अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (22) खंड दो

III. कलीसिया की परिभाषा

कलीसिया क्या है इस विषय पर संगति करने के बाद, अब तुम लोगों को कलीसिया के गठन, कलीसिया द्वारा किए जाने वाले कार्य और इससे प्राप्त होने वाले परिणामों के बारे में कुछ समझ आ गई होगी। अब तुम लोग कलीसिया के अस्तित्व के मूल्य और महत्व को भी थोड़ा समझ सकते हो। तो, क्या अब हम इसकी एक सटीक परिभाषा बना सकते हैं कि वास्तव में कलीसिया क्या है? सबसे पहली बात तो यह है कि कलीसिया लोगों को भावनात्मक सांत्वना प्रदान करने की जगह नहीं है, और न ही यह लोगों को भोजन और वस्त्र प्रदान करने या शरण देने की कोई जगह है। कलीसिया लोगों के शारीरिक अधिकारों और हितों को सुनिश्चित करने या उनके जीवन की कठिनाइयों को हल करने की जगह नहीं है। यह लोगों के आध्यात्मिक खालीपन को भरने और उन्हें आध्यात्मिक पोषण प्रदान करने की जगह भी नहीं है। चूँकि कलीसियाएँ वह नहीं हैं जो लोग अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार उन्हें मानते हैं, तो फिर कलीसिया की विशिष्ट परिभाषा क्या है? कलीसिया वास्तव में क्या है? बाइबल में, प्रभु यीशु ने कलीसिया शब्द का एक बुनियादी विवरण दिया है। उसने इसे ठीक किस तरह से समझाया है? (“क्योंकि जहाँ दो या तीन मेरे नाम पर इकट्ठा होते हैं, वहाँ मैं उनके बीच में होता हूँ” (मत्ती 18:20)।) इन शब्दों का मतलब है कि चाहे कितने भी लोग एकत्रित हों, जब तक उनके पास पवित्र आत्मा का कार्य है और वे परमेश्वर को अपने साथ महसूस करते हैं, वह स्थान एक कलीसिया है—बिल्कुल यही बात है। अंत के दिनों में, परमेश्वर कार्य करने और सत्य व्यक्त करने के लिए प्रकट हुआ है। जब लोग परमेश्वर के वचन को खाने और पीने, प्रार्थना करते हुए उन्हें पढ़ने और उन पर संगति करने के लिए इकट्ठा होते हैं, तब परमेश्वर वहाँ मौजूद होता है, और पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता भी वहाँ होती है, जिसका मतलब है कि परमेश्वर इसे एक कलीसिया के रूप में पहचानता है। अगर लोग इकट्ठा होते हैं लेकिन परमेश्वर के वचन खाते और पीते नहीं हैं, अगर वे केवल आध्यात्मिक सिद्धांतों की तोतारटंत हैं और वे पवित्र आत्मा के कार्य को महसूस नहीं कर पाते हैं, तो यह एक कलीसिया नहीं है, क्योंकि परमेश्वर इसे कलीसिया के रूप में नहीं पहचानता है और इसलिए इसमें पवित्र आत्मा का कार्य नहीं होता है। वे सभाएँ जहाँ परमेश्वर उपस्थित होता है, वे उसके द्वारा आशीषित और निर्देशित होती हैं, और जब लोग ऐसी सभाओं में इकट्ठा होते हैं, चाहे वे परमेश्वर के वचन को खा और पी रहे हों, सत्य पर संगति कर रहे हों, या समस्याओं को हल करने के लिए सत्य का उपयोग कर रहे हों, ये सभी परमेश्वर की अपेक्षाओं और अगुआई से जुड़े होते हैं और इसलिए वे सभी उसके द्वारा आशीष पाते हैं। इसलिए, जब तक किसी प्रकार की सभा में परमेश्वर का मार्गदर्शन, अगुआई, और उपस्थिति होती है, इसे एक कलीसिया कहा जा सकता है। यह कलीसिया की सबसे सरल और बुनियादी परिभाषा है, और यह अनुग्रह के युग में कलीसिया की परिभाषा थी। यह उस समय परमेश्वर के कार्य के संदर्भ में अस्तित्व में आई थी, और इसलिए यह सटीक है और सत्य है। लेकिन अंतिम दिनों में न्याय के इस कार्य के चरण में, क्योंकि परमेश्वर ने अधिक वचन कहे हैं और अधिक बड़े कार्य किए हैं, इसलिए कलीसिया की परिभाषा अनुग्रह के युग की उस बुनियादी परिभाषा से अधिक गहरी होनी चाहिए। परमेश्वर का कार्य अब और आगे बढ़ चुका है। एक कलीसिया अब केवल पवित्र आत्मा के कार्य और परमेश्वर की उपस्थिति से नहीं जुड़ी है। अब परमेश्वर स्वयं अपनी कलीसियाओं में कार्य कर रहा है, उनकी अगुआई और उनका मार्गदर्शन कर रहा है; परमेश्वर के चुने हुए लोग उसके वर्तमान वचनों को खाते और पीते हैं और मसीह का अनुसरण करते हुए उसके हक में गवाही देते हैं। इसलिए, अंतिम दिनों में कलीसिया की परिभाषा अनुग्रह के युग की तुलना में अधिक उन्नत है; यह पहले से अधिक गहरा, अधिक सटीक और अधिक विशिष्ट विवरण है, और यह निश्चित रूप से सत्य और परमेश्वर के वचनों से अवियोज्य है। तो फिर एक कलीसिया को परिभाषित करने का सबसे सटीक और उचित तरीका क्या है? पहली बात, इसकी बुनियादी परिभाषा यह होनी चाहिए कि यह उन लोगों का एक समूह है जो खराई से परमेश्वर का अनुसरण करते हैं। अधिक स्पष्टता के साथ कहें तो कलीसिया का मतलब है लोगों का एक समूह जो खराई से परमेश्वर का अनुसरण करता है, जो उसके वचनों द्वारा शासित होता है, सत्य का अनुसरण करता है, उसके वचनों का अभ्यास और अनुभव करता है, परमेश्वर की आज्ञा का पालन और उसकी आराधना करता है, उसकी इच्छा पर चलता है और उसका उद्धार प्राप्त करता है। इस परिभाषा का मुख्य हिस्सा है “लोगों का एक समूह”। कलीसिया कोई स्थान, समूह या समुदाय नहीं है, और न ही यह सिर्फ आस्था रखने वाले लोगों का एक साधारण जमावड़ा है। यह “समूह” एक दर्जन या उससे अधिक लोगों का हो सकता है या तीस से पचास लोगों का हो सकता है और निश्चित रूप से इससे भी बड़ी संख्या का हो सकता है। वे एक साथ भी सभा कर सकते हैं या छोटे समूहों में विभाजित होकर भी सभा कर सकते हैं; यह लचीला होता है और परिवर्तनीय भी होता है। संक्षेप में कहें तो, जब परमेश्वर के ये अनुयायी उसका गुणगान करते हैं, उसके हक में गवाही देते हैं, उसकी आराधना करते हैं, और उसकी इच्छा का पालन करते हैं, तो वे एक कलीसिया हैं। चाहे उनमें से कितने भी लोग सभा करें, वे फिर भी एक कलीसिया ही हैं। उदाहरण के लिए, 50 लोगों को एक छोटी कलीसिया कहा जाता है, और 100 लोगों को एक बड़ी कलीसिया कहा जाता है—कलीसिया का आकार उसके सदस्यों की संख्या से निर्धारित होता है। बड़ी, मध्यम और छोटी कलीसियाएँ होती हैं, कलीसिया में लोगों की संख्या निश्चित नहीं होती। आओ, कलीसिया की परिभाषा पर एक बार और नजर डालें : लोगों का एक समूह जो खराई से परमेश्वर का अनुसरण करता है, जो उसके वचनों द्वारा शासित होता है, सत्य का अनुसरण करता है, उसके वचनों का अभ्यास और अनुभव करता है, परमेश्वर की आज्ञा का पालन और उसकी आराधना करता है, उसकी इच्छा पर चलता है और उसका उद्धार प्राप्त करता है। कलीसिया को इस तरह परिभाषित क्यों किया जाता है? क्योंकि परमेश्वर कलीसियाओं में काम करना चाहता है, और परमेश्वर उस समूह के लोगों को बचाना चाहता है। केवल इस प्रकार के लोगों के समूह को ही कलीसिया कहा जा सकता है। और यह केवल तभी संभव है जब इस तरह के लोगों का एक समूह एक-साथ आकर सामान्य रूप से परमेश्वर के वचनों को खा और पी सकता है और उनका अभ्यास कर सकता है, और वास्तव में परमेश्वर से प्रार्थना कर सकता है, उसके प्रति समर्पण कर सकता है, और उसकी आराधना कर सकता है। लोगों का वह समूह परमेश्वर के वचनों द्वारा शासित और संचालित होता है, इसलिए, ऐसे लोगों के समूह के माध्यम से ही कलीसिया की परिभाषा निर्मित होती है। चूँकि धर्मों के लोग सत्य स्वीकार नहीं करते और न ही परमेश्वर का कार्य स्वीकार करते हैं और परमेश्वर उन्हें नहीं बचाता, इसलिए वे एक कलीसिया नहीं हैं, बल्कि वे एक धार्मिक समुदाय हैं। यही एक कलीसिया और धर्म के बीच का सबसे स्पष्ट अंतर है। केवल एक कलीसिया ही परमेश्वर के वचनों द्वारा शासित होती है, और केवल वही कलीसिया परमेश्वर के वचनों द्वारा शासित होती है जिसकी मसीह व्यक्तिगत रूप से चरवाही करता है। परमेश्वर के वचनों द्वारा शासित होने का क्या मतलब है? क्या हमें यहाँ पवित्र आत्मा के कार्य, या पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन, प्रबुद्धता, और प्रकाश का उल्लेख करने की आवश्यकता है? (नहीं।) मुझे बताओ, अधिक व्यावहारिक क्या है : परमेश्वर के वचनों द्वारा शासित होना या पवित्र आत्मा का कार्य होना? (परमेश्वर के वचनों द्वारा शासित होना।) परमेश्वर के वचनों द्वारा शासित होना अधिक व्यावहारिक और ठोस है। पवित्र आत्मा का कार्य केवल लोगों को कुछ प्रबुद्धता और प्रकाश प्रदान करता है ताकि वे सत्य समझ सकें और परमेश्वर के वचनों में अभ्यास के सिद्धांतों को खोज सकें। इसका परिणाम यह होता है कि वे परमेश्वर के वचनों द्वारा शासित होते हैं। अगर पवित्र आत्मा कार्य नहीं करता, तो भी क्या लोग परमेश्वर के वचनों को समझकर और सिद्धांतों को पकड़कर अपने कर्तव्यों को पूरा कर सकते हैं? (हाँ।) अब, परमेश्वर के वचन बहुत अधिक बोले जा चुके हैं; लोग अक्सर उपदेश सुनते हैं और परमेश्वर के वचन समझ सकते हैं। पवित्र आत्मा के कार्य के बिना भी लोग यह जानते हैं कि उन्हें क्या करना है। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं, वे परमेश्वर के वचनों का अभ्यास कर सकते हैं और जब तक वे सत्य समझते हैं, तब तक परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण कर सकते हैं। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, वे परमेश्वर के वचनों को सुनने के बाद भी उन्हें नहीं समझेंगे, और अगर थोड़ा बहुत समझ भी लेते हैं, तो वे उनका अभ्यास करने के इच्छुक नहीं होंगे, और इस प्रकार केवल हटा दिए जाएँगे। अंत के दिनों में, परमेश्वर सत्य को सीधे व्यक्त करके लोगों की व्यक्तिगत रूप से अगुआई और चरवाही करता है। पवित्र आत्मा का कार्य केवल सहायक होता है। यह वैसा ही है जैसे जब कोई बच्चा चलना सीख रहा होता है; कभी-कभी एक वयस्क उसकी मदद के लिए हाथ बढ़ाता है। एक बार जब बच्चा स्थिरता से चलने और दौड़ने लगता है, तो फिर उसे सहारा देने की जरूरत नहीं होती। इसलिए, पवित्र आत्मा का कार्य न तो अनिवार्य है, और न ही यह महत्वपूर्ण है। जब लोग परमेश्वर के वचनों द्वारा शासित होते हैं, तो इसका मतलब यह होता है कि वे परमेश्वर के वचन समझते हैं, सत्य समझते हैं, और यह जानते हैं कि परमेश्वर के वचनों का क्या मतलब है और परमेश्वर द्वारा लोगों से अपेक्षित सिद्धांत और मानक क्या हैं, और वे इन सिद्धांतों और मानकों को समझकर उन्हें लागू कर सकते हैं। लोगों के दिलों का परमेश्वर के वचनों द्वारा शासित होने का यही मतलब होता है। परमेश्वर पहले ही इन बातों को पर्याप्त स्पष्टता और सटीकता के साथ बता चुका है, इसलिए यहाँ पवित्र आत्मा के कार्य का उल्लेख करने की कोई आवश्यकता नहीं है। अंतिम दिनों में, परमेश्वर ने इतने सारे सत्य व्यक्त किए हैं, प्रत्येक सत्य को लोगों के लिए स्पष्ट और समझने योग्य बना दिया है। इसलिए, पवित्र आत्मा का कार्य उतना महत्वपूर्ण नहीं है और केवल सहायक है। जब लोग सत्य नहीं समझते या जब परमेश्वर ने इतनी गहराई और स्पष्टता के साथ इतने वचन नहीं बोले होते, केवल तभी पवित्र आत्मा कुछ सहायक, प्रेरक प्रकृति का कार्य करता है, जो कि स्वाभाविक रूप से लोगों को थोड़ी सरल प्रबुद्धता प्रदान करता है और उन्हें थोड़ा प्रेरित करता है, जिससे उन्हें सही विकल्प चुनने और अपने जीवन और विभिन्न वातावरणों में सही मार्ग पर चलने में मदद मिलती है। अब परमेश्वर के वचनों का युग है, जहाँ परमेश्वर स्वयं मनुष्यों की अगुआई करने के लिए बोलता है, और परमेश्वर के वचन हर चीज पर प्रभुत्व रखते हैं। पवित्र आत्मा का कार्य केवल सहायक होता है। जब लोग सत्य समझते हैं, परमेश्वर के वचनों का अभ्यास कर सकते हैं, और परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीते हैं, तब परमेश्वर के इरादे संतुष्ट होते हैं।

आओ, कलीसिया की बुनियादी परिभाषा के पहले वाक्यांश पर नजर डालते हैं : “खराई से परमेश्वर का अनुसरण करता है।” यह “खराई से” एक विशेष अर्थ रखता है। इसका तात्पर्य उन लोगों से नहीं है जो केवल समय गुजार रहे हैं, केवल नाम मात्र के सदस्य हैं, जो केवल रोटियाँ तोड़ रहे हैं, जो उद्धार के लिए अनुग्रह पर आश्रित हैं, या जिनके कोई छिपे हुए उद्देश्य और लक्ष्य हैं। तो, “खराई से” का क्या अर्थ है? सबसे बुनियादी और सरल व्याख्या यह है : जैसे ही कोई परमेश्वर, सत्य या सृष्टिकर्ता के बारे में सुनता है, उसके दिल में एक लालसा उत्पन्न होती है, वह स्वेच्छा से त्याग करता है, स्वेच्छा से खुद को समर्पित करता है, स्वेच्छा से कष्ट सहता है, और परमेश्वर की पुकार स्वीकार करने के लिए परमेश्वर के सामने आने और परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए सब कुछ त्यागने को तैयार रहता है। जब तक उसके पास एक खरा दिल है, यह पर्याप्त है। कुछ लोग कहते हैं : “तुम यह क्यों नहीं कहते कि यह परमेश्वर का अनुसरण करने वाले आस्था से भरे लोगों का एक समूह है?” लोग उस स्तर तक नहीं पहुँच सकते। जो लोग अभी अपने कर्तव्यों का पालन कर रहे हैं, उनमें से कुछ लगभग दस वर्षों से विश्वास कर रहे हैं, और कुछ बीस या तीस वर्षों से; उनके पास यह वास्तविकता होना मूल रूप से पर्याप्त है। इसे आस्था से भरा होने के रूप में परिभाषित करना सटीक नहीं है। हमारी कलीसिया की परिभाषा एक बुनियादी और विशिष्ट स्थिति पर आधारित है, बिना शब्दों की नुक्ताचीनी किए या परिभाषा और मानक को बहुत ऊँचा निर्धारित किए, क्योंकि ऐसा करना अव्यवहारिक होगा। कुछ लोग कहते हैं, “सिर्फ ‘खराई से’ और ‘आस्था से भरा’ कहना पर्याप्त नहीं है। इसे परमेश्वर का भय मानने वाले और बुराई से दूर रहने वाले धार्मिक लोगों का एक समूह कहा जाना चाहिए—यह बेहतर होगा!” अगर हम मानक को इतना ऊँचा निर्धारित करते हैं, तो इसके बाद वाले वाक्यांश, “सत्य का अनुसरण करता है, उसके वचनों का अभ्यास और अनुभव करता है,” सभी अनावश्यक हो जाएँगे। मुख्य बात यह है कि कलीसिया के सभी सदस्य वे हैं जिन्हें परमेश्वर बचाना चाहता है। लोगों का यह समूह शैतान के भ्रष्ट स्वभावों से भरा हुआ है और परमेश्वर के बारे में धारणाओं और कल्पनाओं से भरा हुआ है। अधिक यथार्थवादी ढंग से कहूँ तो, वे विद्रोह से भरे हुए हैं, उनमें समर्पण की कमी है, वे सत्य नहीं समझते, और उन्हें परमेश्वर का कोई ज्ञान नहीं है—यह सबसे अधिक वास्तविक स्थिति है। इसलिए, परमेश्वर की नजरों में, कलीसिया के सदस्यों की ऐसी वास्तविक स्थिति और असल हैसियत है। परमेश्वर द्वारा लोगों का चयन इस बुनियादी शर्त पर आधारित होता है : क्या वे खराई से परमेश्वर का अनुसरण कर सकते हैं, और खुद को सच्चे मन से खपा सकते हैं और त्याग सकते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “अगर वे खरे हैं, तो फिर भी उनके पास अब भी अत्यधिक इच्छाएँ क्यों हैं? अगर वे खरे हैं, तो वे अब भी आशीष क्यों प्राप्त करना चाहते हैं?” जैसे-जैसे लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव करेंगे, ये चीजें धीरे-धीरे बदल जाएँगी। अभी, हम कलीसिया की बुनियादी अवधारणा को परिभाषित कर रहे हैं। यह बुनियादी अवधारणा परमेश्वर द्वारा चुने गए लोगों के लिए न्यूनतम आवश्यकता और सबसे निम्न मानक है। ये मानक बिल्कुल भी खोखले नहीं हैं या बढ़ा-चढ़ाकर नहीं बताए गए हैं; ये विशेष रूप से तुम लोगों की वास्तविक स्थिति के अनुरूप हैं। दूसरे शब्दों में, जब परमेश्वर तुम लोगों को चुनता है और तुम लोगों में से किसी को भी बचाने का निर्णय करता है, तो यही वे मानदंड होते हैं जिन पर परमेश्वर गौर करता है। अगर तुम इन अपेक्षाओं को पूरा करते हो, तो तुम परमेश्वर के द्वारा परमेश्वर के घर में लाए जाते हो और तुम कलीसिया के सदस्य बन जाते हो। यही वास्तविक स्थिति है। इसलिए, कलीसिया की परिभाषा में पहला वाक्यांश है “खराई से परमेश्वर का अनुसरण करता है”; यह अपेक्षाकृत सटीक है। ये लोग परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में असफल रहते हैं, वे अंधकारमय प्रभाव से पूरी तरह बाहर निकलने में असफल रहते हैं, और वे संसार और बड़े लाल अजगर के खिलाफ पूरी तरह विद्रोह करने में असफल रहते हैं। वे इन सभी चीजों में असफल रहते हैं। ऐसा क्यों है? क्योंकि इस परिभाषा में आगे परमेश्वर के वचनों के अभ्यास का प्रयास करने में सक्षम होने का उल्लेख किया गया है। इस प्रयास करने की प्रक्रिया में, लोग परमेश्वर के वचनों का अनुभव और अभ्यास कर सकते हैं, क्योंकि उनके दिल में सत्य से प्रेम करने और सत्य के लिए तरसने का भाव होता है, और अंततः, वे परमेश्वर की आराधना कर सकते हैं। परमेश्वर की आराधना करने में परमेश्वर के प्रति समर्पण करना, उसके वचनों को सुनना, उसके आयोजनों को स्वीकार करना, और उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं को स्वीकार करना शामिल है। अंततः, लोगों का यह समूह उद्धार प्राप्त कर सकता है। यह परमेश्वर की नजरों में कलीसिया के सदस्यों की वास्तविक स्थिति है। क्या यह सबसे बुनियादी शर्त नहीं है? (बिल्कुल है।) कुछ लोग कहते हैं, “तुमने शैतान के भ्रष्ट स्वभावों को त्यागने और शुद्धिकरण प्राप्त करने का उल्लेख नहीं किया। कलीसिया की इस परिभाषा में ये सब शामिल नहीं हैं।” क्या ये इस परिभाषा में शामिल हैं? (हाँ, हैं।) उन्हें किस भाग में शामिल किया गया है? परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने का प्रयास करना। अगर तुम परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने का प्रयास कर सकते हो, तो क्या तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव धीरे-धीरे हल नहीं हो जाते? क्या तुम शैतान के भ्रष्ट स्वभावों को त्यागने और स्वभाव में परिवर्तन प्राप्त करने में सक्षम नहीं हो जाते? (हाँ।) स्वभाव में परिवर्तन प्राप्त करने की अवधि के दौरान, तुम धीरे-धीरे परमेश्वर के वचन समझते हो और अपने भ्रष्ट स्वभाव हल करते हो। जब तुम अपने कुछ भ्रष्ट स्वभाव हल कर रहे होते हो, क्या तुम्हारी परमेश्वर में आस्था और परमेश्वर के प्रति समर्पण बढ़ता है? क्या इनमें कोई संबंध है? (बिल्कुल है।) जितनी अधिक तुम परमेश्वर की आराधना करते हो, उतना ही अधिक तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण अनुभव करते हो। जैसे-जैसे तुम्हारा परमेश्वर के प्रति समर्पण बढ़ता है, क्या तुम उद्धार प्राप्त करने के करीब नहीं पहुँच रहे हो? (हाँ।) तो, यह समूह किस तरह के लोगों का है? ये वे लोग हैं जो उद्धार प्राप्त कर सकते हैं। यही कलीसिया के सदस्यों की वास्तविक स्थिति है। कुछ लोग कहते हैं, “कलीसिया की इस परिभाषा में यह उल्लेख नहीं है कि कलीसिया क्या कार्य करती है।” क्या इसमें कोई भाग है जो कलीसिया द्वारा किए जाने वाले आवश्यक कार्य से संबंधित है? (उद्धार प्राप्त करने का अनुसरण करना।) यह भाग कलीसिया द्वारा किए जाने वाले आवश्यक कार्य से बहुत करीब से जुड़ा हुआ है। एक कलीसिया का जो कार्य है, चाहे वह परमेश्वर के वचनों का प्रसार करना हो या परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने के लिए लोगों का मार्गदर्शन करना हो, स्वयं को जानने और शैतान के भ्रष्ट स्वभावों को त्यागने में लोगों की मदद करना हो, अंततः इसका उद्देश्य उद्धार प्राप्त करने में लोगों की मदद करना होता है। तो क्या तुम लोग अब कलीसिया के इस सबसे बुनियादी और सरल सिद्धांत को स्वीकार कर सकते हो? (हाँ।) यह परिभाषा न तो बढ़ा-चढ़ा कर है और न ही खोखली है, और न ही यह बड़े-बड़े शब्दों और वाक्यांशों का उपयोग करती है, बल्कि इसमें कलीसिया के गठन या उसकी परिभाषा के लिए सबसे बुनियादी आवश्यकताओं को शामिल किया गया है।

अब जबकि मैंने तुम लोगों को कलीसिया की अवधारणा की परिभाषा के पीछे की पृष्ठभूमि समझा दी है तो क्या यह तुम लोगों की समझ में आ गई है? (हाँ।) अगर मैंने इसे इस तरह नहीं समझाया होता तो तुम लोगों को लगता कि कलीसिया का आवश्यक कार्य और कलीसिया की परिभाषा बहुत गहन है। अब जबकि तुमने कलीसिया की परिभाषा को समझ लिया है तो तुम्हें लगता है कि कलीसिया के बारे में तुम्हारी समझ बहुत सतही है। कलीसिया की परिभाषा स्पष्ट कर दी गई है—यह बहुत व्यावहारिक है। चीजें जितनी अधिक व्यावहारिक होती हैं, लोग अक्सर उन्हें उतनी ही अधिक सतही महसूस करते हैं। वास्तव में, अगर तुम करीब से देखो, तो इस परिभाषा का हर शब्द व्यावहारिक और विशिष्ट परिस्थितियों से जुड़ा हुआ है और उनसे निकटता से संबंधित है, और यह बिल्कुल भी सतही नहीं है। कलीसिया की परिभाषा में पहला वाक्यांश है “खराई से परमेश्वर का अनुसरण करता है”। परमेश्वर यही “खराई से” तो चाहता है। कितने लोग ऐसा खरापन रखते हैं? क्या लोगों के लिए ऐसा खरापन रखना आसान होता है? यह आसान नहीं है। जहाँ तक “उसके वचनों द्वारा शासित” होने की बात है, क्या तुमने इसे हासिल कर लिया है? तुम्हें लगता है कि यह वाक्यांश सतही है और आसानी से प्राप्त किया जा सकता है। अगर परमेश्वर कहता है, “उठो, मेरा अनुसरण करो और अपना कर्तव्य निभाओ” और लोग उसकी आज्ञा मानते हैं तो क्या इसका मतलब यह है कि वे परमेश्वर के वचनों के द्वारा शासित हैं? इसका मतलब केवल यही है कि लोग परमेश्वर में विश्वास करने और उसका अनुसरण करने के लिए तैयार हैं, लेकिन वे अभी तक उस मुकाम तक नहीं पहुँचे हैं जहाँ वे परमेश्वर के वचनों द्वारा शासित हो सकें—वे अभी भी इससे बहुत दूर हैं! परमेश्वर के वचनों द्वारा शासित होने के लिए तुम्हारे पास क्या होना चाहिए? इसके लिए न्यूनतम आवश्यकता यह है कि तुम्हें परमेश्वर के वचनों को समझना चाहिए; तुम्हें यह पता होना चाहिए कि परमेश्वर के वचनों में बताई गई अपेक्षाएँ किन संदर्भों से संबंधित हैं, परमेश्वर के वचनों द्वारा किन सिद्धांतों की अपेक्षा की जाती है, और विभिन्न लोगों, घटनाओं, और चीजों का सामना करते समय, परमेश्वर के वचनों को कैसे लागू करना है, और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए परमेश्वर के वचनों को अपने अभ्यास में कैसे बदलना है। यह आसान नहीं है। धीरे-धीरे परमेश्वर के वचनों के द्वारा कुछ हद तक शासित होने के लिए परमेश्वर के वचनों का लंबे समय तक खाना और पीना, प्रार्थना-पाठ, उनका अनुभव करना, और उन्हें समझना, और परमेश्वर के इरादों और परमेश्वर के स्वभाव को समझना आवश्यक है। इसलिए, यह वाक्यांश “उसके वचनों द्वारा शासित होता है” सतह पर तो सरल लगता है, जैसे कि अधिकांश लोग परमेश्वर के वचनों के द्वारा ही शासित होते हैं, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। लोगों की वास्तविक स्थितियों से यह स्पष्ट होता है कि यह वाक्यांश केवल परमेश्वर की लोगों से अपेक्षाएँ हैं, जिन्हें वे अभी तक बिल्कुल भी प्राप्त नहीं कर पाए हैं। अगला वाक्यांश, “उसके वचनों का अभ्यास करने का प्रयास करना,” लोगों से परमेश्वर की अपेक्षा है। तुमने अभी तक परमेश्वर के वचनों का अभ्यास प्राप्त नहीं किया है; तुम केवल परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने का प्रयास कर रहे हो। तुम्हें इसका प्रयास कैसे करना चाहिए? जब तुम्हारा सामना किसी स्थिति से हो, तो परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास करो। झूठ मत बोलो; एक ईमानदार व्यक्ति बनो। क्या तुम ऐसा कर सकते हो? यह करना आसान नहीं है। जब तुम्हारी काट-छाँट की जाती है, तो तुम्हें समर्पण करने में सक्षम होना चाहिए, आत्मचिंतन करना चाहिए और खुद को जानना चाहिए, और सत्य के अनुसार अभ्यास करना चाहिए। क्या तुम ऐसा कर सकते हो? अगर यह करना कठिन महसूस होता है या तुम्हारी अपनी इच्छा बहुत प्रबल है और तुम हमेशा अपने उतावलेपन को प्रकट होने देना चाहते हो, तो तुम्हें सिद्धांतों के अनुसार मामलों से निपटने का प्रयास करना चाहिए और अपने उतावलेपन को प्रकट नहीं करना चाहिए या मनमाने और स्वेच्छाचारी तरीके से कार्य नहीं करना चाहिए; तुम्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करना चाहिए, काट-छाँट को स्वीकार करना चाहिए, अपने अपराधों को जानना चाहिए और यह समझना चाहिए कि तुम कहाँ गलत थे। इसे कहते हैं परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने का प्रयास करना। क्या परमेश्वर के वचनों का अभ्यास शुरू करना यह दर्शाता है कि किसी व्यक्ति में परिवर्तन आ गया है? यह इतना सरल नहीं है। अगर तुम्हें एक अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में चुना जाता है, तो क्या तुम मनमाने और स्वेच्छापूर्ण ढंग से कार्य करने से बच सकते हो? यह आसान नहीं है; इसके लिए आवश्यक है कि तुम लोग सत्य समझो, परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने में सक्षम बनो और एक निश्चित अवधि तक इसका अनुभव करो; तभी तुम लोग इसे प्राप्त कर सकते हो। अगर तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना चाहते हो, लेकिन यह केवल तुम्हारी मौखिक इच्छा है और तुम्हारे दिल में कोई प्रेरणा नहीं है, तो फिर यह पर्याप्त नहीं है। जब तुम्हारा दिल तैयार हो, और तुम वास्तव में सत्य का अभ्यास करना चाहते हो, तो फिर तुम सत्य को अभ्यास में ला सकते हो। लेकिन जब तुम्हारे दिल में सत्य का अभ्यास करने की इच्छा ही न हो, तो फिर चाहे तुम कसम भी खा लो या दूसरे लोग तुम्हारी मदद भी करें, तो यह सब बेकार ही होगा। तुम्हारे अंदर दृढ़ संकल्प होना चाहिए, अर्थात, तुम्हारे दिल में परमेश्वर को प्राप्त करने के प्रति गहरी इच्छा होनी चाहिए। तुम्हें यह पता होना चाहिए कि परमेश्वर किसी मामले को कैसे परिभाषित करता है और उसके संबंध में उसकी क्या अपेक्षाएँ हैं, इस पहलू से संबंधित परमेश्वर के सभी वचनों को ढूँढ़कर एकत्रित करो और फिर प्रार्थना करते हुए उन्हें पढ़ो और समझो। उन्हें एक कॉपी में लिखो या ऐसी जगह लटका दो जहाँ पर तुम उन्हें आसानी से देख सको। अपने काम के ब्रेक के दौरान उन्हें देखो, पढ़ो और समय के साथ-साथ, तुम परमेश्वर के इन वचनों को याद कर लोगे और उन्हें अपने दिल में रखोगे। हर दिन परमेश्वर के वचनों के सही मतलब पर विचार करो और सोचो कि वास्तव में किस तरह से बोलना और कार्य करना परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना कहलाता है। इसे कहते हैं परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने का प्रयास करना। क्या इसे हासिल करना आसान है? यह आसान नहीं है; यह ऐसा नहीं है जिसे एक ही रात में या एक बार के प्रयास से पूरा किया जा सके। कुछ लोग कहते हैं, “मैं खून की कसम खाता हूँ,” लेकिन इसका कोई फायदा नहीं है। तुम कहते हो, “मैं उपवास करूँगा और बिना खाए-पीए प्रार्थना करूँगा,” लेकिन इसका कोई फायदा नहीं है। तुम कहते हो, “मैं सारी रात जागकर कष्ट उठाऊँगा,” लेकिन इसका कोई फायदा नहीं है। तुम्हें सत्य का अनुसरण करना चाहिए; तुम्हारे अंदर सत्य का अनुसरण करने की अभिव्यक्तियाँ होनी चाहिए, और तुम्हारे पास सत्य का अनुसरण करने का एक मार्ग होना चाहिए; तुम्हारे पास सही साधन और तरीके होने चाहिए। चाहे तुम्हारे पास किसी भी प्रकार के साधन या तरीके हों, तुम परमेश्वर के वचनों से पीछे नहीं हट सकते; तुम्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार प्रयास करना चाहिए, हर चीज की तुलना परमेश्वर के वचनों से करनी चाहिए, हर परिस्थिति में समस्याओं को हल करने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग करना चाहिए और परमेश्वर के वचनों को ही अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता बनाना चाहिए। इसे कहते हैं सत्य का अनुसरण करना। उदाहरण के लिए, दूसरों के साथ बातचीत करते समय तुम्हें यह देखना चाहिए कि इस बारे में परमेश्वर के वचन क्या कहते हैं और दूसरों के साथ बातचीत करने से संबंधित परमेश्वर के वचनों को ढूँढ़ना चाहिए। सामंजस्यपूर्ण सहयोग के लिए, इस पहलू से संबंधित परमेश्वर के वचनों को भी खोजो। अपने कर्तव्य वफादारी से निभाने के बारे में, मानक स्तर के अनुरूप कर्तव्य कैसे निभाना है, इससे संबंधित परमेश्वर के वचनों को ढूँढ़ो और परमेश्वर के आवश्यक वचनों को याद करो, उन्हें अपने दिल में रखो। जहाँ तक यह बात है कि एक झूठा अगुआ क्या होता है, झूठे अगुआओं में कौन-सी अभिव्यक्तियाँ होती हैं, क्या उनमें अंतरात्मा और सूझ-बूझ होती है या नहीं और परमेश्वर झूठे अगुआओं को कैसे चित्रित करता है, परमेश्वर के इन सभी प्रमुख वचनों को खोजो और उन्हें एक कॉपी में लिखो, उन्हें ऐसी जगह पर लटका दो जहाँ पर तुम उन्हें आसानी से देख सको और जब भी समय मिले, प्रार्थना करते हुए उन्हें पढ़ो। तुम्हारे जीवन प्रवेश और स्वभाव परिवर्तन से संबंधित हर मामले के लिए, इसी तरह अभ्यास करो और प्रयास करो। इसे कहते हैं सत्य का अनुसरण करना। अगर तुम्हारा प्रयास इस स्तर तक नहीं पहुँचता, तो फिर इसे सत्य का अनुसरण करना नहीं कहा जा सकता; इसे आधे-अधूरे मन से काम करना, सतही रूप से काम करना और बस जैसे-तैसे अपने दिन बिताना कहा जाता है।

चलो अब “परमेश्वर की आराधना करता है” को देखते हैं। परमेश्वर की आराधना करने में वास्तविक भय, आदर, सम्मान, और वास्तविकता शामिल होती है, साथ ही इसमें परमेश्वर को परमेश्वर मानना, अपने दिल में परमेश्वर के लिए एक खास स्थान रखना, परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित किए गए वातावरणों और दिए गए आदेशों के प्रति तर्कसंगत रवैया रखना और परमेश्वर के हर वचन को गंभीरता और जिम्मेदारी से लेना आदि शामिल हैं। इन सभी अभिव्यक्तियों को आराधना कहा जाता है। चाहे वे परमेश्वर द्वारा तुमसे आमने-सामने कहे गए वचन हों या वे सभी वचन हों जो उसने कभी किसी भी समय व्यक्त किए हैं, जब तक तुम उन्हें जानते और याद रखते हो, और जब तक तुम उन्हें अपने दिल ही दिल में समझते और स्वीकार करते हो, तुम्हें उन्हें अपने आचरण, जीवन, आदि के मापदंड के रूप में मानना चाहिए—यह परमेश्वर की आराधना करने की अभिव्यक्ति है। जब तुम्हारा सामना किसी भी मामले से हो, तो चाहे वह तुम्हारी पसंद, इच्छाओं या धारणाओं के अनुरूप हो या न हो, तुम्हें फिर भी अपने दिल को शांत करने में सक्षम होना चाहिए और यह सोचना चाहिए कि, “क्या यह परमेश्वर द्वारा किया गया था? क्या इसकी शुरुआत परमेश्वर से हुई थी? परमेश्वर ने ऐसा क्यों किया? परमेश्वर मुझ में क्या शोधन करना चाहता है, वह मुझ में क्या बदलना चाहता है? वास्तव में परमेश्वर का इरादा क्या है? मुझे परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति कैसे समर्पण करना चाहिए? मुझे परमेश्वर के इरादे को कैसे संतुष्ट करना चाहिए? एक मानव होने के नाते मुझे अपनी जिम्मेदारी कैसे निभानी चाहिए?” कुछ अन्य ऐसी अभिव्यक्तियों के साथ-साथ ये सभी अभिव्यक्तियाँ भी परमेश्वर की आराधना करने की अभिव्यक्तियाँ हैं। भले ही तुम लोग अधिक सत्य न समझ पाओ, लेकिन एक सामान्य व्यक्ति के रूप में, एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जो परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास करता है, एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जो वास्तव में परमेश्वर का अनुसरण करता है, तुम्हें कम से कम परमेश्वर के प्रति यही रवैया अपनाना चाहिए। परमेश्वर से संबंधित हर चीज, परमेश्वर के वचनों से संबंधित हर चीज, परमेश्वर द्वारा तुम लोगों को दिए गए आदेश, तुम्हारे कर्तव्य और तुम्हारी जिम्मेदारी, इन सभी चीजों को तुम्हें, लापरवाही से नहीं, उदासीनता से नहीं, तिरस्कारपूर्वक नहीं, बल्कि ध्यानपूर्वक और सावधानी से देखना चाहिए—इसे ही परमेश्वर की आराधना करना कहते हैं। परमेश्वर से संबंधित हर चीज से एक सतर्क, सावधान, परमेश्वर का भय मानने वाले, और परमेश्वर से डरने वाले दिल के साथ निपटना—इसे ही परमेश्वर की आराधना करना कहते हैं। क्या इसे हासिल करना आसान है? यह आसान नहीं है। वास्तविक अनुभव के बिना, केवल “परमेश्वर की आराधना करता है” इन पाँच शब्दों को ही समझना कठिन है, तो परमेश्वर की वास्तविक आराधना करने का अभ्यास करना तो दूर की बात है। कलीसिया की परिभाषा का अंतिम वाक्यांश है “उसका उद्धार प्राप्त करता है”। इसे कैसे समझा जाना चाहिए? उद्धार प्राप्त करने का मार्ग लंबा होता है और यहाँ इसके लिए और भी अधिक की आवश्यकता है। सबसे पहले तो जिस मार्ग पर तुम चल रहे हो वह सही होना चाहिए; तुम्हें परमेश्वर के वचनों में शामिल सभी सत्यों को स्वीकार करने में सक्षम होना चाहिए और तुम्हें एक ऐसा व्यक्ति बनना चाहिए जो परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने का प्रयास करता हो और परमेश्वर के प्रति समर्पण करता हो। तुम्हारा जीवन परमेश्वर के वचनों के द्वारा शासित होना चाहिए। तुम्हें केवल परमेश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करना चाहिए, बल्कि सत्य से प्रेम भी करना चाहिए और सत्य के अनुसार कार्य भी करना चाहिए; तुम्हारे दिल में परमेश्वर का वास्तविक भय और उसके प्रति सच्चा समर्पण होना चाहिए, और तुम्हें अक्सर अपने दिल में परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और धीरे-धीरे परमेश्वर की आराधना करने की ओर बढ़ना चाहिए। तब तुम एक ऐसे व्यक्ति बन जाओगे जो सत्य से प्रेम करता है और परमेश्वर के प्रति समर्पण करता है; तुम ठीक वही व्यक्ति बन जाओगे जिसे परमेश्वर बचाना चाहता है। जो व्यक्ति ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास करता है, वह एक सही व्यक्ति ही होगा। एक सही व्यक्ति होने का क्या फायदा है? फायदा यह है कि फिर तुम्हारे लिए उद्धार प्राप्त करना बहुत मुश्किल नहीं होगा; तुम्हारे दिल में इसे प्राप्त करने की आशा होगी। कलीसिया की परिभाषा के विशिष्ट विवरणों पर यही वह सारी संगति है जो हमने की है।

IV. कलीसिया के प्रति लोगों द्वारा पाले जाने वाली धारणाएँ और दृष्टिकोण

अभी-अभी हमने इस बारे में संगति की कि कलीसिया क्या है, वह क्या आवश्यक कार्य करती है, और लोग अपनी धारणाओं के दायरे में कलीसिया के बारे में क्या कल्पना करते हैं और उससे क्या अपेक्षा रखते हैं। अंततः, हमने कलीसिया की अवधारणा के लिए एक परिभाषा बनाई। अब जबकि इसे परिभाषित कर दिया गया है, तो तुम्हें “कलीसिया” पदनाम की सटीक समझ होनी चाहिए; तुम्हें उस कार्य की जो एक कलीसिया को करना चाहिए, सत्य और उद्धार की प्राप्ति में लोगों की सहायता करने में कलीसिया की भूमिका की, तथा परमेश्वर का अनुसरण करने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए कलीसिया के महत्व की बुनियादी समझ होनी चाहिए। हमने संक्षेप में एक प्रतिनिधि गहन-विश्लेषण और प्रकाशन भी किया कि लोगों की धारणाओं में कलीसिया के अस्तित्व का क्या मूल्य है और उनकी धारणाओं के अनुसार कलीसिया को क्या काम करना चाहिए। लोगों की धारणाओं में कलीसियाओं से जुड़ी जो समझ और व्याख्याएँ हैं क्या उनमें ऐसा कुछ है जिसकी असलियत जानने और जिसे समझने में तुम लोग असमर्थ हो? कुछ लोग सोचते हैं कि कलीसिया को समाज में किसी तरह का काम करना चाहिए या समाज में किसी तरह की भूमिका निभानी चाहिए, जैसे कि न्याय की रक्षा करना। लोगों की धारणाओं में कलीसिया एक सकारात्मक छवि का प्रतिनिधित्व करती है, तो यह न्याय की रक्षा क्यों नहीं कर सकती? क्या न्याय की रक्षा का कलीसिया के कार्य या परमेश्वर की अपेक्षाओं से कोई लेना-देना है? (नहीं।) लोग जिस “न्याय की रक्षा” की बात करते हैं, उसका क्या मतलब है? (जिसे लोग न्याय की रक्षा करना कहते हैं, वह सच्चा न्याय नहीं है। वह केवल देह के हितों की रक्षा करना है और वह सत्य के अनुरूप नहीं है।) क्या इस न्याय का सत्य से कोई लेना-देना है? (नहीं।) इसे मानवजाति न्याय कहती है। उदाहरण के लिए, कुछ दुष्ट शक्तियों को परास्त करना, कुछ अन्यायों, और लोगों के साथ हो रहे गलत व्यवहार और अपमान के मामलों को सुधारना, या बुरे लोगों को उचित दंड देना, और कमजोर समूहों के हितों को बहाल करना और उनकी रक्षा करना, इत्यादि—इन्हें ही लोग न्याय की रक्षा करना कहते हैं। न्याय की रक्षा करने का मुख्य उद्देश्य क्या है? क्या लोगों द्वारा सत्य का अनुसरण करने से इसका कोई संबंध है? क्या लोगों को बचाए जाने से इसका कोई संबंध है? (नहीं।) यह नैतिक न्याय और नैतिकता के आधार पर उत्पन्न होने वाली एक कहावत भर है; इसका सत्य से जरा भी लेना-देना नहीं है। क्या हम कह सकते हैं कि यह बात सत्य के स्तर तक नहीं पहुँचती है? (हाँ।) क्या हम सचमुच ऐसा कह सकते हैं? (नहीं; दोनों असंबंधित हैं।) ठीक है, वे पूरी तरह से असंबंधित हैं; वे दो अलग-अलग चीजें हैं। मानवजाति किस तरह के न्याय का समर्थन करती है? यह वह न्याय है, जिसमें थोड़े से नीचे के सामाजिक स्तर के आम आदमी को दुष्ट लोगों द्वारा उत्पीड़ित किए जाने, या उसे किसी भी अधिकार या हित से वंचित किए जाने के बाद दुष्ट लोगों को उचित रूप से दंडित किया जाता है, और तब आम या साधारण व्यक्ति को दुर्व्यवहार नहीं सहना पड़ता। इसका संबंध लोगों के शारीरिक हितों को बहाल करने और उनकी गारंटी देने, लोगों के बीच सापेक्ष समानता लाने, सामाजिक स्तरों के बीच अंतराल को खत्म करने और यह सुनिश्चित करने से है कि दुष्ट लोग अपने कुकर्मों में सफल न हों और जिनके साथ कुछ गलत हुआ है उनकी शिकायतों का निवारण हो जाए। मानवजाति इसे ही न्याय कायम रखना कहती है, और इसका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। तुम लोग अब भी कैसे कह सकते हो कि यह बात सत्य के स्तर तक नहीं पहुँचती? क्या यह सत्य से संबंधित है? नहीं, यह नहीं है। मुझे बताओ, क्या वे साधारण और आम लोग जिन्होंने दुख भोगे हैं, वे जरूरी तौर पर अच्छे लोग हैं? (जरूरी नहीं।) उन्हें दुख भोगने से रोकना—क्या यह न्याय है? क्या यह सत्य के अनुरूप है? तब, क्या उन लोगों को बचाया जा सकता है? ये स्पष्ट रूप से दो अलग-अलग मामले हैं—उनमें घालमेल कैसे किया जा सकता है? इसके सत्य के स्तर तक पहँचने का कोई सवाल ही नहीं है; यह सत्य जैसी चीज ही नहीं है। यदि तुम लोगों के मन में इस मुद्दे पर कुछ विवाद हैं, तो शायद तुममें से अधिकांश लोग न्याय की रक्षा के मामले को ठीक से समझ नहीं पा रहे हो और अभी भी कुछ हद तक इससे जुड़े हुए हो, और सोचते हो कि, “यह गलत कैसे हो सकता है? यह वह कार्य क्यों नहीं हो सकता जो किसी कलीसिया को करना चाहिए?” वास्तव में, इसका कलीसिया के काम से कोई लेना-देना नहीं है। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो सोचते हैं कि कलीसिया को ऐसा स्थान होना चाहिए जहाँ दुष्टता को दंडित किया जाए और अच्छाई को बढ़ावा दिया जाए, कि उसे यह कार्य करना चाहिए कि बुरे कर्मों और बुरी, काली शक्तियों को दंडित करते हुए अच्छी और नेक चीजों को बढ़ावा दे। क्या यही मामला है? क्या बुराई को दंडित करना और अच्छाई को बढ़ावा देना सत्य के स्तर तक उठ सकता है? जब इसकी बात आती है कि बुरा क्या है और अच्छा क्या है, तो लोग इन चीजों के बीच स्पष्ट रूप से अंतर नहीं कर पाते। लोगों का “बुराई को दंडित करने और अच्छाई को बढ़ावा देने” से क्या मतलब है? क्या यह बुराई को दंडित करने, अच्छाई को पुरस्कृत करने, और परमेश्वर के कहे के मुताबिक सभी को उनकी किस्म के अनुसार छाँटे जाने से संबंधित है? (नहीं।) यह उससे संबंधित नहीं है। बुराई और अच्छाई को परिभाषित करने के लिए मानवजाति का मानक क्या है? चीनी लोगों की परिभाषा के अनुसार बुराई क्या है और अच्छाई क्या है? बुराई और अच्छाई की उनकी परिभाषा का आधार क्या है? यह आधार बौद्ध संस्कृति है। बौद्ध धर्म दुनिया की मदद करने और लोगों को बचाने, हत्या से दूर रहने, और अन्य ऐसी अवधारणाओं की बातें कहता है—इन्हें अच्छा माना जाता है, जबकि मुर्गा, मछली, गोमांस या भेड़ का मांस खाना बुरा माना जाता है और ऐसा करने वाले को दंडित किया जाना चाहिए। मांस नहीं खाना चाहिए, और किसी भी जीवित प्राणी की हत्या नहीं करनी चाहिए। हत्या करना बुरा माना जाता है, और जो लोग हत्या करते हैं उन्हें बुद्ध के सामने अपराध स्वीकार करते हुए क्षमायाचना करनी चाहिए। यह बुराई की बौद्ध परिभाषा है; क्या यह वही बुराई है जिसके बारे में परमेश्वर कहता है? (नहीं।) वे दो अलग-अलग चीजें हैं, इसलिए बुराई की उस परिभाषा का सत्य से कोई मतलब नहीं है और यह निश्चित रूप से सत्य के स्तर तक नहीं पहुँच सकती। तो, बौद्ध धर्म में अच्छाई का क्या अर्थ है? यह अर्थ और भी बेतुका, सतही और पाखंडी है। बौद्धों का मानना है कि किसी भी जीवित प्राणी को न मारना अच्छी बात है और बंदी जानवरों को छोड़ देना अच्छी बात है। किसी दुष्ट व्यक्ति ने चाहे जितने लोगों को मारा हो या कितने ही पाप किए हों, अगर वह हथियार डाल दे, तो वह तुरंत बुद्ध बन सकता है—इसे अच्छा माना जाता है। एक कहावत भी है, “एक जीवन बचाना सात-मंजिला मंदिर बनाने से बेहतर है,” जिसका अर्थ है बिना किसी शर्त और बिना किसी सिद्धांत के लोगों को बचाना—यहाँ तक कि शैतानों, दुष्ट लोगों, ठगों, गुंडों और किसी को भी बचाना अच्छा माना जाता है। यह किस तरह की अच्छाई है? ऐसे लोग मंदबुद्धि होते हैं, जिनमें कोई समझ, रुख या सिद्धांत नहीं होते। किसी को बचाना और किसी को माफ करना—क्या इसे अच्छा माना जा सकता है? यह कृत्य इस शब्द के लायक भी नहीं है; यह शैतान और दानवों का दिखावा है। वे जानवरों को नहीं मारते लेकिन अनगिनत आत्माओं को खा गए। यह उनकी तथाकथित अच्छाई है, जो वास्तव में सिर्फ दिखावा है। तो, क्या यह मानवीय धारणा सही है कि कलीसिया को बुराई को दंडित करने और अच्छाई को बढ़ावा देने की भूमिका निभानी चाहिए? (नहीं।) किसी भी जाति या धर्म की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की परवाह किए बिना, बुराई को दंडित करने और अच्छाई को बढ़ावा देने का कलीसिया के काम या कलीसिया की गवाही से कोई संबंध नहीं है। ऐसा मत सोचो कि न्यायसंगत और प्रशंसनीय लगने के कारण इन शब्दों को कलीसिया के काम से जोड़ा जाना चाहिए या यह वह भूमिका है जो कलीसिया को समाज में निभानी चाहिए। यह एक मानवीय धारणा और कल्पना है। “न्याय की रक्षा करने” और “बुराई को दंडित करने और अच्छाई को बढ़ावा देने” के अलावा, मानवीय धारणाओं के अनुसार अन्य अच्छे शब्दों जैसे “लोगों के अधिकारों और हितों के लिए लड़ना” और “लोगों की चिंताओं को कम करना और कठिनाइयों को हल करना” आदि का भी कलीसिया के काम या कलीसिया की गवाही से कोई संबंध नहीं है। तुम सभी को यह समझने में सक्षम होना चाहिए। कलीसिया की परिभाषा, कलीसिया को जो काम करना चाहिए, और कलीसिया के अस्तित्व के मूल्य और महत्व पर कमोबेश स्पष्ट शब्दों में संगति हो चुकी है।

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