हैं। मांस न होने पर वे फिर भी कुछ उचित कार्यों में भाग लेने में सक्षम होते हैं, लेकिन जब मांस उपलब्ध होता है तो उनके काम में देरी हो जाती है। मांस उनके लिए क्या है? (प्रलोभन।) बिल्कुल ठीक, यह एक प्रलोभन है। तो, क्या जो लोग हमेशा साथी की तलाश में रहते हैं उन्हें प्रलोभन का स्रोत माना जा सकता है? (हाँ।) वे वास्तव में प्रलोभन का स्रोत हैं। ऐसे लोगों को स्पष्ट कर दिया जाना चाहिए कि, “तुममें परमेश्वर में विश्वास करने या अपना कर्तव्य करने के प्रति ईमानदारी नहीं है। तुम कभी भी कलीसिया में एकीकृत नहीं हो सके और तुम्हें कभी भी सच्चा विश्वासी नहीं माना गया। इन दो वर्षों के संपर्क में, हमने तुम्हारा उद्देश्य देखा है : तुम बस कलीसिया में एक साथी खोजना चाहते हो। क्या यह अच्छे लोगों को नुकसान नहीं पहुँचा रहा है? कलीसिया के लोग तुम्हारे लिए उपयुक्त नहीं हैं। अविश्वासियों में तुम्हारे लिए उपयुक्त बहुत से लोग हैं। जाओ और अविश्वासियों के बीच किसी को खोजो।” निहितार्थ यह कि उन्हें बताना है, “हमने तुम्हारी असलियत जान ली है। तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से नहीं हो। तुम परमेश्वर के घर के व्यक्ति नहीं हो। तुम्हें हमारा भाई या बहन नहीं माना जा सकता।” परमेश्वर के घर के सिद्धांतों के अनुसार, ऐसे लोगों को कलीसिया से बाहर निकाल दिया जाना चाहिए। इस तरह, ये लोग जो साथी की अंधाधुंध तलाश में और दूसरों को फुसलाने में लगे हैं, उन्हें दूर कर दिया जाएगा। क्या ऐसे लोगों को पहचानना आसान नहीं है? (हाँ, आसान है।) ये लोग छद्म-विश्वासी भी हैं। उन्हें कलीसिया से, धार्मिक आस्था से और परमेश्वर में विश्वास करने वालों से थोड़ा लगाव है। वे परमेश्वर में विश्वास करने के अवसर का उपयोग केवल विश्वासियों के बीच एक साथी खोजने के लिए करना चाहते हैं, जो उनके साथ रह सके और समर्पित होकर उनकी सेवा कर सके। मुझे बताओ, क्या ऐसा कुछ संभव है? क्या हमें उन्हें संतुष्ट करना चाहिए? क्या कलीसिया को ऐसे मामलों की व्यवस्था करनी चाहिए? (नहीं।) उनकी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं को संतुष्ट करना कलीसिया का दायित्व नहीं है। विश्वासियों को वे चाहे जितना भला समझें, या वे चाहे जितना सोचें कि वे इन विश्वासियों के साथ उचित तरीके से अपना जीवन जी सकेंगे, या मानें कि विश्वासी सही मार्ग पर चल सकते हैं, यह सब बेकार है—उनकी राय बेमतलब है। ज्यादातर कलीसियाओं में ऐसे छद्म-विश्वासी भी पाए जा सकते हैं। इन लोगों से निपटने का तरीका वही है जिसके बारे में हमने अभी संगति की है, या तुम लोगों के पास इससे बेहतर कोई तरीका हो तो उसका इस्तेमाल कर सकते हो, बशर्ते उन्हें सिद्धांतों के अनुसार सँभाला जाए। इन छद्म-विश्वासियों को विभिन्न प्रकार के दुष्ट लोगों में वर्गीकृत किया जाता है—क्या यह अत्यधिक है? (नहीं।) हम छद्म-विश्वासियों के साथ ठीक ऐसा ही व्यवहार करते हैं।
ग. आपदाओं से बचना
अन्य किस तरह के लोगों को कलीसिया से बहिष्कृत या निष्कासित कर दिया जाना चाहिए? (एक और प्रकार के लोग वे हैं जो केवल आपदाओं से बचने के लिए परमेश्वर में विश्वास करते हैं।) केवल आपदाओं से बचने के लिए परमेश्वर में विश्वास करना भी लोगों के विश्वास का एक उद्देश्य है। क्या परमेश्वर में विश्वास करने वाले अधिकांश लोगों में भी इस तरह की मिलावट नहीं होती? (हाँ, होती है।) तो हमें यह भेद कैसे करना चाहिए कि किन लोगों को इस वजह से बहिष्कृत या निष्कासित कर दिया जाना चाहिए, और कौन-से लोग केवल भ्रष्टाचार के सामान्य खुलासे का प्रदर्शन कर रहे हैं और उन्हें बहिष्कृत या निष्कासित नहीं किया जाना चाहिए? ज्यादातर लोगों की आस्था आपदाओं से बचने के लिए परमेश्वर में विश्वास करने के इनके उद्देश्य के साथ मिश्रित होती है—यह एक तथ्य है। तुम लोगों को आपदाओं से बचने के लिए परमेश्वर में विश्वास करने वालों में से उन अविश्वासियों को पहचानना चाहिए जो बहिष्कृत या निष्कासित किए जाने के मानदंडों को पूरा करते हैं। उदाहरण के लिए, ऐसे लोग जब देखते हैं कि आपदाएँ पहले से ज्यादा गंभीर होने लगी हैं, तो वे सभाओं में और अधिक भागीदारी करना शुरू कर देते हैं और यह कहते हुए कि वे अब गंभीरता से परमेश्वर में विश्वास करना चाहते हैं, परमेश्वर के वचनों की उन पुस्तकों को जल्दी से वापस ले लेते हैं जिन्हें वे पहले कलीसिया को लौटा चुके होते हैं। परंतु, आपदाओं के बीत जाने पर या उनका असर कम हो जाने पर वे व्यापार करने और पैसा कमाने में लग जाते हैं, और संपर्क करने के सभी तरीकों को अवरुद्ध कर देते हैं ताकि भाई-बहन उन्हें सभाओं में बुलाने के लिए ढूँढ़ न सकें या उन तक न पहुँच सकें। जब आपदाएँ आती हैं तो वे सक्रिय रूप से भाई-बहनों की तलाश करते हैं, लेकिन जब आपदाएँ खत्म हो जाती हैं तो भाई-बहनों के लिए उन्हें ढूँढ़ना बहुत मुश्किल हो जाता है, और उनसे कोई बहुत कम ही संपर्क कर पाता है। क्या ये अभिव्यक्तियाँ बिल्कुल प्रत्यक्ष नहीं हैं? (हाँ, हैं।) जब कोई आपदा नहीं होती तो वे कहते हैं, “लोगों को सामान्य जीवन जीना चाहिए। हमें अपने दिन गुजारने हैं। मुझे हर दिन घर पर खाना बनाना पड़ता है, और बच्चों को स्कूल छोड़ना और लाना पड़ता है, इसलिए कभी-कभी मैं सभाओं में नहीं जा पाता। इसके अलावा, जीवनयापन के लिए पैसों की जरूरत होती है; जीवन में सभी खर्चों का भुगतान करना पड़ता है। पैसे कमाए बिना हम जिंदा नहीं रह सकते। इस दुनिया में, बिना पैसे के किसी का काम नहीं चल सकता। परमेश्वर में विश्वास करना व्यावहारिक होना चाहिए!” वे प्रशंसनीय ढंग से बोलते हैं और पर्याप्त कारण गिनाते हैं, वे पैसा कमाने और अपने दिन गुजारने पर पूरी तरह से ध्यान केंद्रित करते हैं, केवल कभी-कभार किसी सभा में जाते हैं और परमेश्वर के वचनों को शायद ही कभी पढ़ते हैं। परमेश्वर में विश्वास करने के प्रति उनका रवैया गुनगुना होता है, वे न तो बिल्कुल उत्साहहीन होते हैं और न ही बहुत उत्साहित। जब कोई आपदा आती है तो वे कहते हैं, “ओह, मैं परमेश्वर के बिना नहीं रह सकता; मुझे परमेश्वर की आवश्यकता है! मुझे प्रतिदिन परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उसे पुकारना चाहिए! मैं आपदाओं से बचने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ, बल्कि मुख्य बात यह है कि मैं अपने हृदय में परमेश्वर की मौजूदगी के बिना नहीं रह सकता। हृदय में परमेश्वर के नहीं होने पर अच्छा जीवन जीना भी खाली-खाली-सा लगता है!” वे एक भी ऐसा शब्द नहीं बोल सकते जो परमेश्वर के बारे में किसी ज्ञान का प्रदर्शन करता हो; वे केवल अपने कार्यों और व्यवहार को सही ठहराने वाले शब्द बोलते हैं। वे नहीं जानते कि परमेश्वर का घर लोगों को कितनी पुस्तकें वितरित करता है; वे नहीं जानते कि धर्मोपदेश किस विषय तक पहुँचे हैं; वे नहीं जानते कि वर्तमान में कलीसियाई जीवन में किन सत्यों के बारे में संगति की जा रही है। वे हर छह महीने में या साल में एक बार किसी सभा में भाग लेते हैं। जब वे इन सभाओं में भाग लेते हैं, तो कहते हैं, “अविश्वासी बहुत बुरे होते हैं। समाज अन्यायपूर्ण है। यह दुनिया बुरी है। पैसा कमाने का प्रयास करना बहुत कठिन है! लोगों पर परमेश्वर द्वारा दिया कम है...।” वे ऐसी बेकार की बातें करते रहते हैं जिनका सभा की संगति के विषय और विषयवस्तु से कोई मतलब नहीं होता। वे अपनी प्रार्थना में कुछ खोखले शब्द और परमेश्वर पर विश्वास करने के बारे में कुछ सतही शब्द बोलते हैं और फिर अपने आप को विश्वासी मानते हुए अपने दिल में सहजता और शांति महसूस करते हैं। क्या यह परमेश्वर पर विश्वास करना है? ये किस तरह के निकम्मे लोग हैं? अगर तुम उनसे पूछो कि “तुम नियमित रूप से सभाओं में क्यों नहीं जाते?” तो वे कहते हैं, “मेरी परिस्थितियाँ इसकी अनुमति नहीं देतीं। परमेश्वर ने मेरे लिए इसी वातावरण की व्यवस्था की है, और मुझे इसके प्रति समर्पण करना चाहिए।” ये शब्द कितने अच्छे लगते हैं! वे यह भी कहते हैं, “देखो, परमेश्वर ने मेरे लिए यह वातावरण व्यवस्थित किया है। मेरा पूरा परिवार खाने-पीने के लिए मुझ पर निर्भर है, इसलिए मुझे गुजारा करने के लिए पैसे कमाने पड़ते हैं! फिलहाल, पैसा कमाना ही वो काम है जो परमेश्वर ने मुझे दिया है।” वे अपना कर्तव्य करने के बारे में, साथ ही एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों के बारे में उल्लेख नहीं करते हैं, और परमेश्वर के वचनों का अभ्यास कैसे किया जाए इसका उल्लेख तो वे और भी नहीं करते; कभी-कभार ही वे किसी सभा में जाते हैं और कुछ युआन का चढ़ावा चढ़ाकर सोचते हैं कि उन्होंने परमेश्वर के घर में योगदान दिया है। कुछ ऐसे भी हैं जो अपने बच्चों के बीमार होने पर परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं और कुछ दिनों बाद, जब उनके बच्चे ठीक हो जाते हैं, तो वे तुरंत कुछ पैसे कलीसिया को चढ़ाते हैं और फिर से गायब हो जाते हैं। भाई-बहनों के साथ वे जब भी बातचीत करते हैं तो वे कभी भी सत्य के बारे में संगति नहीं करते हैं, न ही वे परमेश्वर के वचनों को पढ़ते हैं। कोई आपदा या विपत्ति नहीं होने पर वे कभी भी परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते। उनकी दैनिक बातचीत हमेशा घरेलू तुच्छताओं, सही और गलत संबंधी विवादों, दैहिक-जीवन, विभिन्न सामाजिक परिघटनाओं और दिखाई-सुनाई पड़ने वाली विभिन्न चीजों के बारे में होती है; परमेश्वर के वचनों के बारे में वे बहुत कम मौकों पर संगति करते हैं और परमेश्वर में विश्वास करने के संबंध में कभी भी दिल से निकला एक भी शब्द नहीं बोलते। वे केवल परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा पाने के लिए कलीसिया में अपना स्थान बनाए रखते हैं। यह परमेश्वर में विश्वास करने का उनका तरीका है; वे सत्य का बिल्कुल अनुसरण किए बिना सिर्फ शांति और आशीष की खोज में रहते हैं। उन्हें सत्य में कोई दिलचस्पी नहीं होती। परमेश्वर में विश्वास करके वे सिर्फ लाभ, अनुग्रह और आशीष पाना चाहते हैं। वे अगले जीवन की परवाह नहीं करते क्योंकि वे इसे देख नहीं सकते और इसमें तनिक भी विश्वास नहीं करते। वे केवल इस जीवन में परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेना चाहते हैं और सभी आपदाओं से बचना चाहते हैं। चूँकि परमेश्वर और कलीसिया उनकी शरणस्थली हैं, इसलिए सभाओं में उनका जाना निश्चित रूप से तभी होता है जब वे कठिनाइयों या आपदाओं का सामना कर रहे हों। क्या ऐसे लोग परमेश्वर में ईमानदारी से विश्वास करने वाले हैं? (नहीं।) वे किस तरह के लोग हैं? (अवसरवादी और छद्म-विश्वासी।) ये छद्म-विश्वासी हैं जो आपदाओं से बचने के लिए कलीसिया का उपयोग करना चाहते हैं। क्या ऐसे लोगों को कलीसिया में रहने दिया जाना चाहिए? (नहीं।) जब वे सभाओं में आते हैं तो वे दूसरों को बाधित करते हैं और उन्हें आंतरिक रूप से परेशान करते हैं। अधिकांश लोग बहुत विनम्र होते हैं और उन्हें रोकने की कोशिश करने में शर्मिंदगी महसूस करते हैं, इसलिए वे उन्हें बकबक करने देते हैं और परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने में बाधा डालने देते हैं। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ऐसे मौकों पर क्या करना चाहिए? क्या उन्हें ऐसे लोगों पर रोक लगाने, अधिकांश लोगों के हितों की रक्षा करने और कलीसियाई जीवन को सामान्य बनाए रखने की जिम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए? (हाँ।) तुम उनसे परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें वापस ले सकते हो और उन्हें कलीसिया छोड़ने की सलाह दे सकते हो। किसी को कलीसिया छोड़ने के लिए राजी करने के कई तरीके हैं—तुम लोग खुद ये तरीके सोच सकते हो। बस यह सुनिश्चित करो कि वे भाई-बहनों से अब आगे संपर्क न कर सकें। मान लो कोई कहता है कि “यह व्यक्ति अच्छा है। वह कलीसिया में कुछ घरेलू तुच्छ विषयों पर बात करता है, लेकिन कलीसिया के काम में कोई बाधा नहीं डालता या हमारे कर्तव्य प्रदर्शन को प्रभावित नहीं करता, इसलिए हमें सहिष्णु होना चाहिए! परमेश्वर में विश्वास करने में क्या हमें सभी प्रकार के लोगों को सहन नहीं करना चाहिए? परमेश्वर चाहता है कि प्रत्येक व्यक्ति उद्धार पाए और वह नहीं चाहता कि कोई भी तबाही झेले!” तब तुम्हें यह विचार करना चाहिए कि क्या वे उद्धार के लक्ष्य हैं। अगर वे उद्धार के लक्ष्य नहीं हैं, तो क्या हमें उन्हें पहचान कर बाहर नहीं निकाल देना चाहिए? (हाँ।) कुछ लोग कहते हैं, “मैं बहुत विनम्र हूँ; मुझे उन्हें कलीसिया छोड़ने के लिए राजी करने में शर्मिंदगी महसूस होगी।” इस समस्या को हल करना आसान है। अगर तुम उनसे संपर्क ही नहीं करोगे, तो तुम उनसे बाधित या विवश नहीं होगे। अगर तुम्हारी उनसे मुलाकात हो भी जाती है, तो तुम्हें उनसे बात करने की जरूरत नहीं है। उनके साथ परमेश्वर में विश्वास करने के मामलों पर बात करने की कोई जरूरत नहीं है; बस उनके साथ अविश्वासियों जैसा व्यवहार करो। कुछ लोग कहते हैं, “क्या हम प्रेम से उनकी मदद नहीं कर सकते और जिन सत्यों को हम समझते हैं उन पर उनके साथ संगति नहीं कर सकते?” ऐसे छद्म-विश्वासियों के लिए, अगर तुममें वास्तव में प्रेम है, तो तुम एक कोशिश कर सकते हो। अगर तुम सचमुच उन्हें बदल सकते हो तो उन्हें बहिष्कृत या निष्कासित करने की जरूरत नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, “मैं व्यर्थ में प्रयास नहीं करूँगा। उनकी मदद करना बेकार है, यह वैसा ही है जैसे सुअर को नहलाना; चाहे तुम उसे कितना भी साफ धो दो, वह फिर भी कीचड़ में लोटेगा। यह बिल्कुल वैसा ही प्राणी है; यह नहीं बदलेगा!” अगर तुम इसे समझ सकते हो, तो तुम सही हो। क्या तुम अब भी ऐसे छद्म-विश्वासियों की मदद करने के लिए उनके साथ सत्य पर संगति करोगे? क्या तुम अब भी यह निरर्थक काम करोगे? (नहीं।) इस बिंदु पर तुम लोगों को एहसास होता है कि तुम मूर्ख थे और लोगों को नहीं समझ पाए थे। छद्म-विश्वासी बदल नहीं सकते। ये लोग यह भी जानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोग सत्कर्म करते हैं और कुकर्म करने से बचते हैं, वे दूसरों को धमकाते या ठगते नहीं है। वे परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोगों के बारे में अच्छी धारणा रखते हैं, इसलिए वे “परमेश्वर के होने में विश्वास रखने” और “परमेश्वर में विश्वास करना अच्छा है” के झंडे तले भेष बदल कर कलीसिया में घुस जाते हैं, जिससे लोग उन्हें भाई या बहन समझने लगते हैं। कुछ लोग वास्तव में इससे प्रभावित हो जाते हैं, उन्हें सचमुच भाई या बहन मानते हैं, अक्सर उनसे मिलने जाते हैं और उनकी मदद करते हैं। लंबे समय के बाद ही उन्हें एहसास होता है : “यह व्यक्ति कलीसिया में केवल तब आता है जब वह आपदाओं या कठिनाइयों का सामना कर रहा होता है, और बेकार और निरर्थक बातें करता है। जब चीजें सुचारू रूप से चल रही होती हैं और उसके लिए सब कुछ ठीक होता है, जब उसका जीवन अच्छा होता है, तो वह सभी की अनदेखी करता है। अगर हमें पहले पता होता कि वह इतना बदमाश है, तो हम उसकी मदद नहीं करते या इतना प्रयास नहीं करते!” अब पछताने से क्या कोई फायदा है? पछतावे के लिए बहुत देर हो चुकी है—तुम पहले ही बहुत कुछ व्यर्थ में बोल चुके हो! संक्षेप में, ऐसे छद्म-विश्वासियों की जल्द से जल्द पहचान की जानी चाहिए, उनसे निपटा जाना चाहिए और उन्हें कलीसिया से बाहर निकाल दिया जाना चाहिए। उन्हें भाई-बहन मत समझो; वे भाई-बहन नहीं हैं। केवल वे लोग जो परमेश्वर द्वारा चुने गए हैं, वे ही भाई-बहन हैं; केवल वे लोग जो बचाए जा सकते हैं और जो परमेश्वर की आराधना करते हैं, वे ही भाई-बहन हैं। जो लोग आपदाओं से बचने के लिए परमेश्वर के घर में मंडराते रहते हैं और सत्य स्वीकार किए बिना लालची होकर परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेते हैं, वे छद्म-विश्वासी हैं। वे भाई-बहन नहीं हैं, और निश्चित ही वे परमेश्वर के चुने हुए लोग नहीं हैं। क्या तुम यह बात समझते हो? ऐसे छद्म-विश्वासियों के साथ सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार किया जाना चाहिए; उनका यथोचित निपटारा किया जाना चाहिए। अगुआओं और कार्यकर्ताओं की यही जिम्मेदारी है, और यह एक सिद्धांत भी है जिसके बारे में परमेश्वर के चुने हुए सभी लोगों को स्पष्ट होना चाहिए।
23 अक्तूबर 2021
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