प्रकरण तीन : कैसे नूह और अब्राहम ने परमेश्वर के वचनों का पालन किया और उसके प्रति समर्पण किया (भाग दो) खंड तीन

II. परमेश्वर के वचनों के प्रति अब्राहम का रवैया

आओ अब अब्राहम में उन चीजों पर गौर करें, जो बाद की पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय हैं। परमेश्वर के सामने अब्राहम का मुख्य कार्य वही था, जिससे बाद की पीढ़ियाँ बहुत परिचित हैं और जिसे वे बहुत अच्छी तरह से जानती हैं : इसहाक की बलि। इस मामले में अब्राहम ने जो कुछ भी अभिव्यक्त किया, उसका हर पहलू—चाहे वह उसका चरित्र हो या उसकी आस्था या समर्पण—बाद की पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय है। तो आखिर, वास्तव में उसके द्वारा प्रदर्शित वे कौन-सी विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ थीं, जो अनुकरणीय हैं? स्वाभाविक रूप से, वे विभिन्न चीजें जो उसने अभिव्यक्त कीं, खोखली नहीं थीं, अमूर्त तो बिल्कुल नहीं थीं, और निश्चित रूप से वे किसी व्यक्ति द्वारा गढ़ी भी नहीं गई थीं, इन सभी चीजों के सबूत हैं। परमेश्वर ने अब्राहम को एक पुत्र दिया; परमेश्वर ने व्यक्तिगत रूप से अब्राहम को इसके बारे में बताया, और जब अब्राहम 100 वर्ष का था, तो उसका इसहाक नाम का एक पुत्र पैदा हुआ। स्पष्ट रूप से, इस बच्चे की उत्पत्ति साधारण नहीं थी, वह किसी और जैसा नहीं था—उसे परमेश्वर ने व्यक्तिगत रूप से प्रदान किया था। जब परमेश्वर ने व्यक्तिगत रूप से कोई बच्चा प्रदान किया हो, तो लोग सोचते हैं कि परमेश्वर निश्चित रूप से उसमें कुछ महान कार्य करने जा रहा है, कि परमेश्वर उसे कुछ महान कार्य सौंपेगा, परमेश्वर उस पर असाधारण कार्य करेगा, वह बच्चे को असाधारण बनाएगा, इत्यादि—ये वे चीजें थीं जिनकी अब्राहम और अन्य लोगों को बड़ी उम्मीदें थीं। लेकिन चीजें अलग दिशा में चली गईं और अब्राहम के साथ कुछ ऐसा हुआ, जिसकी किसी को उम्मीद नहीं हो सकती थी। परमेश्वर ने अब्राहम को इसहाक प्रदान किया, और जब चढ़ावे का समय आया, तो परमेश्वर ने अब्राहम से कहा, “आज तुम्हें और कुछ चढ़ाने की जरूरत नहीं, सिर्फ इसहाक—यह काफी है।” इसका क्या अर्थ था? परमेश्वर ने अब्राहम को एक पुत्र दिया था, और जब यह पुत्र बड़ा होने वाला था, तो परमेश्वर उसे वापस लेना चाहता था। इस पर अन्य लोगों का यह परिप्रेक्ष्य होगा : “तुम्हीं थे, जिसने इसहाक दिया था। मुझे विश्वास नहीं हो रहा था, फिर भी तुमने यह बच्चा देने पर जोर दिया। अब तुम कह रहे हो कि इसे बलि के रूप में चढ़ा दिया जाए। क्या यह तुम्हारा उसे वापस लेना नहीं है? तुमने लोगों को जो दिया है, उसे तुम वापस कैसे ले सकते हो? अगर तुम उसे लेना ही चाहते हो, तो ले जाओ। तुम उसे चुपचाप वापस ले जा सकते हो। मुझे इतनी पीड़ा और कठिनाई देने की जरूरत नहीं। तुम मुझसे कैसे कह सकते हो कि मैं अपने हाथों से उसकी बलि दे दूँ?” क्या यह बहुत कठिन माँग थी? यह बेहद कठिन थी। इस माँग को सुनकर कुछ लोग कहते, “क्या यह वास्तव में ईश्वर है? इस तरह से कार्य करना बहुत अनुचित है! वो तुम्हीं थे जिसने इसहाक दिया था और अब तुम्हीं उसे वापस माँग रहे हो। क्या तुम वास्तव में हमेशा न्यायसंगत होते हो? क्या तुम जो कुछ करते हो, वह हमेशा सही होता है? जरूरी नहीं। लोगों का जीवन तुम्हारे हाथों में है। तुमने कहा था कि तुम मुझे एक बेटा दोगे और तुमने वैसा ही किया; तुम्हारे पास वह अधिकार है, ठीक ऐसे ही तुम्हारे पास उसे वापस लेने का अधिकार भी है—लेकिन क्या तुम्हारे वापस लेने का तरीका और यह मामला थोड़ा अनुचित नहीं है? तुमने यह बच्चा दिया, तो तुम्हें उसे बड़ा होने देना चाहिए, बड़े कार्य करने देने चाहिए और अपने आशीष फलते देखने देना चाहिए। तुम यह कैसे कह सकते हो कि वह मर जाए? उसकी मृत्यु का आदेश देने के बजाय तुम उसे मुझे न ही देते तो अच्छा होता! फिर तुमने उसे मुझे दिया ही क्यों? तुमने मुझे इसहाक दिया और अब तुम मुझे उसकी बलि चढ़ाने के लिए कह रहे हो—क्या यह तुम्हारा मुझे अतिरिक्त पीड़ा देना नहीं है? क्या तुम मेरे लिए चीजें कठिन नहीं बना रहे हो? तो फिर, तुम्हारे द्वारा पहले मुझे यह बेटा देने का क्या मतलब था?” वे चाहे कितनी भी कोशिश कर लें, इस माँग के पीछे का तर्क नहीं समझ पाते; वे इसे चाहे जिस भी तरीके से कहें, यह उन्हें समर्थन करने योग्य नहीं लगता, और कोई भी व्यक्ति इसे समझने में सक्षम नहीं है। लेकिन क्या परमेश्वर ने अब्राहम को इसके पीछे का तर्क बताया? क्या उसने उसे इसके कारण बताए और यह बताया कि उसका क्या इरादा था? क्या उसने बताया? नहीं। परमेश्वर ने सिर्फ इतना कहा, “कल के बलिदान के दौरान इसहाक की बलि चढ़ाना,” बस इतना ही। क्या परमेश्वर ने कोई स्पष्टीकरण दिया? (नहीं।) तो इन शब्दों की प्रकृति क्या थी? परमेश्वर की पहचान के संदर्भ में देखें तो, ये वचन एक आदेश थे, जिसे पूरा किया जाना चाहिए था, जिसका पालन किया जाना चाहिए था और जिसके प्रति समर्पण किया जाना चाहिए था। लेकिन परमेश्वर ने जो कहा उसे और इस मामले को देखें तो, क्या लोगों के लिए वह करना कठिन नहीं होगा जो उन्हें करना चाहिए? लोग सोचते हैं कि जो चीजें की जानी चाहिए वे उचित होनी चाहिए, और इंसानी भावनाओं और सार्वभौमिक इंसानी संवेदनाओं के अनुरूप होनी चाहिए—लेकिन क्या इनमें से कुछ भी उस पर लागू हुआ जो परमेश्वर ने कहा? (नहीं।) तो क्या परमेश्वर को स्पष्टीकरण देना चाहिए था और अपने विचार और अपना आशय व्यक्त करना चाहिए था या अपने वचनों का थोड़ा-सा भी निहितार्थ प्रकट करना चाहिए था, ताकि लोग समझ पाते? क्या परमेश्वर ने इनमें से कुछ भी किया? उसने नहीं किया, न ही उसने ऐसा करने की योजना बनाई। इन वचनों में वह था जो सृष्टिकर्ता द्वारा अपेक्षित था, जो उसने आदेश दिया था और जो उसने मनुष्य से अपेक्षा की थी। ये बहुत ही सरल वचन, ये अनुचित वचन—यह आदेश और माँग जिसमें लोगों की भावनाओं के लिए विचारशीलता का अभाव था—अन्य लोगों द्वारा, इस दृश्य को देखने वाले किसी भी व्यक्ति द्वारा सिर्फ कठिन, दुष्कर और अनुचित ही माने जाएँगे। लेकिन अब्राहम के लिए, जो वास्तव में इसमें शामिल था, यह सुनने के बाद उसकी पहली भावना हृदय-विदारक पीड़ा थी! उसे परमेश्वर द्वारा दिया गया यह बच्चा मिला था, उसने इतने साल उसका पालन-पोषण किया था और इतने साल पारिवारिक आनंद प्राप्त किया था, लेकिन परमेश्वर के एक वाक्य, एक आदेश से यह खुशी, यह जीवित मनुष्य, चला जाएगा और छीन लिया जाएगा। अब्राहम ने सिर्फ इस पारिवारिक आनंद के नुकसान का ही सामना नहीं किया, बल्कि इस बच्चे को खोने के बाद के चिरस्थायी अकेलेपन के दर्द और तड़प का भी सामना किया। एक बुजुर्ग व्यक्ति के लिए यह असहनीय था। ऐसे वचन सुनने के बाद कोई भी साधारण व्यक्ति आँसुओं की बाढ़ में डूब जाएगा, है कि नहीं? इतना ही नहीं, वह अपने दिल में परमेश्वर को कोसेगा, परमेश्वर के बारे में शिकायत करेगा, परमेश्वर को गलत समझेगा और परमेश्वर से बहस करने की कोशिश करेगा; वह वो सब प्रदर्शित करेगा जो वह करने में सक्षम है, अपनी सारी योग्यताएँ और अपनी सारी विद्रोहशीलता, अशिष्टता और विवेकहीनता। लेकिन फिर भी, उतना ही दुखी होने के बावजूद अब्राहम ने ऐसा नहीं किया। किसी भी सामान्य व्यक्ति की तरह उसने तुरंत वह पीड़ा महसूस की, तुरंत अपने दिल के बिंध जाने की भावना का अनुभव किया और तुरंत बेटे को खोने से उपजने वाला अकेलापन महसूस किया। परमेश्वर के ये वचन इंसानी भावनाओं के प्रति विचारशून्य थे, लोगों के लिए अकल्पनीय थे और लोगों की धारणाओं के साथ असंगत थे, वे इंसानी भावनाओं के परिप्रेक्ष्य से नहीं बोले गए थे; उनमें इंसानी कठिनाइयों या इंसानी भावनाओं से संबंधित जरूरतों का ध्यान नहीं रखा गया था और निश्चित रूप से उनमें इंसानी दर्द पर विचार नहीं किया गया था। परमेश्वर ने ये वचन अब्राहम पर बेरुखी से उछाल दिए थे—क्या परमेश्वर ने इस बात की परवाह की थी कि ये वचन उसके लिए कितने दर्दनाक थे? बाहर से परमेश्वर बेपरवाह और उदासीन दोनों लग रहा था; जो कुछ उसने सुना, वह था परमेश्वर का आदेश और उसकी माँग। किसी को भी यह माँग इंसानी संस्कृति, परंपराओं, संवेदनाओं, यहाँ तक कि इंसानी नैतिकता और आचार-नीति के साथ असंगत लगेगी; इसने एक नैतिक और आचार-नीति संबंधी रेखा पार कर ली थी और मनुष्य के सामाजिक कायदों और लोगों से निपटने के नियमों और साथ ही मनुष्य की भावनाओं के खिलाफ चली गई थी। ऐसे लोग भी हैं जो मानते हैं, “ये वचन न सिर्फ अनुचित और अनैतिक हैं, बल्कि इससे भी बढ़कर, ये बिना किसी वाजिब कारण के परेशानी खड़ी करने वाले हैं! ये वचन परमेश्वर द्वारा कैसे कहे जा सके होंगे? परमेश्वर के वचन उचित और न्यायसंगत होने चाहिए और उन्हें मनुष्य को पूरी तरह से आश्वस्त करना चाहिए; उन्हें बिना किसी वाजिब कारण के परेशानी खड़ी नहीं करनी चाहिए और उन्हें अनैतिक, आचार-नीतिहीन या अतार्किक नहीं होना चाहिए। क्या ये वचन वास्तव में सृष्टिकर्ता द्वारा कहे गए थे? क्या सृष्टिकर्ता ऐसी बातें कह सकता था? क्या सृष्टिकर्ता स्वयं द्वारा सृजित लोगों के साथ इस तरह का व्यवहार कर सकता था? ऐसा बिल्कुल नहीं हो सकता।” लेकिन फिर भी, ये वचन वास्तव में परमेश्वर के मुख से ही निकले थे। परमेश्वर के रवैये और उसके वचनों के लहजे से आँकें तो, परमेश्वर ने तय कर लिया था कि वह क्या चाहता है और उसमें चर्चा के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी और लोगों को चुनने का कोई अधिकार नहीं था; वह मनुष्य को चुनने का अधिकार नहीं दे रहा था। परमेश्वर के वचन एक माँग थे, वे एक आदेश थे जो उसने मनुष्य के लिए जारी किया था। अब्राहम के लिए परमेश्वर के ये वचन अटल और निर्विवाद थे; वे परमेश्वर की ओर से उससे की गई एक अडिग माँग थे और उन पर चर्चा नहीं की जा सकती थी। और अब्राहम ने क्या चुनाव किया? यही वह मुख्य बिंदु है, जिस पर हम संगति करेंगे।

परमेश्वर के वचन सुनने के बाद अब्राहम ने अपनी तैयारी शुरू कर दी, उसे पीड़ा महसूस हुई और ऐसा लगा जैसे उस पर कोई भारी बोझ पड़ रहा हो। उसने अपने दिल में चुपचाप प्रार्थना की : “मेरे प्रभु, मेरे परमेश्वर। तुम जो कुछ भी करते हो, वह प्रशंसनीय है; यह पुत्र तुम्हीं ने दिया था, और अगर तुम इसे वापस लेना चाहते हो, तो मुझे इसे वापस कर देना चाहिए।” हालाँकि अब्राहम पीड़ित था, लेकिन क्या इन शब्दों से उसका रवैया स्पष्ट नहीं था? लोग यहाँ क्या देख सकते हैं? वे सामान्य मानवता की कमजोरी, सामान्य मानवता की भावनाओं से जुड़ी जरूरतें और साथ ही अब्राहम का तर्कसंगत पक्ष और परमेश्वर के प्रति उसकी सच्ची आस्था और समर्पण का पक्ष देख सकते हैं। उसका तर्कसंगत पक्ष क्या था? अब्राहम अच्छी तरह से जानता था कि इसहाक परमेश्वर का दिया हुआ है, परमेश्वर के पास उसके साथ जैसा चाहे वैसा व्यवहार करने की शक्ति है, लोगों को इस पर कोई निर्णय नहीं देना चाहिए, सृष्टिकर्ता द्वारा कही गई हर बात सृष्टिकर्ता का प्रतिनिधित्व करती है, और चाहे यह मनुष्य को उचित लगे या न लगे, चाहे वह इंसानी ज्ञान, संस्कृति और नैतिकता से मेल खाती हो या नहीं, परमेश्वर की पहचान और उसके वचनों की प्रकृति नहीं बदलती। वह स्पष्ट रूप से जानता था कि अगर लोग परमेश्वर के वचनों को समझ नहीं सकते, बूझ नहीं सकते या उनका पता नहीं लगा सकते, तो यह उनकी समस्या है, और कोई कारण नहीं है कि परमेश्वर इन वचनों को समझाए या स्पष्ट करे, और परमेश्वर के वचनों और इरादों को समझ जाने के बाद लोगों को सिर्फ समर्पण ही नहीं करना चाहिए, बल्कि चाहे कैसी भी परिस्थितियाँ हों, परमेश्वर के वचनों के प्रति उन्हें सिर्फ एक ही रवैया रखना चाहिए : सुनना, फिर स्वीकारना, फिर समर्पण करना। यह अब्राहम का उस सब के प्रति स्पष्ट रूप से देखा जा सकने वाला रवैया था जो परमेश्वर ने उससे करने के लिए कहा था, और इसमें सामान्य मानवता की तर्कसंगतता और साथ ही सच्ची आस्था और सच्चा समर्पण निहित है। सबसे बढ़कर, अब्राहम को क्या करने की जरूरत थी? परमेश्वर के वचनों के सही-गलत होने का विश्लेषण न करना, यह जाँच-पड़ताल न करना कि कहीं वे मजाक में या उसके परीक्षण के लिए तो नहीं कहे गए, या ऐसा ही कुछ और। अब्राहम ने ऐसी चीजों की जाँच नहीं की। परमेश्वर के वचनों के प्रति उसका तात्कालिक रवैया क्या था? यही कि परमेश्वर के वचनों को तर्क से नहीं समझा जा सकता—चाहे वे तर्कसंगत हों या नहीं, परमेश्वर के वचन परमेश्वर के वचन हैं और परमेश्वर के वचनों के प्रति लोगों के रवैये में पसंद और जाँच की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए; जो विवेक लोगों के पास होना चाहिए और जो काम उन्हें करना चाहिए, वह है सुनना, स्वीकारना और समर्पण करना। अपने हृदय में अब्राहम बहुत स्पष्ट रूप से जानता था कि सृष्टिकर्ता की पहचान और सार क्या हैं और एक सृजित मनुष्य को कौन-सा स्थान ग्रहण करना चाहिए। यह ठीक इसलिए था, क्योंकि अब्राहम में ऐसी तर्कसंगतता और इस तरह का रवैया था कि भले ही उसने बहुत पीड़ा सही, लेकिन फिर भी उसने बिना किसी संदेह या झिझक के इसहाक को परमेश्वर को अर्पित कर दिया, उसे परमेश्वर को वैसे ही लौटा दिया जैसे वह चाहता था। उसने महसूस किया कि चूँकि परमेश्वर ने कहा है, इसलिए उसे इसहाक को उसे लौटाना ही होगा और उसे उससे बहस करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, न अपनी इच्छाएँ या माँगें ही रखनी चाहिए। यह बिल्कुल वैसा रवैया है, जैसा एक सृजित प्राणी को सृष्टिकर्ता के प्रति रखना चाहिए। इस सबसे कठिन कार्य को कर पाना ही अब्राहम के लिए सबसे अनमोल बात थी। परमेश्वर द्वारा कहे गए ये वचन इंसानी भावनाओं की दृष्टि से अनुचित और उनके प्रति विचारशून्य थे—लोग उन्हें समझ या स्वीकार नहीं सकते, और चाहे कोई भी युग हो या यह किसी के साथ भी घटित हो, इन वचनों का कोई मतलब नहीं है, ये दुष्कर हैं—फिर भी परमेश्वर ने ऐसा करने के लिए कहा। तो क्या किया जाना चाहिए? ज्यादातर लोग इन वचनों की जाँच करेंगे और कई दिन ऐसा करने के बाद मन-ही-मन सोचेंगे : “परमेश्वर के वचन अनुचित हैं—परमेश्वर ऐसा कैसे कर सकता है? क्या यह एक तरह की यातना नहीं है? क्या परमेश्वर मनुष्य से प्रेम नहीं करता? वह लोगों को इस तरह यातना कैसे दे सकता है? मैं ऐसे परमेश्वर में विश्वास नहीं रखता जो इस तरह लोगों को पीड़ा देता हो और मैं इन वचनों के प्रति समर्पण न करने को चुन सकता हूँ।” लेकिन अब्राहम ने ऐसा नहीं किया; उसने समर्पण करने को चुना। हालाँकि हर कोई मानता है कि परमेश्वर ने जो कहा और जो अपेक्षा की वह गलत थी, कि परमेश्वर को लोगों से ऐसी माँगें नहीं करनी चाहिए, फिर भी अब्राहम समर्पण करने में सक्षम था—जो कि उसके बारे में सबसे अनमोल चीज थी, और ठीक इसी की अन्य लोगों में कमी है। यह अब्राहम का सच्चा समर्पण है। इसके अलावा, यह सुनने के बाद कि परमेश्वर ने उससे क्या अपेक्षा की है, पहली चीज जिसके बारे में वह सुनिश्चित था, यह थी कि परमेश्वर ने यह मजाक में नहीं कहा था, यह कोई खेल नहीं था। और चूँकि परमेश्वर के वचन ये चीजें नहीं थे, तो वे क्या थे? यह अब्राहम का गहरा विश्वास था कि यह सच है कि कोई भी मनुष्य उस चीज को नहीं बदल सकता जिसके बारे में परमेश्वर यह निर्धारित करता है कि उसे किया जाना चाहिए, कि परमेश्वर के वचनों में कोई मजाक, परीक्षा या यातना नहीं है, परमेश्वर भरोसेमंद है और वह जो कुछ भी कहता है—चाहे वह उचित लगे या न लगे—सत्य है। क्या यह अब्राहम की सच्ची आस्था नहीं थी? क्या उसने यह कहा, “परमेश्वर ने मुझसे इसहाक की बलि चढ़ाने के लिए कहा। इसहाक को पाने के बाद मैंने परमेश्वर को ठीक से धन्यवाद नहीं दिया—क्या यह परमेश्वर का मुझसे कृतज्ञता की माँग करना है? तो मुझे अपना आभार ठीक से दिखाना चाहिए। मुझे दिखाना चाहिए कि मैं इसहाक की बलि चढ़ाने के लिए तैयार हूँ, मैं परमेश्वर को धन्यवाद देने के लिए तैयार हूँ, मैं परमेश्वर के अनुग्रह को जानता और याद रखता हूँ, और मैं परमेश्वर को चिंता में नहीं डालूँगा। निस्संदेह, परमेश्वर ने ये वचन मेरी जाँच करने और परीक्षा लेने के लिए कहे थे, इसलिए मुझे खानापूर्ति करनी चाहिए। मैं सारी तैयारियाँ करूँगा, फिर इसहाक के साथ एक भेड़ भी लाऊँगा, और अगर बलि के समय परमेश्वर ने कुछ नहीं कहा, तो मैं भेड़ की बलि चढ़ा दूँगा। बस खानापूर्ति करना काफी है। अगर परमेश्वर वास्तव में मुझसे इसहाक की बलि देने के लिए कहे, तो बस मुझे उसे वेदी पर इसका दिखावा करने देना चाहिए; जब समय आएगा, तो हो सकता है परमेश्वर मुझे भेड़ की बलि चढ़ाने दे, मेरे बच्चे की नहीं”? क्या अब्राहम ने ऐसा सोचा था? (नहीं।) अगर उसने ऐसा सोचा होता, तो उसके हृदय में कोई पीड़ा न हुई होती। अगर उसने ऐसी बातें सोची होतीं, तो उसमें किस तरह की सत्यनिष्ठा रही होती? क्या उसमें सच्ची आस्था रही होती? क्या उसमें सच्चा समर्पण रहा होता? नहीं, ऐसा नहीं हुआ होता।

इसहाक की बलि देने के मामले में अब्राहम ने जो पीड़ा महसूस की और जो दर्द उसे हुआ, उसे देखें तो यह स्पष्ट है कि उसने परमेश्वर के वचन में पूरी तरह से विश्वास रखा, उसने परमेश्वर द्वारा कहे गए हर वचन पर विश्वास किया, परमेश्वर ने जो कुछ भी कहा उसे उसने अपने हृदय की गहराई से ठीक उसी रूप में समझा जिस रूप में परमेश्वर को अभीष्ट था, और उसे परमेश्वर पर कोई संदेह नहीं था। यह सच्ची आस्था है या नहीं? (हाँ, है।) अब्राहम को परमेश्वर में सच्ची आस्था थी, और यह एक बात दर्शाता है जो यह है कि अब्राहम एक ईमानदार व्यक्ति था। परमेश्वर के वचनों के प्रति उसका एकमात्र रवैया आज्ञाकारिता, स्वीकृति और समर्पण का था—परमेश्वर जो कुछ भी कहता, वह उसका पालन करता। अगर परमेश्वर किसी चीज को काली कहता, तो भले ही अब्राहम को वह काली न दिखती, फिर भी वह परमेश्वर का कहा सच मानता और स्वीकारता कि वह चीज काली है। अगर परमेश्वर किसी चीज को सफेद बताता, तो वह पुष्टि करता कि वह सफेद है। यह इतनी सरल-सी बात है। परमेश्वर ने उससे कहा कि वह उसे एक बच्चा देगा, और अब्राहम ने मन-ही-मन सोचा, “मैं पहले ही 100 साल का हूँ, लेकिन अगर परमेश्वर कहता है कि वह मुझे एक बच्चा देने वाला है, तो मैं अपने प्रभु, परमेश्वर का आभारी हूँ!” उसने ज्यादा सोच-विचार नहीं किया, बस परमेश्वर में विश्वास रखा। इस विश्वास का सार क्या था? वह परमेश्वर के सार और पहचान में विश्वास रखता था और सृष्टिकर्ता के बारे में उसका ज्ञान वास्तविक था। वह उन लोगों की तरह नहीं था, जो कहते हैं कि वे परमेश्वर को सर्वशक्तिमान और मानवजाति का सृष्टिकर्ता मानते हैं, लेकिन अपने दिलों में संदेह करते हैं, जैसे “क्या मनुष्य वास्तव में वानरों से विकसित हुए हैं? ऐसा कहा जाता है कि परमेश्वर ने सभी चीजें बनाईं, लेकिन लोगों ने इसे अपनी आँखों से नहीं देखा है।” चाहे परमेश्वर कुछ भी कहे, वे लोग हमेशा विश्वास और संदेह के बीच रहते हैं, और यह निर्धारित करने के लिए कि चीजें सच हैं या झूठ, वे जो देखते हैं उस पर भरोसा करते हैं। वे हर उस चीज पर संदेह करते हैं जिसे वे अपनी आँखों से नहीं देख सकते, इसलिए जब भी वे परमेश्वर को बोलता हुआ सुनते हैं, तो वे उसके वचनों के पीछे प्रश्नचिह्न लगा देते हैं। वे परमेश्वर द्वारा सामने रखे जाने वाले हर तथ्य, मामले और आज्ञा की सावधानी, कर्मठता और सतर्कता से जाँच-पड़ताल और विश्लेषण करते हैं। वे सोचते हैं कि परमेश्वर में अपने विश्वास में उन्हें परमेश्वर के वचनों और सत्य की वैज्ञानिक शोध के रवैये से यह देखने के लिए जाँच करनी चाहिए कि क्या ये वचन वास्तव में सत्य हैं, अन्यथा उनके ठगे जाने और धोखा खाने की संभावना होगी। लेकिन अब्राहम ऐसा नहीं था, उसने परमेश्वर का वचन शुद्ध हृदय से सुना। हालाँकि, इस अवसर पर परमेश्वर ने अब्राहम से अपने इकलौते पुत्र इसहाक को उस पर बलिदान करने के लिए कहा। इससे अब्राहम को पीड़ा हुई, फिर भी उसने समर्पण करने को चुना। अब्राहम का मानना था कि परमेश्वर के वचन अपरिवर्तनीय हैं और परमेश्वर के वचन वास्तविकता बन जाएँगे। सृजित मनुष्यों को स्वाभाविक रूप से परमेश्वर का वचन स्वीकारना और उसके प्रति समर्पण करना चाहिए, और परमेश्वर के वचन के सामने सृजित मनुष्यों के पास विकल्प चुनने का कोई अधिकार नहीं है, और उन्हें परमेश्वर के वचन का विश्लेषण या जाँच तो बिल्कुल भी नहीं करनी चाहिए। परमेश्वर के वचन के प्रति अब्राहम ने यही रवैया अपनाया था। भले ही अब्राहम बहुत पीड़ा में था और भले ही अपने बेटे के प्रति उसके प्यार और उसे छोड़ने के प्रति उसकी अनिच्छा ने उसे अत्यधिक तनाव और पीड़ा दी, फिर भी उसने अपना बच्चा परमेश्वर को लौटाना ही चुना। वह इसहाक को परमेश्वर को क्यों लौटाने जा रहा था? अगर परमेश्वर ने अब्राहम से ऐसा करने के लिए नहीं कहा होता, तो उसे अपने बेटे को लौटाने की पहल करने की कोई जरूरत नहीं थी, लेकिन चूँकि परमेश्वर ने कहा था, इसलिए उसे अपने बेटे को परमेश्वर को वापस देना ही था, उसके पास न देने का कोई बहाना नहीं था, और उसे परमेश्वर से बहस करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए—यही वह रवैया था जो अब्राहम ने अपनाया था। उसने ऐसे शुद्ध हृदय के साथ परमेश्वर के सामने समर्पण किया। परमेश्वर यही चाहता था और वह यही देखना चाहता था। जब इसहाक की बलि देने की बात आई, तो अब्राहम का व्यवहार और जो उसने हासिल किया, वह बिल्कुल वैसा ही था जैसा परमेश्वर देखना चाहता था, और यह मामला परमेश्वर द्वारा उसकी परीक्षा लेने और उसे सत्यापित करने का था। और फिर भी, परमेश्वर ने अब्राहम के साथ वैसा व्यवहार नहीं किया, जैसा उसने नूह के साथ किया था। उसने अब्राहम को इस मामले के पीछे के कारणों, प्रक्रिया या इसके बारे में सब-कुछ नहीं बताया। अब्राहम सिर्फ एक ही चीज जानता था, जो यह थी कि परमेश्वर ने उससे इसहाक को वापस करने के लिए कहा है—बस। वह नहीं जानता था कि ऐसा करके परमेश्वर उसकी परीक्षा ले रहा है, न ही वह इस बात से अवगत था कि उसके यह परीक्षा देने के बाद परमेश्वर उसमें और उसके वंशजों में क्या हासिल करना चाहता है। परमेश्वर ने अब्राहम को इनमें से कुछ नहीं बताया, उसने उसे बस एक साधारण आज्ञा दी, एक अनुरोध किया। और हालाँकि परमेश्वर के ये वचन बहुत सरल और इंसानी भावनाओं के प्रति विचारशून्य थे, फिर भी अब्राहम ने वैसा करके, जैसा परमेश्वर चाहता और अपेक्षा करता था, परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी कीं : उसने इसहाक को वेदी पर बलि के रूप में चढ़ाया। उसके हर कदम ने दिखाया कि इसहाक की बलि देना उसका बेमन से काम करना नहीं था, वह इसे लापरवाही से नहीं कर रहा था, बल्कि वह ईमानदार था और इसे अपने अंतर्मन से कर रहा था। भले ही वह इसहाक को छोड़ना सहन नहीं कर सकता था, भले ही इससे उसे पीड़ा हुई, लेकिन सृष्टिकर्ता के कहे का सामना होने पर अब्राहम ने वह तरीका चुना जो कोई अन्य व्यक्ति न चुनता : सृष्टिकर्ता ने जो माँगा था उसके प्रति पूर्ण समर्पण, बिना किसी समझौते के, बिना किसी बहाने के और बिना किसी शर्त के समर्पण—उसने वैसा ही किया जैसा परमेश्वर ने उससे करने को कहा था। और जब अब्राहम वैसा कर सका जैसा परमेश्वर ने उससे कहा था, तो उसके पास क्या था? एक लिहाज से, उसके भीतर परमेश्वर में सच्ची आस्था थी; वह सुनिश्चित था कि सृष्टिकर्ता परमेश्वर है, उसका परमेश्वर, उसका प्रभु, वह जो सभी चीजों पर संप्रभु है और जिसने मानवजाति का सृजन किया है। यह सच्ची आस्था थी। दूसरे लिहाज से, उसका हृदय शुद्ध था। वह सृष्टिकर्ता द्वारा कहे गए हर वचन पर विश्वास करता था और उसके द्वारा कहे गए हर वचन को सरलता से और सीधे तौर पर स्वीकारने में सक्षम था। और एक और लिहाज से, सृष्टिकर्ता ने जो कहा था, उसमें चाहे कितनी भी बड़ी कठिनाई क्यों न हो, इससे उसे चाहे कितनी भी पीड़ा क्यों न हो, उसने जो रवैया चुना वह था समर्पण, परमेश्वर से बहस करने या उसका विरोध या इनकार करने की कोशिश न करना, बल्कि पूर्ण और समग्र समर्पण, परमेश्वर ने जो कहा था उसके अनुसार, उसके हर वचन और उसके द्वारा दिए गए आदेश के अनुसार कार्य और अभ्यास करना। जैसा परमेश्वर ने कहा और देखना चाहा, ठीक वैसे ही अब्राहम ने इसहाक को वेदी पर बलि के रूप में चढ़ा दिया, उसने उसे परमेश्वर को अर्पित कर दिया—और जो कुछ भी उसने किया, उससे यह साबित हुआ कि परमेश्वर ने सही व्यक्ति को चुना था और परमेश्वर की नजरों में वह धार्मिक था।

जब परमेश्वर ने अब्राहम से इसहाक की बलि देने के लिए कहा, तो सृष्टिकर्ता के स्वभाव और सार का कौन-सा पहलू प्रकट हुआ? यही कि परमेश्वर उन लोगों से, जो धार्मिक हैं, जिन्हें वह पहचानता है, पूरी तरह से अपने अपेक्षित मानकों के अनुसार व्यवहार करता है, जो कि पूरी तरह से उसके स्वभाव और सार के अनुरूप है। इन मानकों में कोई समझौता नहीं हो सकता; उनका कमोबेश पूरा होना काफी नहीं है। ये मानक सटीक रूप से पूरे किए जाने चाहिए। परमेश्वर के लिए अब्राहम द्वारा अपने दैनिक जीवन में किए गए धार्मिक कार्य देखना ही पर्याप्त नहीं था, परमेश्वर ने अब्राहम का अपने प्रति सच्चा समर्पण नहीं देखा था, और यही कारण था कि परमेश्वर ने वह किया जो उसने किया। परमेश्वर अब्राहम में सच्चा समर्पण क्यों देखना चाहता था? उसने अब्राहम को इस अंतिम परीक्षा का भागी क्यों बनाया? क्योंकि, जैसा कि हम सभी जानते हैं, परमेश्वर चाहता था कि अब्राहम बहुत सारे राष्ट्रों का पिता बने। क्या “बहुत सारे राष्ट्रों का पिता” ऐसी उपाधि है, जिसे कोई भी साधारण व्यक्ति धारण कर सकता है? नहीं। परमेश्वर के अपने अपेक्षित मानक हैं, और वे मानक जिनकी वह किसी भी ऐसे व्यक्ति से अपेक्षा करता है जिसे वह चाहता और पूर्ण बनाता है और किसी भी ऐसे व्यक्ति से जिसे वह धार्मिक समझता है, वे एकसमान ही हैं : सच्ची आस्था और पूर्ण समर्पण। यह देखते हुए कि परमेश्वर अब्राहम में इतना बड़ा कार्य करना चाहता था, क्या वह उसमें ये दो चीजें देखे बिना ही जल्दबाजी में आगे बढ़कर ऐसा कर सकता था? बिल्कुल नहीं। इसलिए, जब परमेश्वर ने उसे एक पुत्र दिया, तो उसके बाद यह अपरिहार्य था कि अब्राहम ऐसी परीक्षा से गुजरे; परमेश्वर ने यही करने का निश्चय किया था और यही करने की उसने पहले ही योजना बना ली थी। जब चीजें परमेश्वर की इच्छा के अनुसार हुईं और अब्राहम ने परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी कीं, तभी परमेश्वर ने अपने कार्य के अगले चरण को करने की योजना बनानी शुरू की : अब्राहम के वंशजों को आकाश के तारों और समुद्र-तट की रेत के समान असंख्य बनाना—उसे बहुत सारे राष्ट्रों का पिता बनाना। जब तक अब्राहम से इसहाक की बलि देने के लिए कहने का परिणाम अज्ञात था और अभी तक साकार नहीं हुआ था, तब तक परमेश्वर ने जल्दबाजी में कार्य नहीं किया; लेकिन जब वह साकार हो गया तो अब्राहम के पास जो कुछ था उससे परमेश्वर के मानक पूरे हो गए, जिसका अर्थ था कि उसे वे सब आशीष मिलने थे, जिनकी परमेश्वर ने उसके लिए योजना बनाई थी। फिर इसहाक की बलि से यह देखा जा सकता है कि परमेश्वर लोगों में जो भी कार्य करता है या अपनी प्रबंधन योजना में जो भी भूमिका वह उनसे निभाने की अपेक्षा करता है या जो भी आदेश वह उनसे स्वीकारने की अपेक्षा करता है, उसके लिए उनसे उसकी अपेक्षाएँ और अपेक्षित मानक होते हैं। लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाओं के दो तरह के नतीजे होते हैं : एक तो यह कि अगर तुम वह नहीं कर सकते जो वह तुमसे कहता है, तो तुम्हें हटा दिया जाएगा; दूसरा यह कि अगर तुम वह कर सकते हो, तो परमेश्वर अपनी योजना के अनुसार तुममें वह करना जारी रखेगा जो वह चाहता है। परमेश्वर मनुष्यों से जो सच्ची आस्था और पूर्ण समर्पण चाहता है, उन्हें हासिल करना लोगों के लिए वास्तव में बहुत कठिन नहीं है। लेकिन चाहे आसान हों या कठिन, ये वे दो चीजें हैं जो परमेश्वर को लोगों में अवश्य मिलनी चाहिए। अगर तुम इस लिहाज से स्वीकृति प्राप्त कर सकते हो, तो परमेश्वर तुम्हें मानक-स्तर का पाएगा और परमेश्वर इससे अधिक कुछ नहीं चाहेगा; अगर तुम यह मानक पूरा नहीं कर सकते, तो फिर यह एक अलग मामला है। यह तथ्य कि परमेश्वर ने अब्राहम से अपने पुत्र की बलि देने के लिए कहा, यह दर्शाता है कि उसे नहीं लगा कि अब्राहम के पास पहले परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय और उसमें सच्ची आस्था होना ही वह सब है जिसकी जरूरत थी, वह कमोबेश काफी था। परमेश्वर की माँग का ढंग बिल्कुल भी ऐसा नहीं था; वह अपने साधनों के द्वारा और लोग जो हासिल करने में सक्षम हैं उसके अनुसार माँग करता है, और इसे बातचीत से बदला नहीं जा सकता। क्या यह परमेश्वर की पवित्रता नहीं है? (हाँ, है।) परमेश्वर की पवित्रता ऐसी ही है।

अब्राहम जैसे अच्छे व्यक्ति को भी, जो शुद्ध था, जिसमें सच्ची आस्था और तार्किकता थी, परमेश्वर की परीक्षा स्वीकारनी पड़ी—तो क्या मानवजाति की नजरों में यह परीक्षा इंसानी भावनाओं के प्रति कुछ हद तक विचारशून्यता नहीं थी? लेकिन इंसानी भावनाओं के प्रति विचारशीलता की यह कमी वास्तव में परमेश्वर के स्वभाव और सार का प्रतिरूप है, और अब्राहम ऐसी परीक्षा से गुजरा। इस परीक्षा में अब्राहम ने परमेश्वर को सृष्टिकर्ता के प्रति अपनी अडिग आस्था और अडिग समर्पण दिखाया। अब्राहम परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ। आम तौर पर अब्राहम ने कभी किसी उतार-चढ़ाव का अनुभव नहीं किया था, लेकिन परमेश्वर द्वारा इस तरह से उसकी परीक्षा लेने के बाद उसकी सामान्य आस्था और समर्पण वास्तविक साबित हुआ; यह बाहरी नहीं था, यह कोई नारा नहीं था। इस परिस्थिति में भी—परमेश्वर द्वारा ऐसे वचन कहने और उससे ऐसी माँग करने के बाद भी अब्राहम अडिग समर्पण करने में सक्षम था—तो इसका एक मतलब तो पक्का था : अब्राहम के हृदय में परमेश्वर, परमेश्वर था और हमेशा परमेश्वर रहेगा; परमेश्वर की पहचान और सार किसी भी बदलते कारक के बावजूद अपरिवर्तनीय था। उसके हृदय में मनुष्य हमेशा मनुष्य ही रहेंगे और उन्हें सृष्टिकर्ता से बहस करने की कोशिश करने, तर्क देने या प्रतिस्पर्धा करने का अधिकार नहीं है, न ही उन्हें सृष्टिकर्ता द्वारा कहे गए वचनों का विश्लेषण करने का अधिकार है। अब्राहम का मानना था कि जब सृष्टिकर्ता के वचनों या सृष्टिकर्ता द्वारा कही गई किसी चीज की बात आती है, तो लोगों को चुनने का अधिकार नहीं है; उनसे एक ही चीज की अपेक्षा की जाती है और वह है समर्पण करना। अब्राहम का रवैया बहुत-कुछ बताता था—उसे परमेश्वर में सच्ची आस्था थी और इस सच्ची आस्था में सच्चा समर्पण पैदा हुआ था, और इसलिए चाहे परमेश्वर ने उसके साथ कुछ भी किया हो या उससे कुछ भी माँगा हो या परमेश्वर ने जो भी कर्म किया हो, चाहे वह कुछ ऐसा हो या नहीं जिसे अब्राहम ने देखा, सुना या व्यक्तिगत रूप से अनुभव किया हो, इनमें से कुछ भी परमेश्वर में उसकी सच्ची आस्था को प्रभावित नहीं कर सकता था और परमेश्वर के प्रति उसके समर्पित रवैये को तो बिल्कुल भी प्रभावित नहीं कर सकता था। जब सृष्टिकर्ता ने कुछ ऐसा कहा जो इंसानी भावनाओं के प्रति विचारशून्य था, कुछ ऐसा जो मनुष्य से अनुचित माँग करता था, चाहे कितने भी लोगों ने इन वचनों से नाराज होकर उनका प्रतिरोध, विश्लेषण और जाँच की हो या उनका तिरस्कार तक किया हो, अब्राहम का रवैया बाहरी दुनिया के परिवेश से अछूता रहा। परमेश्वर के प्रति उसकी आस्था और समर्पण नहीं बदला और वे सिर्फ उसके मुँह से निकले हुए वचन या औपचारिकताएँ नहीं थीं; इसके बजाय उसने यह साबित करने के लिए तथ्यों का उपयोग किया कि जिस परमेश्वर में उसका विश्वास था वह सृष्टिकर्ता है, जिस परमेश्वर में उसका विश्वास था वह स्वर्ग का परमेश्वर है। अब्राहम में जो कुछ अभिव्यक्त हुआ, उससे हम क्या देखते हैं? क्या हम परमेश्वर के बारे में उसके संदेह देखते हैं? क्या उसे संदेह थे? क्या उसने परमेश्वर के वचनों की जाँच की? क्या उसने उनका विश्लेषण किया? (नहीं किया।) कुछ लोग कहते हैं, “अगर उसने परमेश्वर के वचनों की जाँच या विश्लेषण नहीं किया, तो वह व्यथित किसलिए महसूस कर रहा था?” क्या तुम लोग उसे व्यथित महसूस नहीं करने देना चाहते? इतना व्यथित होकर भी वह समर्पण करने में सक्षम था—क्या तुम तब भी समर्पण करने में सक्षम होते हो जब तुम व्यथित महसूस नहीं करते? तुम्हारे भीतर कितना समर्पण है? ऐसे संकट और पीड़ा का भी अब्राहम के समर्पण पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा, इससे यह साबित होता है कि यह समर्पण वास्तविक था, यह झूठ नहीं था। यह शैतान के सामने, सभी चीजों के सामने, समस्त सृष्टि के सामने परमेश्वर के प्रति एक सृजित मनुष्य की गवाही थी और यह गवाही बहुत शक्तिशाली, बड़ी अनमोल थी!

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