अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (15) खंड पाँच
ख. अक्सर दूसरों पर हमला करने वाले लोगों की मानवता की विशेषताएँ
आज हमने आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों के मुद्दे से संबंधित कई पहलुओं पर संगति की है। क्या तुम लोगों ने इन पहलुओं में से प्रत्येक के भीतर विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों द्वारा प्रदर्शित अभिव्यक्तियों की प्रकृति को समझ लिया है? चलो उन लोगों से शुरू करते हैं जिनमें दूसरों पर हमला करने की प्रवृत्ति होती है—क्या उनमें सामान्य मानवता का विवेक होता है? (नहीं।) उनका विवेक का अभाव कैसे अभिव्यक्त होता है? लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति उनके रवैये और सिद्धांत क्या होते हैं? विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों से निपटने के लिए वे कौन से तरीके और रवैये चुनते हैं? उदाहरण के लिए, सही-गलत पर बहस करना पसंद करना, क्या यह उन रवैयों में से एक नहीं है जो वे लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति रखते हैं? (हाँ, है।) सही-गलत पर बहस करने का मतलब है हर मामले में यह स्पष्ट करने की कोशिश करना कि क्या सही है और क्या गलत, तब तक न रुकना जब तक कि मामला साफ न हो जाए और यह समझ न आ जाए कि कौन सही था और कौन गलत, और हठपूर्वक व्यर्थ की बातों पर अड़े रहना। इस तरह की हरकत का क्या मतलब है? अंततः क्या सही और गलत के बारे में बहस करना सही है? (नहीं।) गलती कहाँ है? क्या इसमें और सत्य के अभ्यास के बीच कोई संबंध है? (कोई संबंध नहीं है।) तुम ऐसा क्यों कहते हो कि कोई संबंध नहीं है? सही और गलत के बारे में तर्क-वितर्क करना सत्य सिद्धांतों का पालन करना नहीं है, यह सत्य सिद्धांतों पर चर्चा या संगति करना नहीं है; इसके बजाय, लोग हमेशा इस बारे में बात करते हैं कि कौन सही है और कौन गलत, कौन उचित है और कौन अनुचित, कौन न्यायोचित है और कौन नहीं, किसके पास उचित कारण है और किसके पास नहीं, कौन ज्यादा ऊँचे धर्म-सिद्धांत व्यक्त करता है; वे इन्हीं चीजों की जाँच करते रहते हैं। जब परमेश्वर लोगों का परीक्षण करता है, तो वे हमेशा परमेश्वर के साथ बहस करने का प्रयास करते हैं, वे हमेशा कोई न कोई कारण देते हैं। क्या परमेश्वर तुमसे ऐसी बातों पर चर्चा करता है? क्या परमेश्वर पूछता है कि संदर्भ क्या है? क्या परमेश्वर पूछता है कि तुम्हारे तर्क और कारण क्या हैं? वह नहीं पूछता। परमेश्वर पूछता है कि जब उसने तुम्हारी परीक्षा ली तब तुमने समर्पण का रवैया अपनाया या प्रतिरोध का। परमेश्वर पूछता है कि तुम सत्य को समझते हो या नहीं, तुम समर्पित हो या नहीं। परमेश्वर यही पूछता है, और कुछ नहीं। परमेश्वर तुमसे समर्पण भाव न होने का कारण नहीं पूछता, वह यह नहीं देखता कि क्या तुम्हारे पास कोई उचित कारण था—वह ऐसी बातों पर बिल्कुल विचार नहीं करता है। परमेश्वर केवल यह देखता है कि तुम समर्पित थे या नहीं। तुम्हारे रहने के माहौल और संदर्भ की परवाह न करते हुए, परमेश्वर केवल इस बात की जाँच करता है कि क्या तुम्हारे दिल में समर्पण है या नहीं, तुम्हारा रवैया समर्पणकारी है या नहीं। परमेश्वर तुम्हारे साथ सही और गलत पर बहस नहीं करता, परमेश्वर यह परवाह नहीं करता कि तुम्हारे तर्क क्या थे, परमेश्वर केवल इसकी परवाह करता है कि क्या तुम वास्तव में समर्पित थे, परमेश्वर तुमसे बस यही पूछता है। क्या यह सत्य सिद्धांत नहीं है? जिस तरह के लोग सही और गलत के बारे में बहस करना पसंद करते हैं, जिन्हें मौखिक झगड़ों में लिप्त होना पसंद है—क्या उनके दिलों में सत्य सिद्धांत हैं? (नहीं।) क्यों नहीं? क्या उन्होंने कभी सत्य सिद्धांतों पर ध्यान दिया है? क्या उन्होंने कभी उनका अनुसरण किया है? क्या उन्होंने कभी उन्हें खोजा है? उन्होंने कभी उन पर कोई ध्यान नहीं दिया, उनका अनुसरण नहीं किया या उनकी खोज नहीं की, और वे उनके दिलों में हैं ही नहीं। नतीजतन, वे केवल मानव धारणाओं के बीच जी सकते हैं, उनके दिलों में बस सही और गलत, ठीक और बेठीक, बहाने, कारण, सत्याभास और तर्क होते हैं, जिसके तुरंत बाद वे एक-दूसरे पर हमला करते हैं, एक-दूसरे की आलोचना और निंदा करते हैं। इस तरह के लोगों का स्वभाव यह होता है कि उन्हें सही-गलत पर बहस करना और लोगों की आलोचना और निंदा करना पसंद होता है। इस तरह के लोगों के पास सत्य के प्रति कोई प्रेम या स्वीकृति नहीं होती, यह संभव है कि वे परमेश्वर के साथ बहस करने का प्रयास करें, यहाँ तक कि परमेश्वर के बारे में कोई फैसला सुनाएँ और परमेश्वर की अवहेलना तक करें। अंततः उन्हें सजा भुगतनी ही पड़ेगी।
जो लोग सही-गलत पर बहस करना पसंद करते हैं, क्या वे सत्य खोजते हैं? क्या वे परमेश्वर के इरादों, परमेश्वर की अपेक्षाओं या उन सत्य सिद्धांतों को तलाशते हैं, जिनका इन स्थितियों में उन लोगों, घटनाओं और चीजों के जरिये अभ्यास किया जाना चाहिए जिनका वे अपने भीतर सामना करते हैं? वे नहीं तलाशते। स्थितियों से सामना होने पर वे “वह घटना कैसी थी” या “वह व्यक्ति कैसा है” का अध्ययन करने में प्रवृत्त हो जाते हैं। यह व्यवहार क्या है? क्या यह वही व्यवहार नहीं है जिसे लोग अक्सर लोगों और चीजों पर लगातार ध्यान केंद्रित करने के रूप में संदर्भित करते हैं? वे लोगों के औचित्यों और घटनाओं के क्रम के बारे में बहस करते हैं, वे इन चीजों को स्पष्ट करने पर जोर देते हैं, लेकिन वे इस बात का जिक्र नहीं करते कि इन जटिल स्थितियों की प्रक्रिया के किस भाग में उन्होंने सत्य खोजा, सत्य समझा या प्रबुद्ध हुए। उनमें इन अनुभवों और अभ्यास के तरीकों का अभाव होता है। वे बस यही कहते रहते हैं : “तुम उस बात के माध्यम से स्पष्ट रूप से मुझे निशाना बना रहे थे, तुम मेरा अपमान कर रहे थे। क्या तुम्हें लगता है कि मैं इतना मूर्ख हूँ कि मुझे पता नहीं चलेगा? तुमने मेरा अपमान क्यों किया? मैंने तुम्हारा अपमान नहीं किया है; तुमने मुझे क्यों निशाना बनाया? चूँकि तुम मुझे निशाना बना रहे हो, इसलिए मैं भी संयम नहीं रखूँगा! मैंने तुम्हारे मामले में बहुत समय से धैर्य रखा है, लेकिन मेरे धैर्य की भी सीमा है। यह मत सोचो कि मुझे आसानी से धौंस दी जा सकती है; मैं तुमसे नहीं डरता!” इन समस्याओं से चिपके हुए वे लगातार अपने औचित्य प्रस्तुत करते हैं, मामले के सही-गलत और उचित-अनुचित होने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, लेकिन उनके तथाकथित औचित्य सत्य के अनुरूप बिल्कुल नहीं होते और उनका एक भी शब्द परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं होता। वे लोगों, घटनाओं और चीजों पर इस हद तक ध्यान केंद्रित करते हैं कि दूसरे लोग पूरी तरह से ऊब जाते हैं और कोई उनकी बात सुनने को तैयार नहीं होता, फिर भी वे इन चीजों के बारे में बात करने से कभी नहीं थकते, वे जहाँ भी जाते हैं इनके बारे में बात करते हैं मानो वे वशीभूत हो गए हों। इसे लोगों और चीजों पर लगातार ध्यान केंद्रित करना और सत्य खोजने से साफ-साफ इनकार करना कहा जाता है। आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में लिप्त लोगों की दूसरी विशेषता लोगों और चीजों पर लगातार ध्यान केंद्रित करने का उनका विशेष शौक है। जो लोग लगातार लोगों और चीजों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, क्या वे सत्य से प्रेम करते हैं? (नहीं।) वे सत्य से प्रेम नहीं करते, यह स्पष्ट है। तो क्या ये लोग सत्य समझते हैं? क्या वे जानते हैं कि परमेश्वर जिस सत्य के बारे में बोलता है, वह असल में क्या है? लोगों और चीजों पर लगातार ध्यान केंद्रित करने के उनके बाहरी व्यवहार से आँकें तो, क्या वे जानते हैं कि सत्य असल में क्या है? स्पष्ट है कि वे नहीं जानते। वे किस विचार का सम्मान करते हैं? इस विचार का कि जिस किसी के भी शब्द सबसे न्यायोचित हों वह सही है, जिस किसी के भी क्रियाकलाप सच्चे हों और सभी के दर्शनार्थ पेश किए जा सकते हों वह सही है और जो कोई भी नैतिकता, आचार और परंपरागत संस्कृति के अनुसार क्रियाकलाप करता हो, बहुसंख्यक लोगों की स्वीकृति प्राप्त करता हो, वह सही है। उनके विचार से यह “सही” प्रतिनिधित्व करता है सत्य का, इसलिए वे लोगों और चीजों पर बड़ी बेशर्मी से लगातार ध्यान केंद्रित कर सकते हैं और वे इन मामलों पर विचार करना कभी बंद नहीं करते। वे मानते हैं कि न्यायोचित होना सत्य धारण करने के बराबर है—क्या यह बहुत समस्याजनक नहीं है? कुछ लोग कहते हैं, “मैंने कलीसिया के कार्य में विघ्न या बाधा नहीं डाली है, मैं दूसरों का फायदा नहीं उठाता, मुझे दूसरों का सामान चुराना पसंद नहीं है और मैं दबंग नहीं हूँ; मैं बुरा व्यक्ति नहीं हूँ।” क्या यहाँ निहितार्थ यह है कि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अभ्यास करता है, ऐसा व्यक्ति जिसके पास सत्य है? जो लोग लगातार लोगों और चीजों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, उनका एक बड़ा हिस्सा खुद को ईमानदार मानता है जिन्हें नतीजतन अफवाहों के बारे में चिंतित होने की जरूरत नहीं है और वे खुद को ईमानदार, सम्माननीय लोग मानते हैं जो कभी दूसरों की चापलूसी नहीं करेंगे। इसलिए परिस्थितियों से सामना होने पर वे बहस और वाद-विवाद करने में प्रवृत्त होते हैं और इन उपायों से यह साबित करने पर जोर देते हैं कि उनका औचित्य सही है। वे मानते हैं कि अगर उनका औचित्य ठोस है और उसे खुले तौर पर प्रस्तुत किया जा सकता है और बहुसंख्यक लोग उससे सहमत हैं तो वे ऐसे व्यक्ति हैं जिनके पास सत्य है। उनका “सत्य” क्या है? उसे किस मानक से मापा जाता है? क्या तुम लोगों को लगता है कि ऐसे लोग सत्य समझ सकते हैं? (नहीं।) इसलिए वे हमेशा लोगों और चीजों पर लगातार ध्यान केंद्रित करते हैं और हठपूर्वक उन पर विचार करते हैं। ये लोग सत्य नहीं समझते, इसलिए हमेशा कहते हैं, “मैंने तुम्हारा अपमान नहीं किया है। तुम हमेशा मुझे निशाना क्यों बनाते रहते हो? तुम्हारा मुझे निशाना बनाना गलत है!” वे मानते हैं, “अगर मैंने तुम्हारा अपमान नहीं किया है तो तुम्हें मेरे साथ ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए। चूँकि तुम मेरे साथ ऐसा व्यवहार कर रहे हो, इसलिए मैं तुमसे बदला लूँगा, मैं पलटवार करूँगा और मेरा पलटवार वैध आत्मरक्षा है, यह न्यायसम्मत है। यह सत्य सिद्धांत है। इसलिए तुम जो कर रहे हो वह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है, लेकिन मैं जो कर रहा हूँ वह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है। इसलिए मैं इस मामले पर ध्यान केंद्रित करूँगा, मैं हमेशा इस मुद्दे को उठाऊँगा और हमेशा तुम्हारा उल्लेख करूँगा!” वे मानते हैं कि लोगों और चीजों पर लगातार ध्यान केंद्रित करना सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है, लेकिन क्या यह एक बहुत बड़ी गलती नहीं है? यह वाकई एक बहुत बड़ी गलती है और वे गलत दिशा में जा रहे हैं। लोगों और चीजों पर लगातार ध्यान केंद्रित करना सत्य का अभ्यास करने से बिल्कुल अलग मामला है। इन लोगों की मानवता के साथ यह दूसरी समस्या है—वे लोगों और चीजों पर लगातार ध्यान केंद्रित करते हैं। मानवता की समस्याएँ किससे संबंधित होती हैं? क्या वे व्यक्ति की प्रकृति से संबंधित नहीं होतीं? ये लोग कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते आए हैं, लेकिन वे सत्य नहीं समझते और सोचते हैं कि जो शब्द वे जानते हैं, जैसे कि खुला और निष्कपट होना, खरा और ईमानदार होना, स्पष्ट और स्पष्टवादी होना, सीधा और सच्चा होना इत्यादि, किसी के आचरण करने के बुनियादी सिद्धांत हैं और वे इन चीजों को सत्य सिद्धांत समझते हैं। यह एक पूर्णतया गलत दृष्टिकोण है।
जो लोग आपसी हमलों में लिप्त होते हैं और जो मौखिक झगड़ों में भाग लेने में प्रवृत्त होते हैं, उनमें असामान्य मानवता होती है। इसका पहला पहलू सही-गलत पर बहस करना है; दूसरा है लोगों और चीजों पर लगातार ध्यान केंद्रित करना। तीसरा पहलू क्या है? क्या यह सत्य स्वीकारने से उनका पूर्ण इनकार करना नहीं है? वे एक सही कथन भी नहीं स्वीकार सकते। वे सोचते हैं, “तुम जो कहते हो अगर वह सही है तो भी तुम्हें मेरी इज्जत रखने के लिए मेरी मदद करनी होगी, तुम्हें चतुराई से बात करनी होगी और मुझे ठेस नहीं पहुँचानी होगी। अगर तुम्हारे शब्द कटु हैं और मेरी फजीहत कर सकते हैं तो तुम्हें वे शब्द मुझसे एकांत में कहने चाहिए। मेरे गौरव का कोई खयाल रखे बिना और मुझे इस शर्मनाक स्थिति से बाहर निकलने का कोई मार्ग दिए बिना, तुम्हें बहुत सारे लोगों के सामने मुझे ठेस नहीं पहुँचानी चाहिए। इसके अलावा, तुम जो कहते हो वह गलत है, इसलिए मुझे पलटवार करना होगा!” ज्यादा गंभीर मामलों में ऐसे लोग विरोध करते हैं : “चाहे तुम्हारे शब्द कितने भी सही क्यों न हों, मैं उन्हें नहीं स्वीकारूँगा! अगर तुम किसी और के बारे में बात करो तो ठीक है, लेकिन मुझे निशाना बनाना ठीक नहीं है, भले ही तुम सही हो!” यहाँ तक कि परमेश्वर के वचन पढ़ते समय भी अगर उन्हें लगता है कि परमेश्वर के वचन उन्हें निशाना बना रहे हैं या उजागर कर रहे हैं तो वे उन वचनों से विमुख महसूस करते हैं और उन्हें सुनने के लिए तैयार नहीं होते—बस इतना है कि चूँकि उनका सामना सिर्फ परमेश्वर के वचनों से होता है इसलिए वे उससे बहस नहीं कर सकते। अगर कोई उनके मुँह पर उनकी समस्याओं या अवस्थाओं की ओर इशारा करता है या उन्हें निशाना बनाने का मंतव्य न रखते हुए अनजाने में उनका उल्लेख कर देता है तो वे पलटवार करने और मौखिक झगड़े शुरू करने में सक्षम होते हैं। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि ऐसे व्यक्ति सत्य स्वीकारने से पूरी तरह इनकार करते हैं? (हाँ।) यह उनका मानवता सार है—सत्य स्वीकारने से पूर्ण इनकार। इस तरह, चाहे उनके मौखिक झगड़ों की विषयवस्तु जो भी हो या ये झगड़े जिस भी स्थान पर किए जाएँ, ऐसे लोगों की मानवता स्पष्ट होती है। वे सत्य नहीं समझते और अगर समझते भी हैं तो भी आपसी हमलों में लिप्त रहते हैं और लगातार मौखिक झगड़ों में भाग लेते हैं या अक्सर दूसरों पर हमला करने में प्रवृत्त रहते हैं। उनकी इन अभिव्यक्तियों से आँकें तो, वे कैसे लोग हैं? पहली बात, क्या वे सत्य के प्रेमी हैं? क्या वे ऐसे व्यक्ति हैं जो सत्य समझकर उसका अभ्यास कर सकते हैं? (नहीं।) जब उन्हें समस्याओं का पता चलता है तो क्या वे उन्हें हल करने के लिए सत्य खोज सकते हैं? (नहीं।) जब वे अन्य लोगों के बारे में धारणाएँ, पूर्वाग्रह या व्यक्तिगत राय रखते हैं तो क्या वे सत्य खोजने के लिए उन्हें अलग रखने की पहल कर सकते हैं? (नहीं।) वे इनमें से कुछ नहीं कर सकते। इन सभी चीजों को देखने से, जिन्हें करने में वे असमर्थ होते हैं, यह स्पष्ट है कि दूसरों पर हमला करने और मौखिक झगड़ों में लिप्त होने में प्रवृत्त सभी व्यक्ति अच्छे नहीं होते। उनकी विभिन्न अभिव्यक्तियों से आँकें तो, वे सत्य से प्रेम नहीं करते और उसे खोजने के लिए तैयार नहीं होते। सत्य से जुड़े मामलों में, चाहे वे जो भी पूर्वाग्रह या गलत दृष्टिकोण विकसित करें, वे आत्म-तुष्ट बने रहते हैं और सत्य बिल्कुल नहीं खोजते, यहाँ तक कि जब उनके साथ सत्य पर स्पष्ट रूप से संगति की जाती है, तब भी वे उसे स्वीकारने से इनकार कर देते हैं और उसका अभ्यास करने के लिए तो वे बिल्कुल भी तैयार नहीं होते। साथ ही, ये व्यक्ति एक और भी ज्यादा घृणित अभिव्यक्ति प्रदर्शित करते हैं : कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों की समझ प्राप्त करने के बाद वे इन भव्य धर्म-सिद्धांतों का उपयोग, जिन्हें वे समझते हैं, मनमाने ढंग से दूसरों पर हमला करने, उनकी आलोचना और निंदा करने, यहाँ तक कि उन्हें विवश और नियंत्रित करने के लिए भी करते हैं। अगर वे अपनी आलोचना और निंदा से तुम्हें वश में करने में सफल नहीं होते तो वे खोखले धर्म-सिद्धांतों के साथ तुम्हें विवश करने के हर तरीके के बारे में सोचेंगे। अगर तुम फिर भी नहीं मानते तो वे तुम पर हमला करने के लिए और भी ज्यादा घृणित और भयानक तरीकों का सहारा लेंगे, जब तक कि तुम उन्हें स्वीकार नहीं लेते, कमजोर और नकारात्मक नहीं हो जाते या उनकी प्रशंसा नहीं करने लगते और उनसे नियंत्रित नहीं हो जाते—फिर वे संतुष्ट महसूस करेंगे। तो इन व्यक्तियों के व्यवहार, अभिव्यक्तियों और सत्य के प्रति रवैये के आधार पर, ये किस तरह के लोग हैं? वे सत्य स्वीकारने से पूरी तरह से इनकार करते हैं—यह सत्य के प्रति उनका रवैया है। और उनकी मानवता के बारे में क्या खयाल है? इनमें से ज्यादातर व्यक्ति बुरे लोग हैं; रूढ़िवादी ढंग से कहें तो, उनमें से 90% से ज्यादा बुरे लोग हैं। बुरे लोग हर मामले में सही-गलत स्पष्ट करना पसंद करते हैं, अन्यथा वे इसे छोड़ेंगे नहीं और उनकी हमेशा ऐसी ही प्रवृत्ति रहती है। इसके अतिरिक्त, जब परिस्थितियों से सामना होता है तो बुरे व्यक्ति लोगों और चीजों के बारे में विचार करते हैं और लगातार उन पर ध्यान केंद्रित करते हैं, हमेशा अपने औचित्य प्रस्तुत करते हैं, हमेशा कोशिश करते हैं कि सभी उनसे सहमत हों और उनका समर्थन करें और कहते हैं कि वे सही हैं और किसी को अपने बारे में कुछ भी बुरा नहीं कहने देते। इसके अलावा, जब बुरे लोगों को स्थितियों का सामना करना पड़ता है तो वे हमेशा लोगों को पिंजरे में बंद करने और नियंत्रित करने के अवसर तलाशते हैं। लोगों को नियंत्रित करने के लिए वे क्या तरीका इस्तेमाल करते हैं? वे सभी की निंदा करते हैं, हर दूसरे व्यक्ति को विश्वास दिलाते हैं कि वे अपूर्ण हैं, उनमें समस्याएँ और दोष हैं और वे इन बुरे लोगों से हीन हैं, जिसके बाद बुरे लोग प्रसन्न और खुश महसूस करते हैं। जब वे अन्य सभी को हराकर सिर्फ खुद खड़े रह जाते हैं तो क्या वे सभी को अपने नियंत्रण में नहीं ले लेते? लोगों को नियंत्रित करके वे जो उद्देश्य प्राप्त करते हैं, वह है सभी की निंदा करना और उन्हें नीचे गिराना, सभी को यह विश्वास दिलाना कि वे अक्षम हैं, वे नकारात्मक और कमजोर हो जाते हैं, परमेश्वर के वचनों और सत्य में आस्था खो देते हैं और परमेश्वर में आस्था खो देते हैं और उनके पास अनुसरण करने के लिए कोई मार्ग नहीं है—इसके बाद ये बुरे लोग खुश और संतुष्ट महसूस करते हैं। इन पहलुओं को देखने से क्या यह स्पष्ट नहीं है कि ऐसे व्यक्तियों में अधिकांश बुरे लोग होते हैं? देखो कि किस तरह के लोग समूह में होने पर हमेशा दूसरों पर या तो आमने-सामने या उनकी पीठ पीछे हमला करने में प्रवृत्त होते हैं, दूसरों पर हमला करने के लिए विभिन्न तरीके इस्तेमाल करते हैं—ऐसे लोग बुरे होते हैं। ये व्यक्ति सत्य बिल्कुल नहीं स्वीकारते, न ही वे सत्य पर संगति करते हैं और वे अक्सर स्थिति का लाभ उठाकर डींग हाँकते हैं कि वे अच्छे लोग हैं, वे जो कुछ भी करते हैं वह उचित और पुख्ता होता है और वे एक ईमानदार और निष्कपट तरीके से व्यवहार करते हैं—वे हमेशा डींग हाँकते हैं कि वे शालीन और सम्माननीय लोग हैं और सीधे और न्यायप्रिय व्यक्ति हैं। ये लोग कभी सत्य की गवाही नहीं देते, न ही वे परमेश्वर के वचनों की गवाही देते हैं, वे बस लोगों और चीजों पर लगातार ध्यान केंद्रित करना पसंद करते हैं और अपने औचित्य प्रस्तुत करते हैं। उनका इरादा और उद्देश्य लोगों को यह विश्वास दिलाना होता है कि वे अच्छे लोग हैं और सब कुछ समझते हैं। कलीसिया में उन लोगों से, जो अक्सर आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में लिप्त रहते हैं, चाहे वे हमला करने वाले हों या वे जिन पर हमला किया जाता है, अगर कलीसियाई जीवन अस्त-व्यस्त होता है तो ज्यादातर लोगों को उन्हें चेतावनी देने और प्रतिबंधित करने के लिए खड़े होना चाहिए। इन लोगों को पागलों की तरह बुरे काम करने के लिए समय नहीं दिया जाना चाहिए, न ही उन्हें अपनी व्यक्तिगत शिकायतों और अस्थायी क्रोध के कारण अपनी व्यक्तिगत भड़ास निकालकर और बदला लेने की कोशिश करके दूसरों को प्रभावित करने की अनुमति दी जानी चाहिए। बेशक, कलीसिया के अगुआओं को भी कर्तव्यनिष्ठ तरीके से अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए, इन लोगों को कलीसियाई जीवन अस्त-व्यस्त करने से प्रभावी ढंग से रोकना चाहिए और ज्यादातर लोगों को बाधित होने से बचाना चाहिए। जब लोग आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में लिप्त होते हैं तो कलीसिया के अगुआओं को समय रहते उन्हें रोकने और प्रतिबंधित करने में सक्षम होना चाहिए। अगर उन्हें रोकने और प्रतिबंधित करने से समस्या हल न हो और वे एक-दूसरे पर हमला करना और मौखिक झगड़ों में भाग लेना जारी रखें, दूसरों को परेशान करें और कलीसियाई जीवन को नुकसान पहुँचाते रहें तो ऐसे लोगों को बहिष्कृत या निष्कासित कर देना चाहिए। यह कलीसिया के अगुआओं की जिम्मेदारी है।
हमने उन लोगों के व्यवहार और अभिव्यक्तियों के बारे में काफी चर्चा की है जो आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में लिप्त रहते हैं। हमने अभी-अभी उनकी मानवता का भी संक्षेप में गहन-विश्लेषण कर उस पर संगति की है, जो तुम लोगों को उनकी बेहतर पहचान प्राप्त करने में सक्षम बनाएगी और तुममें से ज्यादातर को यह पता लगाने में कि क्या चल रहा है और उनके बोलने और क्रियाकलाप करने पर समय रहते उनका भेद पहचानने में सक्षम बनाएगी। जितना ज्यादा तुम लोग इन लोगों के सार को समझोगे और जानोगे, उतनी ही जल्दी तुम उनका भेद पहचान पाओगे और नतीजतन तुम उनसे कम परेशान होगे। तुममें से ज्यादातर को इस बारे में स्पष्ट होना चाहिए कि जो लोग आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में लिप्त रहते हैं, वे कलीसियाई जीवन और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को कितना नुकसान पहुँचाते हैं। ऐसे लोग निश्चित रूप से आत्मचिंतन नहीं करेंगे और लड़ना बंद नहीं करेंगे। अगर उन्हें तुरंत सँभाला और बहिष्कृत नहीं किया गया तो वे कलीसियाई जीवन में निरंतर विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करेंगे। इसलिए ऐसे लोगों को सँभालना और बहिष्कृत करना कलीसिया के अगुआओं के कार्य की एक बहुत ही महत्वपूर्ण मद है और इसे अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए।
5 जून 2021
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