अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (17) खंड चार

कलीसियाई जीवन में और कौन नकारात्मकता फैला सकता है? कुछ लोग बिना कोई नतीजा पाए अपना कर्तव्य निभाते हैं, हमेशा गलतियाँ करते हैं; वे आत्म-चिंतन नहीं करते बल्कि हमेशा यह महसूस करते हैं कि परमेश्वर धार्मिक या निष्पक्ष नहीं है, परमेश्वर हमेशा दूसरों के साथ दयालुता से पेश आता है मगर उनके साथ नहीं, परमेश्वर उन्हें तुच्छ समझता है और उन्हें कभी प्रबुद्ध नहीं करता और इसीलिए उनके कर्तव्य निर्वहन से कभी कोई नतीजा नहीं निकलता और वे कभी भी अलग दिखने और सम्मानित होने के अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाते हैं। वे अपने दिलों में परमेश्वर को लेकर शिकायतें पालने लगते हैं और जब वे ऐसा करते हैं, उनमें उन लोगों के प्रति ईर्ष्या, घृणा और नफरत पैदा होती है जो अपने कर्तव्यों को निष्ठापूर्वक निभाते हैं। ऐसे लोगों की मानवता कैसी है? क्या उनकी सोच छोटी नहीं है? और इसके अलावा क्या वे यह समझने में विफल नहीं होते कि परमेश्वर में अपनी आस्था में सत्य का अनुसरण कैसे करें? वे परमेश्वर में विश्वास रखने का मतलब नहीं समझते। वे सोचते हैं कि परमेश्वर में विश्वास रखना और कर्तव्य निभाना एक छात्र के रूप में विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा देने जैसा है जिसमें हमेशा अंकों और रैंकिंग की तुलना करनी होती है। इसलिए वे इन चीजों को बहुत महत्व देते हैं। क्या उनकी यही दशा नहीं है? सबसे पहले सत्य समझने के परिप्रेक्ष्य से, क्या ऐसे लोगों में आध्यात्मिक समझ होती है? नहीं होती और वे नहीं समझते कि परमेश्वर में विश्वास करने और सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है। पहली बात, वे दूसरों के बीच अपनी रैंकिंग को बहुत महत्व देते हैं; दूसरी बात, वे हमेशा यह मूल्यांकन करने के लिए स्कोरिंग का तरीका अपनाते हैं कि दूसरे अपने कर्तव्यों को कितनी अच्छी तरह से निभाते हैं और वे खुद अपने कर्तव्यों को कितनी अच्छी तरह से निभाते हैं जैसे कि वे स्कूल में छात्रों का मूल्यांकन कर रहे हों, इस तरीके से लोगों के परमेश्वर में विश्वास और उनके कर्तव्य निर्वहन को माप रहे हों। क्या इसमें कुछ गलत नहीं है? इसके अलावा जिस कड़ी मेहनत से वे अपने कर्तव्य निभाते हैं क्या वह गलत नहीं है? क्या वे पढ़ाई करने और परीक्षा देने के प्रयासों से अपने कर्तव्यों को नहीं निभाते? (हाँ।) हम ऐसा क्यों कहते हैं? क्या ऐसे लोग परमेश्वर में विश्वास रखते समय और अपने कर्तव्य निभाते समय यह समझते हैं कि सिद्धांतों को कैसे खोजें? क्या वे सिद्धांतों को खोजने में सक्षम हैं? एक ओर तो वे सिद्धांतों को खोजना नहीं जानते हैं। लोगों को परमेश्वर के वचनों को कैसे पढ़ना चाहिए, सत्य की संगति कैसे करनी चाहिए और अपने कर्तव्यों को ठीक से कैसे निभाना चाहिए—वे इन मामलों को नहीं समझते और न ही वे इनकी परवाह करते हैं। वे केवल इतना जानते हैं कि उन्हें सिद्धांत खोजकर उनके अनुसार काम करना है मगर सिद्धांत क्या निर्धारित करते हैं, परमेश्वर क्या अपेक्षा रखता है या दूसरे लोग सिद्धांतों के अनुसार कैसे काम करते हैं, उन्हें इनकी समझ नहीं है। वे इसे समझ ही नहीं पाते। वहीं दूसरी ओर, क्या वे परमेश्वर के मानकों के आधार पर कर्तव्य निर्वहन का मूल्यांकन करने में सक्षम हैं ताकि यह मापा जा सके कि लोगों का कर्तव्य निर्वहन मानक के अनुरूप है या नहीं और क्या यह उन सिद्धांतों के अनुसार है जिनका परमेश्वर लोगों से अपने कर्तव्य निर्वहन में पालन करने की अपेक्षा करता है? क्या वे परमेश्वर के वचनों और भाई-बहनों की संगति से इन मामलों को समझ सकते हैं? सबसे पहले, वे परमेश्वर के वचनों को नहीं समझते, न ही वे कर्तव्य निभाने के मामलों को समझते हैं। परमेश्वर में विश्वास रखना और कर्तव्य निभाना शुरू करने के बाद वे विचार करते हैं : “जब मैं स्कूल में था तो मैंने एक नियम खोजा था : जब तक तुम कड़ी मेहनत करने और ज्यादा पढ़ने को तैयार हो तब तक तुम अच्छे नंबर ला सकते हो। तो मैं परमेश्वर में अपनी आस्था में भी ऐसा ही करूँगा। मैं परमेश्वर के वचनों को ज्यादा पढ़ूँगा और ज्यादा प्रार्थना करूँगा। जब दूसरे लोग बातचीत कर रहे होंगे या खाना खा रहे होंगे तो मैं भजन सीखूँगा और परमेश्वर के वचनों को याद करूँगा। इतनी कोशिश के बाद मेरी कड़ी मेहनत, लगन और साधना को देखते हुए परमेश्वर यकीनन मुझे आशीष देगा और मेरा कर्तव्य निर्वहन निश्चित रूप से फलदायी होगा। मुझे यकीन है कि मैं सबसे आगे रहूँगा और मुझे अहमियत देकर प्रोन्नत किया जाएगा।” फिर भी, ऐसा करने के बावजूद वे अपनी इच्छाओं को पूरा नहीं कर सकते : “मैं अभी भी अपना कर्तव्य निभाने में दूसरों की तुलना में कम प्रभावशाली क्यों हूँ? मुझे कभी भी प्रोन्नत कैसे किया जाएगा या कैसे महत्वपूर्ण कामों के लिए मेरा उपयोग किया जाएगा? क्या इसका मतलब यह नहीं कि मेरे लिए कोई उम्मीद नहीं है? मैं जन्म से ही प्रतिस्पर्धी था, दूसरों से पीछे रहने को तैयार नहीं था। मैं स्कूल में ऐसा ही था और परमेश्वर में अपने विश्वास में आज भी ऐसा ही हूँ। जो कोई भी मुझसे आगे निकलेगा मैं उससे आगे निकल जाने के लिए प्रतिबद्ध हूँ। जब तक मैं ऐसा नहीं कर लेता मैं आराम नहीं करूँगा!” उनका मानना है कि सही तरीके और नजरिये के साथ—बस कड़ी मेहनत से पढ़ाई करते हुए परमेश्वर के वचनों को ज्यादा पढ़कर और ज्यादा भजन सीखकर; बेतुकी बातों में शामिल नहीं होकर; पहनावे पर ध्यान नहीं देकर; कम सोकर और कम मौज-मस्ती करके; अपने शरीर को वश में करके; और दैहिक सुख-सुविधाओं में लिप्त नहीं होकर—वे परमेश्वर से आशीष प्राप्त करने में सक्षम होंगे और वे अपने कर्तव्य निर्वहन में यकीनन नतीजे हासिल करेंगे। लेकिन चीजें हमेशा उनकी अपेक्षा से अलग होती हैं : “मैं अभी भी अपना कर्तव्य निभाने में हमेशा गलतियाँ क्यों करता हूँ और मैं अभी भी इसे दूसरों के जितना अच्छा क्यों नहीं कर सकता? दूसरे लोग चीजों को जल्दी और अच्छी तरह से करते हैं और अगुआ हमेशा उनकी प्रशंसा और उनका सम्मान करते हैं। मैंने बहुत पीड़ा और कठिनाई झेली है। मैं अभी भी नतीजे क्यों नहीं प्राप्त कर पा रहा हूँ?” जब वे इस पर विचार करते हैं तो उन्हें आखिरकार एक महत्वपूर्ण बात पता चलती है : “तो बात ऐसी है कि परमेश्वर अधर्मी है। मैंने इतने लंबे समय से परमेश्वर पर विश्वास रखा और केवल अब जाकर यह देख रहा हूँ! परमेश्वर जिस पर भी चाहे उस पर अनुग्रह करता है। तो फिर वह मुझ पर अनुग्रह क्यों नहीं बरसाना चाहता? क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि मैं बेवकूफ हूँ, चापलूसी और प्रशंसा करना मेरे बस की बात नहीं है और मैं तेज-तर्रार नहीं हूँ? या फिर ऐसा इसलिए है क्योंकि मैं बहुत साधारण दिखता हूँ और ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं हूँ? परमेश्वर मुझे बेनकाब कर रहा है, है ना? मैंने परमेश्वर के बहुत सारे वचन पढ़े हैं—परमेश्वर मुझ पर अनुग्रह बरसाने के बजाय मुझे बेनकाब क्यों कर रहा है?” इसके बारे में सोचते हुए वे नकारात्मक हो जाते हैं : “अब मैं अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहता। अपना कर्तव्य निभाते समय परमेश्वर ने मुझे आशीष नहीं दिया और मैंने परमेश्वर के ज्यादा वचनों को पढ़ा है मगर फिर भी उसने मुझे प्रबुद्ध नहीं किया। परमेश्वर के वचनों में कहा गया है कि परमेश्वर जिस पर भी चाहे उस पर अनुग्रह करता है और जिस पर चाहे उस पर दया दिखाता है। मैं उनमें से नहीं हूँ जिन पर परमेश्वर दया दिखाता है या अनुग्रह बरसाता है। मैं यह यातना क्यों सहूँ?” वे जितना ज्यादा सोचते हैं उतने ही नकारात्मक बन जाते हैं और फिर उन्हें आगे का मार्ग बिल्कुल नहीं दिखता। वे अपनी शिकायतों से बेबस महसूस करते हैं और अब अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते; और अपना कर्तव्य निभाते समय वे केवल औपचारिकता निभाते हैं। दूसरे लोग सिद्धांतों पर चाहे कैसे भी संगति करें, उनके कुछ भी पल्ले नहीं पड़ता। उनके भीतर कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। जब वे इस तरह की स्थिति में हों तो क्या उनमें कोई जीवन प्रवेश होता है? क्या उनमें अपना कर्तव्य निभाने के प्रति कोई निष्ठा होती है? नहीं होती, और जो थोड़ी-बहुत कोशिश और लगन उनमें थी वह भी गायब हो गई है। तो उनके दिल में क्या बचा है? “मैं बस योजनाएँ बनाता जाऊँगा और बाकी सब देखा जाएगा। परमेश्वर किसी भी दिन मुझे बेनकाब करके हटा सकता है, मुझे छोड़ सकता है। जब वह दिन आएगा जब मुझे अपना कर्तव्य निभाने की अनुमति नहीं होगी तो मैं ऐसा नहीं करूँगा। मुझे पता है कि मैं उतना अच्छा नहीं हूँ। भले ही परमेश्वर ने मुझे अभी तक नहीं हटाया हो मगर मैं जानता हूँ कि वह मुझे पसंद नहीं करता। यह केवल समय की बात है जब मैं हटा दिया जाऊँगा।” उनके दिलों में ये विचार और दृष्टिकोण उत्पन्न होते हैं और जब वे दूसरों से बातचीत करते हैं तो कभी-कभी ऐसी टिप्पणियाँ निकल जाती हैं : “तुम लोग ईमानदारी से विश्वास करते रहो। परमेश्वर तुम लोगों की आस्था और तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन को आशीष जरूर देगा। मेरा कुछ नहीं हो सकता। मैं अपने मार्ग के अंत पर हूँ। चाहे मैं कितना भी लगनशील या मेहनती क्यों न होऊँ, इसका कोई फायदा नहीं है। अगर परमेश्वर किसी को पसंद नहीं करता तो वह चाहे कितनी भी कोशिश क्यों न करे, उसका कोई फायदा नहीं है। मैं अपनी क्षमता के अनुसार मेहनत करके अपना कर्तव्य पूरा करता हूँ; अगर मेरी मेहनत के लिए कोई जगह नहीं है तो इसके बारे में कुछ भी नहीं किया जा सकता। क्या परमेश्वर लोगों को कुछ ऐसा करने के लिए मजबूर कर सकता है जो उनके बस का न हो? परमेश्वर एक मछली को जमीन पर रहने के लिए मजबूर नहीं कर सकता!” यहाँ क्या कहा जा रहा है? इसका मतलब है : “मैं बस ऐसा ही हूँ। परमेश्वर मेरे साथ चाहे जैसा भी व्यवहार करे, मेरा रवैया ऐसा ही रहेगा।” मुझे बताओ, ऐसा रवैया और इरादा रखने वाला कोई व्यक्ति परमेश्वर से आशीष क्यों पाना चाहेगा? क्या यह दशा और रवैया जो उन्होंने विकसित किया है दूसरों को प्रभावित कर सकता है? वे आसानी से नकारात्मक और हानिकारक प्रभाव डाल सकते हैं जिससे दूसरे लोगों में नकारात्मकता और कमजोरी आ सकती है। क्या यह दूसरों को गुमराह करना और नुकसान पहुँचाना नहीं है? इस हद तक नकारात्मकता रखने वाले लोग शैतानों की श्रेणी में आते हैं, है ना? राक्षस कभी भी सत्य से प्रेम नहीं करते।

कुछ लोग लंबे प्रवचनों में अपनी नकारात्मकता नहीं फैलाते; वे बस कुछ बातें बोलते हैं : “तुम लोग मुझसे बेहतर हो। तुम लोग बहुत धन्य हो। मेरा कुछ नहीं हो सकता। चाहे मैं कितनी भी कोशिश करूँ यह बेकार है। मुझे परमेश्वर से आशीष मिलने की कोई उम्मीद नहीं है।” हालाँकि ये शब्द सरल हैं और इनमें कोई समस्या नहीं लगती है, ऐसा लगता है मानो वे खुद की जाँच कर रहे हों, खुद का गहन-विश्लेषण कर रहे हों और अपनी खराब काबिलियत और कमियों जैसे तथ्यों को स्वीकार रहे हों मगर वास्तव में वे एक तरह की अप्रत्यक्ष नकारात्मकता फैला रहे हैं। इन शब्दों में व्यंग्य और मजाक के साथ-साथ प्रतिरोध भी है और बेशक इससे भी बढ़कर उनमें एक नकारात्मक और उदास मनोदशा के साथ परमेश्वर के प्रति असंतोष भी शामिल है। ये नकारात्मक शब्द कम हो सकते हैं मगर यह मनोदशा एक संक्रामक बीमारी की तरह दूसरों को प्रभावित कर सकती है। हालाँकि वे साफ तौर पर यह नहीं कहते, “मैं अब अपने कर्तव्य और नहीं निभाना चाहता, मुझे उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है और तुम सभी लोग भी खतरे में हो,” वे ऐसा संकेत देते हैं जिससे लोगों को लगता है कि अगर इस व्यक्ति के पास उसकी तमाम कोशिशों के बाद भी उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है तो जो लोग कोशिश नहीं करते उनके पास उम्मीद होने की संभावना और भी कम है। यह संकेत देकर वे सबको यह बता रहे हैं, “उम्मीद महत्वपूर्ण है। अगर परमेश्वर तुम्हें उम्मीद नहीं देता, अगर परमेश्वर तुम्हें आशीष नहीं देता तो चाहे तुम कितनी भी मेहनत कर लो, यह सब बेकार है।” जब ज्यादातर लोग इस संकेत को स्वीकार लेते हैं तो उनके भीतर परमेश्वर के प्रति गहरी आस्था कम हो जाती है और अपने कर्तव्य निभाते समय उन्हें जो निष्ठा और ईमानदारी दिखानी चाहिए वह भी बहुत कम हो जाती है। हालाँकि वे लोगों को गुमराह करने या अपने पक्ष में लाने के स्पष्ट इरादे के बिना यह नकारात्मकता फैलाते हैं, यह नकारात्मक मनोदशा दूसरों को तेजी से प्रभावित करती है, उन्हें संकट का एहसास कराती है, उन्हें लगता है कि उनकी मेहनत आसानी से बर्बाद हो गई है; इससे लोग अपनी भावनाओं के भीतर जीने लगते हैं, भावनाओं का उपयोग करके परमेश्वर के बारे में अटकलें लगाते हैं और बाहरी दिखावों के आधार पर मनुष्यों के प्रति परमेश्वर के रवैये और ईमानदारी का विश्लेषण और पड़ताल करते हैं। जब यह नकारात्मक मनोदशा दूसरों तक पहुँचती है तो वे खुद को परमेश्वर से दूर करने और परमेश्वर की बातों को गलत समझने और उन पर संदेह करने से रोक नहीं पाते, अब वे उसके वचनों पर विश्वास नहीं करते। साथ ही अब उनमें अपने कर्तव्यों के प्रति ईमानदारी नहीं रहती; वे कीमत चुकाने और कोई निष्ठा रखने के लिए तैयार नहीं होते। लोगों पर इन नकारात्मक टिप्पणियों का यही प्रभाव होता है। इस प्रभाव का परिणाम क्या होता है? इन वचनों को सुनने के बाद, लोगों को कोई शिक्षा नहीं मिलती, वे आत्म-ज्ञान हासिल करना तो दूर, अपनी कमियों को भी नहीं खोज पाते या सत्य का अभ्यास करने और सिद्धांतों के अनुसार अपने कर्तव्य निभाने में भी सक्षम नहीं हो पाते—उन्हें इनमें से कोई भी सकारात्मक नतीजा नहीं मिलता है। इसके बजाय, यह प्रभाव लोगों को और ज्यादा नकारात्मक बना देता है, वे सत्य का अनुसरण करना छोड़ने के बारे में सोचने लगते हैं और अब उनके पास अपने कर्तव्यों को निभाने का संकल्प नहीं होता। उन्होंने अपनी आस्था क्यों खो दी? (उन्हें लगता है कि उनके लिए उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है।) सही है, तुमने इस संदेश को स्वीकार कर लिया है और तुम्हें लगता है कि तुम्हारे लिए उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है इसलिए तुम अपना कर्तव्य निभाने की कोशिश करने के लिए तैयार नहीं हो। यह व्यवहार दर्शाता है कि तुम ईमानदारी से सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे हो, बल्कि हमेशा भावनाओं, मनोदशाओं और अनुमान के आधार पर यह आकलन करते रहते हो कि क्या परमेश्वर तुमसे प्रसन्न है, क्या तुम्हारे लिए उद्धार की उम्मीद है और क्या परमेश्वर तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन को स्वीकृति देता है। जब लोग अनुमान के आधार पर इन चीजों का आकलन करते हैं तो उनके पास सत्य का अभ्यास करने के लिए ज्यादा प्रेरणा नहीं होती। ऐसा क्यों है? क्या लोग अनुमान के आधार पर परमेश्वर का सही-सही आकलन कर सकते हैं? क्या लोग परमेश्वर के हर सोच-विचार के बारे में सही-सही अनुमान लगा सकते हैं? (नहीं।) लोगों के मन धोखेबाजी, लेन-देन, सांसारिक आचरण के फलसफों, शैतान के तर्क जैसी चीजों से भरे हुए हैं। इन चीजों के आधार पर परमेश्वर के बारे में अनुमान लगाने के क्या परिणाम होते हैं? इससे लोग परमेश्वर पर संदेह करते हैं, खुद को परमेश्वर से दूर करते हैं और परमेश्वर में अपनी सारी आस्था खो देते हैं। जब कोई व्यक्ति परमेश्वर में पूरी तरह से आस्था खो देता है तो उसके दिल में एक बड़ा सवालिया निशान अवश्य ही लग जाता है कि परमेश्वर का अस्तित्व है या नहीं। उस समय परमेश्वर के विश्वासी के रूप में उसका समय समाप्त हो जाएगा—वह पूरी तरह से बर्बाद हो चुका होगा। इसके अलावा, क्या लोगों के लिए परमेश्वर के बारे में अनुमान लगाना सही है? क्या सृजित प्राणियों का सृष्टिकर्ता के प्रति यही रवैया होना चाहिए? साफ तौर पर, ऐसा नहीं होना चाहिए। लोगों को परमेश्वर के बारे में अनुमान नहीं लगाना चाहिए, न ही उन्हें परमेश्वर की सोच या मनुष्यों के बारे में उसके विचारों के बारे में अटकलें लगानी चाहिए। यह अपने आप में गलत है; लोगों ने एक गलत परिप्रेक्ष्य और स्थिति अपना ली है।

लोगों को परमेश्वर के साथ अनुमान, अटकलें, संदेह या शक के साथ व्यवहार नहीं करना चाहिए, न ही उन्हें मानवीय विचारों और दृष्टिकोणों, सांसारिक आचरण के फलसफों या शैक्षणिक ज्ञान के आधार पर उसका आकलन करना चाहिए। तो फिर, लोगों को परमेश्वर के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? सबसे पहले, लोगों को यह विश्वास रखना चाहिए कि परमेश्वर सत्य है। लोगों के लिए परमेश्वर की अपेक्षाएँ, उनके प्रति उसके इरादे, लोगों के लिए उसका प्रेम और घृणा, और विभिन्न प्रकार के लोगों के लिए उसकी व्यवस्थाएँ, सोच-विचार, धारणाएँ वगैरह के लिए तुम्हारे अनुमान की आवश्यकता नहीं हैं; परमेश्वर के वचनों में इन मामलों की स्पष्ट व्याख्याएँ और स्पष्ट अर्थ दिए हैं। तुम्हें केवल परमेश्वर के वचनों के अनुसार विश्वास रखने, खोजने और अभ्यास करने की आवश्यकता है—यह इतना सरल है। परमेश्वर भावनाओं के आधार पर तुमसे यह आकलन करने को नहीं कहता कि वह तुम्हारे साथ क्या करना चाहता है या तुम्हें कैसे देखता है। तो, तुम सोचते हो कि तुम्हारे लिए उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है—यह एक भावना है या तथ्य? क्या परमेश्वर के वचनों ने ऐसा कहा? (नहीं।) तो, परमेश्वर के वचन क्या कहते हैं? परमेश्वर लोगों को यह बताता है कि जब भी वे किसी समस्या का सामना करें या भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करें तो समाधान के लिए उन्हें सत्य और सत्य का अभ्यास करने का मार्ग कैसे खोजना चाहिए। इससे एक बात तो तय है : यह सच है कि परमेश्वर लोगों को बचाना और उनके भ्रष्ट स्वभावों को बदलना चाहता है; परमेश्वर तुम्हें धोखा नहीं दे रहा है और यह खोखली बात नहीं है। तुम्हें लगता है कि तुम्हारे लिए उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है, मगर यह सिर्फ एक अस्थायी मनोदशा है, एक विशेष परिवेश में उत्पन्न होने वाली भावना है। तुम्हारी भावनाएँ परमेश्वर की इच्छाओं या इरादों का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं, उसके विचारों की तो बात ही छोड़ो और वे सत्य का प्रतिनिधित्व भी नहीं करती हैं। इसलिए अगर तुम इस भावना के अनुसार जीते हो, अगर तुम इस भावना के आधार पर परमेश्वर के बारे में अनुमान लगाते हो, परमेश्वर की इच्छाओं की जगह अपनी भावना को रखते हो तो तुम बहुत बड़ी गलती कर रहे हो और शैतान के जाल में फँस गए हो। इस स्थिति में किसी को क्या करना चाहिए? भावनाओं पर भरोसा मत करो। कुछ लोग कहते हैं, “अगर हमें भावनाओं पर भरोसा नहीं करना चाहिए तो हमें किस पर भरोसा करना चाहिए?” अपनी किसी भी चीज पर भरोसा करना बेकार है; मानवीय भावनाएँ सत्य का प्रतिनिधित्व नहीं करती हैं। कौन जानता है कि तुम्हारी भावना कैसे उत्पन्न हुई, यह वास्तव में कहाँ से आई—अगर यह शैतान द्वारा गुमराह किए जाने से उत्पन्न हुई है तो यह परेशानी वाली बात है। जो भी हो, चाहे भावना कैसे भी उत्पन्न हुई हो यह सत्य का प्रतिनिधित्व नहीं करती है। किसी की भावनाएँ और अंतर्ज्ञान जितना ज्यादा तीव्र होता है, उसे उतना ही ज्यादा सत्य खोजने, परमेश्वर के समक्ष आने और आत्म-चिंतन करने की जरूरत होती है। मानवीय भावनाएँ, और तथ्य और सत्य, दो अलग-अलग चीजें हैं। क्या भावनाएँ तुम्हें सत्य प्रदान कर सकती हैं? क्या वे तुम्हें अभ्यास का मार्ग दे सकती हैं? नहीं दे सकतीं। केवल परमेश्वर के वचन, केवल सत्य, ही तुम्हें अभ्यास का मार्ग दे सकते हैं, तुम्हें पूरी तरह से बदल सकते हैं, और एक रास्ता खोल सकते हैं। इसलिए तुम्हें अपनी भावनाओं को खोजने का अभ्यास नहीं करना चाहिए—तुम्हारी भावनाएँ महत्वपूर्ण नहीं हैं। इसके बजाय, तुम्हें सत्य खोजने और परमेश्वर के वचनों के माध्यम से उसके इरादों को समझने के लिए परमेश्वर के समक्ष आना चाहिए। जितना ज्यादा तुम भावनाओं पर भरोसा करोगे, उतना ही तुम खुद को आगे बढ़ने के मार्ग से रहित पाओगे, उतनी ही गहरी नकारात्मकता में गिरोगे, और उतना ही ज्यादा तुम यह मानोगे कि परमेश्वर अन्यायी है और परमेश्वर ने तुम्हें आशीष नहीं दिया है। इसके विपरीत अगर तुम सत्य सिद्धांतों को खोजने के लिए और यह देखने के लिए अपनी भावनाओं को अलग रखते हो कि तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन की प्रक्रिया में कौन-सी गतिविधियों ने सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन किया था, कौन-से क्रियाकलाप तुम्हारी अपनी मर्जी से किए गए थे और सत्य सिद्धांतों से उनका कोई लेना-देना नहीं था, तो खोज की प्रक्रिया में तुम्हें पता चलेगा कि तुम्हारे पास अपनी खुद की इच्छाएँ और कल्पनाएँ बहुत ज्यादा हैं। बस इतनी-सी गंभीरता दिखाकर तुम कई समस्याओं को उजागर करोगे : “मैं बहुत विद्रोही, बहुत मनमाना, बहुत अभिमानी हूँ! ऐसा नहीं है कि मुझे उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है; मेरी भावनाएँ गलत हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि मैंने परमेश्वर के वचनों को गंभीरता से नहीं लिया और मैंने सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास नहीं किया। मैं हमेशा शिकायत करता हूँ कि परमेश्वर मुझे आशीष नहीं देता, मेरा मार्गदर्शन नहीं करता और पक्षपात करता है मगर वास्तव में मैं यह पहचान ही नहीं पाया कि मैं अपने कर्तव्य निर्वहन में लापरवाह, मनमाना और बेपरवाह रहता हूँ—यह मेरी गलती है। अब मुझे एहसास हो गया है कि परमेश्वर पक्षपात नहीं करता। जब लोग सत्य नहीं खोजते या परमेश्वर के समक्ष नहीं आते तो परमेश्वर पहले से ही कर्तव्य निभाने की उनकी योग्यता को खारिज न करके उनके साथ अच्छा व्यवहार कर रहा होता है; परमेश्वर इस संबंध में पहले से ही बहुत उदार है। फिर भी मैंने इतनी शिकायतें की, यहाँ तक कि परमेश्वर से लड़ाई और बहस भी की। पहले, मुझे लगता था कि मैं काफी अच्छा हूँ मगर अब मैं जानता हूँ कि यह बिल्कुल भी सच नहीं है। मैंने जो कुछ भी किया वह सिद्धांतों के अनुरूप नहीं था; परमेश्वर का मुझे अनुशासित नहीं करना उसका अनुग्रह था—उसने मेरे छोटे आध्यात्मिक कद को पहचाना!” ऐसी खोज के माध्यम से तुम कुछ सत्यों को समझ लोगे और सत्य सिद्धांतों के अनुसार सक्रियता से अभ्यास करने की पहल करने में सक्षम हो पाओगे। धीरे-धीरे तुम्हें लगेगा कि अपने आचरण के लिए और अपना कर्तव्य निभाने के लिए तुम्हारे पास कुछ सिद्धांत हैं। इस समय क्या तुम्हारी अंतरात्मा को काफी ज्यादा शांति महसूस नहीं होगी? “पहले मुझे लगता था कि मुझे उद्धार मिलने की कोई उम्मीद नहीं है, मगर अब यह एहसास, यह जागरूकता, धीरे-धीरे कम क्यों होती जा रही है? मेरी यह दशा कैसे बदल गई? पहले, मैं सोचता था कि मेरे लिए कोई उम्मीद नहीं है; क्या वह केवल नकारात्मकता और प्रतिरोध, और परमेश्वर से लड़ना नहीं था? मैं बहुत ज्यादा विद्रोही था!” समर्पण करने के बाद अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में तुम अनजाने में कुछ सिद्धांतों को समझना शुरू कर दोगे और तुम अब दूसरों के साथ अपनी तुलना नहीं करोगे; तुम बस इस बात पर ध्यान दोगे कि लापरवाह होने से कैसे बचें और सिद्धांतों के अनुसार अपने कर्तव्य कैसे निभाएँ। अनजाने में तुम अब यह महसूस नहीं करोगे कि तुम्हें बचाया नहीं जा सकता और तुम अब उस नकारात्मक दशा में नहीं फँसे रहोगे; तुम सिद्धांतों के अनुसार अपने कर्तव्य निभाओगे, और यह महसूस करोगे कि परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता सामान्य हो गया है। जब तुम्हें यह एहसास होगा, तो तुम सोचोगे, “परमेश्वर ने मुझे नहीं छोड़ा है; मैं परमेश्वर की उपस्थिति को महसूस कर सकता हूँ और जब मैं अपने कर्तव्यों को निभाते समय परमेश्वर को खोजता हूँ तो मैं परमेश्वर के मार्गदर्शन और आशीषों को महसूस कर सकता हूँ। मुझे यकीन है कि परमेश्वर दूसरों के साथ मुझे भी आशीष देता है और परमेश्वर पक्षपात नहीं करता; ऐसा लगता है कि मेरे लिए अभी भी उद्धार पाने की उम्मीद है। अब लगता है कि पहले मैं जिस मार्ग पर चला था वह गलत था; मैं हमेशा अपने कर्तव्य निभाने में लापरवाही करता था और बहुत से कुकर्म करता था, और मुझे यह भी लगता था कि मैं अपनी छोटी-सी दुनिया जीते हुए और अपनी प्रशंसा करते हुए एकदम ठीक था। अब मैं जानता हूँ कि ऐसा करना एक बड़ी गलती थी! पूरी तरह से परमेश्वर के खिलाफ शोर मचाने और उसका विरोध करने की दशा में रहना—कोई आश्चर्य नहीं कि मुझे परमेश्वर से प्रबुद्धता नहीं मिली। अगर मैं सिद्धांतों के अनुसार काम नहीं करूँगा तो मुझे परमेश्वर से प्रबुद्धता कैसे मिलेगी?” तुम देख सकते हो, अभ्यास करने के दो पूरी तरह से अलग तरीके, अपने विचारों से निपटने के दो पूरी तरह से अलग तरीके, आखिरकार अलग-अलग नतीजों की ओर ले जाते हैं।

लोग परमेश्वर में अपने विश्वास में अपनी भावनाओं के आधार पर नहीं जी सकते। लोगों की भावनाएँ केवल क्षणिक मनोदशाएँ हैं—क्या उनका उनके परिणामों से कोई लेना-देना है? तथ्यों से कोई लेना-देना है? (नहीं।) जब लोग परमेश्वर से दूर होकर ऐसी मनोदशा में जीते हैं जिसमें वे परमेश्वर को गलत समझ लेते हैं, या परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं, उसके विरुद्ध लड़ते हैं और उसके खिलाफ जाकर शोर मचाते हैं, तो वे पूरी तरह से परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा के घेरे से बाहर हो जाते हैं और उनके हृदय में परमेश्वर के लिए कोई स्थान नहीं रहता। जब लोग ऐसी दशा में जीते हैं तो वे मजबूरन अपनी भावनाओं के सहारे ही जीते हैं। कोई मामूली-सा विचार उन्हें इतना परेशान कर सकता है कि वे खा या सो नहीं पाते, किसी की लापरवाह टिप्पणी उन्हें अटकलबाजी और भ्रम में डुबा सकती है, और एक बुरा सपना भी नकारात्मक बनाकर उन्हें परमेश्वर को गलत समझने के लिए उकसा सकता है। एक बार जब इस तरह का दुष्चक्र बन जाता है, तो लोग तय कर लेते हैं कि उनके लिए सब खत्म हो गया है, कि बचाए जाने की उनकी समस्त आशा नष्ट हो गई है, उन्हें परमेश्वर ने छोड़ दिया है, और अब परमेश्वर उन्हें नहीं बचाएगा। वे जितना अधिक इस तरह सोचते हैं और जितनी अधिक उनमें ऐसी भावनाएँ पैदा होती हैं, उतना ही वे नकारात्मकता में डूबते चले जाते हैं। लोगों में इस तरह की भावनाएँ पैदा होने का असली कारण यह है कि वे सत्य नहीं खोजते या सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास नहीं करते। जब लोगों के साथ कुछ घट जाता है, तो वे सत्य नहीं खोजते, सत्य का अभ्यास नहीं करते, और हमेशा अपने रास्ते जाते हैं, अपनी ही तुच्छ चालाकियों के बीच जीते हैं। वे हर दिन अपनी तुलना दूसरों से करने में बिताते हैं और उनसे प्रतिस्पर्धा करते हैं, उन्हें जो भी बेहतर लगता है उससे ईर्ष्या और घृणा करते हैं, जिन्हें वे अपने से नीचा समझते हैं, उनका उपहास करते हैं, उन्हें ताना मारते हैं, शैतानी स्वभाव में जीते हैं, सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं करते, और किसी की भी सलाह मानने से इनकार करते हैं। इससे आखिरकार उनमें सभी तरह के भ्रम, अटकलें और आलोचनाएँ पैदा होती हैं, वे खुद को निरंतर व्याकुल बना लेते हैं। और क्या वे इसी के लायक नहीं हैं? ऐसे कड़वे फल वे खुद ही चख सकते हैं—और वे सचमुच इसी लायक होते हैं। इन सबका कारण क्या है? ऐसा इसलिए है, क्योंकि लोग सत्य की तलाश नहीं करते, अत्यधिक अहंकारी और आत्म-तुष्ट हैं, वे हमेशा अपने विचारों के अनुसार काम करते हैं, हमेशा दिखावा करते हैं और दूसरों से अपनी तुलना करते हैं, खुद को अलग दिखाने की कोशिश करते हैं, परमेश्वर से हमेशा अनुचित माँगें करते हैं, वगैरह-वगैरह—और इन्हीं तमाम बातों के कारण लोग धीरे-धीरे परमेश्वर से दूर चले जाते हैं, बार-बार परमेश्वर का प्रतिरोध और सत्य का उल्लंघन करते हैं। अंततः, वे खुद को अंधकार और नकारात्मकता में डुबा लेते हैं। और ऐसे समय, लोगों के पास अपने विद्रोह और विरोध की सच्ची समझ नहीं होती है, इन चीजों को सही रवैये के साथ सुलझाना तो दूर की बात है। इसके बजाय, वे परमेश्वर के बारे में शिकायत करते हैं, परमेश्वर को गलत समझते हैं और उसके बारे में अटकलें लगाते हैं। जब ऐसा होता है, तो लोगों को अंततः एहसास होता है कि उनकी भ्रष्टता बहुत गहरी और बहुत तकलीफदेह है, इसलिए वे तय कर लेते हैं कि वे परमेश्वर का विरोध करने वाले लोग हैं, और उनके पास नकारात्मकता में डूब जाने के अलावा कोई चारा नहीं होता, वे उससे खुद को बाहर नहीं निकाल पाते। वे यह मानते हैं, “परमेश्वर मेरा तिरस्कार करता है और मुझे नहीं चाहता। मैं बहुत विद्रोही हूँ, मैं इसी लायक हूँ, परमेश्वर अब निश्चित रूप से मुझे नहीं बचाएगा।” वे मानते हैं कि ये सब सच है। वे तय करते हैं कि उनके दिलों में जो अनुमान हैं वे तथ्य हैं। चाहे कोई भी उनके साथ सत्य पर संगति करे, उसका कोई फायदा नहीं होता, वे उसे नहीं स्वीकारते। वे सोचते हैं, “परमेश्वर मुझे आशीष नहीं देगा, वह मुझे नहीं बचाएगा, तो फिर परमेश्वर में विश्वास करने का क्या फायदा?” जब परमेश्वर में उनके विश्वास का मार्ग इस मुकाम पर आ जाता है, तो क्या लोग अब भी विश्वास कायम रख पाएँगे? नहीं। क्यों नहीं रख पाएँगे? यहाँ एक तथ्य है। जब लोगों की नकारात्मकता एक ऐसे मुकाम पर पहुँच जाती है कि उनके दिल प्रतिरोध और शिकायतों से भर जाते हैं, और वे हमेशा के लिए परमेश्वर से अपना संबंध तोड़ लेना चाहते हैं, तब यह उनके परमेश्वर का भय न मानने, परमेश्वर के प्रति समर्पण न करने, सत्य से प्रेम न करने और उसे स्वीकार न करने जितना सरल नहीं रह जाता। तो फिर यह क्या है? वे अपने दिलों में, सक्रियता से परमेश्वर में अपनी आस्था त्यागने का फैसला कर लेते हैं। उन्हें लगता है कि बैठे-बैठे हटाए जाने का इंतजार करना शर्मनाक है, और हार मान लेना अधिक गरिमामय होगा, तो वे पहल करके खुद ही अपना अवसर छोड़ देते हैं, खुद ही सब कुछ खत्म कर देते हैं। वे परमेश्वर में आस्था को बुरा कहकर उसकी निंदा करते हैं, वे यह कहकर सत्य की निंदा करते हैं कि वह लोगों को बदल नहीं सकता और परमेश्वर को अधार्मिक बताकर उसकी निंदा करते हैं, खुद को न बचाने के लिए उसके बारे में शिकायत करते हैं : “मैं इतना लगनशील हूँ, मैं दूसरों की तुलना में इतने अधिक कष्ट सहता हूँ, किसी भी दूसरे व्यक्ति से कहीं ज्यादा कीमत चुकाता हूँ, अपना कर्तव्य ईमानदारी से निभाता हूँ, और फिर भी परमेश्वर ने मुझे आशीष नहीं दिया। अब मुझे साफ तौर पर समझ में आता है कि परमेश्वर मुझे पसंद नहीं करता, परमेश्वर लोगों के साथ बराबरी वाला व्यवहार नहीं करता है।” उनकी इतनी जुर्रत हो जाती है कि वे परमेश्वर के बारे में अपने शक को परमेश्वर के खिलाफ निंदा और तिरस्कार में बदल देते हैं। जब यह तथ्य सही साबित होता है, तो क्या वे परमेश्वर में आस्था के मार्ग पर चल सकते हैं? चूँकि वे परमेश्वर से विद्रोह करते हैं, उसका विरोध करते हैं, सत्य नहीं स्वीकारते या जरा भी आत्मचिंतन नहीं करते, वे बरबाद हो चुके हैं। क्या किसी का अपनी मनमर्जी से परमेश्वर को छोड़ देना और फिर यह शिकायत करना कि परमेश्वर उन्हें आशीष नहीं देता या उस पर अनुग्रह नहीं दिखाता, अनुचित नहीं है? हर कोई अपना मार्ग खुद चुनता है और खुद ही उस पर चलता है; कोई और उसके लिए ऐसा नहीं कर सकता। तुमने खुद ही अपने लिए बंद गली चुनी है, तुमने परमेश्वर को छोड़ दिया और ठुकरा दिया है। शुरू से लेकर अंत तक परमेश्वर ने कभी नहीं कहा कि वह तुम्हें नहीं चाहता या उसने तुम्हें छोड़ दिया है या वह तुम्हें बचाने से इनकार करता है; यह तुम ही हो जिसने अपने अनुमानों के आधार पर परमेश्वर को सीमित कर दिया है। अगर तुम वाकई परमेश्वर में विश्वास रखते हो, अगर वह तुम्हें नहीं चाहे तब भी तुम उस पर विश्वास रखोगे और अगर वह तुमसे नफरत करे तब भी तुम उस पर विश्वास रखोगे, उसके वचनों को पढ़ना जारी रखोगे और अभी भी सत्य स्वीकार कर सामान्य ढंग से अपने कर्तव्य निभाओगे, तो फिर तुम्हें कौन बाधित कर सकता है या रोक सकता है? क्या यह सब तुम्हारे अपने विकल्पों और अनुसरणों के बारे में नहीं है? तुममें खुद आस्था की कमी है फिर भी तुम परमेश्वर के बारे में शिकायत करते हो; यह अनुचित है। तुम परमेश्वर के साथ अपना रिश्ता बनाए नहीं रखते और इसे नष्ट करने पर जोर देते हो; अगर एक बार दरार पड़ जाए, तो क्या इसे वापस ठीक किया जा सकता है? टूटे हुए दर्पण को वापस जोड़ना मुश्किल होता है और अगर इसे वापस जोड़ भी दिया जाए तो भी दरार वहीं रहेगी। अब जब रिश्ता टूट गया है तो इसे कभी भी अपनी मूल स्थिति में वापस नहीं लाया जा सकता। इस प्रकार परमेश्वर में विश्वास रखने के दौरान लोगों को चाहे किसी भी तरह के परिवेश का सामना करना पड़े, उन्हें समर्पण करना सीखना चाहिए और सत्य खोजना चाहिए—केवल तभी वे दृढ़ रह सकते हैं। अगर तुम मार्ग के अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करना चाहते हो तो सत्य का अनुसरण करना सबसे अहम है; चाहे अपने कर्तव्यों को निभाना हो या कोई और काम करना, सत्य सिद्धांतों को समझकर उनका अभ्यास करना और उन्हें लागू करना आवश्यक है, क्योंकि सत्य समझने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने की प्रक्रिया के माध्यम से ही तुम परमेश्वर को जान पाते हो, परमेश्वर को समझ पाते हो और उसे बूझते हो, परमेश्वर के इरादे समझते हो और उसके साथ अनुरूपता प्राप्त करते हो और परमेश्वर के सार की समझ-बूझ और स्वीकृति प्राप्त करते हो। अगर तुम सत्य सिद्धांतों को अभ्यास में नहीं लाते और सिर्फ अपनी मनमर्जी से काम करते हो या अपने कर्तव्यों को निभाते हो तो तुम कभी भी सत्य के संपर्क में नहीं आओगे। सत्य के संपर्क में कभी नहीं आने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि तुम कभी भी सभी चीजों के प्रति परमेश्वर के रवैये, उसकी अपेक्षाओं या उसके विचारों के संपर्क में नहीं आओगे; और इसकी संभावना और भी कम है कि तुम कभी भी परमेश्वर के स्वभाव और सार के संपर्क में आओगे, जैसा कि उसके कार्य में प्रकट होता है। अगर तुम परमेश्वर के कार्य के इन तथ्यों के संपर्क में आने में विफल रहते हो तो परमेश्वर के बारे में तुम्हारी समझ-बूझ हमेशा के लिए मानवीय कल्पनाओं और धारणाओं तक ही सीमित रहेगी। यह कल्पनाओं और धारणाओं के दायरे में ही रहेगी और कभी भी परमेश्वर के सार और उसके सच्चे स्वभाव के अनुरूप नहीं होगी। इस तरह, तुम परमेश्वर के बारे में वास्तविक समझ-बूझ हासिल नहीं कर पाओगे।

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