अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (17) खंड पाँच
अपने कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में लोग अक्सर नकारात्मक और विद्रोही दशाओं का अनुभव करते हैं। अगर वे सत्य खोज सकें और इन समस्याओं को हल करने और इनका समाधान करने के लिए सत्य सिद्धांतों का उपयोग कर सकें तो उनकी नकारात्मक भावनाएँ शिकायतों, प्रतिरोध, अवज्ञा, शोर-शराबे या यहाँ तक कि तिरस्कार में नहीं बदलेंगी। लेकिन अगर लोग इन चीजों से केवल अपनी तुच्छ चतुराई, मानवीय आत्म-संयम, मानवीय प्रयास, लगन, अपने शरीर को अनुशासित करने और ऐसे ही अन्य तरीकों पर भरोसा करके निपटते हैं तो देर-सवेर ये मानवीय कल्पनाएँ, आकलन और अनुमान परमेश्वर के प्रति शिकायत, अवज्ञा, प्रतिरोध, शोर-शराबे और यहाँ तक कि ईश-निंदा बन जाएँगे। जब लोग ऐसी नकारात्मक भावनाओं में फँसे होते हैं तो उनमें ऐसी अन्य भावनाओं या विचारों के साथ-साथ अवज्ञा, असंतोष और परमेश्वर के खिलाफ शिकायतें विकसित हो सकती हैं। जब ये विचार समय के साथ लोगों के अंदर जमा हो जाते हैं और वे फिर भी सत्य नहीं खोजते या उनका समाधान करने के लिए सत्य का उपयोग नहीं करते तो उनकी अवज्ञा, असंतोष और शिकायतें अवहेलना में बदल जाएँगी; अपनी अवज्ञा और असंतोष को व्यक्त करने के लिए वे अपने अन्य नकारात्मक व्यवहारों के साथ-साथ विद्रोही व्यवहार करेंगे जैसे कि अपने कर्तव्यों को अनमने ढंग से निभाना या जानबूझकर कलीसिया के काम में बाधा डालना और उसे नष्ट करना और इस तरह वे परमेश्वर की अवहेलना करने के अपने उद्देश्य को प्राप्त करते हैं। कुछ लोग दूसरों के कर्तव्य निर्वहन को बर्बाद और बाधित करते हैं। उनके क्रियाकलापों के पीछे छिपा अर्थ है : “अगर मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा सकता या अगर परमेश्वर मेरे कर्तव्य में मुझे आशीष नहीं देता तो मैं यह सुनिश्चित करूँगा कि तुम लोगों में से कोई भी अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से न निभा सके!” और फिर वे बाधाएँ पैदा करना शुरू कर देते हैं। कुछ लोग अपनी बातों के जरिये ऐसा करते हैं तो कुछ अन्य क्रियाकलापों का उपयोग करते हैं। जो लोग अपने क्रियाकलापों से दूसरों को परेशान करते हैं वे क्या कर सकते हैं? उदाहरण के लिए, वे किसी के कर्तव्य के नतीजों को प्रभावित करने के लिए जानबूझकर उसके कंप्यूटर से फाइलें मिटा सकते हैं या वे जानबूझकर ऑनलाइन सभाओं में बाधाएँ डाल सकते हैं। यह राक्षसों और शैतानों का लोगों को परेशान करने का तरीका है। लोग इसे समझ नहीं पाते : “उम्र में इतना बड़ा होकर भी कोई व्यक्ति ऐसी नीच हरकतें कैसे कर सकता है? आखिर वे किशोर तो नहीं हैं; वे अभी भी ऐसी शरारतें कैसे कर सकते हैं?” वास्तव में, अपनी उम्र के तीस, चालीस, पचास या साठ की दशक में चल रहे लोग भी ऐसी हरकतें कर सकते हैं। ये विभिन्न व्यवहार अकल्पनीय हैं; ये अंतरात्मा और विवेक वाले व्यक्ति के क्रियाकलाप नहीं हैं बल्कि राक्षसों और शैतानों के काम हैं। यह देखकर कि दूसरे लोगों पर कोई असर नहीं हुआ और उनके अपने लक्ष्य हासिल नहीं हुए हैं, ऐसे लोग बहुत से लोगों की मौजूदगी में या सभाओं के दौरान नकारात्मकता फैलाते हैं और बाधाएँ पैदा करते हैं। जब वे अपने क्रियाकलापों के माध्यम से अपना असंतोष दिखाने लगते हैं, तो स्थिति को काबू में करना पहले ही मुश्किल हो जाता है; उन पर लगाम लगाना बहुत कठिन है, और अगर स्थिति बिगड़ती जाती है तो यह मुश्किल केवल बढ़ सकती है, प्रकृति में और ज्यादा गंभीर हो सकती है। वे न केवल अपने क्रियाकलापों से बाधाएँ पैदा करते हैं बल्कि विभिन्न साधनों और तरीकों को अपनाते हुए दूसरों को उनके कर्तव्य निर्वहन के दौरान परेशान करने के लिए आक्रामक और आलोचनात्मक भाषा का भी उपयोग करते हैं। चाहे वे अपने लक्ष्य को प्राप्त करें या न करें, वे अपने दिल में परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं; वे परमेश्वर के वचनों को नहीं पढ़ते या भजन नहीं सीखते हैं, और परमेश्वर के वचनों या सत्य से संबंधित कोई भी पुस्तक पढ़ने से इनकार करते हैं। वे घर पर क्या करते हैं? वे उपन्यास पढ़ते हैं, टीवी सीरीज देखते हैं, खाना पकाने की तकनीक सीखते हैं, मेकअप और हेयरस्टाइल करना सीखते हैं...। सभाओं के दौरान, वे परमेश्वर के वचनों की अपनी समझ के बारे में संगति नहीं करते, न ही वे भ्रष्ट स्वभावों और भ्रष्टता के खुलासों को हल करने के तरीके के बारे में संगति करते हैं। जब दूसरे संगति करते हैं तो वे जानबूझकर बीच में घुस जाते हैं, जो कोई भी बोल रहा होता है उसे बीच में ही रोक देते हैं, जानबूझकर विषय बदल देते हैं, हमेशा कमजोर करने और बाधित करने वाली बातें कहते हैं। वे इस तरह काम क्यों करते हैं? इसका कारण उनका यह मानना है कि उन्हें उद्धार मिलने की कोई उम्मीद नहीं है और इसलिए वे हार मान लेते हैं और लापरवाही से काम करना शुरू कर देते हैं; वे कलीसिया से निकाले जाने या निष्कासित होने से पहले कुछ साथी ढूँढ़ने की कोशिश करते हैं—अगर उन्हें आशीष नहीं मिल सकते तो वे यह सुनिश्चित करेंगे कि दूसरों को भी न मिलें। वे इस तरह से क्यों सोचते हैं? उन्हें लगता है कि जिस परमेश्वर में वे विश्वास रखते हैं वह उस परमेश्वर जैसा नहीं है जिसकी उन्होंने शुरू में कल्पना की थी; वह लोगों से उतना प्यार नहीं करता जितनी उन्होंने कल्पना की थी और न ही वह उतना धार्मिक है और वह निश्चित रूप से लोगों के प्रति उतना स्नेही भी नहीं है जितनी उन्होंने कल्पना की थी। परमेश्वर दूसरों से प्रेम करता है मगर उनसे नहीं; परमेश्वर दूसरों को बचाता है मगर उन्हें नहीं। अब जब उन्हें अपने लिए कोई उम्मीद नहीं दिखती और उन्हें लगता है कि उन्हें बचाया नहीं जा सकता तो वे हार मानकर लापरवाही से काम करना शुरू कर देते हैं। मगर इतना ही नहीं; वे दूसरों को भी यह दिखाना चाहते हैं कि चूँकि उनके लिए कोई उम्मीद नहीं है इसलिए दूसरों के लिए भी कोई उम्मीद नहीं है, और वे तभी संतुष्ट होते हैं जब वे सभी को परमेश्वर में अपनी आस्था छोड़ने और अपने विश्वास से पीछे हटने पर मजबूर कर दें। ऐसा करने के पीछे उनका यह लक्ष्य है : “अगर मैं स्वर्ग के राज्य के आशीष प्राप्त नहीं कर सकता तो बेहतर होगा कि तुम लोग भी उन्हें पाने का सपना न देखो!” ऐसा व्यक्ति किस तरह का अभागा है? क्या वह शैतान नहीं है? वह एक शैतान है जो नरक में जाएगा, जो दूसरों को भी परमेश्वर में विश्वास रखने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने से रोकता है; वह सीधे एक बंद गली की ओर बढ़ रहा है! जिस किसी के पास थोड़ी अंतरात्मा और थोड़ा दिल है, जो परमेश्वर से डरता है उसे इस तरह से काम नहीं करना चाहिए; अगर वह वास्तव में बहुत बड़ी बुराई करता है और उसे बेनकाब किया जाता है जिससे उसे लगता है कि अब उसके पास कोई उम्मीद नहीं है तो वह अभी भी दूसरों को सफल होने में मदद करने का लक्ष्य रखेगा, दूसरों को ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास रखने देगा और अपनी मिसाल पर चलने नहीं देगा। वह कह सकता है, “मैं बहुत कमजोर हूँ, मेरी दैहिक इच्छाएँ प्रबल हैं और मैं संसार के प्रति बहुत ज्यादा आसक्त हूँ। यह मेरी अपनी गलती है; मैं इसी के लायक हूँ! तुम लोग ईमानदार विश्वासी बने रहो; मेरे बहकावे में मत आओ। सभाओं के दौरान मैं नजर रखूँगा और अगर बड़े लाल अजगर की पुलिस गाँव में प्रवेश करती है तो मैं तुम लोगों को सावधान कर दूँगा।” जिस किसी में रत्ती भर भी मानवता है उसे कम से कम इतना तो करना ही चाहिए और दूसरों के सत्य के अनुसरण में बाधा नहीं डालनी चाहिए। मगर जिन लोगों में मानवता नहीं है, जब चीजें उनके हिसाब से नहीं होतीं या जब वे भाई-बहनों को उन्हें नीची नजरों से देखते और खुद को उनसे दूर करते देखते हैं तो उन्हें लगता है कि परमेश्वर ने उन्हें बेनकाब करके हटा दिया है, उन्हें उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है। जब वे ऐसे विचारों और ऐसी सोच पालते हैं, तो वे हार मानकर लापरवाही से काम करना शुरू कर देते हैं, नकारात्मकता फैलाते हैं और बिना किसी संकोच के कलीसियाई जीवन में बाधाएँ डालते हैं। ऐसा किस तरह के लोग करते हैं? क्या वे शैतान नहीं हैं? (हाँ।) क्या किसी को शैतानों के प्रति शिष्टता दिखानी चाहिए? (नहीं।) तो इससे कैसे निपटा जाना चाहिए? तुम कहो, “तुम सभाओं में आकर भी न तो परमेश्वर के वचन पढ़ते हो और न ही सत्य स्वीकारते हो। फिर तुम यहाँ किस लिए हो? बाधाएँ डालने के लिए, है ना? तुम सोचते हो कि तुम्हारे लिए उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है; वास्तव में हमें भी नहीं लगता कि हमारे पास ज्यादा उम्मीद है मगर हम फिर भी कोशिश करते हैं। हम मानते हैं कि परमेश्वर पक्षपाती नहीं है, वह भरोसेमंद है, लोगों को बचाने में उसका दिल सच्चा है और उसका दिल नहीं बदलता। जब तक उम्मीद की एक किरण बाकी है हम हार नहीं मानेंगे। हम लगातार नकारात्मक नहीं रहेंगे और तुम्हारी तरह परमेश्वर को गलत नहीं समझेंगे। अगर तुम्हें लगता है कि तुम हमें बाधित कर सकते हो या हमें रोक सकते हो तो तुम सपने देख रहे हो! अगर तुम जिद्दी बने रहते हो, इसी तरह विश्वास रखना जारी रखते हो, और दुर्भावनापूर्ण ढंग से हमें परेशान करना चाहते हो तो हमें तुम्हारे प्रति अशिष्ट होने का दोष मत दो। आज से तुम बाहर कर दिए गए हो; अब कलीसिया में तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं है। अब दफा हो जाओ!” इस तरह, क्या समस्या का समाधान नहीं हो गया है? यह सरल है, बस कुछ शब्द बोले और वे दूर कर दिए जाते हैं। ऐसा करना बहुत आसान काम है! मगर ऐसा क्यों करना है? क्योंकि ऐसे लोगों का प्रकृति सार नहीं बदल सकता है; वे सत्य स्वीकार नहीं करेंगे। उन्हें लगता है कि उनके लिए उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है; परमेश्वर ने ऐसा नहीं कहा है, न ही भाई-बहनों ने ऐसा कहा, फिर भी वे इस तरह से बुराई करते और बाधाएँ डालते हैं। अगर एक दिन उन्हें वास्तव में बुराई करने और कलीसिया के काम में बाधा डालने के कारण निष्कासित कर दिया जाता है या अगर परमेश्वर उन्हें सत्य का अनुसरण नहीं करने के कारण अनुशासित करता है तो वे क्या करेंगे? क्या वे परमेश्वर के दुश्मन बन सकते हैं, क्या वे बदला लेने की कोशिश कर सकते हैं? यह बहुत मुमकिन है! यह अच्छा है कि ऐसे लोगों को कोई भी कुकर्म या कोई भी बड़ी बुराई करने से पहले ही उजागर कर दिया जाए। यह परमेश्वर का कार्य है; परमेश्वर ने उन्हें प्रकट किया है। अब उन्हें दूर कर देना बिल्कुल सही है; अन्य लोगों को अभी तक कोई नुकसान नहीं हुआ है। इस तरह से निपटना समय के अनुरूप भी है और उचित भी; हर कोई उनका भेद पहचान लेता है, और बुरे लोगों से निपटा जाता है। एक विषमता के रूप में उनकी भूमिका पर्याप्त रूप से पूरी हो गई है।
मूल रूप से, ये उन लोगों की विभिन्न अवस्थाएँ और अभिव्यक्तियाँ होती हैं जो नकारात्मकता प्रकट करते हैं। जब रुतबा, शोहरत और लाभ पाने की उनकी इच्छा पूरी नहीं होती है, जब परमेश्वर ऐसी चीजें करता है जो उनकी धारणाओं और कल्पनाओं के उलट होती हैं, ऐसी चीजें जिनमें उनके हित शामिल होते हैं, तो वे अवज्ञा और असंतोष की भावनाओं में उलझ जाते हैं। और जब उनमें ऐसी भावनाएँ होती हैं, तो उनके मन में बहाने, युक्तियाँ, खुद को सही ठहराने, अपना बचाव के तरीके और शिकायत करने के अन्य विचार पैदा होने लगते हैं। इस समय, वे परमेश्वर का गुणगान नहीं करते या उसके प्रति समर्पण नहीं करते, और खुद को जानने के लिए सत्य खोजने की कोशिश तो बिल्कुल नहीं करते; इसके बजाय, वे अपनी धारणाओं, कल्पनाओं, सोच और दृष्टिकोणों या उग्रता का प्रयोग करके परमेश्वर के खिलाफ लड़ने लगते हैं। वे परमेश्वर के खिलाफ कैसे लड़ते हैं? वे अवज्ञा और असंतोष की अपनी भावनाएँ फैलाने लगते हैं, और इस तरीके से अपनी सोच और दृष्टिकोण परमेश्वर के सामने स्पष्ट कर देते हैं; वे परमेश्वर को अपनी मर्जी और माँगों के हिसाब से चलाकर अपनी इच्छाएँ पूरी करवाने की कोशिश करते हैं, इसके बाद ही उनकी भावनाएँ तृप्त होती हैं। परमेश्वर, खास तौर पर लोगों के न्याय और ताड़ना के लिए, उनके भ्रष्ट स्वभाव के शुद्धिकरण के लिए, उन्हें शैतान के प्रभाव से बचाने के लिए, बहुत-से सत्य प्रकट किए हैं, और किसे पता है कि इन सत्यों ने कितने लोगों के आशीष प्राप्त करने के सपनों को चकनाचूर किया है, कितने लोगों की स्वर्ग के राज्य में उठाए जाने की उस फंतासी को ध्वस्त किया है जिसकी वे रात-दिन उम्मीद करते रहे। वे चीजों को ठीक करने के लिए वह सब कुछ करने के लिए तैयार हैं जो वे कर सकते हैं—पर वे शक्तिहीन हैं, वे नकारात्मकता और असंतोष के साथ सिर्फ बर्बादी के गर्त में जा सकते हैं। वे उन सभी चीजों के प्रति अवज्ञाकारी हैं जिन्हें परमेश्वर ने व्यवस्थित किया है, क्योंकि परमेश्वर जो करता है वह उनकी धारणाओं, हितों और विचारों के विरुद्ध होता है। खासतौर से, जब कलीसिया शोधन का काम करती है और बहुत-से लोगों को हटा देती है, तो ये लोग सोचते हैं कि परमेश्वर उन्हें नहीं बचाता, परमेश्वर ने उन्हें ठुकरा दिया है, उनके साथ अन्याय हो रहा है, और इसलिए वे परमेश्वर की अवहेलना करने में एकजुट होंगे; वे इस बात को नकारेंगे कि परमेश्वर ही सत्य है, परमेश्वर की पहचान और सार को नकारते हैं, और परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को नकारते हैं। निश्चित ही, वे सभी चीजों पर परमेश्वर की संप्रभुता को भी नकारेंगे। और वे किन साधनों से इन सबको नकारते हैं? अवहेलना और प्रतिरोध से। इसका तात्पर्य यह होता है, “परमेश्वर जो करता है, वह मेरी धारणाओं से मेल नहीं खाता, इसलिए मैं समर्पण नहीं करता, मैं नहीं मानता कि तुम सत्य हो, मैं तुम्हारे खिलाफ शोर मचाऊँगा, और ये चीजें कलीसिया में और लोगों के बीच फैलाऊँगा! जो भी जी में आए मैं वह कहूँगा, और मुझे इसके परिणामों की परवाह नहीं है। मुझे बोलने की आजादी है; तुम मेरा मुँह बंद नहीं करवा सकते—मैं जो चाहे कहूँगा। तुम क्या कर सकते हो?” जब ये लोग अपनी गलत सोच और दृष्टिकोणों को जाहिर करने पर जोर देते हैं, तो क्या वे अपनी खुद की समझ के बारे में बात कर रहे होते हैं? क्या वे सत्य के बारे में संगति कर रहे होते हैं? बिल्कुल भी नहीं। वे नकारात्मकता फैला रहे होते हैं; वे पाखंडों और भ्रांतियों को जाहिर कर रहे होते हैं। वे अपनी खुद की भ्रष्टता को जानने या उसे उजागर करने की कोशिश नहीं कर रहे होते हैं; वे उन चीजों को उजागर नहीं करते हैं जो उन्होंने किए हैं और जो सत्य से मेल नहीं खाते हैं, न ही अपनी गलतियों को उजागर करते हैं। इसके बजाय, वे अपनी गलतियों के लिए तर्क देने की, उनका बचाव करने की भरसक कोशिश कर रहे होते हैं ताकि ये साबित करें कि वे सही हैं, और इसके साथ ही वे एक बेतुका निष्कर्ष भी निकालते हैं, और विपरीत और विकृत दृष्टिकोणों, और तोड़-मरोड़कर पेश किए गए तर्कों और पाखंडों को सामने रखते हैं। कलीसिया में परमेश्वर के चुने हुए लोगों पर इसका प्रभाव उन्हें गुमराह और बाधित करने वाला होता है; इससे लोग नकारात्मक अवस्था और उलझन के शिकार भी हो सकते हैं। ये सभी नकारात्मकता प्रकट करने वाले लोगों द्वारा पैदा किए गए प्रतिकूल प्रभाव और गड़बड़ियाँ हैं। इसलिए जो लोग नकारात्मकता फैलाते हैं उन्हें और उनकी बातों और व्यवहार को प्रतिबंधित किया जाना चाहिए—उन्हें इसकी खुली छूट या अनुमति नहीं देनी चाहिए। कलीसिया के पास इन लोगों से निपटने के लिए उपयुक्त तरीके और सिद्धांत होने चाहिए। पहली बात, भाई-बहनों को इन लोगों और उनकी नकारात्मक टिप्पणियों को पहचानना चाहिए। दूसरी बात, जब परमेश्वर के चुने हुए लोग इन्हें पहचान लें तो कलीसिया को सत्य सिद्धांतों के अनुसार इन लोगों को तुरंत बहिष्कृत या निष्काषित कर देना चाहिए ताकि और ज्यादा लोगों को प्रभावित और बाधित होने से रोका जा सके। इसके साथ ही नकारात्मकता फैलाने के विभिन्न पहलुओं पर हमारी संगति पूरी होती है।
ग. नकारात्मकता का समाधान करने के सिद्धांत और मार्ग
लोगों में शैतानी प्रकृति होती है; वे शैतानी स्वभाव के अनुसार जीते हैं, जिससे नकारात्मक दशाओं से बचना मुश्किल होता है। खासकर जब कोई व्यक्ति सत्य को नहीं समझता है, तो नकारात्मकता का होना आम बात है। हर किसी के जीवन में नकारात्मकता के पल आते हैं; कुछ अक्सर आते हैं, कुछ कम आते हैं, कुछ लंबे समय के लिए आते हैं, और कुछ थोड़ी देर के लिए आते हैं। लोगों के आध्यात्मिक कदों में फर्क होता है और उनकी नकारात्मकता की दशाओं में भी फर्क होता है। बड़े आध्यात्मिक कद वाले लोग सिर्फ परीक्षणों का सामना करने पर ही कुछ हद तक नकारात्मक हो जाते हैं, जबकि जब दूसरे लोग कुछ धारणाएँ फैलाते हैं या बेतुकी बातें करते हैं, तो छोटे आध्यात्मिक कद वाले लोग, जो अब भी सत्य को नहीं समझते हैं, इसे पहचान नहीं पाते हैं; वे परेशान, प्रभावित और नकारात्मक हो सकते हैं। उत्पन्न होने वाली कोई भी समस्या उन्हें नकारात्मक बना सकती है, यहाँ तक कि वे मामूली बातें भी जो जिक्र करने लायक नहीं हैं। अक्सर होने वाली नकारात्मकता के इस मुद्दे को कैसे सुलझाना चाहिए? अगर किसी को यह नहीं पता है कि सत्य की तलाश कैसे करनी है, वो यह नहीं जानता है कि परमेश्वर के वचनों को कैसे खाना-पीना है या परमेश्वर से प्रार्थना कैसे करनी है, तो यह बहुत ही मुश्किल हो जाता है; वह सिर्फ भाई-बहनों के साथ और उनकी मदद पर भरोसा कर सकता है। अगर कोई मदद नहीं कर पाता है, या अगर वह मदद स्वीकार नहीं करता है, तो वह इतना नकारात्मक हो सकता है कि वह इससे उबर ही नहीं पाता है और यहाँ तक कि वह विश्वास रखना भी बंद कर सकता है। देखो, किसी का हमेशा धारणाएँ रखना और आसानी से नकारात्मक हो जाना बहुत खतरनाक है। ऐसे लोगों के साथ चाहे किसी भी तरीके से सत्य की संगति क्यों ना की जाए, वे इसे स्वीकार नहीं करते हैं, हमेशा इस बात पर अड़े रहते हैं कि उनकी अपनी धारणाएँ और कल्पनाएँ सही हैं; वे बेहद तकलीफदेह लोग होते हैं। तुम चाहे कितने भी नकारात्मक क्यों ना हो, तुम्हें अपने दिल में यह समझना चाहिए कि धारणाएँ होने का यह अर्थ नहीं है कि वे सत्य के अनुरूप हैं; इसका यह अर्थ है कि तुम्हारी समझ में कोई समस्या है। अगर तुम्हारे पास कुछ विवेक है, तो तुम्हें इन धारणाओं को नहीं फैलाना चाहिए; लोगों को कम से कम इसे तो बनाए रखना ही चाहिए। अगर तुम्हारे पास थोड़ा सा भी परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है और तुम यह स्वीकार सकते हो कि तुम परमेश्वर के अनुयायी हो, तो तुम्हें अपनी धारणाओं को सुलझाने के लिए सत्य की तलाश करनी चाहिए, सत्य के प्रति समर्पण करना चाहिए, और विघ्न-बाधाएँ और गड़बड़ियाँ उत्पन्न करने से बचना चाहिए। अगर तुम ऐसा नहीं कर सकते हो और धारणाएँ फैलाने पर अड़े रहते हो, तो इसका अर्थ यह है कि तुम अपना विवेक खो चुके हो; तुम मानसिक रूप से असामान्य हो, राक्षसों के कब्जे में हो, और तुम्हारा खुद पर नियंत्रण नहीं है। राक्षसों के प्रभाव में, चाहे कुछ भी हो जाए तुम बोल-बोलकर इन धारणाओं को फैलाते हो—इसमें कुछ नहीं किया जा सकता है, यह बुरी आत्माओं का कार्य है। अगर तुम्हारे पास कुछ जमीर और सूझ-बूझ है, तो तुम्हें यह कर पाने में सक्षम होना चाहिए : धारणाएँ मत फैलाओ, और भाई-बहनों को परेशान मत करो। भले ही तुम नकारात्मक हो जाओ, तुम्हें भाई-बहनों को नुकसान पहुँचाने वाली चीजें नहीं करनी चाहिए; तुम्हें बस अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना चाहिए, तुम्हें वही करना चाहिए जो तुम सही तरीके से कर सकते हो, और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि तुम आत्म-निंदा से परे हो—यह खुद के आचरण का न्यूनतम मानक है। भले ही तुम कभी-कभी नकारात्मक हो जाते हो, लेकिन तुमने सीमाओं को लाँघने के लिए कुछ भी नहीं किया है, तो परमेश्वर तुम्हारी नकारात्मकता पर ज्यादा ध्यान नहीं देगा। जब तक तुम्हारे पास जमीर और सूझ-बूझ है, तुम परमेश्वर से प्रार्थना करने और उस पर भरोसा करने में समर्थ हो, और सत्य की तलाश करते हो, तब तक अंत में तुम सत्य को समझ जाओगे और खुद को बदल डालोगे। अगर तुम महत्वपूर्ण घटनाओं का सामना करते हो, जैसे कि अगुआ के रूप में वास्तविक कार्य नहीं करने के कारण बर्खास्त किया जाना और हटाया जाना, और तुम्हें लगता है कि उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है, और तुम नकारात्मक हो जाते हो—इस हद तक नकारात्मक हो जाते हो कि तुम उबर नहीं पाते हो, तुम्हें लगता है जैसे तुम्हारी निंदा की गई है और तुम्हें धिक्कारा गया है, और तुम्हारे मन में परमेश्वर के खिलाफ गलतफहमियाँ और शिकायतें जन्म ले लेती हैं—तो तुम्हें क्या करना चाहिए? इससे निपटना बहुत ही आसान है : संगति करने और तलाश करने के लिए कुछ ऐसे लोगों को ढूँढ़ो जो सत्य को समझते हैं, और इन लोगों को अपने दिल की सारी बातें बता दो। इससे भी जरूरी यह है कि तुम परमेश्वर के सामने आओ ताकि एक-एक करके अपनी नकारात्मकता और कमजोरी के बारे में, और कुछ ऐसी चीजों के बारे में सच्चाई से प्रार्थना कर सको जिन्हें तुम नहीं समझते हो और जिन पर तुम काबू नहीं पा सकते हो—परमेश्वर के साथ संगति करो, कुछ भी मत छिपाओ। अगर ऐसी कुछ अकथनीय चीजें हैं जिन्हें तुम दूसरों के सामने व्यक्त नहीं कर सकते हो, तो यह और भी अनिवार्य हो जाता है कि तुम प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के सामने आओ। कुछ लोग पूछते हैं, “क्या परमेश्वर से इसके बारे में बात करने से निंदा नहीं होती है?” क्या तुम पहले से ही ऐसी बहुत सी चीजें नहीं कर चुके हो जो परमेश्वर का प्रतिरोध करती हैं और उसकी निंदा अर्जित करती हैं? तो इस एक और चीज के जुड़ने से क्यों फिक्र करते हो? क्या तुम्हें लगता है कि अगर तुम इसके बारे में नहीं बोलोगे, तो परमेश्वर को पता नहीं चलेगा? परमेश्वर वह हर चीज जानता है जो तुम सोचते हो। तुम्हें परमेश्वर के साथ खुलकर संगति करनी चाहिए, अपने दिल की सारी बातें कह देनी चाहिए, अपनी समस्याओं और दशाओं को सच्चाई से उसके सामने प्रस्तुत कर देना चाहिए। तुम्हारी कमजोरी, विद्रोहीपन और यहाँ तक कि तुम्हारी शिकायतें भी परमेश्वर से कही जा सकती हैं; अगर तुम अपनी भड़ास ही निकालना चाहते हो, तो भी कोई बात नहीं—परमेश्वर इसकी निंदा नहीं करेगा। परमेश्वर इसकी निंदा क्यों नहीं करता है? परमेश्वर को मनुष्य का आध्यात्मिक कद मालूम है; भले ही तुम उससे बात न करो, तो भी उसे तुम्हारा आध्यात्मिक कद पता है। परमेश्वर से बात करके, एक लिहाज से, यह तुम्हारे लिए खुद को बेनकाब करने और परमेश्वर के सामने खुलने का अवसर है। दूसरे लिहाज से, यह परमेश्वर के प्रति तुम्हारे समर्पण के रवैये को भी दिखाता है; कम-से-कम, तुम परमेश्वर को यह देखने दे रहे हो कि तुम्हारे दिल का दरवाजा उसके लिए बंद नहीं है, तुम बस कमजोर पड़ गए हो, तुम्हारे पास इस मामले पर काबू पाने के लिए पर्याप्त आध्यात्मिक कद नहीं है, बस इतनी सी बात है। तुम्हारा इरादा अवहेलना करने का नहीं है; तुम्हारा रवैया समर्पण करने का है, बस यही है कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत ही छोटा है, और तुम इस मामले को सहन नहीं कर सकते हो। जब तुम परमेश्वर के सामने अपना दिल खोलकर रख देते हो और उसके साथ अपनी अंतरतम सोच को साझा कर पाते हो, तो भले ही तुम जो कहते हो उसमें हो सकता है कि कमजोरी और शिकायतें हों—और, खास तौर पर, कई नकारात्मक और प्रतिकूल चीजें हों—इसमें एक चीज तो सही है : तुम यह स्वीकारते हो कि तुममें भ्रष्ट स्वभाव है, तुम यह स्वीकारते हो कि तुम एक सृजित प्राणी हो, तुम परमेश्वर की सृष्टिकर्ता के रूप में पहचान को नकारते नहीं हो, और न ही तुम इस बात को नकारते हो कि तुम्हारे और परमेश्वर के बीच जो रिश्ता है वह एक सृजित प्राणी और सृष्टिकर्ता का है। तुम परमेश्वर को वे चीजें सौंपते हो जिन पर काबू पाना तुम्हें सबसे मुश्किल लगता है, जो चीजें तुम्हें सबसे कमजोर बनाती हैं, और तुम परमेश्वर को अपनी निहायत आंतरिक भावनाएँ बताते हो—यह तुम्हारा रवैया दर्शाता है। कुछ लोग कहते हैं, “मैंने एक बार परमेश्वर से प्रार्थना की, और इससे मेरी नकारात्मकता नहीं सुलझी। मैं अब भी इस पर काबू नहीं पा सका हूँ।” इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; तुम्हें बस पूरी गंभीरता से सत्य की तलाश करने की जरूरत है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि तुम कितना समझते हो, परमेश्वर धीरे-धीरे तुम्हें मजबूत कर ही देगा, और फिर तुम उतने कमजोर नहीं रहोगे जितने कि तुम शुरुआत में थे। चाहे तुम्हारे भीतर कितनी भी कमजोरी और नकारात्मकता क्यों ना हो, या तुम्हारे भीतर कितनी भी शिकायतें और प्रतिकूल भावनाएँ क्यों ना हों, परमेश्वर से बात करो; परमेश्वर को किसी बाहरी व्यक्ति जैसा मत समझो। तुम चाहे किसी से भी चीजें छिपा लो, लेकिन परमेश्वर से कुछ मत छिपाओ, क्योंकि परमेश्वर ही तुम्हारा इकलौता आसरा है और तुम्हारा इकलौता उद्धार भी। परमेश्वर के सामने आकर ही इन समस्याओं को सुलझाया जा सकता है; लोगों पर भरोसा करना बेकार है। इस तरह, नकारात्मकता और कमजोरी का सामना करते हुए जो लोग परमेश्वर के सामने आते हैं और उस पर भरोसा करते हैं, वे सबसे होशियार होते हैं। सिर्फ बेवकूफ और जिद्दी लोग ही, जब महत्वपूर्ण और संकटमय घटनाओं का सामना करते हैं और उन्हें परमेश्वर के सामने अपने दिल की बात कहने की जरूरत होती है, तो वे परमेश्वर से और भी ज्यादा दूर चले जाते हैं और उससे कतराते हैं, और अपने मन में साजिशें रचते हैं। और इन सारी साजिशों का क्या नतीजा होता है? उनकी नकारात्मकता और शिकायतें अवहेलना में बदल जाती हैं, और फिर अवहेलना परमेश्वर का प्रतिरोध करने और उसके खिलाफ हंगामा करने में बदल जाता है; ये लोग परमेश्वर के साथ पूरी तरह से असंगत हो जाते हैं, और परमेश्वर के साथ उनका रिश्ता पूरी तरह से टूट जाता है। लेकिन, जब तुम ऐसी नकारात्मकता और कमजोरी का सामना करते हो, तब भी अगर तुम सत्य की तलाश करने के लिए परमेश्वर के सामने आने का फैसला ले पाते हो, और परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने का रास्ता चुनते हो, और तुम सही मायने में विनम्र रवैया अपनाते हो, तो यह देखकर कि तुम नकारात्मक और कमजोर होने के बावजूद ईमानदारी से परमेश्वर के प्रति समर्पण करना चाहते हो, परमेश्वर को पता होगा कि तुम्हारा मार्गदर्शन कैसे करना है, तुम्हें तुम्हारी नकारात्मकता और कमजोरी से कैसे बाहर निकालना है। ये अनुभव प्राप्त करने के बाद, तुम्हारे भीतर परमेश्वर में सच्ची आस्था उत्पन्न होगी। तुम यह महसूस करोगे कि तुम चाहे कितनी भी मुश्किलों का सामना क्यों ना करो, जब तक तुम परमेश्वर की तलाश करोगे और उसकी प्रतीक्षा करोगे, वह तुम्हारे पता चले बिना तुम्हारे लिए एक रास्ते की व्यवस्था कर देगा, जिससे तुम इसका एहसास हुए बिना ही यह देख पाओगे कि परिस्थितियाँ बदल गई हैं, जिससे तुम और कमजोर नहीं रहोगे बल्कि मजबूत बन जाओगे, और परमेश्वर में तुम्हारी आस्था बढ़ जाएगी। जब तुम इन घटनाओं पर विचार करोगे, तो तुम्हें महसूस होगा कि उस समय तुम्हारी कमजोरी कितनी बचकानी थी। दरअसल, लोग बस इतने ही बचकाने होते हैं, और परमेश्वर के सहारे के बिना, वे कभी भी अपने बचपने और अज्ञानता को छोड़कर परिपक्व नहीं बनेंगे। इन चीजों का अनुभव करने की प्रक्रिया में धीरे-धीरे परमेश्वर की संप्रभुता को स्वीकार करके और उसके प्रति समर्पण करके, सकारात्मक और सक्रिय रूप से इन तथ्यों का सामना करके, सिद्धांतों की तलाश करके, परमेश्वर के इरादों की तलाश करके, परमेश्वर से और नहीं कतराके और खुद को उससे दूर नहीं करके, और ना ही परमेश्वर के खिलाफ विद्रोही बनकर, बल्कि ज्यादा से ज्यादा आज्ञाकारी बनकर, कम से कम विद्रोही बनकर, परमेश्वर के लगातार पास आकर, और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में ज्यादा समर्थ होकर—सिर्फ इसी तरह से अनुभव करके ही व्यक्ति का जीवन धीरे-धीरे विकसित और परिपक्व होता है, और एक वयस्क के आध्यात्मिक कद में पूरी तरह से विकसित हो जाता है।
नकारात्मक दशाओं का इलाज कैसे करना चाहिए और उन्हें कैसे सुलझाना चाहिए? नकारात्मकता से डरना नहीं चाहिए; यहाँ सबसे जरूरी चीज सूझ-बूझ का होना है। क्या लगातार नकारात्मक बने रहने पर किसी व्यक्ति के लिए बेवकूफी से कार्य करना आसान नहीं है? जब कोई नकारात्मक होता है, तो वह या तो सिर्फ शिकायत करता है या खुद से हार मान लेता है, और बिना किसी सूझ-बूझ के बोलता और कार्य करता है—क्या इससे उसका कर्तव्य निर्वहन प्रभावित नहीं होता है? अगर कोई निराशा के आगे घुटने टेक सकता है और नकारात्मकता से सुस्त पड़ सकता है, तो क्या यह परमेश्वर के साथ विश्वासघात नहीं है? गंभीर नकारात्मकता कोई मानसिक बीमारी के होने जैसा है, यह कुछ हद तक राक्षसों के कब्जे में होने के समान है; यह सूझ-बूझ का अभाव है। समाधानों के लिए सत्य की तलाश नहीं करना सचमुच खतरनाक है। जब लोग नकारात्मक होते हैं, और अगर उनमें परमेश्वर का भय मानने वाले दिल का पूरा अभाव हो, तो वे आसानी से सूझ-बूझ खो देंगे; वे इधर-उधर अपनी नकारात्मकता, असंतोष और धारणाओं को फैलाएँगे। यह जानबूझकर परमेश्वर का विरोध करना है, और यह बड़ी आसानी से कलीसिया के कार्य को अस्त-व्यस्त कर सकता है, यह एक ऐसा परिणाम है जिसके बारे में सोचना बहुत ही भयानक है, और परमेश्वर द्वारा उन्हें ठुकराए जाने की काफी संभावना रहती है। लेकिन, अगर कोई व्यक्ति अपनी नकारात्मकता में सत्य की तलाश कर पाता है, परमेश्वर का भय मानने वाला दिल रखता है, नकारात्मक रूप से नहीं बोलता है, न ही अपनी नकारात्मकता और धारणाओं को फैलाता है, और परमेश्वर में अपनी आस्था और उसके प्रति समर्पण करने वाला रवैया बनाए रखता है, तो ऐसा व्यक्ति आसानी से नकारात्मकता से बाहर निकल सकता है। हर कोई नकारात्मकता के पलों से गुजरता है; वे सिर्फ तीव्रता, अवधि और कारणों के लिहाज से अलग-अलग होते हैं। कुछ लोग आम तौर पर नकारात्मक नहीं होते हैं, लेकिन जब वे किसी चीज में असफल हो जाते हैं या लड़खड़ा जाते हैं, तो वे नकारात्मक हो जाते हैं; अन्य लोग मामूली बातों पर नकारात्मक हो सकते हैं, भले ही वह किसी की कही कोई ऐसी बात हो जो उनके गौरव को ठेस पहुँचाती है। और कुछ लोग थोड़ी सी प्रतिकूल परिस्थितियों में नकारात्मक हो जाते हैं। क्या ऐसे लोग समझते हैं कि जीवन कैसे जीना चाहिए? क्या उनमें अंतर्दृष्टि है? क्या उनमें एक सामान्य व्यक्ति की व्यापक सोच और उदारता है? नहीं। परिस्थितियाँ चाहे जो भी हों, जब तक व्यक्ति अपने भ्रष्ट स्वभावों के दायरे में रहता है, तब तक वह बार-बार कुछ नकारात्मक दशाओं में पड़ता रहेगा। बेशक, अगर व्यक्ति सत्य को समझता है और चीजों की असलियत पहचान पाता है, तो उसकी नकारात्मक दशाएँ ज्यादा से ज्यादा कम होती जाएँगी और उसका आध्यात्मिक कद बढ़ने के साथ-साथ उनकी नकारात्मकता धीरे-धीरे गायब होती जाएँगी, और अंत में पूरी तरह से खत्म हो जाएँगी। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते हैं, जो सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते हैं, उनमें नकारात्मक भावनाएँ, नकारात्मक दशाएँ और नकारात्मक विचार और रवैयों की संख्या लगातार बढ़ती जाएगी, जो जितने ज्यादा इकट्ठा होंगे, उतने ही गंभीर होते जाएँगे, और एक बार जब ये चीजें उन पर हावी हो जाएँगी, तो वे इनसे उबर नहीं पाएँगे, जो बहुत ही खतरनाक है। इसलिए, नकारात्मकता को फौरन सुलझाना बहुत जरूरी है। नकारात्मकता को सुलझाने के लिए, व्यक्ति को सक्रिय रूप से सत्य की तलाश करनी चाहिए; परमेश्वर की मौजूदगी में शांत मनोदशा बनाए रखते हुए परमेश्वर के वचनों को पढ़ने और उन पर चिंतन-मनन करने से प्रबुद्धता और रोशनी प्राप्त होगी, जिससे व्यक्ति सत्य को समझ पाएगा और नकारात्मकता के सार की असलियत जान पाएगा, और इस तरह नकारात्मकता की समस्या सुलझ जाएगी। अगर तुम अब भी अपनी धारणाओं और बहानों से चिपके रहते हो, तो तुम बेहद बेवकूफ हो, और तुम अपनी बेवकूफी और अज्ञानता से मर जाओगे। इसके बावजूद, नकारात्मकता को सुलझाना अग्रसक्रिय होना चाहिए, निष्क्रिय नहीं। कुछ लोग सोचते हैं कि जब नकारात्मकता उत्पन्न होती है, तो उन्हें बस इसे अनदेखा कर देना चाहिए; जब वे फिर से खुशी महसूस करेंगे, तो उनकी नकारात्मकता स्वाभाविक रूप से खुशी में बदल जाएगी। यह एक कल्पना है; सत्य की तलाश किए या उसे स्वीकार किए बिना, नकारात्मकता अपने आप दूर नहीं होगी। भले ही तुम इसे भूल जाओ और अपने दिल में कुछ भी महसूस नहीं करो, इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम्हारी नकारात्मकता का मूल कारण सुलझ गया है। सही परिस्थितियाँ उत्पन्न होते ही यह फिर से भड़क उठेगा, जो कि एक सामान्य घटना है। अगर व्यक्ति होशियार है और उसके पास सूझ-बूझ है, तो उसे नकारात्मकता उत्पन्न होने पर फौरन सत्य की तलाश करनी चाहिए और इसे सुलझाने के लिए सत्य को स्वीकार करने के तरीके का उपयोग करना चाहिए, और इस तरह नकारात्मकता के मुद्दे को उसकी जड़ों से सुलझाना चाहिए। जो सभी लोग बार-बार नकारात्मक होते हैं, वे ऐसा इसलिए होते हैं क्योंकि वे सत्य को स्वीकार नहीं कर पाते हैं। अगर तुम सत्य को स्वीकार नहीं करते हो, तो नकारात्मकता एक शैतान की तरह तुमसे चिपकी रहेगी, और तुम हमेशा-हमेशा नकारात्मक बने रहोगे, जिससे तुम्हारे भीतर परमेश्वर के प्रति अवज्ञा, असंतोष और शिकायत की भावनाएँ जन्म लेंगी, जब तक कि तुम खुद को परमेश्वर का प्रतिरोध करते, उसके खिलाफ लड़ते, और उसके खिलाफ हंगामा करते नहीं पाओगे—यही वह समय है जब तुम अंत तक पहुँच गए होगे, और तुम्हारा बदसूरत चेहरा उजागर हो जाएगा। लोग तुम्हें उजागर करना, तुम्हारा गहन-विश्लेषण करना, और तुम्हारा चरित्र चित्रण करना शुरू कर देंगे, और गंभीर वास्तविकता का सामना करने पर, तुम्हारे आँसू बहने लगेंगे; यही वह समय है जब तुम हिम्मत हार जाओगे और गहरी निराशा के कारण अपनी छाती पीटना शुरू कर दोगे—अब तुम बस परमेश्वर की सजा स्वीकारने की प्रतीक्षा करो! नकारात्मकता लोगों को ना सिर्फ कमजोर बनाती है, बल्कि यह उन्हें परमेश्वर के बारे में शिकायत करने, परमेश्वर की आलोचना करने, परमेश्वर को नकारने और यहाँ तक कि सीधे परमेश्वर से लड़ने और उसके खिलाफ हंगामा करने के लिए भी उकसाती है। इसलिए, अगर किसी व्यक्ति की नकारात्मकता को सुलझाने में देरी होती है, तो एक बार जब वे तिरस्कारपूर्ण वाले शब्द बोलते हैं और परमेश्वर के स्वभाव को नाराज कर देते हैं, तो परिणाम बहुत ही गंभीर होते हैं। अगर तुम किसी एक अकेली घटना, एक अकेले वाक्यांश, या एक अकेले विचार या दृष्टिकोण के कारण नकारात्मकता में पड़ जाते हो और शिकायतें रखते हो, तो यह दर्शाता है कि इस मामले के बारे में तुम्हारी समझ विकृत है, और तुम्हारे पास इसके बारे में धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं; इस मामले पर तुम्हारे दृष्टिकोण निश्चित रूप से सत्य के अनुरूप नहीं हैं। इस मौके पर, तुम्हें सत्य की तलाश करने और इसका सही ढंग से सामना करने की जरूरत है, और तुम्हें जल्द से जल्द इन गलत धारणाओं और विचारों को तेजी से ठीक करने का प्रयास करना चाहिए, खुद को इन धारणाओं से इतना बँधा हुआ और गुमराह नहीं होने देना चाहिए कि तुम परमेश्वर के प्रति अवज्ञा, असंतोष और शिकायत की दशा में आ जाओ। नकारात्मकता को फौरन सुलझाना बेहद जरूरी है, और इसे पूरी तरह से सुलझाना भी बेहद जरूरी है। बेशक, नकारात्मकता को सुलझाने का सबसे अच्छा तरीका है सत्य की तलाश करना, परमेश्वर के वचनों को ज्यादा पढ़ना और परमेश्वर की प्रबुद्धता प्राप्त करने के लिए उसके सामने आना। कभी-कभी, हो सकता है कि तुम अस्थायी रूप से अपने विचारों और दृष्टिकोणों को उलटने में असमर्थ हो जाओ, लेकिन कम-से-कम, तुम्हें यह तो पता होना ही चाहिए कि तुम गलत हो और कि तुम्हारे ये विचार विकृत हैं। इस तरह, कम से कम यह नतीजा निकलेगा कि ये गलत विचार और दृष्टिकोण कर्तव्य करने में तुम्हारी निष्ठा को प्रभावित नहीं करेंगे, परमेश्वर के साथ तुम्हारे रिश्ते को प्रभावित नहीं करेंगे, और अपना दिल खोलकर रखने और प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के सामने तुम्हारे आने को प्रभावित नहीं करेंगे—कम-से-कम, यह वह नतीजा है जिसे प्राप्त करना ही चाहिए। जब तुम नकारात्मकता में पूरी तरह से डूबे रहते हो और अवज्ञाकारी और असंतुष्ट महसूस करते हो, और तुम परमेश्वर के प्रति शिकायतें रखते हो, लेकिन इन्हें सुलझाने के लिए सत्य की तलाश नहीं करना चाहते हो, यह सोचते हो कि परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता सामान्य है, जबकि दरअसल तुम्हारा दिल परमेश्वर से दूर है और तुम अब उसके वचनों को पढ़ना या उससे प्रार्थना करना नहीं चाहते हो, तो क्या यह समस्या गंभीर नहीं हो गई है? तुम कहते हो, “मैं चाहे कितना भी नकारात्मक क्यों ना रहूँ, मेरे कर्तव्य निर्वहन में कोई बाधा नहीं आई है और मैंने अपनी जिम्मेदारियों को नहीं छोड़ा है। मैं निष्ठावान हूँ!” क्या ये शब्द जायज हैं? अगर तुम बार-बार नकारात्मक होते हो, तो यह भ्रष्ट स्वभाव होने का मामला नहीं है; यहाँ और भी गंभीर मुद्दे हैं : तुम्हारे पास परमेश्वर के बारे में धारणाएँ हैं, तुम उसे गलत समझते हो, और तुमने अपने और परमेश्वर के बीच दीवारें खड़ी कर दी हैं। अगर तुम इसे सुलझाने के लिए सत्य की तलाश नहीं करते हो, तो यह बहुत खतरनाक है। अगर कोई व्यक्ति अक्सर नकारात्मक होता है, तो वह यह कैसे सुनिश्चित कर सकता है कि वह अंत तक अपने कर्तव्य को निष्ठा से और बिना किसी अनमनेपन के पूरा करेगा? अगर नकारात्मकता को नहीं सुलझाया जाता है, तो क्या वह अपने आप दूर या गायब हो सकती है? अगर कोई समय रहते समाधान के लिए सत्य की तलाश नहीं करता है, तो नकारात्मकता लगातार बढ़ती ही रहेगी और सिर्फ बदतर होती जाएगी। इसके कारण होने वाले परिणाम सिर्फ और ज्यादा नुकसानदायक होते जाएँगे। वे बिल्कुल भी सकारात्मक दिशा में नहीं बढ़ेंगे, वे सिर्फ प्रतिकूल दिशा में ही बढ़ेंगे। इसलिए, जब नकारात्मकता उत्पन्न होती है, तो तुम्हें इसे सुलझाने के लिए जल्दी से सत्य की तलाश करनी चाहिए; सिर्फ इसी से यह सुनिश्चित होता है कि तुम अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से कर पाते हो। नकारात्मकता को सुलझाना बेहद जरूरी है, और इसमें देरी नहीं की जा सकती है!
26 जून 2021
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