अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (16) खंड दो
2. परमेश्वर के वचनों और कार्य के बारे में धारणाएँ फैलाना
धारणाएँ फैलाने वाले ये लोग परमेश्वर के वचनों को मापने, परमेश्वर के कार्य को मापने और परमेश्वर के सार और परमेश्वर के स्वभाव को मापने के लिए भी अपनी खुद की धारणाएँ इस्तेमाल करते हैं। वे अपनी धारणाओं के भीतर परमेश्वर में विश्वास करते हैं, अपनी धारणाओं के भीतर परमेश्वर को देखते हैं और अपनी धारणाओं के भीतर ही परमेश्वर द्वारा कहे जाने वाले हर वचन, परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले कार्य की हर मद और परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित किए जाने वाले हर परिवेश की जाँच-परख और पड़ताल करते हैं। परमेश्वर जो करता है वह जब उनकी धारणाओं के अनुरूप होता है तो वे यह कहते हुए जोर से परमेश्वर की स्तुति करते हैं कि परमेश्वर धार्मिक है, परमेश्वर वफादार है और परमेश्वर पवित्र है। परमेश्वर जो करता है वह जब उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं होता और उनके हितों को गंभीर नुकसान पहुँचता है और वे बहुत पीड़ा सहते हैं तो वे परमेश्वर द्वारा बोले गए वचनों और उसके द्वारा किए गए कार्य को नकारने के लिए सामने आ जाते हैं; यहाँ तक कि वे परमेश्वर को गलत समझने और उससे सतर्क रहने के लिए और ज्यादा लोगों को उकसाने के लिए धारणाएँ भी फैलाते हैं और कहते हैं, “परमेश्वर के वचनों पर इतनी आसानी से विश्वास मत करो और परमेश्वर के वचनों का आसानी से अभ्यास भी मत करो; वरना अगर तुम्हारा फायदा उठा लिया गया और तुम्हें नुकसान हुआ तो कोई इसकी जिम्मेदारी नहीं लेगा,” इत्यादि। उदाहरण के लिए, परमेश्वर कहता है, “तुममें से जो ईमानदारी से मेरे लिए स्वयं को खपाता है, मैं निश्चित रूप से उसे बहुत आशीष दूँगा”—क्या ये वचन सत्य नहीं हैं? ये वचन सौ प्रतिशत सत्य हैं। इनमें कोई आवेगशीलता या धोखा नहीं है। ये झूठ या भव्य लगने वाले विचार नहीं हैं, किसी तरह का आध्यात्मिक सिद्धांत तो ये बिल्कुल भी नहीं हैं—ये सत्य हैं। सत्य के इन वचनों का सार क्या है? यही कि परमेश्वर के लिए खुद को खपाते समय तुम्हें ईमानदार होना चाहिए। “ईमानदार” का क्या अर्थ है? इच्छुक और अशुद्धियों से रहित होना; पैसे या प्रसिद्धि से प्रेरित होकर नहीं और अपने इरादों, इच्छाओं और लक्ष्यों के लिए तो निश्चित रूप से नहीं। तुम खुद को इसलिए नहीं खपाते क्योंकि तुम्हें मजबूर किया जाता है या तुम्हें उकसाया, बहलाया या अपने साथ खींचा जाता है, बल्कि यह तुम्हारे भीतर से, स्वेच्छा से आता है; यह जमीर और विवेक से उत्पन्न होता है। ईमानदार होने का यही अर्थ है। परमेश्वर के लिए खुद को खपाने की इच्छा के संदर्भ में ईमानदार होने का यही अर्थ है। तो जब तुम परमेश्वर के लिए खुद को खपाते हो तो व्यावहारिक दृष्टि से ईमानदार होना कैसे अभिव्यक्त होता है? तुम झूठ या धोखाधड़ी में शामिल नहीं होते, कार्य से बचने के लिए चालाकी का सहारा नहीं लेते और चीजें बेमन से नहीं करते; तुम जो कुछ कर सकते हो उसे करते हुए उसमें अपना पूरा दिलो-दिमाग समर्पित कर देते हो, इत्यादि—यहाँ बताने के लिए बहुत सारे विवरण हैं! संक्षेप में, ईमानदार होने में सत्य सिद्धांत शामिल हैं। मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाओं के पीछे एक मानक और सिद्धांत है। कुछ लोग कहते हैं, “अगर मैं अपनी ईमानदारी और अपनी सारी मामूली बचतें परमेश्वर में विश्वास करने में अर्पित कर दूँ तो क्या मुझे और ज्यादा मिलेगा? अगर मैं और ज्यादा प्राप्त कर सकूँ तो यह सब कुछ अर्पित करने लायक है!” अर्पित करने के बाद वे देखते हैं कि परमेश्वर ने उन्हें आशीष नहीं दिया है और इस पर यह सोचते हुए विचार करते हैं : “शायद मैंने पर्याप्त अर्पित नहीं किया है, इसलिए मैं और ज्यादा अर्पित करूँगा। मैं बाहर जाऊँगा और सुसमाचार का प्रचार करूँगा।” सुसमाचार का प्रचार करते समय जब उनका सामना कठिनाइयों से होता है तो वे प्रार्थना करते हैं। कभी-कभी जब वे भोजन नहीं कर पाते और अच्छी तरह सो नहीं पाते, तब भी वे प्रार्थना करना जारी रखते हैं। वे सोचते हैं : “परमेश्वर ने कहा था कि जो लोग ईमानदारी से परमेश्वर के लिए खुद को खपाते हैं, उन्हें निश्चित रूप से बहुत आशीष मिलेगा। शायद मेरी ईमानदारी अभी पर्याप्त नहीं है, इसलिए मैं और प्रार्थना करूँगा।” प्रार्थना के जरिये वे आस्था प्राप्त करते हैं और थोड़ी-सी कठिनाई सहने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं होती। सुसमाचार का प्रचार करने से उन्हें वास्तव में कुछ परिणाम दिखने लगते हैं और वे सोचते हैं : “अब मुझमें कुछ ईमानदारी है। मैं जल्दी से घर जाकर देखूँगा कि क्या मेरे परिवार का जीवन बेहतर हो गया है, क्या मेरे बच्चे की बीमारी ठीक हो गई है और क्या मेरा पारिवारिक व्यवसाय सुचारू रूप से चल रहा है—परमेश्वर के आशीष मिले हैं या नहीं।” क्या यह खुद को ईमानदारी से परमेश्वर के लिए खपाना है? (नहीं।) यह क्या है? (एक लेन-देन।) यह परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करना है। वे जो चाहते हैं उसे करने के लिए वे अपने तरीकों का और जिसे वे अपनी धारणाओं के आधार पर “ईमानदारी” समझते हैं उसका उपयोग कर रहे हैं ताकि उससे जो वे चाहते हैं उसे प्राप्त कर सकें। परमेश्वर द्वारा कहे गए इन वचनों का सत्यापन करने के लिए वे उस “ईमानदारी” का लगातार उपयोग करते हैं जिसे वे समझते हैं, लगातार यह खोजबीन करते रहते हैं कि परमेश्वर क्या करना चाहता है, उसने क्या किया है और क्या नहीं किया है और लगातार इस बारे में अटकलें लगाते रहते हैं कि परमेश्वर उन्हें आशीष देगा या नहीं और क्या वह उन्हें बहुत आशीष देने का इरादा रखता है। वे लगातार इस बात का हिसाब लगाते रहते हैं कि उन्होंने क्या चढ़ाया है और उन्हें कितना मिलना चाहिए, क्या परमेश्वर ने उन्हें वह दिया है और क्या परमेश्वर के वचन पूरे हुए हैं। वे लगातार ऐसे तथ्य तलाशते रहते हैं जिनसे वे परमेश्वर के कथन को परख सकें। परमेश्वर के लिए खुद को खपाते हुए वे हमेशा यह सत्यापित करना चाहते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं या नहीं। उनका उद्देश्य यह देखना होता है कि क्या परमेश्वर के लिए खुद को खपाने से उन्हें परमेश्वर के आशीष मिल सकते हैं। वे लगातार परमेश्वर को परखते रहते हैं, हमेशा अपने ऊपर परमेश्वर के आशीष देखना चाहते हैं ताकि उसके वचनों की पुष्टि हो सके। जब वे पाते हैं कि परमेश्वर के वचन उतनी आसानी से पूरे नहीं होते जितनी उन्होंने कल्पना की थी और परमेश्वर के वचनों की सच्चाई की पुष्टि करना कठिन है तो परमेश्वर के बारे में उनकी धारणाएँ और भी गंभीर हो जाती हैं। साथ ही वे दृढ़ता से यह मानने लगते हैं कि परमेश्वर द्वारा कहा गया हर वचन सत्य होना जरूरी नहीं है। अपने दिलों में यह बात छिपाकर वे परमेश्वर पर संदेह और सवाल करने लगते हैं और अक्सर उसके बारे में धारणाएँ विकसित कर लेते हैं। समय-समय पर ये लोग जिनके दिल धारणाओं से भरे होते हैं, कलीसियाई जीवन जीते हुए और भाई-बहनों के साथ बातचीत करते हुए परमेश्वर के बारे में अपनी कुछ धारणाएँ प्रकट कर देते हैं। वे परमेश्वर के वचनों के बारे में धारणाएँ विकसित कर लेते हैं और साथ ही परमेश्वर के कार्य को मापने के लिए अपनी धारणाओं का उपयोग करते हैं। जब परमेश्वर का कार्य लगातार उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं होता और उनकी अपेक्षाओं के बिल्कुल विपरीत होता है तो वे परमेश्वर के प्रति अपनी असंतुष्टि बाहर निकालने के लिए अपनी धारणाएँ फैलाते हैं। उदाहरण के लिए, परमेश्वर कहता है कि उसका कार्य अपने अंत के करीब है और लोगों को परमेश्वर का अनुसरण करने और उसके लिए खुद को खपाने के लिए सब कुछ त्याग देना चाहिए, परमेश्वर के कार्य के साथ सहयोग करना चाहिए और अब सांसारिक संभावनाओं, सामंजस्यपूर्ण घर-गृहस्थी और ऐसी अन्य चीजों का अनुसरण नहीं करना चाहिए। ये वचन कहने के बाद परमेश्वर बहुत सारा काम करना जारी रखता है। तीन, पाँच, सात या आठ साल बीत जाते हैं और कुछ लोग देखते हैं कि परमेश्वर का कार्य अभी भी निरंतर आगे बढ़ रहा है, इस बात का कोई संकेत नहीं मिलता कि उसका कार्य समाप्त हो रहा है या बड़ी आपदाएँ निकट हैं और सभी विश्वासियों ने शरण ले ली है। जो लोग परमेश्वर के कार्य को मापने के लिए अपनी धारणाओं का उपयोग करते हैं, वे परमेश्वर के कार्य के जल्दी समाप्त होने का इंतजार नहीं कर सकते ताकि विश्वासी परमेश्वर के अद्भुत आशीषों में साझेदारी कर सकें। लेकिन परमेश्वर इस तरह से कार्य नहीं करता; वह इस मामले को इंसानी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार पूरा नहीं करता। जो लोग इंतजार नहीं कर सकते, वे बेचैन हो जाते हैं और यह कहते हुए संदेह करने लगते हैं : “क्या परमेश्वर का कार्य पहले ही अपने अंत के करीब नहीं है? क्या उसे जल्दी ही समाप्त नहीं हो जाना चाहिए? क्या परमेश्वर ने नहीं कहा था कि बड़ी आपदाएँ निकट हैं? परमेश्वर का घर अभी भी इतना काम क्यों कर रहा है? परमेश्वर का कार्य वास्तव में कब समाप्त होगा? यह कब खत्म होगा?” इन लोगों को सत्य या परमेश्वर की अपेक्षाओं में जरा भी दिलचस्पी नहीं होती। उन्हें सत्य का अभ्यास करने में, परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में या उद्धार प्राप्त करने के लिए शैतान के प्रभाव से बचने में कोई रुचि नहीं होती। वे सिर्फ और विशेष रूप से ऐसी चीजों में रुचि रखते हैं जैसे कि परमेश्वर का कार्य कब समाप्त होगा, उनका परिणाम जीवन होगा या मृत्यु, वे आशीषों का आनंद लेने के लिए राज्य में कब प्रवेश कर सकते हैं और राज्य के सुंदर दृश्य कैसे होंगे। ये उनकी सबसे बड़ी चिंताएँ होती हैं। इसलिए कुछ समय तक सहने और यह देखने के बाद कि स्वर्ग और पृथ्वी में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है और दुनिया के देश सामान्य रूप से चल रहे हैं, वे कहते हैं, “परमेश्वर के ये वचन कब सच होंगे? मैं वर्षों से इंतजार कर रहा हूँ—ये अभी तक सच क्यों नहीं हुए हैं? क्या परमेश्वर के वचन वास्तव में सच हो सकते हैं? परमेश्वर अपने वचन पर कायम रहता है या नहीं?” और इसलिए ये लोग धैर्य खो देते हैं, बेचैन हो जाते हैं और अपना जीवन जीने के लिए दुनिया में लौटने के अवसर तलाशने की इच्छा करना शुरू कर देते हैं।
परमेश्वर का कार्य और वे सत्य जिन्हें परमेश्वर व्यक्त करता है, हमेशा इंसानी कल्पनाओं से बढ़कर होते हैं और हमेशा इंसानी धारणाओं से परे होते हैं। लोग चाहे जैसे भी कोशिश कर लें, वे उन्हें समझ या माप नहीं सकते। वे नहीं जानते कि परमेश्वर के कार्य के तरीके वास्तव में क्या हैं या वह किस लक्ष्य को प्राप्त करना चाहता है, इसलिए अंततः कुछ लोग संदेह करना शुरू कर देते हैं : “क्या परमेश्वर वास्तव में मौजूद है? परमेश्वर वास्तव में कहाँ है? परमेश्वर सत्य व्यक्त करता रहता है, लेकिन क्या वह बहुत ज्यादा सत्य व्यक्त नहीं करता? क्या परमेश्वर ने नहीं कहा कि वह हमें अपने राज्य में ले जाएगा? हम स्वर्ग के राज्य में कब प्रवेश कर सकते हैं? ये चीजें अभी तक सच या पूरी क्यों नहीं हुई हैं? इसमें ठीक-ठीक कितने साल और लगेंगे? हमेशा कहा जाता है कि परमेश्वर का दिन निकट है, लेकिन इस ‘निकट’ का अब वर्षों से जिक्र किया जा रहा है—यह इतना दूर क्यों है और अंतहीन क्यों लगता है?” वे इस तरह न सिर्फ सोचते हैं, बल्कि ये संदेह हर जगह फैला देते हैं। यह किस समस्या की ओर संकेत करता है? इतने सारे धर्मोपदेश सुनने के बाद भी वे क्यों अभी भी सत्य बिल्कुल नहीं समझते? वे परमेश्वर के कार्य को परिसीमित करने के लिए हमेशा इंसानी धारणाएँ और कल्पनाएँ इस्तेमाल क्यों करते हैं? वे इन चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार क्यों नहीं देख सकते? क्या वे परमेश्वर के अस्तित्व की पुष्टि कर सकते हैं और परमेश्वर के वचनों के जरिये उद्धार का मार्ग निर्धारित कर सकते हैं? क्या वे समझते हैं कि परमेश्वर द्वारा कहे गए ये सभी वचन और जो कुछ भी वह करता है, वह लोगों को बचाने के लिए है? क्या वे समझते हैं कि सिर्फ सत्य प्राप्त करके और उद्धार हासिल करके ही लोग वे सभी आशीष प्राप्त कर सकते हैं जिनका वादा परमेश्वर ने मानवजाति से किया है? वे जो कहते हैं और जो धारणाएँ फैलाते हैं, उनसे यह स्पष्ट है कि वे मूल रूप से यह नहीं समझते कि परमेश्वर क्या कर रहा है या परमेश्वर के यह सब कार्य करने और ये सब वचन बोलने का क्या उद्देश्य है। वे सिर्फ छद्म-विश्वासी हैं! इतने सालों तक धर्मोपदेश सुनने और इतने सालों तक परमेश्वर के घर में इधर-उधर भटकने के बाद उन्होंने क्या प्राप्त किया है? उन्होंने इस बात की पुष्टि तक नहीं की है कि परमेश्वर मौजूद है या नहीं, उनके पास इसका कोई निश्चित उत्तर नहीं है। वे कलीसिया में क्या भूमिका निभाते हैं? कुछ समय तक मेहनत करने के बाद आशीष प्राप्त नहीं करने पर वे दूसरों को गुमराह और परेशान करने के लिए बेशर्मी से धारणाएँ फैलाते हैं। वे जो बातें यूँ ही कहते हैं, वे परमेश्वर और उसके कार्य की आलोचनाएँ होती हैं। उनमें से कुछ लोग कहते हैं, “मैं सोचता था कि परमेश्वर का कार्य तीन से पाँच वर्षों में पूरा हो जाएगा; मुझे उम्मीद नहीं थी कि यह अभी भी पूरा नहीं होगा जबकि दस वर्ष बीत चुके हैं। यह कार्य कब पूरा होगा? गवाही के लेख लगातार लिखे जा रहे हैं; भजन प्रस्तुतियों की वीडियो और फिल्में लगातार बनाई जा रही हैं; सुसमाचार का प्रचार लगातार किया जा रहा है—यह कब समाप्त होगा?” यहाँ तक कि वे दूसरों से भी पूछते हैं : “क्या तुम लोग भी ऐसा ही नहीं सोचते? खैर, तुम लोग चाहे जो भी सोचो, मैं तो यही सोचता हूँ। मैं एक ईमानदार व्यक्ति हूँ; उन कुछ लोगों की तरह नहीं जो अपने मन की बात नहीं कहते और उसे मन में ही दबाए रखते हैं, मैं जो मेरे मन में होता है कह देता हूँ।” वे कितने “ईमानदार” हैं, कुछ भी कहने की हिम्मत रखते हैं! इससे भी बदतर बात यह है कि वे कहते हैं, “अगर परमेश्वर का कार्य जल्दी खत्म नहीं हुआ तो मैं बस जाकर नौकरी ढूँढूँगा, कुछ पैसे कमाऊँगा और अपना जीवन जियूँगा। परमेश्वर में विश्वास करने के इन तमाम वर्षों में मैंने बहुत सारे अच्छे भोजन, बहुत सारी मजेदार जगहें, बहुत सारा भौतिक आनंद छोड़ा है! अगर मैं परमेश्वर में विश्वास नहीं करता तो मैं एक हवेली में रह रहा होता, एक कार का मालिक होता और इन पिछले वर्षों में शायद कई बार दुनिया की यात्रा भी कर चुका होता। पीछे मुड़कर देखता हूँ तो परमेश्वर में विश्वास किए बिना जीवन बहुत अच्छा था; मैं काफी खुश था। हालाँकि वह थोड़ा खोखला था, लेकिन मैं दैहिक सुखों का आनंद ले सकता था, अच्छा खा-पी सकता था और बिना किसी प्रतिबंध के जो चाहता वह कर सकता था। परमेश्वर में विश्वास करने के इन वर्षों के दौरान मैंने बहुत सहा है और मैं खुद पर बहुत कठोर रहा हूँ! हालाँकि मैंने थोड़ा सत्य प्राप्त किया है और अपने दिल में थोड़ा ज्यादा सुरक्षित महसूस करता हूँ, लेकिन ये सत्य उन दैहिक सुखों की जगह नहीं ले सकते! इसके अलावा, परमेश्वर का कार्य कभी खत्म नहीं होता और परमेश्वर कभी लोगों के सामने प्रकट नहीं होता, इसलिए मैं कभी पूरी तरह सुरक्षित महसूस नहीं करता। वे कहते हैं कि सत्य समझना और प्राप्त करना शांति और आनंद लाता है, लेकिन शांति और आनंद होने का क्या फायदा? मुझे अभी भी दैहिक आनंद नहीं मिलता!” ये विचार उनके मन में अनगिनत बार आए हैं और उन्होंने इन्हें मन ही मन कई बार दोहराया है। जब वे मानते हैं कि उनकी धारणाओं में दृढ़ रहने के लिए पर्याप्त औचित्य है और उन्हें लगता है कि उपयुक्त समय आ गया है और वे परमेश्वर के कार्य में मीन-मेख निकालने के लिए पर्याप्त रूप से योग्य हैं तो वे ऊपर उद्धृत टिप्पणियाँ और धारणाएँ फैलाने से खुद को रोक नहीं पाते। वे परमेश्वर के प्रति अपना असंतोष और परमेश्वर के कार्य के बारे में अपनी धारणाएँ और गलतफहमियाँ फैलाते हैं और ज्यादा लोगों को परमेश्वर और उसके कार्य को गलत समझने के लिए गुमराह करने की कोशिश करते हैं। बेशक, छिपे इरादों वाले कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो ज्यादा लोगों को परमेश्वर के लिए खुद को खपाने से रोकना चाहते हैं, चाहते हैं कि वे अपने वर्तमान कर्तव्य त्याग दें और परमेश्वर को नकार दें; अगर कलीसिया भंग हो जाए तो यह उनके लिए सबसे अच्छी बात होगी। उनका लक्ष्य क्या होता है? “अगर मैं आशीष प्राप्त नहीं कर सकता तो तुम लोगों में से भी किसी को इसकी उम्मीद नहीं करनी चाहिए। मैं तुम सभी लोगों के लिए चीजें बिगाड़ दूँगा ताकि तुम लोगों में से कोई भी सत्य या वे आशीष जिनका परमेश्वर ने वादा किया था, प्राप्त करने की उम्मीद न कर सके!” आशीष प्राप्त करने की कोई उम्मीद न देखकर वे और ज्यादा प्रतीक्षा करने का धैर्य खो देते हैं। वे स्वयं आशीष प्राप्त नहीं करते और दूसरों को भी प्राप्त नहीं करने देना चाहते। इसलिए जब वे धारणाएँ फैलाते हैं तो एक अर्थ में वे अपना असंतोष बाहर निकाल रहे होते हैं, शिकायत कर रहे होते हैं कि परमेश्वर के कार्य से संबंधित कुछ भी इंसानी धारणाओं और कल्पनाओं से मेल नहीं खाता और परमेश्वर के कार्य करने का तरीका लोगों की भावनाओं के प्रति विचारशून्य है। साथ ही वे ज्यादा लोगों को गुमराह कर उन्हें परमेश्वर को गलत समझने और उसके बारे में शिकायत करने, परमेश्वर के बारे में धारणाएँ विकसित करने और आस्था खोने में शामिल करना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि और ज्यादा लोग परमेश्वर के बारे में अपनी गलतफहमियों और धारणाओं के कारण उसे त्याग दें, जैसा कि उन्होंने किया है।
परमेश्वर का आशीष आपके पास आएगा! हमसे संपर्क करने के लिए बटन पर क्लिक करके, आपको प्रभु की वापसी का शुभ समाचार मिलेगा, और 2025 में उनका स्वागत करने का अवसर मिलेगा।