प्रकरण तीन : कैसे नूह और अब्राहम ने परमेश्वर के वचनों का पालन किया और उसके प्रति समर्पण किया (भाग दो) खंड चार
नूह और अब्राहम की कहानियों में, और अय्यूब की कहानी में, जब परमेश्वर के वचन और कार्य उन पर पड़े, तो उनके व्यवहार और वाणी में, उनके रवैये में और उनके हर शब्द और कर्म में ऐसा क्या था, जिसने बाद की पीढ़ियों को इतना प्रेरित किया? परमेश्वर के वचनों के प्रति इन तीन व्यक्तियों के रवैये और परमेश्वर के वचन और परमेश्वर ने जो आज्ञा दी और अपेक्षा की, उसे सुनने के बाद इनके व्यवहार, वाणी और रवैये में लोगों को सबसे अधिक प्रभावित करने वाली चीज यह थी कि सृष्टिकर्ता परमेश्वर के प्रति उनकी ईमानदारी कितनी शुद्ध और दृढ़ थी। आज के लोगों की नजर में इस शुद्धता और दृढ़ता को मूर्खता और जुनून कहा जा सकता है; लेकिन मेरी नजर में उनकी शुद्धता और दृढ़ता उनकी सबसे मार्मिक और दिल को छूने वाली चीजें थीं, और इससे भी बढ़कर, ऐसी चीजें जो अन्य लोगों की पहुँच से बाहर लगती हैं। इन व्यक्तियों से मैंने वास्तव में यह देखा और समझा कि एक अच्छा व्यक्ति कैसा दिखता है; उनके व्यवहार और बोलचाल से और साथ ही परमेश्वर के वचनों का सामना करने और परमेश्वर के वचन सुनने पर उनके रवैये से मैं देखता हूँ कि वे लोग कैसे होते हैं जिन्हें परमेश्वर धार्मिक और पूर्ण मानता है। और इन लोगों की कहानियाँ पढ़ने और समझने के बाद मैं किस सबसे असाधारण भावना का अनुभव करता हूँ? वह है इन व्यक्तियों की गहरी याद, उनसे गहरा लगाव और उनके प्रति गहरी श्रद्धा। क्या यह प्रेरित होने का एहसास नहीं है? मुझे ऐसा एहसास क्यों होता है? मानवजाति के लंबे इतिहास में इन तीन लोगों की कहानियाँ दर्ज करने, उनकी प्रशंसा और प्रचार करने पर ध्यान केंद्रित करने वाली इतिहास की कोई पुस्तक नहीं रही है, न ही किसी ने उन्हें बाद की पीढ़ियों द्वारा अनुकरणीय लोग मानते हुए उनकी कहानियों का उपयोग बाद की पीढ़ियों को शिक्षित करने के लिए किया है। लेकिन एक चीज है जो दुनिया के लोग नहीं जानते : अलग-अलग समय पर इन तीनों मनुष्यों में से प्रत्येक ने परमेश्वर से कुछ अलग सुना, प्रत्येक को परमेश्वर से एक अलग आदेश प्राप्त हुआ, प्रत्येक से परमेश्वर द्वारा अलग-अलग अपेक्षाएँ की गईं, प्रत्येक ने परमेश्वर के लिए कुछ अलग करते हुए परमेश्वर द्वारा उन्हें सौंपा गया अलग-अलग कार्य पूरा किया—फिर भी उन सभी में एक चीज समान थी। क्या थी वह? वे सभी परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरे उतरे। परमेश्वर की बात सुनने के बाद वे, परमेश्वर ने जो उन्हें सौंपा और उनसे कहा था, उसे स्वीकारने में सक्षम थे और उसके बाद वे परमेश्वर द्वारा कही गई हर चीज के प्रति समर्पण करने में सक्षम थे, वे हर उस चीज के प्रति समर्पण करने में सक्षम थे जिसे उन्होंने परमेश्वर से उनसे माँगते सुना था। उन्होंने ऐसा क्या किया, जो परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरा उतरा? समस्त मानवजाति के बीच वे परमेश्वर के वचन सुनने, स्वीकारने और उनके प्रति समर्पण करने और शैतान के सामने परमेश्वर की शानदार गवाही देने के लिए आदर्श बन गए। चूँकि वे मानवजाति के लिए आदर्श और परमेश्वर की नजरों में पूर्ण और धार्मिक थे, तो आखिरकार यह हमें कौन-सी सबसे महत्वपूर्ण जानकारी देता है? यही कि यह वैसा व्यक्ति है जैसा परमेश्वर चाहता है, ऐसा व्यक्ति जो परमेश्वर जो कहता है उसे समझने में सक्षम है, जो सृष्टिकर्ता के वचनों को सुनने, समझने, बूझने, जानने और उनके प्रति समर्पण कर उन्हें कार्यान्वित करने के लिए अपने हृदय का उपयोग करता है; ऐसा व्यक्ति परमेश्वर को प्रिय होता है। उनके धार्मिक कार्यों की पुष्टि करने से पहले परमेश्वर उन्हें चाहे कितने भी बड़े परीक्षणों और परीक्षाओं से गुजारे, जब वे परमेश्वर की शानदार गवाही दे देते हैं, तो वे परमेश्वर के हाथों में सबसे कीमती चीज और ऐसे व्यक्ति बन जाते हैं, जो परमेश्वर की नजरों में हमेशा के लिए जीवित रहेंगे। यही वह तथ्य है, जो यह हमें बताता है। यही है जो नूह और अब्राहम की कहानियों पर संगति के माध्यम से मैं तुम लोगों को बताना चाहता हूँ और जिसे तुम लोगों को समझना चाहिए। निहितार्थ यह है कि जो लोग अभी भी सृष्टिकर्ता के वचनों को नहीं समझते और अभी भी नहीं जानते कि सृष्टिकर्ता के वचन सुनना उनकी जिम्मेदारी, दायित्व और कर्तव्य है, और इस चीज से अनजान हैं कि सृष्टिकर्ता के वचन स्वीकार कर उनके प्रति समर्पण करना ही वह रवैया है जो सृजित मनुष्यों में होना चाहिए, चाहे उन्होंने कितने भी वर्षों तक परमेश्वर का अनुसरण किया हो—ऐसे ही लोगों को परमेश्वर द्वारा हटा दिया जाएगा। परमेश्वर ऐसे लोगों को नहीं चाहता, वह ऐसे लोगों से घृणा करता है। तो आखिरकार कितने लोग सृष्टिकर्ता के वचन सुनने, स्वीकारने और उनके प्रति पूरी तरह से समर्पण करने में सक्षम हैं? कितने भी लोग हो सकते हैं। जो लोग कई वर्षों से परमेश्वर का अनुगमन करते आए हैं लेकिन फिर भी सत्य का तिरस्कार करते हैं, खुलेआम सिद्धांतों की धज्जियाँ उड़ाते हैं और जो परमेश्वर के वचनों को स्वीकार कर उनके प्रति समर्पण करने में असमर्थ हैं, फिर चाहे वे देह में बोले गए हों या आध्यात्मिक क्षेत्र में, वे अंततः एक ही परिणाम का सामना करेंगे : हटाए जाने का।
परमेश्वर को देहधारी होकर धरती पर काम करने आए तीस साल हो चुके हैं। उसने बहुत-से वचन कहे हैं और बहुत-से सत्य व्यक्त किए हैं। चाहे वह कैसे भी बोले, चाहे वह बोलने के लिए कोई भी तरीका अपनाए और चाहे वह कितनी भी विषय-वस्तु बोले, उसकी लोगों से सिर्फ एक ही अपेक्षा है कि वे सुनने, स्वीकारने और समर्पण करने में सक्षम हों। लेकिन बहुत-से लोग हैं, जो यह सरलतम अपेक्षा भी समझ नहीं पाते या उसे कार्यान्वित नहीं कर पाते। यह बहुत तकलीफदेह है और यह दर्शाता है कि मानवजाति बहुत गहराई से भ्रष्ट है, उसे सत्य स्वीकारने में बहुत कठिनाई होती है और उसे आसानी से बचाया नहीं जा सकता। अब भी, जबकि लोगों ने यह पहचान लिया है कि मनुष्य को परमेश्वर ने बनाया है और यह तथ्य भी कि देहधारी परमेश्वर स्वयं परमेश्वर है, लोग अभी भी परमेश्वर का विरोध और अवहेलना करते हैं और परमेश्वर के वचन और उसकी अपेक्षाओं को अस्वीकारते हैं। यहाँ तक कि वे देहधारी परमेश्वर द्वारा कहे गए वचनों की जाँच करते हैं, उनका विश्लेषण करते हैं, उन्हें अस्वीकारते हैं और उनके प्रति उदासीन रहते हैं, बिना यह समझे कि सृजित प्राणियों को परमेश्वर के वचन के साथ कैसे पेश आना चाहिए और परमेश्वर के वचन के प्रति उनका क्या रवैया होना चाहिए। यह वास्तव में दुखद है। अब भी लोग नहीं जानते कि वे कौन हैं, उन्हें किस स्थान पर खड़े होना चाहिए या क्या करना चाहिए। कुछ लोग तो यह कहते हुए लगातार परमेश्वर के बारे में शिकायत तक करते हैं, “परमेश्वर हमेशा अपने कार्य में सत्य क्यों व्यक्त करता है? वह हमेशा हमसे सत्य स्वीकारने की माँग क्यों करता है? जब परमेश्वर बोलता और कार्य करता है, तो उसे हमसे सलाह लेनी चाहिए और उसे हमेशा हमारे लिए चीजें मुश्किल नहीं बनानी चाहिए। हमारे पास उसका पूरी तरह से आज्ञापालन करने की कोई वजह नहीं है, हम मानवाधिकार और स्वतंत्रता चाहते हैं, हमें परमेश्वर द्वारा हमारे लिए रखी गई माँगों पर हाथ उठाकर मतदान करना चाहिए और हम सभी को चर्चा भी करनी चाहिए और आम सहमति पर पहुँचना चाहिए। परमेश्वर के घर को लोकतंत्र लागू करना चाहिए और सभी को मिलकर अंतिम निर्णय लेना चाहिए।” अब भी बहुत-से लोग यही दृष्टिकोण रखते हैं, और हालाँकि वे इसे खुले तौर पर नहीं कहते, फिर भी वे इसे अपने दिल में रखते हैं। अगर मुझे तुमसे कुछ माँगने का अधिकार नहीं है, अगर मुझे यह कहने का अधिकार नहीं है कि मैं जो कहता हूँ तुम उसका पालन करो, और मैं जो कहता हूँ उसके प्रति तुमसे पूर्ण समर्पण की माँग करने का अधिकार मुझे नहीं, तो फिर किसे है? अगर तुम मानते हो कि स्वर्ग के परमेश्वर को ऐसा करने का अधिकार है और स्वर्ग के परमेश्वर को गड़गड़ाहट के माध्यम से आसमान से तुमसे बात करने का अधिकार है, तो बढ़िया है! इसका मतलब है कि मुझे तुम्हारे सामने धैर्यवान और ईमानदार होने या तुमसे बात करने में अपना समय बरबाद करने की जरूरत नहीं है—मैं तुमसे और कुछ नहीं कहना चाहता। अगर तुम मानते हो कि स्वर्ग के परमेश्वर को आसमान से, बादलों से तुमसे बात करने का अधिकार है, तो आगे बढ़ो और सुनो, जाओ और उसके वचन खोजो—स्वर्ग के परमेश्वर द्वारा आसमान में, बादलों में, आग के बीच तुमसे बात करने की प्रतीक्षा करो। लेकिन एक चीज है, जो तुम्हारे मन में स्पष्ट होनी चाहिए : अगर वह दिन वास्तव में आता है, तो तुम्हारी मृत्यु का समय आ गया होगा। बेहतर होगा वह दिन न आए। “बेहतर होगा वह दिन न आए”—इन शब्दों का क्या अर्थ है? परमेश्वर पृथ्वी पर मनुष्य से व्यक्तिगत रूप से आमने-सामने बात करने, लोगों को वह सब बताने हेतु सत्य जारी करने के लिए मनुष्य बना है जो उन्हें करना चाहिए, फिर भी लोग तिरस्कारपूर्ण और छिछोरे हैं; अपने दिलों में वे गुप्त रूप से परमेश्वर का प्रतिरोध और उसके साथ होड़ लगाते हैं। वे सुनना नहीं चाहते और यह मानते हैं कि पृथ्वी पर परमेश्वर को लोगों पर शासन करने की कोशिश करने का अधिकार नहीं है। लोगों का यह रवैया परमेश्वर को खुश करता है या चिढ़ पैदा करता है? (इससे वह खीझ जाता है।) और जब परमेश्वर खीझ जाएगा तो वह क्या करेगा? लोग परमेश्वर के क्रोध का सामना करेंगे—तुम इसे समझते हो न? परमेश्वर के क्रोध का, न कि परमेश्वर की परीक्षा का; ये दोनों अलग-अलग अवधारणाएँ हैं। जब परमेश्वर का क्रोध लोगों पर पड़ता है, तो वे खतरे में होते हैं। क्या तुम लोगों को लगता है कि परमेश्वर उन लोगों के प्रति क्रोधित होता है, जिनसे वह प्रेम करता है? क्या वह उन लोगों के प्रति क्रोधित होता है, जो परमेश्वर के मुखमंडल के प्रकाश में जीने के योग्य हैं? (नहीं।) परमेश्वर कैसे व्यक्ति के प्रति क्रोधित होता है? जो लोग कई वर्षों से उसका अनुसरण करते आए हैं और फिर भी उसके वचनों को नहीं समझते, जो अभी भी नहीं जानते कि उनसे परमेश्वर के वचन सुनना अपेक्षित है, जिनमें परमेश्वर के वचन स्वीकार कर उनके प्रति समर्पण करने की जागरूकता नहीं है, परमेश्वर ऐसे लोगों से विमुख और विकर्षित महसूस करता है और उन्हें बचाना नहीं चाहता। तुम इसे समझते हो न? तो परमेश्वर, देहधारी परमेश्वर और सत्य के प्रति लोगों का रवैया कैसा होना चाहिए? (हमें सुनना, स्वीकारना और समर्पण करना चाहिए।) सही कहा। तुम्हें सुनना, स्वीकारना और समर्पित होना चाहिए। इससे ज्यादा सरल कुछ नहीं है। सुनने के बाद तुम्हें अपने दिल में स्वीकारना चाहिए। अगर तुम कोई चीज स्वीकारने में असमर्थ हो, तो तुम्हें तब तक खोजते रहना चाहिए, जब तक तुम पूरी तरह स्वीकारने में सक्षम न हो जाओ—फिर, जैसे ही तुम उसे स्वीकारते हो, वैसे ही तुम्हें समर्पण करना चाहिए। समर्पण करने का क्या मतलब है? इसका मतलब है अभ्यास और कार्यान्वित करना। चीजों को सुनने के बाद खारिज न करना, बाहरी तौर पर उन्हें करने का वादा करना, उन्हें नोट करना, उन्हें लिखने के लिए प्रतिबद्ध होना, उन्हें अपने कानों से सुनना लेकिन उन्हें आत्मसात न करना, और बस अपने पुराने तौर-तरीकों से चलते रहना और जब करने का समय आए तो जो जी चाहे वो करना, जो तुमने लिखा था उसे अपने दिमाग के पीछे रख छोड़ना और महत्वहीन समझना। यह समर्पण करना नहीं है। परमेश्वर के वचनों के प्रति सच्चे समर्पण का मतलब है उन्हें सुनकर अपने दिल से समझना और उन्हें सच में स्वीकारना—उन्हें एक अटल जिम्मेदारी के रूप में स्वीकारना। यह सिर्फ यह कहने की बात नहीं है कि व्यक्ति परमेश्वर के वचनों को स्वीकारता है; इसके बजाय, यह उसके वचनों को हृदय से स्वीकारना है, उसके वचनों की अपनी स्वीकृति को व्यावहारिक क्रियाकलापों में बदलना और उसके वचनों को बिल्कुल भी किसी विचलन के बिना कार्यान्वित करना है। तुम जो सोचते हो, जिसे करने में तुम हाथ लगाते हो और जो कीमत तुम चुकाते हो, अगर वह सब परमेश्वर की माँगें पूरी करने के लिए है, तो यह परमेश्वर के वचनों को कार्यान्वित करना है। “समर्पण” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है अभ्यास और कार्यान्वयन, परमेश्वर के वचनों को वास्तविकता में बदलना। अगर तुम परमेश्वर के कहे वचनों और उसकी अपेक्षाओं को नोटबुक में लिखते हो और उन्हें कागज पर उतारते हो, लेकिन उन्हें अपने हृदय में दर्ज नहीं करते, और जब कार्य करने का समय आता है तो तुम जैसे जी चाहे वैसे करते हो, और बाहर से ऐसा लगता है कि तुमने वही किया है जो परमेश्वर ने कहा था, लेकिन तुमने उसे अपनी इच्छा के अनुसार किया है, तो यह परमेश्वर के वचनों को सुनना, स्वीकारना और उसके प्रति समर्पण करना नहीं है, यह सत्य का तिरस्कार करना, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाना और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करना है। यह विद्रोह है।
एक बार मैंने किसी को कोई काम सौंपा। जब मैंने उसे काम समझाया, तो उसने ध्यान से उसे अपनी नोटबुक में लिख लिया। मैंने देखा कि वह उसे कितनी सावधानी से लिख रहा है—वह काम के प्रति दायित्व महसूस करता और एक सावधान, जिम्मेदार रवैया अपनाता प्रतीत होता था। उसे काम बताने के बाद मैं उसकी प्रगति की जानकारी मिलने की प्रतीक्षा करने लगा; दो हफ्ते बीत गए, फिर भी उसने कुछ नहीं बताया। इसलिए मैंने उसका पता लगाने का बीड़ा खुद उठाया, और पूछा कि मैंने उसे जो कार्य दिया था, वह कैसा चल रहा है। उसने कहा, “ओह, नहीं—मैं तो उसके बारे में भूल ही गया! फिर से बताना, वह क्या था।” तुम लोगों को उसका जवाब कैसा लगा? काम करते समय उसका यही रवैया था। मुझे लगा, “यह व्यक्ति भरोसे के लायक बिल्कुल नहीं है। मुझसे फौरन दूर हो जाओ! मैं तुम्हें दोबारा नहीं देखना चाहता!” मुझे ऐसा ही महसूस हुआ। इसलिए, मैं तुम लोगों को एक तथ्य बताता हूँ : तुम लोगों को परमेश्वर के वचन कभी किसी चालबाज के झूठ से नहीं जोड़ने चाहिए—ऐसा करना परमेश्वर के लिए घृणास्पद है। कुछ लोग हैं जो कहते हैं कि वे अपने वचन के पक्के हैं, कि वे अपना वादा जरूर निभाते हैं। अगर ऐसा है, तो जब परमेश्वर के वचनों की बात आती है, तो क्या वे उन्हें सुनकर वैसा कर सकते हैं, जैसा उन वचनों में कहा गया है? क्या वे उन्हें उतनी ही सावधानी से कार्यान्वित कर सकते हैं, जितनी सावधानी से वे अपने निजी कार्य पूरे करते हैं? परमेश्वर का हर वाक्य महत्वपूर्ण होता है। वह मजाक में नहीं बोलता। वह जो कहता है, लोगों को उसे कार्यान्वित और पूरा करना चाहिए। जब परमेश्वर बोलता है, तो क्या वह लोगों से परामर्श करता है? निश्चित रूप से नहीं करता। क्या वह तुमसे बहुविकल्पी प्रश्न पूछता है? निश्चित रूप से नहीं पूछता। अगर तुम समझ पाओ कि परमेश्वर के वचन और आदेश उसका हुक्म हैं, लोगों को उनमें कहे अनुसार करना चाहिए और उन्हें कार्यान्वित करना चाहिए, तो तुम्हारा दायित्व है कि तुम उन्हें कार्यान्वित और पूरा करो। अगर तुम्हें लगता है कि परमेश्वर के वचन केवल एक मजाक हैं, केवल आकस्मिक टिप्पणियाँ हैं, जिनका पालन किया जा सकता है—या नहीं भी किया जा सकता—जैसा मन करे, और तुम उनके साथ वैसे ही पेश आते हो, तो तुम बहुत अविवेकी हो और इंसान कहे जाने लायक नहीं हो। परमेश्वर तुमसे फिर कभी बात नहीं करेगा। अगर कोई व्यक्ति हमेशा परमेश्वर की अपेक्षाओं, उसकी आज्ञाओं और आदेशों के संबंध में अपने चुनाव खुद करता है और उनके साथ लापरवाही के रवैये से पेश आता है, तो वह ऐसा व्यक्ति है जिससे परमेश्वर घृणा करता है। जिन चीजों की मैं तुम्हें सीधे आज्ञा देता हूँ और उन्हें सौंपता हूँ, उनमें अगर तुम्हें हमेशा मेरी निगरानी की जरूरत पड़े और मैं तुमसे आग्रह करूँ, उनके बारे में तुमसे जायजा लेता रहूँ, हमेशा तुम्हारी चिंता हो और पूछताछ करनी पड़े, हर मोड़ पर तुम्हारे लिए हर चीज की जाँच करने की जरूरत हो, तो फिर तुम्हें हटा दिया जाना चाहिए। परमेश्वर के घर से वर्तमान में हटाए गए लोगों में ऐसे कई लोग हैं। मैं उन्हें कुछ चीजों के बारे में निर्देश देता हूँ और फिर उनसे पूछता हूँ : “क्या तुमने यह सब लिख लिया है? क्या यह स्पष्ट है? क्या तुम्हारे कोई प्रश्न हैं?” जिस पर वे जवाब देते हैं : “मैंने यह सब लिख लिया है, यहाँ कोई समस्या नहीं है, चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है!” वे बहुत आसानी से उन्हें करने के लिए सहमत हो जाते हैं, यहाँ तक कि अपने दिल पर हाथ रखकर मेरे सामने इसकी कसम भी खाते हैं। लेकिन सहमत होने के बाद क्या वे वास्तव में इन चीजों को कार्यान्वित करते हैं? नहीं, वे बिना कोई निशान छोड़े गायब हो जाते हैं और उनसे आगे कोई खबर नहीं आती। उन्हें जो काम पसंद आता है, वे उसे तुरंत, तेजी से और निर्णायक रूप से करते हैं। वे उन चीजों के लिए आसानी से सहमत हो जाते हैं जो मैं उन्हें सौंपता हूँ, लेकिन फिर वे उन्हें अनदेखा कर देते हैं और जब मैं उस मामले में प्रगति की जानकारी लेता हूँ, तो मुझे पता चलता है कि उन्होंने कुछ भी नहीं किया है। ऐसे व्यक्तियों में जमीर या विवेक बिल्कुल नहीं होता। वे बेकार हैं और कर्तव्य निभाने के योग्य नहीं हैं। वे सुअर या कुत्ते से भी बदतर हैं। प्रहरी कुत्ता पालने वाला कोई व्यक्ति जब अपने घर से बाहर होता है, तो वह कुत्ता अजनबियों के आने पर घर और आँगन की रखवाली करने में मदद करने में सक्षम होता है। बहुत-से लोग चीजें करने में कुत्तों जितने अच्छे भी नहीं होते। कुछ लोगों को हमेशा अपने कर्तव्य का थोड़ा-बहुत पालन करने के लिए भी किसी के द्वारा निरीक्षण किए जाने की जरूरत होती है, और उन्हें हमेशा किसी के द्वारा काट-छाँट किए जाने और कुछ भी करने से पहले उन पर नजर रखने की जरूरत होती है। क्या यह कर्तव्य निभाना है? ये लोग झूठे हैं! अगर उनकी नीयत ऐसा करने की नहीं थी, तो वे इसके लिए सहमत क्यों हुए? क्या यह जानबूझकर लोगों को धोखा देना नहीं है? अगर उन्हें लगता था कि यह काम मुश्किल होगा, तो उन्होंने पहले ऐसा क्यों नहीं कहा? उन्होंने इसे करने का वादा क्यों किया और फिर इसे क्यों नहीं किया? अगर वे दूसरे लोगों को धोखा देते हैं तो वे तो उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते, लेकिन अगर वे परमेश्वर को धोखा देते हैं तो इसके क्या परिणाम होंगे? ऐसे व्यक्ति का निपटान करना और हटा देना चाहिए! क्या तुम लोगों को नहीं लगता कि जो लोग सत्य का तिरस्कार करते हैं और सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं, वे बुरे लोग हैं? वे सब बुरे लोग हैं, वे सब राक्षस हैं और उन्हें हटा देना चाहिए! क्योंकि ये लोग मनमाने ढंग से काम करते हैं, सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं, विद्रोही और अवज्ञाकारी हैं, अपना खुद का राज्य स्थापित करते हैं, और चूँकि वे आलसी और गैरजिम्मेदार हैं, इसलिए उन्होंने कलीसिया को बहुत नुकसान पहुँचाया है! ऐसे नुकसान की भरपाई कौन कर सकता है? कोई भी ऐसी जिम्मेदारी नहीं उठा सकता। ये लोग शिकायत करते हैं, और जब उनकी काट-छाँट की जाती है तो वे अनाश्वस्त और असंतुष्ट रहते हैं। क्या ये लोग अविवेकी दानव नहीं हैं? उनका वास्तव में कुछ नहीं किया जा सकता और उन्हें बहुत पहले ही हटा देना चाहिए था!
क्या तुम लोग समझते हो कि नूह और अब्राहम की कहानियों का क्या आशय है, जिन पर हमने आज संगति की? क्या मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाएँ बहुत ऊँची हैं? (नहीं।) परमेश्वर मनुष्य से जो अपेक्षा करता है, वह वो है जो सृजित मनुष्य में सबसे मूलभूत होना चाहिए; उसकी अपेक्षाएँ बिल्कुल भी ऊँची नहीं हैं, और वे सबसे व्यावहारिक और सबसे यथार्थपरक हैं। परमेश्वर द्वारा अनुमोदन किए जाने के लिए लोगों में सच्ची आस्था और पूर्ण समर्पण होना चाहिए; जिनमें ये दो चीजें होती हैं, सिर्फ वे ही वास्तव में बचाए जाते हैं। लेकिन जो लोग गहराई से भ्रष्ट हो चुके हैं, जो सत्य का तिरस्कार करते हैं और सकारात्मक चीजों से विमुख रहते हैं और जो सत्य के प्रति शत्रुतापूर्ण हैं, उनके लिए इन दो चीजों से ज्यादा कठिन कुछ नहीं है! ये सिर्फ उन्हीं लोगों द्वारा प्राप्य हैं, जिनमें परमेश्वर के प्रति शुद्ध और खुला हृदय है, जिनमें मानवता, विवेक और जमीर हैं और जो सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं। क्या ये चीजें तुम लोगों में पाई जाती हैं? और किसमें वह दृढ़ता और शुद्धता पाई जाती है जो परमेश्वर के संबंध में लोगों में होनी चाहिए? उम्र की दृष्टि से यहाँ बैठे तुम सभी लोग नूह और अब्राहम से छोटे हो, लेकिन शुद्धता के मामले में तुम उनसे तुलना नहीं कर सकते। तुम लोगों में शुद्धता, प्रज्ञा और बुद्धि नहीं पाई जाती; दूसरी ओर, तुच्छ चालाकी की तुममें कोई कमी नहीं है। तो, इस समस्या का समाधान कैसे हो सकता है? क्या परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने का कोई तरीका है? क्या कोई मार्ग है? कहाँ से शुरू करें? (परमेश्वर के वचन सुनने से।) सही है : सुनना और समर्पण करना सीखकर। कुछ लोग कहते हैं, “कभी-कभी परमेश्वर जो कहता है वह सत्य नहीं होता और उसके प्रति समर्पण करना आसान नहीं होता। अगर परमेश्वर सत्य के कुछ वचन बोलता, तो समर्पण आसान होता।” क्या ये शब्द सही हैं? (नहीं।) तुम लोगों ने नूह और अब्राहम की कहानियों में क्या पाया है, जिनके बारे में हमने आज बात की? परमेश्वर के वचन का पालन करना और परमेश्वर की अपेक्षाओं के प्रति समर्पण करना मनुष्य का अनिवार्य कर्तव्य है। और अगर परमेश्वर कुछ ऐसा कहता है जो मनुष्य की धारणाओं के अनुरूप नहीं होता, तो मनुष्य को उसका विश्लेषण या जाँच नहीं करनी चाहिए। परमेश्वर चाहे जिसकी निंदा करे या चाहे जिसे हटा दे, जिससे चाहे कितने भी लोगों में धारणाएँ और प्रतिरोध पैदा हो जाएँ, परमेश्वर की पहचान, उसका सार, उसका स्वभाव और उसका दर्जा हमेशा के लिए अपरिवर्तित रहते हैं। वह हमेशा के लिए परमेश्वर है। चूँकि तुम्हें इसमें कोई संदेह नहीं है कि वह परमेश्वर है, इसलिए तुम्हारी एकमात्र जिम्मेदारी, एकमात्र चीज जो तुम्हें करनी चाहिए, वह है उसके कहे का पालन करना और उसके वचन के अनुसार अभ्यास करना; यही अभ्यास का मार्ग है। सृजित प्राणी को परमेश्वर के वचनों की जाँच, विश्लेषण, चर्चा, अस्वीकार, विरोध, विद्रोह या इनकार नहीं करना चाहिए; परमेश्वर को इससे घृणा है और वह मनुष्य में यही नहीं देखना चाहता। परमेश्वर के वचनों के साथ वास्तव में कैसे पेश आना चाहिए? तुम्हें कैसे अभ्यास करना चाहिए? यह वास्तव में बहुत सरल है : उनका पालन करना सीखो, उन्हें अपने दिल से सुनो, उन्हें अपने दिल से स्वीकारो, उन्हें अपने दिल से समझो और बूझो, और फिर जाकर अपने दिल से उनका अभ्यास करो और उन्हें कार्यान्वित करो। तुम अपने दिल से जो सुनते और समझते हो, उसका तुम्हारे अभ्यास से गहरा संबंध होना चाहिए। दोनों को अलग मत करो; सब-कुछ—जो तुम अभ्यास करते हो, जिसके प्रति समर्पित होते हो, जो तुम अपने हाथों से करते हो, जिसके लिए भी तुम भाग-दौड़ करते हो—वह परमेश्वर के वचनों से सह-संबंधित होना चाहिए, फिर तुम्हें उसके वचनों के अनुसार अभ्यास करना चाहिए और अपने क्रियाकलापों के माध्यम से उन्हें लागू करना चाहिए। सृष्टिकर्ता के वचनों के प्रति समर्पण करना यही है। परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने का यही मार्ग है।
18 जुलाई 2020
परमेश्वर का आशीष आपके पास आएगा! हमसे संपर्क करने के लिए बटन पर क्लिक करके, आपको प्रभु की वापसी का शुभ समाचार मिलेगा, और 2025 में उनका स्वागत करने का अवसर मिलेगा।