अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (15) खंड दो
2. आपसी खुलासे और हमले
कुछ लोगों में परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने में समझने की क्षमता नहीं होती और वे नहीं जानते कि परमेश्वर के वचनों की अपनी अनुभवजन्य समझ के बारे में संगति कैसे करें। वे सिर्फ लोगों को उजागर करने वाले परमेश्वर के वचनों को दूसरों से जोड़ना जानते हैं। इसलिए जब भी वे परमेश्वर के वचनों में निहित सत्य पर संगति करते हैं तो उनके हमेशा व्यक्तिगत उद्देश्य होते हैं; वे हमेशा मौके का फायदा उठाकर दूसरों को उजागर करना और उन पर प्रहार करना चाहते हैं, जिससे कलीसिया में अशांति पैदा होती है। जिन लोगों को उजागर किया जाता है, अगर वे इन स्थितियों को सही तरीके से ले सकें, उन्हें परमेश्वर की ओर से आने वाली स्थितियाँ समझ सकें और समर्पण और धैर्य सीख सकें तो कोई विवाद नहीं होगा। लेकिन यह अपरिहार्य है कि जब कोई व्यक्ति दूसरों को अपनी समस्याओं के बारे में संगति करते हुए और उन्हें उजागर करते हुए सुनता है तो वह विद्रोही महसूस कर सकता है। वह मन ही मन सोचता है, “ऐसा क्यों है कि परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद तुम उनके बारे में अपनी अनुभवजन्य समझ साझा नहीं करते या खुद को जानने के बारे में बात नहीं करते और इसके बजाय सिर्फ मुझ पर हमला करते हो और मुझे निशाना बनाते हो? क्या तुम्हें मैं अप्रिय लगता हूँ? परमेश्वर के वचन पहले ही यह स्पष्ट कर चुके हैं कि मुझमें भ्रष्ट स्वभाव है—क्या तुम्हें वाकई यह कहने की जरूरत है? मुझमें भ्रष्ट स्वभाव हो सकता है, लेकिन क्या तुममें भी भ्रष्ट स्वभाव नहीं है? तुम हमेशा मुझे निशाना बनाते हो, मुझे धोखेबाज कहते हो, लेकिन तुममें भी धूर्तता की कमी नहीं है!” आक्रोश और अवज्ञा से भरे हुए वे एक-दो बार धैर्य रख सकते हैं, लेकिन समय बीतने और अपनी शिकायतें जमा होने के बाद वे भड़क उठते हैं। और जब वे भड़क उठते हैं तो यह विनाशकारी होता है। वे कहते हैं, “जब कुछ लोग कार्यकलाप करते हैं और बोलते हैं तो वे ऊपरी तौर पर बहुत ईमानदार और खुले होने का दिखावा करते हैं, लेकिन असल में वे तमाम तरह के षड्यंत्रों से भरे होते हैं और हमेशा दूसरों के खिलाफ साजिश रचते रहते हैं। जब वे लोगों से बात करते हैं तो कोई भी उनके विचार या इरादे समझ नहीं सकता; वे धोखेबाज लोग हैं। जब हमारा ऐसे व्यक्तियों से सामना होता है तो हम उनसे बातचीत या मेलजोल नहीं कर सकते; वे बहुत भयानक होते हैं। अगर तुम सावधान न रहे तो तुम उनके जाल में फँस जाओगे और उनसे धोखा खाओगे और उनके द्वारा इस्तेमाल किए जाओगे। ऐसे लोग सबसे बुरे होते हैं, जिनसे परमेश्वर सबसे ज्यादा घृणा करता है और जिनसे ज्यादातर लोग चिढ़ते हैं। उन्हें अथाह कुंड में, आग और गंधक की झील में डाल दिया जाना चाहिए!” यह सुनने के बाद दूसरा व्यक्ति सोचता है, “तुममें भ्रष्ट स्वभाव हैं, लेकिन तुम खुद को दूसरों को उजागर नहीं करने देते? तुम बहुत अहंकारी और आत्मतुष्ट हो, इसलिए मैं तुम्हें उजागर करने के लिए परमेश्वर के वचनों का कोई दूसरा अंश ढूँढ़ूँगा और देखूँगा कि तब तुम क्या कहते हो!” उजागर किए जाने के बाद दूसरा व्यक्ति और भी क्रोधित हो जाता है और सोचता है : “तो तुम मामला शांत नहीं होने दोगे, है ना? तुम अभी भी इसे नहीं छोड़ोगे, क्यों? तुम बस मुझे नापसंद करते हो और सोचते हो कि मुझमें भ्रष्ट स्वभाव है, है ना? ठीक है, तो मैं तुम्हें भी उजागर कर दूँगा!” इसलिए वह कहता है, “कुछ लोग बस मसीह-विरोधी होते हैं; उन्हें रुतबा और दूसरों द्वारा की गई प्रशंसा पसंद होती है, वे दूसरों को भाषण देना पसंद करते हैं, दूसरों को उजागर करने और उनकी निंदा करने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग करते हैं जिससे दूसरे लोग सोचते हैं कि खुद उनमें भ्रष्ट स्वभाव नहीं है। वे सब दूसरों से श्रेष्ठ हैं और उन्हें लगता है कि वे पावन बन गए हैं, लेकिन क्या वे सिर्फ गंदे राक्षस नहीं हैं? क्या वे सिर्फ शैतान और दुष्ट आत्माएँ नहीं हैं? मसीह-विरोधी क्या हैं? मसीह-विरोधी शैतान हैं!” उन्होंने कितने राउंड लड़े हैं? क्या कोई विजेता है? (नहीं।) क्या उन्होंने कुछ ऐसा कहा है जो दूसरों को शिक्षित कर सके? (नहीं।) तो ये शब्द क्या हैं? (आलोचना, निंदा।) ये आलोचना हैं। वे वास्तविक स्थिति या तथ्यों की परवाह किए बिना बेतहाशा बोल रहे हैं, मनमाने ढंग से दूसरों की आलोचना और निंदा कर रहे हैं, यहाँ तक कि उन्हें कोस भी रहे हैं। क्या उनके पास दूसरे व्यक्ति को मसीह-विरोधी कहने का कोई तथ्यात्मक आधार है? उस व्यक्ति ने मसीह-विरोधी के कौन-से बुरे कर्म और अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित कीं? क्या उनका भ्रष्ट स्वभाव मसीह-विरोधी के सार के स्तर तक पहुँचता है? जब परमेश्वर के चुने हुए लोग उन्हें दूसरे व्यक्ति को उजागर करते हुए सुनेंगे तो क्या वे इसे वस्तुनिष्ठ और सच्चा मानेंगे? क्या इन दोनों लोगों द्वारा बोले गए शब्दों में कोई दयालुता या अच्छे इरादे हैं? (नहीं।) क्या उनका उद्देश्य खुद को जानने में एक-दूसरे की मदद करना और उन्हें जितनी जल्दी हो सके अपना भ्रष्ट स्वभाव त्यागकर सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम बनाना है? (नहीं।) तो फिर वे ऐसा क्यों कर रहे हैं? यह अपना व्यक्तिगत द्वेष बाहर निकालने, दूसरे पक्ष पर प्रहार कर उससे बदला लेने के लिए है, इसलिए वे मनमाने ढंग से एक-दूसरे पर कुछ ऐसा आरोप लगाते हैं जो तथ्यों से बिल्कुल मेल नहीं खाता। वे परमेश्वर के वचनों और दूसरे व्यक्ति के खुलासों और सार के आधार पर एक-दूसरे का सही ढंग से मूल्यांकन और चरित्र-चित्रण नहीं कर रहे हैं, इसके बजाय वे एक-दूसरे पर प्रहार करने, बदला लेने और अपना व्यक्तिगत द्वेष बाहर निकालने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग कर रहे हैं; वे सत्य पर संगति बिल्कुल नहीं कर रहे हैं। यह एक गंभीर समस्या है। वे हमेशा दूसरे व्यक्ति से संबंधित चीजों का सहारा लेकर उन पर हमला करते हैं और अहंकारी स्वभाव होने के लिए उनकी निंदा करते हैं—यह रवैया भयावह और दुर्भावनापूर्ण है और यह निश्चित रूप से अच्छे इरादे से किया गया खुलासा नहीं है। नतीजतन यह सिर्फ आपसी दुश्मनी और घृणा की ओर ले जाता है। अगर खुलासा प्रेमवश दूसरों की मदद करने के रवैये से किया जाता है तो लोग इसे समझ सकते हैं और वे इसे सही तरीके से ले सकते हैं। लेकिन अगर कोई दूसरे व्यक्ति के अहंकारी स्वभाव का फायदा उठाकर उसकी निंदा और उस पर हमला करता है तो यह पूरी तरह से उस व्यक्ति पर प्रहार करने और उसे सताने के लिए होता है। सभी में अहंकारी स्वभाव होता है, तो हमेशा एक व्यक्ति को ही निशाना क्यों बनाते हो? क्यों हमेशा एक व्यक्ति पर ही ध्यान केंद्रित करते हो और उसे छोड़ते नहीं? लगातार उस एक ही व्यक्ति के अहंकारी स्वभाव को उजागर करना—क्या इसका उद्देश्य वाकई उस स्वभाव को त्यागने में उसकी मदद करना होता है? (नहीं।) तो इसका क्या कारण होता है? कारण यह होता है कि चूँकि उन्हें दूसरा व्यक्ति अप्रिय लगता है, वे उस पर हमला करने और उससे बदला लेने के अवसर तलाशते हैं, हमेशा उसे सताना चाहते हैं। इसलिए जब वे कहते हैं कि दूसरा व्यक्ति मसीह-विरोधी, शैतान, राक्षस, धोखेबाज और कुटिल व्यक्ति है तो क्या यह तथ्यपरक होता है? यह थोड़ा तथ्यों के करीब हो सकता है, लेकिन ये बातें कहने का उनका उद्देश्य दूसरे व्यक्ति की मदद करना या सत्य पर संगति करना नहीं होता, बल्कि अपना व्यक्तिगत द्वेष बाहर निकालना और बदला लेना होता है। उन्हें सताया गया है इसलिए वे बदला लेना चाहते हैं। वे कैसे बदला लेते हैं? दूसरे व्यक्ति को उजागर करके, उसकी निंदा करके, उन्हें राक्षस, शैतान, बुरी आत्मा, मसीह-विरोधी कहकर—उस पर सबसे खराब ठप्पा और सबसे गंभीर आरोप लगाकर। क्या यह मनमानी आलोचना और निंदा नहीं है? ये बातें कहने में दोनों पक्षों का इरादा, उद्देश्य और प्रेरणा खुद को जानने और अपने भ्रष्ट स्वभाव हल करने में दूसरे व्यक्ति की मदद करना नहीं होता, यह उसे परमेश्वर के वचन की वास्तविकता में प्रवेश करने में या सत्य सिद्धांतों को समझने में मदद करना तो बिल्कुल नहीं होता। इसके बजाय वे दूसरे व्यक्ति पर हमला और प्रहार करने की कोशिश कर रहे होते हैं, उसे उजागर करने की कोशिश कर रहे होते हैं ताकि वे अपना व्यक्तिगत द्वेष बाहर निकालने और बदला लेने का अपना उद्देश्य हासिल कर सकें। यह आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में लिप्त होना है। हालाँकि दूसरों पर हमला करने का यह तरीका एक-दूसरे की कमियों का खुलासा करने से ज्यादा आधार वाला लग सकता है और यह परमेश्वर के वचनों को दूसरे व्यक्ति से जोड़कर यह कहना है कि उसमें भ्रष्ट स्वभाव है और वह राक्षस और शैतान है और ऊपरी तौर पर यह काफी आध्यात्मिक लगता है, लेकिन इन दोनों तरीकों की प्रकृति एक जैसी है। इनमें से कोई भी तरीका सामान्य मानवता के भीतर परमेश्वर के वचन और सत्य पर संगति करने से ताल्लुक नहीं रखता, इसके बजाय वे व्यक्तिगत प्राथमिकताओं के आधार पर दूसरे व्यक्ति की गैर-जिम्मेदाराना और मनमाने ढंग से आलोचना करने, निंदा करने, कोसने और व्यक्तिगत हमलों में लिप्त होने से ताल्लुक रखते हैं। इस प्रकृति के संवाद कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधाएँ भी उत्पन्न करते हैं और वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश में हस्तक्षेप कर उसे नुकसान पहुँचाते हैं।
जब तुम लोग दो लोगों को एक-दूसरे के भ्रष्ट स्वभाव उजागर करते हुए आपसी हमलों में लिप्त पाते हो तो तुम्हें क्या करना चाहिए? क्या उन्हें मेज पीटकर भाषण देना जरूरी है? क्या उन पर ठंडे पानी की बाल्टी डालकर उन्हें शांत करना और यह एहसास दिलाना कि वे गलत हैं और एक-दूसरे से माफी मँगवाना जरूरी है? क्या ये तरीके समस्या हल कर सकते हैं? (नहीं।) ये दो व्यक्ति हमेशा हर सभा में लड़ते हैं और हर सभा समाप्त होने के बाद अगली लड़ाई के लिए तैयार हो जाते हैं। घर पर वे अपने हमलों में इस्तेमाल करने के लिए परमेश्वर के वचन और आधार तलाशते हैं, यहाँ तक कि मसौदा भी लिखते हैं और पता लगाते हैं कि दूसरे पक्ष पर कैसे हमला किया जाए, उसके किन पहलुओं पर हमला किया जाए, उसकी आलोचना और निंदा कैसे की जाए, कौन-सा लहजा अपनाया जाए और सबसे विश्वसनीय हमला और निंदा करने के लिए परमेश्वर के किन वचनों का उपयोग किया जाए। दूसरे पक्ष की निंदा और उस पर प्रहार करने के लिए वे विभिन्न आध्यात्मिक शब्द भी तलाशते हैं और अभिव्यक्ति के विभिन्न तरीके इस्तेमाल करते हैं, जिससे वे उसे स्थिति पलटने से रोक पाते हैं और अगली लड़ाई में उसे नीचे गिराने का प्रयास करते हैं और उसके लिए फिर से उठना असंभव बना देते हैं। ये सभी व्यवहार आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में लिप्त होने से संबंधित हैं। क्या ऐसी समस्याएँ सुलझाना आसान है? अगर ज्यादातर लोगों से सलाह, सहायता और सत्य पर संगति प्राप्त करने के बाद भी वे पश्चाताप नहीं करते या अपना रास्ता नहीं बदलते—यानी मिलने पर एक-दूसरे से बहस करते हैं और एक-दूसरे को कोसते हैं, किसी की सलाह नहीं सुनते और जब कोई सत्य पर संगति करता है या उनकी काट-छाँट करता है तो उसे नहीं स्वीकारते—तो क्या करना चाहिए? इसे सँभालना आसान है : उन्हें दूर कर देना चाहिए। क्या इससे समस्या हल नहीं हो जाएगी? क्या यह आसान नहीं है? क्या उनके साथ संगति करते रहना जरूरी है? क्या अब उनकी प्रेम से मदद करना जरूरी है? मुझे बताओ, क्या ऐसे लोगों के प्रति प्रेमपूर्वक सहिष्णुता और धैर्य दिखाना उपयुक्त है? (यह उपयुक्त नहीं है।) यह उपयुक्त क्यों नहीं है? (वे सत्य नहीं स्वीकारते—उनके साथ संगति करने का कोई फायदा नहीं है।) सही कहा, वे सत्य नहीं स्वीकारते। वे सिर्फ मौखिक झगड़ों में लिप्त होने के लिए सभाओं में भाग लेते हैं। वे सत्य का अनुसरण करने के लिए परमेश्वर में विश्वास नहीं करते और उन्हें सिर्फ मौखिक झगड़ों में लिप्त होना पसंद है। क्या यह सामान्य मानवता का खुलासा और अभिव्यक्ति है? क्या उनमें वह तर्कसंगतता है जो सामान्य मानवता में होनी चाहिए? (नहीं।) उनमें सामान्य मानवता की तर्कसंगतता नहीं होती। सभाओं के दौरान ऐसे लोग परमेश्वर के वचनों को ध्यानपूर्वक और उचित तरीके से नहीं पढ़ते ताकि वे परमेश्वर के वचनों से सत्य समझ सकें और प्राप्त कर सकें और इससे अपने भ्रष्ट स्वभाव और समस्याएँ हल कर सकें। इसके बजाय वे हमेशा दूसरों की समस्याएँ हल करना चाहते हैं। उनका ध्यान लगातार दूसरों पर केंद्रित रहता है, वे उनमें दोष ढूँढ़ते रहते हैं; वे हमेशा परमेश्वर के वचनों में दूसरों की समस्याएँ खोजने का लक्ष्य रखते हैं। वे परमेश्वर के वचन पढ़ने और उन पर संगति करने के अवसर का उपयोग दूसरों को उजागर कर उन पर हमला करने के लिए करते हैं और वे परमेश्वर के वचनों का उपयोग दूसरों की आलोचना करने, उनका महत्त्व घटाने और उनकी निंदा करने के लिए करते हैं। और फिर भी वे खुद को परमेश्वर के वचनों से अलग रखते हैं। वे कैसे व्यक्ति हैं? क्या ये वे लोग हैं जो सत्य स्वीकारते हैं? (नहीं।) वे एक चीज में विशेष रूप से अच्छे और उत्सुक होते हैं : परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद वे अक्सर दूसरों में उन विभिन्न समस्याओं, स्थितियों और अभिव्यक्तियों की पहचान करते हैं जिन्हें उसके वचन उजागर करते हैं। जितना ज्यादा वे इन समस्याओं को पहचानते हैं, उतना ही ज्यादा उन्हें लगता है कि उनके कंधों पर एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है और वे मानते हैं कि वे बहुत कुछ कर सकते हैं, उन्हें लगता है कि उन्हें इन समस्याओं को उजागर करना चाहिए। वे ऐसे किसी व्यक्ति को बचकर नहीं जाने देते जिसमें ये समस्याएँ होती हैं। वे कैसे व्यक्ति हैं? क्या ऐसे लोगों में विवेक होता है? क्या उनमें सत्य समझने की योग्यता होती है? (नहीं।) कलीसिया में अगर ऐसे लोग बोलते नहीं या विघ्न उत्पन्न नहीं करते हैं तो उन्हें सँभालने की जरूरत नहीं है। लेकिन अगर वे लगातार इसी तरह से कार्यकलाप करते हैं, हमेशा दूसरों पर हमला, उनकी आलोचना और निंदा करते हैं तो कलीसिया को उन्हें सँभालने के लिए तदनुरूप कार्रवाई करनी चाहिए, उन्हें दूर कर देना चाहिए। जहाँ तक उन लोगों का सवाल है जिन्हें लोगों ने उजागर किया है और जो फिर उन्हीं तरीकों और साधनों का उपयोग करके उन पर हमला, उनकी आलोचना और निंदा करते हैं तो अगर परिस्थितियाँ गंभीर हों और उन्होंने कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधा डाली हो तो उन्हें भी इसी तरह से दूर कर परमेश्वर के चुने हुए लोगों से अलग-थलग कर दिया जाना चाहिए—उनके साथ कोई नरमी नहीं बरती जा सकती।
आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में लिप्त होने की अन्य कौन-सी अभिव्यक्तियाँ कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधा डालने की प्रकृति होने के योग्य हैं? एक-दूसरे की कमियों का खुलासा और व्यक्तिगत द्वेष बाहर निकालने और एक-दूसरे से बदला लेने के लिए एक-दूसरे के भ्रष्ट स्वभाव उजागर करना कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधा डालने की स्पष्ट अभिव्यक्तियाँ हैं। इन दो अभिव्यक्तियों के अलावा दूसरों को जानबूझकर उजागर करने और उनका गहन-विश्लेषण करने के लिए दिल खोलकर बोलने और खुद को उजागर करने और अपना गहन-विश्लेषण करने का दिखावा करना भी है—ऐसा हमला भी कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधा डालने की अभिव्यक्ति है। तो क्या व्यक्ति जो कुछ कहता है वह अगर उसकी अपनी समस्याओं के बारे में न होकर दूसरे लोगों की समस्याओं के बारे में हो तो वह हमला है, चाहे वह स्पष्ट रूप से कहा गया हो या अप्रत्यक्ष रूप से, चतुराई से कहा गया हो? (नहीं।) तो कौन-सी परिस्थितियाँ उसे हमला बनाती हैं? यह जो कहा गया है उसके पीछे के इरादे और उद्देश्य पर निर्भर करता है। अगर लोगों पर प्रहार करने और उनसे बदला लेने के लिए या व्यक्तिगत द्वेष बाहर निकालने के लिए कुछ कहा जाता है तो यह हमला है। एक स्थिति यह है। इसके अलावा, लोगों की आलोचना और निंदा करने के लिए किसी समस्या के सतही पहलुओं को तथ्यों तथा जो सच है उसके विपरीत बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना और समस्या के सार को बिल्कुल न देखते हुए गैर-जिम्मेदाराना तरीके से निष्कर्ष पर पहुँच जाना—यह भी व्यक्तिगत द्वेष बाहर निकालना और बदला लेना है, यह आलोचना और निंदा करना है और ऐसी स्थिति भी एक हमला है। और कुछ? (लोगों के बारे में निराधार अफवाहें फैलाना, क्या यह भी हमला है?) निराधार अफवाहें फैलाना भी निश्चित रूप से हमला है, यह और भी बड़ा हमला है। कितनी स्थितियाँ हमले के अंतर्गत आती हैं? (तीन।) इन स्थितियों का सारांश प्रस्तुत करो। (पहली स्थिति है दूसरों पर किसी खास उद्देश्य से हमला करना। दूसरी स्थिति है दूसरों की उस तरीके से आलोचना और निंदा करना जो तथ्यों और सत्य के विपरीत हो, जो दूसरे लोगों का मनमाने ढंग से गैर-जिम्मेदाराना तरीके से चरित्र-चित्रण करना है। तीसरी स्थिति है लोगों के बारे में निराधार अफवाहें फैलाना।) इन तीनों स्थितियों में से प्रत्येक की प्रकृति उसे व्यक्तिगत हमला बनाती है। हम कैसे फर्क करें कि कौन-सी स्थितियाँ व्यक्तिगत हमला होती हैं और कौन-सी नहीं? जब बात हमला करने वाले लोगों की आती है तो कौन-से कार्यकलाप या शब्द हमला होते हैं? मान लो किसी व्यक्ति के शब्दों में कुछ हद तक अगुआई करने की प्रकृति है और वे दूसरों को गुमराह करने में सक्षम हैं और उनमें अफवाहें गढ़ने का गुण भी है। लोगों को बहकाने और गुमराह करने के लिए वह व्यक्ति बिना बात के बतंगड़ बना रहा है और अफवाहें और झूठ गढ़ रहा है। उसका इरादा और उद्देश्य ज्यादा लोगों से यह स्वीकार कराना और उन्हें यह विश्वास दिलाना है कि वह जो कहता है वह सही है और उन्हें इस बात से सहमत कराना है कि वह जो कहता है वह सत्य के अनुरूप है। साथ ही, वह किसी और से बदला भी लेना चाहता है, उसे नकारात्मक और कमजोर बनाना चाहता है। वह सोचता है, “तुम्हारा चरित्र बहुत ही घिनौना है—मुझे तुम्हारी असली स्थिति को उजागर करना होगा और तुम्हारा यह अहंकार गिराना होगा और तब मैं देखूँगा कि तुम्हारे पास इतराने और दिखावा करने के लिए क्या है! भला मैं तुम्हारे बगल में कैसे खड़ा हो सकता हूँ? जब तक मैं तुम्हें हराकर नकारात्मक नहीं बना देता और नीचे नहीं गिरा देता, तब तक मेरी नफरत दूर नहीं होगी। मैं सबको दिखा दूँगा कि तुम भी नकारात्मक हो सकते हो और तुममें भी कमजोरियाँ हैं!” अगर यही उसका उद्देश्य है तो उसके शब्द हमला हैं। लेकिन मान लो उसका इरादा बस किसी मामले के तथ्य और उसकी सच्चाई स्पष्ट करना है—उस मामले के बारे में एक सटीक अंतर्दृष्टि प्राप्त करने और एक लंबी अवधि के अनुभव से समस्या के सार का पता लगाने के बाद उसे लगता है कि इस पर संगति की जानी चाहिए ताकि ज्यादातर लोग इसे समझ सकें और जान सकें कि इस मामले की किस तरह की समझ शुद्ध है, यानी उसका उद्देश्य इस मामले पर ज्यादा लोगों के विकृत या एकतरफा विचारों को सही करना है—क्या यह हमला है? (नहीं।) वह किसी को अपनी व्यक्तिगत राय स्वीकारने के लिए मजबूर नहीं कर रहा और वह व्यक्तिगत प्रतिशोध का कोई इरादा तो बिल्कुल नहीं रखता। इसके बजाय वह सिर्फ तथ्यों की सच्चाई स्पष्ट करना चाहता है; वह समझने में दूसरे पक्ष की मदद करने और इस समझ के जरिये उसे भटकने से रोकने के लिए प्रेम का इस्तेमाल कर रहा है। दूसरा पक्ष इसे स्वीकार करे या न करे, वह अपनी जिम्मेदारी पूरी करने में सक्षम है। इसलिए यह व्यवहार, यह नजरिया हमला नहीं है। इन दो विभिन्न अभिव्यक्तियों में भाषा, शब्दों के चयन और बोलने के तरीके, लहजे और रवैये से व्यक्ति बता सकता है कि उस व्यक्ति का इरादा और उद्देश्य क्या है। अगर कोई व्यक्ति दूसरे पक्ष पर हमला करने का इरादा रखता है तो उसकी भाषा निश्चित रूप से तीखी होगी और उसके बोलने के लहजे, सुर, शब्द-चयन और रवैये में उसका इरादा और उद्देश्य स्पष्ट होगा। अगर वह दूसरे पक्ष को अपनी बात मानने के लिए मजबूर नहीं कर रहा और निश्चित रूप से उस पर हमला नहीं कर रहा तो उसका भाषण निश्चित रूप से सामान्य मानवता के जमीर और विवेक की अभिव्यक्तियों के अनुरूप होगा। इसके अलावा उसका बोलने का तरीका, लहजा और शब्दों का चयन निश्चित रूप से तर्कसंगत होगा, जो सामान्य मानवता के दायरे में आता है।
व्यक्तिगत हमला क्या है और क्या नहीं, यह पहचानने के सिद्धांतों पर संगति करने के बाद क्या अब तुम लोग इसे समझ पा रहे हो? अगर तुम अभी भी इसे नहीं समझ पा रहे तो तुम इस समस्या के सार की असलियत नहीं जान पाओगे। किसी की संगति चाहे कितनी भी सुखद क्यों न लगे, अगर वह सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास नहीं कर रहा है, अगर उसका उद्देश्य लोगों को सत्य समझने और अपने कर्तव्य ठीक से निभाने में मदद करना नहीं है, बल्कि इसके बजाय लोगों को लगातार परेशान करने के लिए उनके खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए चीजें ढूँढ़ना, उनकी आलोचना और निंदा करने की पूरी कोशिश करना है, और हालाँकि ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है कि वह लोगों का भेद पहचान रहा है, लेकिन असल में उसका इरादा और उद्देश्य दूसरों की निंदा करना और उन पर हमला करना है तो इस स्थिति में व्यक्तिगत हमला शामिल है। लोगों के बीच होने वाली छोटी-छोटी चीजें बहुत सरल और स्पष्ट होती हैं; अगर इन मामलों के बारे में सत्य पर संगति की जाती तो इसमें एक सभा से भी कम समय लगता। तो क्या हर सभा में उनके बारे में बहुत कुछ बोलकर भाई-बहनों का समय जाया करना जरूरी है? यह जरूरी नहीं है। अगर लोग हमेशा दूसरों को लगातार परेशान करते रहते हैं तो यह लोगों पर हमला करना और विघ्न उत्पन्न करना है। क्या कारण है कि लोग एक ही बात पर अड़े रहते हैं और उसके बारे में अंतहीन ढंग से बातें करते रहते हैं? कारण यह है कि कोई भी अपने इरादे और उद्देश्य छोड़ने के लिए तैयार नहीं है, कोई भी खुद को जानने की कोशिश नहीं करता और कोई भी सत्य या तथ्यों को और जो सच है उसे नहीं स्वीकारता, इसलिए वह दूसरों को लगातार परेशान करता रहता है। दूसरों को लगातार परेशान करने की प्रकृति क्या होती है? यह एक हमला है। यह दूसरों के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए चीजें ढूँढ़ना, दूसरे लोगों के शब्द-चयन में दोष ढूँढ़ना और दूसरों की कमियों का उनके खिलाफ इस्तेमाल करना, बस एक ही बात पर अंतहीन रूप से सोचना और तब तक बहस करना जब तक व्यक्ति शर्मिंदा न हो जाए। अगर लोग सामान्य मानवता के भीतर से संगति कर रहे हों, एक-दूसरे का समर्थन और सहायता कर रहे हों—यानी अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हों—तो उनके बीच का रिश्ता ज्यादा से ज्यादा बेहतर होता जाएगा। लेकिन अगर वे एक-दूसरे पर हमला कर बहस करने में लिप्त हों, अपने-अपने औचित्य स्पष्ट करने के लिए एक-दूसरे से उलझ रहे हों, हमेशा अपना पलड़ा भारी रखना चाहते हों, हार नहीं मानना चाहते हों और समझौता नहीं करना चाहते हों, व्यक्तिगत शिकायतें नहीं छोड़ना चाहते हों तो उन दोनों के बीच का संबंध अंततः अधिकाधिक तनावपूर्ण और बद से बदतर होता जाएगा; वह एक सामान्य अंतर्वैयक्तिक संबंध नहीं होगा और वह उस बिंदु तक भी पहुँच सकता है कि जब भी वे मिलें तो उनकी आँखें लाल हो जाएँ। इस बारे में सोचो, जब कुत्ते लड़ते हैं तो खूँखार कुत्ते की आँखें लाल हो जाती हैं। उसकी आँखें लाल होने का क्या मतलब है? क्या यह घृणा से भरा होना नहीं है? क्या एक-दूसरे पर हमला करने वाले लोगों के साथ भी ऐसा ही नहीं है? अगर सत्य पर संगति करते समय लोग एक-दूसरे पर हमला न करें, बल्कि एक-दूसरे की खूबियों का लाभ उठाकर एक-दूसरे की कमियों की भरपाई कर सकें और एक-दूसरे का समर्थन कर सकें तो क्या उनके बीच का रिश्ता खराब होना संभव है? उनका रिश्ता निश्चित रूप से उत्तरोत्तर सामान्य होता जाएगा। जब दो लोग सामान्य मानवता के जमीर और विवेक के भीतर बोलते हैं, बातचीत करते हैं, संगति करते या बहस तक करते हैं तो उनका रिश्ता सामान्य होगा और वे मिलते ही क्रोधित नहीं होंगे या लड़ाई करना शुरू नहीं करेंगे। अगर लोगों में एक-दूसरे को देखे बिना ही, सिर्फ दूसरे पक्ष का उल्लेख किए जाने भर से नफरत और अकथनीय क्रोध की लहर उठती है तो यह सामान्य मानवता का जमीर और विवेक होने की अभिव्यक्ति नहीं है। लोग एक-दूसरे पर हमला इसलिए करते हैं क्योंकि उनमें भ्रष्ट स्वभाव होते हैं; यह उनके परिवेश से पूरी तरह से असंबंधित है। यह सब इसलिए होता है क्योंकि लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, सत्य नहीं स्वीकार सकते और विवाद होने पर सत्य का अभ्यास नहीं करते या सिद्धांतों के आधार पर मामले नहीं सँभालते, इसलिए कलीसियाई जीवन में एक-दूसरे की कमियों के खुलासे, एक-दूसरे की आलोचना, यहाँ तक कि आपसी हमले और एक-दूसरे की निंदा करने के मामले होना आम बात है। चूँकि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं और वे अक्सर विवेकहीनता की स्थिति में होते हैं और वे अपने भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार जीते हैं और भले ही वे कुछ सत्य समझते हों, उनके लिए उसका अभ्यास करना मुश्किल होता है, उनके बीच विवाद और विभिन्न प्रकार के हमले आसानी से उत्पन्न हो जाते हैं। अगर ये हमले कभी-कभार होते हैं तो इनका कलीसियाई जीवन पर सिर्फ अस्थायी प्रभाव पड़ता है, लेकिन जो लोग लगातार आपसी हमलों में प्रवृत्त रहते हैं, वे कलीसियाई जीवन में गंभीर विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करते हैं और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश को भी गंभीर रूप से प्रभावित और बाधित करते हैं।
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