अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (13) खंड चार

IV. गुट बनाना

कलीसियाई जीवन को अस्त-व्यस्त करने की चौथी अभिव्यक्ति गुट बनाना है, जो बहुत गंभीर प्रकृति की होती है। कौन-से व्यवहार गुट बनाते हैं? अगर परमेश्वर में विश्वास करने वाले दो लोग जो समान अवधि से विश्वासी हैं, जिनकी आयु, पारिवारिक परिस्थितियाँ, रुचियाँ, व्यक्तित्व आदि समान हैं और जो अच्छी तरह मिलजुलकर रहते हैं, अक्सर सभाओं के दौरान एक साथ बैठते हैं और एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से परिचित हैं, तो क्या इसे गुट बनाना माना जाता है? (नहीं।) यह सामान्य अंतर्वैयक्तिक मेलजोल की एक आम घटना है, जो दूसरों के लिए कोई व्यवधान पैदा नहीं करती; इसलिए इसे गुट बनाना नहीं माना जाता। तो, जैसा कि यहाँ उल्लेख किया गया है, गुट बनाना किस बात को संदर्भित करता है? उदाहरण के लिए, एक साथ इकट्ठा होने वाले पाँच भाई-बहनों में से तीन शहरी श्रमिक हैं और दो ग्रामीण किसान हैं। तीन शहरी श्रमिक अक्सर इकट्ठे रहकर इस बारे में बात करते हैं कि कैसे शहर में जीवन बेहतर और देहात में बदतर है जहाँ लोगों में शिक्षा, व्यापक दृष्टिकोण और शिष्टाचार की कमी है। वे ग्रामीण लोगों को तुच्छ समझते हैं, उन दो ग्रामीण व्यक्तियों को नीचा दिखाते हुए बात करते हैं, जो तब दुखी महसूस करते हैं और उनका विरोध करना चाहते हैं, कहते हैं कि शहरी लोग संकीर्ण होते हैं और हर चीज का हिसाब-किताब रखते हैं, जबकि ग्रामीण लोग उदार होते हैं। सभाओं के दौरान वे कभी सहमत नहीं दिखते, जिससे अक्सर अनावश्यक विवाद और बहस होती है। क्या ये पाँचों लोग सामंजस्यपूर्वक रहते हैं? क्या वे परमेश्वर के वचन में एकजुट होते हैं? क्या वे एक-दूसरे के अनुकूल होते हैं? (नहीं।) जब शहर के लोग हमेशा कहते हैं “हम शहरी लोग” और ग्रामीण लोग हमेशा कहते हैं “हम ग्रामीण लोग,” तो वे क्या कर रहे होते हैं? (गुट बना रहे होते हैं।) यह चौथा मुद्दा है जिसके बारे में हम संगति करने जा रहे हैं : गुट बनाना। इस गुटबाजी वाले व्यवहार का मतलब है समूह और दल बनाना। क्षेत्र, आर्थिक स्थितियों और सामाजिक वर्ग के साथ-साथ अलग-अलग दृष्टिकोणों के आधार पर विभिन्न गिरोह, दल और अन्य अंतःसमूह बनाना गुट बनाना है। चाहे इन गुटों की अगुआई कोई भी करे, कलीसिया के भीतर विभिन्न गिरोहों और दलों का गठन और असंगत गिरोहों का निर्माण सब गुट बनाने की घटनाएँ हैं। कुछ जगहों पर एक पूरा विस्तारित परिवार ईश्वर में विश्वास करता है और एक सभा-स्थल पर अलग-अलग उपनाम वाले दो लोगों को छोड़कर बाकी लोग उन्हीं के परिवार के लोग हैं। फिर यह परिवार एक दल या गिरोह बनाता है और अलग-अलग उपनाम वाले दो लोग बाहरी हो जाते हैं। चाहे इस परिवार में कोई भी व्यक्ति किसी समस्या का सामना करे या उसकी काट-छाँट की जाए, अगर कोई व्यक्ति शिकायतें व्यक्त करता है तो बाकी लोग भी उसकी भावना प्रतिध्वनित करने के लिए उसमें शामिल हो जाते हैं। अगर कोई सिद्धांतों के खिलाफ काम करता है तो दूसरे लोग उसे बचाते हैं और उसके क्रियाकलाप छिपाते हैं; किसी को भी उसे उजागर करने से रोकते हैं; इस समस्या का जरा-सा भी उल्लेख उन्हें स्वीकार्य नहीं होता, काट-छाँट करने की तो बात ही छोड़ो। यहाँ क्या समस्या है? क्या तुम इसे पहचान सकते हो? जब ये परिवार के सदस्य इकट्ठे होते हैं तो ऐसा लगता है कि वे सभी एक ही धुन गा रहे हैं और एक साथ गा रहे हैं, हवा का रुख देख रहे हैं और बोलने से पहले संकेत सुन रहे हैं। अगर उनका सरगना कोई विशेष रुख अपनाता है तो बाकी सब उसका अनुसरण करते हैं और अन्य लोग उन्हें नाराज करने या आपत्ति जताने की हिम्मत नहीं करते। क्या कलीसियाई जीवन में इस घटना का होना कलीसिया की सामान्य व्यवस्था में विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न नहीं करता? इस गिरोह के लोग तय करते हैं कि सभाओं के दौरान परमेश्वर के वचनों के कौन-से अंश खाए-पिए जाएँ और सभी को उन्हें सुनना चाहिए; यहाँ तक कि कलीसिया के अगुआओं को भी उनका लिहाज रखना पड़ता है और वे भी उनका विरोध नहीं कर सकते। वे घोषणा करते हैं कि किन्हें अगुआ और कार्यकर्ता चुना जाना चाहिए और कलीसिया के अगुआओं को उनकी राय को सबसे महत्वपूर्ण मानना चाहिए और उसे हलके में नहीं लेना चाहिए। साथ ही, वे लगातार “प्रतिभाओं” की भर्ती करते हैं, उन लोगों को अपने समूह में खींच लेते हैं जो उनकी बात सुनते हैं, जिन पर वे भरोसा कर सकते हैं और जो उनके लिए उपयोगी होते हैं, ताकि वे समूह के उद्देश्यों के लिए उनका उपयोग कर सकें और लगातार अपने प्रभाव का विस्तार कर सकें। इस गिरोह का उद्देश्य कलीसियाई जीवन को नियंत्रित करना होता है; उनका सरगना कलीसिया को नियंत्रित करना चाहता है। इस समूह के पास महत्वपूर्ण शक्ति होती है; वे कलीसिया के भीतर क्रियाकलाप करने के लिए एकजुट होकर समूह बना लेते हैं। कलीसिया में जो कुछ भी होता है, वे उसमें शामिल होना चाहते हैं। दूसरों को बोलने या किसी भी चीज का प्रबंधन करने से पहले उनके भाव पढ़ लेने चाहिए, यहाँ तक कि खाने-पीने के लिए प्रत्येक सभा की सामग्री भी उनकी व्यवस्थाओं और इच्छाओं के अनुसार होनी चाहिए। अगर कलीसिया के अगुआ कुछ करना भी चाहते हों, तो भी उन्हें पहले उनकी राय लेनी चाहिए और उनके विचार सुनने चाहिए। ज्यादातर भाई-बहन उनके द्वारा नियंत्रित होते हैं और कलीसिया के कार्य के कई मामले भी उनके नियंत्रण में होते हैं। गुट बनाने वाले ये लोग कलीसियाई जीवन और कलीसिया के कार्य को गंभीर रूप से अस्त-व्यस्त करते हैं। क्या यह समस्या गंभीर है? क्या ये क्रियाकलाप प्रतिबंधित किए जाने चाहिए? क्या ये हल किए जाने चाहिए? इन गुटों के सरगना प्रतिबंधित कर बहिष्कृत या निष्कासित किए जाने चाहिए, जबकि उन भ्रमित व्यक्तियों को जो आँख मूँदकर उनका अनुसरण करते हैं, पहले संगति कर सहायता देनी चाहिए। अगर वे पश्चात्ताप नहीं करते या अपनी दिशा नहीं बदलते तो उन्हें प्रतिबंधित करना चाहिए। उनके साथ शिष्टाचार नहीं बरतना चाहिए!

गुट बनाना क्या होता है—क्या यह समझना आसान है? अगर एक व्यक्ति कोई मुद्दा उठाता है और कई अन्य लोग उसकी राय प्रतिध्वनित करते हैं तो क्या इसे गुट बनाना माना जाएगा? (नहीं।) अगर अपेक्षाकृत अधिक दायित्व और न्याय की भावना रखने वाले कुछ भाई-बहन दूसरों को कोई महत्वपूर्ण कार्य पूरा करने में शामिल होने के लिए कहते हैं या अगर किसी सभा में परिणाम प्राप्त करने और किसी महत्वपूर्ण विषय पर सत्य और परमेश्वर के इरादे समझ पाने के उद्देश्य से वे संगति में सभी की अगुआई करते हैं और सभी लोग संगति करने और प्रार्थना करते हुए परमेश्वर के वचन पढ़ने में उनकी विचारधारा का अनुसरण करते हैं तो क्या इसे गुट बनाना माना जाएगा? (नहीं।) कलीसिया में कौन-से लोग गुट बनाने में प्रवृत्त होते हैं? किस तरह का व्यवहार गुट बनाना कहलाता है? (कई लोगों का एक-दूसरे की आड़ लेना और आपस में मिलीभगत करना, या ईर्ष्या और कलह में शामिल होना, जो सब कलीसिया के कार्य को अस्त-व्यस्त करते हैं—यह गुट बनाना है।) यह एक पहलू है। यहाँ मुख्य बिंदु क्या है? एक-दूसरे की आड़ लेने और आपस में मिलीभगत करने से विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न होती है; यह जानते हुए भी कि कुछ करना गलत है और सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है, फिर भी जानबूझकर उसे छिपाना, कुतर्क करना और सच नहीं बोलना, किसी की इज्जत और रुतबा बचाने मात्र के लिए कलीसिया के काम और परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाने को वरीयता देना और उन लोगों के दुराचार छिपाना जो परमेश्वर के घर के हितों के साथ विश्वासघात करने की कीमत पर बुरे काम करते हैं और विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करते हैं—यह गुट बनाना है। एक अन्य परिदृश्य में लोगों को सामूहिक रूप से परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं का विरोध करने के लिए उकसाना और बहकाना शामिल है। यह प्रकृति में गंभीर है, यह परमेश्वर के कार्य और कलीसिया की सामान्य व्यवस्था को अस्त-व्यस्त करने का एक रूप भी है। गुट बनाने का मुख्य उद्देश्य क्या है? इसका उद्देश्य कलीसिया और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नियंत्रित करना है।

एक उस तरह का गुट बनाना भी होता है जिसमें विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों को जीतने के लिए चिकनी-चुपड़ी बातें करने वाले लोग शामिल होते हैं। ऊपर से ऐसा लगता है कि ऐसे गिरोहों में हर कोई स्वतंत्र रूप से बोल सकता है और अपनी राय व्यक्त कर सकता है। लेकिन अंतिम परिणामों पर नजर डालकर तुम देख सकते हो कि वे असल में एक व्यक्ति के कहे का ही अनुसरण कर रहे हैं—वह व्यक्ति उनका वात दिग्दर्शक है। तो वह व्यक्ति दूसरों को अपनी ओर कैसे खींचता है? वह देखता है कि वह किसे अपने पक्ष में कर सकता है और किसे अपने पक्ष में करना आसान है और वह उस पर छोटे-छोटे उपकार करता है, उसे थोड़ी प्रेम भरी सहायता प्रदान करता है। फिर वह उससे जानकारी निकालने की कोशिश करता है, पता लगाता है कि उसे क्या पसंद है, उसे कैसे बोलना अच्छा लगता है, उसका व्यक्तित्व कैसा है और उसके शौक क्या-क्या हैं। साथ ही वह अक्सर उसका दिल जीतने के लिए बातचीत में उससे सहमत होता है और अंत में वह धीरे-धीरे उसे थोड़ा-थोड़ा करके “प्रभावित” करता है जिससे वह अनजाने ही उसके गुट में प्रवेश कर जाता है और उसके बड़े समूह का सदस्य बन जाता है। आमतौर पर लोगों को जीतने के लिए चिकनी-चुपड़ी बातें करना एक बहुत ही सौम्य तरीका है, यह “इंसानी गर्मजोशी” से भरा है और बहुत प्रभावी है। उदाहरण के लिए, अगर कोई व्यक्ति नियमित रूप से किसी अन्य व्यक्ति के प्रति प्रेम दिखाता है, बातचीत में उससे सहमत होता है और उसके प्रति समझदारी और सहिष्णुता दिखाता है तो वह व्यक्ति अनजाने ही उसके बारे में अनुकूल धारणा विकसित कर उसके करीब आ जाएगा और फिर उसके गुट में शामिल हो जाएगा। ऐसे गिरोह और दल किन स्थितियों में प्रभावी होते हैं? जैसे ही उनके कट्टर अनुयायियों में से कोई उजागर होता है, अपने साथ गलत हुआ महसूस करता है या उनके दल के बाहर की किसी चीज या व्यक्ति द्वारा उसके हितों, रुतबे या प्रतिष्ठा को बाधित या क्षतिग्रस्त किया जाता है, तो ऐसे लोग उसके पक्ष में बोलने के लिए खड़े हो जाएँगे, उसके हितों और अधिकारों के लिए लड़ेंगे—यह उनके द्वारा गुट बनाना है। गुट बनाने के दो स्पष्ट प्रकार हैं लोगों की आड़ लेना और उनसे मिलीभगत करना, और सामूहिक विरोध। लेकिन चिकनी-चुपड़ी बातों के जरिये गुट बनाना अभी बताए गए दो प्रकारों जितना प्रबल नहीं लगता और ऐसे गुटों के सदस्यों पर आमतौर पर कलीसिया के भीतर किसी का ध्यान नहीं जाता। लेकिन जब लोगों द्वारा चयन करने, स्पष्ट रुख अपनाने का समय आता है तो ऐसे दल स्पष्ट रूप से दिखाई देने लग जाते हैं। उदाहरण के लिए, अगर किसी दल का सरगना कहता है कि एक निश्चित कलीसिया के अगुआ में काबिलियत है तो उसके अनुयायी तुरंत इस बात के कई उदाहरण दे देंगे कि वह अगुआ कैसे इस काबिलियत का प्रदर्शन करता है। अगर दल का सरगना कहता है कि कलीसिया के अगुआ में काम करने की काबिलियत नहीं है, उसकी काबिलियत कमजोर और मानवता खराब है तो अन्य सदस्य भी ऐसा ही कहेंगे, बोलेंगे कि कलीसिया का वह अगुआ कैसे अक्षम है, कैसे वह सत्य पर संगति नहीं कर पाता, कैसे वह शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलता है और कहेंगे कि सभी को उसके बजाय सही व्यक्ति चुनना चाहिए। यह एक प्रकार का अदृश्य गुट है। हालाँकि वे कलीसिया में सत्ता हथियाने और लोगों को नियंत्रित करने के लिए सार्वजनिक रूप से आगे नहीं आते, फिर भी ऐसे गुटों और गिरोहों के भीतर एक अदृश्य शक्ति होती है जो कलीसियाई जीवन और कलीसिया की व्यवस्था को नियंत्रित करती है। यह गुट बनाने का एक ज्यादा भयानक, छिपा हुआ रूप है। गुट बनाने की पहले बताई गई दो आसानी से पहचानी जा सकने वाली स्थितियों के अलावा, जो ऐसी समस्याएँ हैं जिन्हें कलीसिया के अगुआओं को हल करना चाहिए, गुट बनाने का यह छिपा हुआ प्रकार एक ऐसी समस्या है जिसे कलीसिया के अगुआओं को और भी ज्यादा हल करना और ध्यान देना चाहिए। उन्हें यह कैसे करना चाहिए? उन्हें ऐसे गिरोह के सरगना से संगति के जरिये सीधे बात करनी चाहिए। पहले इस सरगना के साथ संगति पर ध्यान क्यों केंद्रित करना चाहिए? ऊपर से ऐसा लगता है कि ऐसे गुट के सदस्य किसी से नियंत्रित नहीं होते, लेकिन असल में वे सभी गहराई से जानते हैं कि वे किसकी आज्ञा का पालन करते हैं और वे उसी व्यक्ति की आज्ञा का पालन करना चाहते हैं। इसलिए जिसे वे पूजते हैं और जो उन्हें नियंत्रित करता है, उसे सँभाला जाना चाहिए और उससे निपटा जाना चाहिए और उसके साथ सत्य पर संगति करनी चाहिए ताकि वह अपने क्रियाकलापों की प्रकृति समझ सके। हालाँकि सरगना ने खुले तौर पर परमेश्वर के घर का विरोध नहीं किया होगा या अगुआओं के खिलाफ शोर नहीं मचाया होगा, लेकिन वह इन लोगों के बोलने के अधिकार, इनके विचारों, दृष्टिकोणों और इनके द्वारा अपनाए जाने वाले मार्ग को नियंत्रित करता है। वह छिपा हुआ मसीह-विरोधी होता है। ऐसे व्यक्तियों को पहचानना चाहिए, फिर पहचानकर उनका गहन-विश्लेषण करना चाहिए। अगर वे पश्चात्ताप नहीं करते तो उन्हें प्रतिबंधित और अलग-थलग कर देना चाहिए। फिर उनके प्रत्येक सदस्य की जाँच करके यह देखना चाहिए कि उनमें से कौन उसकी तरह का है। पहले, उन व्यक्तियों को अलग करो और फिर उन भ्रमित लोगों के साथ संगति करो जो डरपोक और कायर हैं और गुमराह किए गए हैं। अगर वे पश्चात्ताप कर मसीह-विरोधी का अनुसरण करना छोड़ सकते हैं तो वे कलीसिया में रह सकते हैं; अगर नहीं तो उन्हें अलग-थलग कर देना चाहिए। क्या यह एक उचित नजरिया है? (हाँ।) क्या यह घटना कलीसिया के भीतर होती है? क्या ऐसी समस्या सुलझानी चाहिए? (हाँ, सुलझानी चाहिए।) क्यों सुलझानी चाहिए? जबसे परमेश्वर के घर ने सुसमाचार फैलाना शुरू किया है, तबसे मसीह-विरोधियों की ताकतें कलीसियाई जीवन के भीतर सर्वत्र व्याप्त हो गई हैं और परमेश्वर के चुने हुए बहुत-से लोग इन ताकतों द्वारा अलग-अलग मात्रा में प्रभावित, विवश या नियंत्रित किए गए हैं। जब भी ये लोग बोलते या क्रियाकलाप करते हैं तो ये स्वतंत्रता और मुक्ति की हालत में नहीं होते, बल्कि कुछ व्यक्तियों के विचारों और दृष्टिकोणों से प्रभावित, प्रेरित, नियंत्रित और कैद होते हैं। ये लोग कुछ खास तरीकों से बोलने और क्रियाकलाप करने के लिए बाध्य महसूस करते हैं; अगर वे ऐसा नहीं करते तो चिंतित रहते हैं और इससे होने वाले परिणाम भुगतने से डरते हैं। क्या इसने कलीसियाई जीवन को प्रभावित नहीं किया है और उसमें बाधा नहीं डाली है? क्या यह सामान्य कलीसियाई जीवन की अभिव्यक्ति है? (नहीं।) ऐसा कलीसियाई जीवन सामान्य व्यवस्था का नहीं होता, बल्कि वह कुकर्मियों द्वारा नियंत्रित होता है। अगर कलीसिया में सत्ता बुरे लोगों के हाथ में होती है तो वहाँ परमेश्वर का वचन या सत्य राज नहीं करता। वहाँ उन अगुआओं, कार्यकर्ताओं और भाई-बहनों पर अत्याचार किया जाता है जो सत्य समझते हैं। ऐसी कलीसिया मसीह-विरोधियों की ताकतों द्वारा नियंत्रित कलीसिया होती है। यह भी एक समस्या है और परमेश्वर का कार्य और कलीसिया की सामान्य व्यवस्था अस्त-व्यस्त होने की एक परिघटना है, जिस पर अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ध्यान देकर उसे हल करना चाहिए। मसीह-विरोधियों के गिरोह के कुछ लोगों को अपने गिरोह का भरोसा खोने, अपने समर्थक और दोस्त खोने, जरूरत के समय कोई सहारा नहीं मिलने आदि का डर रहता है। इसलिए वे गिरोह में बने रहने की पूरी कोशिश करते हैं। क्या यह स्थिति गंभीर नहीं है? क्या इसे हल नहीं करना चाहिए? (हाँ।) जब कलीसिया के भीतर इस तरह की स्थिति उत्पन्न होती है तो क्या ज्यादातर लोग इसे महसूस करते हैं? क्या ज्यादातर लोग इसे पहचानते हैं? कुछ लोग अनजाने ही किसी के द्वारा नियंत्रित होते हैं, उन्हें हमेशा उस व्यक्ति के विचारों और दृष्टिकोणों, उसके कथनों और क्रियाकलापों, उसकी शिक्षाओं का पालन करना पड़ता है और वे “नहीं” कहने से डरते हैं, उस व्यक्ति के खिलाफ जाने से डरते हैं, यहाँ तक कि जब वह व्यक्ति बोलता है तो उन्हें बेमन से सहमति में सिर हिलाना और मुस्कुराना पड़ता है क्योंकि वे उसका अपमान करने से डरते हैं। क्या ऐसी स्थितियाँ मौजूद हैं? यहाँ क्या समस्या है जिसका समाधान किया जाना चाहिए? कलीसिया के अगुआओं को उस मसीह-विरोधी सरगना पर ध्यान देकर उससे निपटना चाहिए जो दूसरों को गुमराह और नियंत्रित करने में सक्षम है। पहले, उन्हें सत्य पर संगति करनी चाहिए ताकि ज्यादातर लोग इस मसीह-विरोधी को पहचान सकें, फिर खुद मसीह-विरोधी को प्रतिबंधित करना चाहिए। अगर मसीह-विरोधी पश्चात्ताप नहीं करता तो उसे कलीसिया की सामान्य व्यवस्था बाधित करने से रोकने के लिए तुरंत बहिष्कृत कर देना चाहिए।

संक्षेप में, सामान्य कलीसियाई जीवन में भाई-बहनों को परमेश्वर के वचनों के साथ-साथ अपनी व्यक्तिगत अंतर्दृष्टियों, समझ, अनुभवों और कठिनाइयों पर स्वतंत्र रूप से और बेरोकटोक संगति करने में सक्षम होना चाहिए। बेशक, उन्हें अगुआओं और कार्यकर्ताओं के ऐसे किसी भी क्रियाकलाप के बारे में सुझाव देने, उसकी आलोचना करने और उसे उजागर करने का अधिकार भी होना चाहिए, जो सिद्धांतों का उल्लंघन करता हो, साथ ही उन्हें मदद और सलाह देने का अधिकार भी होना चाहिए। यह सब मुक्त होना चाहिए और ये सभी पहलू सामान्य होने चाहिए; उन्हें किसी व्यक्ति द्वारा नियंत्रित नहीं किया जाना चाहिए जिससे परमेश्वर के चुने हुए लोग विवश किए जा सकें—यह सामान्य कलीसियाई जीवन नहीं होगा। परमेश्वर के घर की इस बारे में अपेक्षाएँ, नियम और सिद्धांत होते हैं कि भाई-बहनों को कैसे बोलना, कैसा व्यवहार और आचरण करना चाहिए और कैसे उन्हें कलीसियाई जीवन में सामान्य अंतर्वैयक्तिक संबंध बनाने चाहिए, इत्यादि, और ये चीजें किसी व्यक्ति द्वारा निर्धारित नहीं की जातीं। जब भाई-बहन कुछ करते हैं तो उन्हें किसी व्यक्ति के चेहरे के भाव देखने की जरूरत नहीं होती, उन्हें किसी व्यक्ति के आदेशों का पालन करने या किसी व्यक्ति द्वारा विवश होने की जरूरत नहीं होती। किसी को भी वात दिग्दर्शक या कर्णधार के रूप में काम नहीं करना चाहिए; दिशा प्रदान कर सकने वाली एकमात्र चीज परमेश्वर का वचन है, सत्य है। इसलिए परमेश्वर के चुने हुए लोगों को परमेश्वर के वचन, सत्य, और सभाओं में सत्य पर संगति के सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। अगर तुम हमेशा किसी अन्य व्यक्ति द्वारा विवश रहते हो, हमेशा उससे संकेत लेते हो और जब उसकी नाराज नजर या उसका त्योरी चढ़ा चेहरा देखते हो तो बोलते रहने की हिम्मत नहीं करते, अगर तुम परमेश्वर के वचनों और अपनी व्यक्तिगत अनुभवजन्य समझ पर संगति करते समय हमेशा उस व्यक्ति द्वारा प्रतिबंधित रहते हो, हमेशा विवश महसूस करते हो, सत्य सिद्धांतों के अनुसार क्रियाकलाप करने में असमर्थ होते हो और अगर उस व्यक्ति के शब्द, रूप, चेहरे के भाव, आवाज का लहजा और उसके भाषण में निहित धमकियाँ लगातार तुम्हें जकड़ती हैं तो तुम इस व्यक्ति की अगुआई वाले गुट के भीतर नियंत्रित हो रहे हो। यह परेशानी वाली बात है; यह कलीसियाई जीवन नहीं है, बल्कि उस दल का जीवन है जिस पर किसी मसीह-विरोधी का शासन है। जब ऐसी समस्या की बात आती है तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इसे हल करने के लिए आगे आना चाहिए और भाई-बहनों का भी कलीसिया की सामान्य व्यवस्था की रक्षा करने का दायित्व और अधिकार है। जो लोग कलीसियाई जीवन को अस्त-व्यस्त करते हैं, खासकर जो गुट बनाते हैं और कलीसिया को नियंत्रित करना चाहते हैं, उन्हें रोकना और उजागर करना चाहिए और उनका गहन-विश्लेषण करना चाहिए, ताकि हर कोई भेद पहचानने की क्षमता प्राप्त कर समस्या के सार की असलियत समझ सके, जो एक स्वतंत्र राज्य स्थापित करने का प्रयास करने की समस्या है। कलीसिया गुट बनाने और किसी भी कारण से कलीसिया को विभाजित करने की अनुमति नहीं देती। उदाहरण के लिए, सामाजिक पहचान और हैसियत, पड़ोस, क्षेत्र या धार्मिक संप्रदाय के आधार पर गिरोहों में विभाजित होना या शिक्षा के स्तर, धन, जाति और त्वचा के रंग आदि के आधार पर गिरोहों में विभाजित होना—यह सब सत्य सिद्धांतों के खिलाफ है और कलीसिया में ऐसा नहीं होना चाहिए। लोगों को इन पदानुक्रमों, वर्गों, दलों और गुटों में विभाजित करने के लिए चाहे कोई भी बहाना इस्तेमाल किया जाए, वह कलीसिया के कार्य और कलीसियाई जीवन की सामान्य व्यवस्था को अस्त-व्यस्त करेगा और यह ऐसी समस्या है जिसे अगुआओं और कार्यकर्ताओं को तुरंत हल करना चाहिए। संक्षेप में, लोगों के गुटों, दलों या गिरोहों में विभाजित होने के कोई भी कारण हों, अगर उन्होंने एक निश्चित बल एकत्र कर लिया है और वे कलीसिया के कार्य और कलीसियाई जीवन की व्यवस्था में बाधा डालते हैं तो उन्हें रोकना और प्रतिबंधित करना चाहिए। अगर ऐसे गुटों के सदस्य रोके नहीं जा सकते तो उन कुकर्मियों को अलग-थलग करके हटाया जा सकता है। इन समस्याओं से निपटना भी उस कार्य और जिम्मेदारियों का हिस्सा है जिन्हें अगुआओं और कार्यकर्ताओं को निभाना चाहिए। तो यहाँ क्या समझने की जरूरत है? यही कि जब कुछ लोगों ने कलीसिया में बल गठित कर लिए हों और वे कलीसिया के अगुआओं, कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के वचनों से मुकाबला कर उनका विरोध करने में सक्षम हों और कलीसियाई जीवन की सामान्य व्यवस्था को अस्त-व्यस्त करने और उसे नुकसान पहुँचाने में सक्षम हों तो ऐसे व्यवहारों, अभिव्यक्तियों और स्थितियों को प्रतिबंधित कर उनसे तुरंत निपटा जाना चाहिए। गुट बनाने की बात आने पर उसमें शामिल लोगों की संख्या के आधार पर कोई भेद नहीं किया जाता। अगर दो लोग अच्छे से मेलजोल रखते हैं और कलीसिया में कोई बाधा नहीं डालते तो हस्तक्षेप करने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन जब वे बाधा डालना शुरू कर देते हैं और कलीसिया को नियंत्रित करने के लिए एक बल गठित कर लेते हैं तो इन व्यक्तियों को रोकना और प्रतिबंधित करना चाहिए। अगर वे पश्चात्ताप नहीं करते तो उन्हें तुरंत बहिष्कृत या निष्कासित कर देना चाहिए। यही सिद्धांत है।

22 मई 2021

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