अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (13) खंड एक

हमारी पिछली सभा की संगति अगुआओं और कार्यकर्ताओं की ग्यारहवीं जिम्मेदारी के बारे में थी। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को चढ़ावों की सुरक्षा के लिए जो जिम्मेदारी निभानी चाहिए और जो काम करना चाहिए, हमने उसके बारे में संगति की थी। चढ़ावों की सुरक्षा के लिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं को क्या काम करना चाहिए? (पहला काम है उनकी उचित सुरक्षा करना। दूसरा है खातों की जाँच करना। तीसरा है अनुवर्ती कार्रवाई करना, देखना और निरीक्षण करना कि विभिन्न खर्च सिद्धांतों के अनुरूप हैं या नहीं। सख्त जाँच करके अनुचित खर्चों पर सख्ती से प्रतिबंध लगाना चाहिए। फिजूलखर्ची और बर्बादी होने से पहले ही रोकना सबसे अच्छा है। अगर वह पहले ही हो चुकी हो तो उसके लिए जिम्मेदार लोगों को जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए। उन्हें केवल चेतावनी ही जारी नहीं करनी चाहिए, बल्कि उनसे मुआवजा भी माँगना चाहिए।) मूल रूप से यही काम हैं। मुख्य बात है उन्हें सुरक्षित रखना, फिर खातों की जाँच करना और उसके बाद अनुवर्ती कार्रवाई कर उनका निरीक्षण करना और उनका सही तरीके से उपयोग और खर्च करना। ग्यारहवीं जिम्मेदारी पर हमारी संगति समाप्त होने के बाद लोगों को अब चढ़ावों के बारे में सटीक समझ और ज्ञान है और अब वे यह भी जानते हैं कि चढ़ावों की सुरक्षा के लिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं को क्या काम करने की जरूरत है और साथ ही नकली अगुआ यह काम कैसे करते हैं और इसे करने में उनके विशिष्ट व्यवहार क्या होते हैं। चाहे हमारी संगति अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियों के बारे में हो या नकली अगुआओं के विभिन्न व्यवहारों के बारे में और चाहे यह सकारात्मक चीजों के बारे में संगति हो या नकारात्मक चीजों के खुलासे के बारे में, इसका मुख्य उद्देश्य लोगों को यह समझाना है कि चढ़ावों की सुरक्षा का काम ठीक से कैसे किया जाए और चढ़ावों की सुरक्षा, खर्च और वितरण में अनुचित अभ्यास कैसे खत्म किए जाएँ। परमेश्वर के सभी चुने हुए लोगों को—चाहे वे अगुआ हों या कार्यकर्ता—चढ़ावों की सुरक्षा के लिए अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए। तो यह जिम्मेदारी क्या है? यह है पर्यवेक्षण करना और अगर कोई समस्या दिखाई दे तो उसकी तुरंत रिपोर्ट करना—यानी पर्यवेक्षण और रिपोर्टिंग का कार्य करना। यह मत सोचो कि “चढ़ावों की सुरक्षा करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी है और इसका हम आम विश्वासियों से कोई लेना-देना नहीं है।” यह दृष्टिकोण गलत है। चूँकि लोगों ने ये सत्य समझ लिए हैं, इसलिए उन्हें अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए। जो मुद्दे अगुआ और कार्यकर्ता पहचान नहीं पाते या नजर में न आने वाले स्थान या वे स्थान जिन्हें पहचानना आसान नहीं होता, उनके मामले में अगर किसी को चढ़ावों की सुरक्षा, वितरण और उपयोग में अनुचितता की या सिद्धांतों के उल्लंघन की कोई समस्या दिखती है तो उसे तुरंत अगुआओं और कार्यकर्ताओं को उसकी रिपोर्ट करनी चाहिए ताकि चढ़ावों की उचित सुरक्षा, उचित उपयोग और उचित वितरण सुनिश्चित किया जा सके। यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से हर एक की जिम्मेदारी है।

मद बारह : उन विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों की तुरंत और सटीक रूप से पहचान करो, जो परमेश्वर के कार्य और कलीसिया की सामान्य व्यवस्था में विघ्न-बाधा उत्पन्न करती हैं; उन्हें रोको और प्रतिबंधित करो, और चीजों को बदलो; इसके अतिरिक्त, सत्य के बारे में संगति करो, ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोग ऐसी बातों के माध्यम से समझ विकसित करें और उनसे सीखें (भाग एक)

अब जबकि ग्यारहवीं जिम्मेदारी पर संगति पूरी हो गई है, हम अगुआओं और कार्यकर्ताओं की बारहवीं जिम्मेदारी पर संगति करने की ओर बढ़ते हैं : “उन विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों की तुरंत और सटीक रूप से पहचान करो, जो परमेश्वर के कार्य और कलीसिया की सामान्य व्यवस्था में विघ्न-बाधा उत्पन्न करती हैं; उन्हें रोको और प्रतिबंधित करो, और चीजों को बदलो; इसके अतिरिक्त, सत्य के बारे में संगति करो, ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोग ऐसी बातों के माध्यम से समझ विकसित करें और उनसे सीखें।” इस जिम्मेदारी की मुख्य विषयवस्तु क्या है? यह मुख्य रूप से अगुआओं और कार्यकर्ताओं से कलीसिया में उन विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों का—और साथ ही उन विभिन्न समस्याओं का भी—समाधान करने की अपेक्षा करने के बारे में है जो कलीसिया की सामान्य व्यवस्था में गड़बड़ करती हैं, उसमें विघ्न डालती हैं और उसे नुकसान पहुँचाती हैं। इन समस्याओं पर प्रभावी ढंग से ध्यान देकर उन्हें हल करने, अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने और इस कार्य को अच्छी तरह से करने के लिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं को पहले क्या समझना चाहिए? यह जिम्मेदारी “उन विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों की तुरंत और सटीक रूप से पहचान करो, जो परमेश्वर के कार्य और कलीसिया की सामान्य व्यवस्था में विघ्न-बाधा उत्पन्न करती हैं”; यह इस कार्य का दायरा है। एक लक्ष्य और एक दायरे के साथ यह स्पष्ट हो जाता है कि किन मुद्दों को हल करने की जरूरत है और अगुआओं और कार्यकर्ताओं से क्या कार्य करना और क्या जिम्मेदारियाँ निभाना अपेक्षित है। बारहवीं जिम्मेदारी के भीतर अगुआओं और कार्यकर्ताओं से मुख्य अपेक्षा क्या है? यह उन विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों को रोकना और प्रतिबंधित करना जो विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करते हैं, चीजों को बदलना, इसके अतिरिक्त सत्य के बारे में संगति करना है ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोग ऐसी चीजों के माध्यम से समझ विकसित करें और उनसे सीखें। ऐसा करने के लिए क्या पूर्व-शर्तें पूरी होनी चाहिए? अगर तुम ऐसे विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों को देखते हो जो कलीसिया की सामान्य व्यवस्था में गड़बड़ करती हैं, उसमें विघ्न डालती हैं और उसे नुकसान पहुँचाती हैं और फिर भी सोचते हो कि ये समस्याएँ नहीं हैं तो फिर समस्या है। यह दर्शाता है कि तुम समस्या के सार की असलियत नहीं जान पाते यानी कलीसियाई जीवन को अस्त-व्यस्त करने से कलीसिया के काम को जो नुकसान हो सकता है और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश पर उसके जो परिणाम और प्रभाव हो सकते हैं, उसे नहीं समझ पाते। क्या ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता अभी भी कलीसिया का काम अच्छी तरह से कर सकते हैं? क्या वे समस्याएँ हल कर चीजों को सकारात्मक दिशा दे सकते हैं? (नहीं।) तो फिर यहाँ संगति किए जाने का मुख्य बिंदु क्या है? यही कि पहले सत्य सिद्धांतों को समझने से ही अगुआ और कार्यकर्ता विभिन्न मुद्दों के सार की असलियत जान सकते हैं और विभिन्न वास्तविक समस्याएँ प्रभावी ढंग से हल कर सकते हैं। कलीसिया का कार्य अच्छी तरह से करने के लिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं को सबसे पहले यह जानना जरूरी है कि कलीसिया के काम में आम तौर पर क्या समस्याएँ आती हैं। फिर उन्हें उन समस्याओं की प्रकृति सटीक ढंग से समझनी, पहचाननी और आँकनी चाहिए, कि क्या वे कलीसिया के कार्य और कलीसियाई जीवन की सामान्य व्यवस्था को प्रभावित करती हैं और क्या उनकी प्रकृति कलीसिया के काम को अस्त-व्यस्त करने की है। यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा है जिसे अगुआओं और कार्यकर्ताओं को पहले समझना चाहिए। इसे समझने के बाद ही इन समस्याओं को प्रभावी ढंग से हल करना और उन्हें “रोककर और प्रतिबंधित करके चीजों को बदलना” संभव है, जैसा कि बारहवीं जिम्मेदारी में जिक्र किया गया है। संक्षेप में, समस्या हल करने से पूर्व तुम्हें पहले यह समझने की जरूरत है कि समस्या कहाँ है, उसमें क्या-क्या अवस्थाएँ और परिस्थितियाँ शामिल हैं, समस्या की प्रकृति क्या है, वह कितनी गंभीर है, उसका विश्लेषण और पहचान कैसे की जाए और सटीक रूप से अभ्यास कैसे किया जाए। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को पहले यही समझने की जरूरत है। चूँकि अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ये चीजें समझने की जरूरत है, इसलिए आओ हम इनके बारे में विशेष रूप से कई पहलुओं से संगति करते हैं, ताकि अगुआ और कार्यकर्ता और परमेश्वर के चुने हुए लोग, सभी समझ सकें कि जब ये समस्याएँ पैदा हों तो उनका सामना कैसे करें, उन्हें परमेश्वर के वचनों से कैसे जोड़ें और उन्हें हल करने के लिए सत्य सिद्धांतों का उपयोग कैसे करें। इस तरह, जब अगुआ और कार्यकर्ता ऐसी कठिनाइयों का सामना करते हैं जिन्हें वे हल नहीं कर सकते तो परमेश्वर के चुने हुए सभी लोग मिलकर उनका सामना कर सकते हैं और समाधानों के लिए सत्य खोज सकते हैं और कलीसिया के काम में विघ्न-बाधा के मुद्दों से सामना होने पर हर कोई उन्हें रोकने और प्रतिबंधित करने के लिए खड़ा हो सकता है। साथ ही, नकारात्मक लोगों और मामलों के लिए वे सार्वजनिक विश्लेषण, पहचान और चरित्र-चित्रण कर सकते हैं और इस तरह ये मुद्दे रोके और प्रतिबंधित किए जा सकते हैं और जड़ से मिटाए जा सकते हैं। तो आओ, सबसे विशिष्ट मुद्दों से शुरुआत करते हुए संगति करते हैं।

विभिन्न लोग, घटनाएँ और चीजें जो कलीसियाई जीवन को अस्त-व्यस्त करती हैं

परमेश्वर के कार्य और कलीसिया की सामान्य व्यवस्था को अस्त-व्यस्त करने वाले मुद्दों की पहचान करने के लिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं को किन क्षेत्रों से शुरुआत करनी चाहिए? उन्हें ये मुद्दे खोजने के लिए कलीसियाई जीवन को देखने से शुरुआत करनी चाहिए। क्या तुम सभी जानते हो कि कलीसियाई जीवन में आम तौर पर कौन-सी समस्याएँ आती हैं जिनकी प्रकृति विघ्न-बाधा उत्पन्न करने की होती है? कलीसिया में चाहे जितने भी लोग हों, निश्चित रूप से अनेक लोग होंगे जो कलीसिया-कार्य को अस्त-व्यस्त करेंगे। विघ्न-बाधा के कौन-से क्रियाकलाप हैं जिनके बारे में तुम लोगों ने सीखा है? (सभाओं में सत्य पर संगति करते समय हमेशा विषय से भटक जाना और मुख्य मुद्दों को चर्चा का केंद्र न बनाना।) (साथ ही, आदतन शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलना।) सत्य पर संगति करते समय विषय से भटक जाना। उदाहरण के लिए, जब दूसरे लोग अपना कर्तव्य निभाने में वफादार होने के बारे में संगति कर रहे होते हैं तो वे इस बारे में बात करेंगे कि अपने पति (या पत्नी) और बच्चों की अच्छी तरह से देखभाल कैसे करें। जब दूसरे लोग इस बारे में संगति कर रहे होते हैं कि कैसे अपना कर्तव्य निभाने में वफादार होना परमेश्वर को संतुष्ट और उसके प्रति समर्पण करने के निमित्त होता है तो वे इस बारे में बात करेंगे कि अपना कर्तव्य निभाने में वफादार होना अपने परिवार और प्रियजनों के लिए आशीष प्राप्त करने के निमित्त होता है। क्या यह विषय से भटकना नहीं है? (हाँ, है।) अगर तुम उन्हें नहीं रोकते तो वे निरंतर बोलते रहेंगे। अगर तुम उन्हें प्रतिबंधित करते हो तो वे क्रोधित हो जाएँगे और शर्मिंदगी महसूस कर गुस्से से भड़क उठेंगे, जिससे उनका बुरा व्यवहार एक कदम और आगे बढ़ जाएगा। तब यह मुद्दा प्रकृति से विघ्न-बाधा के स्तर का हो जाता है, जो बहुत गंभीर है। हालाँकि सत्य पर संगति करते समय विषय से भटक जाना एक सामान्य मुद्दा है, लेकिन वस्तुनिष्ठ रूप से कहें तो, यह कलीसियाई जीवन को अस्त-व्यस्त कर सकता है। यह पहला मुद्दा है। दूसरा मुद्दा, “शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलना” विघ्न-बाधा कहे जाने योग्य है या नहीं, यह मामले की गंभीरता पर निर्भर करता है। कुछ लोग शब्द और धर्म-सिद्धांत इसलिए बोलते हैं क्योंकि उनमें सत्य वास्तविकता नहीं होती; जैसे ही वे अपना मुँह खोलते हैं तो वे सब शब्द और धर्म-सिद्धांत ही होते हैं, सिर्फ खोखले सिद्धांत। लेकिन उनका इरादा दूसरों को गुमराह करके उनसे सम्मान प्राप्त करना नहीं होता। प्रतिबंधों और समझाइश से वे आत्म-जागरूकता प्राप्त कर लेंगे और उसके बाद कम शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलेंगे और फिर भाई-बहनों के जीवन प्रवेश में बाधा नहीं डालेंगे। इसे विघ्न-बाधा नहीं माना जाता। लेकिन जो लोग दूसरों को गुमराह करने के इरादे से जानबूझकर शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलते हैं, वे ऐसा तब भी करते हैं जब उन्हें अच्छी तरह पता होता है कि वे जो कह रहे हैं वह शब्द और धर्म-सिद्धांत है। ऐसा करने का उनका उद्देश्य दूसरों से सम्मान प्राप्त करना होता है; वे लोगों को अपनी तरफ करना, उन्हें गुमराह करना और रुतबा हासिल करना चाहते हैं। यह बात प्रकृति में काफी गंभीर है। इसकी प्रकृति सत्य न समझने के कारण सिर्फ शब्द और धर्म-सिद्धांत बोल पाने से अलग है। ऐसा व्यवहार विघ्न-बाधा उत्पन्न करता है। कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करने वाले विभिन्न लोग, घटनाएँ और चीजें व्यापक होती हैं। वे सिर्फ शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलने या विषय से भटक जाने जैसे मुद्दे नहीं होतीं। कुछ और चीजें क्या हैं? (गुट बनाना, कलह के बीज बोना और दूसरों की सकारात्मकता कम करना।) (इनमें नकारात्मकता प्रकट करना, मुसीबत खड़ी करना और लोगों को लगातार परेशान करना भी है।) (जब कुछ लोगों के मन में परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं के बारे में धारणाएँ होती हैं तो वे उन धारणाओं को फैलाकर अपनी नकारात्मकता प्रकट करते हैं, जिससे दूसरों के मन में भी कार्य-व्यवस्थाओं के बारे में धारणाएँ पैदा हो जाती हैं।) ये चीजें भी विघ्न-बाधा कहे जाने योग्य हैं। गुट बनाना उनमें से एक है, कलह के बीज बोना दूसरी, और साथ ही लोगों को सताना और उन पर हमला करना, धारणाएँ फैलाना, नकारात्मकता प्रकट करना, निराधार अफवाहें फैलाना और रुतबे के लिए होड़ करना—ये सभी विघ्न-बाधाएँ हैं। ये समस्याएँ प्रकृति में सत्य की संगति करते समय विषय से भटक जाने की तुलना में कहीं ज्यादा गंभीर हैं। एक मुद्दा चुनावों से संबंधित भी है। चुनावों के दौरान पैदा होने वाली किस तरह की समस्याएँ विघ्न-बाधा से संबंधित होती हैं? उदाहरण के लिए, वोटों में हेराफेरी करना—अपने लिए वोट जुटाने के लिए लाभों का वादा करना। यह चुनाव में बाधा डालने का एक तरीका है। और गुप्त क्रियाकलाप—पर्दे के पीछे लोगों के दिमाग पर काम करना ताकि उन्हें अपनी तरफ कर गुमराह किया जा सके और अपने लिए वोट करने को मजबूर किया जा सके। चुनावों के दौरान यही सब मुद्दे उठते हैं। क्या ये विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करते हैं? (हाँ, करते हैं।) ये समस्याएँ सामूहिक रूप से चुनाव के सिद्धांतों का उल्लंघन कही जाती हैं। एक और मुद्दा घरेलू मामलों के बारे में बकबक करना, व्यक्तिगत संबंध बनाना और व्यक्तिगत मामले सँभालना है। कोई व्यक्ति इन चीजों के लिए सभाओं में आ सकता है—सत्य समझने या परमेश्वर के वचनों पर संगति करने के लिए नहीं, बल्कि व्यक्तिगत मामले सँभालने के लिए। क्या ऐसी समस्या गंभीर किस्म की होती है? (हाँ।) यह भी विघ्न-बाधा उत्पन्न करने के बराबर है।

आओ अब कलीसियाई जीवन में उत्पन्न होने वाली विघ्न-बाधा से संबंधित विभिन्न मुद्दों का सारांश प्रस्तुत करें : पहला, सत्य पर संगति करते समय अक्सर विषय से भटक जाना; दूसरा, लोगों को गुमराह करने और उनसे सम्मान प्राप्त करने के लिए शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलना; तीसरा, घरेलू मामलों के बारे में बकबक करना, व्यक्तिगत संबंध बनाना और व्यक्तिगत मामले सँभालना; चौथा, गुट बनाना; पाँचवाँ, रुतबे के लिए होड़ करना; छठा, कलह के बीज बोना; सातवाँ, लोगों पर हमला कर उन्हें सताना; आठवाँ, धारणाएँ फैलाना; नौवाँ, नकारात्मकता प्रकट करना; दसवाँ, निराधार अफवाहें फैलाना; और ग्यारहवाँ, चुनाव के सिद्धांतों का उल्लंघन करना। कुल ग्यारह। ये ग्यारह अभिव्यक्तियाँ विघ्न-बाधा के वे मुद्दे हैं जो अक्सर कलीसियाई जीवन में उत्पन्न होते हैं। कलीसियाई जीवन जीते हुए अगर ये मुद्दे उत्पन्न होते हैं तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को खड़े होकर उन्हें रोकना, प्रतिबंधित करना और अनियंत्रित रूप से विकसित न होने देना जरूरी है। अगर अगुआ और कार्यकर्ता उन्हें प्रतिबंधित करने में असमर्थ रहते हैं तो सभी भाई-बहनों को उन्हें प्रतिबंधित करने के लिए एक-साथ आना चाहिए। अगर उनमें शामिल व्यक्ति में बुरी मानवता नहीं है और वह जानबूझकर विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न नहीं कर रहा है बल्कि उसमें सिर्फ सत्य की समझ नहीं है तो सत्य की संगति के जरिये उसकी सहायता और समर्थन किया जा सकता है। अगर विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करने वाला व्यक्ति बुरा है और मामला छोटा है तो उसकी विघ्न-बाधाएँ संगति और खुलासे के जरिये रोकी और प्रतिबंधित की जानी चाहिए। अगर वह पश्चात्ताप करने के लिए तैयार है और अब विघ्न-बाधा उत्पन्न करने वाले तरीकों से नहीं बोलता या क्रियाकलाप नहीं करता, कलीसिया में सबसे कम महत्वपूर्ण सदस्य होने के लिए तैयार है, कर्तव्यनिष्ठा से सुन सकता है और आज्ञापालन कर सकता है और भाई-बहनों द्वारा निर्धारित प्रतिबंधों को स्वीकारते हुए कलीसिया जो भी व्यवस्था करे उसे निभा सकता है तो वह अस्थायी रूप से कलीसिया में रह सकता है। लेकिन अगर वह उन्हें नहीं स्वीकारता बल्कि बहुमत का विरोध करता है और उसके प्रति शत्रुतापूर्ण हो जाता है तो दूसरा कदम—उन्हें बाहर निकालना—उठाया जाना चाहिए। क्या यह नजरिया उचित है? (हाँ।)

I. सत्य पर संगति करते समय अक्सर विषय से भटक जाना

अब हम कलीसियाई जीवन में दिखने वाले विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों के बारे में संगति करेंगे जो प्रकृति से ही विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करते हैं। उनमें से पहला है सत्य पर संगति करते समय अक्सर विषय से भटक जाना। सत्य पर संगति करते समय विषय से भटक जाना कैसे निर्धारित किया जाए? हम संगति के उन शब्दों को कैसे स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं जो विषय से भटक गए होते हैं? क्या तुम लोग सत्य की अपनी संगति में अक्सर विषय से भटक जाते हो? (हाँ।) इस समस्या को विघ्न-बाधा की प्रकृति का माने जाने के लिए इसे किस हद तक पहुँचना चाहिए? अगर सत्य पर संगति करते समय विषय से भटक जाने की हर घटना को विघ्न-बाधा के रूप में वर्गीकृत किया जाए, तो क्या लोग भविष्य में कलीसियाई जीवन में बोलने या संगति करने से डरेंगे नहीं? और अगर लोग संगति करने से डरते हों तो क्या इसका मतलब यह नहीं कि उन्होंने मुद्दे को स्पष्ट रूप से नहीं समझा है? (हाँ, इसका यही मतलब है।) इसलिए यह सटीक रूप से निर्धारित होने पर कि सत्य पर संगति करते समय विषय से किस तरह का भटकना विघ्न-बाधा होता है, ज्यादातर लोग अपनी विवशताओं से मुक्त हो जाएँगे। यह देखते हुए कि जब तुम लोग सामान्य बातचीत में भी विषय से भटक जाते हो तो सत्य पर संगति करते समय ऐसा करना और भी आम बात है। इसलिए तुम लोगों को विवश होने से बचाने के लिए इस बारे में बहुत स्पष्टता से संगति करना जरूरी है। ऐसा मत होने दो कि विषय से भटक जाने और विघ्न-बाधा उत्पन्न होने का डर तुम्हें बोलने से ही रोक दे और तुम्हारे पास ज्ञान होने के बावजूद तुम्हें संगति करने का साहस न करने दे या—जब तुम संगति करना चाहो तो—तुम्हें पहले यह सोचने के लिए मजबूर कर दे : “क्या मैं जो कहना चाहता हूँ वह विषय से संबंधित है? क्या यह विषय से भटकना है? मुझे बोलने से पहले अपने विचारों का मसौदा तैयार करना चाहिए, रूपरेखा बनानी चाहिए और फिर उस रूपरेखा पर टिके रहना चाहिए ताकि चाहे कुछ भी हो जाए मैं विषय से न भटकूँ। अगर मैं विषय से भटक गया, तो इससे किसी को लाभ नहीं होगा और सभा का कीमती समय बर्बाद होगा, जिससे भाई-बहनों की सत्य की समझ प्रभावित होगी। और अगर यह गंभीर हुआ तो यह कलीसियाई जीवन को अस्त-व्यस्त भी कर सकता है।” तो फिर हमें विषय से भटक जाने के मामले को कैसे देखना चाहिए? पहले हमें इस बात पर विचार करना चाहिए कि क्या विषय से भटकना भाई-बहनों के लिए फायदेमंद है और फिर हमें स्पष्ट रूप से यह देखना चाहिए कि विषय से भटकने के कलीसियाई जीवन पर क्या परिणाम होते हैं। इस तरह हम स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि विषय से भटकना कोई छोटा मुद्दा नहीं है; गंभीर मामलों में यह कलीसियाई जीवन और कलीसियाई कार्य में विघ्न-बाधा भी उत्पन्न कर सकता है। मान लो तुम किसी विषय पर अपने ज्ञान और समझ के बारे में संगति करने के लिए परमेश्वर के वचनों के किसी अंश की तलाश करते हो; या मान लो तुम किसी विषय पर उस ज्ञान के बारे में जो तुमने प्राप्त किया है, उन सत्यों के बारे में जो तुमने समझे हैं और परमेश्वर के इरादों के बारे में संगति करते हो जो तुमने अपने अनुभव से समझे हैं; या मान लो कि किसी निश्चित विषय पर तुम्हारी संगति थोड़ी लंबी है और तुम उसके बारे में खुद को ज्यादा स्पष्टता से व्यक्त नहीं करते, खुद को कई बार दोहराते हो—ऐसी स्थितियों में क्या तुम विषय से भटक रहे हो? इनमें से कुछ भी विषय से भटकना नहीं माना जाता। तो विषय से भटकना क्या होता है? विषय से भटकना तब होता है जब तुम जो कहते हो उसका संगति के विषय से कोई संबंध नहीं होता या बहुत कम संबंध होता है, जब यह सिर्फ बाहरी मामलों के बारे में इधर-उधर की बातें करना होता है और लोगों के लिए बिल्कुल भी शिक्षाप्रद नहीं होता। यह पूरी तरह से विषय से भटक जाना है। आओ, अब इस बात पर चर्चा करते हैं कि विघ्न-बाधा उत्पन्न करना क्या होता है। सत्य की संगति करते समय विषय से भटक जाने के मामले में किस तरह के शब्द और व्यवहार विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करते हैं? यहाँ समस्या का सार क्या है? विषय से भटक जाना प्रकृति से विघ्न-बाधा कैसे बन जाता है? क्या यह संगति करने लायक नहीं है? इस पर संगति करने के बाद क्या तुम समझ जाओगे कि विषय से भटक जाने का क्या मतलब है? (हाँ।) तो फिर तुम लोग इस प्रश्न के अपने-अपने उत्तर दो। (जब कोई व्यक्ति ऐसे विषयों पर संगति करता है जिनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं होता—उदाहरण के लिए बेकार की बकबक, घरेलू मामलों के बारे में बात करना और सामाजिक रुझानों से जुड़ी चीजों पर चर्चा करना जो लोगों के दिलों को क्षुब्ध करती हैं, उन्हें परमेश्वर के सामने शांत रहने और उसके वचनों पर विचार करने से रोकती हैं—तो वह संगति विषय से भटक गई होती है।) इसमें कितने मुख्य बिंदु हैं? (एक तो यह है कि विषय सत्य से असंबंधित होते हैं।) यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण बिंदु है : सत्य से असंबंधित होना। एक बिंदु है घरेलू मामलों के बारे में बेकार की बकबक और गपशप करना। दूसरा है परंपरागत संस्कृति, इंसानी नैतिक सोच और उन चीजों के बारे में बात करना जिन्हें लोग श्रेष्ठ मानते हैं मानो वे सत्य हों। यह विकृत समझ की समस्या है; ये तमाम चीजें सत्य से असंबंधित हैं। उदाहरण के लिए, परमेश्वर के वचन कहते हैं, “युवा लोगों को आकांक्षाओं से रहित नहीं होना चाहिए।” कोई संगति करता है, “प्राचीन काल से ही नायक अपनी युवावस्था में ही उभरे हैं,” या “महत्वाकांक्षा उम्र से अवरुद्ध नहीं होती।” या जब तुम इस बारे में बात करते हो कि परमेश्वर का भय कैसे माना जाए तो वे संगति करते हैं : “तुम्हारे तीन फीट ऊपर एक परमेश्वर है”; “जब मनुष्य काम करता है, तो स्वर्ग देख रहा होता है”; “अगर तुम्हारा जमीर साफ हो, तो तुम्हें अपने दरवाजे पर दस्तक दे रहे भूतों से नहीं डरना चाहिए”; या “आदमी का दिल अच्छाई की तरफ झुकना चाहिए।” क्या यह विषय से भटकना नहीं है? क्या ये शब्द सत्य से असंबंधित नहीं हैं? ये शब्द क्या हैं? (शैतानी फलसफे।) वे शैतानी फलसफे हैं और ये एक निश्चित नस्ल की परंपरागत संस्कृति भी हैं। विषय से भटकने की पहली अभिव्यक्ति तब होती है जब बोला गया विषय सत्य से असंबंधित होता है; यह तब होता है जब व्यक्ति ऐसे फलसफे और सिद्धांत कहता है जिन्हें गैर-विश्वासी सही और उच्च मानते हैं और उन्हें जबरन सत्य से जोड़ते हैं। यह विषय से भटकना है। विषय सत्य से असंबंधित होता है—इस अभिव्यक्ति को समझना आसान होना चाहिए। दूसरी अभिव्यक्ति तब होती है जब चर्चा के विषय लोगों के मन को क्षुब्ध करते हैं। जब सभा में सत्य पर संगति नहीं की जाती है, बल्कि ज्ञान, पांडित्य, फलसफे और कानून या सामाजिक घटनाओं और विभिन्न जटिल अंतर्वैयक्तिक संबंधों के बारे में संगति की जाती है तो यह लोगों के मन को क्षुब्ध करता है। यह तब होता है जब व्यक्ति ऐसे मुद्दों के बारे में संगति करता है जिनमें मूलभूत रूप से सत्य शामिल नहीं होता और उनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं होता, फिर भी वह ऐसे संगति करता है मानो वे चीजें सत्य हों। यह दूसरों के मन में भ्रम पैदा करता है और जब वे इसे सुनते हैं तो उनकी सोच सत्य की संगति से हटकर बाहरी मामलों पर चली जाती है। तब ये लोग कैसे व्यवहार करते हैं? वे ज्ञान और पांडित्य पर ध्यान केंद्रित करना शुरू कर देते हैं। लोगों के मन को क्षुब्ध करना अपनी प्रकृति में एक गंभीर बात है। तीसरी अभिव्यक्ति तब होती है जब चर्चा के विषयों की वजह से लोग परमेश्वर को गलत समझने लगते हैं जिसके परिणामस्वरूप दर्शनों के बारे में स्पष्टता नहीं रहती। कुछ लोग सत्य के बारे में खुद बहुत स्पष्ट नहीं होते, फिर भी दिखावा करना चाहते हैं कि उनमें स्पष्टता और समझ है। इसलिए जब वे सत्य पर संगति करते हैं तो वे जो कुछ कहते हैं उसमें कुछ गहन धर्म-सिद्धांत डाल देते हैं, जो धार्मिक धर्म-सिद्धांत उन्होंने सुने और समझे होते हैं उन्हें आपस में गड्डमड्ड कर देते हैं, निराधार और अतिशयोक्तिपूर्ण ढंग से बोलते हैं। उनकी बात सुनने के बाद लोग दर्शनों के बारे में स्पष्टता खो देते हैं; वे नहीं जानते कि वह व्यक्ति किस सत्य पर चर्चा करना चाहता था। जितना ज्यादा वे सुनते हैं, उतने ही ज्यादा भ्रमित होते हैं और उतनी ही ज्यादा परमेश्वर में उनकी आस्था कम हो जाती है, यहाँ तक कि उनके मन में परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ भी पैदा हो सकती हैं। यह बातचीत सुनने के बाद लोगों में न केवल सत्य की समझ नहीं आती है—उनके मन भ्रमित हो जाते हैं। इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। विषय से भटक जाने से यही होता है।

सत्य पर संगति करते समय विषय से भटक जाना कई तरीकों से अभिव्यक्त होता है और उनमें से प्रत्येक अपनी प्रकृति से लोगों के जीवन प्रवेश में बाधा उत्पन्न करता है। जब लोग ऐसी संगति सुन लेते हैं तो उनमें सत्य की स्पष्ट समझ और अभ्यास के मार्ग की कमी ही नहीं होती, बल्कि उनके मन भी भ्रमित हो जाते हैं, वे सत्य के बारे में ज्यादा अस्पष्ट हो जाते हैं और वे कुछ गलत व्याख्याएँ और भ्रामक समझ भी विकसित कर लेते हैं। सत्य पर संगति करते समय विषय से भटक जाने का लोगों पर यही प्रभाव और प्रतिकूल परिणाम होता है। इन तीनों अभिव्यक्तियों में से प्रत्येक अभिव्यक्ति प्रकृति में काफी गंभीर होती है। उदाहरण के लिए पहली अभिव्यक्ति है, “बोला गया विषय सत्य से असंबंधित होता है।” ऐसी बातें कहना जो सही लगती हैं लेकिन होती नहीं और लोगों को गुमराह करने के लिए सत्य पर संगति करने के अवसर का उपयोग करते हुए कलीसिया में उपदेश देने और विश्लेषण करने के लिए इंसानी ज्ञान, फलसफों, सिद्धांतों, परंपरागत संस्कृति और नामी हस्तियों के प्रसिद्ध कथनों जैसी शैतानी चीजें लाना उनके लिए बाधा उत्पन्न करता है। यह प्रकृति में बहुत गंभीर होता है। अगर कोई भेद पहचानने में सक्षम व्यक्ति ऐसी संगति सुनता तो कहता, “तुम जो कह रहे हो वह सही नहीं है; यह सत्य नहीं है। तुम जिसके बारे में बोल रहे हो वह नैतिक व्यवहार और कहावतें हैं जिन्हें गैर-विश्वासी अच्छा समझते हैं। वे गैर-विश्वासियों के इस बात के सिद्धांत होते हैं कि खुद कैसा व्यवहार करना चाहिए और संसार के साथ कैसे पेश आना चाहिए, जो मूलभूत रूप से सत्य से असंबंधित होते हैं।” लेकिन कुछ लोगों में भेद पहचानने की क्षमता नहीं होती है और जब वे ये भ्रांतियाँ सुनते हैं तो वे उन्हें स्वीकारकर सत्य की तरह उनका पालन करते हैं। उस समय अगर अगुआ और कार्यकर्ता इसे रोकते नहीं हैं और प्रतिबंधित नहीं करते हैं, अगर वे इसके बारे में संगति कर इसका गहन-विश्लेषण नहीं करते हैं ताकि लोग विवेक प्राप्त करें, तो परमेश्वर के कुछ चुने हुए लोग गुमराह किए जा सकते हैं। गुमराह किए जाने के क्या परिणाम होते हैं? वे विश्वास कर लेंगे कि गैर-विश्वासी संसार के प्रसिद्ध लोगों द्वारा दिए गए उपदेश, जिन्हें लोग सही, अच्छे और गहन मानते हैं, जैसे कि लोकोक्तियाँ और प्रसिद्ध लोगों के कथन और आचरण के सिद्धांत, सब सही हैं और परमेश्वर के वचनों की तरह ही सत्य हैं। क्या वे गुमराह नहीं कर दिए गए? ऊपर से ऐसा लगता है जैसे वे सत्य पर संगति कर रहे हों, लेकिन असल में उसमें कुछ इंसानी विचार और शैतान के कुछ भ्रामक फलसफे मिले होते हैं और इससे स्पष्ट रूप से लोगों को परेशानी होती है। अगर कोई व्यक्ति शैतान के फलसफे और इंसानी ज्ञान को सत्य के रूप में प्रस्तुत करके लोगों को गुमराह करता है तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को मामला उजागर कर उसका गहन-विश्लेषण करना चाहिए, ताकि भाई-बहनों की भेद पहचानने की क्षमता बढ़े और वे समझ जाएँ कि सत्य असल में क्या है। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यह कार्य करना चाहिए। दूसरी अभिव्यक्ति है “लोगों के मन क्षुब्ध करना।” कुछ लोग हमेशा सत्य पर संगति करने के अवसर लपक लेते हैं ताकि उन चीजों के बारे में बोल सकें जो सही लगती हैं लेकिन होती नहीं और वे इंसानी ज्ञान, पांडित्य, गुणों और प्रतिभाओं की बड़ाई करते हैं। वे नैतिक मानदंडों, परंपरागत संस्कृति आदि के बारे में भी बात करते हैं। वे शैतान से आने वाली इन चीजों को सकारात्मक चीजों के रूप में, सत्य के रूप में पेश करते हैं, जो लोगों को इस गलत धारणा की ओर ले जाता है कि इनका समर्थन करना चाहिए, इन्हें कलीसिया में फैलाना चाहिए और इनका गुणगान करना चाहिए, सभी को इनका पालन करना चाहिए; इससे लोगों के मन में ऐसी भ्रांतियाँ और पाखंड बढ़ते हैं जो सही प्रतीत होते हैं लेकिन होते नहीं; और यह लोगों के मन भ्रमित करता है और उन्हें भटकने का एहसास कराता है, उन्हें यह नहीं पता होता कि सत्य असल में क्या है या समस्याओं से सामना होने पर सही तरीके से कैसे अभ्यास किया जाए या कौन-सा मार्ग सही है। इससे उनके दिल अंधकार में डूब जाते हैं। यह लोगों को गुमराह करने के लिए पाखंड और भ्रांतियाँ फैलाने का नतीजा है। जहाँ तक तीसरी अभिव्यक्ति की बात है, हम इस पर विस्तार से संगति नहीं करेंगे। संक्षेप में, विषय से भटकी हुई कुछ चर्चाओं में ज्ञान शामिल होता है, कुछ में इंसानी धारणाएँ और कुछ में अन्य बातों के अलावा नैतिक रूप से अच्छे व्यवहार शामिल होते हैं। लेकिन इनमें से कोई भी चीज सत्य से संबंधित नहीं होती—वे सब उसके विपरीत होती हैं। इसलिए जब ये मुद्दे उठते हैं तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को उन्हें रोकना और प्रतिबंधित करना चाहिए। अगर किसी की संगति सुनने के बाद लोगों के दिलों में न सिर्फ सत्य के बारे में स्पष्टता नहीं रहती, बल्कि वे क्षुब्ध भी हो जाते हैं, उनके मन जो कभी स्पष्ट होते थे, भ्रमित हो जाते हैं, वे नहीं जानते कि सही तरीके से अभ्यास कैसे करें, तो ऐसे व्यक्ति की संगति रोक देनी और प्रतिबंधित कर देनी चाहिए। उदाहरण के लिए, सामान्य मानवता से संबंधित सत्यों पर अपनी संगति में कुछ लोग कहते हैं : “सामान्य मानवता में परमेश्वर को जो सबसे ज्यादा पसंद है, वह है कठिनाई सहने की क्षमता, दैहिक आनंद या आराम की लालसा न करना, स्वादिष्ट भोजन का त्याग करना, जिसका आनंद लेना चाहिए उसका या जो परमेश्वर ने तैयार किया है उसका आनंद न लेना, इन दैहिक इच्छाओं के खिलाफ विद्रोह करने में सक्षम होना, देह की तमाम इच्छाएँ नियंत्रित करना, अपना शरीर वश में करना और देह को अपनी मर्जी न चलाने देना। इसलिए जब तुम रात को सोना चाहते हो तो तुम्हारा देह के खिलाफ विद्रोह करना जरूरी है। अगर तुम ऐसा नहीं कर सकते तो तुम्हें इसे नियंत्रित करने के तरीके खोजने की जरूरत है। देह के खिलाफ विद्रोह करने की तुम्हारी इच्छा जितनी बड़ी होगी और तुम जितना ज्यादा देह के खिलाफ विद्रोह करोगे, तुममें सत्य का अभ्यास करने की उतनी ही ज्यादा अभिव्यक्तियाँ और परमेश्वर के प्रति उतनी ही ज्यादा निष्ठा होना सिद्ध होगा। मुझे लगता है कि सामान्य मानवता की सबसे प्रमुख अभिव्यक्ति—जिसकी सबसे ज्यादा वकालत करनी चाहिए—अपने शरीर को वश में करना, देह की इच्छाओं के खिलाफ विद्रोह करना, दैहिक सुख की लालसा न करना और भौतिक आनंद में मितव्ययी होना है। तुम जितने ज्यादा मितव्ययी होगे, स्वर्ग के राज्य में उतने ही ज्यादा आशीष संचित कर लोगे।” क्या ये शब्द काफी सकारात्मक नहीं लगते? क्या इनमें कोई गलती है? इंसानी तर्क, धर्म-सिद्धांतों और धारणाओं से मापने पर ये शब्द किसी भी धार्मिक या सामाजिक समूह में मान्य होंगे; हर कोई अपनी स्वीकृति व्यक्त करने के लिए इन्हें हरी झंडी दिखाएगा और कहेगा कि वे जो कहते हैं वह सही है, उनकी आस्था अच्छी और शुद्ध है। क्या कलीसिया में भी कुछ लोग इस पर विश्वास नहीं कर लेंगे? इंसानी धारणाओं से मापें तो ये तमाम शब्द सही हैं—इनमें क्या सही है? कुछ लोग कह सकते हैं, “परमेश्वर ऐसे लोगों को पसंद करता है। वह भी इसी तरह से मितव्ययी जीवन जीता है।” क्या यह इंसानी धारणा नहीं है? लोग इस तरह की धारणा रखते हैं, इसलिए अगर कोई व्यक्ति वास्तव में इस तरह की संगति करता है तो क्या वह बहुमत की धारणाओं के अनुरूप नहीं होगी? (हाँ, होगी।) जब लोग इस तरह की धारणा का अंगीकार करते हैं तो क्या वे उस व्यक्ति के दृष्टिकोण से सहमत नहीं होते? जब तुम उस व्यक्ति के दृष्टिकोण से सहमत होकर उसको स्वीकारते हो तो क्या तुम उसके क्रियाकलापों से सहमत नहीं होते? क्या तब तुम उसका अनुकरण करने का प्रयास नहीं करते? और जब तुम ऐसा करने में सक्षम होते हो तो क्या वह मार्ग जिसका तुम अनुसरण करते हो, तब तुम्हारे अभ्यास का मार्ग निर्धारित नहीं हो जाता? निर्धारित होने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि तुम इस बात पर दृढ़ हो कि तुम इस तरह से व्यवहार और अभ्यास करोगे। जब तुम अपने दिल में यह विश्वास करते हो कि परमेश्वर ऐसे लोगों से प्रेम करता है और तुम्हारा इस तरह से व्यवहार करना पसंद करता है, सिर्फ ऐसा करके ही तुम ऐसा व्यक्ति बन सकते हो जिसे परमेश्वर स्वीकारता है, ऐसा व्यक्ति जो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर वहाँ आशीष प्राप्त कर सकता है, जिसका एक अच्छा गंतव्य होता है, तब तुम इस तरह से व्यवहार करने का संकल्प लेते हो। जब तुम यह संकल्प लेते हो तो क्या तुम्हारा मन पहले से ही इस तरह के विचार और दृष्टिकोण से क्षुब्ध और गुमराह नहीं हो गया है? यह एक तथ्य है; यह परिणाम है। तुम्हारा मन क्षुब्ध हो गया है और तुम्हें इसका एहसास भी नहीं है। एक और मुद्दा भी है : जब तुम्हारा मन ऐसे विचारों और दृष्टिकोणों से पंगु और क्षुब्ध हो जाता है तो क्या तुम परमेश्वर के इरादों और अपेक्षाओं के बारे में स्पष्टता नहीं खो देते? क्या तब तुम परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ नहीं पाल लेते और उससे दूर नहीं हो जाते? क्या इससे यह संकेत नहीं मिलता कि तुम दर्शनों के बारे में अस्पष्ट हो? इसके बारे में ध्यान से सोचो : जब तुम किसी ऐसे विचार या दृष्टिकोण से गुमराह हो जाते हो जिसे लोग सही मानते हैं लेकिन जो गलत होता है तो क्या तुम्हारा मन क्षुब्ध नहीं होता? क्या तब भी तुम्हारे दिल में दर्शन स्पष्ट हो सकते हैं? (नहीं।) तो क्या परमेश्वर के बारे में तुम्हारा ज्ञान सटीक होता है या वह एक गलतफहमी होती है? स्पष्ट रूप से वह एक गलतफहमी होती है। तो क्या तुम जो समझते हो और जिसे तुम सही मानते हो, वह वास्तव में सत्य होता है? नहीं, वह सत्य नहीं होता—वह परमेश्वर के वचनों का, सत्य का खंडन करता है, उनके विपरीत होता है। इसलिए इस तरह सत्य पर संगति करते समय विषय से भटक जाना बेशक लोगों के मन में बाधा उत्पन्न करता है। यह देखते हुए कि यह विषय से भटक जाना लोगों के मन में इतनी बड़ी बाधा उत्पन्न करता है, क्या इसे परमेश्वर के कार्य में गड़बड़ी पैदा करना कहा जा सकता है? यह लोगों को धारणाओं और शैतान के फलसफे और तर्क में ले जाता है, इसलिए क्या यह लोगों को परमेश्वर की उपस्थिति से दूर नहीं करता? जब लोग परमेश्वर को गलत समझते हैं, जब वे उसके इरादे नहीं समझते और उसके इरादों और अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास नहीं कर सकते, बल्कि शैतान के तर्क और इंसानी धारणाओं के अनुसार अभ्यास करते हैं तब क्या वे परमेश्वर के करीब होते हैं या उससे दूर होते हैं? (वे उससे दूर होते हैं।) वे उससे दूर होते हैं। तो क्या सभाओं के दौरान इस तरह के विषय पर संगति प्रतिबंधित नहीं होनी चाहिए? (हाँ, होनी चाहिए।) इस तरह विषय से भटकने की प्रकृति लोगों को परेशान करने वाली होती है, इसलिए उसे निश्चित रूप से प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। अगर उसे रोका और प्रतिबंधित नहीं किया गया, तो ऐसे अनेक भ्रमित लोग होंगे जो खराब काबिलियत वाले और सुन्न होंगे—खासकर आध्यात्मिक समझ न रखने वाले लोग—जो विषय से भटकने वाले व्यक्ति का अनुकरण और अनुसरण करेंगे। यह वह समय है जब अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इसे रोकने के लिए तुरंत खड़े होना चाहिए। उन्हें उस व्यक्ति को विषय से भटकने नहीं देना चाहिए; उन्हें अपनी संगति के विषय से ज्यादा लोगों को गुमराह करने और ज्यादा लोगों के मन क्षुब्ध करने नहीं देने चाहिए। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यह जिम्मेदारी निभानी चाहिए, उन्हें यह कार्य करना चाहिए।

सत्य पर संगति करते समय विषय से भटक जाने के विषय पर हमारी संगति में बस इतना ही। इसके बाद हम इस बात का सारांश प्रस्तुत करेंगे कि व्यक्ति को अपनी संगति के दौरान विषय से कितना भटक जाने पर और उसे किन विषयों पर संगति करने पर उस संगति की प्रकृति को विघ्न-बाधा उत्पन्न करने की श्रेणी में रखा जा सकता है। विषय से भटक जाने के कुछ प्रकार तो स्पष्ट हैं : जब व्यक्ति पूरी तरह से विषय से भटक जाता है, जब वह बेकार की बकबक करने लगता है या घरेलू मामलों पर चर्चा करने लगता है, तो उसे पहचानना आसान होता है। उदाहरण के लिए, जब हर कोई अपना कर्तव्य निभाने के तरीके के बारे में संगति कर रहा होता है तो कोई व्यक्ति अपने “शानदार” अतीत के बारे में संगति कर सकता है, अपने द्वारा किए गए अच्छे कर्मों के बारे में बात कर सकता है या इस बारे में बात कर सकता है कि कैसे उसने भाई-बहनों की मदद की है, इत्यादि। कोई इसे नहीं सुनना चाहता और जितना ज्यादा वह सुनता है उतना ही उससे विमुख हो जाता है जब तक कि उस व्यक्ति को नजरअंदाज नहीं कर देता। तब उस व्यक्ति को यह शर्मनाक लगेगा। अगर ज्यादातर लोग इस व्यक्ति का भेद पहचान सकें तो वह आगे नहीं बढ़ पाएगा। विषय से भटक जाने के इस प्रकार को पहचान पाने के लिए सत्य की बहुत ज्यादा समझ होने की जरूरत नहीं होती। बेकार की बातें करना, घरेलू मामलों के बारे में बकबक करना, खुद को बड़ा दिखाना, खुद को आकर्षक रूप में प्रस्तुत करना और संगति के विषय का लाभ उठाकर अपने “शानदार” अतीत के बारे में बात करना—विषय से भटक जाने का यह प्रकार आसानी से पहचाना जा सकता है। यह मूलभूत रूप से कोई बहुत बड़ी बाधा नहीं है क्योंकि ज्यादातर लोग ऐसी चीजों को नकार देते हैं और उन्हें सुनने के लिए तैयार नहीं होते और वे जानते हैं कि वे दिखावा कर रहे हैं और सत्य पर संगति नहीं कर रहे, वे विषय से भटक गए हैं। जब वे बोलना शुरू करते हैं तो समूह उन्हें फौरन शर्मिंदा नहीं करने की कोशिश कर सकता है, लेकिन जैसे-जैसे वे आगे बढ़ते हैं, लोग उन्हें नकारने लगते हैं और उन्हें आगे सुनने के इच्छुक नहीं रह जाते और उन्हें लगता है कि इसके बजाय खुद ही परमेश्वर के वचन पढ़ना बेहतर होगा। अगर व्यक्ति बोलना जारी रखता है तो वे उठकर चले जाते हैं। जब व्यक्ति देखता है कि चीजें अचानक बदल गई हैं और वे खुद को शर्मिंदा कर रहे हैं तो वे बोलना जारी नहीं रखेंगे। किस तरह का विषय से भटकना लोगों पर पहले ही प्रतिकूल प्रभाव डाल चुका होता है, फिर भी लोग किसी नकारात्मक चीज के रूप में उसकी असलियत नहीं जान पाते, बल्कि विषय से भटकी हुई सामग्री को सत्य मानकर ध्यान से सुनते हैं? इस तरह का विषय से भटकना लोगों को परेशान कर सकता है और ऐसे मामलों में व्यक्ति को भेद पहचानने में सक्षम होना चाहिए। इस तरह के विषय से भटकने का एक उदाहरण दो। (जब व्यक्ति काट-छाँट किए जाने के बाद आत्मचिंतन नहीं करता, बल्कि अपनी बात सिर्फ मुद्दे के सही-गलत होने पर केंद्रित करता है, तो यह सभी का मन भ्रमित कर देता है। यह न सिर्फ लोगों को भेद पहचानने की क्षमता विकसित करने में असमर्थ बना देता है; बल्कि लोगों को लगता है कि यह व्यक्ति जो कहता है वह सत्य के अनुरूप है और वह सही है। इससे हर कोई उसका पक्ष लेता है।) काट-छाँट किए जाने को कैसे स्वीकारें, इसके बारे में संगति करने के बहाने वे अपना बचाव करते हुए खुद को सही ठहराते हैं, लोगों को यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि उनकी काट-छाँट करना गलत था, लोगों को अपना पक्ष लेने और अपने साथ सहानुभूति रखने के लिए मजबूर करते हैं और इसके अलावा लोगों को ऐसी परिस्थितियों में काट-छाँट स्वीकार कर समर्पण करने की अपनी क्षमता की प्रशंसा करने के लिए मजबूर करते हैं। इससे लोग गुमराह होते हैं; यह जानबूझकर, सोच-समझकर विषय से भटकने का उदाहरण है, जो न सिर्फ श्रोताओं को काट-छाँट का सामना करने पर समर्पण करने, काट-छाँट स्वीकारने और आत्मचिंतन कर खुद को जानने में असमर्थ बनाता है, बल्कि उन्हें काट-छाँट के प्रति सतर्क और प्रतिरोधी भी बनाता है। ऐसी संगति लोगों को काट-छाँट का महत्व समझने में मदद करने में विफल रहती है और यह समझने में भी विफल रहती है कि लोगों को काट-छाँट का सामना करने पर कैसे सही रवैया अपनाना चाहिए, उसे कैसे स्वीकारना चाहिए और कैसे अभ्यास करना चाहिए। इसके बजाय, यह लोगों को काट-छाँट से निपटने का दूसरा तरीका चुनने के लिए प्रेरित करती है, ऐसा तरीका जो सत्य का अभ्यास और सत्य सिद्धांतों के अनुसार क्रियाकलाप करना नहीं होता, बल्कि ऐसा तरीका होता है जो लोगों को ज्यादा शातिर बनाता है। ऐसी संगति लोगों को गुमराह करने का काम करती है। सत्य पर संगति करते समय विषय से भटक जाना एक प्रकार का मुद्दा है जो कलीसियाई जीवन में उठता है। अगर इस प्रकार का मुद्दा विघ्न-बाधा के स्तर तक पहुँच जाता है तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इसे रोकने और प्रतिबंधित करने के लिए कदम उठाना चाहिए, इस पर संगति और इसका गहन-विश्लेषण करना चाहिए ताकि ज्यादातर लोगों का विवेक बढ़े, वे अनुभव से सीखें और एक सबक सीखें।

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