अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (2) खंड एक
आओ, पहले पिछली सभा में अपनी संगति की मुख्य विषयवस्तु की समीक्षा करें। (पिछली बार, तुमने अगुआओं और कार्यकर्ताओं की 15 जिम्मेदारियों को सूचीबद्ध किया था, और मुख्यतः शुरुआत के दो मुद्दों पर संगति की थी : पहला मुद्दा है परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने और समझने, और परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करने में लोगों की अगुआई करना; दूसरा है कि हर तरह के व्यक्ति की स्थितियों से परिचित होना, और जीवन प्रवेश से संबंधित जिन विभिन्न कठिनाइयों का वे अपने वास्तविक जीवन में सामना करते हैं, उनका समाधान करना। इन दो मदों के आधार पर, तुमने नकली अगुआओं की प्रासंगिक अभिव्यक्तियों का विश्लेषण किया था।) क्या तुम लोगों ने कभी सोचा है कि यदि तुम अगुआ होते तो इन दो जिम्मेदारियों में से कौन-सी निभा सकते थे? बहुत-से लोग हमेशा महसूस करते हैं कि उनके पास थोड़ी काबिलियत, बुद्धिमत्ता और दायित्व की भावना है, और परिणामतः वे अगुआ बनने की स्पर्धा में शामिल होना चाहते हैं और साधारण अनुयायी नहीं बनना चाहते हैं। इसलिए, पहले देखो कि क्या तुम इन दो जिम्मेदारियों को निभा सकते हो, और तुम कौन-सी जिम्मेदारी निभाने में अधिक सक्षम हो, और कौन-सी जिम्मेदारी उठा सकते हो। चलो अभी इस बारे में बात नहीं करते हैं कि तुममें अगुआ बनने की काबिलियत है या नहीं, या तुम्हारे पास दिए गए कार्यक्षमता या दायित्व की भावना है या नहीं, बल्कि पहले यह देखते हैं कि क्या तुम इन दो जिम्मेदारियों को अच्छी तरह से निभा सकते हो। क्या तुम लोगों ने कभी इस प्रश्न पर चिंतन किया है? कुछ लोग कह सकते हैं कि “अगुआ बनने की मेरी कोई योजना नहीं है, इसलिए मैं इस पर क्यों चिंतन करूँ मुझे बस अपना काम अच्छी तरह से करना चाहिए—इस प्रश्न का मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। मैं जीवन में कभी भी अगुआ नहीं बनना चाहता, और मैं कभी भी अगुआ या कार्यकर्ता की जिम्मेदारियाँ नहीं लेना चाहता, इसलिए मुझे ऐसे प्रश्नों पर विचार करने की जरूरत नहीं है।” क्या यह कथन सही है? (नहीं।) भले ही तुम अगुआ नहीं बनना चाहते, क्या फिर भी तुम्हें यह जानने की जरूरत नहीं है कि तुम्हारी अगुआई करने वाला व्यक्ति इन दो जिम्मेदारियों को कितनी अच्छी तरह से निभा रहा है, क्या उसने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं, क्या उसके पास वांछित काबिलियत, योग्यता और दायित्व की भावना है, और क्या वह इन दो अपेक्षाओं को पूरा करता है? अगर तुम इन चीजों को नहीं समझते या उनकी असलियत नहीं जान सकते, और वह तुम्हें गड्ढे में ले जाता है, तो क्या तुम्हें इस बारे में कुछ पता होगा? अगर तुम केवल भ्रमित तरीके से उसका अनुसरण करते हो और मंदबुद्धि हो, अगर तुम नहीं जानते कि वह नकली अगुआ है, या वह तुम्हें गुमराह कर रहा है या वह तुम्हें कहाँ ले जा रहा है, तो तुम्हारे लिए खतरा होगा। चूँकि तुम अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियों के दायरे को नहीं समझते, और तुममें नकली अगुआओं की पहचान करने की समझ नहीं है, इसलिए तुम यह जाने बिना कि वे तुम्हारे साथ जो संगति करते हैं वह परमेश्वर के वचनों के सत्य के अनुरूप है या नहीं, या वास्तविकता है या नहीं, तुम भ्रमित तरीके से उनका अनुसरण करोगे, और वे जो भी करने को कहेंगे वही करोगे। तुम सोचोगे कि चूँकि वे उत्साही हैं, सुबह से शाम तक भागदौड़ करते हैं और कड़ी मेहनत करते हैं और कीमत चुकाने में सक्षम हैं, और क्योंकि, जब कोई मुश्किल में होता है तो वे उसकी सहायता के लिए हाथ बढ़ाते हैं, और उसे अनदेखा नहीं करते, इसलिए वे मानक स्तर के अगुआ हैं। तुम नहीं जानते कि नकली अगुआओं में परमेश्वर के वचनों को समझने की क्षमता का अभाव है, कि चाहे वे कितने भी लंबे समय तक कार्य कर लें, वे परमेश्वर के इरादों को नहीं समझेंगे या परमेश्वर की अपेक्षाएँ नहीं जानेंगे, वे यह भेद भी नहीं जान पाते कि धर्म-सिद्धांत और सत्य वास्तविकताएँ क्या हैं, वे यह भी नहीं जान पाएँगे कि परमेश्वर के वचनों को शुद्ध रूप से कैसे समझें, न वे यह जानेंगे कि परमेश्वर के वचनों को कैसे खाना-पीना चाहिए—इससे स्पष्ट हो जाता है कि वे नकली अगुआ हैं। नकली अगुआ जो भी कार्य करते हैं उसमें कोई नतीजा हासिल नहीं करते हैं। वे तुम्हारे साथ संगति करेंगे और औपचारिकताएँ पूरी करेंगे, लेकिन वे इस बारे में स्पष्ट नहीं होंगे कि तुम्हारी दशा क्या है, तुम किन कठिनाइयों का सामना कर रहे हो, और क्या वे वास्तव में हल हो गई हैं और तुम खुद भी इन बातों को नहीं जान पाओगे। बाहरी तौर पर, उन्होंने परमेश्वर के वचनों को पढ़ा होगा और तुम्हारे साथ सत्य पर संगति की होगी, लेकिन बिना किसी बदलाव के तुम तब भी एक गलत स्थिति में रह रहे होगे। तुम चाहे जिन कठिनाइयों का सामना करो, वे अपनी जिम्मेदारियाँ निभाते हुए दिखाई देंगे, लेकिन तुम्हारी कोई भी कठिनाई उनकी संगति या सहायता के माध्यम से हल नहीं होगी, और समस्याएँ बनी रहेंगी। क्या इस तरह का अगुआ मानक के अनुरूप है? (नहीं।) तो, इन मामलों को समझने के लिए तुम्हें किन सत्यों को समझने की आवश्यकता है? तुम्हें यह समझने की जरूरत है कि क्या अगुआ और कार्यकर्ता दिए गए हर काम को करते हैं और हर समस्या का समाधान परमेश्वर के वचनों की अपेक्षाओं के अनुसार करते हैं, क्या उनके द्वारा बोला गया हर शब्द व्यावहारिक है और परमेश्वर के वचनों में व्यक्त सत्य के अनुरूप है। इसके अतिरिक्त, तुम्हें यह समझने की जरूरत है कि जब तुम विभिन्न कठिनाइयों का सामना करते हो, तो क्या समस्याओं को हल करने के उनके दृष्टिकोण से तुम परमेश्वर के वचनों को समझ पाते हो और अभ्यास का मार्ग प्राप्त कर पाते हो, या वे केवल कुछ शब्द और सिद्धांत बोलते हैं, नारे लगाते हैं, या तुम्हें फटकारते हैं। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता लोगों को उपदेश देकर, कुछ प्रेरणा देकर और कुछ दूसरे उजागर करके, आरोप लगाकर और काट-छाँट के माध्यम से मदद करना पसंद करते हैं। वे चाहे जिस तरीके का उपयोग करते हों, वह अगर वास्तव में सत्य वास्तविकता में प्रवेश में तुम्हारी अगुआई करता हो, तुम्हारी वास्तविक कठिनाइयों को हल करता हो, तुम्हें परमेश्वर के इरादे समझा देता हो और इस तरह तुम्हें अपने आप को जानने और अभ्यास का मार्ग पाने में सक्षम बनाता हो, तो जब भविष्य में तुम इसी तरह की परिस्थितियों का सामना करोगे, तो तुम्हारे पास अनुसरण करने के लिए एक मार्ग होगा। इसलिए, किसी अगुआ या कार्यकर्ता के मानकों के अनुरूप होने या न होने का सबसे बुनियादी मानक यह है कि क्या वह लोगों की समस्याओं और कठिनाइयों को हल करने के लिए सत्य का इस प्रकार उपयोग कर सकता है, जिससे वे सत्य समझ जाएँ और अभ्यास का मार्ग प्राप्त कर सकें।
पिछली बार, हमने कमोबेश अगुआओं और कार्यकर्ताओं की पहली और दूसरी जिम्मेदारियों पर संगति की थी और हमने इन दो जिम्मेदारियों के संबंध में नकली अगुआओं की कुछ अभिव्यक्तियों का गहन-विश्लेषण किया था। उनकी प्राथमिक अभिव्यक्तियाँ परमेश्वर के वचनों की उथली और सतही समझ और सत्य समझने में विफल होना हैं। यह स्पष्ट है कि इसके परिणामस्वरूप वे परमेश्वर के वचनों और उसके इरादों को समझने में दूसरों की अगुआई नहीं कर सकते। जब लोग कठिनाइयों का सामना करते हैं तो नकली अगुआ सत्य समझने और वास्तविकता में प्रवेश करने में उनकी अगुआई करने के लिए अपने अनुभवात्मक ज्ञान का उपयोग नहीं कर सकते, ताकि उनके पास अनुसरण करने का एक मार्ग हो, न ही वे लोगों को विभिन्न कठिनाइयों के बीच आत्मचिंतन करने और अपने आप को जानने, और साथ ही उन कठिनाइयों को हल करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। तो आज, आओ हम सबसे पहले इस बात पर संगति करें कि जीवन प्रवेश की कठिनाइयाँ क्या हैं, और लोगों के दैनिक जीवन में प्रायः सामने आने वाली जीवन प्रवेश से संबंधित विभिन्न सामान्य कठिनाइयाँ क्या हैं। आओ, इन चीजों का एक विशिष्ट सारांश बनाते हैं। क्या इस पर संगति करने की जरूरत है? (हाँ।) तुम लोग अब जीवन प्रवेश से संबंधित इन विषयों में थोड़ी बहुत रुचि रखते हो, है ना? जब मैं पहली बार तुम लोगों से मिला था और बातचीत की थी, तो चाहे जो भी कहा गया हो, तुम लोग सुन्न और ढीले-ढाले, सुस्त और प्रतिक्रिया करने में धीमे थे। ऐसा लगता था कि तुम लोग कुछ भी नहीं समझते थे, और जीवन प्रवेश की तो बात ही छोड़ो, तुम लोगों का कोई आध्यात्मिक कद ही नहीं था। अब, जब हम किसी के जीवन स्वभाव को बदलने से जुड़े मामलों के बारे में बात करते हैं, तो तुम में से अधिकांश लोग इस विषय में अपेक्षाकृत ज्यादा रुचि रखते हैं, और थोड़ी-बहुत प्रतिक्रियाएँ करते हैं। यह सकारात्मक परिघटना है। यदि तुम लोग अपने कर्तव्यों का निर्वहन नहीं कर रहे होते, तो क्या तुम इन चीजों को प्राप्त कर सकते थे? (नहीं, हम प्राप्त नहीं कर सकते थे।) यह परमेश्वर का अनुग्रह है; यह सब उसकी कृपा के कारण है।
मद दो : हर तरह के व्यक्ति की स्थितियों से परिचित हो, और जीवन प्रवेश से संबंधित जिन विभिन्न कठिनाइयों का वे अपने वास्तविक जीवन में सामना करते हैं, उनका समाधान करो (भाग दो)
जीवन प्रवेश की आठ प्रकार की कठिनाइयाँ
I. कर्तव्य करने से संबंधित कठिनाइयाँ
जीवन प्रवेश की कठिनाइयों के संबंध में, आओ पहले अपने कर्तव्यों के निर्वहन से संबंधित कठिनाइयों पर ज्यादा विस्तारपूर्वक दृष्टि डालें। जब तुम अपने उन कर्तव्यों के निर्वहन में समस्याओं का सामना करते हो जिनमें सत्य का अभ्यास करना शामिल है, और तुम सिद्धांतों के अनुसार चीजों को संभाल नहीं पाते तो क्या यह जीवन प्रवेश की कठिनाई नहीं है? (हाँ, है।) सरल शब्दों में, कर्तव्यों के निर्वहन के समय विभिन्न स्थितियाँ, विचार, दृष्टिकोण और सोचने के कुछ गलत तरीके लोगों के सामने आते हैं। तो, इस संबंध में कौन-सी विशिष्ट कठिनाइयाँ मौजूद हैं? उदाहरण के लिए, अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते समय हमेशा अनमना, धूर्त और धीमा पड़ने की कोशिश करना—क्या यह ऐसी स्थिति नहीं है जो कर्तव्यों के निर्वहन के दौरान आम तौर पर व्यक्त और उजागर होती है? इसके अलावा, अपने उचित काम पर ध्यान न देना, और अपना कर्तव्य निभाते समय लगातार दूसरों से तुलना करना, अपने कार्यस्थल को खेल या युद्ध का मैदान मानना, और कर्तव्य निभाते समय किसी “मानक” को हासिल करने के बारे में सोचना, मन ही मन यह कहना कि “देखता हूँ कि मुझसे बेहतर कौन है और कौन मेरी लड़ने की भावना को भड़का सकता है, फिर मैं उसके साथ प्रतिस्पर्धा करूँगा, उससे होड़ करूँगा और तुलना करूँगा कि अपने कर्तव्य के निर्वहन में कौन बेहतर परिणाम और उच्चतर दक्षता प्राप्त करता है, और लोगों के दिल जीतने में कौन बेहतर है।” फिर अपने कर्तव्य को निभाने के सिद्धांतों को समझना लेकिन उनका निर्वहन करने, या परमेश्वर के वचनों या परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं में सत्य के अनुसार कार्य करने की इच्छा न करना, और हमेशा अपने कर्तव्य के निर्वहन को व्यक्तिगत प्राथमिकताओं के साथ मिलाना पसंद करना, यह कहना कि, “मुझे इसे इस तरह करना पसंद है, मुझे इसे उस तरह करना पसंद है; मैं इसे इस तरह करने के लिए तैयार हूँ, मैं इसे उस तरह करना चाहता हूँ।” यह हठधर्मिता है, हमेशा अपनी इच्छा के अनुसार चलने की चाह रखना है, और अपनी प्राथमिकता के अनुसार जो जी में आए उस तरह से काम करना, परमेश्वर के घर की सभी अपेक्षाओं को अनसुना कर देना, और सही मार्ग से भटकना पसंद करना है। क्या ये वे वास्तविक अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं जिन्हें अधिकांश लोग अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते समय प्रदर्शित करते हैं? स्पष्टतः, इन सभी मुद्दों में अपने कर्तव्य का निर्वहन करने में आने वाली कठिनाइयाँ शामिल हैं। इनमें और कुछ जोड़ो। (अपने कर्तव्य का निर्वहन करते समय दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग करने में विफल होना और हमेशा अपने ही नियम बना लेना।) इसकी गिनती भी एक कठिनाई के रूप में होती है। अपने कर्तव्य का निर्वहन करते समय दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग करने में विफल होना, और हमेशा अपने ही एक कानून बनाना और अंतिम रूप से अपनी बात को सर्वोपरि रखने की चाह रखना; समस्याओं से सामना होने पर दूसरों की सलाह लेने और उनकी राय सुनने के लिए विनम्र होने की चाह रखना लेकिन इसका अभ्यास करने में असमर्थ होना, और जब कोई इसका अभ्यास करने का प्रयास करे तो असहज महसूस करना—यह एक समस्या है। (कर्तव्य निभाते समय हमेशा अपने हितों की रक्षा करना, स्वार्थी और नीच होना, और कोई समस्या उत्पन्न होने पर वास्तव में उसका समाधान करना जानते हुए भी ऐसा महसूस करना कि इसका मुझसे कोई संबंध नहीं है, कुछ गलत हो जाए तो जिम्मेदारी लेने से डरना, और परिणामस्वरूप आगे बढ़ने का साहस न करना।) किसी समस्या को देखने पर उसका समाधान न करना, उसे स्वयं से असंबंधित समझना, और उसकी उपेक्षा करना—यह भी अपने कर्तव्य का निर्वहन करने में निष्ठाहीन होने के रूप में गिना जाता है। तुम किसी कार्य के लिए जिम्मेदार हो या नहीं हो, अगर तुम किसी समस्या को समझकर उसका समाधान कर सकते हो, तो तुम्हें यह जिम्मेदारी निभानी चाहिए। यह तुम्हारा कर्तव्य और तुम्हें सौंपा गया काम है। अगर पर्यवेक्षक उस समस्या को हल कर सकता है तो तुम उसकी अनदेखी कर सकते हो, लेकिन अगर वह ऐसा नहीं कर सकता तो तुम्हें आगे बढ़कर उस समस्या को हल करना चाहिए। समस्याओं को इस आधार पर विभाजित मत करो कि वे किसकी जिम्मेदारी के दायरे में आती हैं—यह परमेश्वर के प्रति निष्ठाहीनता है। और कुछ? (अपना कर्तव्य निभाते समय काम के लिए अपनी बुद्धि और विशेष गुणों पर निर्भर रहना और सत्य की खोज नहीं करना।) इस तरह के बहुत-से लोग हैं। वे हमेशा सोचते हैं कि उनके पास बुद्धि और काबिलियत है, और वे अपने साथ होने वाली हर चीज के प्रति उदासीन रहते हैं; वे सत्य की खोज बिल्कुल नहीं करते, और केवल अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करते हैं, और परिणामस्वरूप, वे कोई भी कर्तव्य ठीक से नहीं निभा पाते हैं। ये सभी वे कठिनाइयाँ हैं जिनका सामना लोग अपने कर्तव्य निभाते समय करते हैं।
II. अपनी संभावनाओं और नियति के साथ व्यवहार से संबंधित मुद्दे
अपनी संभावनाओं और नियति के साथ कोई कैसा व्यवहार करता है, यह भी जीवन प्रवेश से जुड़ा एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। कुछ लोगों को जब लगता है कि उनके बचाए जाने की उम्मीद है तब वे कीमत चुकाने के लिए तैयार होते हैं, और जब उन्हें लगता है कि उनके बचाए जाने की कोई उम्मीद नहीं है, तब वे नकारात्मक हो जाते हैं। यदि परमेश्वर का घर उन्हें प्रोत्साहन नहीं देता और उनका विकास नहीं करता, तो वे कीमत चुकाने को तैयार नहीं होते और वे बिना कोई जिम्मेदारी लिए बस अपने कर्तव्यों के निर्वहन की औपचारिकता करते हैं। वे चाहे कुछ भी करें, वे हमेशा अपनी संभावनाओं और नियति पर विचार करते हैं और खुद से पूछते रहते हैं, “क्या वास्तव में मुझे कोई अच्छा गंतव्य मिलेगा? क्या परमेश्वर के वादों में उल्लेख किया गया है कि मेरे जैसे किसी व्यक्ति की संभावनाएँ और गंतव्य क्या होंगे?” अगर उन्हें कोई सटीक उत्तर नहीं मिलता तो ऐसे लोगों में कुछ भी करने का उत्साह नहीं होता। यदि उन्हें परमेश्वर के घर से प्रोत्साहन मिलता है और उन्हें विकसित किया जाता है तो वे ऊर्जा से भर जाते हैं और वे जो कुछ भी करते हैं उसमें वे विशेष रूप से पूर्वसक्रिय होते हैं। परंतु, यदि वे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने में विफल रहते हैं और उन्हें हटा दिया जाता है तो वे सारी उम्मीदें छोड़ कर तुरंत नकारात्मक हो जाते हैं और अपना कर्तव्य छोड़ देते हैं। जब उन्हें काट-छाँट का सामना करना पड़ता है तो वे सोचते हैं, “क्या परमेश्वर अब मुझे पसंद नहीं करता? यदि ऐसा है तो दुनियादारी के मेरे अनुसरणों को बाधित करने के बजाय उसे मुझे इस बारे में पहले ही बताना चाहिए था।” यदि उन्हें बर्खास्त कर दिया जाए तो वे सोचते हैं “क्या वे मुझे नीची निगाह से नहीं देख रहे हैं? मेरे बारे में शिकायत किसने की? क्या मुझे हटाया जा रहा है? अगर ऐसा ही है, तो उन्हें मुझे पहले ही बताना चाहिए था!” इसके अलावा, उनके दिल लेन-देन, माँगों और परमेश्वर से अनुचित अनुरोधों से भरे हुए हैं। कलीसिया उनके लिए चाहे जो भी व्यवस्था करे, वे उसे करने के लिए अच्छी संभावनाओं और अच्छी नियति के साथ-साथ परमेश्वर के आशीषों को पूर्वापेक्षाएँ मानते हैं। कलीसिया की व्यवस्था स्वीकार करने और उसके प्रति समर्पण करने के लिए उनकी पूर्वापेक्षा होती है कि कम से कम उनके साथ अच्छे हाव-भाव और रवैये के साथ पेश आया जाए और उन्हें स्वीकृति मिले। क्या ये इस बात की अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं कि वे अपनी संभावनाओं और नियति को कैसे लेते हैं? इनमें कुछ और जोड़ो। (यदि अपने कर्तव्य करते समय विचलन या समस्याएँ उत्पन्न होती हैं और उनकी काट-छाँट की जाती है, तो वे परमेश्वर के बारे में शिकायत करते हैं और उससे सावधान रहते हैं; उन्हें उजागर होने और हटा दिए जाने का डर लगता है, और वे हमेशा अपने लिए एक विकल्प बचाकर रखते हैं।) उजागर होने और हटा दिए जाने का डर महसूस करना, और अपने लिए हमेशा एक विकल्प बचाए रखना—ये भी इस बात की अभिव्यक्तियाँ हैं कि वे अपनी संभावनाओं और नियति को कैसे लेते हैं। (जब कोई देखता है कि उजागर किए जाने और चित्रित किए जाने के संबंध में परमेश्वर के वचन उससे मेल खाते हैं या जब वे काट-छाँट का सामना करते हैं और शर्मिंदा होते हैं तो वे निष्कर्ष निकालते हैं कि वे भ्रमित हैं, दानव और शैतान हैं, और वे सत्य को स्वीकार करने में असमर्थ हैं। वे तय करते हैं कि उन्हें बचाए जाने की कोई उम्मीद नहीं है और वे नकारात्मक हो जाते हैं।) जब संभावनाओं और नियति की बात हो तो लोग अपने इरादों और इच्छाओं को पूरी तरह से नहीं छोड़ पाते हैं। वे लगातार उन्हें सबसे महत्वपूर्ण मानते हैं और उसी के अनुसार उनका अनुसरण करते हैं, और उन्हें अपने हर अनुसरण के लिए प्रेरक शक्ति और पूर्वापेक्षा मानते हैं। जब वे न्याय, ताड़ना, परीक्षण, शोधन या खुलासा किए जाने का सामना करते हैं, या खतरनाक परिस्थितियों का सामना करते हैं, तो वे तुरंत सोचने लगते हैं, “क्या परमेश्वर अब मुझे नहीं चाहता? क्या वह मुझे ठुकरा रहा है? जिस लहजे में वह मुझसे बात करता है वह बहुत कठोर है; क्या वह मुझे बचाना नहीं चाहता? क्या वह मुझे हटा देना चाहता है? अगर वह मुझे हटा देना चाहता है, तो उसे जल्द से जल्द मेरी युवावस्था में ही यह कह देना चाहिए ताकि दुनियादारी के मेरे अनुसरणों में बाधा न पड़े।” इससे उनमें नकारात्मकता, प्रतिरोध, विरोध और सुस्ती पैदा होती है। ये कुछ स्थितियाँ और अभिव्यक्तियाँ हैं जो बताती हैं कि लोग अपनी संभावनाओं और नियति को किस तरह से लेते हैं। यह एक महत्वपूर्ण कठिनाई है जिसका संबंध जीवन प्रवेश से है।
III. अंतर्वैयक्तिक संबंधों से जुड़ी कठिनाइयाँ
आओ, एक और पहलू पर नजर डालें—अंतर्वैयक्तिक संबंध। यह भी जीवन प्रवेश से संबंधित एक महत्वपूर्ण कठिनाई है। उन लोगों के साथ तुम कैसा व्यवहार करते हो जो तुम्हें नापसंद हैं, या जिनकी राय तुमसे अलग होती है, या जो लोग तुम्हारे परिचित हैं, या जिन लोगों के साथ तुम्हारा पारिवारिक संबंध है या जिन्होंने कभी तुम्हारी मदद की है, और जो लोग तुम्हें हमेशा उचित चेतावनी देते हैं, और तुमसे सच बोलते हैं, और तुम्हारी मदद करते हैं और क्या तुम प्रत्येक व्यक्ति के साथ निष्पक्ष व्यवहार कर सकते हो, साथ ही तुम कैसे व्यवहार करते हो जब दूसरे लोगों के साथ विवाद होता है, जब तुम लोगों के बीच ईर्ष्या और संघर्ष उत्पन्न होते हैं, और जब तुम सामंजस्यपूर्ण ढंग से बातचीत करने में सक्षम नहीं होते, या अपने कर्तव्यों को करने की प्रक्रिया में सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग तक नहीं कर पाते—ये अंतर्वैयक्तिक संबंधों से जुड़ी कुछ स्थितियाँ और अभिव्यक्तियाँ हैं। क्या कुछ और भी स्थितियाँ और अभिव्यक्तियाँ हैं? (खुशामदी इंसान होना और किसी दूसरे व्यक्ति की समस्याओं का पता चलने पर उनकी नाराजगी के डर से बोलने की हिम्मत न करना।) यह वह स्थिति है जो तब उत्पन्न होती है जब कोई दूसरों को नाराज करने से डरता है। (इसके अलावा, कोई अगुआओं और कार्यकर्ताओं, या सत्ता और रुतबे वाले लोगों के साथ कैसा व्यवहार करता है।) तुम अगुआओं और कार्यकर्ताओं, या सत्ता और रुतबे वाले लोगों के साथ कैसे पेश आते हो—चापलूसी और चाटुकारिता से, या सही तरीके से—वह इस बात की विशिष्ट अभिव्यक्ति है कि तुम सत्ता और प्रभाव रखने वालों के साथ कैसा व्यवहार करते हो। ये कमोबेश अंतर्वैयक्तिक संबंधों की कठिनाइयाँ हैं।
IV. मानवीय भावनाओं से संबंधित मुद्दे
आओ, थोड़ी बात मानवीय भावनाओं के बारे में करें। कौन से मसले भावनाओं से संबंधित हैं? पहला यह है कि तुम अपने परिवार के सदस्यों का मूल्यांकन कैसे करते हो और उनके कार्यकलापों को कैसे देखते हो। यहाँ “उनके कार्यकलापों” में कलीसिया के काम में विघ्न-बाधा डालना, पीठ पीछे लोगों की आलोचना करना, छद्म-विश्वासियों जैसे अभ्यास अपनाना, इत्यादि स्वाभाविक रूप से शामिल हैं। क्या तुम इन चीजों को निष्पक्ष रूप से देख सकते हो? जब तुम्हारे लिए अपने परिवार के सदस्यों का मूल्यांकन लिखना आवश्यक हो तो क्या तुम अपनी भावनाओं को एक तरफ रखकर वस्तुपरक और निष्पक्ष रूप से ऐसा कर सकते हो? इसका संबंध इस बात से है कि तुम अपने परिवार के सदस्यों के प्रति कैसा रवैया रखते हो। इसके अलावा, क्या तुम उन लोगों के प्रति भावनाएँ रखते हो जिनके साथ तुम्हारी निभती है या जिन्होंने तुम्हारी पहले कभी मदद की है? क्या तुम उनके कार्यकलापों और व्यवहार को वस्तुनिष्ठ, निष्पक्ष और सटीक तरीके से देख पाते हो? अगर वे कलीसिया के काम में गड़बड़ी पैदा करते हैं और बाधा डालते हैं तो क्या तुम इसके बारे में पता चलने के बाद तुरंत रिपोर्ट कर पाओगे या उन्हें उजागर कर सकोगे? यह भी कि क्या तुम उन लोगों के प्रति भावनाएँ रखते हो जो अपेक्षाकृत तुम्हारे करीब हैं या जिनकी रुचियाँ तुम्हारे ही जैसी हैं? क्या तुम्हारे पास उनके कार्यकलापों और व्यवहार का निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन करने, इन्हें परिभाषित करने और इनसे निपटने का तरीका है? मान लो कि जिन लोगों के साथ तुम्हारा भावनात्मक संबंध है उनसे कलीसिया सिद्धांतों के अनुसार निपटती है और इसके परिणाम तुम्हारी अपनी धारणाओं के अनुरूप नहीं होते हैं—तो तुम इसे कैसे देखोगे? क्या तुम आज्ञापालन कर पाओगे? क्या तुम उनसे गुपचुप जुड़े रहोगे, क्या तुम उनसे गुमराह होते जाओगे और यहाँ तक कि उनके लिए बहाने बनाने, उन्हें सही ठहराने और उनका बचाव करने के लिए उनके उकसावे में आते जाओगे? क्या तुम सत्य सिद्धांतों की अवहेलना और परमेश्वर के घर के हितों की अनदेखी करते हुए अपनी मदद करने वाले लोगों का सहयोग करोगे और उनके दोष अपने सिर पर लोगे? क्या ऐसे विभिन्न मुद्दे भावनाओं से संबंधित नहीं हैं? कुछ लोग कहते हैं, “क्या भावनाओं का संबंध केवल रिश्तेदारों और परिवार के सदस्यों से नहीं होता है? क्या भावनाओं का दायरा सिर्फ तुम्हारे माता-पिता, भाई-बहन और परिवार के दूसरे सदस्यों तक सीमित नहीं है?” नहीं, भावनाओं में लोगों का एक व्यापक दायरा शामिल होता है। अपने परिवार के सदस्यों का निष्पक्ष मूल्यांकन करने की बात तो भूल ही जाओ—कुछ लोग तो अपने अच्छे दोस्तों और साथियों का भी निष्पक्ष मूल्यांकन करने में सक्षम नहीं होते हैं और इन लोगों के बारे में बोलते हुए वे तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करते हैं। उदाहरण के लिए, अगर उनका दोस्त अपने कर्तव्य के दौरान उचित कार्य पर ध्यान न देकर हमेशा कुटिल और दुष्ट चलनों में लिप्त रहता है तो वे उसे काफी चंचल बताकर कहेंगे कि अभी उसकी मानवता अपरिपक्व और अस्थिर है। क्या इन शब्दों में भावनाएँ नहीं छिपी हैं? यह भावनाओं से भरे हुए शब्द बोलना है। अगर कोई ऐसा व्यक्ति जिसका उनसे कोई संबंध नहीं है, अपने उचित काम पर ध्यान नहीं देता और कुटिल और दुष्ट चलनों में लिप्त रहता है, तो उसके बारे में कहने के लिए उनके पास और कठोर बातें होंगी और वे उनकी निंदा भी कर सकते हैं। क्या यह भावनाओं के आधार पर बोलने और कार्य करने की अभिव्यक्ति नहीं है? क्या अपनी भावनाओं के अनुसार जीने वाले लोग निष्पक्ष होते हैं? क्या वे ईमानदार होते हैं? (नहीं।) जो लोग अपनी भावनाओं के अनुसार बोलते हैं, उनमें क्या गड़बड़ है? वे दूसरों के साथ निष्पक्ष व्यवहार क्यों नहीं कर सकते? वे सत्य सिद्धांतों के आधार पर क्यों नहीं बोल सकते? दोगली बातें करने वाले और तथ्यों के आधार पर न बोलने वाले लोग दुष्ट होते हैं। बोलते समय निष्पक्ष न होना, हमेशा सत्य सिद्धांतों के अनुसार नहीं बल्कि अपनी भावनाओं के अनुसार और अपने हित के लिए बोलना, परमेश्वर के घर के कार्य के बारे में न सोचना और केवल अपनी व्यक्तिगत भावनाओं, प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे की रक्षा करना—यही मसीह-विरोधियों का चरित्र है। मसीह-विरोधी इसी तरह बोलते हैं; वे जो कुछ भी कहते हैं वह दुष्टतापूर्ण, विघ्न-बाधा पैदा करने वाला होता है। जो लोग देह की प्राथमिकताओं और हितों के बीच जीते हैं, वे अपनी भावनाओं में जीते हैं। जो लोग अपनी भावनाओं के अनुसार जीते हैं, वे वही लोग हैं जो सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते या उसका अभ्यास नहीं करते हैं। जो लोग अपनी भावनाओं के आधार पर बोलते और कार्य करते हैं, उनमें जरा भी सत्य वास्तविकता नहीं होती। यदि ऐसे लोग अगुआ बन जाते हैं तो वे निस्संदेह नकली अगुआ या मसीह-विरोधी होंगे। न केवल वे वास्तविक कार्य करने में असमर्थ होते हैं, बल्कि वे विभिन्न कुकर्मों में भी संलिप्त हो सकते हैं। उन्हें निश्चित रूप से हटा दिया जाएगा और दंडित किया जाएगा।
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