अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (14) खंड दो

कलीसियाई जीवन में रुतबे के लिए होड़ करने की एक और तरह की अभिव्यक्ति होती है जिसमें कलीसियाई जीवन और कलीसिया के कार्य में विघ्न-बाधा पैदा करना शामिल होता है। उदाहरण के लिए, कभी-कभी जब भाई-बहन एक-साथ किसी समस्या पर संगति कर रहे होते हैं तो हर किसी की संगति में कुछ प्रकाश होता है; जितना ज्यादा वे संगति करते हैं, सत्य सिद्धांत उतने ही ज्यादा स्पष्ट और सुबोध होते जाते हैं और अभ्यास का मार्ग जल्दी समझ में आ जाता है। लेकिन कोई अचानक एक “उत्कृष्ट विचार,” अपना कोई सुझाव पेश कर सकता है, जिससे संगति का प्रवाह टूट जाता है और विषय बदलता चला जाता है और मुख्य विषय की संगति अधूरी रह जाती है। ऊपर से ऐसा नहीं लगता कि वह कोई व्यवधान पैदा कर रहा है और ऐसा तो बिल्कुल नहीं लगता कि वह दूसरों के सत्य पर संगति करने पर प्रतिबंध लगा रहा है, लेकिन वह इस विषय को पेश करने के लिए उचित समय नहीं चुनता। जब कोई समस्या हल करने के लिए सत्य पर संगति की जा रही हो तो किसी नाजुक क्षण में संगति और चर्चा के लिए एक नया मुद्दा रख देने से पिछला मुद्दा पूरी तरह से हल होने से पहले ही कट जाता है। क्या यह कार्य बीच में ही छोड़ देना नहीं है? क्या इससे समस्या के समाधान में देरी नहीं होती? न केवल समस्या का समाधान नहीं होता, बल्कि लोगों को सत्य समझने में देरी भी होती है। क्या विवेकशील लोग ऐसा कर सकते हैं? क्या यह कहना ज्यादती होगी कि ऐसी चीजें कलीसियाई जीवन को अस्त-व्यस्त करती हैं? मुझे बिल्कुल नहीं लगता कि यह ज्यादती है। कोई समस्या हल करने के लिए सत्य की संगति करती सभा में गड़बड़ी पैदा करना—क्या यह कलीसियाई जीवन में जानबूझकर व्यवधान और गड़बड़ी पैदा करना नहीं है? कोई समस्या हल करने के लिए सत्य की संगति किए जाते समय नाजुक क्षणों में अगर कोई हमेशा अपनी टाँग अड़ाता है, अगर वह हमेशा लोगों को बोलने से बीच में ही रोकने की कोशिश करता है, तो यह विवेक न होने की समस्या नहीं है; यह कोई समस्या हल करने के लिए सत्य की संगति करती सभा में जानबूझकर गड़बड़ी पैदा करना है, यह कलीसियाई जीवन में व्यवधान और गड़बड़ी पैदा करने का दुष्कर्म है, और कुछ नहीं—केवल मसीह-विरोधी और बुरे लोग ही ऐसा करते हैं, केवल सत्य से घृणा करने वाले लोग ही ऐसा करते हैं। संदर्भ या परिस्थितियाँ कुछ भी हों, इस तरह के लोगों को हमेशा अपने “उत्कृष्ट विचारों” के साथ सामने आना होता है, वे हमेशा चाहते हैं कि सबकी नजरें उन पर हों, वे ध्यान का केंद्र बनें। लोग चाहे कितने भी नाजुक और महत्वपूर्ण विषय पर संगति कर रहे हों, उन्हें लोगों का ध्यान भटकाने और भव्य लगने वाले विचार झाड़ने के लिए और अद्वितीय दिखने की इच्छा से हमेशा अपनी टाँग अड़ानी होती है। आखिर वे किस तरह के करतब दिखाने की कोशिश करते हैं? क्या वे रुतबे के लिए होड़ नहीं करते? वे स्थिति नियंत्रित करना चाहते हैं। वे नहीं चाहते कि लोगों को सत्य की अधिक समझ और अधिक स्पष्टता मिले; वे सबसे ज्यादा इस बात की परवाह करते हैं कि हर कोई उन पर ध्यान दे, उनकी बात सुने और उनका आज्ञापालन करे और हर कोई उनके कहे अनुसार करे। यह स्पष्ट रूप से रुतबे के लिए होड़ करना है। कुछ लोग चाहे कोई भी काम क्यों न करते हों, जब तुम उनसे किसी चीज को कार्यान्वित करने के लिए विशिष्ट विचारों और योजनाओं के बारे में संगति करने के लिए कहते हो और उन्हें विस्तार से लागू करने के विशिष्ट चरणों के बारे में पूछते हो, तो वे कुछ नहीं बता पाते। फिर भी वे भव्य लगने वाले विचार झाडने, रूढ़िमुक्त दिखने और कुछ नया और चकाचौंध करने वाला काम करने के शौकीन होते हैं। चाहे वर्तमान परिस्थिति कैसी भी क्यों न हो, जैसे ही कोई नया विचार उनके दिमाग में आता है, वे उसे ऐसे पेश करते हैं मानो उससे प्रेरित हों, और बिना सोचे-समझे, उसे स्वीकार करने और उससे सहमत होने के लिए जल्दी से दूसरों के समक्ष पेश कर देते हैं। लेकिन जब उनसे अंततः अभ्यास के लिए विशिष्ट मार्गों पर चर्चा करने के लिए कहा जाता है तो वे अवाक रह जाते हैं। उनमें योग्यता की कमी होती है, लेकिन फिर भी वे दिखावा करना चाहते हैं, हमेशा दिखते रहने का लक्ष्य रखते हैं। वे दोयम दर्जे की भूमिका निभाने के लिए तैयार नहीं होते; वे अन्य लोगों की तरह सिर्फ एक साधारण अनुयायी नहीं बनना चाहते। उन्हें हमेशा डर लगा रहता है कि दूसरे उनका अनादर करेंगे और वे हमेशा अपनी मौजूदगी का एहसास कराना चाहते हैं। इसलिए वे हमेशा दिखते रहने के लिए भव्य लगने वाले विचार झाड़ते रहते हैं। हमेशा ऐसा करने का क्या मतलब है? जब कोई विचार उनके दिमाग में आता है तो वे बिना सोचे-समझे या विचार के परिपक्व होने से पहले ही उसे आँख मूँदकर अच्छा और अभ्यास करने योग्य मान लेते हैं। जब वे जल्दबाजी में इस विचार को प्रस्तुत करते हैं तो दूसरे लोग इसे समझ नहीं पाते और स्वाभाविक रूप से कुछ सवाल उठाते हैं। जवाब देने में असमर्थ होने के बावजूद वे इस बात पर जोर देते हैं कि उनका मत सही है और सभी को उसे स्वीकारना चाहिए। यह किस तरह का स्वभाव है? अपने विचारों पर उनके निराधार अड़े रहने के क्या परिणाम होंगे? यह कलीसिया के कार्य के लिए फायदेमंद है या गड़बड़ी पैदा करने वाला? यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए फायदेमंद है या नुकसानदेह? वे इसे बिना किसी जिम्मेदारी की भावना के कह पाते हैं—उनका उद्देश्य क्या होता है? उनका उद्देश्य सिर्फ अपनी मौजूदगी का एहसास कराना होता है। वे डरते हैं कि दूसरे लोग यह नहीं जान पाएँगे कि उनके पास ऐसे “उत्कृष्ट विचार” हैं, वे नहीं जान पाएँगे कि उनके पास काबिलियत, बुद्धिमत्ता और योग्यताएँ हैं; वे इस मान्यता के लिए प्रयास करते हैं ताकि ज्यादातर लोग उन्हें अत्यधिक सम्मान दें। अंत में क्या होता है? वे जल्दबाजी में सुझाव देते हैं और दूसरे लोग शुरू में सोचते हैं कि उनके पास वाकई कुछ योग्यताएँ हैं, कुछ वास्तविक है। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता है, यह स्पष्ट होता जाता है कि वे सिर्फ मूर्ख हैं, उनके पास वास्तविक ज्ञान या कौशल नहीं है, फिर भी वे हमेशा अंतिम निर्णय लेने की इच्छा रखते हैं। यह रुतबे के लिए होड़ करना है। वास्तविक योग्यता न होने पर भी वे खुद फैसले करना चाहते हैं; वे हमेशा बिना किसी ठोस योजना के भव्य लगने वाले विचार झाड़ते रहते हैं और उनके पास अभ्यास का कोई विशिष्ट मार्ग नहीं होता। अगर ऐसे लोगों को वास्तव में कार्य सौंपे जाएँ तो क्या परिणाम होंगे? इससे निश्चित रूप से देरी होगी। जब वे कुछ नहीं कर सकते तो हमेशा रुतबे के लिए होड़ क्यों करते हैं, सत्ता क्यों पाना चाहते हैं? वे सिर्फ मूर्ख होते हैं, जिनमें बुद्धि नहीं होती; ज्यादा सुरुचिपूर्ण शब्दों में कहें तो उनमें विवेक बिल्कुल नहीं होता। गैर-विश्वासियों में ऐसे बहुत सारे लोग होते हैं जो सिर्फ बातें करते हैं, कोई काम नहीं करते। ज्यादातर लोग इस तरह के व्यक्ति का थोड़ा-बहुत भेद पहचान सकते हैं। अगर कोई हमेशा भव्य लगने वाले विचार झाड़ता रहता है और नवोन्वेषी दिखना चाहता है तो उससे सावधान रहना चाहिए ताकि उसके झाँसे में न आ जाओ। अगर वाकई कोई ऐसा व्यक्ति है जिसके पास गहरी अंतर्दृष्टि वाले विचार हैं और जो ठोस योजना भी पेश कर सकता है तो यह तभी स्वीकार्य है जब इसका कार्यान्वयन संभव हो; अगर वह ठोस योजनाएँ पेश किए बिना सिर्फ भव्य लगने वाले विचार ही झाड़ता रहता है तो उसके साथ सावधानी से पेश आना चाहिए। यह निर्धारित करने के लिए संगति करनी चाहिए कि उसके विचारों के लिए कोई व्यवहार्य मार्ग है या नहीं। अगर बहुमत को लगता है कि उसका विचार का कार्यान्वयन संभव है और उसके पास अभ्यास का मार्ग है तो निर्णय लेने से पहले यह देखने के लिए उसे कुछ समय तक आजमाना चाहिए कि नतीजे कैसे होते हैं।

चाहे कलीसिया सत्य के किसी भी पहलू के बारे में संगति करती हो या वह किसी भी समस्या का समाधान करती हो, तमाम तरह के लोग सामने आएँगे। लंबे समय तक मिलने-जुलने के बाद व्यक्ति यह देख सकता है कि कौन वास्तव में सत्य से प्रेम कर उसे स्वीकार सकता है और कौन ऐसे हैं जो उचित कार्यों पर ध्यान न देकर गड़बड़ करते हैं और बाधा डालते हैं। क्या तुम लोगों को लगता है कि जो लोग भव्य लगने वाले विचार झाड़ना पसंद करते हैं और नए विचार प्रस्तुत करते हैं, वे सत्य स्वीकार सकते हैं और परमेश्वर में विश्वास करने के सही मार्ग पर चल सकते हैं? मुझे लगता है कि उनके लिए ऐसा करना आसान नहीं है। ये लोग कलीसियाई जीवन में क्या भूमिका निभाते हैं? उनके द्वारा अक्सर भव्य लगने वाले विचार झाड़ने और उचित कार्यों पर ध्यान न देने के क्या परिणाम होते हैं? जैसा कि ज्यादातर लोग देख सकते हैं यह कलीसियाई जीवन को अस्त-व्यस्त करता है और अगर यह जारी रहता है तो इससे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को सत्य का अनुसरण करने और वास्तविकता में प्रवेश करने में देरी होगी। हालाँकि जो लोग भव्य लगने वाले विचार झाड़ना पसंद करते हैं वे जरूरी नहीं कि बुरे लोग हों, लेकिन उनके क्रियाकलापों के परिणाम परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश के लिए बहुत हानिकारक होते हैं और साथ ही उनके क्रियाकलाप कलीसिया के कार्य में भी देरी कर उसे प्रभावित करते हैं। तो इस समस्या का समाधान कैसे करना चाहिए? जो लोग भव्य लगने वाले विचार झाड़ना और नए विचार प्रस्तुत करना पसंद करते हैं, उनसे उचित तरीके से कैसे निपटा जाए? पहला तरीका यह है : अगर वे भव्य लगने वाले विचार झाड़ना पसंद करते हैं और हमेशा अलग राय रखते हैं तो उन्हें पहले बोलने दो और फिर विवेक का प्रयोग करो। हर कोई बोलने और राय व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र है चाहे वह कोई भी हो; किसी को भी इस पर प्रतिबंध नहीं लगाना चाहिए। जिस किसी के पास वास्तव में विचार और बुद्धिमत्तापूर्ण अंतर्दृष्टियाँ हों, उसे बोलने और उन्हें स्पष्ट करने देना चाहिए ताकि सभी देख लें और फिर संगति और चर्चा करके यह देखना चाहिए कि क्या वे सही हैं, क्या वे सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हैं और क्या उनमें कोई ऐसा हिस्सा है जिसे अपनाया जा सकता है। अगर वे सीखने लायक हों और उनसे कुछ लाभ उठाया जा सकता हो तो अच्छा है; अगर संगति और चर्चा के बाद यह तय हो कि उसके कहने का कोई मूल्य नहीं है और वह उचित नहीं है तो उसे छोड़ देना चाहिए। इस तरह से अभ्यास करने से हर किसी की समझ बढ़ेगी; जब भी कोई बात सामने आएगी तो वे सभी जान पाएँगे कि इस मामले पर कैसे विचार करना है और वे विभिन्न लोगों को बेहतर ढंग से समझ पाएँगे। ऐसा अभ्यास परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए लाभदायक है और इससे कलीसिया के कार्य में व्यवधान नहीं आएगा; अभ्यास का यह तरीका सही है। दूसरा तरीका यह है : जब कही गई बात का कोई मूल्य न हो और उस पर संगति और चर्चा करने पर भी उससे कोई लाभ प्राप्त न हो तो ऐसे सुझाव सीधे खारिज कर देने चाहिए और कोई संगति या चर्चा करने की जरूरत नहीं है। अगर कोई व्यक्ति ऐसे बेकार के मुद्दे और “उत्कृष्ट विचार” उठाता रहे, जिससे परमेश्वर के चुने हुए लोग तंग आ जाएँ और उसकी बात सुनने को तैयार न हों तो क्या ऐसे व्यक्ति पर प्रतिबंध नहीं लगाया जाना चाहिए? उन्हें ज्यादा विवेक दिखाने और ऐसी बातें कहने से बचने की सलाह देना सबसे अच्छा होगा जो नहीं कही जानी चाहिए, ताकि दूसरों को प्रभावित होने से बचाया जा सके। अगर इस व्यक्ति में विवेक की कमी हो और वह इसी तरह से करते रहने पर अड़ा रहे जिससे कलीसियाई जीवन में विघ्न पैदा हो जाए और सभी को विशेष रूप से परेशान करे, यहाँ तक कि उन्हें क्रोधित कर दे तो वह एक बुरा व्यक्ति है जो कलीसियाई जीवन में विघ्न पैदा करता है। उससे परमेश्वर के घर के कलीसिया की सफाई करने के सिद्धांतों के अनुसार निपटना चाहिए—उसे कलीसिया से बाहर निकाल दो; यही उचित है। मुझे बताओ, भव्य लगने वाले विचार झाड़ना पसंद करने वाले ज्यादातर लोग किस तरह के होते हैं? क्या वे उस तरह के होते हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं? क्या वे ईमानदारी से परमेश्वर के लिए खुद को खपाते हैं? यकीनन नहीं। तो फिर कलीसियाई जीवन में इस तरह के विघ्न पैदा करने के पीछे उनका क्या उद्देश्य और इरादा होता है? इसके लिए विवेक की जरूरत होती है। अगर हर किसी को पहले से ही ऐसे लोगों के बारे में पर्याप्त समझ हो, वे जानते हों कि उनमें बुद्धि, काबिलियत और विवेक की कमी है—कि वे बस मूर्ख हैं—तो उनके द्वारा अपने “उत्कृष्ट विचार” व्यक्त करने पर उनसे निपटने का सबसे उचित तरीका है उन्हें रोकना और प्रतिबंधित करना और उन्हें चुप कराना। अगर वे बोलने और कलीसियाई जीवन में विघ्न पैदा करने पर अड़े रहते हैं तो भावी परेशानियाँ रोकने के लिए उन्हें कलीसिया से बाहर निकाल देना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “क्या यह उन्हें बचाए जाने के उनके अवसर बर्बाद करना नहीं है?” यह कहना गलत है। क्या परमेश्वर ऐसे लोगों को बचा सकता है? क्या ऐसे स्वभावों वाले लोग सत्य स्वीकार सकते हैं? क्या वे सत्य बिल्कुल भी स्वीकारे बिना उद्धार प्राप्त कर सकते हैं? क्या ऐसे मामलों की असलियत नहीं जान पाना बेहद मूर्खतापूर्ण और अज्ञानतापूर्ण नहीं है? बहरहाल, जो लोग अक्सर कलीसियाई जीवन में विघ्न डालते हैं, वे बुरे लोग होते हैं और परमेश्वर उन्हें नहीं बचाता। क्या किसी ऐसे व्यक्ति को, जिसे परमेश्वर नहीं बचाता, कलीसिया में रखना परमेश्वर के चुने हुए लोगों को जानबूझकर नुकसान पहुँचाना नहीं है? क्या कोई ऐसा व्यक्ति जो ऐसे बुरे लोगों पर दया करता है, वास्तव में प्रेमपूर्ण है? मुझे नहीं लगता; उनका प्रेम झूठा है। सच यह है कि वह परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाने का इरादा रखता है। इसलिए परमेश्वर के चुने हुए लोगों को ऐसे किसी भी व्यक्ति से सावधान रहना चाहिए जो बुरे लोगों का बचाव करता है, उन्हें उसकी शैतानी बातों से गुमराह नहीं होना चाहिए। हालाँकि कुछ लोग जो भव्य लगने वाले विचार झाड़ना पसंद करते हैं, बुरे लोगों जैसे नहीं लगते और जाहिर तौर पर बुरी हरकतें नहीं करते, फिर भी वे हमेशा अपने भव्य लगने वाले विचार झाड़कर कलीसियाई जीवन में विघ्न डाल सकते हैं; कम से कम, ये लोग भ्रमित होते हैं। तुम लोगों को क्या लगता है, क्या भ्रमित लोग बचाए जा सकते हैं? निश्चित रूप से नहीं। अगर भ्रमित लोग लगातार कलीसियाई जीवन में विघ्न डालते हैं तो उन्हें भी कलीसिया से निकाल देना चाहिए। भ्रमित लोग सत्य नहीं स्वीकारते, वे सुधरते नहीं और पश्चात्ताप नहीं करते और उनका अंत बुरे लोगों जैसा ही होता है। वे बुरे हों या भ्रमित, अगर वे अक्सर कलीसियाई जीवन को अस्त-व्यस्त करते हैं, सलाह पर ध्यान नहीं देते और बिना ब्रेक वाली कार की तरह बेकाबू होकर बोलते हैं तो क्या यह असामान्य विवेक का संकेत नहीं है? अगर ऐसे भ्रमित लोग लंबे समय तक इसी तरह से कलीसिया में विघ्न डालते रहे तो इसके क्या परिणाम होंगे? इसके अलावा, क्या वे वास्तव में पश्चात्ताप कर सकते हैं? क्या परमेश्वर ऐसे असामान्य विवेक वाले भ्रमित लोगों को बचाता है? जब इन सवालों की असलियत जान ली जाती है तो यह स्पष्ट हो जाता है कि ऐसे व्यक्तियों से कैसे ठीक से निपटना है। भ्रमित लोग निश्चित रूप से सत्य से प्रेम नहीं करते और सत्य उनकी पहुँच से परे होता है। भ्रमित लोग इंसानी भाषा नहीं समझ सकते; यह कहा जा सकता है कि भ्रमित लोगों में सामान्य मानवता की कमी होती है और वे आधे पागल होते हैं—असल में वे नाकारा होते हैं। क्या भ्रमित लोग अच्छी तरह से सेवा कर सकते हैं? यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि वे मानक तरीके से सेवा करने तक में सक्षम नहीं होते क्योंकि उनका विवेक डाँवाडोल होता है; वे ऐसे लोग होते हैं जो किसी चीज का सिर-पैर नहीं समझते। अगर कोई भ्रमित लोगों के प्रति प्रेम दिखाना चाहता है तो उसे भ्रमित लोगों का समर्थन करने दो। भ्रमित लोगों के प्रति परमेश्वर के घर का रवैया यह है कि उन्हें बाहर निकाल देना चाहिए। जो कोई सत्य बिल्कुल नहीं स्वीकारता, जो कोई ईमानदारी से अपना कर्तव्य नहीं निभाता, हमेशा उसे लापरवाही से निभाता है, अगर वह अक्सर कलीसियाई जीवन में विघ्न डालता है तो उसे प्रतिबंधित करना चाहिए। अगर उनमें से कुछ लोग पछतावा महसूस करते हैं और पश्चात्ताप करने के लिए तैयार होते हैं तो उन्हें मौका देना चाहिए। जिनके सार की असलियत नहीं जानी जा सकती, उन्हें अस्थायी रूप से कलीसिया में रखना चाहिए, ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोग उनका पर्यवेक्षण और निरीक्षण कर अपने विवेक में वृद्धि कर सकें। अगर ऐसे लोग हैं जो लगातार विघ्न-बाधा पैदा करते हैं और काट-छाँट किए जाने के बावजूद सुधरते नहीं है और पछतावा नहीं करते, प्रसिद्धि और लाभ के लिए होड़ करते रहते हैं, सकारात्मक चरित्रों पर आक्रमण करते हैं और उन्हें बाहर रखते हैं—खासकर उन लोगों पर आक्रमण करते हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं और अनुभवजन्य गवाहियाँ साझा कर सकते हैं और जो ईमानदारी से परमेश्वर के लिए खुद को खपाकर अपने कर्तव्य निभाते हैं—तो ये लोग बुरे और मसीह-विरोधी हैं, छद्म-विश्वासी हैं। ऐसे लोगों को सिर्फ रोकना और प्रतिबंधित करना उचित नहीं है; उन्हें भावी परेशानियाँ रोकने के लिए तुरंत कलीसिया से बाहर निकाल देना चाहिए। अभ्यास का यह तरीका पूरी तरह से परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है।

ये रुतबे के लिए होड़ करने की कमोबेश विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं, छोटी से लेकर गंभीर तक। छोटी अभिव्यक्तियाँ मुख्य रूप से अगुआओं और कार्यकर्ताओं का कठोर शब्दों में मजाक उड़ाने, उनमें दोष निकालने और अगुआओं और कार्यकर्ताओं की सक्रियता पर आक्रमण करने को संदर्भित करता है, जिसका लक्ष्य उन्हें नष्ट और बदनाम करना होता है। सबसे गंभीर अभिव्यक्तियाँ हैं अगुआओं और कार्यकर्ताओं का खुले तौर पर सीधे विरोध करना, उनके खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए चीजें ढूँढ़ना और उनकी आलोचना करना, उनकी निंदा करना, उन पर आक्रमण करना और उन्हें बाहर रखना और फिर उन्हें अलग-थलग करना और उनका रुतबा हथियाने के लिए उन्हें गलती स्वीकारने और इस्तीफा देने के लिए मजबूर करना। ये विघ्न-बाधाएँ पैदा करने वाली वे सबसे गंभीर समस्याएँ हैं जो कलीसियाई जीवन में आती हैं। जो लोग अगुआओं या कार्यकर्ताओं के खिलाफ खुलेआम चिल्ल-पौं मचाते हैं और रुतबे के लिए उनसे होड़ करते हैं, वे कलीसिया के कार्य में बाधा डालते हैं और परमेश्वर का विरोध करते हैं, वे बुरे लोग और मसीह-विरोधी हैं और उन्हें न सिर्फ रोका और प्रतिबंधित किया जाना चाहिए—अगर स्थिति गंभीर हो और उन्हें बहिष्कृत या निष्कासित करना जरूरी हो तो उनके साथ सिद्धांतों के अनुसार निपटना चाहिए। रुतबे के लिए होड़ करने की एक और अभिव्यक्ति भी है : कलीसिया में सत्य का अनुसरण करने वालों को वे निकाल देते हैं और उन पर आक्रमण करते हैं। चूँकि सत्य का अनुसरण करने वालों में शुद्ध समझ होती है और उनमें परमेश्वर के वचनों का अनुभव और सच्चा ज्ञान होता है और वे अक्सर भाई-बहनों के बीच समस्याएँ हल करने के लिए सत्य पर संगति करते हैं और इस तरह परमेश्वर के चुने हुए लोगों को शिक्षित करते हैं और धीरे-धीरे कलीसिया में प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेते हैं, इसलिए ये बुरे लोग और मसीह-विरोधी उनसे ईर्ष्या और उनका विरोध करते हैं और उन्हें निकाल देते हैं और उन पर आक्रमण करते हैं। ऐसा कोई भी व्यवहार जिसमें सत्य का अनुसरण करने वालों पर आक्रमण करना या उन्हें निकाल देना शामिल है, सीधे तौर पर कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधा पैदा करना है। हो सकता है कुछ लोग सीधे तौर पर कलीसिया के अगुआओं को निशाना न बनाएँ, लेकिन उनके मन में कलीसिया के उन लोगों के लिए विशेष द्वेष और तिरस्कार होता है जो सत्य समझते हैं और व्यावहारिक अनुभव रखते हैं। वे ऐसे लोगों को निकाल भी देते हैं और उन्हें दबाते भी हैं, अक्सर उनका मजाक उड़ाते हैं और उपहास करते हैं, यहाँ तक कि उन्हें फँसाने के लिए जाल बिछाते हैं और उनके खिलाफ साजिश भी रचते हैं, इत्यादि। हालाँकि इस तरह की समस्याएँ अपनी प्रकृति और परिस्थितियों की दृष्टि से कलीसिया के अगुआओं के साथ रुतबे के लिए होड़ करने से कम गंभीर होती हैं, लेकिन वे कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधाएँ भी पैदा करती हैं और उन्हें रोकना और प्रतिबंधित करना चाहिए। अगर कलीसिया में ज्यादातर भाई-बहन प्रभावित होते हैं और अक्सर नकारात्मकता और कमजोरी में डूब जाते हैं—अगर ये समस्याएँ इस तरह के परिणामों की ओर ले जाती हैं, तो ये विघ्न-बाधाओं के समान ही हैं। जो बुरा व्यक्ति विघ्न-बाधाएँ पैदा करता है, उसे सिर्फ प्रतिबंधित नहीं किया जाना चाहिए बल्कि उसे अलग रखने और चिंतन करने के लिए “बी” समूह में भेज देना चाहिए या बाहर निकाल देना चाहिए। जो लोग ऐसे क्रियाकलापों में संलग्न होते हैं जिनकी प्रकृति विघ्न-बाधाएँ पैदा करने की होती है, वे ऐसे लोग होते हैं जो आदतन बुरे काम करते हैं। लोगों के साथ कैसे पेश आया जाए, इस दृष्टि से अक्सर बुरे काम करने वाले बुरे लोगों और कभी-कभी बुरे काम करने वाले लोगों के बीच अंतर करना चाहिए। जो लोग तरह-तरह के बुरे काम करते हैं वे मसीह-विरोधी होते हैं; जो लोग कभी-कभी बुरे काम करते हैं वे खराब मानवता वाले लोग होते हैं। अगर दो लोग कभी-कभी अपने व्यक्तित्व में भिन्नता के कारण या काम करते समय भिन्न विचार रखने के कारण या अपने बोलने के तरीके भिन्न होने के कारण बहस करते हैं या विवादों में उलझ जाते हैं लेकिन इससे कलीसियाई जीवन प्रभावित नहीं होता तो इसमें विघ्न-बाधाएँ पैदा करने की प्रकृति नहीं है; यह बुरे लोगों द्वारा कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधाएँ पैदा करने से अलग है। जिन चीजों की प्रकृति कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधाएँ पैदा करने की होती है जिनके बारे में हम बात कर रहे हैं, वे सभी बुरे लोगों द्वारा किए गए बुरे कामों की अभिव्यक्तियाँ होती हैं। जब बुरे लोग बुरे काम करते हैं तो यह आदतन होता है। बुरे लोग सबसे ज्यादा उन लोगों से नफरत करते हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं। जब वे देखते हैं कि सत्य का अनुसरण करने वाला कोई व्यक्ति अपनी अनुभवजन्य गवाही साझा करने में सक्षम है और इसके लिए दूसरों से विशेष प्रशंसा प्राप्त करता है तो वे ईर्ष्या और घृणा से भर जाते हैं और उनकी आँखें क्रोध से जल उठती हैं। जो कोई भी आत्मचिंतन करता है और खुद को जानता है, जो कोई भी अपने व्यावहारिक अनुभव साझा करता है और जो कोई भी परमेश्वर की गवाही देता है, उसे इन बुरे लोगों के उपहास, निंदा, दमन, बहिष्कार, आलोचना, यहाँ तक कि उत्पीड़न का भी सामना करना पड़ता है। वे आदतन ऐसा करते हैं। वे किसी को भी अपने से बेहतर नहीं होने देते, वे ऐसे लोगों को देखना बर्दाश्त नहीं कर सकते जो उनसे बेहतर हैं। जब वे किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हैं जो उनसे बेहतर होता है, तो वे ईर्ष्यालु, क्रोधित और कुपित हो जाते हैं और उन्हें नुकसान पहुँचाने और सताने के बारे में सोचते हैं। ऐसे लोग पहले ही कलीसियाई जीवन और कलीसिया की व्यवस्था में गंभीर विघ्न-बाधाएँ पैदा कर चुके होते हैं और अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ऐसे व्यक्तियों को उजागर करने, रोकने और प्रतिबंधित करने में भाई-बहनों के साथ मिलकर काम करना चाहिए। अगर उन्हें प्रतिबंधित करना संभव न हो और उनके साथ सत्य के बारे में संगति किए जाने के बाद भी वे पश्चात्ताप नहीं करते या अपना ढर्रा नहीं बदलते तो वे बुरे हैं और बुरे व्यक्तियों को कलीसिया की सफाई के लिए परमेश्वर के घर के सिद्धांतों के अनुसार मापना चाहिए और उनसे वैसे ही व्यवहार करना चाहिए। अगर संगति के जरिये अगुआ और कार्यकर्ता आम सहमति पर पहुँचकर यह निर्धारित करते हैं कि यह किसी बुरे व्यक्ति द्वारा कलीसिया में विघ्न डालने के समान है तो इस मामले से सत्य सिद्धांतों के अनुसार निपटना चाहिए : उस व्यक्ति को कलीसिया से निकाल देना चाहिए। कलीसियाई जीवन में विघ्न डालने वाले ऐसे बुरे लोगों को और बर्दाश्त नहीं करना चाहिए। अगर अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यह स्पष्ट हो कि यह किसी बुरे व्यक्ति द्वारा विघ्न डालने के समान है और फिर भी वे अज्ञानता का नाटक करते हुए उस बुरे व्यक्ति का बुरे काम करना और विघ्न डालना सहन करते हैं तो वे भाई-बहनों के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने में विफल होते हैं और परमेश्वर और उसके आदेश के प्रति वफादार नहीं हैं।

कुछ लोग दिखने में भले ही ठीक लगें, लेकिन असल में उनका बौद्धिक स्तर किसी मूर्ख जैसा होता है। वे उचित-अनुचित का भेद समझे बिना बोलते और कार्य करते हैं, उनमें सामान्य मानवता की तार्किकता का अभाव होता है। ऐसे लोग रुतबे और प्रतिष्ठा के लिए होड़ करना, अंतिम निर्णय खुद लेने के लिए लड़ना और दूसरों से अत्यधिक सम्मान प्राप्त करने के लिए प्रतिस्पर्धा करना भी पसंद करते हैं। कलीसियाई जीवन में वे अक्सर दूसरे लोगों में से ज्यादातर का ध्यान खींचने और उनसे अत्यधिक सम्मान प्राप्त करने के लिए वैध लगने वाले लेकिन वास्तव में भ्रामक विचार और तर्क प्रस्तुत कर लोगों के विचार अस्त-व्यस्त कर देते हैं, परमेश्वर के वचनों की उनकी सही समझ और ज्ञान अस्त-व्यस्त कर देते हैं और हर चीज के बारे में उनकी सकारात्मक समझ में विघ्न डालते हैं। जब दूसरे लोग परमेश्वर के वचनों और उनकी शुद्ध समझ पर संगति कर रहे होते हैं तो ये लोग अक्सर अपनी मौजूदगी का एहसास कराने और सभी लोगों का ध्यान खींचने के लिए विदूषकों की तरह अचानक प्रकट हो जाते हैं, हमेशा भाई-बहनों को यह दिखाना चाहते हैं कि वे एक-दो तरकीबें जानते हैं और वे विद्वान, अत्यधिक ज्ञानी और पढ़े-लिखे हैं, इत्यादि। हालाँकि उनके पास अभी भी स्पष्ट लक्ष्य नहीं होता कि किस अगुआ को लक्ष्य बनाना है या किस अगुआ के पद के लिए होड़ करनी है, उनकी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ इतनी बड़ी होती हैं कि उनकी बातों और क्रियाकलापों ने कलीसियाई जीवन में विघ्न डाल दिए हैं, इसलिए स्थिति की गंभीरता और उसकी प्रकृति के अनुसार भी उन्हें प्रतिबंधित करना चाहिए। सबसे अच्छा होगा कि उनका सही तरीके से मार्गदर्शन करने और उनके आचरण को दिशा प्रदान करने के लिए पहले उनके साथ सत्य पर संगति की जाए, जिससे वे खुद को बदल सकें और समझ सकें कि कलीसियाई जीवन सामान्य रूप से कैसे जीना है, दूसरों के साथ कैसे मेलजोल रखना है, अपने उचित स्थान पर कैसे रहना है और तर्कसंगत कैसे बनना है। अगर यह उनकी कम उम्र, अंतर्दृष्टि की कमी और युवावस्था के अहंकार के कारण हो और अगर उन्होंने बार-बार संगति करने के बाद पश्चात्ताप किया हो, यह महसूस किया हो कि उनके पिछले क्रियाकलाप गलत, शर्मनाक, सभी के लिए घृणास्पद थे और सभी के लिए मुसीबत लेकर आए थे और उन्होंने इसके लिए क्षमा माँगी हो और पश्चात्ताप किया हो तो उनकी पिछली गलतियों की वजह से उनके पीछे पड़े रहने की जरूरत नहीं है—उनकी बस प्यार से मदद की जा सकती है। लेकिन अगर सबके लिए विघ्न डालने वाली उनकी गलत हरकतें युवावस्था के अहंकार या सत्य की समझ की कमी के कारण नहीं बल्कि गुप्त इरादों से प्रेरित थीं और बार-बार हतोत्साहित किए जाने के बावजूद वे अपना व्यवहार जारी रखते हैं; और अगर, इसके अलावा, उनकी काट-छाँट की गई है और भाई-बहनों ने इस समस्या की गंभीरता पर उनके साथ संगति की है—उन्हें नकारात्मक और सकारात्मक दोनों पहलुओं से संगति और मदद प्रदान कर दी गई है—इसके बावजूद वे अभी भी अपने प्रकृति सार को नहीं पहचान पाते, इन हरकतों से दूसरों को होने वाली परेशानियाँ और उनके गंभीर परिणाम नहीं देख सकते और मौका मिलते ही यही हरकतें करके विघ्न-बाधाएँ पैदा करते रहते हैं तो इस मामले में कठोर उपायों की दरकार है। अगर पश्चात्ताप करने के पर्याप्त अवसर दिए जाने पर भी वे आत्मचिंतन या खुद को जानने की कोशिश बिल्कुल भी नहीं करते और चाहे उनके साथ सत्य पर कैसे भी संगति की जाए, वे नहीं समझते, न ही वे जानते हैं कि तर्कसंगत रूप से और सिद्धांतों के अनुसार कैसे कार्य करना है, बल्कि हठपूर्वक कार्य करने के अपने ही तरीके से चिपके रहते हैं तो इन लोगों के साथ कोई समस्या है। कम से कम, तर्कसंगत दृष्टिकोण से, उनमें एक सामान्य व्यक्ति के विवेक की कमी है। यह इसे ऊपरी तौर पर देखना है। अगर सार की दृष्टि से देखें तो चाहे उनके साथ किसी भी तरह की संगति क्यों न की जाए, वे मुद्दे की गंभीरता नहीं समझ सकते, न ही वे अपना उचित स्थान ढूँढ़ सकते हैं, न ही वे संगति और मदद स्वीकार सकते हैं या भाई-बहनों द्वारा बताए गए मार्ग के अनुसार अभ्यास करने की कोशिश कर सकते हैं—अगर वे ये चीजें भी हासिल नहीं कर सकते, तो उनकी समस्या सिर्फ विवेक की कमी नहीं है, बल्कि उनकी मानवता के साथ समस्या है। हालाँकि वे बिना इरादे के विघ्न-बाधाएँ पैदा करते दिखते हैं, लेकिन ये कर्म निश्चित रूप से बिना इरादे के नहीं होते, बल्कि उद्देश्य और इरादों के साथ किए जाते हैं। इस बात को एक तरफ रखते हुए कि इन व्यक्तियों के इरादे या उद्देश्य क्या हो सकते हैं, अगर वे जो कहते और करते हैं वह भाई-बहनों के जीवन प्रवेश और कलीसियाई जीवन को गंभीर रूप से अस्त-व्यस्त करता है जिससे कई लोगों को कलीसियाई जीवन जीने से कुछ हासिल नहीं होता, इस हद तक कि कुछ दूसरे लोग सिर्फ इसलिए सभा में आने के लिए तैयार नहीं होते क्योंकि वे वहाँ मौजूद होते हैं, या जब भी वे बोलते हैं लोग उनमें दिलचस्पी लेना बंद कर देते हैं और चले जाना चाहते हैं तो इस समस्या की प्रकृति गंभीर हो जाती है। ऐसे लोगों से कैसे निपटना चाहिए? अगर वे कई मौकों पर संगति और मदद प्रदान किए जाने और पश्चात्ताप करने के अवसर दिए जाने के बावजूद ये चीजें करते रहते हैं तो यह उनका प्रकृति सार है जिसमें समस्या है। वे ऐसे लोग नहीं हैं जो वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं और सत्य स्वीकार सकते हैं, बल्कि इसके बजाय उनका कोई और एजेंडा है। उनके प्रकृति सार को देखते हुए, कलीसियाई जीवन में उनके द्वारा पैदा किए जाने वाली विघ्न-बाधाएँ निश्चित रूप से गैर-इरादतन नहीं होतीं, बल्कि इन लोगों का कोई उद्देश्य और इरादे होते हैं। अगर ऐसे लोगों को और अवसर दिए जाते हैं तो क्या यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए उचित है जो सामान्य रूप से कलीसियाई जीवन जी रहे हैं? (नहीं।) ऐसे व्यक्तियों की समस्या पहले ही इस हद तक प्रकट हो चुकी है; अगर उन्हें पश्चात्ताप की प्रतीक्षा में अभी भी अवसर दिए जाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप वे और ज्यादा बुरे काम कर डालते हैं और ज्यादा लोगों को नकारात्मकता और कमजोरी की ओर ले जाते हैं और उनके पास बचने का कोई उपाय नहीं रहता तो इस नुकसान की भरपाई कौन करेगा? इसलिए अगर इन व्यक्तियों को संगति और प्रेमपूर्ण सहायता प्रदान की गई है या उन्हें रोकने और प्रतिबंधित करने की कार्रवाई की गई है, फिर भी वे अपने पुराने तौर-तरीके नहीं बदलते और अपने मूल व्यवहार पर कायम रहते हैं तो उनसे सिद्धांतों के अनुसार निपटना चाहिए : हलके मामलों में उन्हें अलग-थलग कर देना चाहिए; गंभीर मामलों में उन्हें कलीसिया से बाहर निकाल देना चाहिए। यह सिद्धांत कैसा लगता है? क्या यह किसी को पश्चात्ताप करने का मौका दिए बिना निर्दयतापूर्वक मार गिराना है? या बिना किसी विवेक का प्रयोग किए और बिना स्पष्ट रूप से समझे कि उनका प्रकृति सार वास्तव में क्या है, मनमाने ढंग से निर्णय लेना है? (नहीं।) अगर संगति और सहायता प्रदान किए जाने और पश्चात्ताप करने के अवसर दिए जाने के बावजूद इन लोगों के तौर-तरीके और स्वभाव बिल्कुल नहीं बदलते और न ही वे पश्चात्ताप करते हैं, बल्कि पहले जैसे ही बने रहते हैं—सिर्फ इस अंतर के साथ कि वे जो पहले खुले तौर पर और प्रत्यक्ष रूप से करते थे, अब गुप्त रूप से और चोरी-छिपे करते हैं, लेकिन विघ्न-बाधाएँ वैसे ही रहती हैं—तो कलीसिया अब उन्हें नहीं रख सकती। ऐसे लोग परमेश्वर के घर के सदस्य नहीं हैं; वे परमेश्वर की भेड़ें नहीं हैं। परमेश्वर के घर में उनकी मौजूदगी सिर्फ विघ्न-बाधाएँ पैदा करने के लिए है और वे शैतान के सेवक हैं, भाई-बहन नहीं। अगर तुम हमेशा उन्हें भाई-बहन समझते हो, लगातार उनका समर्थन और मदद करते रहते हो और उनके साथ सत्य पर संगति करते रहते हो और इससे बहुत सारे प्रयास बेकार चले जाते हैं और उनका कोई फल नहीं निकलता तो क्या यह मूर्खता नहीं है? यह मूर्खता से भी बढ़कर है; यह बेवकूफी है, सरासर बेवकूफी!

समस्याओं की प्रकृति देखें तो विभिन्न अभिव्यक्तियाँ और रुतबे के लिए होड़ करने में शामिल लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रकार मूल रूप से इन तीन प्रकारों में वर्गीकृत किए जा सकते हैं। रुतबे के लिए होड़ करना कलीसियाई जीवन में एक आम समस्या है, जो लोगों के विभिन्न समूहों और कलीसियाई जीवन के विभिन्न पहलुओं में दिखाई देती है। जहाँ तक रुतबे के लिए होड़ करने वालों की बात है, हलके मामलों में उन्हें समर्थन और सहायता के लिए सत्य की पर्याप्त संगति प्रदान करनी चाहिए ताकि वे सत्य समझ सकें और उन्हें पश्चात्ताप करने का मौका मिल सके। अगर मामला गंभीर है, तो उन पर बारीकी से नजर रखनी चाहिए और जैसे ही यह पता चले कि वे कोई खास मकसद या लक्ष्य हासिल करने के उद्देश्य से बोलते या कार्य करते हैं तो उन्हें तुरंत रोकना चाहिए और प्रतिबंधित करना चाहिए। अगर मामला और भी गंभीर है, तो लोगों को बहिष्कृत और निष्कासित करने के कलीसिया के सिद्धांतों के अनुसार उनसे निपटना चाहिए। रुतबे के लिए होड़ करने में शामिल इन लोगों, घटनाओं और चीजों के कलीसियाई जीवन में दिखाई देने पर अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यह जिम्मेदारी निभानी चाहिए। बेशक इसके लिए सभी भाई-बहनों को आगे आकर इस काम में अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साथ सहयोग करना और मिलकर बुरे लोगों के उन विभिन्न व्यवहारों और क्रियाकलापों को प्रतिबंधित करना आवश्यक है जो विघ्न-बाधाएँ पैदा करते हैं, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि कलीसियाई जीवन में बुरे लोगों द्वारा और कोई विघ्न-बाधा पैदा न हो, उन्हें यह सुनिश्चित करने का प्रयास करना चाहिए कि कलीसियाई जीवन का हर अवसर पवित्र आत्मा द्वारा प्रबुद्ध हो, शांति और आनंद और परमेश्वर की मौजूदगी से भरा हो और उसमें परमेश्वर का आशीष और मार्गदर्शन हो, और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हर सभा आनंद और लाभ का समय हो। यही सबसे अच्छा कलीसियाई जीवन है, ऐसा जीवन जिसे परमेश्वर देखना चाहता है। अगुआओं और कार्यकर्ताओं के लिए यह कार्य करना अपेक्षाकृत जटिल है क्योंकि इसमें अंतर्वैयक्तिक संबंध और लोगों की इज्जत और हित शामिल हैं और इसमें लोगों की सत्य की समझ का स्तर भी शामिल है, जो इसे कुछ हद तक ज्यादा चुनौतीपूर्ण बनाता है। लेकिन जब समस्याएँ आएँ तो उन्हें टालो मत, और बड़े मुद्दों को छोटा समझकर अंततः उन्हें अनसुलझा मत छोड़ो; न ही उनसे आंखें मूँदकर, सांसारिक आचरण के फलसफे का उपयोग करके निपटाना चाहिए। इससे भी बढ़कर, खुशामदी इंसान मत बनो, बल्कि रुतबे के लिए होड़ करने वाले विभिन्न प्रकार के लोगों के साथ सत्य सिद्धांतों के अनुसार पेश आओ। क्या यह संगति स्पष्ट है? (हाँ।) तो यहाँ पाँचवें मुद्दे पर हमारी संगति समाप्त होती है।

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