अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (14) खंड चार

ग. निहित स्वार्थों के अनुचित संबंध

अनुचित संबंधों का एक और प्रकार निहित स्वार्थों का है। लोग स्वार्थों की खातिर एक-दूसरे की चापलूसी, उन्नयन, प्रशंसा और खुशामद करने जैसे काम करते हैं। कलीसियाई जीवन में इस तरह का कुटिल आचरण और दुष्ट माहौल लाना दूसरों के द्वारा शांति से परमेश्वर के वचन पढ़ने या साझा किए गए अनुभव सुनने को गंभीर रूप से प्रभावित करता है। जब निहित स्वार्थों का संबंध स्थापित हो जाता है तो उसमें शामिल व्यक्ति अक्सर अपने फायदे के लिए ऐसी बातें कहते या करते हैं जो उनकी इच्छाओं के विरुद्ध होती हैं। उदाहरण के लिए, अगर कोई देखता है कि दूसरा व्यक्ति किसी तरह से उसके व्यवसाय या हितों को लाभ पहुँचा सकता है तो वह उस व्यक्ति को अपना अगुआ चुन सकता है, उसे किसी खास कर्तव्य के लिए नामित कर सकता है या वह व्यक्ति जो कुछ भी कहता है उससे सहमत हो सकता है और चापलूसी करने के लिए यह दावा कर सकता है कि चाहे यह सत्य के अनुरूप हो या नहीं, लेकिन सही है। उसकी चापलूसी करने के लिए वह कई ऐसे काम करता है जो सिद्धांतों के अनुरूप नहीं होते और सत्य के विरुद्ध होते हैं, जो लोगों, घटनाओं और चीजों का भेद पहचानने और सत्य में प्रवेश करने में परमेश्वर के चुने हुए लोगों को परेशान करते हैं। ऐसे लोग गलत और विकृत चीजों को सही बताते हैं, इंसानी धारणाओं और कल्पनाओं को परमेश्वर के इरादों के अनुरूप बताते हैं, और इसी तरह की अन्य बातें करते हैं, और इस तरह लोगों के विचारों और उनके अनुसरण की सही दिशा और लक्ष्य में बाधा डालते हैं। ये सभी व्यवहार उनके द्वारा निहित स्वार्थों के संबंध बनाए रखने से उत्पन्न होते हैं। अपने हितों की रक्षा करने और उन्हें बनाए रखने के लिए वे अपने जमीर के विरुद्ध बोल सकते हैं और सिद्धांतों के विरुद्ध कार्य कर सकते हैं। वे जो कहते और करते हैं, उससे कलीसियाई जीवन में बाधाएँ आती हैं और विध्वंस होता है, जिसके परिणामस्वरूप अंततः और ज्यादा लोग परमेश्वर के वचनों की संगति करने, परमेश्वर के वचनों का प्रार्थना-पाठ करने या सामान्य और व्यवस्थित तरीके से व्यक्तिगत अनुभव साझा करने में असमर्थ हो जाते हैं जिससे लोगों के जीवन प्रवेश में नुकसान होता है। जब लोग अपनी व्यक्तिगत अनुभवजन्य समझ की संगति करते हैं तो अक्सर लोगों के निहित स्वार्थों के संबंध उसमें हस्तक्षेप करते हैं; कुछ मौखिक हस्तक्षेप होते हैं, कुछ व्यवहारगत हस्तक्षेप होते हैं और कुछ अन्य लक्ष्यों और दिशाओं से संबंधित हस्तक्षेप होते हैं। सत्य पर संगति करते समय और परमेश्वर के वचन का प्रार्थना-पाठ करते समय लोगों को अक्सर बाधित किया जाता है, अक्सर विषय से भटकाया जाता है और अलग-अलग मात्राओं में अक्सर प्रभावित किया जाता है। इसलिए जो लोग निहित स्वार्थों के अनुचित संबंधों और संबंधित व्यवहारों में लिप्त हैं, उन्हें प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। इन मुद्दों का सामना करने वाले कलीसिया के अगुआओं को आँखें नहीं मूँदनी चाहिए और उन्हें निश्चित रूप से ऐसे बुरे कामों में लिप्त नहीं होना चाहिए और कलीसियाई जीवन में ऐसे मामलों के होने को अनदेखा नहीं करना चाहिए। इसके बजाय उन्हें सतर्क और समझदार होना चाहिए और तुरंत उन्हें रोकना और प्रतिबंधित करना चाहिए।

निहित स्वार्थों के अनुचित संबंधों में लिप्त होना कलीसिया में आम बात है। उदाहरण के लिए, अगर कोई कलीसिया के अगले अगुआ का चुनाव लड़ने की योजना बनाता है, तो वह लोगों के एक समूह को इसमें शामिल कर उन्हें अपने विचार बता सकता है। ये लोग मूर्ख नहीं होते; वे संकेत देते हैं : “अगर हम तुम्हें चुन लें तो तुम हमें क्या लाभ प्रदान करोगे?” इस तरह उनके बीच निहित स्वार्थों पर आधारित संबंध बन जाता है। अपने निहित स्वार्थ बनाए रखने के लिए वे सभाओं के दौरान अक्सर मुद्दों पर एक-जैसा रुख अपनाते हैं। दूसरों को पता चलने दिए बिना या उनकी पृष्ठभूमि जाने बिना वे हमेशा इस बारे में बात करते हैं कि अमुक व्यक्ति कितना अच्छा है, दूसरा व्यक्ति जो करता है उसे कैसे परमेश्वर की अनुमति और आशीष प्राप्त है, किसने चढ़ावा चढ़ाया है और कितना चढ़ाया है और किसने परमेश्वर के घर में क्या योगदान दिया है, वे अक्सर एक-दूसरे की प्रशंसा के गीत गाते हैं और एक-दूसरे की सराहना करते हैं। कलीसियाई जीवन में वे अक्सर ये चीजें पहले से बनी सहमति और अपने आपसी हित बनाए रखने के लिए करते हैं। उदाहरण के लिए, कोई कह सकता है, “अगर तुम मुझे अगुआ चुनते हो तो अपना पद ग्रहण करने के बाद मैं तुम्हें समूह का अगुआ बना दूँगा।” क्या वे सभी व्यक्तिगत लाभ नहीं खोज रहे हैं? अपने हित साकार करने के लिए क्या उन्हें कुछ खास बातें कहने या कुछ खास क्रियाकलाप करने की जरूरत नहीं पड़ती? इस तरह वे सभाओं के दौरान विभिन्न प्रकार की अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करते हैं, जिनका उद्देश्य उनके बीच पहले बनी आम सहमति और उसमें शामिल हित बनाए रखना होता है। अपना लक्ष्य प्राप्त करने से पहले वे जो कुछ भी करते हैं उसका ज्यादातर हिस्सा हितों से प्रेरित होता है। तो क्या वे जो कहते और करते हैं उसके पीछे के इरादे और उद्देश्य बिल्कुल अनुचित नहीं होते? क्या उनके बीच स्थापित संबंध अनुचित नहीं होता? क्या कलीसिया के भीतर ऐसे अनुचित संबंध प्रतिबंधित नहीं किए जाने चाहिए? कुछ लोग कहते हैं, “अगर उनका पता नहीं चलेगा तो हम उन्हें प्रतिबंधित कैसे कर सकते हैं?” ऐसे मामले किए ही न जाएँ तो बात अलग है, वरना जब किए जाते हैं तो पता लगाए जा सकते हैं और उजागर किए जा सकते हैं। अगर लोग सत्य से असंबंधित किसी चीज की मिलावट किए बिना, सत्य और अपनी व्यक्तिगत समझ और अनुभवों के बारे में सही तरीके से संगति करते हैं तो हर कोई उसे समझ सकता है। अगर मिलावट हो तो लोग उसे भी पहचान सकते हैं। इसलिए कलीसिया में आपसी हितों के रखरखाव के लिए बनने वाले विभिन्न लेनदेनगत संबंध भी प्रतिबंधित किए जाने चाहिए; कम से कम, इसमें शामिल लोगों को चेतावनी देनी चाहिए और उनके साथ संगति करनी चाहिए, ताकि वे अपने मुद्दे पहचान सकें और ऐसी गतिविधियों में शामिल होने के गंभीर परिणाम समझ सकें, साथ ही भाई-बहनों को भी इन मामलों की प्रकृति समझने में सक्षम बना सकें। इस तरह की गतिविधि का ज्यादातर लोगों पर क्या प्रभाव पड़ता है? इससे लोग यह सोचने लगते हैं कि कलीसिया और समाज के बीच ज्यादा अंतर नहीं है, दोनों ही ऐसे स्थान हैं जहाँ हर कोई एक-दूसरे का शोषण करता है और लोग अपने लाभों के लिए लेनदेन करते हैं। यह व्यवहार कोई मामूली बाधा नहीं है बल्कि कलीसियाई जीवन में एक गंभीर बाधा बनती है। मुझे बताओ, क्या चुनाव में वोट पाने के लिए लगातार लोगों को फुसलाने, चुनाव में हेरफेर करने और अगुआ का पद हासिल करने के लिए असामान्य तरीके इस्तेमाल करने वाला व्यक्ति अच्छा व्यक्ति होता है? स्पष्ट रूप से, इस तरह चुने गए अगुआ अच्छे लोग नहीं होते। उनके हाथों में जो भाई-बहन हैं, क्या वे किसी भलाई की उम्मीद कर सकते हैं? अगर कोई व्यक्ति सिद्धांतों के आधार पर चुने जाने के बजाय असामान्य तरीकों से अगुआ बनता है तो ऐसा अगुआ निश्चित रूप से अच्छा व्यक्ति नहीं होता। अगर उसे अगुआई करने दी जाती है तो यह भाई-बहनों को किसी बुरे व्यक्ति, किसी मसीह-विरोधी को सौंपने के बराबर है, जिसमें ज्यादातर लोग प्रभावी रूप से शैतान के हाथों में सौंप दिए जाते हैं; ऐसी स्थिति में उनके कलीसियाई जीवन के नतीजे स्वतः स्पष्ट होंगे। यह एक प्रकार का हितों से जुड़ा अनुचित संबंध है। चाहे समूहों के बीच हों या व्यक्तियों के बीच, जब लोगों के बीच बने संबंधों में हित शामिल होते हैं तो वे परमेश्वर के घर के हित बनाए रखने के सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने के बजाय अपने क्रियाकलापों में व्यक्तिगत लाभों की ओर ज्यादा झुकेंगे। ऐसे संबंध सामान्य मानवता के जमीर और विवेक पर आधारित नहीं होते, बल्कि जमीर और विवेक दोनों के विपरीत होते हैं और सत्य सिद्धांतों के तो और भी ज्यादा विपरीत होते हैं। वे जो कहते, करते और प्रदर्शित करते हैं, उसके साथ-साथ उनके इरादे, उद्देश्य, प्रेरणाएँ, स्रोत इत्यादि सभी हितों से प्रेरित होते हैं; इस प्रकार इन संबंधों को अनुचित संबंधों के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। चूँकि ऐसे संबंधों का होना परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए कलीसियाई जीवन जीने में बाधा पैदा करता है, ज्यादातर लोगों के लिए परमेश्वर के वचन पढ़ना और परमेश्वर के सामने शांति से सत्य पर संगति करना मुश्किल बना देता है, इसलिए कलीसिया के भीतर ऐसे अनुचित संबंध प्रतिबंधित कर देने चाहिए। जो मामले गंभीर हों और उनमें बुरे लोगों का व्यवहार शामिल हो, उनके लिए चेतावनी जारी करनी चाहिए और अगर उनमें शामिल लोग किसी भी हालत में पश्चात्ताप न करते हों तो उन्हें कलीसिया से बाहर निकाल देना चाहिए।

घ. व्यक्तियों के बीच नफरत

अनुचित अंतर्वैयक्तिक संबंधों की कई अभिव्यक्तियाँ होती हैं। उनमें से एक और है व्यक्तिगत नफरत। उदाहरण के लिए, परिवारों में सास-बहू के बीच, ननद-भाभी के बीच या भाई-भाई के बीच मनमुटाव या विवाद हो सकता है या फिर वह पड़ोसियों के बीच भी हो सकता है। कभी-कभी यह नफरत में भी बदल जाता है और तब शत्रुओं की तरह ये लोग परस्पर सहयोग या मिलकर काम नहीं कर पाते, यहाँ तक कि एक-दूसरे का चेहरा भी नहीं देख सकते और जब कभी ऐसा करते हैं तब बहस और लड़ाई करते हैं। जब वे सभाओं में एक-दूसरे को देखते हैं तब भी उनके दिल नफरत से भरे होते हैं और वे परमेश्वर के सामने परमेश्वर के वचन का आनंद लेने और खुद पर चिंतन करने और खुद को जानने के लिए शांत नहीं रह पाते और निश्चित रूप से वे एक सामान्य सभा के लिए अपने पूर्वाग्रह और नफरत नहीं छोड़ पाते। इसके बजाय जब भी वे मिलते हैं तो लड़ाई-झगड़ा करने लगते हैं, वे एक-दूसरे की कमियाँ उजागर कर एक-दूसरे पर हमला करते हैं, यहाँ तक कि एक-दूसरे को गाली भी देते हैं, जिसका परमेश्वर के चुने हुए लोगों पर गहरा नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। ऐसे लोग छद्म-विश्वासी हैं, वे गैर-विश्वासी हैं। जो लोग ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास और सत्य से प्रेम करते हैं, चाहे कुछ भी हो जाए या उनका किसी से भी विवाद हो या वे किसी के भी प्रति पूर्वाग्रह रखते हों, वे सत्य खोजने, आत्मचिंतन कर खुद को जानने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार मुद्दे हल करने में सक्षम होते हैं। अगर उन्होंने कुछ गलत किया होता है और अगर वे किसी के कर्जदार होते हैं तो वे आगे बढ़कर क्षमा माँग सकते हैं और अपनी गलतियाँ स्वीकार सकते हैं; वे सभाओं में बहस करने या परेशानी पैदा करने का सहारा बिल्कुल नहीं लेते। कलीसिया में विवादों में संलग्न होना और हंगामा खड़ा करना संतों की मर्यादा के अनुरूप बिल्कुल नहीं होता; ऐसा व्यवहार परमेश्वर को बहुत लज्जित करता है। इस तरह पेश आने वाले लोगों में मानवता, जमीर और विवेक की बहुत कमी होती है; वे परमेश्वर के सच्चे विश्वासी बिल्कुल नहीं होते। यह समस्या नए विश्वासियों में अपेक्षाकृत ज्यादा आम है। चूँकि नए विश्वासी सत्य नहीं समझते और उनके भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध नहीं किए गए होते, अतः उनके लिए कई चीजों पर विवाद करना, यहाँ तक कि अपना गरममिजाज फूटने देना और खुद को झगड़ों में उलझाना आसान होता है। अगर इन भ्रष्ट स्वभावों का समाधान नहीं किया जाता तो लोग अपने दिलों में नफरत पालेंगे और कलीसियाई जीवन जीते हुए भी वे इस गरममिजाज स्वभाव और नफरत के साथ अंतहीन विवादों में उलझे रहेंगे। यह कलीसियाई जीवन को प्रभावित करता है, परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा परमेश्वर का वचन खाने-पीने, परमेश्वर की स्तुति करने और परमेश्वर के वचनों की अपनी अनुभवजन्य समझ साझा करने को प्रभावित करता है। यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश को भी सीधे प्रभावित करता है। कुछ नए विश्वासी छोटी-छोटी बातों पर असहमति के कारण आसानी से विवादों में पड़ जाते हैं। उदाहरण के लिए, सभा शुरू होने से पहले हो सकता है कुछ लोग एक भजन गाना चाहते हों जबकि दूसरे लोग कोई दूसरा भजन गाना चाहते हों—ऐसी छोटी-सी बात भी आसानी से विवादों को जन्म दे सकती है। इसी तरह किसी मामले पर अलग-अलग राय कभी-कभी तेजी से बहस में बदल सकती है, यहाँ तक कि बोलते समय लिहाज नहीं रखने के कारण किसी को बुरा लगना भी बहस की चिंगारी भड़का सकता है। नए विश्वासियों के बीच इस तरह की घटनाएँ आम होती हैं। जब सभाओं के दौरान विवाद उत्पन्न होते हैं तो वे स्वाभाविक रूप से कलीसियाई जीवन में बाधा पैदा करते हैं। क्या यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों को भी बाधित नहीं करता? जिन लोगों में तर्क-वितर्क करने और सही-गलत पर बहस करने की प्रवृत्ति होती है, वे सर्वाधिक आसानी से कलीसियाई जीवन में बाधा पैदा करते हैं। वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों के हितों पर विचार न करके सिर्फ अपना अहं संतुष्ट करने और अपनी इज्जत चमकाने की परवाह करते हैं। ऐसा करके क्या वे कलीसियाई जीवन में बाधा पैदा नहीं करते? (हाँ, करते हैं।) कलीसिया ऐसी जगह है जहाँ भाई-बहन परमेश्वर के वचन खाने-पीने और उनका आनंद लेने के लिए इकट्ठे होते हैं; यह परमेश्वर के प्रति समर्पण और उसकी आराधना करने की जगह है। यह व्यक्तिगत भड़ास निकालने की जगह बिल्कुल नहीं है और सही-गलत पर झगड़ा या बहस करने की जगह भी निश्चित रूप से नहीं है। जब ऐसे लोग इस तरह से बाधा पैदा करते हैं तो इसके क्या परिणाम होते हैं? इसका सीधा परिणाम यह होता है कि सभाओं में आनंद नहीं मिलता; यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों को जीवन-शिक्षा प्राप्त करने में असमर्थ बनाता है, यहाँ तक कि ज्यादातर लोगों को सुकून तक नहीं मिल पाता जिससे उन्हें अवर्णनीय पीड़ा होती है। समय बीतने के साथ कुछ लोग निष्क्रिय और कमजोर हो जाते हैं, यहाँ तक कि सभाओं में आने से भी कतराने लगते हैं। यह स्थिति ज्यादातर कलीसियाओं में आम है और यह ऐसी चीज है जिसे परमेश्वर के सभी चुने हुए लोगों ने अनुभव किया है। तो सभाओं में अक्सर होने वाली बहस और झगड़ों का मुद्दा कैसे हल किया जाए? इस मुद्दे से संबंधित परमेश्वर के वचनों के कई अंश चुनकर सभाओं के दौरान कई बार मिलकर पढ़ने चाहिए; फिर, सभी को सत्य पर संगति कर अपनी समझ साझा करनी चाहिए। इस नजरिये से कुछ नतीजे मिल सकते हैं। इससे न सिर्फ बहस करने की प्रवृत्ति रखने वाले लोग अपने अपराध पहचानकर पछतावा महसूस कर सकते हैं, बल्कि देखने वाले भी इस बात पर विचार कर सकते हैं कि कहीं उन्होंने भी तो समान परिस्थितियों में अपने भ्रष्ट स्वभाव प्रकट नहीं किए और कहीं वे भी तो दूसरों के साथ बहस करने में सक्षम नहीं हैं—इस तरह देखने वाले भी खुद को जान सकते हैं। चाहे कोई विवादों में शामिल होता हो या न होता हो, परमेश्वर के वचनों के कई अंश कई बार पढ़ने के बाद वे अपने भ्रष्ट स्वभाव पहचान सकते हैं और देख सकते हैं कि भ्रष्ट स्वभावों से जीने का मतलब वास्तव में जमीर और विवेक की कमी होना और रत्ती भर भी मानवता न होना है। इस तरह से कलीसियाई जीवन जीने के प्रभाव बुरे नहीं होते, है ना? हालाँकि किसी सभा की शुरुआत में विवाद हो सकते हैं, लेकिन अगर बाद में हर कोई परमेश्वर के वचन पढ़ सकता हो, आत्मचिंतन करने के लिए परमेश्वर के सामने शांत रह सकता हो, सत्य से समस्याएँ हल कर सकता हो और सच में पश्चात्ताप कर सकता हो—अगर ये नतीजे हासिल किए जा सकते हों—तो यह सामान्य कलीसियाई जीवन है। इसलिए सभाओं के दौरान जो कुछ भी होता है वह जरूरी नहीं कि बुरा ही हो; अगर सभी दिल और दिमाग से साथ होकर सत्य खोजने के लिए आते हैं और परमेश्वर के वचनों के कई प्रासंगिक अंश कुछ बार मिलकर पढ़ते हैं तो भले ही समस्याएँ पूरी तरह से हल न की जा सकें, फिर भी लोग कुछ हद तक उनकी असलियत जान पाएँगे और कुछ विवेक प्राप्त कर पाएँगे—इससे सभी को लाभ होगा। क्या तुम लोग कहोगे कि ऐसा कलीसियाई जीवन पाना मुश्किल है? यह किसी बुरी चीज को अच्छी चीज में बदलना है, यह कुछ हद तक छुपा हुआ आशीष है। लेकिन इससे लोगों को इस विचार का समर्थन नहीं करना चाहिए कि कलीसियाई जीवन में विवाद और बहस वांछनीय हैं; इसका समर्थन बिल्कुल नहीं किया जा सकता। विवाद और बहस आसानी से गुस्से और झगड़े का कारण बन सकते हैं, जो सभी के लिए बुरा है और इसमें शामिल लोगों के लिए व्यक्तिगत संकट पैदा करता है। इसलिए मुद्दे हल करने के लिए सत्य खोजना सबसे अच्छा तरीका है और सत्य समझने से भविष्य में इसी प्रकार की घटनाएँ प्रभावी ढंग से रोकी जा सकती हैं। वैमनस्य और टकराव पैदा होने पर समझदार व्यक्तियों को धैर्य और सहनशीलता का रवैया अपनाना चाहिए। चूँकि उनमें भी भ्रष्ट स्वभाव होते हैं और वे दूसरों को आसानी से आहत कर सकते हैं, इसलिए अपने भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करने पर उन्हें तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और मुद्दे हल करने के लिए सत्य खोजना चाहिए। इस तरह, सभा के समय तक व्यक्तिगत आक्रोश और नफरत सब गायब हो जाते हैं, जिससे उनके दिलों में मुक्ति की भावना पैदा होती है और भाई-बहनों के साथ सौहार्दपूर्ण ढंग से रहना आसान हो जाता है, जिससे सामंजस्यपूर्ण सहयोग को बढ़ावा मिलता है। जब भी कोई किसी भाई या बहन को अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते देखता है तो उसकी आलोचना या निंदा करने या उसे अस्वीकार करने के बजाय उसे प्यार से मदद की पेशकश करनी चाहिए। हो सकता है मदद की एक-दो कोशिशों के बाद भी समस्याएँ हल न हों, लेकिन फिर भी धैर्य और सहनशीलता अपेक्षित है। अगर वे कलीसियाई जीवन में विघ्न नहीं डालते या जानबूझकर बुरे काम नहीं करते तो उनके साथ अंत तक धैर्य और सहनशीलता से पेश आना चाहिए—एक दिन आएगा जब उन्हें समझ आ जाएगी। अगर किसी में बुरी मानवता है और वह कोई मदद लेने से इनकार करता है, सत्य नहीं स्वीकारता चाहे उस पर किसी भी तरह से संगति की जाए तो वह ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास नहीं करता और ऐसे व्यक्तियों से दूरी बनाए रखना जरूरी है। अगर वह कलीसियाई जीवन में बार-बार विघ्न डालता है तो उसके साथ सिद्धांतों के अनुसार पेश आना और निपटना चाहिए। अगर वह बुरा आदमी नहीं है, बल्कि अक्सर सिर्फ अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता है, खुद से घृणा करता है लेकिन उस समय कुछ और करने में असमर्थ महसूस करता है तो ऐसे व्यक्तियों की प्रेम से मदद करनी चाहिए; उसे सत्य समझने और भ्रष्टता के अपने खुलासों को पहचानने में मदद करनी चाहिए—इस तरह भ्रष्टता के उसके खुलासे धीरे-धीरे कम हो जाएँगे। अगर भाई-बहन इन लोगों से कभी-कभार ही प्रभावित होते हैं तो इन्हें माफ किया जा सकता है; अगर उनकी मानवता में कोई बड़ी समस्या न हो और वे धोखेबाज या बुरे लोग न हों तो सत्य पर संगति के माध्यम से उन्हें समर्थन और सहायता देनी चाहिए। अगर वे सत्य स्वीकार कर सकते हों तो उनके साथ प्रेम से व्यवहार करना चाहिए। लेकिन अगर वे पश्चात्ताप करने से इनकार करते हों और कलीसियाई जीवन को लंबे समय तक नकारात्मक रूप से प्रभावित करते हों तो कलीसिया के अगुआओं को उन्हें चेतावनी जारी करनी चाहिए और उन पर प्रतिबंध लगाने चाहिए। अगर वे सत्य स्वीकारने से लगातार इनकार करते हैं तो ऐसे व्यक्ति बुरे लोग होते हैं। बुरे लोग किसी के साथ मिलजुलकर नहीं रह सकते, वे सड़े हुए सेब की तरह होते हैं और राक्षस होते हैं। उन्हें कलीसिया में रखने से सिर्फ गड़बड़ियाँ और बाधाएँ ही पैदा होंगी। इसलिए जो लोग बार-बार चेतावनी देने के बावजूद बदलने से इनकार करते हैं, उनसे बुरे लोगों की तरह निपटना चाहिए और उन्हें कलीसिया से बाहर निकाल देना चाहिए। जो कोई भी अक्सर कलीसिया के जीवन और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश में बाधा डालता है, वह छद्म-विश्वासी होता है और बुरा व्यक्ति होता है और उसे कलीसिया से बाहर निकाल दिया जाना चाहिए। चाहे वह व्यक्ति कोई भी हो या उसने अतीत में कैसे भी काम किया हो, अगर वह अक्सर कलीसिया के काम और कलीसिया के जीवन में बाधा डालता है, काट-छाँट से इनकार करता है, और हमेशा दोषपूर्ण तर्क के साथ खुद का बचाव करता है, तो उसे कलीसिया से बाहर निकाल दिया जाना चाहिए। यह दृष्टिकोण पूरी तरह से कलीसिया के काम की सामान्य प्रगति को बनाए रखने और पूरी तरह से सत्य सिद्धांतों और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप रहने वाले परमेश्वर के चुने हुए लोगों के हितों की रक्षा करने के लिए है। परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश और कलीसिया के काम को कुछ बुरे व्यक्तियों के विवादों और अनुचित परेशानियों से प्रभावित नहीं होने देना चाहिए—यह इसके लायक नहीं है और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए अनुचित भी है।

यदि बुरे लोग अक्सर कलीसिया में बाधाएँ पैदा करते हैं, जिनसे कलीसिया का जीवन अप्रभावी हो जाता है, तो सबसे अच्छा समाधान लोगों को वर्गीकृत करना और सभाओं को अलग-अलग समूहों में विभाजित करना है : सत्य से प्रेम और ईमानदारी से अपने कर्तव्यों का पालन करने वाले एक साथ इकट्ठा हों; जो लोग सत्य का अनुसरण करना चाहते हैं, लेकिन अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करते, वे एक साथ इकट्ठा हों; और जो विघ्न-बाधाएँ पैदा करना, दूसरों के बारे में गपशप करना, और दूसरों की आलोचना और निंदा करना पसंद करते हैं, वे एक साथ इकट्ठा हों। इस तरह कलीसिया को मुख्य रूप से लोगों के तीन समूहों में विभाजित किया जा सकता है—तुम कह सकते हो कि यह सभी को उनकी किस्म के अनुसार छाँटना है—इस प्रकार यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि ये समूह सभाओं के दौरान एक-दूसरे के साथ हस्तक्षेप न करें। बुरी मानवता वाले लोग, चाहे जितना भी बिना सोचे-समझे गलत काम करें, दूसरों को प्रभावित नहीं कर सकेंगे बल्कि केवल खुद को नुकसान पहुँचाएँगे। कुछ लोगों का स्वभाव बहुत क्रूरतापूर्ण होता है। यदि कोई उन्हें चोट पहुँचाने वाली या अपमानित करने वाली बात करता है, तो वे उस व्यक्ति से घृणा करते हैं, और उस पर हमला करने और प्रतिशोध लेने के तरीकों के बारे में सोचते हैं। उनके साथ सत्य पर चाहे जैसे संगति की जाए, या उनकी कैसी भी काट-छाँट की जाए, वे इसे स्वीकार नहीं करते। वे पश्चात्ताप करने के बजाय मर जाना पसंद करेंगे, और कलीसिया के जीवन को बाधित करना जारी रखेंगे। इससे साबित होता है कि वे बुरे लोग हैं। हम इस तरह के बुरे लोगों को बरदाश्त नहीं कर सकते। उन्हें सत्य सिद्धांतों के अनुसार कलीसिया से बाहर निकाल देना चाहिए। इस समस्या को पूरी तरह से हल करने का यही एक तरीका है। चाहे उन्होंने कोई भी गलती की हो या कोई भी बुरा काम किया हो, क्रूर स्वभाव वाले ये लोग किसी को भी उन्हें उजागर करने या उनकी काट-छाँट नहीं करने देंगे। अगर कोई उन्हें उजागर करे और नाराज करे, तो वे क्रोधित हो जाते हैं, जवाबी कार्रवाई करते हैं और मुद्दे को कभी नहीं छोड़ते। उनमें धैर्य और दूसरों के प्रति सहनशीलता नहीं होती, और वे उनके प्रति आत्म-नियंत्रण नहीं दिखाते। उनका स्व-आचरण किस सिद्धांत पर आधारित होता है? “मैं धोखा खाने के बजाय धोखा देना पसंद करूँगा।” दूसरे शब्दों में, कोई उन्हें नाराज करे, वे इसे बरदाश्त नहीं करते। क्या यह बुरे लोगों का तर्क नहीं है? यह ठीक बुरे लोगों का तर्क ही है। कोई भी उन्हें नाराज नहीं कर सकता। उन्हें किसी के भी द्वारा थोड़ा सा भी छेड़ा जाना अस्वीकार्य होता है, और वे ऐसा करने वाले किसी भी व्यक्ति से घृणा करते हैं। वे उस व्यक्ति के पीछे लग जाते हैं, कभी भी मामले को खत्म नहीं होने देते—बुरे लोग ऐसे ही होते हैं। जैसे ही तुम्हें पता चले कि बुरे लोगों में बुरे व्यक्ति का सार है तो इससे पहले कि वे कोई बड़ी बुराई कर सकें, तुम्हें उन्हें अलग-थलग कर देना या उन्हें बाहर निकाल देना चाहिए। ऐसा करने से उनके द्वारा किया जाने वाला नुकसान कम हो जाएगा; यह एक बुद्धिमानी भरा चुनाव है। अगर अगुआ और कार्यकर्ता तब तक इंतजार करते हैं जब तक कि कोई बुरा व्यक्ति किसी तरह की आपदा न ले आए, तो इसका मतलब है कि वे निष्क्रिय हैं। इससे यह सिद्ध होगा कि अगुआ और कार्यकर्ता बहुत मूर्ख हैं, और उनके कार्यों में कोई सिद्धांत नहीं है। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता ऐसे होते हैं जो इतने ही मूर्ख और अज्ञानी होते हैं। वे बुरे लोगों से निपटने से पहले निर्णायक सबूत मिलने तक इंतजार करने पर जोर देते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि यही एक तरीका है जिससे उनका दिमाग शांत रहेगा। लेकिन वास्तव में यह सुनिश्चित करने के लिए तुम्हें किसी निर्णायक सबूत की आवश्यकता नहीं है कि कोई व्यक्ति बुरा है। तुम उनके रोजमर्रा के शब्दों और कार्यों से यह जान सकते हो। एक बार जब तुमको यकीन हो जाए कि वे बुरे हैं, तो तुम उन्हें प्रतिबंधित करने या अलग करने से शुरूआत कर सकते हो। इससे सुनिश्चित होगा कि कलीसिया के काम और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश को नुकसान न पहुँचे। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता यह नहीं पहचान पाते कि कौन बुरा है, न ही वे समय पर बुरे लोगों से निपट पाते हैं। परिणामस्वरूप, कलीसिया का कार्य और कलीसिया का जीवन प्रभावित होता है, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश में बाधा आती है। यह बहुत मूर्खतापूर्ण है। नकली अगुआ इसी तरह काम करते हैं। एक बात तो यह है कि वे भेद नहीं पहचान पाते, और दूसरी बात यह है कि वे खुशामदी होते हैं, जो दूसरों को नाराज करने से डरते हैं। अगुआ के रूप में सेवा करते समय, ऐसे लोग पहले तो वास्तविक कार्य नहीं कर सकते; और दूसरी बात कि वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाते हैं। वे बुरे लोगों द्वारा उत्पन्न की गई बाधाओं की समस्या को भी तुरंत हल नहीं कर सकते, न ही वे भाई-बहनों की रक्षा कर सकते हैं; ऐसे लोग अगुआ और कार्यकर्ता बनने के योग्य नहीं हैं। मुझे बताओ, अगर कोई व्यक्ति बुरे व्यक्ति के रूप में चिह्नित किया जाता है, तो क्या उसकी मदद करने के लिए अभी भी सत्य पर संगति करने की जरूरत है? (नहीं।) उन्हें मौका देने की कोई जरूरत नहीं है। कुछ लोगों में कुछ ज्यादा ही “प्रेम” होता है, और वे हमेशा बुरों को पश्चात्ताप करने का मौका देते रहते हैं, लेकिन क्या इससे कोई प्रभाव पड़ सकता है? क्या यह परमेश्वर के वचनों के सिद्धांतों के अनुरूप है? क्या तुमने कोई ऐसा बुरा व्यक्ति देखा है जो वास्तव में पश्चात्ताप कर सकता हो? ऐसा कभी किसी ने नहीं देखा। बुरे लोगों से पश्चात्ताप की उम्मीद करना जहरीले साँपों पर दया करने जैसा है; यह जंगली जानवरों पर दया करने जैसा है। ऐसा इसलिए है क्योंकि बुरे लोगों के सार के आधार पर यह निर्धारित किया जा सकता है कि बुरे लोग कभी भी सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करेंगे, कभी सत्य को स्वीकार नहीं करेंगे और कभी भी पश्चात्ताप नहीं करेंगे। तुम्हें उनके शब्दकोश में “पश्चात्ताप” शब्द नहीं मिलेगा। तुम उनके साथ सत्य के बारे में चाहे जैसी संगति करो, वे अपने उद्देश्यों और हितों को अलग नहीं करेंगे और खुद को सही ठहराने के विभिन्न कारण और बहाने ढूँढ़ेंगे और किसी की भी बात नहीं मानेंगे। उन्हें अगर कोई नुकसान होता है, तो यह उनके लिए असहनीय होता है और वे इसके बारे में दूसरों को अंतहीन रूप से परेशान करते हैं। ऐसे लोग जो कोई नुकसान सहने को तैयार न हों, वास्तव में पश्चात्ताप कैसे कर सकते हैं? अत्यधिक स्वार्थी लोग वे होते हैं जो अपने हितों को सबसे ऊपर रखते हैं; वे बुरे होते हैं और कभी पश्चात्ताप नहीं करेंगे। अगर तुम पहले से ही अच्छी तरह से समझ चुके हो कि ऐसा व्यक्ति बुरा है और फिर भी तुम उसे पश्चात्ताप करने का मौका देते हो, तो क्या यह मूर्खता नहीं है? यह अपने सीने पर ठंड से अकड़े पड़े साँप को गर्मी देकर जिंदा करने के बराबर है, ताकि बाद में वह तुम्हीं को काट ले। केवल कोई मूर्ख ही ऐसी बेवकूफी कर सकता है। कलीसिया में परमेश्वर के चुने हुए लोगों का बुरे लोगों से घृणा करना एक सामान्य घटना है, क्योंकि बुरे लोगों में मानवता की कमी होती है और वे हमेशा अनैतिक काम करते हैं। बुरे लोगों से घृणा करना सही मानसिकता है। यह उस चीज का हिस्सा है जो लोगों में उनकी सामान्य मानवता में होनी चाहिए।

मुझे बताओ कि वह व्यक्ति कैसा होता है जिसे भाई-बहनों से जरा भी प्रेम नहीं होता? ऐसे व्यक्ति का भाई-बहनों के साथ सामान्य पारस्परिक संबंध क्यों नहीं होता? इस तरह का व्यक्ति, चाहे वह किसी से भी बातचीत करे, उस बातचीत को केवल हितों और लेन-देन से जोड़ देता है; यदि कोई हित या लेन-देन शामिल नहीं है, तो वह लोगों से बात नहीं करेगा। क्या इस तरह का व्यक्ति बुरा नहीं है? कुछ लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, केवल भावनाओं के आधार पर जीते हैं; जो भी उनके साथ अच्छा व्यवहार करता है, वे उसके करीब आ जाते हैं और जो भी उनकी मदद करता है, उसे वे अच्छा मानते हैं। ऐसे लोगों के भी सामान्य पारस्परिक संबंध नहीं होते। वे केवल भावनाओं के आधार पर जीते हैं, तो क्या वे भाई-बहनों के साथ निष्पक्ष और न्यायपूर्ण व्यवहार कर सकते हैं? ऐसी स्थिति बिल्कुल भी हासिल नहीं की जा सकती। इसलिए, जो कोई भी भाई-बहनों के साथ या ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास करने वालों के साथ सामान्य पारस्परिक संबंध नहीं रखता, वह अंतरात्मा और विवेक से रहित व्यक्ति है, सामान्य मानवता से रहित व्यक्ति है, और निश्चित रूप से वह ऐसा व्यक्ति नहीं है जो सत्य से प्रेम करता है। ऐसा व्यक्ति गैर-विश्वासियों के बीच के तुच्छ आवारा लोगों से अलग नहीं है; वह उन्हीं लोगों से बातचीत करता है जो उसके लिए फायदेमंद होते हैं और जो फायदेमंद नहीं होते हैं उन्हें अनदेखा कर देता है। इसके अलावा जब वह किसी ऐसे व्यक्ति को देखता है जो सत्य का अनुसरण कर रहा हो या जो अनुभवजन्य गवाहियाँ साझा कर सकता हो—कोई जिसकी हर कोई प्रशंसा करता हो और पसंद करता हो—तो वे ईर्ष्या और घृणा करने लगते हैं और सत्य का अनुसरण करने वाले इन लोगों की आलोचना करने और उनकी निंदा करने के हर संभव प्रयास करते हैं। क्या बुरे लोग ऐसा ही नहीं करते? ऐसे लोगों में अंतरात्मा और विवेक की कमी होती है—वे जानवरों से भी बदतर होते हैं। वे लोगों के साथ सही तरीके से व्यवहार नहीं कर सकते, दूसरों से सामान्य रूप से नहीं मिल सकते, परमेश्वर के चुने हुए लोगों के साथ सामान्य पारस्परिक संबंध नहीं बना सकते, और यहाँ तक कि सत्य का अनुसरण करने वालों से भी नफरत कर सकते हैं। ऐसे लोग अपने हृदय में बहुत एकाकी और अकेला महसूस करते होंगे, हमेशा स्वर्ग और दूसरे लोगों के बारे में शिकायत करते रहेंगे। उनके लिए जीने का आनंद या अर्थ क्या होता है? ये लोग स्वभाव से बहुत क्रूर होते हैं, और चाहे वे किसी के साथ भी बातचीत करें, वे छोटी-छोटी बातों पर घृणा का भाव पैदा कर सकते हैं, उनकी निंदा और प्रतिशोध कर सकते हैं, उन पर आपदाएँ ला सकते हैं। ऐसे बुरे व्यक्ति पूरी तरह से शैतान होते हैं, जो हर दिन कलीसिया में आपदा लाते हैं। यदि वे लंबे समय तक रहे, तो आपदाओं की श्रृंखला कभी खत्म नहीं होगी। केवल उन्हें कलीसिया से बाहर निकालकर ही आपदाओं को टाला जा सकता है। इसके अतिरिक्त, ऐसे लोग भी हैं जो बाहर से तो सभ्य दिखते हैं लेकिन लाभों से विशेष लगाव रखते हैं। इस तरह परमेश्वर में उनका विश्वास भी लाभ के अनुसरण के लिए होता है। अगर उन्होंने कुछ समय से कोई अनुचित लाभ नहीं उठाया, तो उनके चेहरे पर उदासी की बदली छा जाती है, मानो किसी पर उनका बहुत सारा पैसा बकाया हो। जो कोई भी उनका नाराज और निराश चेहरा देखता है, वह तुरंत भावनात्मक रूप से प्रभावित हो जाता है। तुम लोगों को क्या लगता है, अगर ऐसा चेहरा कलीसियाई जीवन में दिखाई दे तो इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से ज्यादातर लोग उसे देखकर निश्चित रूप से असहज महसूस करेंगे और उनके परमेश्वर के वचन पढ़ने और सत्य पर संगति करने पर विभिन्न मात्राओं में विघ्न और प्रभाव पड़ेगा। खासकर उन लोगों को जिनकी जड़ें सच्चे मार्ग पर अभी नहीं जमीं हैं, कलीसियाई जीवन में इस निरंतर उदास चेहरे को अक्सर देखना बहुत आसानी से प्रभावित कर सकता है! कलीसिया में ऐसे ज्यादा लोग होने चाहिए जिनके व्यक्तित्व प्रफुल्लित हों, जो सरलता से और खुलकर बात करते हों, और जिनके दिल सुकून और आनंद से भरे हों और जिनकी आत्मा स्वतंत्र और उन्मुक्त हो। इससे कलीसियाई जीवन आनंददायक बन जाएगा। उन दुखियारों को, जो हमेशा उदास रहते हैं, घर पर परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और सभाओं में आने से पहले अपनी मनःस्थिति ठीक करनी चाहिए। इस तरह वे अच्छे मूड में रहेंगे और सभा से कुछ हासिल करेंगे। इसके अलावा, इससे दूसरों को भी लाभ होगा; कम से कम, वे परेशान नहीं होंगे। यह सुनिश्चित करने के लिए कि परमेश्वर के चुने हुए लोग एक सामान्य कलीसियाई जीवन जी सकें, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को समस्याएँ हल करने के लिए सत्य पर संगति करना सीखना चाहिए। अगर कोई चेहरा लटकाकर सभा में आए तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को आगे बढ़कर पूछना चाहिए, “क्या तुम्हें मदद की जरूरत है?” इसे प्यार से दूसरों की सक्रियतापूर्वक मदद करना कहा जाता है। अगर अगुआ और कार्यकर्ता किसी को समस्या में देखकर भी अनदेखा कर देते हैं, उन “दुखियारों” से बचते और दूर रहते हैं, उनका दिन खुशगवार बनाने के लिए सत्य पर संगति नहीं करते तो वे वास्तविक कार्य नहीं कर रहे। कलीसिया का कार्य प्रभावी ढंग से करने के लिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं को पहले परमेश्वर के चुने हुए लोगों का विश्वासपात्र बनना सीखना चाहिए, जैसा कि गैर-विश्वासी किसी परवाह करने वाले सरकारी अधिकारी को कहते हैं। कुछ लोग ऐसी भूमिका निभाने के लिए तैयार नहीं होते, हमेशा तमाशबीन बने रहना पसंद करते हैं—इस तरह वे एक अच्छा कलीसियाई जीवन जीने में परमेश्वर के चुने हुए लोगों की अगुआई कैसे कर सकते हैं? असल में, किसी के दिल में समस्याएँ हैं या नहीं, यह कुछ हद तक उसके चेहरे के हाव-भाव से देखा जा सकता है। अगर किसी का चेहरा हमेशा उदास रहता है तो इसका मतलब निश्चित रूप से यह है कि उसका दिल अंधकारमय है और उसमें रोशनी की एक किरण भी नहीं है। अगर वह पूरे दिन सही-गलत के विवादों में डूबा रहता है तो क्या फिर भी उसके चेहरे पर मुस्कान आ सकती है? इन लोगों के चेहरे हमेशा काले बादलों से आच्छादित रहते हैं, उन पर एक पल के लिए भी धूप नहीं आती और यह उनके कर्तव्य निर्वहन को भी प्रभावित करता है। अगर अगुआ और कार्यकर्ता इस मुद्दे को हल करने में देरी करते हैं, जिससे भाई-बहनों को लगातार बाधा और अकथनीय दुख झेलना पड़ता है तो यह साबित होता है कि अगुआ और कार्यकर्ता वास्तविक कार्य करने में अक्षम हैं, सत्य से समस्याएँ हल करने में असमर्थ हैं और पूरी तरह से बेकार हैं। अगर अगुआ और कार्यकर्ता सत्य समझते हैं और भाई-बहनों की समस्याएँ पहचान कर उन्हें समय पर समर्थन और सहायता प्रदान कर सकते हैं, न सिर्फ लोगों की समस्याएँ हल करने में मदद करने में सक्षम हैं बल्कि सत्य सिद्धांत समझने और अपने कर्तव्य निभाने में लोगों की मदद करने में भी सक्षम हैं तो उनका कर्तव्य निभाना और मामले सँभालना कुशलतापूर्ण होगा और कलीसिया का कार्य प्रभावित नहीं होगा। अगर अगुआ और कार्यकर्ता समस्याएँ तुरंत पहचानकर हल नहीं कर सकते, तो इससे कलीसिया का कार्य प्रभावित होता है। अगर अगुआ और कार्यकर्ता समस्याएँ पहचानकर उन्हें सँभाल नहीं सकते, जिससे कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचता है और परमेश्वर के चुने हुए लोगों का जीवन प्रवेश बाधित होता है तो क्या वे परमेश्वर और उसके चुने हुए लोगों को निराश नहीं करते? क्या मामले सँभालने में उनमें सिद्धांतों का अभाव नहीं होता? समस्याओं का सार देखने के बाद उनसे तुरंत और बेहिचक निपटना—इसे जिम्मेदारियाँ निभाना और वफादार होना कहा जाता है और यह अपना कर्तव्य ऐसे तरीके से करना है जो मानक के अनुरूप है।

आज की संगति का विषय है छठा मुद्दा—अनुचित संबंधों में लिप्त होना। कलीसियाई जीवन में उभरने वाली इस तरह की समस्याएँ मूल रूप से ये हैं : स्त्री-पुरुषों के बीच अनुचित संबंध, समलैंगिक संबंध, निहित स्वार्थों के संबंध और व्यक्तियों के बीच नफरत। चाहे वे दैहिक वासना पर आधारित संबंध हों या दैहिक रुचियों पर या देह की भावनात्मक उलझनों पर आधारित संबंध, वे सभी अनुचित संबंधों की श्रेणी में आते हैं क्योंकि वे सामान्य मानवता के जमीर और विवेक का दायरा पार कर जाते हैं। इन अनुचित संबंधों का अस्तित्व लोगों को एक निश्चित सीमा तक व्याकुल कर सकता है। ज्यादा गंभीर रूप से, ऐसे संबंध लोगों के जीवन प्रवेश में, सत्य के उनके अनुसरण में और परमेश्वर को जानने के उनके अनुसरण में बाधा डाल सकते हैं। ये विभिन्न प्रकार के अनुचित संबंध जमीर या विवेक से उत्पन्न नहीं होते और सामान्य मानवता के विपरीत चलते हैं। जब लोग इन असामान्य संबंधों में रहते हैं तो उनके लिए सत्य स्वीकार कर उसका अभ्यास करना कठिन होता है और यह उनके कलीसियाई जीवन जीने में और जीवन विकास का अनुसरण करने में और साथ ही कलीसियाई जीवन की व्यवस्था में भी बाधा डालता है। यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश के लिए हानिकारक है और कलीसिया के कार्य को भी नुकसान पहुँचा सकता है। इन सब कारणों से अगुआओं और कार्यकर्ताओं के लिए इन मुद्दों को तुरंत पहचानकर उनसे निपटना अनिवार्य है।

अनुचित संबंधों के बारे में हमने पहले ही विभिन्न स्थितियाँ गिना दी हैं और उनका वर्गीकरण कर दिया है। क्या तुम लोग पहचानने का अभ्यास करने के लिए कुछ उदाहरण दे सकते हो? पहचानना सीखने का क्या उद्देश्य है? यह तुम लोगों को लोगों, घटनाओं और चीजों के सार की पहचान कर उसे परिभाषित करने में सक्षम बनाता है, ताकि तुम सटीक निर्णय ले सको और फिर उनके साथ सिद्धांतों के अनुसार पेश आ सको। यह अंतिम परिणाम है। क्या किसी ने कहा है, “तुम दिन भर इन सही-गलत के मामलों, इन रोजमर्रा के मामलों के बारे में बात करते हो—हम अब इन्हें सुनने के लिए तैयार नहीं हैं; यहाँ तक कि हम अब सभाओं में भी नहीं आना चाहते। क्या तुम्हें सत्य पर संगति नहीं करनी चाहिए? हमेशा इन स्थितियों के बारे में बात क्यों करते हो”? क्या तुम लोगों ने ऐसे लोगों को देखा है? वे किस तरह के लोग हैं? (ऐसे लोग जिनमें आध्यात्मिक समझ की कमी है।) हम इस तरह से संगति करते हैं और फिर भी वे सत्य नहीं समझ पाते—उनमें एक सामान्य व्यक्ति जितनी बुद्धि भी नहीं होती; ऐसे लोग पूरी तरह से बेकार होते हैं। क्या किसी ऐसे व्यक्ति को, जिसमें एक सामान्य व्यक्ति जितनी बुद्धि भी नहीं होती, क्या उसे अभी भी उपदेश सुनाया जाना चाहिए? शायद वह प्रस्ताव रखे : “सभाएँ हमेशा सत्य पर संगति करने के लिए होती हैं, सभाओं में हमेशा सत्य का अभ्यास करने जैसी चीजों के बारे में बातें होती हैं—मैं यह सुन-सुनकर थक गया हूँ। मैं अब सभाओं में आने के लिए तैयार नहीं हूँ।” अगर उसका वाकई ऐसा दृष्टिकोण है तो वह सत्य से विमुख व्यक्ति है। परमेश्वर का घर ऐसे लोगों की मौजूदगी पर जोर नहीं देता; उन्हें जल्दी से चलता कर दो। अगर वे खुद सभाओं में आने के लिए तैयार न हों और उनमें जो चर्चा की जाती है उसे ग्रहण नहीं करते हों तो हम उन पर आने के लिए जोर नहीं देते—हम उन्हें परेशान नहीं करना चाहते। ऐसे लोग जीवन भर परमेश्वर में विश्वास करने के बावजूद सत्य नहीं समझेंगे और वास्तविकता में प्रवेश नहीं करेंगे; इसके लिए प्रयास करना बेकार है। अगर वे धार्मिक ज्ञान सुनना पसंद करते हैं तो उन्हें जाकर धार्मिक ज्ञान का अध्ययन करने दो; एक दिन जब वे जीवन के रूप में सत्य प्राप्त नहीं करेंगे तो उन्हें इसका पछतावा होगा।

29 मई 2021

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