अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (16) खंड पाँच
जो लोग सत्य नहीं समझते, उन्हें सबसे पहले यह याद रखना चाहिए कि जब उनमें धारणाएँ हों तो उन्हें उन धारणाओं को हल करने के लिए सत्य खोजना चाहिए। उन्हें उन धारणाओं को कभी फैलाना नहीं चाहिए या अनर्गल नहीं बोलना चाहिए, यह नहीं कहना चाहिए, “मुझे बोलने की आजादी है। आखिर यह मेरा मुँह है; मैं जो चाहूँ, जिससे चाहूँ और जिस भी माहौल में चाहूँ, कह सकता हूँ।” इस तरह से बोलना गलत है। कुछ अच्छे या सही शब्द बोले जाने पर जरूरी नहीं कि दूसरों को फायदा पहुँचाएँ, लेकिन जो शब्द धारणाएँ या शैतान के प्रलोभन हैं, उनके बोले जाने पर अथाह दुष्परिणाम हो सकते हैं। अगर तुम्हारी कोई धारणा है जिसे तुम व्यक्त करने पर जोर देते हो और तुम्हें लगता है कि ऐसा करना अच्छा लगता है और तुम्हें खुशी देता है तो इन परिणामों के आधार पर तुम्हारे क्रियाकलापों को दुष्कर्मों के रूप में निरूपित करना पड़ेगा और परमेश्वर उन्हें तुम्हारे खिलाफ दर्ज करेगा। उन्हें तुम्हारे खिलाफ क्यों दर्ज किया जाएगा? तुम्हें अभ्यास के कई सकारात्मक तरीके, मार्ग और सिद्धांत बताए गए हैं, लेकिन तुमने उन्हें नहीं चुना; इसके बजाय तुमने ऐसा रास्ता चुना जो लोगों को नुकसान पहुँचाता है—यह इरादतन था, है ना? तो क्या तुम्हारे क्रियाकलापों को दुष्कर्म कहना अतिशयोक्ति है? (नहीं।) दूसरों को बाधित और गुमराह करने के लिए अपनी धारणाएँ सामने लाने के बजाय तुम इस समस्या को अनुभव और परमेश्वर से प्रार्थना और खोज के जरिये पूरी तरह से खुद हल करना चुन सकते हो। यही तरीका है जिसे जमीर और विवेक वाले व्यक्ति को चुनना चाहिए। तो तुम यह तरीका क्यों नहीं चुनते? वह तरीका क्यों चुनते हो जो दूसरों को नुकसान और चोट पहुँचाए? क्या यह वह काम नहीं है जो शैतान करेगा? बुरे लोग वे चीजें करते हैं जो दूसरों और खुद को नुकसान पहुँचाती हैं। अगर तुम भी ऐसी चीजें करते हो तो क्या परमेश्वर इससे घृणा करता है? (हाँ।) अगर परमेश्वर तुम्हारी धारणाओं की निंदा नहीं करता तो भी तुम्हें अपनी धारणाएँ हल करने के लिए खुद सत्य खोजना चाहिए और तुम्हारे पास सत्य का अभ्यास करने का मार्ग होना चाहिए। अगर धारणाओं से निपटने का तुम्हारा तरीका जानबूझकर दूसरों को गुमराह करने और नुकसान पहुँचाने के लिए उन्हें फैलाना है, कलीसियाई जीवन और भाई-बहनों के जीवन प्रवेश और उनकी सामान्य अवस्थाओं में विघ्न डालना है तो तुम्हारे क्रियाकलाप दुष्कर्म हैं। ऐसी स्थिति से सामना होने पर व्यक्ति को क्या विकल्प चुनना चाहिए? मानवता से युक्त व्यक्ति जो सत्य का अनुसरण करता है, ऐसा मार्ग नहीं चुनेगा जो दूसरों को गुमराह करे और नुकसान पहुँचाए; वह सक्रिय, सकारात्मक सिद्धांतों का अभ्यास और पालन करना चुनेगा, प्रार्थना करने और सत्य खोजने के लिए परमेश्वर के सामने आएगा और समस्या हल करने के लिए परमेश्वर से मदद माँगेगा। कुछ लोग कहते हैं, “जब मैं परमेश्वर से मदद करने के लिए कहता हूँ तो मुझे हमेशा लगता है कि उसकी मदद अमूर्त और अदृश्य है। क्या मैं उसके बजाय लोगों से मदद माँगना चुन सकता हूँ?” हाँ, तुम किसी ऐसे व्यक्ति को चुन सकते हो जो तुमसे ज्यादा सत्य समझता हो और जिसका आध्यात्मिक कद तुमसे बड़ा हो, कोई ऐसा व्यक्ति जिसके बारे में तुम मानते हो कि वह तुम्हारी समस्या बिना बाधित हुए और तुम्हारी धारणाओं से प्रभावित होकर कमजोर हुए बिना हल कर सकता हो, कोई ऐसा व्यक्ति जिसने समान समस्याओं का अनुभव किया हो और तुम्हें बता सके कि उन्हें कैसे हल किया जाए—यह मार्ग भी उचित है। अगर तुम किसी ऐसे व्यक्ति को चुनते हो जो आमतौर पर काफी भ्रमित रहता है और किसी भी चीज की असलियत नहीं देख पाता और इस मामले के बारे में सुनकर वह तुरंत हंगामा खड़ा कर देता है, हर जगह धारणाएँ प्रसारित करना और विघ्न उत्पन्न करना चाहता है और विश्वास करना बंद करना चाहता है—तो तुम्हारे क्रियाकलाप अनजाने ही कलीसियाई जीवन में विघ्न डाल चुके होंगे। क्या तब तुम्हारे क्रियाकलाप दुष्कर्मों के रूप में निरूपित नहीं किए जाएँगे? (हाँ, किए जाएँगे।) इसलिए जब बात यह आती है कि तुम्हें धारणाएँ कैसे सँभालनी चाहिए तो तुम्हें सावधान और सतर्क रहना चाहिए, भ्रमित या आवेगपूर्ण तरीके से क्रियाकलाप नहीं करना चाहिए और धारणाओं को सत्य बिल्कुल नहीं मानना चाहिए—इंसानी विचार कितने भी सही क्यों न हों, सत्य नहीं होते। इस तरह तुम बहुत शांत महसूस करोगे और तुम्हारी धारणाएँ कोई परेशानी पैदा नहीं कर पाएँगी। धारणाएँ होना कोई डरने की बात नहीं है—अगर तुम सत्य खोजते हो तो वे अंततः हल हो जाएँगी। कुछ लोग कहते हैं, “लेकिन धारणाएँ हल करना आसान नहीं है।” कुछ धारणाएँ हल करना वाकई मुश्किल है तो क्या किया जाना चाहिए? यह आसान है। कुछ धारणाएँ कुछ लोगों के विचारों और दिमागों में कभी हल नहीं होतीं। यह पहले से ही एक तथ्य है, लेकिन किसी धारणा को हल करना कितना भी मुश्किल क्यों न हो, वह फिर भी सत्य नहीं होती। अगर तुम यह बात समझते हो तो समस्या सँभालना आसान है। यहाँ एक तथ्य है जो मुझे तुम लोगों को बताना है : परमेश्वर यह अपेक्षा नहीं करता कि उसके द्वारा की जाने वाली हर चीज हर कोई पूरी तरह से या स्पष्ट रूप से समझे; वह यह अपेक्षा नहीं करता कि हर कोई उस चीज के भीतर का सत्य जाने या यह जाने कि वह किसी निश्चित तरीके से क्रियाकलाप क्यों करता है। परमेश्वर यह नहीं चाहता; वह लोगों से इन मानकों की अपेक्षा नहीं करता। अगर तुम्हारी काबिलियत पर्याप्त है तो समझ का जो भी स्तर तुम हासिल करते हो वह अच्छा है—बस भरसक प्रयास करो। अगर तुम नहीं समझ सकते तो जैसे-जैसे तुम बड़े होते हो और तुम्हारे अनुभव ज्यादा से ज्यादा गहन होते जाते हैं और तुम ज्यादा अनुभव संचित कर लेते हो, तो सत्य के बारे में तुम्हारी समझ भी धीरे-धीरे गहन होती जाएगी और तुम्हारी धारणाएँ कम होती जाएँगी। लेकिन ज्यादातर लोग कुछ विशेष मामले समझने में असमर्थ होते हैं और उन्हें कभी नहीं समझ पाते। क्या परमेश्वर उन्हें वे मामले समझने के लिए मजबूर करता है? वह ऐसा नहीं करता; परमेश्वर उनमें समझ जबरदस्ती नहीं ठूँसता। उदाहरण के लिए, परमेश्वर द्वारा बनाई गई तमाम चीजों में कई रहस्य हैं जिन्हें लोग जानना चाहते हैं लेकिन नहीं जान पाते। लेकिन परमेश्वर अपने वचनों और कार्य में लोगों को शुद्ध कर बचाने के लिए सिर्फ सत्य व्यक्त करने पर ध्यान केंद्रित करता है। वह शायद ही कभी अन्य मामलों का उल्लेख करता है और जब कभी करता भी है तो सिर्फ संक्षिप्त तरीके से करता है; परमेश्वर लोगों को ये मामले कभी बहुत विस्तार से नहीं समझाता। क्यों नहीं समझाता? क्योंकि लोगों को ये चीजें समझने की जरूरत नहीं है। परमेश्वर लोगों पर जो कार्य करता है, उसमें एक ओर वह अपना स्वभाव सार प्रकट करता है; दूसरी तरफ, परमेश्वर के पास अपने विचार, अपनी योजनाएँ, जो वह करता है उसके स्रोत और लक्ष्य, विभिन्न लोगों पर कार्य करने के लिए उसके द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले तरीके और पद्धतियाँ, उसके द्वारा सभी चीजों पर संप्रभुता रखने के तरीके और पद्धतियाँ इत्यादि होते हैं। परमेश्वर ने कभी नहीं कहा कि बचाया गया माने जाने के लिए लोगों को तमाम सत्य समझने चाहिए और उनमें प्रवेश करना चाहिए। वह इसलिए कि परमेश्वर बहुत सर्वशक्तिमान है! उसके क्रियाकलाप करने, बोलने, कार्य करने और सभी चीजों पर संप्रभुता रखने के तरीके स्वाभाविक रूप से उसका स्वभाव, सार, पहचान इत्यादि प्रकट करते हैं। हालाँकि परमेश्वर स्वाभाविक रूप से वे चीजें प्रकट करता है जो उसके पास हैं और जो वह स्वयं है, लेकिन वह यह माँग नहीं करता कि लोग उन सभी को समझें या बूझें। वह इसलिए कि परमेश्वर हमेशा परमेश्वर रहेगा और वह सर्वशक्तिमान है जबकि सृजित मनुष्य बहुत छोटा और पूरी तरह से शक्तिहीन है; मनुष्य और परमेश्वर के बीच अंतर की गहरी खाई है! इसलिए लोगों का परमेश्वर के बारे में कुछ धारणाएँ और कल्पनाएँ विकसित कर लेना बहुत सामान्य है। परमेश्वर इसे गंभीरता से नहीं लेता, लेकिन तुम हमेशा इसे बहुत गंभीरता से लेते हो और इस पर अड़े रहते हो। यह नजरिया काम नहीं करेगा। अगर तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अनुसरण करता है और उच्च काबिलियत रखता है तो अगर तुम सत्य समझते हो और परमेश्वर के बारे में सच्चा ज्ञान रखते हो तो ये धारणाएँ और कल्पनाएँ स्वाभाविक रूप से हल हो जाएँगी। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते और चाहे कोई भी तुम्हारे साथ सत्य की संगति करे, तुम उसे नहीं स्वीकारते और हमेशा अपनी धारणाओं से चिपके रहते हो तो इसका क्या परिणाम होगा? इसका परिणाम यह होगा कि भले ही तुम अपने जीवन के अंत या उस बिंदु पर पहुँच जाओ जहाँ परमेश्वर का कार्य पूरी तरह से समाप्त हो चुका होगा, फिर भी तुम सत्य प्राप्त नहीं कर पाओगे, बल्कि अपनी धारणाओं और कल्पनाओं द्वारा मृत्यु की ओर ले जाए जाओगे। भले ही तुम परमेश्वर के आध्यात्मिक शरीर को प्रकट होते हुए देखो, फिर भी तुम परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाएँ और कल्पनाएँ हल नहीं कर पाओगे। क्या परमेश्वर तुम्हें तमाम तथ्य और जो सच है वह सिर्फ इसलिए बताएगा कि तुम ये धारणाएँ हल नहीं कर सकते? एक ओर उसके लिए ऐसा करना अनावश्यक है; दूसरी ओर एक तथ्य है जो यह है कि मनुष्य के मन-मस्तिष्क में ये चीजें प्राप्त करने के लिए आवश्यक विशाल क्षमता नहीं है। परमेश्वर जो कार्य करता है, वह मनुष्य की कल्पना और सभी चीजों से परे है। सभी चीजों की तुलना में मनुष्य समुद्रतट पर रेत के एक कण की तरह है। यह वर्णन तथ्यों के करीब है और उचित माना जा सकता है। अगर परमेश्वर तुम्हें सब कुछ बताना चाहे तो भी क्या तुममें यह सब स्वीकारने की क्षमता है? कुछ लोग कहते हैं, “मैं यह सब क्यों नहीं स्वीकार सकता? अगर परमेश्वर ने और ज्यादा कहा तो मैं और ज्यादा समझ और प्राप्त कर सकता हूँ। उस स्थिति में मैं कृपापात्र बन जाऊँगा!” यह एक कपोल-कल्पना है; तुम अपनी क्षमता बढ़ा-चढ़ाकर आँक रहे हो। वास्तव में चीजें ऐसी नहीं हैं। परमेश्वर की नजर में, वह जो चीजें तुम्हें बताता है वे सभी बहुत सरल और स्पष्ट होती हैं; वे ऐसी चीजें होती हैं जिन्हें लोग समझ सकते हैं। वास्तव में ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जिनके बारे में परमेश्वर ने नहीं बोला है क्योंकि लोग उन्हें समझ नहीं सकते। इसलिए यह बहुत सामान्य है कि तुम्हारी कुछ धारणाएँ अंततः हल नहीं हो पाएँगी। जो चीजें परमेश्वर चाहता है कि तुम समझो और जिन्हें वह तुम्हें बताना चाहता है या जिन्हें तुम सहन कर सकते और समझ सकते हो, उन्हें तुम समझ जाओगे। जहाँ तक उन चीजों का सवाल है जिन्हें तुम सहन नहीं कर सकते या समझ नहीं सकते, जिन्हें तुम्हारी भौतिक आँखें देख नहीं सकतीं, उन्हें अगर परमेश्वर तुम्हें बता भी दे तो भी यह व्यर्थ होगा और मेहनत बेकार जाएगी। नतीजतन, परमेश्वर तुम्हें ये चीजें नहीं बताता। ऐसी धारणाओं को अगर तुम अपने मरने तक या परमेश्वर का कार्य समाप्त होने तक भी नहीं समझ पाते तो यह किसे प्रभावित करता है? क्या यह परमेश्वर के प्रति तुम्हारे समर्पण को प्रभावित करता है? क्या यह तुम्हारे द्वारा सृजित प्राणी की भूमिका ग्रहण करने को प्रभावित करता है? क्या यह तुम्हारे द्वारा परमेश्वर की पहचान और सार जानने को प्रभावित करता है? अगर तुम इनमें से किसी भी रूप में प्रभावित नहीं होते तो तुम बचा लिए जाओगे। तो क्या ऐसी धारणा को अभी भी हल करने की जरूरत है? नहीं। यह अंतिम प्रकार की धारणा है, एक ऐसी धारणा जिसे मृत्यु के समय भी हल नहीं किया जा सकता। कुछ लोग कहते हैं, “हे परमेश्वर, मैं अभी भी तुम्हारे द्वारा किए गए इस कार्य, तुम्हारे द्वारा कहे गए इन वचनों और तुम्हारे द्वारा व्यवस्थित किए गए इस परिवेश को नहीं समझता। क्या तुम मुझे मेरे मरने से पहले बता सकते हो ताकि मैं शांति से मर सकूँ?” परमेश्वर ऐसे अनुरोध नजरअंदाज कर देता है। तुम शांति से जा सकते हो; तुम आध्यात्मिक लोक में सब कुछ समझ जाओगे।
लोगों को बचाने के लिए परमेश्वर के अपने खुद के मानक हैं; यह इस बात पर आधारित नहीं है कि तुमने कितनी अच्छी तरह से अपनी धारणाओं को सुलझाया है या तुमने उनमें से कितनी धारणाओं को छोड़ दिया है। इसके बजाय, यह परमेश्वर से तुम कितने भयभीत हो और उसके प्रति कितने समर्पित हो, इस बात पर आधारित है, फिर चाहे तुम सही मायने में उसका भय मानो या ना मानो और उसके प्रति समर्पण करो या ना करो। परमेश्वर जो कुछ भी करता है, उसका एक अर्थ होता है, और चाहे उसे स्वीकार करना तुम्हारे लिए आसान हो या तुम्हारे लिए मुश्किल हो, और चाहे वह तुम्हारे अंदर धारणाएँ पैदा कर सकता हो, जो भी हो, उसके परिणामस्वरूप परमेश्वर की पहचान नहीं बदलती; वह हमेशा सृष्टिकर्ता रहेगा, और तुम हमेशा सृजित प्राणी ही रहोगे। अगर तुम किसी भी धारणा द्वारा सीमित नहीं होने में समर्थ हो जाते हो, और अब भी परमेश्वर के साथ एक सृजित प्राणी और सृष्टिकर्ता का रिश्ता बनाए रखते हो, तो इसका अर्थ है कि तुम परमेश्वर के एक सच्चे सृजित प्राणी हो। अगर तुम किसी भी धारणा से प्रभावित या परेशान न होने में सक्षम हो, और अपने दिल की गहराइयों से परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण करने के काबिल हो, और सत्य की तुम्हारी समझ गहरी हो या उथली, अगर तुम धारणाएँ एक तरफ रखने में सक्षम हो, और उनके द्वारा लाचार नहीं होते, केवल यह विश्वास करते हो कि परमेश्वर सत्य, मार्ग और जीवन है, कि परमेश्वर हमेशा परमेश्वर रहेगा, और कि परमेश्वर जो करता है वह कभी गलत नहीं होता, तो तुम बचाए जा सकते हो। वास्तव में, सभी का आध्यात्मिक कद सीमित है। लोगों के दिमागों में कितनी चीजें भरी जा सकती हैं? क्या वे परमेश्वर को समझने में सक्षम हैं? ये ख्याली बातें हैं! मत भूलो : लोग हमेशा परमेश्वर के सामने शिशु ही रहेंगे। अगर तुम सोचते हो कि तुम चतुर हो, अगर तुम हमेशा चतुराई से कार्य करने का प्रयास करते हो, और हर चीज को समझने का प्रयास करते हो, यह सोचते हो कि, “अगर मैं इसे नहीं समझ पाता हूँ, तो मैं यह नहीं मान सकता कि तुम मेरे परमेश्वर हो, मैं स्वीकार नहीं कर सकता कि तुम मेरे परमेश्वर हो, मैं यह नहीं मान सकता कि तुम सृष्टिकर्ता हो। अगर तुम मेरी धारणाओं का समाधान नहीं करते, और फिर भी अगर तुम्हें लगता है कि मैं यह स्वीकार करूँगा कि तुम परमेश्वर हो, कि मैं तुम्हारी संप्रभुता स्वीकार करूँगा और तुम्हारे प्रति समर्पण करूँगा तो तुम सपना देख रहे हो,” तो यह तकलीफदेह है। वह कैसे? परमेश्वर ऐसी चीजों के बारे में तुम्हारे साथ बहस नहीं करता है। मनुष्य के प्रति वह हमेशा इस प्रकार रहेगा : अगर तुम यह स्वीकार नहीं करते कि परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर है, तो वह यह स्वीकार नहीं करेगा कि तुम उसके सृजित प्राणियों में से एक हो। जब परमेश्वर यह स्वीकार नहीं करता है कि तुम उसके सृजित प्राणियों में से एक हो, तो परमेश्वर के प्रति तुम्हारे रवैये के परिणामस्वरूप परमेश्वर के साथ तुम्हारे संबंध में परिवर्तन होता है। अगर तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में असमर्थ हो, और परमेश्वर की पहचान और सार और वह सब-कुछ जो परमेश्वर करता है, स्वीकार करने में असमर्थ हो, तो तुम्हारी पहचान में बदलाव होगा। क्या तुम अब भी एक सृजित प्राणी हो? परमेश्वर तुम्हें स्वीकार नहीं करता है; इसलिए बहस करने का कोई फायदा नहीं है। और अगर तुम एक सृजित प्राणी नहीं हो, और परमेश्वर तुम्हें नहीं चाहता, तो क्या तुम्हें अभी भी उद्धार की आशा है? (नहीं।) परमेश्वर तुम्हें एक सृजित प्राणी क्यों नहीं मानता है? तुम उन जिम्मेदारियों और कर्तव्यों को निभाने में असमर्थ हो जो एक सृजित प्राणी को करने चाहिए, और तुम सृष्टिकर्ता के साथ एक सृजित प्राणी की हैसियत से व्यवहार नहीं करते हो। तो परमेश्वर तुम्हें क्या मानेगा? वह तुम्हें किस नजर से देखेगा? परमेश्वर तुम्हें एक मानक स्तर के सृजित प्राणी के रूप में नहीं देखेगा, बल्कि एक पतित, एक दुष्ट और एक शैतान के रूप में देखेगा। क्या तुम्हें नहीं लगता था कि तुम चतुर हो? तो फिर तुमने खुद को एक दुष्ट और शैतान कैसे बना लिया है? यह चतुराई नहीं, बेवकूफी है। ये वचन लोगों को क्या समझने में मदद करते हैं? यही कि लोगों को परमेश्वर के सामने उसके अनुरूप रहना चाहिए। यहाँ तक कि अगर तुम्हारे पास अपनी धारणाओं का कारण भी हो, तो भी यह मत सोचो कि तुम्हारे पास सत्य है, और कि तुम्हारे पास परमेश्वर के खिलाफ हंगामा करने और उसे सीमित करने के लिए पूँजी है। तुम कुछ भी करो, पर वैसे मत बनो। एक बार जो तुम सृजित प्राणी के रूप में अपनी पहचान खो दोगे, तो तुम्हें नष्ट कर दिया जाएगा—यह कोई मजाक नहीं है। ऐसा ठीक इसलिए है, क्योंकि जब लोग धारणाएँ रखते हैं, अलग नजरिये और अलग समाधान अपनाते हैं, तो परिणाम पूरी तरह से अलग होते हैं।
क्या तुम लोगों के पास धारणाओं के संबंध में अभ्यास करने के तरीके के लिए सिद्धांत हैं? क्या ये सिद्धांत तुम लोगों की रक्षा करते हैं ताकि तुम सृजित प्राणियों के रूप में उचित रूप से आचरण कर सको? क्या यह मार्ग अच्छा है? (हाँ।) फिर इसका सारांश प्रस्तुत करो। (अगर यह अपेक्षाकृत आसानी से सुलझने वाली धारणा है, तो हमें प्रार्थना और तलाश करनी चाहिए, परमेश्वर के वचनों से इस प्रकार की धारणा का गहन-विश्लेषण करने वाला सत्य ढूँढ़ना चाहिए, और हम उन भाई-बहनों के साथ संगति भी कर सकते हैं जो सत्य को समझते हैं; इस तरह से, हम धारणा के भ्रामक पहलुओं की असलियत जान पाएँगे, और फिर उसे सुलझा पाएँगे। ऐसी भी कुछ धारणाएँ हैं जिन्हें सुलझाना आसान नहीं है, लेकिन हमें उनसे चिपके नहीं रहना चाहिए। हमें सत्य को स्वीकारने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने का रवैया रखने की जरूरत है, यह जानते हुए कि हम सृजित प्राणी हैं और परमेश्वर जो भी करता है वह निश्चित रूप से सही होता है, और बात बस यही है कि हमने इसे महसूस नहीं किया है। चाहे हम समझें या नहीं समझें, हम धारणाएँ नहीं फैला सकते हैं। हमें अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करना और तलाश करना सीखना चाहिए, और धीरे-धीरे इन धारणाओं को भी सुलझाया जा सकता है। तीसरी परिस्थिति यह है कि कुछ धारणाएँ अंत में अनसुलझी रह सकती हैं। ऐसे मामलों में, जब तक हम इन धारणाओं के कारण बेबस नहीं हो जाते हैं और उन्हें नहीं फैलाते हैं, तब तक कोई बात नहीं है। भले ही अंत में ये धारणाएँ नहीं सुलझें, जब तक हम उनसे चिपके नहीं रहते हैं और उनके कारण बुरे कर्म नहीं करते हैं, तब तक परमेश्वर हमारी निंदा नहीं करेगा, और यह हमारे उद्धार को प्रभावित नहीं करेगा।) कुल मिलाकर कितने सिद्धांत हैं? (तीन।) कुल मिलाकर तीन सिद्धांत हैं। तुमने उन सभी को लिख लिया है, है ना? एक बार जब तुम सत्य को समझ जाओगे और सिद्धांतों को आत्मसात कर लोगे, तो तुम्हारी धारणाएँ स्वाभाविक रूप से सुलझ जाएँगी। तुम्हें धारणाओं को तुम्हें रोकने या तुम्हें बाधित करने का कारण नहीं बनने देना चाहिए; अपनी तरफ से भरसक प्रयास करके उन धारणाओं को सुलझाओ जिन्हें सुलझाया जा सकता है, और जो कुछ समय के लिए सुलझने लायक नहीं हैं, उन्हें कम से कम तुम्हें प्रभावित मत करने दो। उन्हें तुम्हारे कर्तव्य-निर्वाह में बाधा नहीं डालनी चाहिए, और न ही उन्हें परमेश्वर के साथ तुम्हारे रिश्ते को प्रभावित करना चाहिए। तुमसे न्यूनतम अपेक्षा यही है कि कम से कम तुम धारणाओं को नहीं फैलाओगे, बुरा कर्म नहीं करोगे, विघ्न-बाधाएँ या गड़बड़ियाँ उत्पन्न नहीं करोगे, और शैतान के सेवक या शैतान के साधन के तौर पर काम नहीं करोगे। तुम चाहे जितना भी प्रयास करो, अगर कुछ धारणाओं को सिर्फ सतही तौर पर ही सुलझाया जा सकता है और पूर्ण रूप से नहीं सुलझाया जा सकता है, तो उन्हें बस अनदेखा कर दो। धारणाओं को सत्य के अपने अनुसरण या अपने जीवन प्रवेश को प्रभावित मत करने दो। इन सिद्धांतों में महारत हासिल करो, और सामान्य परिस्थितियों में, तुम सुरक्षित रहोगे। अगर तुम कोई ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य को स्वीकारता है, सकारात्मक चीजों से प्रेम करता है, जो कुकर्मी नहीं है, विघ्न-बाधाएँ या गड़बड़ियाँ उत्पन्न करने का इच्छुक नहीं है, और जानबूझकर विघ्न-बाधाओं और गड़बड़ियों का कारण नहीं बनता है, तो जब तुम आम तौर पर धारणाएँ उत्पन्न होने की समस्या का सामना करोगे, तो आम तौर पर तुम सुरक्षित रहोगे। अभ्यास का सबसे मूलभूत सिद्धांत यह है : अगर ऐसी कोई धारणा उत्पन्न होती है जिसे सुलझाना मुश्किल है, तो उस धारणा पर कार्रवाई करने की जल्दबाजी मत करो। सबसे पहले, प्रतीक्षा करो और उसे सुलझाने के लिए सत्य की तलाश करो, और यह विश्वास रखो कि परमेश्वर जो भी करता है वह गलत नहीं हो सकता है। इस सिद्धांत को याद रखो। इसके अलावा, अपने कर्तव्य का त्याग मत करो या धारणा को अपने कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित मत करने दो। अगर तुममें धारणाएँ हैं और तुम सोचते हो कि “मैं बस अनमने ढंग से इस कर्तव्य को पूरा कर लूँगा; मेरी मनोदशा खराब है, इसलिए मैं तुम्हारे लिए अच्छा कार्य नहीं कर पाऊँगा!” तो यह कोई अच्छी बात नहीं है। एक बार जब तुम्हारा रवैया नकारात्मक और अनमना हो जाता है, तो यह समस्या खड़ी करता है; यह धारणाओं का तुम्हारे भीतर कार्य करना है। जब धारणाएँ तुम्हारे भीतर कार्य करती हैं और तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित करती हैं, तो इसका अर्थ यह है कि अब तक परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता वास्तव में पहले से ही बदल चुका है। कुछ धारणाएँ तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित कर सकती हैं, जो कि एक गंभीर समस्या है, और उन्हें फौरन सुलझाना चाहिए। अन्य धारणाएँ तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन या परमेश्वर के साथ तुम्हारे रिश्ते को प्रभावित नहीं करती हैं, इसलिए वे बड़े मुद्दे नहीं हैं। अगर तुम्हारी धारणाएँ तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित कर सकती हैं, जिसके कारण तुम परमेश्वर पर संदेह करने लगते हो, अपना कर्तव्य लगन से नहीं करते हो—और यह महसूस करते हो कि अपना कर्तव्य नहीं करने से कोई परिणाम नहीं भुगतना होगा—और तुम्हें कोई भय नहीं होता है या तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं होता है, तो यह खतरनाक है। इसका यह अर्थ है कि तुम लालच में पड़ जाओगे, और शैतान द्वारा धोखा दिए जाओगे और कैद कर लिए जाओगे। अपनी धारणाओं और अपने चुने हुए विकल्पों के प्रति तुम्हारा रवैया बहुत ही महत्वपूर्ण है; चाहे धारणाओं को सुलझाया जा सकता हो या नहीं, और चाहे वे किसी भी हद तक सुलझाई क्यों ना जा सकें, तुम्हारे और परमेश्वर के बीच सामान्य रिश्ता नहीं बदलना चाहिए। एक ओर तुम्हें परमेश्वर द्वारा आयोजित सभी परिवेशों के प्रति समर्पण करने में समर्थ होना चाहिए और यह दृढ़ता से कहना चाहिए कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सही और अर्थपूर्ण है, और यह ज्ञान और सत्य का यह पहलु तुम्हारे लिए कभी नहीं बदलना चाहिए। दूसरी ओर तुम्हें उस कर्तव्य को नहीं छोड़ना चाहिए जो परमेश्वर ने तुम्हें सौंपा है, तुम्हें उससे खुद को भारमुक्त नहीं करना चाहिए। अगर, आंतरिक या बाह्य रूप से, तुममें परमेश्वर के प्रति कोई प्रतिरोध, विरोध, या विद्रोहीपन नहीं है, तो परमेश्वर सिर्फ तुम्हारा समर्पण देखेगा, और यह कि तुम प्रतीक्षा कर रहे हो। तुममें अभी भी धारणाएँ हो सकती हैं, लेकिन परमेश्वर तुम्हारा विद्रोहीपन नहीं देखता है। चूँकि तुममें कोई विद्रोहीपन और प्रतिरोध नहीं है, इसलिए परमेश्वर अब भी तुम्हें अपने सृजित प्राणियों में से एक मानता है। इसके विपरीत, अगर तुम्हारा दिल शिकायतों और अवज्ञा से भरा हुआ है, तुम बदला लेने का अवसर तलाश रहे हो, और अपना कर्तव्य नहीं करना चाहते हो, बल्कि खुद को इस दायित्व से मुक्त करना चाहते हो—इस हद तक कि, तुम्हारे दिल में परमेश्वर के बारे में सभी तरह की शिकायतें हैं और अपना कर्तव्य करने के दौरान अवज्ञा और द्वेष की कुछ अभिव्यक्तियाँ प्रकट होती हैं—तो, इस समय, परमेश्वर के साथ तुम्हारे रिश्ते में पहले से ही एक बहुत बड़ा बदलाव आ चुका है। तुम पहले से ही एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी हैसियत बदल चुके हो; अब तुम सृजित प्राणी नहीं हो, बल्कि तुम दानवों और शैतान के वाहक बन चुके हो—और इसलिए परमेश्वर तुम पर बिल्कुल दया नहीं दिखाएगा। जब कोई इस हद तक पहुँच जाता है, तो वह एक खतरनाक इलाके की तरफ बढ़ रहा होता है। अगर परमेश्वर कुछ न भी करे, तो भी वे कलीसिया में दृढ़ नहीं रह सकेंगे। और इसलिए, लोगों को अपने हर काम में—विशेष रूप से जब उसमें धारणाओं को सुलझाने जैसे मुद्दे शामिल हों—ऐसे काम करने से बचने का ध्यान रखना चाहिए, जो परमेश्वर को ठेस पहुँचाते हो, या जिनकी परमेश्वर द्वारा निंदा की जाती हो, या जो दूसरों को चोट या नुकसान पहुँचाते हों। यह सिद्धांत है।
लोगों में परमेश्वर के प्रति धारणाएँ होने की समस्या कोई छोटी बात नहीं है! लोगों के लिए परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध बनाए रखना बहुत ही जरूरी है, लेकिन लोगों की धारणाएँ ही इस संबंध को सबसे ज्यादा प्रभावित करती हैं। परमेश्वर के बारे में लोगों की धारणाएँ सुलझ जाने के बाद ही परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध बनाए रखा जा सकता है। फिलहाल, कई लोगों की एक गंभीर समस्या है। चाहे उन्होंने कितने भी वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा हो, वैसे तो वे अपने कर्तव्य निभाने के दौरान कष्ट सहने और कीमत चुकाने में समर्थ हो सकते हैं, फिर भी पूरे समय के दौरान उनकी धारणाओं को पूरी तरह से नहीं सुलझाया जा सकता। इससे परमेश्वर के साथ उनका संबंध गंभीर रूप से प्रभावित होता है और परमेश्वर के प्रति उनके प्रेम और उनके समर्पण पर सीधा प्रभाव पड़ता है। इसलिए, चाहे लोग परमेश्वर के बारे में कोई भी धारणा क्यों न बनाएँ, यह एक गंभीर मामला है जिसे अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। धारणाएँ दीवार जैसी होती हैं; वे परमेश्वर के साथ लोगों के संबंधों को तोड़ देती हैं, जिससे वे परमेश्वर के उद्धार कार्य से असंबंधित हो जाते हैं। इस प्रकार, लोगों में परमेश्वर के बारे में धारणाएँ होना एक बहुत ही गंभीर मुद्दा है जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है! अगर लोगों में धारणाएँ हैं और वे फौरन सत्य की तलाश नहीं कर सकते हैं और उन्हें नहीं सुलझा सकते हैं, तो इससे बड़ी आसानी से नकारात्मकता, परमेश्वर के प्रति प्रतिरोध और यहाँ तक कि उसके प्रति विद्वेष भी उत्पन्न हो सकता है। क्या तब भी वे सत्य को स्वीकार सकते हैं? उनका जीवन प्रवेश रुक जाएगा। परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने का मार्ग असमतल और पथरीला है। क्योंकि लोगों के स्वभाव भ्रष्ट होते हैं, इसलिए वे कई घुमावदार मार्ग अपना सकते हैं, और वे किसी भी परिस्थिति में धारणाएँ बना सकते हैं। अगर सत्य की तलाश करके इन धारणाओं को नहीं सुलझाया जाता है, तो लोग परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह कर सकते हैं और उसकी अवहेलना कर सकते हैं, और उसके प्रति विद्वेष के मार्ग पर चल सकते हैं। एक बार जब लोग मसीह-विरोधियों का मार्ग अपना लेते हैं, तो क्या तुम लोगों को लगता है कि उनके लिए उद्धार का कोई मौका बचता है? उस मोड़ पर इसे सँभालना आसान नहीं है, और तब कोई मौका नहीं बचा होगा। इसलिए, इससे पहले कि परमेश्वर तुम्हें उसके सृजित प्राणी के रूप में अस्वीकार कर दे, तुम्हें यह सीख लेना चाहिए कि परमेश्वर का सृजित प्राणी कैसे बनना है। सृष्टिकर्ता के बारे में शोध करने का प्रयास मत करो या यह साबित करने और सत्यापित करने का तरीका ढूँढ़ने का प्रयास मत करो कि जिस परमेश्वर में तुम विश्वास रखते हो, वही सृष्टिकर्ता है। यह तुम्हारा दायित्व या जिम्मेदारी नहीं है। तुम्हें हर रोज अपने दिल में इस बारे में सोचना और चिंतन करना चाहिए कि तुम्हें अपने कर्तव्य कैसे पूरे करने हैं और एक मानक स्तर का सृजित प्राणी कैसे बनना है, न कि इस बारे में कि यह कैसे साबित किया जाए कि परमेश्वर ही सृष्टिकर्ता है या नहीं है, क्या वह सचमुच परमेश्वर है या नहीं है, और न ही तुम्हें इस बारे में शोध करना चाहिए कि परमेश्वर ने जो किया है और उसके क्रियाकलाप सही हैं या नहीं। ये वे चीजें नहीं हैं जिनके बारे में तुम्हें शोध करना चाहिए।
19 जून 2021
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