अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (16) खंड चार
ग. धारणाओं के समाधान के सिद्धांत और मार्ग
धारणाएँ फैलाने के बारे में अभी भी कुछ चीजें हैं जिन पर संगति करने की जरूरत है। कुछ लोग कहते हैं : “जब धारणाएँ फैलाने की बात आती है तो हमें कलीसियाई जीवन के दौरान इसे उजागर करने और इसका गहन-विश्लेषण करने का अभ्यास करना चाहिए और इसे प्रतिबंधित करना चाहिए। लेकिन परमेश्वर में विश्वास करने के दौरान हम में विभिन्न धारणाएँ विकसित होने की संभावना होती है; यह हमारे नियंत्रण से परे की चीज है। इसलिए जब धारणाओं की बात आती है तो हमें अभ्यास का किस तरह का मार्ग अपनाना चाहिए ताकि हम सही तरीके से अभ्यास कर सकें और कलीसियाई जीवन के दौरान विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न न करें, दूसरों पर हानिकारक प्रभाव न डालें या अन्य लोगों के जीवन को नुकसान न पहुँचाएँ? कार्य करने का उचित तरीका क्या है?” क्या यह एक तथ्य नहीं है कि लोग धारणाएँ रखते हैं? क्या यह अपरिहार्य नहीं है? (हाँ, है।) कुछ लोग कहते हैं, “सिर्फ उन लोगों में धारणाएँ विकसित होंगी जो सत्य का अनुसरण नहीं करते।” क्या यह कथन सही है? यह सिर्फ आंशिक रूप से सही है। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं वे भी कभी-कभी विशेष परिस्थितियों का सामना करने पर परमेश्वर के बारे में धारणाएँ विकसित कर सकते हैं क्योंकि सत्य और परमेश्वर के इरादे समझने और परमेश्वर से संबंधित ज्ञान प्राप्त करने से पहले वे परमेश्वर के वचनों और कार्य के बारे में कुछ धारणाएँ विकसित कर लेंगे। ये धारणाएँ कुछ भ्रामक इंसानी विचार होते हैं जो सत्य के अनुरूप नहीं होते। कुछ धारणाएँ नैतिकता, फलसफे, परंपरागत संस्कृति, नैतिक सिद्धांतों आदि के अनुरूप हो सकती हैं और ऊपरी तौर पर ये विचार सही लग सकते हैं। लेकिन वे सत्य के अनुरूप नहीं होते बल्कि उसके प्रतिकूल होते हैं। यह एक तथ्य है। लोगों को इन धारणाओं का सामना कैसे करना चाहिए? सत्य का अनुसरण करने से पूर्व वे पहले से ही अपने साथ कई धारणाएँ लेकर चलते हैं; ये अंतर्निहित धारणाएँ होती हैं। सत्य का अनुसरण करने की प्रक्रिया के दौरान बदलते परिवेशों और विभिन्न संदर्भों के कारण लोगों में बहुत-सी नई धारणाएँ उत्पन्न होंगी; ये अर्जित धारणाएँ होती हैं। दोनों प्रकार की धारणाएँ ऐसी चीजें हैं जिनका लोगों को परमेश्वर में विश्वास करने की अपनी यात्रा में सामना करने की जरूरत होती है। तो क्या धारणाएँ हल करने का कोई समाधान है? क्या अभ्यास का कोई मार्ग है? कुछ लोग कहते हैं, “इसे सँभालना आसान है। हम अपनी अंतर्निहित धारणाओं के विरुद्ध विद्रोह कर सकते हैं; हमें उन पर कोई ध्यान देने की जरूरत नहीं है। हमें यकीन है कि सत्य का अनुसरण करने की प्रक्रिया में जैसे-जैसे हम सत्य समझेंगे, ये धारणाएँ धीरे-धीरे हल होकर समाप्त हो जाएँगी। जहाँ तक अर्जित धारणाओं का सवाल है, हम उन्हें हल करने के लिए परमेश्वर पर भरोसा करते हैं और हम उनसे बेबस भी नहीं हैं। इसलिए आज तक हमने अपने दिलों में ऐसी धारणाएँ नहीं बनाई हैं जो परमेश्वर का प्रतिरोध, निंदा या ईशनिंदा जैसी चीजें करवा सकें।” अभ्यास का यह तरीका, धारणाओं का सामना करने और उन्हें सँभालने का यह तरीका कैसा है? क्या यह धारणाएँ हल कर सकता है? क्या इसमें कमियाँ हैं? क्या धारणाओं के प्रति यह रवैया सक्रिय और सकारात्मक है? (नहीं।) क्या इस रवैये का लोगों पर कोई सकारात्मक प्रभाव पड़ता है? अगर तुम निष्क्रिय तरीके का इस्तेमाल कर इन धारणाओं को अनदेखा करते हो, उन्हें अपने हृदय के सबसे छिपे हुए हिस्सों में संगृहीत करते हो, जब भी वे बाहर आती हैं तो उन्हें दबा देते हो और प्रार्थना करते हो और फिर उन्हें हल हुआ मान लेते हो, जब भी वे फिर से प्रकट होती हैं तो उनसे इसी तरह निपटते हो और बाद में उनके बारे में नहीं सोचते और ऐसे व्यवहार करते हो जैसे कि वे कोई समस्या ही नहीं हैं और यह मानते हो, “जो भी हो, जिस परमेश्वर में मैं विश्वास करता हूँ वह अभी भी मेरा परमेश्वर है, मैं अभी भी परमेश्वर का सृजित प्राणी हूँ और परमेश्वर अभी भी मेरा सृष्टिकर्ता है; यह बदला नहीं है”—क्या यह धारणाएँ हल करने का सबसे प्रभावी तरीका है? क्या इससे सकारात्मक परिणाम प्राप्त होता है? क्या ऐसा अभ्यास धारणाओं को जड़ से पूरी तरह हल कर देता है? स्पष्ट रूप से नहीं। ये धारणाएँ चाहे जितनी भी बड़ी या छोटी हों या जितनी भी ज्यादा या कम हों, अगर वे लोगों के दिलों में मौजूद हैं तो वे उनके जीवन प्रवेश और परमेश्वर के साथ उनके रिश्ते पर कुछ नकारात्मक प्रभाव डालेंगी जिससे विघ्न उत्पन्न होंगे। खासकर जब लोग कमजोर होते हैं; जब वे ऐसे परिवेश का सामना करते हैं जिस पर वे काबू नहीं पा सकते; जब वे परमेश्वर के इरादे नहीं समझते, उनके पास अभ्यास का मार्ग नहीं होता और वे नहीं जानते कि परमेश्वर को कैसे संतुष्ट किया जाए; और जब उन्हें लगता है कि उनके उद्धार की कोई आशा नहीं है तो ये धारणाएँ उनके अंदर तेजी से उभरेंगी, उनके विचारों पर हावी हो जाएँगी, उनके दिलों पर कब्जा कर लेंगी, यहाँ तक कि उनके कलीसिया में रहने या कलीसिया छोड़ने पर भी असर डाल सकती हैं और उनके द्वारा चुने जाने वाले मार्ग को प्रभावित कर सकती हैं। हो सकता है कि कोई ऐसी धारणा हो जिसकी तुमने कभी परवाह नहीं की हो और जिसने कभी तुम्हें प्रभावित नहीं किया हो या तुम्हें नीचे नहीं गिराया हो—तुमने हमेशा यह माना हो कि तुम इसके स्वामी हो, तुम इसे नियंत्रित कर सकते हो—लेकिन किसी विफलता, बर्खास्तगी या हटाए जाने या परमेश्वर से कठोर अनुशासन और ताड़ना का अनुभव करने के बाद, यहाँ तक कि जब तुम्हें लगे कि तुम एक अथाह कुंड में गिर गए हो उस समय वह धारणा तुम्हारे लिए मात्र एक गौण वस्तु नहीं रह जाती। अगर तुम उसे अनदेखा करते भी हो तो भी वह तुम्हारे विचारों को बाधित और गुमराह कर सकती है, यहाँ तक कि तुम्हारे विचारों और दृष्टिकोणों, परमेश्वर के प्रति तुम्हारे रवैये और परमेश्वर में तुम्हारी आस्था पर हावी भी हो सकती है। अगर तुम्हारे पास इन धारणाओं से निपटने के लिए अभ्यास का कोई उचित तरीका या सिद्धांत नहीं है या अगर तुम्हें उनकी स्पष्ट समझ नहीं है तो ये धारणाएँ रह-रहकर तुम्हारे जीवन प्रवेश या तुम्हारे तात्कालिक विकल्पों को प्रभावित करेंगी। यहाँ तक कि वे परमेश्वर के साथ तुम्हारे रिश्ते और परमेश्वर के प्रति तुम्हारे रवैये को भी प्रभावित कर सकती हैं। तो किसी भी संदर्भ में विभिन्न धारणाएँ सामने आने पर लोगों को उनका सामना कर उनसे निपटने के लिए किस तरह का रवैया और तरीका अपनाना चाहिए ताकि नुकसान से बचा जा सके और सकारात्मक, लाभकारी परिणाम प्राप्त किया जा सके? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसके बारे में स्पष्ट रूप से संगति की जानी चाहिए।
देह में रहने वाले लोगों की स्वतंत्र इच्छा और स्वतंत्र विचार होते हैं। चाहे वे शिक्षित हों या नहीं, उनकी काबिलियत जैसी भी हो या उनका लिंग जो भी हो, अगर लोगों के पास विचार हैं तो वे धारणाएँ उत्पन्न करेंगे। अगर कोई धारणा तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव पर हावी हो जाती है तो तुम उस धारणा के कारण परमेश्वर की अवहेलना करोगे। इसलिए लोगों में धारणाएँ होने की यह समस्या हल की ही जानी चाहिए। ऐसा नहीं है कि केवल धारणाएँ फैलाने वाले लोगों में ही धारणाएँ होती हैं; बस इतना है कि वे अपनी धारणाएँ फैलाते हैं, लापरवाही से परमेश्वर के विरोध में खड़े होकर उसके बारे में विभिन्न दृष्टिकोण और आलोचनाएँ फैलाते हैं। लेकिन क्या ऐसा है कि जो लोग धारणाएँ नहीं फैलाते, उनमें कोई धारणा नहीं होती? सभी में धारणाएँ होती हैं; यह एक तथ्य है। अंतर यह है कि जो लोग जानबूझकर धारणाएँ फैलाते हैं, उनका प्रकृति सार अंतर्निहित रूप से सत्य से विमुख होता है। चूँकि वे सत्य नहीं स्वीकारते और यह तक मानते हैं कि उनकी धारणाएँ सही और पूरी तरह सत्य के अनुरूप हैं, इसलिए अगर उनकी धारणाएँ सत्य से टकराती हैं तो वे सत्य के बजाय अपनी धारणाएँ स्वीकारना चुनते हैं। यहीं वे विफल होते हैं और इसीलिए उन्हें प्रतिबंधित किया जाता है और उनकी निंदा की जाती है। तो धारणाएँ उत्पन्न करने पर साधारण, सामान्य लोगों की निंदा क्यों नहीं की जाती? वह इसलिए कि उनमें से ज्यादातर लोग तार्किकता के साथ बोलते और क्रिया-कलाप करते हैं और अपने दिलों में जानते हैं कि इंसानी धारणाएँ सत्य के अनुरूप नहीं होतीं और गलत होती हैं; हालाँकि वे अपनी धारणाएँ तुरंत हल नहीं कर पाते, लेकिन वे उन्हें त्यागने के लिए तैयार रहते हैं। जब वे सत्य स्वीकारना चुनते हैं तो उनकी आंतरिक धारणाएँ सत्य से प्रतिस्थापित होकर हल हो जाती हैं; वे अपनी धारणाएँ छोड़ देते हैं और फिर उनसे प्रभावित, प्रतिबंधित या नियंत्रित नहीं होते। इसलिए हालाँकि ये लोग धारणाएँ रखते हैं लेकिन उन्हें फैलाते नहीं हैं। वे अभी भी सामान्य रूप से अपने कर्तव्य निभा सकते हैं, सामान्य रूप से परमेश्वर का अनुसरण कर सकते हैं, परमेश्वर के वचन और परमेश्वर का कार्य स्वीकार सकते हैं, परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर सकते हैं और परमेश्वर के उद्धार के प्रति समर्पण कर सकते हैं। वे हमेशा स्वीकारते हैं कि वे सृजित प्राणी हैं और परमेश्वर सृष्टिकर्ता है। अपने दिलों में वे चाहे जो भी धारणाएँ रखते हों, वे परमेश्वर के साथ एक सामान्य संबंध बनाए रख सकते हैं, एक सृजित प्राणी और सृष्टिकर्ता के बीच का संबंध बनाए रख सकते हैं, अपने कर्तव्य छोड़ने से बच सकते हैं, परमेश्वर का नाम त्यागने से बच सकते हैं और परमेश्वर में उनकी आस्था अपरिवर्तित रहती है। लेकिन जो भी हो, अगर धारणाएँ कभी हल नहीं की जाती हैं तो वे फिर भी लोगों को बरबाद कर सकती हैं और उनके विनाश का कारण बन सकती हैं। इसलिए हमें अभी भी इस बारे में संगति करने की जरूरत है कि धारणाओं का सामना कर उन्हें हल कैसे करें।
तुम लोगों को क्या लगता है कि किसे हल करना आसान है : अंतर्निहित धारणाओं को जो परमेश्वर में विश्वास करने से पहले लोगों में होती हैं या उन धारणाओं को जिन्हें लोग परमेश्वर में विश्वास शुरू करने के बाद विशेष परिवेशों और संदर्भों में विकसित कर लेते हैं? (अंतर्निहित धारणाओं को हल करना आसान है।) उन कल्पनाओं और धारणाओं को हल करना आसान है जो परमेश्वर में पहली बार विश्वास करना शुरू करते समय लोगों में होती हैं, जबकि उन धारणाओं को हल करना आसान नहीं होता जिन्हें वे परमेश्वर में विश्वास शुरू करने के बाद उसके कार्य का अनुभव करते समय विकसित कर लेते हैं—यह एक सैद्धांतिक कथन है, लेकिन अंततः यह तथ्यों से मेल नहीं खाता। “सैद्धांतिक” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि इस तरह के निष्कर्ष लोग फलसफे और तर्क के आधार पर निकालते हैं। लोगों के पहली बार परमेश्वर में विश्वास शुरू करने और दर्शनों के बारे में सत्य समझने के बाद उनकी कुछ धारणाएँ छूट जाती हैं और उनका समाधान हो जाता है। वास्तव में यह समाधान सिर्फ सैद्धांतिक स्तर पर ही प्राप्त होता है; ऐसा लगता है कि इन धारणाओं का समाधान हो गया है, लेकिन परमेश्वर का अनुसरण करते समय लोगों द्वारा विकसित की गई कई धारणाएँ उनकी अंतर्निहित धारणाओं से संबंधित होती हैं। सैद्धांतिक रूप से इन दो प्रकार की धारणाओं में से अंतर्निहित धारणाएँ हल करना आसान है, लेकिन हकीकत में अगर लोग सत्य स्वीकार कर सकते हों और सकारात्मक चीजों से प्रेम कर सकते हों, अगर वे सत्य की समझ प्राप्त कर सकते हों, तो दोनों प्रकार की धारणाएँ हल करना आसान है। उदाहरण के लिए, तुममें से कुछ लोग कहते हैं कि अंतर्निहित धारणाएँ हल करना आसान है, लेकिन तुम्हारा सामना विकृत समझ वाले कुछ ऐसे लोगों से हो सकता है जो बहुत जिद्दी होते हैं और महत्वहीन विवरणों पर ध्यान केंद्रित रखते हैं, जो बाइबल, आध्यात्मिक शास्त्रीय ग्रंथों और बाइबल के व्याख्याकारों की व्याख्याओं की जाँच करते हैं; ये लोग जो पाते हैं उसे तुम्हारे सामने दोहरा देते हैं और चाहे तुम सत्य के बारे में कैसे भी संगति करो, वे उसे नहीं स्वीकारते। वे शुद्ध धर्मोपदेश, सत्य या सही वचन नहीं स्वीकार सकते; वे इन चीजों को सुनकर उन्हें ग्रहण नहीं करते। एक ओर उनकी समझने की क्षमता में समस्या होती है; दूसरी ओर वे सकारात्मक चीजों या सत्य से प्रेम नहीं करते, इसके बजाय वे जिद्दी होना और महत्वहीन विवरणों पर ध्यान केंद्रित रखना और भाषा के साथ खिलवाड़ करना पसंद करते हैं और उन्हें सिद्धांत और धर्मशास्त्र पसंद होते हैं। क्या ऐसे लोग अपनी धारणाएँ छोड़ सकते हैं? (नहीं।) तथ्यों से, ऐसे लोगों के स्वभाव और प्राथमिकताओं से आँकें तो, वे सत्य नहीं स्वीकार सकते। लोगों की शुरुआती धारणाएँ वाकई बहुत उथली और सतही होती हैं, उन्हें हल करना बहुत आसान होता है। अगर व्यक्ति में सामान्य सोच और समझने की सामान्य क्षमता है तो उसके साथ दर्शनों से संबंधित सत्य के बारे में संगति करने पर अगर वे उसे समझते हैं तो आसानी से अपनी धारणाएँ छोड़ सकते हैं। लेकिन एक प्रकार के लोग ऐसे भी होते हैं जिनकी सोच सामान्य नहीं होती, वे सत्य नहीं समझ पाते और सत्य नहीं स्वीकारते। क्या ऐसे लोग अपनी धारणाएँ छोड़ सकते हैं? (नहीं।) इसलिए ऐसे लोगों की धारणाएँ हल करना मुश्किल होता है। अगर व्यक्ति में सामान्य विवेक हो और वह सत्य स्वीकारने में सक्षम हो तो परमेश्वर में विश्वास करने के बाद उसके मन में परमेश्वर के बारे में चाहे जो भी धारणाएँ विकसित हों और वे धारणाएँ चाहे जिस भी परिवेश या संदर्भ में उत्पन्न हों, वे परमेश्वर से बहस नहीं करते। वे कहते हैं, “मैं मनुष्य हूँ, मुझमें भ्रष्ट स्वभाव हैं, मेरी सोच और क्रिया-कलाप गलत हो सकते हैं। परमेश्वर सत्य है, परमेश्वर कभी गलत नहीं होता। मेरे विचार चाहे जितने भी उचित क्यों न हों, वे फिर भी इंसानी विचार हैं, वे मनुष्य से आते हैं और सत्य नहीं हैं। अगर वे परमेश्वर के वचनों या सत्य के विपरीत हैं तो वे विचार चाहे कितने भी उचित क्यों न हों, गलत हैं।” हो सकता है अभी उन्हें ठीक से पता नहीं हो कि उनकी ये धारणाएँ कहाँ गलत हैं, तो वे कैसे अभ्यास करते हैं? वे समर्पण का अभ्यास करते हैं, जिद्दी नहीं होते और कुछ विशेष विवरणों पर ध्यान केंद्रित नहीं रखते और यह विश्वास करते हुए मामले को छोड़ देते हैं कि एक दिन परमेश्वर इसका खुलासा करेगा। कोई उनसे पूछता है, “अगर परमेश्वर ने इसका खुलासा नहीं किया तो?” वे उत्तर देते हैं, “तो मैं हमेशा के लिए समर्पण करूँगा। परमेश्वर कभी गलत नहीं होता और परमेश्वर जो करता है वह भी कभी गलत नहीं होता। परमेश्वर जो करता है अगर वह इंसानी धारणाओं के अनुरूप नहीं हो तो इसका मतलब यह नहीं है कि परमेश्वर गलत है, बल्कि इसका मतलब यह है कि मनुष्य उसे समझ-बूझ नहीं पाते। इसलिए लोगों को जो सबसे ज्यादा करना चाहिए वह है पड़ताल नहीं करना, अपनी धारणाओं का राग अलापते नहीं रहना और अपनी धारणाओं का इस्तेमाल परमेश्वर में दोष खोजने के लिए नहीं करना, अपनी धारणाओं का इस्तेमाल परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं करने और उसकी अवहेलना करने के एक कारण और बहाने के रूप में नहीं करना।” वे अपनी धारणाओं के साथ इसी तरह पेश आते हैं। क्या ऐसा अभ्यास सत्य का अभ्यास करना है? यह वास्तव में सत्य का अभ्यास करना है। जब वे धारणाएँ विकसित करते हैं तो वे परमेश्वर की तुलना उनसे नहीं करते या उनका इस्तेमाल परमेश्वर की पड़ताल करने, यह सत्यापित करने के लिए नहीं करते कि परमेश्वर सत्य है या नहीं या उसका अस्तित्व है या नहीं। इसके बजाय वे अपनी धारणाएँ छोड़ देते हैं और सत्य स्वीकारने और परमेश्वर को जानने का प्रयास करते हैं। फिर भी, हालाँकि वे परमेश्वर को जानने का भरसक प्रयास करते हैं तो भी वे उसे जान नहीं पाते। तो फिर वे क्या करते हैं? वे तब भी समर्पण करते हैं। वे कहते हैं, “परमेश्वर कभी गलत नहीं होता। परमेश्वर हमेशा परमेश्वर होता है। वह परमेश्वर ही है जो सत्य व्यक्त करता है। परमेश्वर सत्य का स्रोत है।” इन धारणाओं से निपटते हुए वे पहले परमेश्वर को परमेश्वर की स्थिति में और खुद को सृजित प्राणियों की स्थिति में रखते हैं। इसलिए भले ही उन्होंने अपनी धारणाओं को अलग न रखा हो या उनका समाधान न किया हो, परमेश्वर के प्रति समर्पण का उनका रवैया नहीं बदलता। यह रवैया उनकी रक्षा करता है, जिससे वे परमेश्वर के समक्ष सृजित प्राणी के रूप में पहचाने जाते हैं। तो क्या ऐसे लोगों की धारणाएँ हल करना आसान है? (हाँ।) इसे कैसे प्राप्त किया जाता है? मान लो किसी स्थिति से सामना होने पर उन्होंने इस तरह से कहा : “यह कहना कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सत्य है और सही होता है, परमेश्वर सर्वशक्तिमान है और गलतियाँ नहीं कर सकता—क्या यह गलत नहीं है? हालाँकि यह कहा जाता है कि परमेश्वर गलतियाँ नहीं कर सकता, लेकिन यह सिर्फ एक सैद्धांतिक कथन है। असल में परमेश्वर कुछ ऐसी चीजें करता है जो विचारहीन होती हैं और इंसानी भावनाओं के अनुरूप नहीं होतीं। मुझे लगता है कि यह मामला पूरी तरह सही नहीं है। जो चीजें पूरी तरह सही नहीं हैं, मुझे उनके प्रति समर्पण करने या उन्हें स्वीकारने की जरूरत नहीं है, है न? हालाँकि मैं परमेश्वर के नाम या उसकी पहचान से इनकार नहीं करता, लेकिन अब मैंने जो धारणाएँ विकसित की हैं उन्होंने मुझे परमेश्वर के बारे में ज्यादा अंतर्दृष्टि और बेहतर समझ दी है—परमेश्वर कुछ चीजें गलत भी करता है और ऐसे मौके भी आते हैं जब वह गलतियाँ करता है। इसलिए अब से जब लोग कहेंगे कि परमेश्वर धार्मिक, पूर्ण और पवित्र है तो मैं इस पर विश्वास नहीं करूँगा। मैं इन कथनों पर थोड़ा सवालिया निशान लगाऊँगा। हालाँकि परमेश्वर सृष्टिकर्ता है और मैं उसकी संप्रभुता स्वीकार सकता हूँ, लेकिन भविष्य में मुझे चयनात्मक रूप से स्वीकारने की जरूरत है और मैं भ्रमित रूप से और आँख मूँदकर समर्पण नहीं कर सकता। अगर मैंने गलत तरीके से समर्पण कर दिया तो? क्या मुझे नुकसान नहीं होगा? मैं ऐसा व्यक्ति नहीं हो सकता जो मूर्खतापूर्ण तरीके से समर्पण करता है।” अगर वे धारणाओं और परमेश्वर के साथ इस रवैये से पेश आते हैं तो क्या वे आसानी से अपनी धारणाएँ छोड़ सकते हैं? क्या ऐसा अभ्यास सत्य का अभ्यास करना है? (नहीं।) क्या उनके और परमेश्वर के बीच का रिश्ता समस्याग्रस्त नहीं हो गया है? क्या वे लगातार परमेश्वर की पड़ताल नहीं कर रहे हैं? परमेश्वर उनके भाग्य पर शासन करने वाले संप्रभु के बजाय उनकी जाँच-पड़ताल का विषय बन गया है। हालाँकि वे यह स्वीकारते हैं कि वे सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व के अधीन एक सृजित प्राणी हैं, लेकिन वे जो कर रहे हैं वह एक सृजित प्राणी के कर्तव्य और दायित्व निभाना नहीं है। वे सृष्टिकर्ता के साथ सृजित प्राणी की अपनी मूल स्थिति से व्यवहार नहीं कर रहे हैं, बल्कि सृष्टिकर्ता के विरोध में खड़े हैं, सृष्टिकर्ता की पड़ताल कर रहे हैं और सृष्टिकर्ता के क्रिया-कलापों और व्यवहार का विश्लेषण कर रहे हैं, अपने विवेक के आधार पर यह चुन रहे हैं कि समर्पण करना और स्वीकारना है या नहीं। क्या यह रवैया और अभ्यास का यह तरीका वे अभिव्यक्तियाँ हैं जो सत्य स्वीकारने वाले व्यक्ति में होनी चाहिए? क्या उनकी धारणाएँ हल की जा सकती हैं? (नहीं, वे हल नहीं की जा सकतीं।) वे कभी हल नहीं की जा सकतीं। वह इसलिए कि परमेश्वर के साथ उनका रिश्ता विकृत हो गया है; वह एक सामान्य रिश्ता नहीं है, वह एक सृजित प्राणी और सृष्टिकर्ता के बीच का रिश्ता नहीं है। वे परमेश्वर को जाँच-पड़ताल की वस्तु समझते हैं, लगातार उसकी पड़ताल करते रहते हैं। वे जिसे सही और अच्छा समझते हैं उसे स्वीकारते हैं, लेकिन जो इंसानी धारणाओं और कल्पनाओं या इंसानी प्राथमिकताओं के अनुरूप नहीं होता, उसके लिए आंतरिक रूप से परमेश्वर का विरोध करते हैं और उससे झगड़ते हैं और परमेश्वर से विरक्त हो जाते हैं। क्या ऐसा व्यक्ति सत्य स्वीकारने वाला व्यक्ति होता है? ऊपरी तौर पर किसी घटना की गैर-मौजूदगी में और परमेश्वर के बारे में किसी भी धारणा के बिना वे परमेश्वर द्वारा बोले गए वचनों के प्रति समर्पण कर सकते हैं। लेकिन जब वे धारणाएँ विकसित कर लेते हैं तो उनका समर्पण गायब हो जाता है; वह कहीं नहीं दिखता और उसे क्रियान्वित नहीं किया जा सकता। यहाँ क्या हो रहा है? यह स्पष्ट है कि वे वो लोग नहीं हैं जो सत्य का अभ्यास करते हैं। वे परमेश्वर को सत्य का स्रोत या स्वयं सत्य नहीं मानते। जो लोग सत्य नहीं स्वीकारते, उनके लिए अपनी धारणाएँ छोड़ना या हल करना कठिन है, चाहे वे जब भी उठती हों।
उपरोक्त संगति की विषय-वस्तु को देखते हुए तुम लोगों के विचार से किस प्रकार की धारणा को सुलझाना आसान है? यह परिस्थिति पर निर्भर करता है। जो लोग सत्य को स्वीकार सकते हैं, जिनके पास विवेक है और जो सही लोग हैं, उनकी धारणाओं को सुलझाना आसान है, चाहे वे कभी भी जागें। जो लोग सत्य को स्वीकार नहीं सकते हैं, उनकी धारणाओं को सुलझाना मुश्किल है, चाहे वे कभी भी जागें। कुछ लोग बीस या तीस वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखे हुए हैं और अब भी वे जो कुछ भी कहते हैं, वह सत्य के अनुरूप नहीं होता है; ये सब सिर्फ शब्द और धर्म-सिद्धांत और मानवीय धारणाएँ होती हैं। वे किसी भी सत्य को बिल्कुल नहीं समझते हैं—क्या वे जागने पर अपनी धारणाओं को छोड़ सकते हैं? यह कहना मुश्किल है। अगर वे सत्य को स्वीकार नहीं करते हैं, तो वे अपनी धारणाओं को नहीं छोड़ पाएँगे। लोगों में धारणाएँ होना अवश्यंभावी है। हर किसी के मन में किसी भी समय अलग-अलग तरह की धारणाएँ उत्पन्न हो सकती हैं, चाहे वे अंतर्निहित हों या प्राप्त की गई हों। हर किसी के दिल में धारणाएँ होती हैं, चाहे वह कितने भी वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखता आ रहा हो। तो क्या करना चाहिए? क्या यह समस्या बिल्कुल भी सुलझने योग्य नहीं है? इसे सुलझाया जा सकता है; ऐसे कुछ सिद्धांत हैं जिन्हें याद रखना चाहिए। ये सिद्धांत बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। जब तुम ऐसी परिस्थितियों का सामना करते हो, तो इन सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करो। कुछ समय अभ्यास करने के बाद तुम्हें नतीजे दिखाई देंगे और तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर जाओगे। जब धारणाएँ उत्पन्न होती हैं, तो चाहे वह धारणा कोई भी हो, पहले अपने दिलों में इस बात पर विचार करो और इसका विश्लेषण करो कि यह सोच सही है या नहीं है। अगर तुम्हें स्पष्ट रूप से लगता है कि यह सोच गलत और विकृत है और यह परमेश्वर का तिरस्कार करती है, तो फौरन प्रार्थना करो और परमेश्वर से कहो कि वह इस समस्या के सार को पहचानने के लिए तुम्हें प्रबुद्ध करे और तुम्हारा मार्गदर्शन करे और उसके बाद सभा के दौरान अपनी समझ पर चर्चा करो। समझ प्राप्त करते और चीजें अनुभव करते समय अपनी धारणाएँ सुलझाने पर ध्यान केंद्रित करो। अगर इस तरह से अभ्यास करने से स्पष्ट नतीजे प्राप्त नहीं होते हैं, तो तुम्हें सत्य के इस पहलू के बारे में किसी ऐसे व्यक्ति के साथ संगति करनी चाहिए जो सत्य को समझता है और दूसरों से सहायता और परमेश्वर के वचनों से समाधान प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। परमेश्वर के वचनों और अपने अनुभवों के जरिये, तुम धीरे-धीरे यह सत्यापित करोगे कि परमेश्वर के वचन सही हैं और तुम अपनी खुद की धारणाएँ सुलझाने के मुद्दे के बारे में बड़े नतीजे प्राप्त करोगे। परमेश्वर के ऐसे वचनों और कार्यों को स्वीकार करके और उनका अनुभव करके अंत में तुम परमेश्वर के इरादों को समझ जाओगे और परमेश्वर के स्वभाव के बारे में कुछ ज्ञान प्राप्त करोगे, जो तुम्हें अपनी धारणाओं को छोड़ने और उन्हें सुलझाने में सक्षम बनाएगा। तुम अब परमेश्वर को गलत नहीं समझोगे या उससे सतर्क नहीं रहोगे, और न ही तुम अनुचित माँगें करोगे। यह आसानी से सुलझने योग्य धारणाओं के लिए है। लेकिन एक और किस्म की धारणा है जिसे लोगों के लिए समझना और सुलझाना मुश्किल है। जिन धारणाओं को सुलझाना मुश्किल है, उनके लिए तुम्हें एक सिद्धांत को बनाए रखने की जरूरत है : उन्हें व्यक्त मत करो और न ही उन्हें फैलाओ, क्योंकि ऐसी धारणाएँ व्यक्त करने से दूसरों का कुछ भी भला नहीं होता है; यह परमेश्वर की अवहेलना करने का एक तथ्य है। अगर तुम धारणाओं को फैलाने की प्रकृति और परिणामों को समझते हो, तो तुम्हें इसे खुद स्पष्ट रूप से मापना चाहिए और बिना विचारे बोलने से बचना चाहिए। अगर तुम कहते हो, “कलीसिया में अपने शब्दों को रोककर रखना भयानक लगता है; मुझे लगता है जैसे मैं फट जाऊँगा,” तो तुम्हें अब भी इस पर सोच-विचार करना चाहिए कि इन धारणाओं को फैलाना सही मायने में परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए फायदेमंद है या नहीं। अगर यह फायदेमंद नहीं है और दूसरों को परमेश्वर के बारे में धारणाएँ रखने या यहाँ तक कि परमेश्वर की अवहेलना और आलोचना करने के लिए उकसा भी सकता है, तो क्या तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नुकसान नहीं पहुँचा रहे हो? तुम लोगों को नुकसान पहुँचा रहे हो; यह महामारी फैलाने से कुछ अलग नहीं है। अगर तुममें सही मायने में विवेक है, तो तुम धारणाएँ फैलाने और दूसरों को नुकसान पहुँचाने के बजाय खुद दर्द सहना पसंद करोगे। लेकिन अगर तुम्हें अपने शब्दों को रोककर रखना बहुत दर्दनाक लगता है, तो तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए। अगर समस्या सुलझ जाती है, तो क्या यह अच्छी चीज नहीं है? अगर तुम परमेश्वर से प्रार्थना करने के बावजूद अपनी धारणाओं से परमेश्वर की आलोचना करते हो और उसे गलत समझते हो, तो तुम सिर्फ खुद को मुसीबत में डाल रहे हो। तुम्हें परमेश्वर से इस तरह प्रार्थना करनी चाहिए : “परमेश्वर, मेरे मन में ये विचार हैं और मैं उन्हें छोड़ना चाहता हूँ, लेकिन मैं इन्हें नहीं छोड़ पा रहा हूँ। कृपया मुझे अनुशासित करो, अलग-अलग तरह के परिवेशों के जरिये मेरा खुलासा करो और मुझे यह पहचानने दो कि मेरी धारणाएँ गलत हैं। चाहे तुम मुझे कैसे भी अनुशासित क्यों न करो, मैं इसे स्वीकारने को तैयार हूँ।” यह मानसिकता सही है। इस मानसिकता से परमेश्वर से प्रार्थना करने के बाद क्या तुम कम घुटन महसूस नहीं करोगे? अगर तुम प्रार्थना करना और तलाशना जारी रखते हो, परमेश्वर से प्रबुद्धता और रोशनी प्राप्त करते हो, परमेश्वर के इरादों को समझते हो और तुम्हारा दिल उज्ज्वल हो जाता है, तो फिर तुम्हें घुटन महसूस नहीं होगी। फिर क्या यह समस्या सुलझ नहीं जाएगी? परमेश्वर के प्रति तुम्हारी धारणाएँ, प्रतिरोध और विद्रोहीपन ज्यादातर गायब हो जाएँगे; कम-से-कम तुम्हें उन्हें व्यक्त करने की जरूरत महसूस नहीं होगी। अगर यह अब भी कारगर नहीं होता है और समस्या पूरी तरह से नहीं सुलझती है, तो अपनी धारणाओं को सुलझाने में मदद करने के लिए किसी अनुभवी व्यक्ति को ढूँढ़ो। उसे अपनी धारणाओं को सुलझाने से संबंधित परमेश्वर के वचनों के कुछ भाग ढूँढ़ निकालने के लिए कहो और उन्हें दर्जनों या सैकड़ों बार पढ़ो; शायद इससे तुम्हारी धारणाएँ पूरी तरह से सुलझ जाएँगी। कुछ लोग कह सकते हैं, “अगर मैं भाई-बहनों के साथ सभा के दौरान धारणाएँ व्यक्त करता हूँ, तो यह धारणाएँ फैलाना होगा, इसलिए मैं ऐसा नहीं कर सकता। लेकिन उन्हें अपने भीतर रोककर रखना भयानक लगता है। क्या मैं अपने परिवार से उनके बारे में बात कर सकता हूँ?” अगर तुम्हारे परिवार के सदस्य भी आस्था रखने वाले भाई-बहन हैं, तो उनके सामने इन धारणाओं को व्यक्त करने से वे भी परेशान हो जाएँगे। क्या यह उचित है? (नहीं।) अगर तुम्हारी बातों का दूसरों पर हानिकारक प्रभाव पड़ेगा, वह उन्हें नुकसान पहुँचाएगा और गुमराह करेगा, तो तुम्हें इसे बिल्कुल नहीं कहना चाहिए। इसके बजाय इस मुद्दे को सुलझाने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करो। अगर तुम प्रार्थना करते हो और एक ऐसे धर्मनिष्ठ दिल से परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते हो, जो धार्मिकता के लिए भूखा-प्यासा है, तो तुम्हारी धारणाएँ सुलझ सकती हैं। परमेश्वर के वचनों में व्यापक सत्य निहित है; वे किसी भी समस्या को सुलझा सकते हैं। यह बस इस बात पर निर्भर करता है कि तुम सत्य को स्वीकार सकते हो या नहीं और परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने को तैयार हो या नहीं और तुम अपनी धारणाओं को छोड़ सकते हो या नहीं। अगर तुम मानते हो कि परमेश्वर के वचनों में व्यापक सत्य निहित है, तो तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और समस्याओं के उत्पन्न होने पर उन्हें सुलझाने के लिए सत्य की तलाश करनी चाहिए। अगर कुछ समय प्रार्थना करने के बाद भी तुम परमेश्वर द्वारा प्रबुद्ध महसूस नहीं करते हो और तुम्हें परमेश्वर से इस बारे में स्पष्ट वचन नहीं मिलते हैं कि क्या करना है, लेकिन अनजाने में अब तुम्हारी धारणाएँ तुम्हें आंतरिक रूप से प्रभावित नहीं करती हैं, तुम्हारे जीवन में विघ्न नहीं डालती हैं, धीरे-धीरे लुप्त हो जाती हैं, परमेश्वर के साथ तुम्हारे सामान्य रिश्ते को प्रभावित नहीं करती हैं और यकीनन तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित नहीं करती हैं, तो क्या यह धारणा मूल रूप से सुलझ नहीं गई है? (बिल्कुल।) यही अभ्यास का मार्ग है।
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