अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (10) खंड एक
मद नौ : मार्गदर्शन, पर्यवेक्षण, आग्रह और निरीक्षण करते हुए, परमेश्वर के घर की विभिन्न कार्य-व्यवस्थाओं को उसकी अपेक्षाओं के अनुसार सटीक रूप से संप्रेषित, जारी और कार्यान्वित करो, और उनके कार्यान्वयन की स्थिति का निरीक्षण और अनुवर्ती कार्रवाई करो (भाग दो)
कार्य-व्यवस्थाओं के कार्यान्वयन के लिए मार्गदर्शन, पर्यवेक्षण, आग्रह करना और उनके कार्यान्वयन की स्थिति का निरीक्षण और अनुवर्ती कार्रवाई करना
आज, हम अगुआओं और कार्यकर्ताओं की नौवीं जिम्मेदारी पर संगति करना जारी रखेंगे : “मार्गदर्शन, पर्यवेक्षण, आग्रह और निरीक्षण करते हुए, परमेश्वर के घर की विभिन्न कार्य-व्यवस्थाओं को उसकी अपेक्षाओं के अनुसार सटीक रूप से संप्रेषित, जारी और कार्यान्वित करो, और उनके कार्यान्वयन की स्थिति का निरीक्षण और अनुवर्ती कार्रवाई करो।” पिछली बार, हमने मुख्य रूप से कार्य-व्यवस्थाओं की उन विभिन्न सामग्रियों और विशिष्ट मदों के बारे में संगति की थी जिन्हें लोगों को समझने की जरूरत है, साथ ही अगुआओं और कार्यकर्ताओं की सबसे मूलभूत जिम्मेदारियों के बारे में भी संगति की थी, जो कि कार्य-व्यवस्थाओं को संप्रेषित करना, जारी करना और कार्यान्वित करना है। आज हम विशिष्ट रूप से इस बात पर संगति करेंगे कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं को मार्गदर्शन, पर्यवेक्षण और आग्रह कैसे करना चाहिए और उन्हें जारी किए जाने के बाद कार्य-व्यवस्थाओं के कार्यान्वयन की स्थिति का निरीक्षण और अनुवर्ती कार्रवाई कैसे करनी चाहिए। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कार्य-व्यवस्थाओं के साथ कैसे पेश आना चाहिए, और एक बार जब वे कार्य-व्यवस्थाओं के महत्व को समझ लेते हैं, तो उसके बाद उन्हें ऊपरवाले की अपेक्षाओं और चरणों के अनुसार कार्य-व्यवस्थाओं को कैसे सटीक रूप से कार्यान्वित और क्रियान्वित करना चाहिए—ये वही सत्य सिद्धांत हैं जो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को संगति के जरिए समझ में आने चाहिए, और कलीसियाई कार्य के विभिन्न मदों को अच्छी तरह से पूरा करने के लिए उन्हें इन सिद्धांतों को समझने की जरूरत है। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यह मालूम होना चाहिए कि इस भूमिका में सेवा करने वालों से परमेश्वर के घर की मूलभूत अपेक्षा मुख्य रूप से यह है कि वे विभिन्न कार्य-व्यवस्थाओं के इर्द-गिर्द केंद्रित अपने कार्य का निर्वहन करें। यह उनका अधिकार नहीं है कि वे अपने व्यक्तिगत उद्यम में व्यस्त रहें या अपनी इच्छाओं के अनुसार चीजें करें, और यकीनन यह उनका अधिकार नहीं है कि वे जो भी कार्य करते हैं उसमें खुद ही अनाड़ीपन से प्रयास करते रहें। निस्संदेह, यह भी उनका अधिकार नहीं है कि वे किसी भी चीज का आविष्कार या निर्माण करें। बल्कि, उनका यह कर्तव्य है कि वे परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं के आधार पर विशिष्ट रूप से और विस्तार से कार्य करें। कार्य विशिष्ट रूप से कैसे करना चाहिए? इसमें कौन से विवरण शामिल हैं? इन प्रश्नों का उत्तर नौवीं जिम्मेदारी की अपेक्षाओं में निहित है : परमेश्वर के घर की विभिन्न कार्य-व्यवस्थाओं को संप्रेषित, जारी और कार्यान्वित करने के अलावा, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को मार्गदर्शन, पर्यवेक्षण और आग्रह करने, और कार्य-व्यवस्थाओं के कार्यान्वयन की स्थिति का निरीक्षण और अनुवर्ती कार्रवाई करनी चाहिए। कार्य व्यवस्थाओं को कार्यान्वित करने के लिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं के लिए ये अभ्यास के विशिष्ट मार्ग हैं। इसके बाद, हम एक-एक करके उन पर चर्चा करेंगे।
कार्य-व्यवस्थाएँ जारी करने के बाद, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को सबसे पहले उनमें प्रस्तुत विभिन्न अपेक्षाओं और सिद्धांतों पर विचार और संगति करनी चाहिए। फिर, उन्हें कार्य को विशिष्ट रूप से कार्यान्वित करने के लिए मार्ग और अभ्यास की योजनाएँ ढूँढ़नी चाहिए। सबसे पहले, उन्हें यह जानने की जरूरत है कि कार्य-व्यवस्थाओं के लिए क्या जरूरी है, कौन-सा विशिष्ट कार्य करने की जरूरत है, और संबंधित सिद्धांत क्या हैं, साथ ही कार्य-व्यवस्थाएँ किन लोगों और कार्य के किस पहलू के बारे में हैं। कार्य-व्यवस्थाएँ प्राप्त करने के बाद अगुआओं और कार्यकर्ताओं को सबसे पहले यही करना चाहिए। उन्हें बस यही नहीं करना चाहिए कि कार्य-व्यवस्थाओं को बस लापरवाही से पढ़ लिया और फिर उन्हें सभी को जोर से पढ़कर सुना दिया, या उन्हें आगे हस्तांतरित कर दिया और सभी को कार्य के बारे में सूचित कर दिया, और फिर इसी पर बात खत्म कर दी। यह सिर्फ कार्य-व्यवस्थाओं को संप्रेषित और जारी करना है; यह उन्हें कार्यान्वित करना नहीं है। उनके कार्यान्वयन में पहला विशिष्ट कार्य अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा कार्य-व्यवस्थाओं की विशिष्ट सामग्री के बारे में, कलीसियाई कार्य के इन अंशों के लिए परमेश्वर की अपेक्षाओं और लक्ष्यों के बारे में, और इस कार्य के निर्वहन के महत्व के बारे में सीखना है, और फिर विशिष्ट क्रियान्वयन और कार्यान्वयन योजनाएँ विकसित करना है। यह पहला चरण है। क्या पहला चरण पूरा करना आसान है? (हाँ।) जब तक तुम लिखित शब्दों और मानवीय भाषा को समझ सकते हो, तब तक पहला चरण पूरा करना आसान होना चाहिए। निस्संदेह, पहला चरण पूरा करने के लिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं को भ्रमित या लापरवाह होने या खानापूर्ति करने के बजाय, कार्य के प्रति एक गंभीर, तत्पर, जिम्मेदार और बहुत सावधानी वाला रवैया रखने की भी जरूरत है। कार्य-व्यवस्था का जिक्र चाहे पहले किया गया हो या नहीं, इसे पूरा करना लोगों के लिए चाहे आसान हो या कुछ हद तक मुश्किल हो, लोग इसे करने के चाहे इच्छुक हों या अनिच्छुक हों, किसी भी मामले में, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कलीसियाई कार्य के प्रति सतही रवैया नहीं रखना चाहिए, उन्हें इसे लापरवाही से निपटाने के लिए बस कुछ सिद्धांतों को बड़बड़ाना, नारे लगाना, या कुछ सतही प्रयास नहीं करने चाहिए। लोगों को कैसा रवैया रखना चाहिए? सबसे पहले, उनका रवैया गंभीर, ईमानदार, जिम्मेदार और बहुत सावधानी भरा होना चाहिए। क्या ऐसा रवैया रखने का यह अर्थ है कि व्यक्ति कार्य-व्यवस्थाओं की विशिष्ट मदों को अच्छी तरह से कार्यान्वित कर सकता है? नहीं, यह बस रवैया है जो किसी भी कार्य को करते समय रखना चाहिए; यह विशिष्ट कार्यों के वास्तविक कार्यान्वयन की जगह नहीं ले सकता है। एक बार जब वे यह रवैया अपना लेते हैं और कार्य-व्यवस्थाओं की विशिष्ट सामग्री, अपेक्षाओं और सिद्धांतों को भी समझ लेते हैं, तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं के लिए अगला कदम यह है कि वे कार्य-व्यवस्थाओं के विशिष्ट कार्यों को कैसे कार्यान्वित करते हैं। सबसे पहले क्या करना चाहिए? उन्हें इसकी तैयारी उचित रूप से करनी चाहिए; यह बहुत महत्वपूर्ण है। सबसे पहले, उन्हें अगुआओं और कार्यकर्ताओं और पर्यवेक्षकों को एकत्रित करना चाहिए ताकि इन कार्यों के लिए अभ्यास के विशिष्ट सिद्धांतों पर संगति की जा सके। फिर, उन्हें विशिष्ट व्यवस्थाएँ और योजनाएँ तैयार करनी चाहिए। साथ ही, उन्हें इन योजनाओं के बारे में परमेश्वर के चुने हुए लोगों के सुझाव और विचार जानने चाहिए। फिर सभी को तब तक साथ मिलकर तलाश और संगति करनी चाहिए जब तक कि कार्य-व्यवस्थाओं में प्रस्तुत सभी अपेक्षाएँ और सिद्धांत समझ में नहीं आ जाते और स्पष्ट नहीं हो जाते, और सभी को यह मालूम नहीं हो जाता कि इन कार्य-व्यवस्थाओं को कैसे कार्यान्वित करना है और अभ्यास कैसे करना है—तब जाकर कार्य-व्यवस्थाओं को कार्यान्वित करने का शुरुआती चरण पूरा हो चुका माना जाता है। तो, एक बार जब सभी को यह मालूम हो जाता है कि कार्य-व्यवस्थाओं को कैसे कार्यान्वित करना है, तो क्या इसका यह अर्थ है कि कार्य-व्यवस्थाओं को कार्यान्वित करने का कार्य पूरा हो गया है? नहीं, ऐसा नहीं है। कार्य-व्यवस्थाओं में कुछ विस्तृत मुद्दों और विशेष परिस्थितियों का जिक्र नहीं किया जाता है, लेकिन वे ऐसी समस्याएँ हैं जिन्हें वास्तव में सुलझाने की जरूरत है। कार्य-व्यवस्थाओं पर संगति करते समय, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इन विशेष परिस्थितियों को, इन मुद्दों को रोशनी में लाना चाहिए जिन्हें सुलझाया जाना चाहिए, और उन्हें पूरी तरह से सुलझाने के लिए सत्य की तलाश करनी चाहिए, और साथ ही उन्हें उनके लिए विशिष्ट कार्यान्वयन योजनाएँ भी तैयार करनी चाहिए। इस तरह से, जब सभी स्तरों पर अगुआ और कार्यकर्ता कार्य-व्यवस्थाओं को कार्यान्वित करेंगे, तो उन्हें मालूम होगा कि किन सिद्धांतों का पालन करना है और किन समस्याओं को सुलझाना है। यह वही न्यूनतम समझ और रवैया है जो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कार्य-व्यवस्थाओं के प्रति रखना चाहिए। यह कार्य अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा कलीसियाई कार्य करने का तरीका सीखने का शुरुआती बिंदु माना जा सकता है। तलाश करने, संगति करने, मार्गदर्शन प्रदान करने और व्यवस्थाएँ करने के जरिए, वे सत्य सिद्धांतों के अनुसार कुछ वास्तविक कठिनाइयों और विशेष परिस्थितियों से निपटना और उन्हें सँभालना सीखते हैं। सिर्फ तभी वे सही मायने में कार्य व्यवस्थाओं को कार्यान्वित कर सकते हैं।
I. मार्गदर्शन प्रदान करना
किसी कार्य के लिए शुरुआती मार्गदर्शन प्रदान करते समय, विशेष परिस्थितियों के लिए विशिष्ट कार्यान्वयन योजनाओं की पेशकश करने के अलावा, औसत काबिलियत और अपेक्षाकृत खराब कार्य क्षमता वाले अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ज्यादा विशिष्ट और विस्तृत मार्गदर्शन दिया जाना चाहिए। वैसे तो ये लोग धर्म-सिद्धांत के संबंध में किसी कार्य के लिए सिद्धांतों और विशिष्ट कार्यान्वयन योजनाओं को समझ पाते हैं, फिर भी उन्हें यह मालूम नहीं होता है कि जब वास्तविक कार्यान्वयन की बात आती है, तो उन्हें कैसे अभ्यास में लाना है। तुम्हें उन कुछ अगुआओं और कार्यकर्ताओं से कैसे पेश आना चाहिए जिनकी काबिलियत खराब है और जिनमें कार्य क्षमता की कमी है? कुछ लोग कहते हैं, “अगर खराब काबिलियत वाला कोई व्यक्ति कार्य नहीं कर सकता है, तो उसकी जगह बस किसी बेहतर काबिलियत वाले व्यक्ति को क्यों ना ढूँढ़ लिया जाए?” यहीं पर कठिनाई है : कुछ कलीसियाएँ कोई बेहतर व्यक्ति नहीं ढूँढ़ पाती हैं। उन कलीसियाओं में, सभी लोग परमेश्वर में लगभग समान वर्षों से विश्वास रखे हुए हैं और अपने आध्यात्मिक कद के संबंध में वे सभी लगभग समान हैं; विशेष रूप से, सभी की काबिलियत और कार्य क्षमता औसत दर्जे की है। कोई बेहतर व्यक्ति ढूँढ़ने के लिए तुम्हें दूसरी कलीसियाओं से लोगों को स्थानांतरित करने की जरूरत पड़ेगी, लेकिन वहाँ ऐसा करना बहुत सुविधाजनक नहीं है, और वहाँ कोई भी सच में उपयुक्त उम्मीदवार नहीं है। तुम स्थानीय कलीसिया से सिर्फ अपेक्षाकृत उपयुक्त उम्मीदवारों को चुन सकते हो। अगर उनका कार्य जरूरी मानकों को पूरा नहीं करता है, तो ऐसी परिस्थितियों में क्या करना चाहिए? तुम्हें उन्हें विशिष्ट रूप से यह बताने की जरूरत है कि कार्य कैसे करना है, और इसे कैसे कार्यान्वित करना है। तुम्हें उन्हें यह बताना चाहिए कि इस कार्य के लिए किसे नियुक्त करना चाहिए और किसे जिम्मेदार बनाना चाहिए, और इस पर साथ मिलकर सहयोग करने के लिए किन लोगों को चुनना चाहिए। उन्हें ये सभी विवरण समझाओ और उन्हें इसका निर्वहन करने दो। इसे इस तरीके से क्यों करना चाहिए? क्योंकि स्थानीय कलीसिया के सदस्यों के पास आम तौर पर बहुत ही उथला अनुभव होता है और उनमें कार्य करने की क्षमता की कमी होती है, जिससे उपयुक्त अगुआओं और कार्यकर्ताओं को चुनना असंभव हो जाता है। सिर्फ इसी तरीके से कार्य करके ही कार्य-व्यवस्थाओं को कार्यान्वित किया जा सकता है। अगर तुम इस तरीके से कार्य नहीं करते हो और इन लोगों के साथ दूसरे अगुआओं और कार्यकर्ताओं जैसा ही व्यवहार करते हो, उन्हें सिर्फ विशिष्ट सिद्धांतों और योजनाओं के बारे में बताते हो और अविभेदी होते हो, तो कार्य-व्यवस्थाएँ कार्यान्वित नहीं की जाएँगी। अगर तुम इस पर कोई ध्यान नहीं देते हो, तो क्या यह जिम्मेदारी की उपेक्षा नहीं है? (हाँ, है।) यह अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी है। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता कहते हैं, “दूसरे लोगों को तो पता है कि कार्य-व्यवस्थाओं को कैसे कार्यान्वित करना है और अभ्यास कैसे करना है; इस व्यक्ति को क्यों नहीं पता है? अगर उसे नहीं पता है, तो मैं उसे लेकर परेशान नहीं होऊँगा। यह मेरी जिम्मेदारी नहीं है। चाहे जो हो, मैं अपना काम पूरा कर चुका हूँ।” क्या यह तर्क मान्य है? (नहीं।) मिसाल के तौर पर, मान लो कि एक माँ के तीन बच्चे हैं, और उनमें से एक बच्चा कमजोर है, वह हमेशा बीमार रहता है, और खाना नहीं खाना चाहता है। अगर यह माँ इस बच्चे को खाना नहीं खाने की अनुमति दे देती है, तो शायद यह बच्चा ज्यादा दिन तक जीवित नहीं रहेगा। उसे क्या करना चाहिए? एक माँ होने के नाते, उसे इस कमजोर बच्चे की विशेष देखभाल करनी होगी। मान लो कि यह माँ कहती है, “यह तो पहले से ही काफी है कि मैं अपने सभी बच्चों के साथ समान व्यवहार करती हूँ। मैंने इस बच्चे को जन्म दिया और उसके लिए खाना पकाया। मैंने अपनी जिम्मेदारी पूरी कर दी है। चाहे वह खाए या ना खाए, मुझे इसकी परवाह नहीं है। अगर वह नहीं खाता है, तो उसे भूखा रहने दो, और जब उसे वाकई भूख लगेगी, तो वह खाना खा लेगा।” इस तरह की माँ के बारे में तुम क्या सोचते हो? (वह गैर-जिम्मेदार है।) क्या ऐसी माँएँ होती हैं? सिर्फ एक बेवकूफ महिला या सौतेली माँ ही ऐसी होगी। अगर वह सगी माँ है और बेवकूफ नहीं है, तो वह अपने बच्चे के साथ ऐसा व्यवहार कभी नहीं करेगी, है न? (सही कहा।) अगर कोई बच्चा कमजोर है, हमेशा बीमार पड़ जाता है, और खाना खाना पसंद नहीं करता है, तो उसकी माँ को ज्यादा देखभाल और प्रयास करने पड़ते हैं। उसे बच्चे को खाना खिलाने के तरीके ढूँढ़ने पड़ते हैं, उसे बच्चे की पसंद का खाना पकाना पड़ता है, उसके लिए खास पकवान बनाने पड़ते हैं और जब बच्चा खाना खाने से मना करता है, तो उसे मनाना पड़ता है। जब वह अठारह-उन्नीस वर्ष का हो जाता है और उसका शरीर एक सामान्य वयस्क की तरह स्वस्थ होता है, तो माँ निश्चिन्त हो सकती है और पीछे हट सकती है, और अब उसे इस बच्चे की विशेष देखभाल करने की जरूरत नहीं पड़ती है। अगर कोई माँ खास हालातों वाले बच्चे के साथ ऐसे पेश आ सकती है और अपनी जिम्मेदारी पूरी कर सकती है, तो एक अगुआ या कार्यकर्ता के बारे में तुम्हारा क्या कहना है? अगर तुम्हारे दिल में भाई-बहनों के लिए माँ का प्यार तक नहीं है, तो इसका यह अर्थ है कि तुम बिल्कुल गैर-जिम्मेदार हो। तुम्हें अपनी सारी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए; तुम्हें उन कलीसियाओं का ध्यान रखना चाहिए जिनमें अपेक्षाकृत कमजोर और अपेक्षाकृत खराब कार्य क्षमता वाले लोग प्रभारी हैं। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इन मामलों पर विशेष ध्यान देना चाहिए और इनमें विशेष मार्गदर्शन प्रदान करना चाहिए। विशेष मार्गदर्शन का क्या अर्थ है? तुम्हें सत्य पर संगति करने के अलावा, ज्यादा विशिष्ट और विस्तृत निर्देश और सहायता भी प्रदान करनी चाहिए, जिसके लिए संप्रेषण के संबंध में ज्यादा प्रयास करने की जरूरत पड़ती है। अगर तुम उन्हें कार्य समझाते हो और फिर भी उन्हें समझ नहीं आता है, और वे यह नहीं जानते हैं कि इसे कैसे कार्यान्वित करना है, या भले ही वे इसे धर्म-सिद्धांत के संबंध में समझ जाते हैं, और ऐसा लगता है कि वे जानते हैं कि इसे कैसे कार्यान्वित करना है, लेकिन फिर भी तुम अनिश्चित हो और इस बारे में थोड़ा चिंतित हो कि वास्तविक कार्यान्वयन कैसे होगा, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें उनका मार्गदर्शन करने और उनके साथ कार्य को कार्यान्वित करने के लिए स्थानीय कलीसिया में व्यक्तिगत रूप से गहराई में जाने की जरूरत है। जिन कार्यों को कार्य-व्यवस्थाओं की अपेक्षाओं के अनुसार करने की जरूरत है, उनसे संबंधित विशिष्ट व्यवस्थाओं को करते समय उन्हें सिद्धांत बता दो, जैसे कि पहले क्या करना है और उसके बाद क्या करना है, और लोगों का उचित रूप से कैसे आवंटन करना है—इन सभी चीजों को उचित रूप से व्यवस्थित करो। यह व्यावहारिक रूप से उनके कार्य में उनका मार्गदर्शन करना है, जो कि सिर्फ नारे लगाने और अंधाधुंध आदेश देने और कुछ धर्म-सिद्धांतों के साथ उन्हें व्याख्यान देने और फिर, अपना कार्य खत्म हो चुका मान लेने के विपरीत है—वह विशिष्ट कार्य करने की अभिव्यक्ति नहीं है, और नारे लगाना और आसपास के लोगों पर हुक्म चलाना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी नहीं है। एक बार जब स्थानीय कलीसिया के अगुआ या पर्यवेक्षक कार्य की जिम्मेदारी उठा पाते हैं, और कार्य सही रास्ते पर आ जाता है, और मूल रूप से कोई प्रधान समस्या नहीं रह जाती है, सिर्फ तभी अगुआ या कार्यकर्ता वहाँ से जा सकते हैं। कार्य व्यवस्थाओं को कार्यान्वित करने के लिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं की नौवीं जिम्मेदारी में पहला विशिष्ट कार्य यही बताया गया है—मार्गदर्शन प्रदान करना। तो फिर, मार्गदर्शन वास्तव में किस प्रकार प्रदान करना चाहिए? अगुआओं और कार्यकर्ताओं को सबसे पहले कार्य-व्यवस्थाओं पर विचार करने और संगति करने का अभ्यास करना चाहिए, कार्य-व्यवस्थाओं की विभिन्न विशिष्ट अपेक्षाओं के बारे में सीखना चाहिए और उन्हें समझना चाहिए, और कार्य-व्यवस्थाओं के भीतर सिद्धांतों को समझने और प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। फिर, उन्हें कार्य-व्यवस्थाओं को कार्यान्वित करने के लिए सभी स्तरों पर अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर विशिष्ट योजनाओं पर संगति करनी चाहिए। इसके अलावा, उन्हें विशेष परिस्थितियों के लिए विशिष्ट कार्यान्वयन योजनाएँ प्रदान करनी चाहिए और अंत में, उन्हें अपेक्षाकृत कमजोर और अपेक्षाकृत खराब काबिलियत वाले अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ज्यादा विस्तृत और विशिष्ट सहायता और निर्देश देना चाहिए। अगर कुछ अगुआ और कार्यकर्ता कार्य को कार्यान्वित करने में पूरी तरह असमर्थ हैं, तो ऐसी परिस्थितियों में क्या करना चाहिए? उच्च-स्तरीय अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कलीसिया में गहराई तक जाना चाहिए और व्यक्तिगत रूप से कार्य में भाग लेना चाहिए, सत्य की संगति के जरिए वास्तविक मुद्दों को सुलझाना चाहिए, और उन्हें यह सिखाना चाहिए कि कार्य कैसे करना है और सिद्धांतों के अनुसार कार्य को कैसे कार्यान्वित करना है। ये चरण शब्दों में स्पष्ट रूप से बताए जा चुके हैं, लेकिन क्या इन्हें कार्यान्वित करना आसान है? क्या इसमें कोई कठिनाइयाँ हैं? कुछ लोग कह सकते हैं, “तुम इसे सरल बनाकर पेश करते हो, लेकिन इसे कार्यान्वित करना इतना आसान नहीं है। कभी-कभी कार्य-व्यवस्थाएँ बहुत पेचीदा होती हैं, और किसी को नहीं पता होता है कि उन्हें कैसे कार्यान्वित करना है!” बस पहला कार्य—कार्य-व्यवस्थाओं की विशिष्ट अपेक्षाओं पर संगति करना और व्यावहारिक तरीके से मार्गदर्शन प्रदान करना—कुछ अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यह बहुत ही श्रमसाध्य लगता है। वे कहते हैं, “मैंने ये विशिष्ट कार्य कभी नहीं किए हैं, इसलिए मुझे नहीं मालूम है कि इनके बारे में संगति कैसे करनी है और मार्गदर्शन कैसे प्रदान करना है। उन्हें बस कार्य-व्यवस्थाओं के शब्दों का ठीक वैसे ही पालन करना चाहिए—इसमें संगति करने की क्या बात है? क्या यह सिर्फ एक औपचारिकता नहीं है?” वे संगति करना नहीं जानते हैं, उन्हें सिर्फ नारे लगाना आता है : “हमें यह कार्य अच्छी तरह से कार्यान्वित करना है! यह परमेश्वर की हम से अपेक्षा है। हमें यकीनन अपनी बात पर डटे रहना चाहिए, परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा करना चाहिए, और हम से परमेश्वर की जो उम्मीदें हैं, उन पर खरा उतरना चाहिए। जहाँ तक इसे करने के तरीके की बात है, तुम लोगों को उसका खुद ही पता लगाना चाहिए।” ऐसी बातें कहने वाले लोगों की क्या समस्या है? क्या वे यह कार्य कर सकते हैं? क्या उनके पास कार्य क्षमता है? क्या उनकी काबिलियत खराब है? (हाँ, खराब है।)
चाहे कुछ भी हो जाए, चाहे यह बड़ा मामला हो या छोटा, तुम्हें कोई भी फैसला लेने से पहले परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उससे माँगना चाहिए, साथ ही ध्यान से और अच्छी तरह से सोचना और विचारना चाहिए। अगर कोई व्यक्ति सामान्य सोच वाला नहीं है, तो उसके लिए यह और ज्यादा आवश्यक है कि वह परमेश्वर से प्रार्थना करे, परमेश्वर की मदद माँगे और उन लोगों से ज्यादा मदद माँगे जो सत्य समझते हैं। इसके अतिरिक्त, कलीसियाई कार्य के प्रधान मामलों और कर्तव्य करते समय सामने आने वाले प्रधान मामलों के संदर्भ में, तुम्हें संबंधित कर्मियों के साथ इन मामलों पर संगति और चर्चा करनी चाहिए ताकि सर्वसम्मति पर पहुँचा जा सके और अंत में अभ्यास की एक विशिष्ट और व्यवहार्य योजना बनाई जा सके। यह योजना सावधानीपूर्वक विचार-विमर्श और परामर्श करके सर्वसम्मति से बनाई जानी चाहिए, और यह किसी भी स्तर के अगुआओं और कार्यकर्ताओं के सामने कायम रहनी चाहिए। जो लोग अभ्यास की ऐसी विशिष्ट योजनाएँ बना सकते हैं जो कायम रहती हैं, वे सामान्य सोच वाले लोग माने जाते हैं। अगर, मुद्दों का सामना करने पर, चाहे वह बड़ा हो या छोटा, किसी व्यक्ति के विचारों में कुछ भी ठोस नहीं है, और वह अभ्यास के विशिष्ट सिद्धांतों के बारे में नहीं सोच पाता है, और समस्याओं को सँभालने के सिद्धांतों की जगह सिर्फ सरल सैद्धांतिक नारों का उपयोग करता है, तो क्या वह अपना कार्य अच्छी तरह से कर सकता है? क्या ऐसे व्यक्ति में सोचने की क्षमता और चीजों के बारे में बारीकी से सोचने की क्षमता होती है? (नहीं।) किस तरह के व्यक्ति में सोचने की क्षमता की कमी होती है? (खराब काबिलियत वाले व्यक्ति में।) खराब काबिलियत वाला व्यक्ति होने का यही अर्थ है। आओ एक मिसाल लेते हैं। मान लो कि तुम विदेश में रह रहे हो और एक दिन अचानक तुम्हें अदालत से सम्मन मिलता है। यह काफी अप्रत्याशित और अचानक है, है न? सबसे पहले, तुमने कोई गैरकानूनी काम नहीं किया है। दूसरा, तुमने कोई मुकदमा दायर नहीं किया है, ना ही तुमने किसी को तुम पर किसी चीज का आरोप लगाते हुए सुना है। तुम्हें सम्मन मिला है, जिससे जुड़े हालातों के बारे में तुम कुछ नहीं जानते हो। ऐसी परिस्थिति से सामना होने पर एक औसत दर्जे के व्यक्ति को सबसे पहले क्या महसूस होगा? कानूनी मामलों में फँस जाने से वह घबराहट, चिंता और डर महसूस करेगा; इससे वह अचंभित और ऐसा महसूस करेगा जैसे वह इस परिस्थिति का सामना करने के लिए तैयार नहीं है, और उसका खाना खाने का मन नहीं करेगा। चाहे कोई व्यक्ति महत्वपूर्ण हो या ना हो, साहसी हो या दब्बू हो, वयस्क हो या नाबालिग हो, कोई भी व्यक्ति ऐसी परिस्थिति का सामना नहीं करना चाहता है क्योंकि यह कोई अच्छी चीज नहीं है। इस परिस्थिति का सामना करने पर लोग दो अलग तरीकों से प्रतिक्रिया करते हैं। पहले प्रकार का व्यक्ति सोचता है, “मैंने कोई गैर-कानूनी चीज नहीं की है, ना ही मैंने किसी सरकारी विनियम का उल्लंघन किया है। मुझे किस बात का डर है? यह कानून द्वारा शासित समाज है, जहाँ सभी चीजें सबूतों पर आधारित है। चूँकि मैंने कोई बुरी चीज नहीं की है, इसलिए अगर वे मुझ पर मुकदमा भी चलाएँ, तो भी उनके पास मेरे खिलाफ कोई सबूत नहीं होगा। मुझे किसी बात का डर नहीं है। एक सम्मन से क्या हो सकता है? एक ईमानदार व्यक्ति को आरोपों से डरने की जरूरत नहीं है। मैं अपना बचाव करने के लिए एक वकील रख लूँगा; कोई समस्या नहीं होगी।” इस पर बारीकी से विचार करने के बाद, वह अपने दिल में कोई दबाव महसूस नहीं करता है, और उसका दैनिक जीवन प्रभावित नहीं होता है। यह एक प्रकार के व्यक्ति की प्रतिक्रिया है। अब आओ दूसरे प्रकार के व्यक्ति की प्रतिक्रिया देखें। सम्मन मिलने के बाद, वह सोचता है, “मैंने कोई कानून नहीं तोड़ा है, ना ही मैंने कोई अपराध किया है, तो यह किस बारे में हो सकता है? क्या यह इसलिए हो सकता है क्योंकि मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ? परमेश्वर में विश्वास रखना गैर-कानूनी तो नहीं है। क्या यह हो सकता है कि किसी ने मुझे जानबूझकर फँसाया हो और मेरी रिपोर्ट कर दी हो? इसकी ज्यादा संभावना लगती है। लेकिन क्या यह कुछ और हो सकता है? मुझे एक वकील से सलाह लेने और उससे अदालत जाकर यह पता लगाने के लिए कहने की जरूरत है कि मुझे यह सम्मन क्यों मिला और वादी कौन है। मुझे जवाबी उपाय तय करने से पहले इस मामले की तह तक जाने की जरूरत है। अगर वकील कहता है कि यह परमेश्वर में मेरी आस्था से संबंधित है, तो मुझे जवाबी उपाय सोच निकालने के लिए जल्दी से लोगों को ढूँढ़ने और साथ ही जल्दी से जल्दी अपनी आस्था से संबंधित किताबें या इसी तरह की दूसरी चीजें छिपाने की जरूरत होगी ताकि मैं अपने दुश्मन को ऐसा कुछ ढूँढ़ निकालने से रोक सकूँ जिसका वह मेरे खिलाफ उपयोग कर सकता है।” इन शुरुआती विचारों के बाद वैसे तो उसने सम्मन मिलने के बारे में कोई निश्चित निष्कर्ष नहीं निकाला है या कोई सटीक आकलन नहीं किया है, लेकिन उसके पास अभ्यास की विशिष्ट योजना का पहले से ही एक स्पष्ट विचार है : योजना क के लिए क्या करना है, योजना ख के लिए क्या करना है, और अगर दोनों संभव न हों, तो उसे आगे क्या करना चाहिए। वह हर कदम पर बारीकी से और सावधानी से विचार करता है; वह पहले अपने मन को शांत करता है और जल्दी से अपने दिल में प्रार्थना करता है, और फिर, खुद को शांत करने के बाद, वह तुरंत इस मामले को सँभालने में लग जाता है। एक दिन में, वह इन सभी चीजों का पता लगा लेता है और उसे पता होता है कि आगे कैसे बढ़ना है। इस मामले का अंतिम परिणाम चाहे जो भी हो, आओ पहले इन दो प्रकार के लोगों को देखें। इनमें से किसमें समस्याओं के बारे में बारीकी से सोचने की क्षमता है? इनमें से किसमें काबिलियत है? (दूसरे व्यक्ति में।) जाहिर है, दूसरे व्यक्ति में काबिलियत है। किसी परिस्थिति से सामना होने पर अकेले साहस और संकल्प का होना काबिलियत होने के बराबर नहीं है। व्यक्ति में सोचने की क्षमता होनी चाहिए, सूझ-बूझ होनी चाहिए और समस्याओं को सँभालने की क्षमता होनी चाहिए। सोचने की प्रक्रिया में उन्हें विशिष्ट आकलन करने और विशिष्ट परिचालन योजनाएँ तैयार करने में समर्थ होना चाहिए। सिर्फ इस किस्म के व्यक्ति में ही काबिलियत होती है। ऊपरी तौर पर, वह बहुत दब्बू लग सकता है जो छोटे-छोटे मामलों के बारे में भी सतर्कता और सावधानी से कार्य करता है और छोटे-छोटे मामलों को महत्वपूर्ण मानता है। लेकिन, जिस विधि और तरीके से वह समस्याओं को सँभालता है, उससे प्रमाणित होता है कि इस व्यक्ति में सोचने की क्षमता है और समस्याओं पर बारीकी से विचार करने और उन्हें सँभालने की क्षमता है। इसके विपरीत, पहले प्रकार का व्यक्ति बहुत दबंग है और किसी भी चीज से नहीं डरता है। जब उसका किसी परिस्थिति से सामना होता है, तो बस यही सोचता है, “मैंने कोई बुरी चीज नहीं की है। चाहे कुछ भी गलत हो जाए, इसे ठीक करने के लिए हमेशा कोई ना कोई और अधिक सक्षम व्यक्ति मौजूद रहेगा। मुझे किस बात का डर है?” वह बेफिक्र रहता है और एक आसान जीवन जीता है, लेकिन क्या वह थोड़ा-सा बेवकूफी भरा बहादुर और मंदबुद्धि नहीं है? इस प्रकार का व्यक्ति जोर-जोर से नारे लगाता है, और वह जो कहता है वह गलत नहीं है, लेकिन उसमें क्या कमी है? (उसकी सोच सामान्य नहीं है और उसमें समस्याओं पर बारीकी से विचार करने की क्षमता की कमी है।) उसकी सामान्य सोच की कमी कहाँ अभिव्यक्त होती है? किसी परिस्थिति से सामना होने पर, चाहे यह कोई अचानक हुई चीज हो या कोई ऐसी चीज हो जिसके बारे में वह पहले से ही जानता हो, वह उस पर बारीकी से विचार नहीं कर पाता है या कोई फैसला नहीं ले पाता है, इसलिए जाहिर है, उसके पास समस्या को सँभालने की कोई योजना नहीं होगी या उसे सुलझाने की क्षमता नहीं होगी। यह बहुत स्पष्ट है। बाहर से, इस प्रकार का व्यक्ति वाक्पटु लगता है और वह धर्म-सिद्धांत बोल सकता है, और वह मनोबल भी बढ़ा सकता है; ऐसा लगता है कि उसमें अगुआ बनने की काबिलियत है। लेकिन, समस्याओं का सामना करने पर वह समस्याओं के सार की असलियत नहीं देख पाता है और उसे सुलझाने के लिए सत्य पर संगति नहीं कर पाता है। वह सिर्फ कुछ शब्द और धर्म-सिद्धांत बोल सकता है और नारे लगा सकता है। ऊपरी तौर पर, वह चालाक लगता है, लेकिन समस्याओं से सामना होने पर, वह समस्याओं के कारणों का विश्लेषण नहीं कर पाता है या उनके बारे में राय नहीं बना पाता है, ना ही वह उन गंभीर परिणामों का आकलन कर पाता है जो समस्याओं का बढ़ना जारी रहने पर होंगे। वह अपने मन में इन मामलों को सुलझा नहीं पाता है, फिर समस्याओं को सुलझाने की तो बात ही छोड़ दो। ऐसा व्यक्ति वाक्पटु लगता है, लेकिन वास्तव में वह खराब काबिलियत का होता है और वास्तविक कार्य नहीं कर पाता है। इसी तरह, अगर अगुआ और कार्यकर्ता, कार्य-व्यवस्था प्राप्त करने पर, इसे सिर्फ पढ़ पाते हैं और शाब्दिक तौर पर समझा पाते हैं, और वैसे तो वे कार्य-व्यवस्था जारी कर पाते हैं और सभाओं में उसके मुख्य बिंदुओं पर संगति कर पाते हैं, लेकिन वे नहीं जानते हैं कि कार्य-व्यवस्था की विशिष्ट अपेक्षाओं, सिद्धांतों, ध्यान देने योग्य मामलों, विशेष परिस्थितियों, वगैरह के लिए विशिष्ट व्यवस्थाएँ कैसे करनी हैं और विशिष्ट मार्गदर्शन कैसे प्रदान करना है, और उनके पास कोई योजना नहीं होती है, कोई विचार नहीं होते हैं, और समस्याओं को सुलझाने की कोई क्षमता नहीं होती है, तो फिर वे खराब काबिलियत वाले हैं। कार्य-व्यवस्थाओं को कार्यान्वित करते समय, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को जो पहला कार्य करने की जरूरत है—मार्गदर्शन प्रदान करना—वह आसान या सरल नहीं है। यह पहला कार्य यह जाँचता है कि अगुआ या कार्यकर्ता में वह काबिलियत और कार्य क्षमता है या नहीं जो उसमें होनी चाहिए। अगर अगुआओं और कार्यकर्ताओं में यह काबिलियत और कार्य क्षमता नहीं है, तो वे कार्य-व्यवस्थाओं के लिए विशिष्ट मार्गदर्शन प्रदान करने या उन्हें कार्यान्वित करने में समर्थ नहीं होंगे।
II. पर्यवेक्षण और आग्रह करना
इसके बाद, आओ हम “पर्यवेक्षण” के कार्य पर संगति करें। पर्यवेक्षण के शाब्दिक अर्थ को देखा जाए, तो इसका अर्थ है निरीक्षण करना : यह जाँचना कि किन कलीसियाओं ने कार्य-व्यवस्थाओं को कार्यान्वित किया है और किन कलीसियाओं ने नहीं, कार्यान्वयन की प्रगति जाँचना, यह जाँचना कि कौन से अगुआ और कार्यकर्ता वास्तविक कार्य कर रहे हैं और कौन से नहीं, और क्या कुछ अगुआ या कार्यकर्ता विशिष्ट कार्यों में भाग लिए बिना सिर्फ कार्य-व्यवस्थाओं को वितरित कर रहे हैं। पर्यवेक्षण एक विशिष्ट कार्य है। कार्य-व्यवस्थाओं के कार्यान्वयन के पर्यवेक्षण—जैसे कि उन्हें कार्यान्वित किया गया है या नहीं, कार्यान्वयन की गति, कार्यान्वयन की गुणवत्ता और हासिल हुए परिणामों—के अलावा उच्च-स्तरीय अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यह जाँचना चाहिए कि क्या अगुआ और कार्यकर्ता कार्य-व्यवस्थाओं का सख्ती से पालन कर रहे हैं। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता बाहरी तौर पर कहते हैं कि वे कार्य-व्यवस्थाओं का पालन करने के इच्छुक हैं, लेकिन एक खास परिवेश से सामना होने के बाद, उन्हें गिरफ्तार किए जाने का डर सताने लगता है और वे सिर्फ छिपने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, लंबे समय से कार्य-व्यवस्थाओं को अपने दिमाग में पीछे धकेल चुके होते हैं; भाई-बहनों की समस्याएँ अनसुलझी रह जाती हैं, और उन्हें नहीं पता होता है कि कार्य-व्यवस्थाएँ क्या निर्दिष्ट करती हैं या अभ्यास के सिद्धांत क्या हैं। इससे यह पता चलता है कि कार्य-व्यवस्थाएँ बिल्कुल भी कार्यान्वित नहीं की गई हैं। दूसरे अगुआओं और कार्यकर्ताओं के पास कार्य-व्यवस्थाओं की कुछ अपेक्षाओं के बारे में राय, धारणाएँ और प्रतिरोध होता है। जब उन्हें कार्यान्वित करने का समय आता है, तो वे कार्य-व्यवस्थाओं के वास्तविक अर्थ से भटक जाते हैं, अपने खुद के विचारों के अनुसार कार्य करते हैं, सिर्फ खानापूर्ति करते हैं और चीजों को जैसे-तैसे पूरा करने के लिए उन पर सतही ध्यान देते हैं, या अपना खुद का रास्ता अपना लेते हैं, उन्हें जैसे अच्छा लगता है वैसे ही कार्य करते हैं। ऐसी सभी परिस्थितियों में उच्च-स्तरीय अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा पर्यवेक्षण की जरूरत पड़ती है। पर्यवेक्षण का उद्देश्य है कार्य-व्यवस्थाओं द्वारा अपेक्षित विशिष्ट कार्यों को बिना विचलन के और सिद्धांतों के अनुसार बेहतर तरीके से कार्यान्वित करना। पर्यवेक्षण करते समय, उच्च-स्तरीय अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यह पहचानने पर बहुत जोर देना चाहिए कि क्या कोई ऐसा व्यक्ति है जो वास्तविक कार्य नहीं कर रहा है या कार्य व्यवस्थाओं को कार्यान्वित करने में गैर-जिम्मेदार और धीमा है; क्या कोई व्यक्ति कार्य-व्यवस्थाओं के संबंध में प्रतिरोधी मनोदशा दर्शाता है और उन्हें कार्यान्वित करने का अनिच्छुक है या उन्हें चुन-चुनकर कार्यान्वित करता है, या कार्य-व्यवस्थाओं का बिल्कुल भी पालन नहीं करता है, बल्कि सिर्फ खुद का उद्यम चलाता है; क्या कोई व्यक्ति कार्य-व्यवस्थाओं को रोके हुए है, और सिर्फ अपने विचारों के अनुसार ही उन्हें संप्रेषित करता है, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को कार्य-व्यवस्थाओं का सही अर्थ और विशिष्ट जरूरतें नहीं बताता है—सिर्फ इन मुद्दों का पर्यवेक्षण और निरीक्षण करके ही उच्च-स्तरीय अगुआ यह जान सकते हैं कि वास्तव में क्या चल रहा है। अगर उच्च-स्तरीय अगुआ पर्यवेक्षण और निरीक्षण नहीं करते हैं, तो क्या इन समस्याओं को पहचाना जा सकता है? (नहीं।) उन्हें नहीं पहचाना जा सकता है। इसलिए, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को न सिर्फ कार्य-व्यवस्थाओं को संप्रेषित करना चाहिए और स्तर दर स्तर मार्गदर्शन करना चाहिए, बल्कि कार्य-व्यवस्थाओं को कार्यान्वित करते समय कार्य का स्तर दर स्तर पर्यवेक्षण भी करना चाहिए। क्षेत्रीय अगुआओं को जिला अगुआओं के कार्य का पर्यवेक्षण करना चाहिए, जिला अगुआओं को कलीसियाई अगुआओं के कार्य का पर्यवेक्षण करना चाहिए, और कलीसियाई अगुआओं को हर समूह के कार्य का पर्यवेक्षण करना चाहिए। पर्यवेक्षण स्तर दर स्तर किया जाना चाहिए। पर्यवेक्षण का उद्देश्य क्या है? इसका उद्देश्य कार्य-व्यवस्थाओं की विशिष्ट अपेक्षाओं के अनुसार उनकी सामग्री के सटीक कार्यान्वयन को सुगम बनाना है। इसलिए, पर्यवेक्षण का कार्य बहुत ही महत्वपूर्ण है। पर्यवेक्षण करते समय, अगर परिवेश अनुमति देता है, तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कलीसियाओं में जाकर चीजों को समझना चाहिए ताकि उन लोगों से बातचीत की जा सके जो वास्तविक कार्य कर रहे हैं। उन्हें प्रश्न पूछने चाहिए, ध्यान से देखना चाहिए, पूछताछ करनी चाहिए, कार्य के कार्यान्वयन के बारे में जानना चाहिए और उसकी स्थिति को गहराई से समझना चाहिए। साथ ही, उन्हें यह भी जानना चाहिए कि इस कार्य में भाई-बहनों को क्या कठिनाइयाँ आ रही हैं और इनके बारे में उनके क्या विचार हैं और क्या वे इस कार्य के सिद्धांतों को समझ चुके हैं। ये सभी ऐसे विशिष्ट कार्य हैं जिन्हें अगुआओं और कार्यकर्ताओं को करने की जरूरत है। जो लोग अपेक्षाकृत खराब काबिलियत और मानवता के हैं, जो कुछ हद तक गैर-जिम्मेदार, निष्ठाहीन और अपने कार्य में अपेक्षाकृत सुस्त हैं, खास तौर पर उनके लिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं को उनके कार्य का और भी ज्यादा पर्यवेक्षण करने और उसे निर्देशित करने की जरूरत है। पर्यवेक्षण और निर्देशन कैसे करना चाहिए? मान लो कि तुम कहते हो, “जल्दी करो! ऊपरवाला हमारी कार्य रिपोर्ट की प्रतीक्षा कर रहा है। इस कार्य की एक समय सीमा है; इसे लंबा मत खींचो!” क्या उन्हें इस तरीके से आग्रह करने से काम बनेगा? क्या आग्रह करने का अर्थ बस उन्हें थोड़ा आगे धकेलना है, और कुछ नहीं? आग्रह करने का बेहतर तरीका क्या है? जब तुम लोग कार्य करते हो, तो क्या तुम आग्रह करने को अपने कार्यों के हिस्से के रूप में शामिल करते हो? (हाँ। अगर मैंने देखा कि कुछ कार्य समय पर नहीं किए जा रहे हैं, तो मैं यह समझने का प्रयास करूँगा कि वे उन्हें क्यों नहीं कर रहे हैं और उनके कार्य पर अनुवर्ती कार्रवाई करूँगा।) अगर तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हो जिसे कार्य करना नहीं आता है, तो तुम्हें उसका विशेष मार्गदर्शन और उसकी सहायता करनी चाहिए और उसे निर्देश देना चाहिए। अगर तुम किसी को कामचोरी करते हुए देखते हो तो तुम्हें उसकी काट-छाँट करनी चाहिए। अगर उसे कार्य करना आता है लेकिन वह उसे करने में बहुत ही आलसी है, सुस्त है और टाल-मटोल करता है, और दैहिक सुख-सुविधाओं में लिप्त रहता है, तो फिर जरूरत के अनुसार उसकी काट-छाँट करनी चाहिए। अगर काट-छाँट करने से समस्या नहीं सुलझती है और उसका रवैया नहीं बदलता है तो क्या करना चाहिए? (उसे यह कार्य मत करने दो।) सबसे पहले, उसे चेतावनी दो : “यह कार्य बहुत जरूरी है। अगर तुम इसके साथ इसी रवैये से पेश आते रहोगे, तो तुमसे तुम्हारा कर्तव्य छीन लिया जाएगा और किसी और को दे दिया जाएगा। अगर तुम इसे करने के इच्छुक नहीं हो, तो कोई और होगा। तुम अपने कर्तव्य के प्रति वफादार नहीं हो; तुम इस कार्य के लिए उपयुक्त नहीं हो। अगर तुम इस कार्य को करने में सक्षम नहीं हो और दैहिक कष्ट नहीं सह सकते तो परमेश्वर का घर तुम्हारी जगह किसी और को रख सकता है, और तुम इस्तीफा भी दे सकते हो। अगर तुम इस्तीफा नहीं देते हो और अब भी इसे करने के इच्छुक हो तो इसे अच्छी तरह करो और इसे परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं और सिद्धांतों के अनुसार करो। अगर तुम इसमें सफल नहीं हो पाते हो और बार-बार प्रगति में देरी करवाते हो, जिससे कार्य को नुकसान होते हैं, तो परमेश्वर का घर तुमसे निपटेगा। अगर तुम यह कर्तव्य पूरा नहीं कर सकते हो तो मुझे अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि तुम्हें यहाँ से जाना पड़ेगा!” अगर इस चेतावनी के बाद वह पश्चात्ताप करने को तैयार होता है तो उसे रखा जा सकता है। लेकिन अगर बार-बार चेतावनियों के बाद भी उसका रवैया नहीं बदलता है और वह रत्ती भर भी पश्चात्ताप नहीं दिखाता है, तो क्या करना चाहिए? उसे तुरंत बरखास्त कर देना चाहिए—क्या इससे यह समस्या सुलझ नहीं जाएगी? ऐसा नहीं है कि जब हमें किसी व्यक्ति में कोई छोटी-मोटी गलती या मामूली समस्या दिखाई पड़ती है, तो हम उस आधार पर उसके बारे में बुरी राय बना लेते हैं; बल्कि, हम तो लोगों को अवसर दे रहे हैं। अगर वह पश्चात्ताप करने को तैयार है और वह बदल जाता है, पहले से कहीं बेहतर बन जाता है, तो अगर संभव हो, तो उसे कार्य में बनाए रखो। अगर उसे बार-बार अवसर देने, सत्य पर संगति करने, काट-छाँट करने और चेतावनी देने से काम नहीं बनता है, और किसी की सहायता कारगर नहीं होती है, तो यह कोई साधारण मुद्दा नहीं है : इस व्यक्ति की मानवता बहुत ही खराब है, और वह सत्य बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करता है। ऐसे में, वह इस कर्तव्य के लिए उपयुक्त नहीं है और उसे वहाँ से भेज देना चाहिए। वह कर्तव्य करने के लिए उपयुक्त नहीं हैं। इस मामले को इसी तरह से सँभालना चाहिए।
कलीसिया के कार्य का पर्यवेक्षण करते समय, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को न सिर्फ विभिन्न समस्याओं को पहचानने में निपुण होना चाहिए, बल्कि कुछ कलीसियाई अगुआओं पर भी विशेष ध्यान देना चाहिए जिनके बारे में वे असहज महसूस करते हैं या जो उन्हें गैर भरोसेमंद लगते हैं। इन लोगों का लंबे समय तक पर्यवेक्षण करने और उन पर अनुवर्ती कार्रवाई करने की जरूरत है; तुम यह नहीं कर सकते हो कि उनसे बस कभी-कभार स्थिति के बारे में पूछ लिया या कुछ शब्द बोलकर मुद्दे को नजरअंदाज कर दिया और इसे समाप्त हुआ मान लिया। कभी-कभी, उनके कार्य का पर्यवेक्षण करने के लिए कार्यस्थल पर मौजूद रहना जरूरी होता है। कार्यस्थल पर मौजूद रहने का उद्देश्य क्या है? इसका उद्देश्य और जल्दी से समस्याओं का पता लगाना और उन्हें सुलझाना है और कार्य को अच्छी तरह से पूरा करवाना है। कभी-कभी, तुम कार्यस्थल पर पहुँचते ही समस्याओं का पता नहीं लगा सकते हो। बल्कि, विस्तृत समझ, कार्य के निरीक्षण और सावधानी से किए गए प्रेक्षण के जरिए ही कुछ समस्याएँ धीरे-धीरे उभरकर सामने आती हैं और उनका पता लगाया जा सकता है। पर्यवेक्षण करने के लिए कार्यस्थल पर मौजूद रहना लोगों की जाँच करना या लोगों पर पहरा देने के बारे में नहीं है। पर्यवेक्षण का क्या अर्थ है? पर्यवेक्षण में निरीक्षण करना और निर्देश देना शामिल है। इसका अर्थ है कार्य के बारे में विस्तार से विशिष्ट रूप से पूछना, कार्य की प्रगति और कार्य की कमजोर कड़ियों के बारे में जानना और उन्हें अच्छी तरह से समझना, यह समझना कि कौन अपने कार्य में जिम्मेदार है और कौन नहीं, और कौन कार्य का निर्वहन करने में सक्षम है और कौन नहीं, वगैरह-वगैरह। पर्यवेक्षण के लिए कभी-कभी परिस्थिति के बारे में परामर्श करने, उसे समझने और उसके बारे में पूछताछ करने की जरूरत होती है। कभी-कभी इसके लिए आमने-सामने प्रश्न करने या सीधे निरीक्षण करने की जरूरत होती है। निस्संदेह, अक्सर इसमें प्रभारी लोगों के साथ सीधे संगति करना, कार्य के कार्यान्वयन, आने वाली कठिनाइयों और समस्याओं के बारे में पूछना, वगैरह शामिल होता है। पर्यवेक्षण करते समय तुम यह पता लगा सकते हो कि कौन से लोग सिर्फ ऊपरी तौर पर खुद को अपने काम में लगाते हैं और सिर्फ सतही तौर पर चीजें करते हैं, किन लोगों को यह नहीं पता है कि विशिष्ट कार्यों को कैसे कार्यान्वित करना है, किन लोगों को यह तो पता है कि उन्हें कैसे कार्यान्वित करना है लेकिन वे वास्तविक कार्य नहीं करते हैं, और इसी तरह के दूसरे मसले क्या हैं। अगर इन पता लगाई गई समस्याओं को समय पर सुलझाया जा सकता है, तो यह सबसे अच्छा है। पर्यवेक्षण का उद्देश्य क्या है? इसका उद्देश्य है कार्य-व्यवस्थाओं को बेहतर ढंग से कार्यान्वित करना, यह देखना कि क्या तुमने जो कार्य व्यवस्थित किया है वह उचित है, क्या इसमें कोई चूक हुई है या ऐसी कोई चीज है जिस पर तुमने विचार नहीं किया है, क्या ऐसा कोई क्षेत्र है जो सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है, क्या इसमें कोई ऐसा विकृत पहलू या क्षेत्र है जिसमें गलतियाँ की गई हैं, वगैरह—पर्यवेक्षण करने की प्रक्रिया के दौरान इन सभी समस्याओं का पता लगाया जा सकता है। लेकिन अगर तुम घर पर ही रहते हो और यह विशिष्ट कार्य नहीं करते हो, तो क्या तुम इन समस्याओं का पता लगा सकोगे? (नहीं।) कई समस्याएँ ऐसी होती हैं जिन्हें जानने और समझने के लिए कार्यस्थल पर जाकर उनके बारे में पूछना, उनकी जाँच-परख करना, और उन्हें गहराई से समझना जरूरी होता है। पर्यवेक्षण करते समय, तुम्हें उन लोगों से आग्रह करना चाहिए जो अपने कार्य में गैर-जिम्मेदार और असावधान हैं, अपने से ऊपर के लोगों को धोखा देते हैं और अपने से नीचे के लोगों से चीजें छिपाते हैं, और लापरवाह और धीमे हैं। हमने अभी-अभी उनसे आग्रह करने के तरीके के संबंध में कई चरणों पर चर्चा की : तुम उन्हें निर्देश दे सकते हो, उनके साथ संगति कर सकते हो, उनकी काट-छाँट कर सकते हो, उन्हें चेतावनी दे सकते हो और उन्हें बर्खास्त कर सकते हो। क्या ये कदम उठाने आसान हैं? (हाँ।)
III. निरीक्षण और अनुवर्ती कार्रवाई करना
अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा कार्य के लिए आग्रह किए जाने के बाद, अगला कदम कार्य का निरीक्षण करना है। कार्य का निरीक्षण करने का सामान्य उद्देश्य क्या है? कार्य का निरीक्षण करने का अर्थ है व्यवस्थित किए गए कार्यों की प्रगति निर्धारित करना, उन समस्याओं की पहचान करना जिन्हें तत्काल सुलझाने की जरूरत है, और अंत में यह सुनिश्चित करना कि कार्य पूर्ण रूप से अच्छी तरह से किया गया है। कार्य व्यवस्थित कर लेने के बाद, कई पहलुओं का निरीक्षण करना जरूरी होता है : आगे का कार्य किस चरण में पहुँच गया है, यह पूरा हो गया है या नहीं, यह कितना कुशल है, परिणाम क्या हैं, क्या कोई विशिष्ट समस्याएँ पहचानी गई हैं, क्या कोई कठिनाइयाँ हैं, क्या कोई ऐसे क्षेत्र हैं जो सिद्धांतों के अनुरूप नहीं हैं, वगैरह-वगैरह। तुमने जो कार्य व्यवस्थित किया है, उसका निरीक्षण करना भी एक विशिष्ट और जरूरी कार्य है। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता अक्सर एक गलती कर देते हैं : उन्हें लगता है कि एक बार जब वे कार्य की व्यवस्था कर चुके हैं, तो उनका कार्य पूरा हो गया है। उनका मानना है, “मेरा कार्य पूरा हो गया है, मेरी जिम्मेदारी पूरी हो गई है। चाहे जो हो, मैंने तुम लोगों को बता दिया है कि इसे कैसे करना है। तुम लोग जानते हो कि क्या करना है, और तुमने इसे करने के लिए सहमति दी है। मुझे इस बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है कि चीजें कैसे आगे बढ़ती हैं; बस एक बार जब तुम लोग कार्य पूरा कर लो, तो मुझे सूचित कर देना।” कार्य की योजना बनाने और उसे व्यवस्थित करने के बाद, वे मानते हैं कि उनका कार्य पूरा हो चुका है और सब कुछ ठीक है। वे कार्य पर अनुवर्ती कार्रवाई या उसका निरीक्षण नहीं करते हैं। जहाँ तक यह प्रश्न है कि जिस व्यक्ति को उन्होंने कार्य का प्रभारी नियुक्त किया है, वह उपयुक्त है या नहीं, ज्यादातर लोगों की स्थिति कैसी है, क्या कोई समस्याएँ या कठिनाइयाँ हैं, उनमें कलीसियाई कार्य अच्छी तरह से करने का आत्मविश्वास है या नहीं, क्या कोई विकृत या गलत पहलू हैं, या क्या ऊपरवाले से प्राप्त कार्य-व्यवस्थाओं के उल्लंघन हुए हैं, वे इस बारे में जानकारी हासिल नहीं करते हैं, कोई निरीक्षण नहीं करते हैं, या अनुवर्ती कार्रवाई नहीं करते हैं। वे कार्य की व्यवस्था करने के बाद बस अपने कार्य को पूरा हो चुका मान लेते हैं; यह विशिष्ट कार्य करना नहीं है। कार्य में किस चीज का निरीक्षण करना चाहिए? जिन मुख्य चीजों की जाँच करनी चाहिए वे ये हैं कि कार्यान्वयन योजना कार्य-व्यवस्थाओं के अनुरूप है या नहीं, क्या यह कार्य-व्यवस्थाओं के सिद्धांतों और अपेक्षाओं का उल्लंघन करती है, और क्या ऐसे लोग हैं जो गड़बड़ियाँ और विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करते हैं, क्या ऐसे लोग हैं जो आँख मूँदकर उपद्रव मचाते हैं, या क्या ऐसे लोग हैं जो कार्य के दौरान बड़बोले शब्द बड़बड़ाते हैं। निस्संदेह, कार्य का निरीक्षण करते समय, तुम यह भी जाँच रहे हो कि कार्य-व्यवस्थाओं के तुम्हारे अपने कार्यान्वयन में कहीं कोई गलतियाँ तो नहीं थीं। दूसरों के कार्य का निरीक्षण करना वास्तव में अपने कार्य का निरीक्षण करना भी है।
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