अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (14) खंड तीन

VI. अनुचित संबंधों में लिप्त होना

परमेश्वर के कार्य और कलीसिया की सामान्य व्यवस्था में गड़बड़ी और बाधा पैदा करने वाला छठा मुद्दा है अनुचित संबंधों में लिप्त होना। जब तक लोग एक-दूसरे के संपर्क में आते हैं और मिलकर सभा कर सकते हैं तब तक सामुदायिक जीवन होगा और उससे विभिन्न संबंध बनेंगे। तो इनमें से कौन-से संबंध उचित हैं और कौन-से अनुचित? आओ पहले इस बारे में बात करते हैं कि उचित संबंध क्या होते हैं और फिर अनुचित संबंधों के बारे में संगति करेंगे। जब भाई-बहन मिलकर एक-दूसरे का अभिवादन करते हैं तो वे ऐसी बातें कह सकते हैं, “क्या हालचाल है? क्या तुम्हारा स्वास्थ्य अच्छा है? क्या अगले साल तुम्हारा बच्चा हाई स्कूल में जाएगा? तुम्हारे जीवनसाथी का व्यवसाय कैसा चल रहा है?” क्या इस तरह का आपसी अभिवादन उचित संबंध माना जाता है? (हाँ।) तुम ऐसा क्यों कहते हो? क्योंकि जब दो लोग, जो काफी समय से एक-दूसरे से नहीं मिले, एक-साथ आते हैं तो अभिवादन के कुछ शब्द कहना सबसे बुनियादी शिष्टाचार है, साथ ही सहानुभूति दिखाने और अभिवादन करने का सबसे मौलिक तरीका भी है। ये सभी शब्द, क्रियाकलाप और लोगों की बातचीत के प्रासंगिक विषय हैं जो सामान्य मानवता की सीमाओं के भीतर हैं। अब तक की उनकी बातचीत से आँकने पर यह स्पष्ट है कि उनका संबंध काफी उचित है। उनका संवाद शिष्टाचार और सामान्य मानवता दोनों पर आधारित है और इन दो बिंदुओं से यह निर्धारित किया जा सकता है कि बातचीत करने वाले दो लोगों के बीच का संबंध उचित है, जो एक सामान्य अंतर्वैयक्तिक संबंध दर्शाता है। अगर दो लोग एक-दूसरे से अच्छी तरह परिचित हैं, फिर भी जब वे मिलते हैं तो दोनों नाक-भौं चढ़ा लेते हैं और एक-दूसरे से बात नहीं करते और जब एक-दूसरे को देखते हैं तो उनकी आँखें शत्रुता से जलती हैं, क्या यह संबंध सामान्य है? (नहीं, यह सामान्य नहीं है।) यह सामान्य क्यों नहीं है? इसे ठीक-ठीक कैसे परिभाषित करना चाहिए? जब दो लोग मिलते हैं लेकिन न तो एक-दूसरे का अभिवादन करते हैं और न ही “नमस्ते” कहते हैं, सामान्य बातचीत और संवाद में शामिल होना तो दूर की बात है, तो यह स्पष्ट है कि उनकी अभिव्यक्तियों से वह प्रतिबिंबित नहीं होता जो सामान्य मानवता से अपेक्षित है। उनका संबंध एक सामान्य अंतर्वैयक्तिक संबंध नहीं है; वह कुछ हद तक विकृत है, लेकिन फिर भी वह अनुचित संबंध नहीं है, वह अभी भी उससे कुछ दूर है। सामान्य तौर पर अगर लोगों के बीच संबंध सामान्य मानवता के आधार पर स्थापित होता है, जहाँ व्यक्ति सामान्य रूप से और सिद्धांतों के अनुसार मिलजुलकर आपस में जुड़ सकते हैं और एक-दूसरे को मदद, समर्थन और पोषण प्रदान कर सकते हैं तो यह सब, लोगों के बीच उचित संबंधों का संकेत है। उचित संबंधों का मतलब है मामले व्यावसायिक तरीके से सँभालना, लेनदेनों में शामिल न होना, उलझे हुए हितों से रहित होना, इससे भी बढ़कर घृणा से रहित होना और क्रियाकलापों का दैहिक इच्छाओं से प्रेरित न होना। ये सभी उचित संबंधों के दायरे में आते हैं। क्या यह दायरा काफी व्यापक नहीं है? सामान्य अंतर्वैयक्तिक संबंधों में सामान्य मानवता के दायरे में संवाद और बातचीत, दूसरों के साथ मिलना-जुलना और जुड़ना, और सामान्य मानवता के जमीर और विवेक के आधार पर मिलकर काम करना शामिल है। उच्च स्तर पर इसमें सत्य सिद्धांतों के अनुसार मिलना-जुलना और जुड़ना शामिल है। यह लोगों के बीच उचित अंतर्वैयक्तिक संबंधों की एक सामान्य परिभाषा है। मिलने पर एक-दूसरे का अभिवादन करना बातचीत का सबसे सामान्य रूप है। बिना दिखावे के सामान्य रूप से अभिवादन और बातचीत करने में सक्षम होना, जहाँ स्नेह न हो वहाँ स्नेह होने की कल्पना न करना, श्रेष्ठ होने का दिखावा न करना, दूसरों को दबाए या खुद को ऊँचा जताए बिना बोलना, सामान्य रूप से बोलना और संवाद करना—सामान्य मानवता रखने वाले लोगों को ऐसे ही बोलना और संवाद करना चाहिए और यह सामान्य अंतर्वैयक्तिक संबंधों के भीतर बातचीत करने का मूलभूत तरीका है। परमेश्वर के चुने हुए लोगों में जमीर और विवेक तो कम से कम होना ही चाहिए और उन्हें दूसरों के साथ परमेश्वर द्वारा लोगों से अपेक्षित सिद्धांतों और मानकों के अनुसार बातचीत करना, जुड़ना और मिलकर काम करना चाहिए। यह सबसे अच्छा नजरिया है। यह परमेश्वर को संतुष्ट करने में सक्षम है। तो परमेश्वर द्वारा अपेक्षित सत्य सिद्धांत क्या हैं? यह कि जब दूसरे कमजोर और नकारात्मक हों तो लोग उन्हें समझें, उनके दर्द और कठिनाइयों के प्रति विचारशील हों, और इन चीजों के बारे में पूछताछ करें, सहायता और सहारे की पेशकश करें, उनकी समस्याएँ हल करने में उनकी मदद करने के लिए उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाएँ, उन्हें परमेश्वर के इरादे समझने और कमजोर न बने रहने में समर्थ बनाएँ और उन्हें परमेश्वर के सामने लाएँ। क्या अभ्यास का यह तरीका सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है? इस प्रकार अभ्यास करना सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है। स्वाभाविक रूप से, इस प्रकार के संबंध और भी सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होते हैं। जब लोग जानबूझकर बाधा डालते हैं और गड़बड़ी पैदा करते हैं, या जानबूझकर अपना कर्तव्य अनमने ढंग से निभाते हैं, अगर तुम यह देखते हो और सिद्धांतों के अनुसार उन्हें इन चीजों के बारे में बताने, फटकारने, और उनकी मदद करने में सक्षम हो, तो यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है। अगर तुम आँखें मूँद लेते हो, या उनके व्यवहार की अनदेखी करते हो और उनके दोष ढकते हो, यहाँ तक कि उनसे अच्छी-अच्छी बातें कहते, उनकी प्रशंसा और वाहवाही करते हो, लोगों के साथ बातचीत करने, मुद्दों से निपटने और समस्याएँ सँभालने के ऐसे तरीके स्पष्ट रूप से सत्य सिद्धांतों के विपरीत हैं, और उनका परमेश्वर के वचनों में कोई आधार नहीं है। तो, लोगों के साथ बातचीत करने और मुद्दों से निपटने के ये तरीके स्पष्ट रूप से अनुचित हैं, और अगर परमेश्वर के वचनों के अनुसार उनका गहन विश्लेषण और पहचान न की जाए, तो वास्तव में इसका पता लगाना आसान नहीं है। जो लोग सत्य नहीं समझते, उनके द्वारा इन मुद्दों को पहचानने की संभावना नहीं है और अगर वे स्वीकार भी लें कि ये समस्याएँ हैं तो भी उनके लिए उन्हें हल करना आसान नहीं है। हमने अक्सर कहा है कि पूरी भ्रष्ट मानवजाति शैतान के स्वभाव के अनुसार जीती है और ये अभिव्यक्तियाँ इसका सबूत हैं। अब क्या तुम इसे स्पष्ट रूप से समझते हो?

हमारी संगति में आज हमारा ध्यान मुख्य रूप से चार प्रकार के अनुचित संबंधों की उन अभिव्यक्तियों को उजागर करने पर रहेगा जो कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधाएँ पैदा करती हैं। वे लोग कौन हैं जो कलीसिया के भीतर अनुचित संबंधों में लिप्त रहते हैं? अनुचित संबंध असल में क्या होता है? अनुचित संबंधों में लिप्त होने में कौन-से मुद्दे शामिल हैं? चूँकि हमारी संगति के मुख्य विषय में वे विभिन्न लोग, घटनाएँ और चीजें शामिल हैं जो परमेश्वर के कार्य और कलीसिया की सामान्य व्यवस्था में गड़बड़ी और बाधा पैदा करती हैं, इसलिए अनुचित संबंधों की यह चर्चा उन लोगों तक सीमित है जो कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधाएँ पैदा करते हैं। हम तमाम तरह के अनुचित संबंधों को अविवेकपूर्ण तरीके से एक-साथ नहीं रख रहे हैं और कलीसियाई जीवन के बाहर के मामले हमारी चिंता का विषय नहीं हैं। तुम्हें इस मामले को मुख्य विषय से हटे बिना, शुद्ध रूप से समझना चाहिए। फिर जब अनुचित संबंधों में लिप्त होने की बात आती है तो कौन-से मुद्दे और लोगों के बीच कौन-से संबंध अनुचित हैं? कौन-से अनुचित संबंध कलीसियाई जीवन और ज्यादातर लोगों के लिए विघ्न-बाधाएँ पैदा करते हैं? क्या ये मुद्दे संगति करने लायक हैं? (हाँ, हैं।) ये ऐसे मामले हैं जिन पर हमारी संगति में स्पष्ट रूप से विचार किया जाना चाहिए।

क. स्त्री-पुरुषों के बीच अनुचित संबंध

कलीसियाई जीवन में सबसे आम, आसानी से समझ में आने वाला और जल्दी से चरित्र चित्रण किया जाने वाला अनुचित संबंध कौन-सा है? (स्त्री-पुरुषों के बीच संबंध।) अनुचित संबंधों के बारे में सोचने पर लोगों के मन में आने वाला यह पहला पहलू है। कुछ लोग जब भी किसी समूह में होते हैं तो हमेशा विपरीत लिंग के व्यक्ति के साथ इश्कबाजी करते हैं; वे कामुक इशारे और अभिव्यक्तियाँ करते हैं, खास तौर से खुलकर बोलते हैं और दिखावा करना पसंद करते हैं। एक अनुचित शब्द का उपयोग करें तो यह अपनी कामुकता दिखाना है। वे विपरीत लिंग के व्यक्ति के सामने अन्य गुणों के अलावा मजाकिया, विनोदी, रोमांटिक, सज्जन, वीर, करिश्माई और विद्वान दिखना पसंद करते हैं; उन्हें दिखावा करने में खास तौर से आनंद आता है। वे दिखावा क्यों करते हैं? यह रुतबे के लिए होड़ करने के लिए नहीं होता, बल्कि विपरीत लिंग के व्यक्ति को आकर्षित करने के लिए होता है। विपरीत लिंग के जितने ज्यादा सदस्य उन पर ध्यान देते हैं, उन पर प्रशंसा, श्रद्धा और प्यार भरी नजरें डालते हैं, वे उतने ही ज्यादा उत्साहित और ऊर्जावान हो जाते हैं। जब वे कलीसियाई जीवन में भाग लेने में ज्यादा समय बिताते हैं और ज्यादा लोगों के संपर्क में आते हैं, तो कुछ व्यक्तियों को निशाना बना लेते हैं, विपरीत लिंग के कुछ लोगों के साथ इश्कबाजी करते हैं और उनसे नजरें मिलाते हैं, अक्सर उत्तेजनात्मक तरीके से बात करते हैं, यहाँ तक कि उसमें यौन उत्पीड़न की भी झलक होती है। क्या लोगों के बीच इस तरह का संबंध उचित है? (नहीं।) यह अनुचित संबंधों में लिप्त होना है। ऐसे व्यक्ति सभा के समय का उपयोग भी दिखावा करने के लिए करते हैं, जिस व्यक्ति को वे पसंद करते हैं या जिसमें उनकी रुचि होती है, उसके सामने खास तौर से इस तरह बोलते हैं कि मजाकिया और आकर्षक दिखें, कामुक इशारे करते हैं और नैन-मटक्का करते हैं, विजयी और उत्साही भाव रखते हैं, यहाँ तक कि इधर-उधर मटकते फिरते हैं, यह सब भला किस उद्देश्य से? इसका उद्देश्य विपरीत लिंग के व्यक्ति को अनुचित संबंध के लिए फुसलाना है। इसके प्रति कई भाई-बहनों द्वारा महसूस की गई घृणा के बावजूद और आस-पास के लोगों द्वारा दी गई कई चेतावनियों के बावजूद वे नहीं रुकते और लापरवाह ढंग से फुसलाने का काम करते ही रहते हैं। अगर ऐसे अनुचित संबंधों में सिर्फ दो लोग लिप्त हैं जो कलीसियाई जीवन के बाहर एक-दूसरे के साथ इश्कबाजी करते हैं और कलीसियाई जीवन या कलीसिया के काम को प्रभावित नहीं करते, तो इस मामले को फिलहाल अलग रखा जा सकता है। लेकिन अगर अनुचित संबंधों में लिप्त लोग कलीसियाई जीवन में इस तरह के व्यवहार में लिप्त रहते हैं और दूसरों के लिए बाधाएँ पैदा करते हैं, तो उन्हें चेतावनी देनी चाहिए और प्रतिबंधित करना चाहिए। अगर वे बार-बार चेतावनी देने के बावजूद नहीं सुधरते और कलीसियाई जीवन में पहले ही गंभीर रूप से व्यवधान पैदा कर चुके होते हैं तो उन्हें परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा मतदान के जरिये कलीसिया से बाहर कर दिया जाना चाहिए। क्या यह नजरिया उचित है? (हाँ।) अगर वे दो प्रेमियों की तरह सामान्य रूप से मिलने वाले सिर्फ युवा लोग हैं तो उन्हें भी सभाओं के दौरान सावधान रहना चाहिए ताकि दूसरे इससे प्रभावित न हों। कलीसिया परमेश्वर की आराधना करने, परमेश्वर के वचन का प्रार्थना-पाठ करने और कलीसियाई जीवन जीने का स्थान है; दूसरों को परेशान करने के लिए व्यक्तिगत आसक्तियाँ कलीसियाई जीवन में नहीं लानी चाहिए। अगर इससे दूसरों को परेशानी होती है, सभाओं के दौरान दूसरों की मनःस्थिति प्रभावित होती है, दूसरों का परमेश्वर के वचन पढ़ना और परमेश्वर के वचनों की उनकी समझ और ज्ञान प्रभावित होता है जिससे और भी लोगों का ध्यान भटकता है और वे परेशान होते हैं तो ऐसे संबंध का अनुचित संबंध के रूप में चरित्र चित्रण किया जाता है। वैध तरीके से दो प्रेमियों के मिलने से भी अगर दूसरों को परेशानी होती है तो उसका अनुचित संबंध के रूप में चरित्र चित्रण किया जाएगा, वैध तरीके से मिलने से परे विपरीत लिंग के व्यक्ति को बहकाने की तो बात ही छोड़ दो। इसलिए अगर कोई व्यक्ति कलीसियाई जीवन में अनुचित संबंधों में लिप्त होता है तो उसे चुपचाप अनुमति नहीं देनी चाहिए या उसका मन नहीं रखना चाहिए, बल्कि उसे चेतावनी देनी चाहिए, प्रतिबंधित करना चाहिए, यहाँ तक कि सिद्धांतों के अनुसार बाहर भी निकाल देना चाहिए। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यह काम करना चाहिए। अगर यह पता चलता है कि कोई व्यक्ति अनुचित संबंधों में लिप्त है और उसने कलीसिया के ज्यादातर लोगों के लिए बाधा पैदा किए हैं, उसकी मौजूदगी से अन्य लोगों का ध्यान भटकता है और वे कामुक विचारों के जाल में फँस जाते हैं, यहाँ तक कि इस वजह से परिवार तक टूट जाते हैं और कुछ नए विश्वासियों की, सभाओं में, परमेश्वर के वचन पढ़ने में, यहाँ तक कि आस्था में भी रुचि नहीं रह जाती, इसके बजाय वे जिस व्यक्ति को चाहते हैं उसके प्रति और ज्यादा आसक्त हो जाते हैं, उसके साथ भागकर शादी करने और एक-साथ जीवन बिताने की इच्छा रखते हैं और अपनी आस्था त्याग देते हैं—अगर स्थिति की गंभीरता इस हद तक बढ़ गई हो और फिर भी अगुआ और कार्यकर्ता इसे गंभीरता से न लेते हों, सोचते हों कि यह सिर्फ इंसानी वासना का नतीजा है, यह कोई बड़ी बात नहीं है और सभी सामान्य लोग ऐसा करते हैं, वे समस्या की गंभीरता न पहचानते हों और यह तो बिल्कुल न समझते हों कि समस्या कितनी ज्यादा बढ़ सकती है, बल्कि इसे अनदेखा कर देते हों, ऐसे मामलों के प्रति अपनी प्रतिक्रिया में खास तौर से सुन्न और सुस्त रहते हों, जिसके कारण अंततः कलीसिया में ज्यादातर लोगों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हो—तो इन घटनाओं की प्रकृति गंभीर विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करती है। मैं क्यों कहता हूँ कि यह गंभीर विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करती है? क्योंकि ये घटनाएँ कलीसियाई जीवन की सामान्य व्यवस्था में बाधा डालती हैं और उसे नुकसान पहुँचाती हैं। इसलिए जब ऐसे व्यक्ति कलीसिया में उभरें तो उन्हें प्रतिबंधित करना चाहिए, चाहे वे कितने भी कम या ज्यादा क्यों न हों, और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि प्रत्येक मामले पर ध्यान दिया जाए और अगर स्थिति गंभीर हो तो उन्हें अलग-थलग कर देना चाहिए। अगर अलग-थलग करने से परिणाम नहीं मिलते और वे विपरीत लिंग के व्यक्ति को फुसलाना, कलीसियाई जीवन में विघ्न डालना और कलीसिया की सामान्य व्यवस्था को नुकसान पहुँचाना जारी रखते हैं तो उन्हें सिद्धांतों के अनुसार कलीसिया से बाहर निकाल देना चाहिए। क्या यह नजरिया उचित है? (हाँ।) कलीसियाई जीवन और कलीसिया के कार्य पर ऐसे मामलों का प्रभाव बेहद हानिकारक होता है; वे एक महामारी के समान होते हैं और उनका उन्मूलन कर देना चाहिए।

जो लोग विपरीत लिंग के व्यक्ति को फुसलाने में प्रवृत्त होते हैं, वे जहाँ भी जाते हैं वहीं ऐसा करते हैं, अथक रूप से ऐसे व्यवहारों में संलग्न रहते हैं। फुसलाने-सताने के उनके लक्ष्य अक्सर युवा और आकर्षक व्यक्ति होते हैं, लेकिन कभी-कभी वे इसमें मध्यम आयु-वर्ग के लोगों को भी शामिल कर लेते हैं—जो भी उन्हें आकर्षक लगता है वे सक्रिय रूप से उसे फुसलाने के अवसर तलाशते हैं। अगर वे दूसरों को फुसलाने की नीयत रखते हैं तो कुछ लोग इस बहकावे का विरोध नहीं कर पाते और उनके झाँसे में आ जाते हैं, यह रास्ता आसानी से अनुचित संबंधों की ओर ले जाता है। चूँकि लोगों का आध्यात्मिक कद बहुत छोटा होता है और उनमें परमेश्वर में वास्तविक आस्था और साथ ही सत्य की समझ का अभाव होता है, इसलिए वे इन प्रलोभनों पर कैसे विजय पा सकते हैं और ऐसे बहकावों का कैसे विरोध कर सकते हैं? लोगों का आध्यात्मिक कद बहुत छोटा होता है; जब उनका सामना इन प्रलोभनों और बहकावों से होता है तो वे खास तौर से कमजोर और शक्तिहीन होते हैं। उनके लिए अप्रभावित रहना मुश्किल होता है। एक पुरुष अगुआ था जो किसी भी सुंदर महिला को देखकर उसे फुसलाने की कोशिश करता था; कभी-कभी सिर्फ एक को फुसलाना ही काफी नहीं होता था—वह तीन-चार महिलाओं को फुसला सकता था, वह उन सभी को इस हद तक वशीभूत कर सकता था कि उनकी भूख मर जाती थी और वे सो नहीं पाती थीं, यहाँ तक कि उनकी अपने कर्तव्य निभाने की इच्छा भी मर जाती थी। इस आदमी का ऐसा “आकर्षण” था। अगर वह लोगों को जानबूझकर फुसलाने की कोशिश किए बिना उनसे सामान्य रूप से बातचीत करता था तो उसका प्रभाव इतना व्यापक नहीं होता था। जब वह जानबूझकर नाटक करके दूसरों को फुसलाता था, तभी ज्यादा से ज्यादा लोग उसके झाँसे में आते थे और उसके साथ अनुचित संबंध बनाने के लिए फुसलाए जाने वालों की संख्या बढ़ जाती थी। लोग विरोध करने में असमर्थ होते थे और इन प्रलोभनों में पड़ जाते थे। यह वासना का “आकर्षण” था; उसने जो किया, उससे दोनों पक्षों के लिए प्रलोभन, बहकावे और व्यवधान पैदा हुए। एक आदमी का एक-साथ कई महिलाओं को फुसलाना—उसका दिल तो बेचैन ही होगा, है कि नहीं? पहले किस महिला से मिलना है, पहले किसे संतुष्ट करना है—क्या वह मानसिक रूप से थका हुआ नहीं होगा? (हाँ, होगा।) अगर यह इतना थका देने वाला था तो वह इस तरह का व्यवहार क्यों करता रहा? यह दुष्टता है; वह इसी तरह का प्राणी था, यह उसकी प्रकृति थी। जब शिकार फुसलाए जाकर प्रलोभन में पड़ जाते हैं तो क्या उनके लिए प्रलोभन से बचना आसान होता है? एक बार प्रलोभन में फँस गए तो बचना मुश्किल होगा। खाना खाते समय, सोते समय, चलते समय, कर्तव्य निभाते समय—चाहे वे कुछ भी करें, हर समय उनके मन इस व्यक्ति के खयालों में डूबे रहते हैं, यह व्यक्ति उनके दिलों पर कब्जा कर लेता है। ऐसे व्यवधान बेहद गंभीर होते हैं! इसके बाद वे लगातार यही सोचते हैं कि इस व्यक्ति को कैसे खुश किया जाए, कैसे उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया जाए, कैसे उसका दिल जीता जाए, कैसे उस पर एकाधिकार किया जाए, कैसे दूसरे प्रतिस्पर्धियों से मुकाबला और लड़ाई की जाए। क्या ये बाधित किए जाने के नतीजे नहीं हैं? क्या ऐसी स्थिति से बचना आसान है? (यह आसान नहीं है।) नतीजे गंभीर हो जाते हैं। इस समय क्या किसी का दिल अभी भी परमेश्वर के सामने शांत रह सकता है? जब वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं तो क्या वे अभी भी उन्हें आत्मसात कर सकते हैं? क्या अभी भी उनके पास प्रकाश हो सकता है? सभाओं के दौरान क्या वे अभी भी परमेश्वर के वचनों पर चिंतन और संगति करने और दूसरों को परमेश्वर के वचन साझा करते हुए सुनने की मनःस्थिति में होंगे? वे नहीं होंगे; उनके हृदय वासना से, उनके प्रेम-पात्र से भरा होगा, उसमें कोई भी गंभीर मामला नहीं होगा—यहाँ तक कि परमेश्वर भी उनके हृदय से चला जाएगा। इसके बाद इस बात पर विचार किया जाता है कि प्रेम का अनुभव कैसे किया जाए, रोमांटिक कैसे हुआ जाए, इत्यादि, और परमेश्वर में विश्वास करने की इच्छा पूरी तरह से गायब हो जाती है। क्या ये नतीजे अच्छे हैं? क्या लोग यही देखना चाहते हैं? (नहीं।) क्या फुसलाए जाने और प्रलोभन में पड़ने के नतीजे ऐसे होते हैं जिन्हें लोग रोक सकते हैं? क्या लोग इन नतीजों को नियंत्रित कर सकते हैं? क्या यह तय करना उन पर निर्भर है? क्या वे अपने हृदय में जब चाहें तब इसे रोकने में सक्षम होने के स्तर तक पहुँच सकते हैं? कोई भी इसे प्राप्त नहीं कर सकता। यह लोगों पर ऐसे अनुचित संबंधों के कारण पैदा होने वाले व्यवधानों का दुष्परिणाम है। जब किसी के हृदय से परमेश्वर अनुपस्थित होता है और कोई अब परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ना चाहता तो क्या दुष्परिणाम होते हैं? क्या अभी भी उद्धार की आशा रहती है? उद्धार की आशा शून्य हो जाती है। सब-कुछ खो जाता है; पहले समझे गए वे थोड़े-से धर्म-सिद्धांत, खुद को परमेश्वर के लिए खपाने का निश्चय और संकल्प और परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने की इच्छा, सब-कुछ छूट जाता है—ये दुष्परिणाम होते हैं। लोग परमेश्वर से दूर हो जाते हैं और अपने दिलों में उसे अस्वीकार कर देते हैं और परमेश्वर भी उन्हें अस्वीकार कर देता है। यह ऐसा नतीजा नहीं है जिसे परमेश्वर में विश्वास करने वाला और उसका अनुसरण करने वाला कोई भी व्यक्ति देखना चाहता हो, न ही यह कोई ऐसा तथ्य है जिसे परमेश्वर का कोई भी अनुयायी स्वीकार सकता हो। लेकिन जब लोग ऐसे प्रलोभनों में पड़कर अनुचित संबंधों के भँवर में फँस जाते हैं तो उनके लिए खुद को इससे बाहर निकाल पाना मुश्किल हो जाता है और खुद पर नियंत्रण तो वे बिल्कुल ही नहीं रख पाते। इसलिए ऐसे अनुचित संबंधों को प्रतिबंधित करना चाहिए। गंभीर मामलों में, जो लोग लगातार विपरीत लिंग के व्यक्ति को परेशान करते और सताते हैं, उन्हें तुरंत और तत्परता से कलीसिया से दूर कर देना चाहिए, ताकि वे कलीसियाई जीवन में बाधा पैदा न करें और इससे भी बढ़कर, और लोगों को प्रलोभन में फँसने से रोका जा सके। क्या यह नजरिया उचित है? (हाँ।)

अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियों की बारहवीं मद में, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को प्रत्येक कार्य में अपना अधिकतम प्रयास करना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि परमेश्वर के चुने हुए लोग एक सामान्य कलीसियाई जीवन जी सकते हैं, भाई-बहनों को कलीसियाई जीवन में किसी भी हस्तक्षेप या बाधा से सुरक्षित रखा जा सकता है। इसका मतलब है उन तमाम भाई-बहनों की सुरक्षा करना जो सामान्य कलीसियाई जीवन जी सकते हैं। असल में किसकी सुरक्षा की जानी चाहिए? भाई-बहनों की सुरक्षा की जानी चाहिए ताकि वे सभाओं के दौरान शांति से परमेश्वर के सामने आ सकें और शांतिपूर्वक परमेश्वर के वचनों का प्रार्थना-पाठ करते हुए उन्हें साझा कर सकें; साथ ही, भाई-बहन दिल और मन से एक होकर परमेश्वर से प्रार्थना करने, परमेश्वर के इरादे खोजने, परमेश्वर से प्रबुद्धता और रोशनी खोजने, परमेश्वर की मौजूदगी प्राप्त करने और परमेश्वर के आशीष और मार्गदर्शन प्राप्त करने में सक्षम हो पाएँ। यह तमाम भाई-बहनों का सबसे बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण हित है और यह सभी के लिए आवश्यक है; यह इस बात से संबंधित है कि क्या उन्हें बचाया जा सकता है और क्या उन्हें एक अच्छा गंतव्य मिल सकता है। इसलिए जो लोग कलीसिया के भीतर अनुचित संबंधों में लिप्त हों, उन्हें सख्ती से प्रतिबंधित करना, अलग-थलग करना या बाहर निकालना आवश्यक है; खास तौर पर जो लोग स्त्री-पुरुषों के बीच के संबंधों में लिप्त हों, उनका कड़ाई से पर्यवेक्षण किया जाना चाहिए। पर्यवेक्षण का क्या मतलब है? अगर यह सिर्फ एक छोटा मामला हो तो उन्हें उजागर कर उनकी काट-छाँट करनी चाहिए और उन्हें तुरंत रोकना और प्रतिबंधित करना चाहिए और उन्हें दूसरों को प्रभावित करने से रोकना चाहिए। अगर यह एक गंभीर मामला हो तो निर्णायक रूप से और बिना किसी हिचकिचाहट के कार्रवाई करनी जरूरी है; उन्हें जल्दी से जल्दी कलीसिया से बाहर निकाल देना चाहिए ताकि वे और ज्यादा लोगों को परेशान न कर सकें। अगर वे बाधा खड़ी करना ही चाहते हैं तो बाहर दुनिया में करें, जिसे चाहें उसे बाधित करें; इतना कहना पर्याप्त है कि उन्हें कलीसियाई जीवन में सत्य का अनुसरण करने वाले तमाम भाई-बहनों को परेशान नहीं करने देना चाहिए। यह इस बारहवीं जिम्मेदारी के संबंध में अगुआओं और कार्यकर्ताओं के कार्य के लिए प्राथमिक सिद्धांत और लक्ष्य है।

ख. समलैंगिक संबंध

अनुचित संबंधों के मुद्दे पर हमने अभी जिस विषय पर मुख्य रूप से संगति की, वह था स्त्री-पुरुषों का अनुचित संबंधों में लिप्त होना। जहाँ इसमें विपरीत लिंग के व्यक्ति को फुसलाना, लुभाना, दिखावा करना और छेड़ना; सक्रिय रूप से उसके पास जाना और उसके करीब आने की कोशिश करना; और सभाओं में अक्सर जानबूझकर या अनजाने उसके पास बैठने की कोशिश करना शामिल है; इसके अलावा, सिर्फ एक व्यक्ति को फुसलाना ही नहीं, बल्कि पहला प्रयास विफल होने पर दूसरे के पास चले जाना भी शामिल हो, ताकि कलीसिया में विपरीत लिंग के कई सदस्य परेशान हों, तो यह मुद्दा गंभीर हो जाता है। इसमें स्त्री-पुरुषों के बीच अनुचित संबंध शामिल हैं। विपरीत लिंग के व्यक्ति के साथ संबंधों के अलावा समान लिंग के लोगों के बीच भी कुछ अनुचित संबंध होते हैं। अगर समान लिंग के दो लोग खास तौर से मैत्रीपूर्ण संबंध रखते हैं, एक-दूसरे को काफी समय से जानते हैं और एक-दूसरे के काफी करीब हैं तो उनका अक्सर मिलना-जुलना उचित है। लेकिन जब यह मेल-जोल देह के कामुक संबंधों में लिप्त होने तक बढ़ जाता है तो ऐसे संबंध भी अनुचित संबंधों के रूप में वर्गीकृत किए जाने चाहिए। अगर एक ही लिंग के दो लोगों के बीच अक्सर शारीरिक संपर्क होता है, यहाँ तक कि वे एक-दूसरे के साथ आमतौर पर उत्तेजनात्मक प्रकृति की भाषा का इस्तेमाल करते हैं और दोनों अक्सर एक-दूसरे के गले में हाथ डाले या ज्यादा स्पष्ट व्यवहार और अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करते हुए देखे जा सकते हैं तो समय के साथ सभी के लिए यह स्पष्ट हो जाता है : “ऐसा नहीं है कि ये दोनों एक-दूसरे की मदद करते हैं या इनका व्यक्तित्व मेल खाता है; बल्कि ये सामान्य मानवता के दायरे में बातचीत नहीं करते। यह समलैंगिकता है!” अब ज्यादातर लोग समझते हैं कि समलैंगिकता एक अनुचित संबंध है, जो विपरीत लिंगों के व्यक्तियों के बीच के संबंध से भी ज्यादा गंभीर और अनुचित है। अगर कलीसिया के भीतर ऐसे संबंध मौजूद हैं तो वे महामारी की तरह फैल सकते हैं, जिससे कुछ लोग इस तरह के प्रलोभन और बहकावे में आ सकते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि वे अतीत में समलैंगिकता में लिप्त रहे हैं लेकिन उन्होंने स्वेच्छा से ऐसा नहीं किया। इस बात को अलग रखते हुए कि वे वाकई समलैंगिक हैं या नहीं या उनका यौनिक रुझान किस ओर है, अगर वे बहकावे में आकर इस तरह के प्रलोभन में पड़ सकते हैं—फिलहाल इस बात को छोड़ देते हैं कि उन्होंने ऐसा स्वेच्छा से किया या निष्क्रिय रूप से—तो सर्वाधिक महत्वपूर्ण यह है कि वे इससे परेशान थे। उनके इस दावे से आँकें कि उन्होंने ऐसा स्वेच्छा से नहीं किया, तो वे पीड़ित थे। इसलिए अगर समलैंगिक लोग समान लिंग के अन्य लोगों को फुसलाते और बहकाते हैं, तो जो लोग बहकाए जाते हैं, भले ही वे अनिवार्य रूप से खुद समलैंगिक न हों, किसी के बहकावे में आकर समलैंगिक बन सकते हैं। क्या यह एक खतरनाक स्थिति नहीं है? ऐसे लोगों को समलैंगिक क्यों कहा जाता है? विषमलैंगिक व्यक्तियों द्वारा कई लोगों को फुसलाना व्यभिचार की श्रेणी में आता है, जो एक अनुचित संबंध है। इसलिए जब एक ही लिंग के दो लोग, जिनमें एक करीबी संबंध है और जो एक-दूसरे के साथ अच्छी तरह से रहते हैं, एक-दूसरे का हाथ थामते हैं और एक-दूसरे से गले मिलते हैं, जो सब सामान्य है, तो यह उन्हें समलैंगिक के रूप में परिभाषित किए जाने तक कैसे बढ़ सकता है? यह उनके बीच का यौन संबंध है—जब इस स्तर का संबंध स्थापित हो जाता है तो यह समलैंगिक हो जाता है। जब वे एक-दूसरे के कंधों पर अपनी बाँहें रखते हैं, एक-दूसरे की गर्दन से लिपटते हैं या एक-दूसरे को कमर से पकड़ते हैं तो यह समान लिंग के व्यक्तियों के बीच सामान्य शारीरिक संपर्क नहीं होता; बल्कि यह वासना से प्रेरित शारीरिक संपर्क होता है, जिसकी प्रकृति भिन्न है और इस तरह यह अनुचित संबंधों की श्रेणी में आता है। कलीसिया के ज्यादातर लोगों के लिए ऐसे समलैंगिकों को देखना शिक्षाप्रद होता है या नहीं होता? (नहीं, यह शिक्षाप्रद नहीं होता।) क्या ज्यादातर लोग इसे देखने के बाद परेशान हो जाते हैं? अगर तुम स्थिति से अनभिज्ञ हो और वे अपना हाथ तुम्हारी गर्दन या कमर पर रख दें, यहाँ तक कि तुम्हारा चेहरा चूम लें, तो क्या तुम परेशान होगे? (हाँ।) परेशान होने के बाद तुम्हारा दिल शांत होगा या बेचैन? (मुझे घृणा महसूस होगी।) तो क्या पाप करने का एहसास होगा? अगर तुम यह नहीं समझते कि इस तरह के मुद्दे का सार क्या है और समान लिंग का कोई व्यक्ति तुम्हें छू लेता है या तुम से शारीरिक संपर्क करता है और बाद में तुम इस पर ज्यादा सोच-विचार नहीं करते तो इसमें कोई बड़ी समस्या नहीं है। लेकिन अगर तुम इसके बारे में सोचते हो और सोचते ही रहते हो और फिर तुम इस व्यक्ति को छोड़ नहीं सकते, ठीक वैसे ही जैसे कोई विपरीत लिंग के व्यक्ति के लिए लालायित हो सकता है, चाहे तुम अपनी व्यक्तिपरक चेतना में विरोध करो या न करो, तो तुम्हारे भीतर ऐसे विचारों का उभरना यह दर्शाता है कि तुम पहले ही परेशान हो चुके हो, है ना? इसलिए समलैंगिक संबंधों, इस तरह के अनुचित संबंधों, की प्रकृति कहीं ज्यादा गंभीर होती है। कुछ लोग विषमलैंगिकों में व्यभिचार और समलैंगिकता के बीच अंतर देखने में विफल रहते हैं और इन दोनों मुद्दों को समान समझते हैं। असल में समलैंगिकता की समस्या विषमलैंगिकों में व्यभिचार के मुद्दे से कहीं ज्यादा गंभीर है।

अगर समलैंगिक संबंधों में लिप्त व्यक्ति कलीसिया में दिखाई देते हैं और उन पर प्रतिबंध नहीं लगाया जाता तो वे सभी के लिए खतरा और बाधा पैदा करते हैं। किस तरह की बाधा? बाहर से, ज्यादातर लोग उनके साथ बातचीत करने पर उनकी मानवता में किसी समस्या का पता नहीं लगा पाते, लेकिन लंबे समय तक मेलजोल रखने से उनके विचार मैले और दिल काले हो जाते हैं। वे परमेश्वर में विश्वास करने का उत्साह खो देते हैं और किसी विशेष समस्या का सामना किए बिना वे परमेश्वर में विश्वास करने के लिए अनिच्छुक हो जाते हैं, परमेश्वर के वचन पढ़ने में रुचि खो देते हैं, अपने दिलों में परमेश्वर से अधिकाधिक दूरी महसूस करते हैं और उनके मन में अपनी आस्था त्यागने के बुरे विचार आते हैं। इसलिए कलीसिया के भीतर ऐसे अनुचित समलैंगिक संबंध न सिर्फ रोके और प्रतिबंधित किए जाने चाहिए; बल्कि उनमें लिप्त लोगों को तुरंत कलीसिया से दूर कर दिया जाना चाहिए। यह बिल्कुल जरूरी है। एक बार ऐसे व्यक्तियों का पता चलने पर, चाहे वे जो भी कर्तव्य निभाते हों या उनके जो भी रुतबे हों, उन्हें बिना बर्दाश्त किए तुरंत कलीसिया से दूर कर देना चाहिए! यह कलीसिया का विनियम है। यह विनियम क्यों लागू है? यह ठोस कारणों पर आधारित है। परमेश्वर ने मनुष्यों को नर और मादा के रूप में बनाया; आदम को बनाने के बाद उसकी साथी हव्वा थी, दूसरा आदम नहीं। समलैंगिक संबंधों में लिप्त लोगों के खिलाफ ऐसी कार्रवाई करना परमेश्वर के वचनों पर आधारित है और यह बिल्कुल सटीक है। कुछ लोग कह सकते हैं, “इन लोगों को पश्चात्ताप करने का मौका क्यों न दिया जाए? ये युवा हैं; क्या इन्हें कुछ हास्यास्पद हरकतें नहीं करने देनी चाहिए?” नहीं! अन्य हास्यास्पद हरकतों से परिस्थितियों और प्रकृति के आधार पर अलग तरह से निपटा जा सकता है, लेकिन यह विशेष हास्यास्पद हरकत सिर्फ एक हास्यास्पद हरकत बिल्कुल नहीं है; इसे बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं किया जा सकता और कलीसिया के भीतर ऐसी हरकत करने वाले व्यक्ति को तुरंत दूर कर देना चाहिए! अगर कोई संपूर्ण कलीसिया समलैंगिकों से बनी होती तो सभी को दूर किया जाता। ऐसी कलीसिया नहीं चाहिए, एक भी नहीं! यही सिद्धांत है। कुछ लोग कहते हैं, “कुछ लोग सिर्फ एक व्यक्ति के साथ समलैंगिक संबंध रखते हैं, उन्होंने दूसरों को नहीं फुसलाया है या किसी और को परेशान करना शुरू नहीं किया है। क्या ऐसे व्यक्तियों से भी निपटकर उन्हें बाहर निकाल देना चाहिए?” अगर वे वास्तव में समलैंगिक हैं तो उन्हें कलीसिया में रहने देना परमेश्वर के चुने हुए लोगों के बीच एक चालू टाइम बम रखने के समान है—यह देर-सबेर फटेगा ही। भले ही उन्होंने किसी समान लिंग वाले व्यक्ति को परेशान न किया हो, फुसलाया या सताया न हो, इसका मतलब यह नहीं है कि वे भविष्य में भी ऐसा नहीं करेंगे। हो सकता है उन्हें अभी तक कोई ऐसा व्यक्ति न मिला हो जिसे वे चाहते हों, जिसे वे पसंद करते हों या समय सही न हो और सभी में अभी भी आपसी परिचय और समझ की कमी हो। लेकिन जब समय सही और ऐसे लोगों के लिए उपयुक्त होगा, तो वे अपनी चाल चलेंगे। इसलिए ऐसे व्यक्तियों को बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं करना चाहिए या उन्हें कलीसिया में नहीं रहने देना चाहिए, क्योंकि वे अप्राकृतिक और गैर-मानवीय हैं। कलीसिया को ऐसे लोग नहीं चाहिए। इस तरह के अनुचित संबंधों में लिप्त लोगों से इस तरह निपटना गलत या ज्यादती नहीं है। लेकिन कुछ लोग कहते हैं, “कुछ समलैंगिक काफी अच्छे प्रतीत होते हैं; उन्होंने कुछ भी बुरा नहीं किया होता, वे कानून और विनियमों का पालन करते हैं, बड़ों का सम्मान और छोटों से प्यार करते हैं, हमेशा अच्छे कर्म करते हैं, कुछ में गुण और कौशल भी होते हैं और कुछ कलीसिया में खास तौर से दान और मदद देते रहते हैं। हमें उन्हें कलीसिया में रहने देना चाहिए।” क्या यह विचार सही है? (नहीं।) चाहे तुम्हारे विचार सही हों या गलत, तुम्हें समलैंगिकों की प्रकृति की असलियत जानने में सक्षम होना चाहिए। समलैंगिक संबंधों में लिप्त व्यक्तियों के लिए कलीसिया के अभ्यास का सिद्धांत उन्हें बाहर निकालना है। यह एक प्रशासनिक आदेश है जिसका कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकता; सभी को इस सिद्धांत के अनुसार अभ्यास करना चाहिए।

इन दो तरह के अनुचित संबंधों की जिन अभिव्यक्तियों के बारे में हमने अभी-अभी संगति की है, उनका भेद पहचानना, उनकी असलियत समझना और उनका चरित्र चित्रण करना लोगों के लिए सबसे आसान है। ऐसे अनुचित संबंधों में लिप्त लोगों के बारे में एक तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को उनसे निपटने के लिए उन्हें रोकने, प्रतिबंधित करने, अलग-थलग करने और बाहर निकालने जैसे उपायों का इस्तेमाल करके अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए। दूसरे, भाई-बहनों को भी इन दो तरह के अनुचित संबंधों में लिप्त लोगों को पहचानकर उनसे दूर रहना चाहिए, ताकि वे उनके बहकावे में न आएँ और प्रलोभन में न पड़ें, जो परमेश्वर में उनकी आस्था और उद्धार प्राप्त करने के लिए सत्य के उनके अनुसरण को प्रभावित कर सकता है। एक बार प्रलोभन में फँस जाने के बाद खुद को छुड़ाना मुश्किल होता है। ज्यादातर लोगों को इन दो तरह के लोगों को पहचानने में सक्षम होना चाहिए। उस तरह व्यवहार मत करो जिस तरह लोग समाज में व्यवहार करते हैं, जैसे कि इस बात पर गौर न करने का दिखावा करना कि कौन किसके साथ इश्कबाजी करता है, व्यभिचार में लिप्त लोगों के प्रति उचित दृष्टिकोण या रुख न अपनाना, जब तक व्यक्ति के अपने हित शामिल न हों तब तक ऐसे व्यक्तियों के साथ सामान्य रूप से मेलजोल करने में सक्षम होना, उस तरह बोलना जिस तरह कि व्यक्ति आमतौर पर बोलता है, मानो कुछ भी गलत न हो। ऐसे लोग जिस तरह दूसरों के साथ व्यवहार करते हैं, क्या उसमें कोई सिद्धांत होता है? बिल्कुल नहीं। तमाम गैर-विश्वासी सांसारिक आचरणों के फलसफों के अनुसार जीते हैं, खुद को बचाने के लिए किसी को नाराज न करने का प्रयास करते हैं, लेकिन परमेश्वर का घर गैर-विश्वासी समाज से बिल्कुल अलग है। परमेश्वर के घर में सत्य की सत्ता रहती है। परमेश्वर अपेक्षा करता है कि लोग दूसरों के साथ सत्य सिद्धांतों के आधार पर व्यवहार करें। परमेश्वर के चुने हुए सभी लोग सत्य स्वीकार रहे हैं और खुद को सत्य से सुसज्जित कर रहे हैं और दूसरों को पहचानने और उनके साथ व्यवहार करने के लिए उसका उपयोग कर रहे हैं, ऐसा सिर्फ कलीसियाई जीवन बनाए रखने और भाई-बहनों की रक्षा करने के लिए ही नहीं, बल्कि इससे भी महत्वपूर्ण रूप से खुद को प्रलोभन की पीड़ा से बचाने और प्रलोभन में फँसने से बचने के लिए कर रहे हैं। जितनी जल्दी तुम ऐसे व्यक्तियों को पहचानकर उनसे खुद को दूर कर लोगे, उतना ही तुम खुद को प्रलोभन से दूर रख पाओगे और सुरक्षित रह पाओगे। तुम्हें अनुचित संबंधों में लिप्त व्यक्तियों के साथ इसी तरह व्यवहार करना चाहिए; यह सत्य सिद्धांतों के अनुसार और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है।

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