अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (17) खंड एक

मद बारह : उन विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों की तुरंत और सटीक रूप से पहचान करो, जो परमेश्वर के कार्य और कलीसिया की सामान्य व्यवस्था में विघ्न-बाधा उत्पन्न करती हैं; उन्हें रोको और प्रतिबंधित करो, और चीजों को बदलो; इसके अतिरिक्त, सत्य के बारे में संगति करो, ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोग ऐसी बातों के माध्यम से समझ विकसित करें और उनसे सीखें (भाग पाँच)

विभिन्न लोग, घटनाएँ और चीजें जो कलीसियाई जीवन को अस्त-व्यस्त करती हैं

IX. नकारात्मकता फैलाना

आज हम अगुआओं और कार्यकर्ताओं की बारहवीं जिम्मेदारी पर अपनी संगति जारी रखेंगे : “उन विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों की तुरंत और सटीक रूप से पहचान करो, जो परमेश्वर के कार्य और कलीसिया की सामान्य व्यवस्था में विघ्न-बाधा उत्पन्न करती हैं; उन्हें रोको और प्रतिबंधित करो, और चीजों को बदलो; इसके अतिरिक्त, सत्य के बारे में संगति करो, ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोग ऐसी बातों के माध्यम से समझ विकसित करें और उनसे सीखें।” कलीसियाई जीवन में उत्पन्न होने वाली विभिन्न विघ्न-बाधाओं के संबंध में, पिछली बार हमने आठवीं समस्या—धारणाएँ फैलाने—पर संगति की थी और आज हम नौंवी समस्या—नकारात्मकता फैलाने के बारे में संगति करेंगे। नकारात्मकता फैलाने के बारे में भी दैनिक जीवन में अक्सर सुनने को मिलता है। इसी तरह, नकारात्मकता फैलाने के कृत्यों या बयानों को भी प्रतिबंधित किया जाना चाहिए और कलीसियाई जीवन में दिखाई देने पर उन्हें रोका जाना चाहिए, क्योंकि नकारात्मकता फैलाना किसी भी व्यक्ति के लिए शिक्षाप्रद नहीं है; बल्कि, इससे लोग प्रभावित होते हैं और यह लोगों को बाधित करता है और नुकसान पहुँचाता है। इसलिए, नकारात्मकता फैलाना एक नकारात्मक चीज है, जिसकी प्रकृति कलीसियाई जीवन में बाधा डालने वाले अन्य व्यवहारों, क्रियाकलापों और बयानों के समान है; यह लोगों को बाधित कर सकता है और उन पर प्रतिकूल प्रभाव भी डाल सकता है। नकारात्मकता फैला कर कोई भी दूसरों को शिक्षित नहीं कर सकता या कोई लाभ नहीं पहुँचा सकता; यह केवल हानिकारक प्रभाव लाता है और लोगों के अपने सामान्य कर्तव्य निर्वहन को भी प्रभावित कर सकता है। इस प्रकार, जब कलीसिया में नकारात्मकता फैलाई जाती है तो उसे भी रोका और प्रतिबंधित किया जाना चाहिए, न कि उसे होते रहने देना चाहिए या प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

क. नकारात्मकता फैलाना क्या है

सबसे पहले हम यह देखें कि नकारात्मकता फैलाने को कैसे समझा और पहचाना जाए। नकारात्मकता फैलाने को हम कैसे पहचानें? लोगों की कौन-सी टिप्पणियाँ और अभिव्यक्तियाँ नकारात्मकता फैलाने वाली होती हैं? सबसे पहले तो लोग जो नकारात्मकता फैलाते हैं वह सकारात्मक नहीं होती, यह एक विपरीत चीज होती है जो सत्य को खंडित करती है, और यह एक ऐसी चीज है जो उनके भ्रष्ट स्वभाव से पनपती है। भ्रष्ट स्वभाव के कारण सत्य का अभ्यास और परमेश्वर के प्रति समर्पण करना कठिन हो जाता है—और इन कठिनाइयों के कारण लोगों में नकारात्मक विचार और दूसरी नकारात्मक चीजें उजागर होने लगती हैं। ये चीजें सत्य के अभ्यास की उनकी कोशिश के संदर्भ में उत्पन्न होती हैं; ये वे विचार और दृष्टिकोण होते हैं जो सत्य के अभ्यास के दौरान लोगों को प्रभावित और बाधित करते हैं, और ये पूरी तरह नकारात्मक होते हैं। चाहे ये नकारात्मक विचार और दृष्टिकोण मनुष्य की धारणाओं के कितने ही अनुरूप क्यों न हों और ये कितने ही तर्कपूर्ण क्यों न प्रतीत हों, ये परमेश्वर के वचनों की समझ से नहीं आते, परमेश्वर के वचनों के अनुभवजन्य ज्ञान से तो बिल्कुल भी नहीं आते। इसके बजाय, ये मनुष्य के दिमाग की देन होते हैं, और ये सत्य से बिल्कुल भी मेल नहीं खाते। इसलिए ये नकारात्मक, विपरीत चीजें होती हैं। नकारात्मकता फैलाने वाले लोगों की मंशा सत्य का अभ्यास करने में अपनी विफलता के बहुत-से निष्पक्ष कारण ढूँढ़ने की होती है, ताकि वे दूसरे लोगों की हमदर्दी और सहमति पा सकें। ये नकारात्मक बयान, अलग-अलग पैमाने पर, सत्य का अभ्यास करने की लोगों की पहल को प्रभावित और कमजोर कर सकते हैं, और बहुत-से लोगों को सत्य का अभ्यास करने से रोक भी सकते हैं। ऐसे परिणाम और प्रतिकूल प्रभाव इन नकारात्मक चीजों को प्रतिकूल, परमेश्वर विरोधी और सत्य के पूरी तरह विरुद्ध बताए जाने के और भी योग्य बना देते हैं। कुछ लोग नकारात्मकता के सार की असलियत नहीं देख पाते हैं, और सोचते हैं कि अक्सर नकारात्मकता दिखाना सामान्य बात है, और इसका लोगों के सत्य के अनुसरण पर कोई बड़ा प्रभाव नहीं पड़ता। यह सोच गलत है; वास्तव में, इसका बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है, और अगर किसी की नकारात्मकता उसके लिए बेहद असहनीय हो जाए तो यह आसानी से विश्वासघात में बदल सकती है। यह भयानक परिणाम सिर्फ नकारात्मकता की देन होता है। तो नकारात्मकता फैलाने को कैसे पहचानें और कैसे समझें? सरल शब्दों में कहें तो नकारात्मकता फैलाने का अर्थ है लोगों को गुमराह करना और उन्हें सत्य का अभ्यास करने से रोकना; यह लोगों को गुमराह करने और उलझाने के लिए नरम हथकंडों और सामान्य प्रतीत होने वाले तरीकों का प्रयोग है। क्या इससे उन्हें नुकसान होता है? दरअसल इससे उन्हें बहुत गहरी क्षति पहुँचती है। और इसलिए, नकारात्मकता फैलाना एक प्रतिकूल चीज है, परमेश्वर इसकी निंदा करता है; यह नकारात्मकता फैलाने की सबसे सरल व्याख्या है। तो फिर नकारात्मकता फैलाने का नकारात्मक घटक क्या है? कौन-सी चीजें नकारात्मक होती हैं और लोगों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती हैं, और कलीसियाई जीवन को बाधा और क्षति पहुँचा सकती हैं? नकारात्मकता में क्या-क्या शामिल होता है? अगर लोगों में परमेश्वर के वचनों की शुद्ध समझ हो तो क्या उनकी संगति के शब्दों में नकारात्मकता हो सकती है? अगर लोगों में परमेश्वर द्वारा उनके सामने पेश किए गए हालात के प्रति सच्चे समर्पण का रवैया है, तो क्या इन हालात के बारे में उनकी जानकारी में कोई नकारात्मकता होगी? जब वे हर किसी के साथ अपने अनुभवजन्य ज्ञान को साझा करते हैं तो क्या इसमें कोई नकारात्मकता होगी? निश्चित ही नहीं होगी। कलीसिया में या उनके आस-पास जो कुछ भी होता है, अगर लोग इसे परमेश्वर से आया मानकर स्वीकारने में सक्षम हैं, इसके प्रति सही दृष्टिकोण रखते हैं और खोज और समर्पण का रवैया अपना सकते हैं तो क्या कुछ भी घटित होने के प्रति उनके ज्ञान, समझ और अनुभव में कोई नकारात्मकता होगी? (नहीं।) ऐसा बिल्कुल नहीं होगा। इन मामलों के हिसाब से देखें तो नकारात्मकता क्या है? इसे कैसे समझा जा सकता है? क्या नकारात्मकता में इस प्रकृति की चीजें शामिल नहीं हैं—लोगों की अवज्ञा, असंतोष, शिकायतें और नाराजगी? नकारात्मकता के अधिक गंभीर मामलों में प्रतिरोध, अवज्ञा और यहाँ तक कि शोर मचाना भी शामिल है। ऐसी टिप्पणियाँ करना भी नकारात्मकता फैलाना कहा जा सकता है, जिनमें ये तत्व शामिल हों। इन अभिव्यक्तियों से देखा जाए तो जब कोई व्यक्ति नकारात्मकता फैलाता है, तब क्या उसके दिल में परमेश्वर के प्रति कोई समर्पण होता है? यकीनन नहीं। क्या देह के खिलाफ विद्रोह करके अपनी नकारात्मकता का समाधान करने की कोई इच्छा होती है? नहीं—वहाँ प्रतिरोध, विद्रोह और विरोध के अलावा कुछ नहीं होता। अगर लोगों के दिल इन चीजों से भरे हुए हैं—अगर उनके दिलों पर इन नकारात्मक चीजों ने कब्जा कर लिया है—तो इससे परमेश्वर के प्रति प्रतिरोध, विद्रोहशीलता और अवज्ञा पैदा होगी। और अगर ऐसा है तो क्या वे अभी भी सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम होंगे? वे सक्षम नहीं होंगे; होगा यही कि वे परमेश्वर से दूर और पहले से ज्यादा नकारात्मक हो जाएँगे, और यहाँ तक कि वे परमेश्वर पर संदेह, इनकार और विश्वासघात भी कर सकते हैं। क्या यह खतरनाक नहीं है? जो कोई भी अक्सर नकारात्मक होता है, वह नकारात्मकता फैलाने में सक्षम है, और नकारात्मकता फैलाने का मतलब है परमेश्वर का विरोध और इनकार करना; इस तरह, जो लोग अक्सर नकारात्मकता फैलाते हैं, वे कभी भी और कहीं भी परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं और उसे छोड़ सकते हैं।

“नकारात्मकता” शब्द के अर्थ को देखा जाए, तो नकारात्मक होने पर व्यक्ति का मूड बहुत खराब हो जाता है और उसकी मानसिक स्थिति बुरी हो जाती है। उसकी मनोदशा नकारात्मक तत्वों से भर जाती है, उसमें सक्रिय रूप से प्रगति करने और आगे बढ़ने का प्रयास करने का रवैया नहीं रहता है, और उसमें सकारात्मक, सक्रिय सहयोग और तलाश करने की भावना का अभाव होता है; इससे भी बढ़कर, वह स्वेच्छा से समर्पण नहीं दिखाता है, बल्कि बहुत ही हताश मनोदशा दिखाता है। हताश मनोदशा क्या दर्शाती है? क्या यह मानवता के सकारात्मक पहलुओं को दर्शाती है? क्या यह जमीर और सूझ-बूझ का होना दर्शाती है? क्या यह गरिमा के साथ जीना, मानवता की गरिमा में जीना दर्शाती है? (नहीं।) अगर यह इन सकारात्मक चीजों को नहीं दर्शाती है, तो क्या दर्शाती है? क्या यह परमेश्वर में सच्ची आस्था के अभाव को, और साथ ही सत्य का अनुसरण करने और सक्रियता से प्रगति करने के लिए दृढ़ निश्चय और संकल्प के अभाव को दर्शा सकती है? क्या यह व्यक्ति की मौजूदा परिस्थिति और मुश्किलों के प्रति उसके गहरे असंतोष को और उन चीजों को समझने में उसकी परेशानी को और वर्तमान के तथ्यों को स्वीकारने की अनिच्छा को दर्शा सकती है? क्या यह कोई ऐसी परिस्थिति दर्शा सकती है जिसमें व्यक्ति का दिल अवज्ञा, अवहेलना करने की इच्छा और मौजूदा परिस्थिति से बचकर भाग जाने और उसे बदलने की इच्छा से भरा हो? (हाँ।) ये वे दशाएँ हैं जिन्हें लोग तब प्रदर्शित करते हैं जब वे वर्तमान परिस्थिति का सामना नकारात्मकता से करते हैं। संक्षेप में कहें तो चाहे जो भी हो, जब लोग नकारात्मक होते हैं तब वर्तमान स्थिति से और परमेश्वर द्वारा की गई व्यवस्था से उनका असंतोष ऐसी सामान्य सी चीज के बराबर नहीं होती है कि उन्हें गलतफहमियाँ मात्र हैं, उनमें समझ-बूझ नहीं है या वे अनुभव नहीं कर पा रहे हैं। समझ-बूझ नहीं होना काबिलियत या समय की समस्या हो सकती है, जो कि मानवता की एक सामान्य अभिव्यक्ति है। अनुभव नहीं कर पाने के पीछे कुछ वस्तुनिष्ठ कारण भी हो सकते हैं, लेकिन इन्हें नकारात्मक, प्रतिकूल चीजें नहीं माना जाता है। कुछ लोग अनुभव नहीं कर पाते हैं, लेकिन जब उनका सामना ऐसी चीजों से होता है जिन्हें वे नहीं समझते हैं या जिनकी असलियत नहीं जानते हैं, या वे ऐसी चीजें होती हैं जिन्हें वे समझ-बूझ या अनुभव नहीं कर पाते हैं, तो वे परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं और उसकी इच्छाओं की तलाश करते हैं, परमेश्वर की प्रबुद्धता और रोशनी की प्रतीक्षा करते हैं, और सक्रिय रूप से दूसरों से तलाश करते हैं और उनके साथ संगति करते हैं। लेकिन, कुछ लोग अलग किस्म के होते हैं; उनके पास अभ्यास के ये मार्ग नहीं होते हैं, और न ही उनके पास कोई ऐसा रवैया होता है। संगति करने के लिए किसी की प्रतीक्षा करने, तलाश करने या ढूँढ़ने के बजाय, वे अपने दिलों में गलतफहमियाँ उत्पन्न कर लेते हैं, उन्हें लगता है कि वे जिन घटनाओं और परिस्थितियों का सामना करते हैं, वे उनकी इच्छाओं, प्राथमिकताओं या कल्पनाओं के अनुरूप नहीं हैं, जिससे उनके भीतर अवज्ञा, असंतोष, प्रतिरोध, शिकायतें, अवहेलना, हंगामा और ऐसी ही दूसरी प्रतिकूल चीजें उत्पन्न होती हैं। इन प्रतिकूल चीजों को उत्पन्न करने के बाद, वे उनके बारे में ज्यादा नहीं सोचते हैं, और ना ही वे प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के सामने आते हैं और ना ही अपनी खुद की दशा और भ्रष्टता का ज्ञान प्राप्त करने के लिए चिंतन करते हैं। वे परमेश्वर की इच्छाओं की तलाश करने के लिए परमेश्वर के वचनों को नहीं पढ़ते हैं या समस्याओं को सुलझाने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग नहीं करते हैं, फिर दूसरों से तलाश करना और उनके साथ संगति करना तो दूर की बात है। इसके बजाय, वे इस बात पर अड़े रहते हैं कि वे जो मानते हैं वह सही और सटीक है, वे अपने दिलों में अवज्ञा और असंतोष की भावना रखते हैं, और नकारात्मक, प्रतिकूल भावनाओं में फँसे रहते हैं। इन भावनाओं में फँसे रहने के दौरान, वे एक-दो दिन उन्हें अपने भीतर दबाकर रख पाते हैं या उन्हें झेल पाते हैं, लेकिन एक लंबे समय बाद, उनके मन में कई चीजें उत्पन्न होने लगती हैं, जिनमें मानवीय धारणाएँ और कल्पनाएँ, मानवीय नैतिकता और आचार, मानवीय संस्कृति, परंपराएँ और ज्ञान वगैरह शामिल हैं। वे इन चीजों का उपयोग उन समस्याओं को मापने, उनका हिसाब लगाने और उन्हें समझने के लिए करते हैं जिनका वे सामना करते हैं, और पूरी तरह से शैतान के जाल में फँसे रहते हैं, और इस प्रकार असंतोष और अवज्ञा की विभिन्न दशाएँ जन्म लेती हैं। इन भ्रष्ट दशाओं से फिर तरह-तरह के गलत विचार और दृष्टिकोण उभरते हैं, और उनके दिलों में इन नकारात्मक चीजों को और नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। फिर वे इन चीजों को फैलाने और अपनी भड़ास निकालने के अवसर तलाशते हैं। जब उनका दिल नकारात्मकता से भर जाता है, तो क्या वे कहते हैं, “मेरे भीतर नकारात्मक चीजें भर गई हैं; मुझे दूसरों को नुकसान पहुँचाने से बचने के लिए, बिना विचारे नहीं बोलना चाहिए। अगर मेरा बोलने का मन करता है और मैं इसे रोक नहीं पाता हूँ, तो मैं दीवार से बात कर लूँगा, या किसी ऐसी चीज से बात करूँगा जिसे मानवीय बातें समझ नहीं आती हैं”? क्या वे इतने उदार हैं कि ऐसा करेंगे? (नहीं।) तो फिर वे क्या करते हैं? अपने नकारात्मक दृष्टिकोणों, टिप्पणियों और भावनाओं को ग्रहण करने के लिए वे दर्शक हासिल करने के अवसरों की तलाश करते हैं, और इसका उपयोग अपने दिलों से असंतोष, अवज्ञा और नाराजगी जैसी अलग-अलग नकारात्मक भावनाओं को बाहर उड़ेलने के लिए करते हैं। उनका मानना है कि कलीसियाई जीवन अपनी नकारात्मकता, असंतोष और अवज्ञा को फैलाने का सबसे अच्छा समय है और यह इन्हें बाहर उड़ेलने का अच्छा मौका है, क्योंकि वहाँ कई श्रोता होते हैं और उनके शब्द दूसरों को नकारात्मक बनने के लिए प्रभावित कर सकते हैं और कलीसिया के कार्य के लिए प्रतिकूल परिणाम ला सकते हैं। बेशक, जो लोग नकारात्मकता फैलाते हैं, वे पर्दे के पीछे भी खुद को रोक नहीं पाते हैं; वे हमेशा अपना नकारात्मक भाषण बाहर उड़ेलते हैं। जब उनकी बातें सुनने के लिए लोगों की संख्या कम होती है, तो उन्हें यह उबाऊ लगता है, लेकिन जब सभी इकट्ठा होते हैं, तो उनमें जोश आ जाता है। नकारात्मकता फैलाने वाले लोगों की भावनाओं, दशाओं और अन्य पहलुओं से यह पता चलता है कि उनका उद्देश्य सत्य समझने में, क्या सत्य है इसकी असलियत जानने में, परमेश्वर के बारे में गलतफहमियों या शंकाओं को दूर करने में, या खुद को और अपने भ्रष्ट सार को जानने में लोगों की मदद करना नहीं है, न ही उनका उद्देश्य लोगों के विद्रोहीपन और भ्रष्टता के मुद्दों को सुलझाने में उनकी मदद करना है ताकि वे परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह या उसका विरोध न करें, बल्कि उसके प्रति समर्पण करें। उनके उद्देश्य वास्तव में दोहरे होते हैं : एक लिहाज से, वे अपनी भावनाएँ बाहर उड़ेलने के लिए नकारात्मकता फैलाते हैं; दूसरे लिहाज से, उनका उद्देश्य ज्यादा लोगों को नकारात्मकता में और उनके साथ परमेश्वर का प्रतिरोध करने और उसके खिलाफ हंगामा करने के जाल में खींच लाना है। इसलिए, नकारात्मकता फैलाने के कृत्य को कलीसियाई जीवन में पूरी तरह से रोक देना चाहिए।

ख. नकारात्मकता फैलाने वाले लोगों की विभिन्न दशाएँ और अभिव्यक्तियाँ
1. बर्खास्त किए जाने पर असंतोष महसूस करते हुए नकारात्मकता फैलाना

नकारात्मकता की भावनाएँ और अभिव्यक्तियाँ मूल रूप से यही हैं। इनके बारे में मेरी संगति के बाद लोगों को इनसे खुद की तुलना करके देखना चाहिए कि वास्तविक जीवन में उनके कौन-से व्यवहार, टिप्पणियाँ और तरीके नकारात्मकता फैलाने वाले हैं और किन परिस्थितियों के कारण वे नकारात्मकता में गिरते हैं जिससे नकारात्मकता फैलती है। मुझे बताओ, सामान्य परिस्थितियों में कौन-सी स्थितियाँ लोगों को नकारात्मक बनाती हैं? नकारात्मकता के सामान्य रूप क्या हैं? (जब किसी को बर्खास्त किया जाता है या जब उसकी काट-छाँट की जाती है तो उसके दिल में कुछ नकारात्मकता विकसित हो सकती है।) बर्खास्त होना एक बात है और काट-छाँट किया जाना दूसरी। बर्खास्त होने से नकारात्मकता क्यों आती है? (कुछ लोगों को बर्खास्त किए जाने के बाद कोई आत्म-ज्ञान नहीं होता है और उन्हें लगता है कि उनका रुतबा उनके पतन का कारण बना। फिर वे कुछ नकारात्मक दृष्टिकोण व्यक्त करते हुए कहते हैं, “तुम जितना ऊँचा चढ़ोगे, उतनी ही जोर से गिरोगे,” उन्हें बर्खास्त किए जाने की शुद्ध समझ नहीं है; वे अपने दिलों में अवज्ञाकारी हैं।) उनके अंदर अवज्ञा और असंतोष है जो नकारात्मक भावनाएँ हैं। क्या वे शिकायत करते हैं? (हाँ। उन्हें लगता है कि उन्होंने कठिनाई सही और कीमत चुकाई है, बदले में कुछ भी अच्छा पाए बिना हमेशा कड़ी मेहनत की है और फिर भी उन्हें बर्खास्त कर दिया गया। इसलिए वे कहते हैं, “अगुआ बनना मुश्किल है; जो कोई भी अगुआ बनता है वह बदनसीब होता है। अंत में सभी को बर्खास्त कर दिया जाता है।”) ऐसी टिप्पणियाँ फैलाना नकारात्मकता फैलाना है। अगर वे केवल अवज्ञाकारी और असंतुष्ट हैं पर नकारात्मकता नहीं फैलाते तो इसे अभी भी नकारात्मकता फैलाना नहीं माना जा सकता। अगर अवज्ञा और असंतोष से धीरे-धीरे एक शिकायती मनोदशा उभरती है और वे इस तथ्य को स्वीकार नहीं करते हैं कि उनमें कम काबिलियत है और वे काम करने में असमर्थ हैं, और फिर वे अपने विकृत तर्क पर बहस करना शुरू कर देते हैं, बहस करते समय सभी प्रकार के बयान, दृष्टिकोण, बहाने, कारण, स्पष्टीकरण, औचित्य वगैरह उत्पन्न करते हैं तो इस प्रकार की टिप्पणियाँ करना नकारात्मकता फैलाने के बराबर है। कुछ नकली अगुआ जिन्हें वास्तविक काम न करने के कारण बर्खास्त कर दिया जाता है, अपने दिलों में अवज्ञा और असंतोष को पालते हैं, उनमें बिल्कुल भी समर्पण नहीं होता; वे हमेशा यही सोचते हैं, “चलो देखते हैं अगुआ के रूप में मेरी जगह कौन ले सकता है। दूसरे मुझसे बेहतर नहीं हैं; अगर मैं काम नहीं कर सकता तो वे भी नहीं कर सकते!” कौन-सी चीज उन्हें अवज्ञाकारी बनाती है? उन्हें लगता है कि उनकी काबिलियत कम नहीं है और उन्होंने बहुत सारा काम किया है, तो फिर उन्हें क्यों बर्खास्त किया गया? ये नकली अगुआओं के अंतर्मन के विचार हैं। वे खुद को जानने के लिए चिंतन नहीं करते और यह नहीं देखते कि उन्होंने वाकई कोई वास्तविक कार्य किया है या नहीं, उन्होंने कितनी वास्तविक समस्याएँ हल की हैं या क्या यह सच है कि उन्होंने कलीसिया के कार्य को पंगु बना दिया था। वे शायद ही कभी इन बातों पर विचार करते हैं। उन्हें नहीं लगता कि समस्या यह है कि उनमें सत्य वास्तविकता की कमी है और वे चीजों की असलियत नहीं समझ सकते; बल्कि उनका मानना है कि बहुत सारा काम करने के बाद उनका निरूपण नकली अगुआ के रूप में नहीं किया जाना चाहिए। यह उनकी अवज्ञा और असंतोष का प्राथमिक कारण है। वे हमेशा सोचते हैं : “मैंने कई वर्षों से अपने कर्तव्यों का पालन किया है, मैं किसके लिए हर दिन सुबह जल्दी उठता और देर तक जागता था? परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद मैंने अपना परिवार पीछे छोड़ दिया, अपना करियर छोड़ दिया और अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए गिरफ्तार होने और जेल जाने का जोखिम भी उठाया। मैंने इतनी कठिनाई सही है! और अब उन्होंने यह कहकर मुझे बर्खास्त कर दिया कि मैंने वास्तविक काम ही नहीं किया—यह बहुत अनुचित है! भले ही मैंने कोई उपलब्धि हासिल न की हो, मगर मैंने कठिनाई झेली है; अगर कठिनाई नहीं तो थकान ही सही! मेरी काबिलियत और अपने काम में कीमत चुकाने की क्षमता के साथ, अगर मुझे अभी भी मानक स्तर का नहीं माना जाता और बर्खास्त कर दिया जाता है तो शायद ही कोई अगुआ होगा जो मानक स्तर का हो!” क्या वे ये बातें बोलकर नकारात्मकता फैला रहे हैं? क्या इनमें से एक भी वाक्य ऐसा है जो समर्पण का भाव व्यक्त करता हो? क्या उनमें सत्य खोजने की इच्छा का जरा भी संकेत है? क्या कोई आत्म-चिंतन है, जैसे, “वे कहते हैं कि मेरा काम मानक के अनुरूप नहीं है, तो आखिर मुझमें क्या कमी है? मैंने कौन-सा वास्तविक काम नहीं किया है? मैं एक नकली अगुआ की कौन-सी अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करता हूँ?” क्या उन्होंने इस तरह से आत्म-चिंतन किया है? (नहीं।) तो उनके द्वारा कही गई इन बातों की प्रकृति क्या है? क्या वे शिकायत कर रहे हैं? क्या वे खुद को सही ठहरा रहे हैं? खुद को सही ठहराने का उनका उद्देश्य क्या है? क्या यह लोगों की सहानुभूति और समझ हासिल करने के लिए नहीं है? क्या वे नहीं चाहते कि ज्यादा से ज्यादा लोग उनके बचाव में आएँ, उनके साथ हुए अन्याय पर विलाप करें? (हाँ।) तो फिर वे किसके खिलाफ हो-हल्ला कर रहे हैं? क्या वे परमेश्वर के साथ बहस और उसके खिलाफ हो-हल्ला नहीं कर रहे हैं? (हाँ।) वे अपनी बातों से परमेश्वर के बारे में शिकायत और उसका विरोध कर रहे हैं। उनके दिल शिकायतों, प्रतिरोध और विद्रोहशीलता से भरे हुए हैं। इतना ही नहीं, नकारात्मकता फैला कर वे ज्यादा लोगों को उन्हें समझने, उनके साथ सहानुभूति रखने और उनके जैसी नकारात्मकता विकसित करने, ज्यादा से ज्यादा लोगों को उनके जैसी शिकायतें, प्रतिरोध और परमेश्वर के खिलाफ अवज्ञा को बढ़ावा देने या उसके खिलाफ हो-हल्ला करने के लिए प्रेरित करना चाहते हैं। क्या वे इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए नकारात्मकता नहीं फैलाते हैं? उनका उद्देश्य बस ज्यादा लोगों को मामले की तथाकथित सच्चाई से अवगत कराना और दूसरों को यह विश्वास दिलाना है कि उनके साथ गलत किया जा रहा है, कि उन्होंने जो किया वह सही था, उन्हें बर्खास्त नहीं किया जाना चाहिए था, और उन्हें बर्खास्त करना एक गलती थी; वे चाहते हैं कि ज्यादा से ज्यादा लोग उनके बचाव में आएँ। ऐसा करके वे अपनी इज्जत, रुतबे और प्रतिष्ठा को वापस हासिल करने की उम्मीद करते हैं। सभी नकली अगुआ और मसीह-विरोधी बर्खास्त होने के बाद लोगों की सहानुभूति जीतने के लिए इस तरह से नकारात्मकता फैलाते हैं। उनमें से कोई भी आत्म-चिंतन करके खुद को नहीं जान सकता, अपनी गलतियाँ नहीं स्वीकार सकता या वास्तविक पछतावा या पश्चात्ताप नहीं दिखा सकता। इस तथ्य से यह साबित होता है कि सभी नकली अगुआ और मसीह-विरोधी वे लोग हैं जो सत्य से प्रेम नहीं करते, और इसे बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते हैं। इसलिए, बेनकाब करके हटाए जाने के बाद वे सत्य और परमेश्वर के वचनों के माध्यम से खुद को नहीं जान सकते हैं। किसी ने उन्हें पछतावा करते या खुद के बारे में वास्तविक ज्ञान प्राप्त करते नहीं देखा है, न ही किसी ने उन्हें सच्चा पश्चात्ताप करते देखा है। ऐसा लगता है कि वे कभी खुद को समझ नहीं पाते या अपनी गलतियाँ स्वीकार नहीं करते हैं। इस तथ्य से देखें तो नकली अगुआओं और मसीह-विरोधियों को बर्खास्त करना पूरी तरह से उचित है और बिल्कुल भी अन्याय नहीं है। उनके आत्म-चिंतन और आत्म-ज्ञान की संपूर्ण कमी के आधार पर, साथ ही साथ बिल्कुल भी पश्चात्ताप न दिखाने के आधार पर यह स्पष्ट है कि उनका मसीह-विरोधी स्वभाव गंभीर है और वे सत्य से बिल्कुल भी प्रेम नहीं करते।

बर्खास्त होने के बाद कुछ नकली अगुआ अपनी गलतियाँ बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते, न ही वे सत्य खोजते हैं और न ही आत्म-चिंतन करके खुद को जानते हैं। उनके पास समर्पण वाला दिल या रवैया जरा भी नहीं होता है। इसके बजाय, वे परमेश्वर को गलत समझते हैं और शिकायत करते हैं कि परमेश्वर उनके साथ अन्याय करता है, खुद को सही ठहराने और अपना बचाव करने के लिए तरह-तरह के बहाने और तर्क खोजने में अपना दिमाग खपाते हैं। कुछ तो यहाँ तक कहते हैं, “मैं पहले कभी अगुआ बनना ही नहीं चाहता था क्योंकि मुझे पता था कि यह एक मुश्किल काम है। अगर तुम अच्छा काम करते हो तो तुम्हें इनाम नहीं मिलता और अगर तुम अच्छा काम नहीं करते हो तो तुम्हें बर्खास्त करके बदनाम किया जाता है, भाई-बहन तुम्हें ठुकरा देते हैं और तुम्हारी कोई इज्जत नहीं रह जाती है। उसके बाद कोई अपना चेहरा कैसे दिखाएगा? अब जब मुझे बर्खास्त कर दिया गया है तो मैं और भी ज्यादा आश्वस्त हूँ कि अगुआ या कार्यकर्ता होना आसान नहीं है; यह एक कठिन और नाशुक्रा काम है!” “अगुआ या कार्यकर्ता होना एक कठिन और नाशुक्रा काम है” इस कथन का क्या अर्थ है? क्या यहाँ सत्य खोजने का कोई इरादा व्यक्त किया जा रहा है? क्या ऐसा नहीं है कि वे इस तथ्य से घृणा करने लगे हैं कि परमेश्वर के घर ने उन्हें अगुआ या कार्यकर्ता बनाने की व्यवस्था की, और अब वे दूसरों को गुमराह करने के लिए इस तरह के कथन का उपयोग कर रहे हैं? (हाँ।) इस कथन के क्या परिणाम हो सकते हैं? ज्यादातर लोगों के मन, विचार और इस मामले के बारे में उनकी सूझ-बूझ और समझ इन शब्दों से प्रभावित और बाधित होगी। नकारात्मकता फैलाने का लोगों के लिए यही परिणाम होता है। उदाहरण के लिए, अगर तुम अगुआ नहीं हो और तुम यह सुनते हो तो तुम चौंक जाओगे और सोचोगे, “क्या यह सच नहीं है! मुझे अगुआ नहीं चुना जाना चाहिए। अगर मैं अगुआ चुना जाता हूँ तो मुझे इनकार करने के लिए जल्दी से तरह-तरह के कारण और बहाने ढूँढ़ने होंगे। मैं कहूँगा कि मुझमें काबिलियत की कमी है और मैं काम नहीं कर सकता।” कुछ अगुआ भी इस कथन से प्रभावित होते हैं और सोचते हैं, “कितना भयानक है! क्या भविष्य में मुझे भी उनके जैसे ही परिणाम का सामना करना पड़ेगा? अगर चीजें इसी तरह होने वाली हैं तो मैं अगुआ बनने से बिल्कुल मना कर दूँगा।” क्या ये नकारात्मक, प्रतिकूल भावनाएँ और यह नकारात्मक, प्रतिकूल कथन लोगों को बाधित करते हैं? वे साफ तौर पर बाधाएँ पैदा करते हैं। कोई भी व्यक्ति, चाहे उसकी काबिलियत अच्छी हो या कम, जब वह इन शब्दों को सुनेगा तो वह अनजाने में उन्हें सबसे पहले ग्रहण करेगा और ये शब्द उसके मन में प्रमुख स्थान ले लेंगे, और उन्हें अलग-अलग स्तर तक प्रभावित करेंगे। प्रभावित होने के क्या परिणाम हैं? ज्यादातर लोग अगुआ होने और अगुआ के पद से बर्खास्त किए जाने के मामले के साथ सही तरीके से पेश नहीं आ पाएँगे और उनमें समर्पण का रवैया नहीं होगा। इसके बजाय, उनके पास एक दिल होगा जो हमेशा परमेश्वर को गलत समझता रहेगा और उससे सतर्क रहेगा, वे इस मुद्दे के बारे में नकारात्मक भावनाएँ विकसित करेंगे और जब इस मुद्दे का जिक्र किया जाएगा तो वे विशेष रूप से संवेदनशील और भयभीत होंगे। जब लोग ये व्यवहार प्रदर्शित करते हैं तो क्या वे शैतान के प्रलोभन और गुमराह किए जाने के शिकार नहीं हो गए हैं? यह स्पष्ट है कि वे नकारात्मकता फैलाने वाले लोगों द्वारा गुमराह और बाधित किए गए हैं। चूँकि नकारात्मकता फैलाने वाले लोगों द्वारा व्यक्त की गई बातें लोगों के भ्रष्ट स्वभावों और शैतान से उत्पन्न होती हैं और वे बातें सत्य की समझ या परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित परिवेशों के प्रति समर्पण करके प्राप्त की गई अनुभवजन्य अंतर्दृष्टि नहीं होती है, इसलिए उन्हें सुनने वाले लोग अलग-अलग स्तर तक बाधित हो जाते हैं। लोग जो नकारात्मकता फैलाते हैं, वह सभी पर कुछ प्रतिकूल, चिंताजनक प्रभाव डालती है। कुछ लोग जो सक्रियता से सत्य खोजते हैं उन्हें कम नुकसान होगा। अन्य लोग जिनमें बिल्कुल भी प्रतिरोध नहीं है वे परेशान और गहराई से आहत होंगे, भले ही उन्हें पता हो कि ये बातें गलत हैं। परमेश्वर चाहे कुछ भी कहे, इस मामले पर वह कैसे भी संगति करे या उसकी अपेक्षाएँ कुछ भी हों, वे इन सब को नजरंदाज करके नकारात्मकता फैलाने वालों की बातों को ध्यान में रखते हैं, हमेशा खुद को चेतावनी देते रहते हैं कि वे सतर्क रहें, मानो ये नकारात्मक कथन उनकी सुरक्षात्मक छत्रछाया, उनकी ढाल हों। चाहे परमेश्वर कुछ भी कहे, वे अपनी सतर्कता और गलतफहमियों को नहीं छोड़ सकते। जिन लोगों के पास सत्य या परमेश्वर के वचनों में कोई प्रवेश नहीं है और जो सत्य वास्तविकता को नहीं समझते, उनके पास इन नकारात्मक कथनों की कोई पहचान और इनके प्रति कोई प्रतिरोध नहीं है। वे आखिरकार इन नकारात्मक कथनों से बेबस हो जाते हैं और बंध जाते हैं, और परमेश्वर के वचनों को अब और स्वीकार नहीं सकते। क्या इससे उन्हें नुकसान नहीं हुआ है? उन्हें किस हद तक नुकसान पहुँचा है? वे परमेश्वर के वचन ग्रहण नहीं करते या उन्हें समझ नहीं पाते, बल्कि लोगों द्वारा कही गई नकारात्मक बातों को, असंतोष, अवज्ञा और शिकायत भरे शब्दों को सकारात्मक चीजों के रूप में देखते हैं, उन्हें अपने व्यक्तिगत आदर्श वाक्य मानते हैं जिन्हें वे अपने दिलों के करीब रखते हैं और उनका उपयोग अपने जीवन का मार्गदर्शन करने, परमेश्वर का विरोध करने और उसके वचनों की अवहेलना करने के लिए करते हैं। क्या वे शैतान के जाल में नहीं फँस गए हैं? (हाँ।) ये लोग अनजाने में शैतान के जाल में फँस गए हैं और शैतान ने उन्हें कब्जे में कर लिया है। किसी पद से बर्खास्त किए जाने जैसे साधारण मामले के बारे में ये लोग जो नकारात्मक बयान देते हैं, उनका दूसरों पर बहुत ज्यादा प्रभाव पड़ता है। इसका एक मूल कारण है : जो लोग इन नकारात्मक कथनों को स्वीकारते हैं वे पहले से ही अगुआ होने के बारे में धारणाओं और कल्पनाओं से—और यहाँ तक कि कुछ गलतफहमियों और सतर्कता से भी—भरे हुए थे। हालाँकि ये गलतफहमियाँ और सतर्कता उनके मन में पूरी तरह से विकसित नहीं थीं मगर इन नकारात्मक कथनों को सुनने के बाद वे और भी ज्यादा आश्वस्त हो गए कि उनकी सतर्कता और गलतफहमियाँ सही हैं; उन्हें लगता है कि उनके पास यह मानने के लिए और भी अधिक कारण हैं कि अगुआ होने से बहुत सी अच्छी चीजें नहीं, बल्कि बहुत सारा दुर्भाग्य आता है, और उन्हें गलतियाँ करने के कारण बर्खास्त होने और ठुकराए जाने से बचने के लिए अगुआ या कार्यकर्ता कतई नहीं बनना चाहिए। क्या वे नकारात्मकता फैलाने वालों द्वारा पूरी तरह से गुमराह और प्रभावित नहीं हुए हैं? बर्खास्त किए गए लोगों द्वारा व्यक्त किए गए केवल नकारात्मक कथन, साथ ही उनकी अवज्ञा और असंतोष की भावनाएँ ही लोगों पर बहुत गहरा प्रभाव डाल सकती हैं और उन्हें खासा नुकसान पहुँचा सकती हैं। तुम लोगों को क्या लगता है—क्या यह एक गंभीर समस्या है कि लोगों द्वारा फैलाई गईं नकारात्मक भावनाएँ मौत के परिवेश से भरी होती हैं? (हाँ, यह समस्या गंभीर है।) कौन-सी चीज इसे इतना गंभीर बनाती है? यह इसलिए गंभीर है कि यह लोगों की परमेश्वर के प्रति गहराई तक बैठी सतर्कता और गलतफहमियों को सटीकता से पूरा करती है, और यह लोगों की परमेश्वर के प्रति गलतफहमियों और संदेह और साथ ही उसके प्रति उनके आंतरिक रवैये को भी दर्शाती है। इसलिए, नकारात्मकता फैलाने वालों द्वारा फैलाए गए कथन सीधे लोगों की नब्ज पर चोट करते हैं, और लोग उन्हें पूरी तरह से स्वीकारते हुए शैतान के जाल में इतनी बुरी तरह से फँस जाते हैं कि वे खुद को मुक्त नहीं करा पाते। यह अच्छी बात है या बुरी? (बुरी बात है।) इसके क्या परिणाम हैं? (इसके कारण लोग परमेश्वर से विश्वासघात करते हैं।) (इसके कारण लोग परमेश्वर के प्रति सतर्क रहते हैं और उसे गलत समझते हैं, वे अपने दिलों में परमेश्वर से दूर रहते हैं, अपने कर्तव्यों के प्रति नकारात्मकता से पेश आते हैं, और महत्वपूर्ण आदेशों को स्वीकारने से डरते हैं। वे सामान्य कर्तव्य निभाकर संतुष्ट हो जाते हैं और इस प्रकार पूर्ण बनाए जाने के कई मौके खो देते हैं।) क्या ऐसे लोगों को बचाया जा सकता है? (नहीं।)

दो हजार साल पहले पौलुस ने कई दृष्टिकोण रखे और कई पत्र लिखे। उन पत्रों में उसने बहुत-सी भ्रांतियाँ कहीं। क्योंकि लोगों में विवेक की कमी है, इसलिए पिछले दो हजार सालों से बाइबल पढ़ने वालों ने प्रभु यीशु के वचनों को दरकिनार करते हुए परमेश्वर से सत्य स्वीकारने के बजाय मुख्य रूप से पौलुस के विचारों और दृष्टिकोणों को स्वीकार किया है। क्या पौलुस के विचारों और दृष्टिकोणों को स्वीकारने वाले लोग परमेश्वर के समक्ष आ सकते हैं? क्या वे परमेश्वर के वचन स्वीकार सकते हैं? (नहीं।) अगर वे परमेश्वर के वचन स्वीकार नहीं सकते, तो क्या वे परमेश्वर को परमेश्वर मान सकते हैं? (नहीं।) जब परमेश्वर आकर उनके सामने खड़ा होगा तो क्या वे परमेश्वर को पहचान सकेंगे? क्या वे उसे अपना परमेश्वर और प्रभु मान सकते हैं? (नहीं।) वे ऐसा क्यों नहीं कर सकते? पौलुस के भ्रामक विचार और दृष्टिकोण लोगों के दिलों में भरे हुए हैं जिनसे उनके दिलों में सभी तरह के सिद्धांत और कहावतें विकसित हो गई हैं। जब लोग इनका उपयोग परमेश्वर, उसके कार्य, उसके वचनों, उसके स्वभाव और लोगों के प्रति उसके रवैये को आँकने के लिए करते हैं, तो वे अब साधारण, सरल किस्म के भ्रष्ट मनुष्य नहीं रह जाते, बल्कि वे परमेश्वर के विरोध में खड़े होते हैं, उसकी पड़ताल और विश्लेषण करते हैं और उसके प्रति शत्रुतापूर्ण हो जाते हैं। क्या परमेश्वर ऐसे लोगों को बचा सकता है? (नहीं।) अगर परमेश्वर उन्हें नहीं बचाता तो क्या उन्हें अभी भी उद्धार पाने का मौका मिलेगा? परमेश्वर की पूर्वनियति और चयन ने लोगों को एक अवसर दिया है, लेकिन अगर परमेश्वर की पूर्वनियति और चयन के बाद भी लोग पौलुस का अनुसरण करने वाला मार्ग चुनते हैं तो क्या उद्धार का यह अवसर अभी भी मौजूद है? कुछ लोग कहते हैं, “मैं परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत और चुना गया हूँ, इसलिए मैं पहले से ही सुरक्षित क्षेत्र में हूँ। मुझे निश्चित ही बचाया जाएगा।” क्या ये शब्द सही हैं? परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत होने और चुने जाने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि तुम उद्धार के लिए उम्मीदवार बन गए हो, मगर तुम बचाए जाओगे या नहीं यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम कितनी अच्छी तरह से अनुसरण करते हो और क्या तुमने सही मार्ग चुना है। क्या ऐसा है कि सभी उम्मीदवारों को अंत में चुना जाएगा और बचाया जाएगा? नहीं। इसी तरह, अगर लोग अवज्ञा, असंतोष और शिकायत जैसी भावनाओं को स्वीकारते हैं या नकारात्मकता फैलाने वालों द्वारा व्यक्त की गई टिप्पणियों, विचारों और दृष्टिकोणों को स्वीकारते हैं, और उनके दिल इन प्रतिकूल चीजों से भरे हुए और उनके कब्जे में हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि वे उनसे बस थोड़े-बहुत सहमत हैं—इसका मतलब है कि वे उन्हें पूरी तरह से स्वीकारते हैं और इन चीजों के अनुसार जीना चाहते हैं। जब लोग इन प्रतिकूल चीजों के अनुसार जीते हैं तो परमेश्वर के साथ उनका रिश्ता कैसा हो जाता है? यह एक विरोधी रिश्ता बन जाता है। यह सृष्टिकर्ता और सृजित प्राणियों के बीच का रिश्ता नहीं रहता, न ही परमेश्वर और भ्रष्ट मानवजाति के बीच का रिश्ता रहता है और यकीनन यह परमेश्वर और उद्धार प्राप्त करने वालों के बीच का रिश्ता तो कतई नहीं रहता। इसके बजाय, यह परमेश्वर और शैतान के बीच का रिश्ता बन जाता है, परमेश्वर और उसके दुश्मनों के बीच का रिश्ता बन जाता है। इसलिए, लोग उद्धार प्राप्त कर सकते हैं या नहीं, यह एक प्रश्न चिह्न, एक अनुत्तरित प्रश्न बन जाता है। जिन लोगों को बर्खास्त किया गया है, उनके द्वारा दिए गए नकारात्मक बयान शिकायतों, गलतफहमियों, औचित्य और बचाव से भरे होते हैं; वे कुछ ऐसी बातें भी कहते हैं जो लोगों को गुमराह करती हैं और उनकी ओर आकर्षित करती हैं। इन कथनों को सुनने के बाद, लोग परमेश्वर के प्रति गलतफहमियाँ विकसित कर लेते हैं और सतर्कता बरतने लगते हैं, और यहाँ तक कि अपने दिलों में परमेश्वर से दूर हो जाते हैं और उसे ठुकरा देते हैं। इसलिए, जब ऐसे लोग नकारात्मकता फैला रहे हों तो उन्हें तुरंत प्रतिबंधित किया जाना और रोका जाना चाहिए। अनुभव की गई परिस्थितियों को परमेश्वर से स्वीकारने, सत्य खोजने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में उनकी असमर्थता उनकी अपनी समस्या है, और उन्हें दूसरों को प्रभावित नहीं करने देना चाहिए। अगर वे इसे स्वीकार नहीं सकते तो उन्हें इसे धीरे-धीरे पचाने और हल करने दो। लेकिन अगर वे नकारात्मकता फैलाते हुए दूसरे लोगों के सामान्य प्रवेश को प्रभावित और बाधित करते हैं तो उन्हें समय रहते रोका और प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। अगर उन्हें प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता और वे लोगों को गुमराह करने और अपनी ओर आकर्षित करने के लिए नकारात्मकता फैलाना जारी रखते हैं तो उन्हें तुरंत हटा दिया जाना चाहिए। उन्हें कलीसियाई जीवन को बाधित करते रहने की अनुमति नहीं देनी चाहिए।

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