प्रकरण तीन : कैसे नूह और अब्राहम ने परमेश्वर के वचनों का पालन किया और उसके प्रति समर्पण किया (भाग दो) खंड दो

जब परमेश्वर ने नूह को नाव बनाने की आज्ञा दे दी, तो उसे नाव बनाने में कितना समय लगा? (एक सौ बीस वर्ष।) इन 120 वर्षों में, नूह ने बस एक ही काम किया : उसने नाव का निर्माण किया और विभिन्न प्रकार के जीवों को एकत्र किया। हालाँकि कहने को यह केवल एक ही काम था, कोई अलग-अलग काम नहीं थे, लेकिन इस अकेले एक काम में ही बहुत सारा काम शामिल था। तो ऐसा करने का उद्देश्य क्या था? उसने नाव क्यों बनाई? ऐसा करने का उद्देश्य और मायने क्या थे? उसका उद्देश्य यह था कि जब परमेश्वर बाढ़ से दुनिया को नष्ट करे, तो हर प्रकार का जीव जीवित रह सके। तो परमेश्वर द्वारा विनाश से पहले, प्रत्येक प्रकार के जीव के जीवित रहने के लिए नूह जो तैयारी कर सकता था उसने की। और परमेश्वर के लिए क्या यह एक बहुत जरूरी मामला था? परमेश्वर की बातचीत के लहजे से, उसकी आज्ञा के सार से क्या नूह सुन पाया कि परमेश्वर अधीर है और उसका इरादा जरूरी है? (हाँ।) उदाहरण के लिए मान लो, तुम लोगों से कहा जाता है, “महामारी आ रही है। यह दुनियाभर में फैल रही है। तुम लोगों को एक काम करना है और जल्दी करो : जल्दी से भोजन और मास्क खरीद लो। बस इतना ही करो!” इसमें तुमने क्या सुना? क्या यह तुरंत करना है? (हाँ।) तो यह कब किया जाना चाहिए? क्या तुम्हें अगले साल तक, उसके अगले साल तक या और भी कई साल तक इंतजार करना है? नहीं—यह एक अत्यावश्यक कार्य है, एक महत्वपूर्ण मामला है। सारे काम छोड़कर पहले यह काम करना है। क्या इन शब्दों से तुम्हें यह बात समझ में आई? (हाँ।) तो जो लोग परमेश्वर के प्रति समर्पणशील हैं, उन्हें क्या करना चाहिए? उन्हें तुरंत वह काम छोड़ देना चाहिए जो वे कर रहे हैं। और कुछ मायने नहीं रखता। परमेश्वर ने जो कुछ करने की आज्ञा दी है, उसके बारे में वह बहुत अधीर है; उन्हें वह काम करने में जरा भी देर नहीं लगानी चाहिए, जो परमेश्वर के लिए जरूरी है और जो परमेश्वर को व्यस्त रखता है; उन्हें उसे दूसरे काम करने से पहले पूरा करना चाहिए। समर्पण का यही अर्थ है। लेकिन अगर यह सोचकर तुम इसका विश्लेषण करना शुरू कर दो, “महामारी आ रही है? फैल रही है? अगर फैल रही है, तो फैलने दो—यह कोई हम तक थोड़ी फैल रही है। जब फैलेगी तब देख लेंगे, तब हम इससे निपटेंगे। मास्क और खाने-पीने का सामान खरीदना है? मास्क तो हमेशा उपलब्ध रहते हैं। और फिर इससे क्या फर्क पड़ता है, लगाओ या मत लगाओ। अभी तो हमारे पास खाने-पीने का सामान है, उसकी चिंता क्यों करें? इतनी जल्दी क्या है? महामारी के यहाँ फैलने तक इंतजार करते हैं। फिलहाल तो और बहुत से काम हैं,” क्या यह समर्पण है? (नहीं।) यह क्या है? इसे कुल मिलाकर विद्रोह कहा जाता है। अधिक विशेष रूप से, यह उदासीनता, विरोध, विश्लेषण और जाँच-पड़ताल है, और है अपने दिल में तिरस्कार रखना, यह सोचना कि ऐसा कभी नहीं हो सकता, और यह विश्वास न करना कि यह वास्तविक है। क्या ऐसे रवैये में सच्ची आस्था होती है? (नहीं।) उनकी समग्र स्थिति यह होती है : परमेश्वर के वचनों के संबंध में और सत्य के प्रति वे हमेशा टालमटोल करने का रवैया रखते हैं, उदासीनता और लापरवाही का रवैया रखते हैं; अपने दिल में, वे इसे बिल्कुल भी महत्वपूर्ण नहीं मानते। वे सोचते हैं, “मैं तुम्हारी कही वे बातें, जो सत्य से संबंधित हैं, और तुम्हारे ऊँचे उपदेश सुनूँगा—मैं उन्हें नोट करने में संकोच नहीं करूँगा, ताकि मैं उन्हें भूल न जाऊँ। लेकिन तुम जो भोजन और मास्क खरीदने के बारे में कहते हो, वह सत्य से संबंधित नहीं है, इसलिए मैं उसे अस्वीकार सकता हूँ, मैं मन ही मन उस पर हँस सकता हूँ और मैं तुमसे उदासीनता और अवहेलना का व्यवहार कर सकता हूँ; इतना काफी है कि मैं अपने कानों से सुन लेता हूँ, लेकिन जो कुछ मैं अपने दिल में सोचता हूँ वह तुम्हारी चिंता का विषय नहीं है, उससे तुम्हें कोई लेना-देना नहीं है।” क्या परमेश्वर के वचनों के प्रति नूह का यही रवैया था? (नहीं।) किस बात से पता चलता है कि वह ऐसा नहीं था? हमें इसके बारे में बात करनी चाहिए; इससे तुम्हें यह सीख मिलेगी कि परमेश्वर के प्रति नूह का रवैया पूरी तरह से अलग था। और इसे साबित करने के लिए तथ्य हैं।

उस पूर्व-औद्योगिक युग में जब सब-कुछ हाथ से करना और हाथ से पूरा करना होता था तो हाथ से किया जाने वाला हर काम कठिन होता था और उसमें समय लगता था। जब नूह ने परमेश्वर का आदेश सुना, जब उसने वे सब चीजें सुनीं जो परमेश्वर ने कहीं, तो उसने इस मामले की गंभीरता और स्थिति की कठोरता महसूस की। वह जान गया कि परमेश्वर दुनिया को नष्ट कर देगा। और वह ऐसा क्यों करने वाला था? क्योंकि मनुष्य बहुत बुरे थे, वे परमेश्वर के वचन में विश्वास नहीं करते थे, यहाँ तक कि परमेश्वर के वचन को नकारते थे, और परमेश्वर उस मानवजाति से घृणा करता था। क्या परमेश्वर ने उस मानवजाति से सिर्फ एक या दो दिन के लिए घृणा की थी? क्या परमेश्वर ने आवेश में आकर कहा, “आज मुझे यह मानवजाति पसंद नहीं। मैं इस मानवजाति का नाश कर दूँगा, इसलिए जाओ और मेरे लिए एक नाव बनाओ”? क्या ऐसा ही है? नहीं। परमेश्वर के वचन सुनने के बाद नूह समझ गया कि परमेश्वर के कहने का अर्थ क्या था। परमेश्वर को उस मानवजाति से सिर्फ एक या दो दिनों के लिए घृणा नहीं हुई थी; वह उसे नष्ट करने को उत्सुक था, ताकि मानवजाति नई शुरुआत कर सके। लेकिन इस बार, परमेश्वर एक बार फिर से नई मानवजाति का सृजन नहीं करना चाहता था; इसके बजाय वह नूह को इतना भाग्यशाली होने देगा कि वह अगले युग के स्वामी, मानवजाति के पूर्वज के रूप में जीवित रहे। जब नूह ने परमेश्वर के आशय का यह पहलू समझ लिया, तो वह अपने हृदय की गहराइयों से परमेश्वर का उत्कट इरादा महसूस कर सका, वह परमेश्वर की अत्यावश्यकता महसूस कर सका—और इसलिए, जब परमेश्वर बोला, तो ध्यान से, बारीकी से और लगन से सुनने के अलावा नूह ने अपने दिल में कुछ महसूस किया। उसने क्या महसूस किया? अत्यावश्यकता, वह भावना जो सृष्टिकर्ता के उत्कट इरादे समझने के बाद परमेश्वर के एक सच्चे सृजित प्राणी को महसूस करनी चाहिए। इसलिए, जब परमेश्वर ने नूह को नाव बनाने का आदेश दिया, तो उसने अपने हृदय में क्या सोचा? उसने सोचा, “आज से, नाव बनाने से ज्यादा महत्वपूर्ण कुछ नहीं है, इससे अहम और जरूरी कुछ नहीं है। मैंने सृष्टिकर्ता के हृदय से वचन सुने हैं, मैंने उसका उत्कट इरादा महसूस किया है, इसलिए अब मुझे विलंब नहीं करना चाहिए; मुझे उस नाव का निर्माण करना चाहिए जिसके बारे में परमेश्वर ने कहा था और जिसे परमेश्वर ने तुरंत बनाने के लिए आदेश दिया था।” नूह का रवैया कैसा था? उपेक्षा करने की हिम्मत न करने वाला। और उसने नाव किस तरह बनाई? बिना विलंब किए। उसने परमेश्वर द्वारा कही गई बातों और निर्देशों का हर विवरण बिना किसी लापरवाही के, पूरी तत्परता और ऊर्जा के साथ पूरा किया। संक्षेप में, सृष्टिकर्ता के आदेश के प्रति नूह का रवैया समर्पण का था। उसके प्रति वह बेपरवाह नहीं था, उसके हृदय में कोई प्रतिरोध का भाव नहीं था, न ही उदासीनता थी। बल्कि, हर विवरण याद करते हुए उसने सृष्टिकर्ता का इरादा पूरी लगन से समझने की कोशिश की। जब उसने परमेश्वर का उत्कट इरादा समझ लिया, तो उसने तेजी से काम करने का फैसला किया, ताकि परमेश्वर ने जो काम उसे दिया था, उसे जल्दी से जल्दी पूरा कर सके। “तेजी से” का क्या मतलब था? इसका मतलब था कि काम को कम से कम समय में पूरा करना, जिसमें पहले एक महीने का समय लगता, उसे समय से तीन या पाँच दिन पहले पूरा कर लेना, ढिलाई न करना, टालमटोल बिल्कुल न करना बल्कि भरसक प्रयास करते हुए परियोजना को आगे बढ़ाना। स्वाभाविक रूप से, प्रत्येक कार्य को करते समय, वह नुकसान और त्रुटियों को कम करने की पूरी कोशिश करता था और ऐसा कोई काम नहीं करता था जिसे फिर से करना पड़े; वह गुणवत्ता की गारंटी देते हुए प्रत्येक कार्य और प्रक्रिया को भी समय पर और अच्छी तरह से पूरा कर लेता था। यह टालमटोल न करने की सच्ची अभिव्यक्ति थी। तो ढिलाई न दिखाने की पूर्वापेक्षा क्या थी? (उसने परमेश्वर की आज्ञा सुनी थी।) हाँ, यही इसकी पूर्वापेक्षा और संदर्भ था। नूह ने ढिलाई क्यों नहीं दिखाई? कुछ लोग कहते हैं कि नूह में सच्चा समर्पण था। तो, उसमें ऐसा क्या था जिसके कारण उसमें ऐसा सच्चा समर्पण आया? (वह परमेश्वर के हृदय के प्रति विचारशील था।) यह सही है! हृदय होने का यही मतलब है! हृदय रखने वाले लोग परमेश्वर के हृदय के प्रति विचारशील रह पाते हैं; हृदयहीन लोग खाली खोल होते हैं, मूर्ख होते हैं, वे परमेश्वर के हृदय के प्रति विचारशील होना नहीं जानते। उनकी मानसिकता यह होती है : “मुझे परवाह नहीं कि यह परमेश्वर के लिए कितना जरूरी है, मैं इसे जैसे चाहूँगा वैसे करूँगा—वैसे मैं आलस या निकम्मापन नहीं दिखा रहा।” ऐसा रवैया, ऐसी नकारात्मकता, सक्रियता का पूर्णतया अभाव—यह कोई ऐसा इंसान नहीं है जो परमेश्वर के हृदय के प्रति विचारशील है, न ही वह यह समझता है कि परमेश्वर के हृदय के प्रति विचारशील कैसे हुआ जाए। इस स्थिति में, क्या उसमें सच्ची आस्था होती है? बिल्कुल नहीं। नूह परमेश्वर के हृदय के प्रति विचारशील था, उसमें सच्ची आस्था थी और वह इस प्रकार परमेश्वर के आदेश को पूरा करने में सक्षम था। तो केवल परमेश्वर के आदेश को स्वीकार करना और कुछ प्रयास करने का इच्छुक रहना ही पर्याप्त नहीं होता। तुम्हें परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील भी होना चाहिए, अपना सर्वस्व देना चाहिए और वफादार होना चाहिए—इसके लिए तुममें जमीर और विवेक होना जरूरी है; यही लोगों में होना चाहिए और यही नूह में था। तुम लोग क्या कहते हो, यदि नूह धीरे-धीरे काम करता, उसमें शीघ्रता का भाव न होता, कोई फिक्र न होती, कोई दक्षता न होती, उस समय इतनी बड़ी नाव बनाने में कितने साल लग जाते? क्या 100 साल में यह काम खत्म हो पाता? (नहीं।) अगर वह लगातार बनाता तो भी कई पीढ़ियाँ लग जातीं। एक ओर, नाव जैसी ठोस चीज के निर्माण में वर्षों लग जाते; इसके अलावा, सभी जीवों को इकट्ठा करने और उनकी देखभाल करने में भी वर्षों लगते। क्या इन जीवों को इकट्ठा करना आसान था? (नहीं।) यह आसान नहीं था। तो, परमेश्वर के आदेश सुनने के बाद, और परमेश्वर का उत्कट इरादा समझने के बाद, नूह ने महसूस किया कि यह न तो आसान होगा और न ही सीधा-सरल। उसे समझ आ गया कि उसे इसे परमेश्वर की इच्छाओं के अनुसार संपन्न कर परमेश्वर का दिया आदेश पूरा करना है, ताकि परमेश्वर संतुष्ट और आश्वस्त हो, ताकि परमेश्वर के कार्य का अगला चरण सुचारु रूप से आगे बढ़ सके। ऐसा था नूह का हृदय। और यह कैसा हृदय था? यह ऐसा हृदय था, जो परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील था। नाव बनाने में नूह के व्यवहार से आँकें तो वह निश्चित रूप से बहुत आस्थावान व्यक्ति था और उसने सौ साल तक परमेश्वर के वचनों के प्रति अपने मन में कोई संदेह नहीं रखा। वह किस पर निर्भर था? वह परमेश्वर में अपनी आस्था और उसके प्रति समर्पण पर निर्भर था। नूह पूर्ण रूप से समर्पण करने में सक्षम था। उसके पूर्ण समर्पण का विवरण क्या है? उसकी विचारशीलता। क्या तुम लोगों के पास ऐसा हृदय है? (नहीं।) तुम लोग धर्म-सिद्धांत बोलने और नारे लगाने में सक्षम हो, लेकिन तुम लोग अभ्यास नहीं कर सकते, और कठिनाइयों से सामना होने पर तुम परमेश्वर की आज्ञाएँ कार्यान्वित नहीं कर सकते। जब तुम बोलते हो तो बहुत स्पष्ट रूप से बोलते हो, लेकिन जब वास्तविक परिचालनों की बात आती है और तुम्हारे सामने कोई कठिनाई आती है तो तुम नकारात्मक हो जाते हो, और जब तुम थोड़े दुख सहते हो तो शिकायत करना शुरू कर देते हो, बस हार मान लेना चाहते हो। अगर आठ-दस वर्ष तक भारी बारिश नहीं हुई, तो तुम नकारात्मक हो जाओगे और परमेश्वर पर संदेह करोगे, और अगर 20 और वर्ष भारी बारिश के बिना बीत गए, तो क्या तुम नकारात्मक बने रहोगे? नूह ने नाव बनाने में 100 से ज्यादा साल बिता दिए और वह कभी नकारात्मक नहीं हुआ, न उसने कभी परमेश्वर पर संदेह किया, वह बस नाव बनाता रहा। नूह के अलावा और कौन ऐसा कर सकता था? तुम लोगों में किस तरह की कमी है? (हमारे पास सामान्य मानवता या जमीर नहीं है।) सही है। तुम लोगों में नूह का चरित्र नहीं है। नूह कितने सत्य समझता था? क्या तुम्हें लगता है कि वह तुम लोगों से ज्यादा सत्य समझता था? तुम लोगों ने बहुत सारे धर्मोपदेश सुने हैं। परमेश्वर के देहधारण के रहस्य, परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों का आंतरिक सत्य, परमेश्वर की प्रबंधन-योजना; ये मानवजाति के आगे व्यक्त किए गए सबसे ऊँचे और सबसे गूढ़ रहस्य हैं, और ये सभी तुम्हें स्पष्ट समझाए गए हैं, तो ऐसा कैसे है कि तुम लोगों में अभी भी नूह की मानवता नहीं है और तुम वैसा करने में असमर्थ हो जैसा नूह कर सकता था? तुम लोगों की आस्था और मानवता नूह से बहुत हीन हैं! यह कहा जा सकता है कि तुम लोगों में सच्ची आस्था नहीं है, या न्यूनतम जमीर या विवेक नहीं है जो मानवता के भीतर होना चाहिए। हालाँकि तुम लोगों ने बहुत-से धर्मोपदेश सुने हैं और ऊपरी तौर पर तुम सत्यों को समझते प्रतीत होते हो, लेकिन तुम्हारी मानवता की गुणवत्ता और तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव ज्यादा धर्मोपदेश सुनने या सत्यों को समझने से तुरंत नहीं बदला जा सकता। इन चीजों के भेद की पहचान के बिना लोगों को लगता है कि वे पुराने संतों से बहुत हीन नहीं हैं, और वे मन-ही-मन सोचते हैं “हम भी अब परमेश्वर का आदेश स्वीकार रहे हैं और परमेश्वर के ही मुँह से परमेश्वर का वचन सुन रहे हैं। हम भी हर उस चीज को गंभीरता से ले रहे हैं, जो परमेश्वर हमसे करने के लिए कहता है। हर व्यक्ति इन चीजों पर एक-साथ संगति करता है और फिर उनकी योजना बनाने, तैनाती करने और उन्हें कार्यान्वित करने का काम करता है। हम पुराने संतों से कैसे अलग हैं?” क्या अब तुम जो अंतर देखते हो, वह बड़ा है या नहीं? यह बहुत बड़ा अंतर है, मुख्य रूप से चरित्र के संबंध में। आज के लोग बहुत भ्रष्ट, स्वार्थी और नीच हैं! वे तब तक एक उँगली भी नहीं हिलाते, जब तक उन्हें इससे लाभ न हो! अच्छी चीजें करना और अच्छे कर्म तैयार करना उन्हें बहुत श्रमसाध्य काम लगता है! वे कर्तव्य करने के लिए तैयार हैं लेकिन उनमें इच्छाशक्ति नहीं है, वे कष्ट सहने के लिए तैयार हैं लेकिन उसे नहीं सह सकते, वे कीमत चुकाना चाहते हैं लेकिन नहीं चुका सकते, वे सत्य का अभ्यास करने के लिए तैयार हैं लेकिन नहीं कर सकते, और वे परमेश्वर से प्रेम करना चाहते हैं लेकिन इसे अभ्यास में नहीं ला सकते। मुझे बताओ, ऐसी मानवता में कितनी कमी है! इसकी भरपाई करने के लिए कितना सत्य समझना और धारण करना आवश्यक है?

हमने अभी परमेश्वर के इरादों के प्रति नूह की विचारशीलता के संबंध में संगति की, जो कि उसकी मानवीयता का एक अनमोल हिस्सा था। कुछ और भी है—वह क्या है? परमेश्वर के वचन सुनकर, नूह एक तथ्य जान गया था; उसे परमेश्वर की योजना का भी पता था। योजना सिर्फ एक स्मारक के रूप में काम आने वाला नाव बनाने या कोई मनोरंजन पार्क बनाने या किसी बड़ी इमारत को मार्गदर्शक स्थल बनाने की नहीं थी—मामला यह नहीं था। परमेश्वर ने जो कहा, उससे नूह एक तथ्य जान गया था : परमेश्वर इस मानवजाति से घृणा करता था जो दुष्ट थी, और उसने तय कर लिया था कि इस मानवजाति को बाढ़ से नष्ट कर देना है। इस बीच, जो लोग अगले युग तक जीवित बचेंगे, उन्हें इस नाव के जरिए बाढ़ से बचाया जाएगा; इससे वो लोग जीवित रह पाएँगे। और इस तथ्य में मुख्य मुद्दा क्या था? वह यह था कि परमेश्वर संसार को बाढ़ से नष्ट कर देगा और वह चाहता था कि नूह एक नाव बनाए और जीवित रहे और हर प्रकार का जीवित प्राणी बच जाए, लेकिन मानवजाति नष्ट हो जाए। क्या यह कोई बड़ी बात थी? यह कोई मामूली पारिवारिक मामला नहीं था, न ही यह किसी व्यक्ति या जनजाति से संबंधित कोई छोटा-मोटा मामला था; बल्कि यह एक विशाल कार्य था। किस तरह का विशाल कार्य? एक ऐसा विशाल कार्य जिसका संबंध परमेश्वर की प्रबंधन योजना से था। परमेश्वर कुछ बड़ा करने जा रहा था, कुछ ऐसा जिसमें पूरी मानवजाति शामिल थी, जो उसके प्रबंधन, मानवजाति के प्रति उसके दृष्टिकोण और उसकी नियति से संबंधित था। जब परमेश्वर ने नूह को यह काम सौंपा तो उसे प्राप्त होने वाली यह तीसरी जानकारी थी। और जब नूह ने परमेश्वर के वचनों से यह सुना तो उसका रवैया क्या था? उसने विश्वास किया, संदेह किया या बिल्कुल विश्वास नहीं किया? (विश्वास किया।) उसने किस हद तक विश्वास किया? और किन तथ्यों से पता चलता है कि उसने इस पर विश्वास किया? (परमेश्वर के वचन सुनकर उसने उन्हें अभ्यास में लाना शुरू कर दिया और परमेश्वर के आदेशानुसार नाव का निर्माण किया, जिससे यह सिद्ध होता है कि परमेश्वर के वचनों के प्रति उसका रवैया विश्वास का था।) नूह में प्रदर्शित हर चीज से—जब नूह ने परमेश्वर का सौंपा काम स्वीकार किया था, तब से निष्पादन और कार्यान्वयन के स्तर से लेकर जो अंतिम परिणाम प्राप्त हुआ उस तक—यह देखा जा सकता है कि नूह को परमेश्वर के कहे हर वचन में पूर्ण विश्वास था। उसे पूर्ण विश्वास क्यों था? उसके मन में संदेह क्यों नहीं पैदा हुआ? ऐसा कैसे हुआ कि उसने विश्लेषण करने का प्रयास नहीं किया, कि उसने अपने हृदय में इसकी जाँच-पड़ताल नहीं की? इसका संबंध किस चीज से है? (परमेश्वर में आस्था।) सही कहा, यह परमेश्वर में नूह की सच्ची आस्था थी। इसलिए जब परमेश्वर ने जो कुछ कहा उसकी और उसके हर एक वचन की बात आई तो नूह ने उन्हें बस सुना और स्वीकार नहीं किया; बल्कि उसे अपने दिल की गहराइयों में सच्चा ज्ञान और आस्था थी। हालाँकि परमेश्वर ने उसे विभिन्न विवरण नहीं बताए थे, जैसे कि बाढ़ कब आएगी या बाढ़ आने में कितने साल लगेंगे, बाढ़ किस पैमाने पर आएगी या परमेश्वर जब पूरी दुनिया को नष्ट कर देगा तो उसके बाद कैसी स्थिति होगी। नूह का मानना था कि परमेश्वर ने जो कुछ कहा है वह पहले ही सच हो चुका है। नूह ने परमेश्वर के वचनों को कोई कहानी, या मिथक, या कोई कहावत या लेख नहीं माना, बल्कि अपने दिल की गहराई में उसे विश्वास था, और वह निश्चित था कि परमेश्वर ऐसा करने जा रहा है; और परमेश्वर जो कुछ पूरा करने का निश्चय कर लेता है, फिर उसे कोई बदल नहीं सकता। नूह ने महसूस किया कि लोगों का परमेश्वर के वचनों और जो वह पूरा करना चाहता है उसके प्रति केवल एक ही दृष्टिकोण हो सकता है, जो यह है कि इस तथ्य को स्वीकार लो, परमेश्वर ने जो आदेश दिया है उसके प्रति समर्पित हो जाओ और उन कार्यों को अच्छी तरह से पूरा करो जिन्हें परमेश्वर उन्हें पूरा करने के लिए कहता है—यह उसका रवैया था। और चूँकि नूह का ऐसा रवैया था—विश्लेषण न करना, जाँच-पड़ताल न करना, संदेह न करना; बल्कि अपने दिल की गहराइयों से विश्वास करना और फिर परमेश्वर द्वारा जो अपेक्षित था उसे पूरा करने का निर्णय लेना और परमेश्वर जो पूरा करना चाहता था उसमें अपने हिस्से की जिम्मेदारी पूरी करना—ठीक इसी वजह से नाव का निर्माण, हर प्रकार के जीवित प्राणी का संकलन और उसे जीवित रखने का कार्य पूरा हुआ। यदि उस समय, जब नूह ने परमेश्वर को यह कहते सुना कि वह जलप्रलय से संसार को नष्ट कर देगा, नूह को संदेह हुआ होता; यदि उसने उस बात पर पूर्ण विश्वास करने का साहस न किया होता, क्योंकि उसने न तो यह देखा था और न ही वह यह जानता था कि यह कब होगा, ऐसी बहुत-सी चीजें थीं जिनसे वह अनजान था तो क्या नाव बनाने के प्रति नूह का मानसिक ढाँचा और दृढ़-विश्वास प्रभावित हुआ होता, क्या यह बदल जाता? (हाँ।) कैसे बदल जाता? नाव बनाते समय उसने जैसे-तैसे काम किया होता या परमेश्वर के विनिर्देशों को अनदेखा कर दिया होता या जैसा परमेश्वर ने कहा था, उसने हर प्रकार के जीव को नाव में इकट्ठा न किया होता; परमेश्वर ने कहा था कि हर प्रजाति से एक नर और एक मादा होना चाहिए, जिसके जवाब में उसने कहा होता, “कुछ जीवों में तो सिर्फ मादा ही काफी हैं। उनमें से कुछ मिल नहीं रहे हैं, तो उन्हें छोड़ देते हैं। क्या पता दुनिया को तबाह करने वाली बाढ़ कब आएगी।” नाव के निर्माण और हर प्रकार के जीव को इकट्ठा करने के विशाल कार्य में 120 वर्ष लगे। यदि नूह को परमेश्वर के वचनों में सच्ची आस्था नहीं होती तो क्या नूह 120 वर्षों तक दृढ़ता से उस काम में जुटा रहता? बिल्कुल नहीं। अगर कोई व्यक्ति यह विश्वास नहीं करता कि परमेश्वर के वचन तथ्य हैं तो बाहरी दुनिया के हस्तक्षेप, घरवालों की विभिन्न शिकायतों के रहते उसके लिए नाव बनाने का कार्य पूरा करना ही बेहद मुश्किल होगा, इसमें 120 वर्ष लगने की बात तो छोड़ ही दो। पिछली बार, मैंने तुम लोगों से पूछा था कि क्या 120 साल का समय लंबा है। तुम लोगों ने कहा कि लंबा है। मैंने पूछा था कि तुम कितने समय टिक सकते हो और आखिर में जब मैंने पूछा कि क्या तुम 15 दिन टिक सकते हो, तो तुम में से किसी ने नहीं कहा कि टिक सकते हैं और मेरा दिल बैठ गया था। तुम लोग नूह से बेहद हीन हो। तुम उसके सिर के एक बाल के बराबर भी नहीं हो, तुम लोगों में उसकी आस्था का दसवाँ हिस्सा भी नहीं है। तुम लोग कितने दयनीय हो! एक बात तो यह है कि तुम लोगों की मानवता और ईमानदारी बहुत कम हैं। दूसरी बात यह है कि तुम लोगों में सत्य की खोज मूलतः नदारद है। इसलिए तुम लोग परमेश्वर में सच्ची आस्था पैदा करने में असमर्थ हो, न ही तुम लोगों में सच्चा समर्पण है। तो तुम लोग अब तक भी कैसे टिके हुए हो—ऐसा कैसे है कि मैं संगति कर रहा हूँ और तुम लोग अभी भी बैठकर सुन रहे हो? तुम लोगों में दो आयाम पाए गए हैं। एक ओर तो, तुममें से अधिकांश अभी भी अच्छे बने रहना चाहते हैं; तुम अच्छे मार्ग पर चलना चाहते हो। तुम बुरे लोग नहीं बनना चाहते। तुममें थोड़ा-बहुत यह संकल्प है, तुम्हारे अंदर यह थोड़ी-बहुत आकांक्षा है। वहीं तुममें से ज्यादातर लोग मौत से डरते हैं। तुम मौत से किस हद तक डरते हो? बाहरी दुनिया में परेशानी का लेश मात्र संकेत मिलने पर तुम में ऐसे लोग हैं जो अपना कर्तव्य निभाने में अतिरिक्त प्रयास लगाते हैं; और जब चीजें शांत हो जाती हैं, तो वे सुख-सुविधाओं में लिप्त हो जाते हैं और अपने कर्तव्य के प्रति बहुत शिथिल हो जाते हैं; वे हमेशा अपनी देह का ध्यान रखते हैं। अगर नूह की सच्ची आस्था से तुलना की जाए तो तुम लोगों में जो प्रकट होता है क्या उसमें कोई सच्ची आस्था होती है? (नहीं।) मुझे भी ऐसा ही लगता है। और अगर थोड़ी-बहुत आस्था है भी, तो बेहद अल्प है जो परीक्षणों के इम्तहान का सामना नहीं कर पाती।

मैंने कभी भी कोई काम की व्यवस्था नहीं बनाई है, लेकिन मैंने अक्सर उनकी प्रस्तावना में इस तरह के शब्दों के बारे में सुना है : “विभिन्न देश गंभीर रूप से अव्यवस्थित हैं, सांसारिक प्रवृत्तियाँ और अधिक दुष्ट होती जा रही हैं और परमेश्वर मानवजाति को दंडित करेगा; हमें ऐसा-ऐसा करके मानक-स्तर तक अपना कर्तव्य करना चाहिए और परमेश्वर को अपनी निष्ठा अर्पित करनी चाहिए।” “इन दिनों महामारियाँ बद से बदतर होती जा रही हैं, पर्यावरण और अधिक प्रतिकूल होता जा रहा है, आपदाएँ और भी गंभीर रूप धारण कर रही हैं, लोगों के सामने बीमारी और मृत्यु का खतरा मंडरा रहा है, हम इन महामारियों से तभी बच पाएँगे, जब हम परमेश्वर में विश्वास रखेंगे और उससे निरंतर प्रार्थना करेंगे, क्योंकि मात्र परमेश्वर ही हमारा आश्रय है। आजकल, जब हम ऐसी परिस्थितियों और ऐसे परिवेश का सामना कर रहे हैं, तो हमें ऐसा-ऐसा करके अच्छे कर्म तैयार करने चाहिए और ऐसा-ऐसा करके खुद को सत्य से सुसज्जित करना चाहिए—यह अनिवार्य है।” “इस साल का कीट संक्रमण विशेष रूप से गंभीर था, मानवजाति अकाल का सामना करेगी और जल्द ही लूटपाट और सामाजिक अस्थिरता का सामना करेगी, इसलिए जो लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं उन्हें अक्सर प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के सामने आना चाहिए और परमेश्वर से सुरक्षा माँगनी चाहिए, सामान्य कलीसियाई जीवन और एक सामान्य आध्यात्मिक जीवन को बनाए रखना चाहिए।” इत्यादि। और फिर एक बार प्रस्तावना बोल दिए जाने के बाद, विशिष्ट व्यवस्थाएँ शुरू होती हैं। हर बार इन प्रस्तावनाओं ने लोगों के विश्वास में एक सामयिक और निर्णायक भूमिका निभाई है। तो मैं सोचता हूँ, अगर ये प्रस्तावनाएँ और कथन न कहे गए होते, तो क्या ये कार्य-व्यवस्थाएँ न की जातीं? क्या कार्य-व्यवस्थाएँ इन प्रस्तावनाओं के बिना कार्य-व्यवस्थाएँ न रहतीं? क्या फिर भी उन्हें जारी करने का कोई कारण होता? इन प्रश्नों का उत्तर निश्चित रूप से ना है। अब मैं यह जानना चाहता हूँ कि लोगों का परमेश्वर में विश्वास करने का क्या उद्देश्य होता है? परमेश्वर में उनकी आस्था के क्या मायने हैं? लोग उन तथ्यों को समझते हैं या नहीं जिन्हें परमेश्वर पूरा करना चाहता है? लोगों को परमेश्वर के वचनों को कैसे लेना चाहिए? सृष्टिकर्ता जो कुछ कहता है, उसे लोगों को कैसे लेना चाहिए? क्या ये प्रश्न विचारणीय हैं? यदि लोगों को नूह के मानक पर रखा गया होता, तो मेरा विचार है कि उनमें से एक भी “सृजित प्राणी” की उपाधि के योग्य न होता। वह परमेश्वर के सामने आने योग्य न होता। अगर आज के लोगों की आस्था और समर्पण को नूह के प्रति परमेश्वर के रवैये और परमेश्वर द्वारा नूह को चुनने के मानकों से मापा जाता, तो क्या परमेश्वर उनसे संतुष्ट हो सकता था? (नहीं।) दूर-दूर तक भी नहीं! लोग हमेशा कहते हैं कि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं और उसकी आराधना करते हैं, लेकिन यह आस्था और आराधना उनमें कैसे अभिव्यक्त होती है? असल में, यह अभिव्यक्त होती है परमेश्वर पर उनकी निर्भरता के रूप में, उससे उनकी माँगों के रूप में, और साथ ही उसके प्रति उनके पक्के विद्रोह में, यहाँ तक कि देहधारी परमेश्वर के प्रति उनके तिरस्कार के रूप में। क्या इन सबको मानवजाति द्वारा सत्य की अवमानना और सिद्धांत का खुला उल्लंघन माना जा सकता है? वास्तव में, यही सच है—इसका यही सार है। जब भी कार्य-व्यवस्थाओं में ये शब्द शामिल होते हैं, तो लोगों की “आस्था” में वृद्धि हो जाती है; जब भी कार्य व्यवस्थाएँ जारी की जाती हैं, जब भी लोगों को कार्य-व्यवस्थाओं की आवश्यकताओं और मायने का एहसास होता है और वे उन्हें कार्यान्वित कर पाते हैं, तो उन्हें लगता है कि उनके समर्पण के स्तर में वृद्धि हो गई है और अब उनमें समर्पण आ गया है—लेकिन क्या उनमें वास्तव में आस्था और सच्चा समर्पण होता है? और नूह के मानक से मापे जाने पर यह कथित आस्था और समर्पण आखिर है क्या? यह वास्तव में एक प्रकार का लेन-देन है। इसे संभवतः आस्था और सच्चा समर्पण कैसे माना जा सकता है? लोगों की यह तथाकथित सच्ची आस्था क्या है? “अंत के दिन आ गए हैं—मुझे आशा है कि परमेश्वर शीघ्र ही कार्रवाई करेगा! यह कितना बड़ा आशीष है कि जब परमेश्वर दुनिया को नष्ट करेगा, तब मैं यहाँ रहूँगा, मैं इतना भाग्यशाली हूँ कि मैं बच जाऊँगा और विनाश का कहर नहीं झेलूँगा। परमेश्वर कितना नेक है, वह लोगों से बहुत प्रेम करता है, परमेश्वर कितना महान है! उसने मनुष्य को कितना ऊँचा उठाया है, परमेश्वर वास्तव में परमेश्वर है, केवल परमेश्वर ही ऐसे काम कर सकता है।” और उनका तथाकथित सच्चा समर्पण? “परमेश्वर जो कुछ भी कहता है, वह सही होता है। वह जो कुछ भी कहता है, वही करो; नहीं करोगे तो तुम्हें विनाशों में डुबो दिया जाएगा और तुम्हारे लिए सब-कुछ समाप्त हो जाएगा, फिर तुम्हें कोई नहीं बचा सकेगा।” उनकी आस्था सच्ची आस्था नहीं है और उनका समर्पण भी सच्चा समर्पण नहीं है—ये झूठ के अलावा कुछ नहीं हैं।

आज दुनिया में तकरीबन हर कोई नूह की नाव बनाने के बारे में जानता है, है ना? लेकिन अंदर की कहानी से कितने लोग वाकिफ हैं? नूह की सच्ची आस्था और समर्पण को कितने लोग समझते हैं? नूह के बारे में परमेश्वर का मूल्यांकन क्या था, इसे कौन जानता है और कौन उसकी परवाह करता है? इस ओर कोई ध्यान नहीं देता। यह क्या दर्शाता है? यह दर्शाता है कि लोग सत्य का अनुसरण और सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करते। पिछली बार, जब मैंने इन दो हस्तियों की कहानियों पर संगति की थी, तो क्या किसी ने जाकर बाइबल में इन कहानियों का विवरण पढ़ा? जब तुम लोगों ने नूह, अब्राहम और अय्यूब की कहानियाँ सुनीं तो क्या तुम प्रेरित हुए? (हाँ।) क्या तुम लोगों को इन तीन लोगों से ईर्ष्या होती है? (हाँ।) क्या तुम उनकी तरह बनना चाहते हो? (हाँ।) तो क्या तुम लोगों ने उनकी कहानियों के बारे में, उनके व्यवहार के सार के बारे में, परमेश्वर के प्रति उनके दृष्टिकोण, उनकी आस्था और समर्पण के बारे में विस्तृत संगति की? जो इन लोगों जैसे बनना चाहते हैं, उन्हें कहाँ से शुरुआत करनी चाहिए? बहुत पहले मैंने पहली बार अय्यूब की कहानी पढ़ी थी, और मुझे नूह और अब्राहम की कहानियों की भी कुछ समझ थी। हर बार जब मैं पढ़कर इस बारे में अपने दिल में सोचता हूँ कि उन तीन लोगों ने क्या प्रदर्शित किया, परमेश्वर ने उनसे क्या कहा और उनके साथ क्या किया, मैं उनके विभिन्न नजरियों के बारे में भी सोचता हूँ, लगता है जैसे मेरी आँखों से आँसू टपक पड़ेंगे—मैं भावुक हो जाता हूँ। जब तुम लोगों ने उन्हें पढ़ा तो तुम्हें किस बात ने भावुक किया? (परमेश्वर की संगति सुनने के बाद मुझे अंततः पता चला कि जब अय्यूब अपने परीक्षणों से गुजर रहा था, तो उसने सोचा कि परमेश्वर उसके लिए कष्ट सह रहा है, और चूँकि वह नहीं चाहता था कि परमेश्वर कष्ट सहे, इसलिए उसने उस दिन को ही कोसा जिस दिन वह पैदा हुआ था। हर बार जब मैंने इसे पढ़ा, तो मुझे लगा कि अय्यूब वास्तव में परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील था और मैं बहुत भावुक हुई।) और कुछ? (नूह ने नाव बनाते समय ऐसी कठिनाइयों का सामना किया, फिर भी वह परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशीलता दिखाने में सक्षम था। अब्राहम को 100 वर्ष की आयु में एक बच्चा प्रदान किया गया था और वह खुशी से भर गया था, लेकिन जब परमेश्वर ने उससे अपने बच्चे की बलि देने के लिए कहा, तो वह आज्ञापालन करने और समर्पण करने में सक्षम था, लेकिन हम ऐसा नहीं कर सकते। हमारे पास नूह या अब्राहम की मानवता, जमीर या विवेक नहीं है। जब मैं उनकी कहानियाँ पढ़ता हूँ तो प्रशंसा से भर जाता हूँ, और वे हमारे अनुगमन के लिए आदर्श हैं।) (पिछली बार जब तुमने संगति की थी तो तुमने उल्लेख किया था कि नूह नाव बनाने में 120 वर्षों तक डटे रहने में सक्षम रहा और उसने परमेश्वर द्वारा आदेशित चीजें उत्कृष्ट तरीके से पूरी कीं और परमेश्वर की अपेक्षाओं पर पानी नहीं फेरा। अपने कर्तव्य के प्रति अपने रवैये से इसकी तुलना करने पर मैं देखता हूँ कि मुझमें बिल्कुल भी दृढ़ता नहीं है। इससे मैं दोषी और साथ ही भावुक भी महसूस करता हूँ।) तुम सभी भावुक हुए हो, है न? (हाँ।) फिलहाल हम इस विषय पर संगति नहीं करेंगे; नूह और अब्राहम की कहानियाँ समाप्त करने के बाद हम इस सब पर चर्चा करेंगे। मैं तुम लोगों को बताऊँगा कि मुझे किन हिस्सों ने भावुक किया और हम देखेंगे कि क्या वे वही हिस्से हैं जिन्होंने तुम्हें भी भावुक किया।

हमने अभी परमेश्वर में नूह की सच्ची आस्था के बारे में संगति की। उसके द्वारा नाव बनाने के स्थापित तथ्य उसकी सच्ची आस्था दिखाने के लिए पर्याप्त हैं। नूह की सच्ची आस्था उसके हर क्रियाकलाप में, उसके हर विचार में और उस रवैये में प्रदर्शित होती है जिसके साथ उसने परमेश्वर की आज्ञा के अनुसार कार्य किया। यह परमेश्वर में नूह की सच्ची आस्था दर्शाने के लिए पर्याप्त है—वह आस्था जो किसी भी संदेह से परे है और किसी भी तरह की अशुद्धि से मुक्त है। परमेश्वर ने उससे जो कुछ करने के लिए कहा था, वह चाहे उसकी अपनी धारणाओं के अनुरूप हो या न हो, चाहे यह वो काम हो या न हो जिसे करने की उसने जीवन में योजना बनाई थी, चाहे उनका टकराव उसके जीवन की चीजों से कैसे भी रहा हो, चाहे वह कार्य कितना भी कठिन रहा हो, उसका बस एक ही दृष्टिकोण था : स्वीकृति, समर्पण और कार्यान्वयन। अंततः, तथ्य बताते हैं कि नूह द्वारा निर्मित नाव ने जीवों की प्रत्येक प्रजाति को बचाया, साथ ही नूह के अपने परिवार को भी बचाया। जब परमेश्वर बाढ़ ले आया और उसने मानवजाति को नष्ट करना शुरू किया तो नाव नूह के परिवार और विभिन्न प्रकार के जीवित प्राणियों को लेकर पानी पर तैरने लगी। परमेश्वर ने 40 दिनों तक भारी बाढ़ भेजकर पृथ्वी को नष्ट कर दिया और केवल नूह का आठ लोगों का परिवार और नाव में प्रवेश करने वाले विभिन्न जीवित प्राणी ही बच पाए, अन्य सभी लोग और जीवित चीजें नष्ट हो गईं। इन तथ्यों से क्या जाहिर होता है? चूँकि नूह में परमेश्वर के प्रति सच्ची आस्था और सच्चा समर्पण था—इसलिए परमेश्वर के साथ नूह के सच्चे सहयोग के माध्यम से—परमेश्वर जो कुछ भी करना चाहता था, वह सब पूरा हो गया; वह सब एक वास्तविकता बन गया। परमेश्वर ने नूह की इसी चीज की कद्र की और नूह ने भी परमेश्वर को निराश नहीं किया; वह उस महत्वपूर्ण कार्य पर खरा उतरा जो परमेश्वर ने उसे दिया था और वह सब काम पूरा किया जो परमेश्वर ने उसे सौंपा था। नूह परमेश्वर के आदेश को एक तो इसलिए पूरा कर पाया, क्योंकि परमेश्वर ने उसे ऐसा करने की आज्ञा दी थी और साथ ही मुख्यतः इसलिए भी कि नूह में परमेश्वर के प्रति सच्ची आस्था और पूर्ण समर्पण था। ठीक-ठीक चूँकि नूह में ये दो सबसे सँजोई हुई चीजें थीं इसलिए वह परमेश्वर का प्रिय बना; चूँकि नूह में सच्ची आस्था और पूर्ण समर्पण था, इसलिए परमेश्वर को लगा कि वह ऐसा व्यक्ति है जिसे जीवित रहना चाहिए, और ऐसा व्यक्ति जो जीवित रहने योग्य है। नूह के अलावा हर कोई परमेश्वर की घृणा का पात्र था, इसका आशय यह था कि वे सभी परमेश्वर की सृष्टि के बीच रहने योग्य नहीं थे। नूह के नाव बनाने से हमें क्या देखना चाहिए? एक ओर तो हमने नूह का महान चरित्र देखा है; नूह में जमीर और विवेक था। दूसरी ओर हमने परमेश्वर के प्रति नूह की सच्ची आस्था और सच्चा समर्पण देखा है। यह सब अनुकरणीय है। यह निश्चित रूप से परमेश्वर के आदेश के प्रति नूह की आस्था और समर्पण के कारण ही था कि नूह परमेश्वर की आँखों में प्रिय बन गया, ऐसा सृजित प्राणी बन गया जिसे परमेश्वर ने प्रेम किया—जो कि एक भाग्यशाली और धन्य होने वाली बात थी। ऐसे ही लोग परमेश्वर के मुखमंडल के प्रकाश में जीने योग्य होते हैं; परमेश्वर की दृष्टि में, केवल वही जीने योग्य होते हैं। जीने योग्य लोग : इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है वे लोग जो परमेश्वर द्वारा मानवजाति को प्रदान की गई उन सभी चीजों का आनंद लेने योग्य हैं जिनका आनंद लिया जा सकता है, जो परमेश्वर के मुखमंडल के प्रकाश में जीने योग्य हैं, जो परमेश्वर के आशीष और वादे प्राप्त करने योग्य हैं; ऐसे ही लोग परमेश्वर को प्रिय होते हैं, वे सच्चे सृजित इंसान होते हैं और ऐसे लोग होते हैं जिन्हें परमेश्वर प्राप्त करना चाहता है।

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