प्रकरण तीन : कैसे नूह और अब्राहम ने परमेश्वर के वचनों का पालन किया और उसके प्रति समर्पण किया (भाग दो) खंड एक
पिछली सभा में हमने मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों की दसवीं मद पर संगति की थी, “वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं।” हमने किन विवरणों पर विशेष रूप से संगति की थी? (परमेश्वर ने मुख्य रूप से इस बारे में संगति की कि परमेश्वर के वचन से कैसे पेश आना है।) क्या यह दसवीं मद से संबंधित है? (हाँ। क्योंकि “वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं” मद में मसीह-विरोधियों का एक व्यवहार यह है कि वे मसीह की कही हुई बातों को सुनते भर हैं, लेकिन न तो उसका पालन करते हैं और न ही उसके प्रति समर्पण करते हैं। वे परमेश्वर के वचनों का पालन नहीं करते और न ही वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करते हैं। पिछली सभा में परमेश्वर ने इस बारे में संगति की थी कि परमेश्वर के वचन से कैसे पेश आना है, परमेश्वर के वचन का पालन कैसे करें और फिर परमेश्वर के वचन को कैसे लागू और कार्यान्वित करें।) यह सब समझ में आता है, है ना? अपनी पिछली सभा के दौरान मैंने दो कहानियाँ सुनाई थीं : एक नूह की कहानी थी और दूसरी अब्राहम की। ये बाइबल की दो विशिष्ट कहानियाँ हैं। बहुत-से लोग इन कहानियों के बारे में जानते और समझते हैं, लेकिन समझने के बावजूद, बहुत कम लोग जानते हैं कि परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं से कैसे पेश आना है। तो इन दो कहानियों पर हमारे संगति करने का मुख्य उद्देश्य क्या था? उसका उद्देश्य लोगों को यह बताना था कि एक व्यक्ति और एक सृजित प्राणी के रूप में उन्हें परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं से कैसे पेश आना चाहिए—और यह बताना भी कि जब परमेश्वर की अपेक्षाएँ उनके सामने हों और जब वे उसके वचन सुन रहे हों, तो उन्हें एक सृजित प्राणी के रूप में कौन-सा स्थान लेना चाहिए और उनका रवैया क्या होना चाहिए। ये मुख्य बातें हैं। जब हमने पिछली बार इन दो कहानियों पर संगति की थी, तो यही वह सत्य था, जिसे लोगों को बताना और समझाना अभीष्ट था। तो इन दो कहानियों पर संगति करने के बाद, क्या तुम लोग अब इस बारे में स्पष्ट जान गए हो कि मसीह के प्रति समर्पण और उसके वचनों का पालन कैसे करना चाहिए, मसीह और मसीह द्वारा बोले गए वचनों के प्रति लोगों का रवैया कैसा होना चाहिए और उनका परिप्रेक्ष्य और स्थान क्या होना चाहिए, साथ ही उन्हें इस बारे में भी स्पष्ट होना चाहिए कि लोगों को परमेश्वर से आने वाले वचनों और अपेक्षाओं से कैसे पेश आना चाहिए और उनमें निहित कौन-से सत्य समझने चाहिए? (पहला है ईमानदार होना; दूसरा है आदर—यह सीखना कि मसीह का आदर कैसे किया जाए; और तीसरा—जो कि सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है—परमेश्वर के वचनों का पालन करना।) तुम्हें ये नियम याद हैं। अगर मैंने तुम्हें ये नियम न बताए होते तो क्या तुम लोग मेरी सुनाई दो कहानियों से उनका आसवन कर पाते? (हम केवल यही निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि परमेश्वर जो कुछ भी कहे, हमें उसका पालन करना चाहिए।) तुम लोग केवल कार्य करने के सरल, हठधर्मी और सैद्धांतिक तरीकों का ही आसवन कर सकते हो; तुम लोग अभी भी उन सत्यों को समझने या जानने में असमर्थ हो, जिन्हें लोगों को खोजना और समझना चाहिए। तो आओ, हम विस्तार से नूह और अब्राहम की कहानियों पर संगति करें।
I. परमेश्वर के वचनों के प्रति नूह का रवैया
पहले नूह की कहानी के बारे में बात करते हैं। पिछली सभा में हमने मोटे तौर पर नूह की कहानी के कारणों और परिणामों पर चर्चा की थी। हमने अधिक विशिष्टता से चर्चा क्यों नहीं की थी? क्योंकि ज्यादातर लोग इस कहानी के कारणों, परिणामों और विशिष्ट विवरणों को पहले से ही जानते हैं। यदि कोई ऐसे विवरण हैं जिन पर तुम बहुत स्पष्ट नहीं हो, तो वे तुम्हें बाइबल में मिल जाएँगे। हम जिस पर संगति कर रहे हैं, वह इस कहानी का विशेष विवरण नहीं है, बल्कि इस बारे में है कि कहानी के नायक नूह ने परमेश्वर के वचनों के प्रति क्या दृष्टिकोण अपनाया, लोगों को इससे सत्य के कौन-से पहलू समझने चाहिए और नूह द्वारा उठाए गए हर कदम को देखने के बाद परमेश्वर का रवैया क्या था, उसने क्या सोचा और नूह के बारे में उसका क्या आकलन था। हमें इन विवरणों पर संगति करनी चाहिए। नूह के प्रति परमेश्वर का रवैया और नूह ने जो किया उसके बारे में उसका मूल्यांकन हमें यह बताने के लिए पर्याप्त है कि परमेश्वर मानवजाति से, अपना अनुसरण करने वालों से और वह जिन्हें वह बचाता है उनसे, किन मानकों की अपेक्षा रखता है। क्या इसमें ऐसा कोई सत्य है जिसे खोजना चाहिए? जहाँ सत्य खोजा जाना हो, वहाँ विस्तार से गहन-विश्लेषण, मनन और संगति करना सार्थक है। हम नूह की कहानी के विशिष्ट विवरण पर नहीं जाएँगे। आज हम परमेश्वर के प्रति नूह के विभिन्न दृष्टिकोणों में खोजे जाने वाले सत्य, साथ ही परमेश्वर की उन अपेक्षाओं और इरादों पर संगति करेंगे जिन्हें लोगों को नूह के बारे में परमेश्वर के मूल्यांकन से समझना चाहिए।
नूह परमेश्वर की आराधना करने और उसका अनुसरण करने वाला एक साधारण इंसान था। जब उसने परमेश्वर के वचन सुने, तो उसका रवैया धीमी गति से आगे बढ़ने, विलंब करने या अपने समय से करने वाला नहीं था। बल्कि उसने परमेश्वर के वचनों को बड़ी गंभीरता से सुना, उसने परमेश्वर के प्रत्येक कथन को बड़ी सावधानी और ध्यान से सुना, परमेश्वर ने उसे जो भी आज्ञा दी, उसे ध्यानपूर्वक सुना और याद रखने की कोशिश की, थोड़ी-सी भी असावधानी बरतने की हिम्मत नहीं की। परमेश्वर और परमेश्वर के वचनों के प्रति उसके रवैये में परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय था, जो दर्शाता था कि उसके हृदय में परमेश्वर के लिए स्थान है और वह परमेश्वर के प्रति समर्पणशील है। उसने परमेश्वर की बात को, परमेश्वर के वचनों की विषयवस्तु को और परमेश्वर ने जो उससे करने के लिए कहा उसे ध्यान से सुना। उसने सारी बातें गौर से सुनी—विश्लेषण करने के बजाय उसने उन्हें स्वीकार किया। उसके हृदय में न तो कोई अस्वीकृति थी, न विमुखता की भावना थी और न ही कोई अधीरता थी; बल्कि उसने परमेश्वर की अपेक्षाओं से संबंधित हर वचन और चीज को अपने हृदय में शांति से, सावधानी से और ध्यान से अंकित कर लिया। परमेश्वर द्वारा दिए गए निर्देशों के बाद, नूह ने विस्तार से और अपने तरीके से, वह सब दर्ज कर लिया जो परमेश्वर ने कहा और उसे सौंपा था। उसके बाद उसने अपनी मेहनत-मजदूरी त्याग दी, अपने पुराने जीवन की दिनचर्या और योजनाएँ छोड़ दीं, और उन कामों को करने की तैयारी शुरू कर दी जो परमेश्वर ने उसे सौंपा था, और उस नाव के लिए आवश्यक सभी सामग्री जुटानी शुरू कर दी जो परमेश्वर ने उसे बनाने के लिए कहा था। उसने परमेश्वर के किसी भी वचन की या परमेश्वर की किसी भी अपेक्षा की या परमेश्वर के वचनों में उससे जो कुछ भी अपेक्षा की गई थी उसके किसी भी विवरण की उपेक्षा करने की हिम्मत नहीं की। उसने अपने तरीके से उन सभी मुख्य बिंदुओं और विवरणों को दर्ज कर लिया, जो परमेश्वर ने उससे कहे थे और उसे सौंपे थे, फिर उसने उन पर बार-बार विचार और चिंतन किया। उसके बाद नूह उन सारी सामग्रियों की खोज में निकल पड़ा जिसे परमेश्वर ने तैयार करने के लिए कहा था। स्वाभाविक रूप से, परमेश्वर के दिए प्रत्येक निर्देश के बाद उसने परमेश्वर ने उसे जो कुछ सौंपा था और जो करने का निर्देश दिया था, उसके लिए अपने तरीके से विस्तृत योजनाएँ और व्यवस्थाएँ बनाईं—और फिर उसने सिलसिलेवार ढंग से अपनी योजनाओं और व्यवस्थाओं को लागू और कार्यान्वित किया और हर उस विवरण और व्यक्तिगत कदम को लागू और कार्यान्वित किया जिसकी अपेक्षा परमेश्वर ने की थी। पूरी प्रक्रिया के दौरान, नूह ने जो कुछ भी किया, चाहे वह बड़ा हो या छोटा, चाहे वह इंसान की दृष्टि में उल्लेखनीय हो या न हो, वह वही था जिसे करने के लिए उसे परमेश्वर ने निर्देश दिया था, और वही था जिसके बारे में परमेश्वर ने कहा था और परमेश्वर द्वारा अपेक्षित था। परमेश्वर के आदेश को स्वीकार करने के बाद नूह में जो कुछ भी प्रदर्शित हुआ, उससे यह स्पष्ट है कि परमेश्वर के वचनों के प्रति उसका रवैया मात्र सुन लेने और कुछ न करने का नहीं था—नूह का ऐसा रवैया तो बिल्कुल भी नहीं था कि इन वचनों को सुनने के बाद नूह ने ऐसा समय चुना जब वह अच्छे मूड में था, जब वातावरण सही था, या जब समय इस कार्य को करने के लिए अनुकूल था। इसके बजाय, उसने अपना काम-धंधा छोड़ दिया, अपनी दिनचर्या तोड़ दी, और तब से परमेश्वर द्वारा आदेशित नाव के निर्माण को अपने जीवन और अस्तित्व की सबसे बड़ी प्राथमिकता बना लिया और उसे तदनुसार कार्यान्वित किया। परमेश्वर के आदेश और परमेश्वर के वचनों के प्रति उसका रवैया उदासीन, अनमना या मनमौजी नहीं था, अस्वीकृति का तो बिल्कुल नहीं था; इसके बजाय, उसने परमेश्वर के वचनों को ध्यान से सुना, और उन्हें पूरे दिल से याद रखा और उन पर विचार किया। परमेश्वर के वचनों के प्रति उसका रवैया स्वीकृति और समर्पण का था। परमेश्वर की दृष्टि में, सिर्फ यही वह रवैया है जो परमेश्वर के वचनों के प्रति एक सच्चे सृजित प्राणी का होना चाहिए, जो वह चाहता है। इस रवैये में न तो कोई अस्वीकृति थी, न कोई लापरवाही थी, न कोई उच्छृंखलता थी और न ही इंसानी मंशा की कोई मिलावट थी; यह पूर्णतया और सर्वथा ऐसा रवैया था जो एक सृजित मनुष्य का होना चाहिए।
परमेश्वर के आदेश को स्वीकार करने के बाद, नूह ने योजना बनानी शुरू की कि परमेश्वर ने नाव बनाने का जो कार्य उसे सौंपा है, उसे कैसे पूरा किया जाए। उसने नाव के निर्माण के लिए विभिन्न सामग्री, लोगों और आवश्यक उपकरणों की तलाश शुरू कर दी। जाहिर है, इसमें बहुत-सी चीजें शामिल थीं; यह उतना आसान नहीं था जितना ग्रंथों में दिखता है। उस पूर्व-औद्योगिक युग में, जिसमें सब-कुछ हाथ से किया जाता था, शारीरिक श्रम से किया जाता था, यह कल्पना करना मुश्किल नहीं है कि ऐसी विशालकाय नाव बनाना, परमेश्वर द्वारा सौंपा गया नाव बनाने का कार्य पूरा करना कितना कठिन था। बेशक, नूह ने जिस तरह से योजना बनाई, तैयारी की, रूपरेखा बनाई, सामग्री और औजार जैसी विभिन्न चीजें ढूँढ़ी, वह कोई साधारण बात नहीं थी, और नूह ने शायद इतनी बड़ी नाव कभी देखी भी नहीं होगी। इस आदेश को स्वीकार लेने के बाद, परमेश्वर के वचनों का आशय समझते हुए और परमेश्वर ने जो कुछ कहा था उससे आँकते हुए, नूह जानता था कि यह कोई आसान मामला नहीं है, कोई सरल कार्य नहीं है। यह कोई सरल या आसान काम नहीं था—इसके क्या निहितार्थ थे? इसका एक मायना तो यही था कि इस आदेश को स्वीकारने के बाद नूह के कंधों पर भारी बोझ होगा। इसके अलावा, यह देखते हुए कि कैसे परमेश्वर ने व्यक्तिगत रूप से नूह को बुलाया और व्यक्तिगत रूप से निर्देश दिया कि नाव किस तरह बनानी है, यह कोई साधारण बात नहीं थी, यह कोई छोटी बात नहीं थी। परमेश्वर ने जो कुछ भी कहा, उसके विवरण को देखते हुए, इसे कोई साधारण व्यक्ति नहीं सँभाल सकता था। यह तथ्य कि परमेश्वर ने नूह को बुलाकर उसे नाव बनाने का आदेश दिया, दर्शाता है कि नूह परमेश्वर के हृदय में कितना महत्व रखता था। जब इस मामले की बात आई, तो, नूह बेशक परमेश्वर के कुछ इरादे समझने में सक्षम था—और समझ लेने पर, नूह को एहसास हुआ कि आने वाले वर्षों में उसे किस तरह के जीवन का सामना करना पड़ेगा और वह कुछ उन कठिनाइयों से भी अवगत था जो उसके जीवन में आने वाली थीं। हालाँकि नूह को इस बात का एहसास और समझ थी कि परमेश्वर ने उसे जो काम सौंपा है वह कितना मुश्किल है और उसे कितने बड़े इम्तहानों से गुजरना होगा, लेकिन उस काम को नकारने का उसका कोई इरादा नहीं था, बल्कि वह यहोवा परमेश्वर का अत्यंत आभारी था। नूह आभारी क्यों था? क्योंकि परमेश्वर ने अप्रत्याशित रूप से उसे बहुत ही महत्वपूर्ण काम सौंप दिया था और व्यक्तिगत रूप से उसे हर विवरण बताया और समझाया था। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि परमेश्वर ने नूह को शुरू से लेकर अंत तक की पूरी कहानी भी बता दी थी कि नाव क्यों बनानी है। यह परमेश्वर की अपनी प्रबंधन योजना का मामला था, यह परमेश्वर का अपना काम था, लेकिन परमेश्वर ने उसे इस मामले के बारे में बताया था, इसलिए नूह ने इसके महत्व को समझा। संक्षेप में, इन विभिन्न संकेतों से, परमेश्वर की बातचीत के लहजे और परमेश्वर ने नूह को जो कुछ बताया, उन तमाम पहलुओं को देखते हुए, नूह नाव बनाने के कार्य के महत्व को समझ पाया जिसे परमेश्वर ने उसे सौंपा था, वह अपने दिल में इसका महत्त्व समझ गया और उसने इसे हल्के में लेने या किसी बात को नजरअंदाज करने की हिम्मत नहीं की। इसलिए जब परमेश्वर ने अपने निर्देश देना समाप्त कर दिया, तो नूह ने अपनी योजना तैयार कर ली, और वह नाव बनाने के लिए व्यवस्थाएँ करने, श्रम शक्ति तलाशने, तमाम तरह की सामग्री तैयार करने और परमेश्वर के वचनों के अनुसार, धीरे-धीरे विभिन्न प्रकार के जीवित प्राणियों को नाव में इकट्ठा करने के काम में जुट गया।
नाव बनाने की पूरी प्रक्रिया कठिनाइयों से भरी थी। फिलहाल, आओ इस बात को एक तरफ रखते हैं कि नूह ने साल-दर-साल तेज हवाओं, चिलचिलाती धूप, भीषण बारिश, भयंकर सर्दी-गर्मी और चार बदलते मौसमों से कैसे पार पाया। आओ, पहले यह बात करते हैं कि नाव बनाना कितना विराट उपक्रम था, विभिन्न सामग्रियों की उसकी तैयारी क्या थी और नाव के निर्माण के दौरान उसे किन बेशुमार कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उसके सामने कौन-कौन-सी कठिनाइयाँ आईं? लोगों की धारणाओं के विपरीत, कुछ शारीरिक श्रम वाले काम हमेशा पहली बार में ही सही नहीं हो जाते, और नूह को असफलताओं से गुजरना पड़ा; कोई काम पूरा करने के बाद, अगर वह गलत लगता, तो वह उसे अलग कर देता और अलग करने के बाद उसे सामग्री तैयार करनी पड़ती, और यह सब फिर से करना पड़ता। यह आधुनिक युग की तरह नहीं था, जहाँ हर व्यक्ति हर चीज इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से करता है, एक बार किसी काम को व्यवस्थित कर दिया तो फिर सबकुछ एक निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार कार्यान्वित हो जाता है। आज जब ऐसा कोई काम किया जाता है, तो वह मशीनीकृत होता है, और जब तुम मशीन चालू कर देते हो, वह काम पूरा कर देती है। लेकिन नूह आदिम समाज के युग में रह रहा था, जब सारा काम हाथ से किया जाता था और तुम्हें सारा काम अपने दोनों हाथों से, अपनी आँखों और दिमाग तथा अपनी मेहनत और ताकत का इस्तेमाल करके करना पड़ता था। बेशक, सबसे बढ़कर, लोगों को परमेश्वर पर भरोसा करने की जरूरत होती थी; उन्हें हर जगह, हर समय परमेश्वर को खोजने की जरूरत होती थी। तमाम तरह की कठिनाइयों का सामना करने की प्रक्रिया में और नाव बनाने में बिताए दिनों और रातों में इस विशालकाय काम को करते समय, नूह को न केवल विभिन्न हालात का सामना करना पड़ रहा था, बल्कि उसे अपने आस-पास की विभिन्न परिस्थितियों से भी जूझना पड़ रहा था, उसे लोगों के उपहास, बदनामी और गाली-गलौज का शिकार भी होना पड़ता था। हालाँकि हमने व्यक्तिगत रूप से उन दृश्यों के घटित होने पर उनका अनुभव नहीं किया, लेकिन क्या नूह ने जिन विभिन्न कठिनाइयों का सामना और अनुभव किया और जो विभिन्न चुनौतियाँ उसके सामने आईं, क्या उनमें से कुछ की कल्पना करना संभव नहीं है? नाव बनाने के दौरान जिस पहली चीज का नूह को सामना करना पड़ा, वह थी अपने परिवार की नासमझी, उनकी नुक्ताचीनी, शिकायतें, यहाँ तक कि बदनामी भी। दूसरी चीज थी आसपास के लोगों—उसके रिश्तेदारों, दोस्तों और हर तरह के दूसरे लोगों द्वारा उसकी निंदा, उपहास और आलोचना। लेकिन नूह का केवल एक ही रवैया था, और वह था परमेश्वर के वचनों का पालन करना, उन्हें अंत तक कार्यान्वित करना और इससे कभी न डगमगाना। नूह ने क्या तय किया था? “जब तक मैं जीवित हूँ, जब तक मैं चल-फिर सकता हूँ, तब तक मैं परमेश्वर के आदेश को नहीं छोड़ूँगा।” इतनी विशालकाय नाव के निर्माण कार्य के पीछे यही उसकी प्रेरणा थी, परमेश्वर की आज्ञा मिलने और उसके वचन सुनने के बाद यही उसका रवैया था। तमाम तरह की परेशानियों, कठिन स्थितियों और चुनौतियों का सामना करते हुए, नूह कभी पीछे नहीं हटा। जब उसके कुछ चुनौतीपूर्ण और जटिल कार्य अक्सर नाकाम हो जाते थे और नुकसान हो जाता था तो भले ही नूह अपने दिल में परेशान और चिंतित महसूस करता था, फिर भी जब वह परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचता, जब उसे परमेश्वर के आदेश के तमाम वचन याद आते, यह याद आता कि कैसे परमेश्वर ने उसे ऊँचा उठाया है तो अक्सर उसके अंदर प्रेरणा और स्फूर्ति भर जाती : “मैं हार नहीं मान सकता, परमेश्वर ने मुझे जो आज्ञा दी है और जो कार्य मुझे सौंपा है, मैं उसे छोड़ नहीं सकता; यह परमेश्वर का आदेश है और चूँकि मैंने इसे स्वीकार किया है, मैंने परमेश्वर के वचन और उसकी वाणी सुनी है, चूँकि मैंने इसे परमेश्वर से स्वीकार किया है, तो मुझे पूरी तरह से समर्पण करना चाहिए और यही वह है जिसे मनुष्य को हासिल करना चाहिए।” इसलिए चाहे उसे कैसी भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, कैसे भी तरह के उपहास या बदनामी का सामना करना पड़ा, उसका शरीर कितना भी कमजोर हुआ, कितना भी थका, लेकिन उसने परमेश्वर द्वारा सौंपा गया काम नहीं छोड़ा, उसने परमेश्वर की कही हर बात और आज्ञा को लगातार दिलो-दिमाग में रखा। चाहे उसके परिवेश जैसे भी बदले, चाहे उसने कैसी भी भयंकर कठिनाइयों का सामना किया, उसे भरोसा था कि इनमें से कुछ भी हमेशा नहीं रहेगा, कि केवल परमेश्वर के वचन ही कभी भी समाप्त नहीं होंगे और केवल वही जो परमेश्वर ने करने की आज्ञा दी है, निश्चित रूप से पूरा होगा। नूह को परमेश्वर में सच्ची आस्था थी और उसमें वह समर्पण था जो उसमें होना चाहिए था, उसने वह नाव बनाना जारी रखा जिसके निर्माण के लिए परमेश्वर ने उसे आदेश दिया था। दिन गुजरते गए, साल गुजरते गए और नूह बूढ़ा हो गया, लेकिन उसका विश्वास कम नहीं हुआ, परमेश्वर का आदेश पूरा करने के उसके रवैये और दृढ़-संकल्प में कोई बदलाव नहीं आया। यद्यपि ऐसा भी समय आया जब उसका शरीर थकने लगा, उसे कमजोरी महसूस होने लगी और वह बीमार पड़ गया, दिल से वह कमजोर हो गया, लेकिन परमेश्वर के आदेश को पूरा करने और उसके वचनों के प्रति समर्पण करने का उसका संकल्प और दृढ़ता कम नहीं हुई। जिन वर्षों में नूह ने नाव बनाई, उनमें वह परमेश्वर द्वारा कहे गए वचनों को सुनने और उनके प्रति समर्पण करने का अभ्यास कर रहा था, और वह परमेश्वर का आदेश पूरा करने के लिए जरूरी एक सृजित प्राणी और साधारण व्यक्ति के एक महत्वपूर्ण सत्य का अभ्यास भी कर रहा था। साफ तौर पर, पूरी प्रक्रिया वास्तव में केवल एक ही चीज थी : नाव का निर्माण; परमेश्वर के आदेश का अच्छे से कार्यान्वयन करना और उसे पूरा करना। लेकिन इस काम को ठीक से करने और इसे सफलतापूर्वक पूरा करने के लिए क्या आवश्यक था? इसके लिए लोगों के उत्साह या उनके नारों की आवश्यकता नहीं थी, क्षणिक सनक में ली गई कसमों की तो बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं थी न ही सृष्टिकर्ता के लिए लोगों की तथाकथित प्रशंसा की आवश्यकता थी। उस कार्य को इन चीजों की आवश्यकता नहीं थी। नूह के नाव के निर्माण के सामने लोगों की तथाकथित प्रशंसा, उनकी कसमें, उनका जोश, और अपने आध्यात्मिक संसार में परमेश्वर में उनका विश्वास, ये सब बिल्कुल भी किसी काम के नहीं हैं; परमेश्वर में नूह की सच्ची आस्था और समर्पण के सामने लोग बहुत बेचारे, दयनीय लगते हैं, और जो थोड़े-से सिद्धांत वे समझते हैं, वे बहुत ही खोखले, फीके, दुर्बल और कमजोर लगते हैं—उनके शर्मनाक, तुच्छ और घिनौने होने का तो उल्लेख ही क्या करना।
नाव बनाने में नूह को 120 साल लगे। ये 120 वर्ष, कोई 120 दिन या 10 वर्ष या 20 वर्ष नहीं थे, बल्कि आज के किसी सामान्य व्यक्ति की संभावित आयु से दशकों अधिक थे। नाव बनाने में लगने वाले समय की अवधि, उसे पूरा करने में आने वाली कठिनाई और उसकी अभियांत्रिकी के पैमाने को देखा जाए तो अगर नूह को सच्ची आस्था न होती, यदि उसका विश्वास मात्र एक विचार होता, केवल उम्मीदों का सहारा, जोश या एक तरह का अस्पष्ट और अमूर्त विश्वास होता तो क्या नाव कभी पूरी हुई होती? यदि परमेश्वर के प्रति उसका समर्पण केवल एक मौखिक प्रतिज्ञा होती, यदि वह केवल कलम से लिखा गया एक नोट होता, जैसा कि आजकल तुम लोग बनाते हो, तो क्या नाव का निर्माण हो पाता? (नहीं।) यदि परमेश्वर के आदेश को स्वीकारने के प्रति उसका समर्पण मात्र इच्छा और दृढ़ संकल्प, एक अभिलाषा से ज्यादा कुछ न होता, तो क्या नाव का निर्माण किया जा सकता था? यदि परमेश्वर के प्रति नूह का समर्पण केवल त्याग, व्यय और कीमत चुकाने की औपचारिकताओं से होकर गुजरना होता या केवल अधिक कार्य करने, अधिक कीमत चुकाने और सिद्धांत रूप में या नारों के संदर्भ में परमेश्वर के प्रति वफादार होना होता, तो क्या नाव का निर्माण संभव था? (नहीं।) इसे करना बहुत कठिन होता! यदि परमेश्वर के आदेश को स्वीकारने के प्रति नूह का रवैया एक प्रकार का लेन-देन होता, यदि नूह ने इसे केवल आशीष और पुरस्कार पाने के लिए स्वीकारा होता, तो क्या नाव का निर्माण संभव था? बिल्कुल नहीं! किसी व्यक्ति का उत्साह 10-20 साल या 50-60 साल तक बना रह सकता है, लेकिन जब मृत्यु उसके दरवाजे पर आ खड़ी होती है, तो यह देखकर कि उसे कुछ हासिल नहीं हुआ है, परमेश्वर में उसकी आस्था जाती रहेगी। यह उत्साह जो 20, 50 या 80 वर्षों तक कायम रहता है, समर्पण या सच्ची आस्था नहीं बनता। यह बहुत दुखद है। आज के लोगों में नूह जैसी सच्ची आस्था और सच्चे समर्पण की ही कमी है, यही वे चीजें हैं जिन्हें आज के लोग देख नहीं पाते, और वे उनका तिरस्कार और उपहास करते हैं, यहाँ तक कि नाक-भौं भी सिकोड़ते हैं। नूह के नाव बनाने की कहानी सुनाने पर हमेशा एक जबर्दस्त बहस छिड़ जाती है। हर कोई उस पर बोलना चाहता है, हर एक के पास बोलने को कुछ न कुछ होता है। लेकिन इस पर कोई विचार नहीं करता या यह पता लगाने की कोशिश नहीं करता कि नूह में क्या पाया जाता था, उसका अभ्यास का मार्ग क्या था, उसके अंदर परमेश्वर द्वारा अपेक्षित किस तरह का रवैया और परमेश्वर की आज्ञाओं के प्रति कैसा नजरिया था, या परमेश्वर के वचन सुनने और उनका अभ्यास करने की बात आने पर उसमें कौन-सा चरित्र होता था। इसलिए, मैं कहता हूँ कि आज के लोग नूह की कहानी सुनाने की योग्यता नहीं रखते, क्योंकि जब कोई यह कहानी सुनाता है, तो वह नूह को एक पौराणिक चरित्र के अलावा कुछ नहीं मानता, यहाँ तक कि वह उसे एक सफेद दाढ़ी वाला साधारण बूढ़ा व्यक्ति समझता है। वे लोग अपने मन में यह सवाल उठाते हैं कि क्या वास्तव में ऐसा कोई व्यक्ति था भी, वह वास्तव में कैसा था, वे इस बात को समझने की कोशिश नहीं करते कि परमेश्वर के आदेश को स्वीकारने के बाद नूह ने वे अभिव्यक्तियाँ कैसे प्रदर्शित कीं। आज जब हम नूह के नाव के निर्माण की कहानी पर फिर से विचार कर रहे हैं, तो तुम्हें यह घटना बड़ी लगती है या छोटी? क्या यह एक बूढ़े आदमी की साधारण-सी कहानी है, जिसने बीते समय में नाव बनाई थी? (नहीं।) सभी मनुष्यों में नूह परमेश्वर का भय मानने, परमेश्वर के प्रति समर्पित होने और परमेश्वर का आदेश पूरा करने का प्रतीक था, जो कि सर्वाधिक अनुकरणीय है; उसका परमेश्वर द्वारा अनुमोदन किया गया था, और आज परमेश्वर का अनुसरण करने वालों के लिए वह एक आदर्श होना चाहिए। और उसके बारे में सबसे अनमोल बात क्या थी? परमेश्वर के वचनों के प्रति उसका केवल एक ही दृष्टिकोण था : सुनना और स्वीकारना, स्वीकारना और समर्पित होना, और मृत्युपर्यंत समर्पित होना। उसका यह रवैया ही था, जो सबसे अनमोल था, जिसने उसे परमेश्वर की स्वीकृति दिलाई। जब परमेश्वर के वचनों की बात आई, तो वह लापरवाह नहीं रहा, उसने बेमन से प्रयास नहीं किया, और उसने अपने दिमाग में उनकी जाँच-पड़ताल, विश्लेषण, विरोध या उन्हें अस्वीकार कर अपने दिमाग में पीछे नहीं धकेला; इसके बजाय, उसने उन्हें गंभीरता से सुना, धीरे-धीरे अपने हृदय में उन्हें स्वीकार किया, और फिर इस बात पर विचार किया कि उन्हें अभ्यास में कैसे लाया जाए, उन्हें विकृत किए बिना उस तरह कैसे कार्यान्वित किया जाए, जैसा कि मूल रूप में अभीष्ट था। और जिस समय उसने परमेश्वर के वचनों पर विचार किया, उसी समय उसने अपने आप से अकेले में कहा, “ये परमेश्वर के वचन हैं, ये परमेश्वर के निर्देश हैं, परमेश्वर के आदेश हैं, मैं कर्तव्यबद्ध हूँ, मुझे समर्पण करना चाहिए, मैं कुछ भी नहीं छोड़ सकता, मैं परमेश्वर की किसी भी इच्छा के विरुद्ध नहीं जा सकता, न ही मैं उसके द्वारा कही गई बातों में से किसी चीज को नजरअंदाज कर सकता हूँ, अन्यथा मैं मानव कहलाने के योग्य नहीं हूँगा, मैं परमेश्वर के आदेश के योग्य नहीं हूँगा, और उसके द्वारा उन्नत किए जाने के योग्य नहीं हूँगा। इस जीवन में, अगर मैं वह सब पूरा करने में असफल रहता हूँ जो परमेश्वर ने मुझे बताया और सौंपा है, तो मेरे पास पछतावा ही रह जाएगा। इससे भी बढ़कर, मैं परमेश्वर के आदेश और उसके द्वारा उन्नत किए जाने के योग्य नहीं रहूँगा, और मेरा सृष्टिकर्ता के सामने लौटने का मुँह नहीं होगा।” वह सब, जो नूह ने अपने दिल में सोचा और विचारा था, उसका हर दृष्टिकोण और रवैया, इन सभी ने निर्धारित किया कि वह अंततः परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाने, और परमेश्वर के वचनों को वास्तविकता बनाने, परमेश्वर के वचनों को फलीभूत करने, और ऐसा करने में सक्षम था कि वे उसके कठिन परिश्रम के माध्यम से पूरे और संपन्न हो जाएँ और उसके माध्यम से वास्तविकता में बदल जाएँ, और परमेश्वर का आदेश व्यर्थ न जाए। नूह ने जो कुछ भी सोचा, उसके दिल में उठने वाले हर विचार और परमेश्वर के प्रति उसके रवैये को देखते हुए, नूह परमेश्वर के आदेश के योग्य था, वह परमेश्वर के भरोसे का व्यक्ति था, और एक ऐसा व्यक्ति था जिस पर परमेश्वर की कृपादृष्टि थी। परमेश्वर लोगों का हर शब्द और कर्म देखता है, वह उनके विचार और मत देखता है। परमेश्वर की दृष्टि में, नूह के लिए ऐसा सोचने में सक्षम होने का अर्थ था कि उसने गलत चुनाव नहीं किया था; नूह परमेश्वर के आदेश और भरोसे को अपने कंधों पर उठा सकता था और वह परमेश्वर का आदेश पूरा करने में सक्षम था : वह पूरी मानवजाति के बीच एकमात्र विकल्प था।
परमेश्वर की दृष्टि में नाव बनाने जैसा बड़ा काम करने के लिए नूह ही उसका एकमात्र विकल्प था। तो नूह में परमेश्वर ने ऐसा क्या पाया? नूह में परमेश्वर ने दो चीजें पाईं : सच्ची आस्था और सच्चा समर्पण। परमेश्वर के हृदय में, ये वे मानक हैं जिनकी उसे लोगों से अपेक्षा है। सरल, है न? (हाँ।) “एकमात्र विकल्प” में ये दो चीजें थीं, चीजें जो इतनी सरल हैं—फिर भी नूह के अलावा ये किसी और में नहीं पाई जातीं। कुछ लोग कहते हैं, “ऐसा कैसे हो सकता है? हमने अपने परिवार और करियर छोड़ दिए, हमने अपना काम, संभावनाएँ और शिक्षा त्याग दी, अपनी संपत्तियाँ और बच्चे त्याग दिए। देखो हमारी आस्था कितनी महान है, हम परमेश्वर से कितना प्रेम करते हैं! हम नूह से कमतर कैसे हैं? अगर परमेश्वर हमसे नाव बनाने के लिए कहे तो—ठीक है, आधुनिक उद्योग अत्यधिक विकसित है, क्या हमारी पहुँच में लकड़ी और ढेर सारे औजार नहीं हैं? हम भी मशीनों का उपयोग करके तपती धूप में काम कर सकते हैं; हम भी सुबह से शाम तक काम कर सकते हैं। ऐसा छोटा-सा काम करना कौन-सी बड़ी बात है? नूह को 100 साल लगे, लेकिन हम इसे कम समय में पूरा कर लेंगे, ताकि परमेश्वर को चिंता न हो—हमें इसमें सिर्फ 10 साल लगेंगे। तुमने कहा कि नूह ही एकमात्र विकल्प था, लेकिन आज कई उत्तम उम्मीदवार हैं; हम जैसे लोग जिन्होंने अपने परिवार और करियर त्याग दिए हैं, जिन्हें परमेश्वर में सच्ची आस्था है, जो सच में खुद को खपाते हैं—वे सभी उत्तम उम्मीदवार हैं। तुम कैसे कह सकते हो कि नूह ही एकमात्र विकल्प था? तुम हमें बहुत तुच्छ समझते हो, है न?” क्या इन शब्दों के साथ कोई समस्या है? (हाँ, है।) कुछ लोग कहते हैं, “नूह के समय में विज्ञान और प्रौद्योगिकी अभी भी बहुत अविकसित थे, उसके पास बिजली नहीं थी, आधुनिक मशीनें नहीं थीं, यहाँ तक कि सबसे सरल इलेक्ट्रिक ड्रिल और बिजली की आरा-मशीनें या कीलें भी नहीं थीं। आखिर उसने नाव बनाई कैसे? आज तो हमारे पास ये सब चीजें हैं। क्या हमारे लिए यह आदेश पूरा करना बेहद आसान नहीं हो गया है? यदि परमेश्वर आकाश में बैठकर हमसे कहे कि हमें एक नाव बनानी है, तो एक छोड़ो—हम ऐसी 10 नाव बना सकते हैं। यह काम तो हमारे लिए बाएँ हाथ का खेल होगा। परमेश्वर, तू जो चाहे हमें वह काम करने का आदेश दे। तुझे जो भी चाहिए, बस हमें बता दे। हममें से बहुतों के लिए नाव बनाना बिल्कुल भी मुश्किल नहीं होगा! हम 10, 20, यहाँ तक कि 100 नाव भी बना सकते हैं। तुम जितनी चाहे उतनी नाव बना सकते हो।” क्या चीजें इतनी सरल हैं? (नहीं।) जैसे ही मैं कहता हूँ कि नूह एकमात्र विकल्प था, तो कुछ लोग मेरे साथ विवाद में उलझना चाहते हैं, वे आश्वस्त नहीं हो पाते : “तुम पूर्वजों के बारे में अच्छा सोचते हो क्योंकि वे यहाँ नहीं हैं। आज के लोग तुम्हारे सामने हैं, लेकिन तुम्हें उनमें कोई अच्छाई दिखाई नहीं देती। तुम्हें आज के लोगों के किए हुए अच्छे काम, उनके अच्छे कर्म दिखाई ही नहीं देते। नूह ने तो बस एक छोटा-सा काम किया था; क्या इसकी वजह यह नहीं है कि उस समय कोई उद्योग नहीं था और कठोर शारीरिक श्रम करना पड़ता था, तुम्हें लगता है उसने जो किया वह याद रखने लायक था, तुम उसे एक उदाहरण, एक आदर्श मानते हो और आज के लोगों के कष्टों और हम तुम्हारे लिए जो कीमत चुकाते हैं उसके प्रति और हमारी आस्था के प्रति आँखें मूँदे रहते हो?” क्या ऐसी बात है? (नहीं।) कोई भी काल या युग हो, लोग चाहे किसी भी तरह की स्थितियों या परिवेश में रहते हों, ये भौतिक वस्तुएँ और सामान्य परिवेश मायने नहीं रखते, वे चीजें महत्वपूर्ण नहीं होतीं। महत्वपूर्ण क्या है? यह महत्वपूर्ण नहीं है कि तुम किस युग में रहते हो या तुमने किसी तकनीक में महारत हासिल की है या नहीं, और न ही यह महत्वपूर्ण है कि तुमने परमेश्वर के कितने वचन पढ़े या सुने हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि लोगों में सच्ची आस्था है या नहीं, उनमें सच्चा समर्पण है या नहीं। ये दो चीजें सबसे महत्वपूर्ण होती हैं और इनमें से किसी एक भी चीज की कमी न हो। यदि तुम लोग नूह के कालखंड में होते, तो तुम में से कौन इस आदेश को पूरा कर पाता? मैं यह कहने का साहस करता हूँ कि अगर तुम सभी एक-साथ मिलकर भी काम करते, तो भी तुम उसे पूरा न कर पाते। तुम लोग उस काम को आधा भी नहीं कर पाते। सारी आपूर्ति तैयार होने से पहले ही तुममें से बहुत-से लोग भाग खड़े होते, परमेश्वर के बारे में शिकायत करते और उस पर संदेह करते। तुममें से थोड़े ही लोग अपनी दृढ़ता, जोश और विचारों के कारण बहुत मुश्किल से डटे रह पाते। लेकिन तुम कितने समय तक डटे रह सकते थे? टिके रहने के लिए तुम्हें किस तरह की प्रेरणा की जरूरत होती है? सच्ची आस्था और सच्चे समर्पण के बिना तुम कितने साल तक दृढ़ रह पाते? यह चरित्र पर निर्भर करता है। बेहतर चरित्र और थोड़े जमीर वाले लोग 8 या 10 साल, 20 या 30 साल या शायद 50 साल तक टिक पाते। लेकिन वे भी 50 साल बाद सोचते, “परमेश्वर कब आ रहा है? बाढ़ कब आएगी? परमेश्वर द्वारा दिया गया संकेत कब प्रकट होगा? मैंने अपना पूरा जीवन एक ही काम करते हुए बिता दिया। अगर बाढ़ नहीं आई तो क्या होगा? मैंने पूरे जीवन बहुत कुछ सहा है, 50 साल निरंतर प्रयासरत रहा—इतना काफी है, अगर अब मैं यह काम बंद कर दूँ तो परमेश्वर इसे याद नहीं रखेगा या मेरी निंदा नहीं करेगा। तो मैं अब अपना जीवन जियूँगा। परमेश्वर बोलता या प्रतिक्रिया नहीं देता। मैं सारा दिन नीले आकाश और सफेद बादलों को ताकता रहता हूँ और कुछ दिखाई नहीं देता। परमेश्वर कहाँ है? जो कभी गरज कर बोला था—क्या वही परमेश्वर था? क्या वह कोई भ्रम था? यह सब कब खत्म होगा? परमेश्वर को तो कोई चिंता ही नहीं है। चाहे मैं मदद के लिए कैसे भी पुकारूँ, मुझे सिर्फ सन्नाटा ही सुनाई देता है। मैं जब प्रार्थना करता हूँ तो वह मुझे प्रबुद्ध नहीं करता या मेरा मार्गदर्शन नहीं करता। छोड़ो, जाने दो!” क्या उनमें अभी भी सच्ची आस्था होगी? जैसे-जैसे समय बीतेगा, संभवतः उनके अंदर शक पैदा होता जाएगा। वे बदलने के बारे में सोचेंगे, वे निकलने का कोई रास्ता खोजेंगे, परमेश्वर के आदेश को दर-किनार कर देंगे और अपने अल्पकालिक उत्साह और अल्पकालिक शपथ को त्याग देंगे; अपनी नियति को स्वयं नियंत्रित करने और अपने तरीके से जीवन जीने की चाहत में, वे परमेश्वर के आदेश को अपने दिमाग से निकाल देंगे। और जब एक दिन परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से उन्हें आगे प्रेरित करने आए, जब वह नाव के निर्माण की प्रगति के बारे में पूछे, तो वे कहेंगे, “अरे! परमेश्वर वास्तव में मौजूद है! तो वास्तव में परमेश्वर है। मुझे नाव बनानी चाहिए!” यदि परमेश्वर न बोलता, यदि वह उनसे जल्दबाजी करने को नहीं कहता, तो उन्हें समझ में नहीं आता कि यह कितना महत्वपूर्ण काम है; उन्हें यही लगता कि इस काम को टाला जा सकता है। सोचने का ऐसा अस्थिर तरीका, अनिच्छा से खानापूरी करने का यह रवैया—क्या यही वह रवैया है, जो सच्ची आस्था वाले लोगों को दिखाना चाहिए? (नहीं।) ऐसा रवैया रखना गलत है, इसका मतलब है कि उनमें सच्ची आस्था नहीं है, फिर सच्चे समर्पण की तो बात ही छोड़ दो। जब परमेश्वर तुमसे स्वयं बात करता, तो तुम्हारा क्षणिक उत्साह परमेश्वर में तुम्हारी आस्था दर्शाता, लेकिन जब परमेश्वर तुम्हें दर-किनार करता, तुमसे आग्रह न करता, तुम्हारी निगरानी न करता या कोई पूछताछ न करता, तो तुम्हारी आस्था गायब हो जाती। समय बीतता जाता, और जब परमेश्वर तुमसे बात न करता या तुम्हारे सामने प्रकट न होता और तुम्हारे कार्य का निरीक्षण न करता, तो तुम्हारी आस्था पूरी तरह से गायब हो जाती; तुम अपना जीवन जीना चाहते और अपने खुद के उद्यम में लगे रहना चाहते, और परमेश्वर का आदेश तुम्हारे दिमाग के पीछे कहीं विस्मृत हो जाता; तुम्हारा उस समय का उत्साह, शपथ और दृढ़ संकल्प का कोई मूल्य न होता। तुम लोगों को लगता है कि परमेश्वर ऐसे किसी व्यक्ति को कोई दायित्वपूर्ण विशाल कार्य सौंपने की हिम्मत करेगा? (नहीं।) क्यों नहीं? (क्योंकि ऐसे लोग विश्वासपात्र नहीं होते।) बिल्कुल सही है। एक ही बात : विश्वासपात्र नहीं होते। तुम्हारे अंदर सच्ची आस्था नहीं है। तुम विश्वासपात्र नहीं हो। और इसलिए, तुम परमेश्वर द्वारा कोई भी काम सौंपे जाने योग्य नहीं हो। कुछ लोग कहते हैं, “मैं अयोग्य क्यों हूँ? मैं परमेश्वर द्वारा सौंपा जाने वाला कोई भी आदेश पूरा करूँगा—क्या पता मैं उसे पूरा कर पाऊँ!” तुम अपने दैनिक जीवन में कुछ काम लापरवाही से कर सकते हो और अगर परिणाम थोड़ा-बहुत ऊपर-नीचे भी हो जाए तो फर्क नहीं पड़ता। लेकिन परमेश्वर द्वारा सौंपे गए काम, जिन्हें परमेश्वर चाहता है कि पूरे किए जाएँ—वे कब सरल होते हैं? यदि वे काम किसी मूर्ख व्यक्ति या धोखेबाज को सौंपे जाएँ, किसी ऐसे व्यक्ति को सौंपे जाएँ जो हर काम में लापरवाही दिखाता है, किसी ऐसे व्यक्ति को सौंपे जाएँ जो आदेश को स्वीकारने के बाद, हर जगह और हर समय विश्वासघात कर सकता हो, तो क्या ऐसा व्यक्ति दायित्वपूर्ण विशाल कार्य में देरी नहीं करेगा? यदि तुम लोगों को किसी को चुनने के लिए कहा जाए, यदि तुम्हें किसी को कोई बड़ा काम सौंपना हो, तो तुम वह कार्य किस प्रकार के व्यक्ति को सौंपोगे? तुम कैसे व्यक्ति को चुनोगे? (एक भरोसेमंद व्यक्ति को।) कम से कम, ऐसा व्यक्ति भरोसेमंद और चरित्रवान तो होना चाहिए, फिर चाहे जब भी हो या कितनी भी बड़ी मुश्किलें आएँ, वह तुम्हारे द्वारा सौंपे गए काम को पूरे जी-जान से करेगा और तुम्हें उस काम का हिसाब देगा। जब आम लोग काम सौंपने के लिए ऐसे व्यक्ति को चुनेंगे, तो फिर परमेश्वर तो और भी ज्यादा ऐसे व्यक्ति को चुनेगा! तो इस बड़ी घटना के लिए, बाढ़ से दुनिया का विनाश करने के लिए, एक ऐसी घटना जिसके लिए एक नाव बनाने की आवश्यकता थी, कोई ऐसा व्यक्ति जो जीवित रहने योग्य हो, परमेश्वर किसे चुनेगा? सबसे पहले, सिद्धांत रूप में, वह किसी ऐसे व्यक्ति को चुनेगा जो जीवित रहने योग्य हो, जो अगले युग में जीवित रहने योग्य हो। वास्तव में, इन सारी बातों से पहले, वह ऐसा व्यक्ति हो जो परमेश्वर के वचनों का पालन करे, जो परमेश्वर में सच्ची आस्था रखे और परमेश्वर जो कुछ भी कहे, उसे परमेश्वर के वचन ही माने—चाहे उसमें कुछ भी शामिल हो, चाहे वह उसकी अपनी धारणाओं के अनुरूप हो या न हो, चाहे वह उसकी रुचि के अनुरूप हो या न हो, चाहे वह उसकी अपनी इच्छा के मुताबिक हो या न हो। परमेश्वर उससे चाहे कुछ भी करने को कहे, उसे परमेश्वर की पहचान कभी नहीं नकारनी चाहिए, उसे खुद को हमेशा एक सृजित प्राणी समझना चाहिए और परमेश्वर के वचनों का पालन करने को बाध्यकर कर्त्तव्य समझना चाहिए; ऐसे ही व्यक्ति को परमेश्वर यह विशेष कार्य सौंपता है। परमेश्वर की नजर में, नूह ऐसा ही एक व्यक्ति था। वह नए युग में जीवित रहने योग्य तो था ही, बल्कि वह ऐसा व्यक्ति भी था जो बड़े दायित्व उठा सकता था, जो बिना किसी समझौते के, परमेश्वर के वचनों के प्रति अंत तक समर्पित हो सकता था, और जो जीवन का उपयोग उस कार्य को पूरा करने के लिए कर सकता था, जिसे परमेश्वर ने उसे सौंपा था। यही बात उसने नूह में पाई। जिस समय नूह ने परमेश्वर के आदेश को स्वीकार किया, तब से लेकर जब तक कि उसने सौंपे गए प्रत्येक कार्य को पूरा नहीं कर लिया, इस पूरी अवधि में, परमेश्वर के प्रति नूह की आस्था और समर्पण के उसके रवैये ने एक बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई; इन दो चीजों के बिना, काम कभी पूरा न हो पाता और यह आदेश पूरा न किया जा पाता।
यदि परमेश्वर के आदेश को स्वीकार करने के दौरान, नूह के अपने विचार, योजनाएँ और धारणाएँ होतीं, तो पूरा उपक्रम किस तरह बदल जाता? पहली बात, परमेश्वर ने जब उसे सारे विवरण दिए, जैसे विनिर्देश और सामग्री की किस्म, नाव के निर्माण के साधन और तरीके, और पूरी नाव की लंबाई-चौड़ाई और आयाम—जब नूह ने यह सब सुना, तो क्या उसने सोचा होगा, “इतनी बड़ी चीज़ बनाने में कितने साल लगेंगे? इस सारी सामग्री को खोजने और जुटाने में कितना प्रयास और कितनी कठिनाई होगी? मैं तो थककर चूर हो जाऊँगा! यह थकान तो पक्का मेरी जिंदगी छोटी कर देगी, है न? देखो मैं कितना बूढ़ा हूँ, फिर भी परमेश्वर मुझे अवकाश नहीं देगा, और वह मुझे इतनी मेहनत वाला काम करने के लिए कह रहा है—क्या मैं यह झेल पाऊँगा? खैर, मैं यह काम कर तो लूँगा, लेकिन मेरे पास एक युक्ति है : मैं मोटे तौर पर वैसा ही करूँगा जैसा परमेश्वर कहेगा। परमेश्वर ने जलरोधक किस्म की चीड़ की लकड़ी खोजने के लिए कहा है। मैंने सुना तो है वह लकड़ी कहाँ मिल सकती है, लेकिन वह जगह बहुत दूर है और काफी खतरनाक भी है। उसे ढूँढ़ने और प्राप्त करने में भी बहुत मेहनत करनी पड़ेगी, इसलिए इसके विकल्प के रूप में अपने आसपास ऐसी ही कोई दूसरी लकड़ी क्यों न ढूँढ़ी जाए? उसमें जोखिम भी कम होगा और मेहनत भी कम करनी पड़ेगी—यह भी ठीक रहेगा, है न?” क्या नूह के दिमाग में यह सब चल रहा था? अगर वह यह सब सोचता, तो क्या वह सच्चा समर्पण होता? (नहीं।) उदाहरण के लिए : परमेश्वर ने कहा कि नाव 100 मीटर ऊँची बनाई जाए। यह सुनकर क्या उसने यह सोचा होगा, “सौ मीटर तो बहुत ऊँची हो जाएगी, उस पर कोई चढ़ नहीं पाएगा। क्या इस पर चढ़कर काम करना जानलेवा नहीं होगा? तो मैं नाव थोड़ी छोटी कर दूंगा, चलो उसे 50 मीटर रखते हैं। उसमें जोखिम कम होगा और लोगों के लिए उस पर चढ़ना भी आसान होगा। यह ठीक रहेगा, है न?” क्या नूह के मन में ऐसे विचार रहे होंगे? (नहीं।) और अगर ऐसा होता, तो क्या तुम्हें लगता है कि परमेश्वर ने गलत व्यक्ति को चुना होता? (हाँ।) नूह की सच्ची आस्था और परमेश्वर के प्रति समर्पण ने उसे अपनी इच्छा को एक तरफ रखने में सक्षम बनाया; यदि उसके मन में ऐसे विचार आए भी होते, तो भी वह उन विचारों के अनुसार कार्य न करता। उस बिंदु पर, परमेश्वर जानता था कि नूह भरोसेमंद है। पहली बात तो यह कि नूह परमेश्वर द्वारा निर्धारित विवरण में कोई परिवर्तन नहीं करेगा, न ही वह उसमें अपना दिमाग लगाएगा, अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए परमेश्वर द्वारा निर्धारित किसी भी विवरण में फेर-बदल करने की तो बात ही छोड़ दो; बल्कि वह परमेश्वर द्वारा कहे गए सभी काम अक्षरशः पूरे करेगा, और चाहे नाव बनाने के लिए सामग्री जुटाना कितना भी कठिन क्यों न हो, चाहे काम कितना भी कठिन या थकाऊ क्यों न हो, वह पूरी कोशिश करेगा और अपनी सारी ऊर्जा उसे अच्छी तरह से पूरा करने में इस्तेमाल करेगा। क्या इसी बात ने उसे विश्वासपात्र नहीं बनाया? और क्या यह परमेश्वर के प्रति उसके सच्चे समर्पण की वास्तविक अभिव्यक्ति थी? (हाँ।) क्या यह समर्पण पूर्ण था? (हाँ।) और वह किसी भी चीज़ से दूषित नहीं था, उसमें उसकी अपनी कोई इच्छा शामिल नहीं थी, उसमें उसकी निजी योजनाओं की मिलावट नहीं थी, उसमें व्यक्तिगत धारणाओं या हितों की तो बात ही छोड़ दो; बल्कि वह शुद्ध, सरल और पूर्ण समर्पण था। और क्या यह हासिल करना आसान था? (नहीं।) हो सकता है कि कुछ लोग असहमत हों : “इसमें इतना कठिन क्या है? क्या इसमें बस इतना ही नहीं है कि सोचो मत, रोबोट की तरह बनो, परमेश्वर जो कहे वही करो—क्या यह आसान नहीं है?” जब कार्य करने का समय आता है, तो कठिनाइयाँ आती हैं; लोगों के विचार हमेशा बदलते रहते हैं, उनकी अपनी पसंद होती है और इसलिए उनके मन में शक बना रहता है कि क्या परमेश्वर के वचन पूरे किए जा सकते हैं; जब वे परमेश्वर के वचन सुनते हैं तो उन्हें स्वीकार करना उनके लिए आसान होता है, लेकिन जब कार्य करने का समय आता है, तो वह कठिन हो जाता है; जैसे ही कठिनाइयाँ शुरू होती हैं, वे आसानी से नकारात्मक हो जाते हैं और फिर उनके लिए समर्पण करना आसान नहीं रहता। तो यह स्पष्ट है कि नूह का चरित्र और उसकी सच्ची आस्था और समर्पण वास्तव में अनुकरणीय हैं। तो क्या अब तुम इस बारे में स्पष्ट हो कि नूह ने परमेश्वर के वचनों, आज्ञाओं और अपेक्षाओं का सामना करने पर कैसे प्रतिक्रिया दी और समर्पण किया? यह समर्पण व्यक्तिगत विचारों से दूषित नहीं था। नूह ने बिना भटके, बिना छोटी-छोटी चालाकियाँ किए और बिना होशियार बनने की कोशिश किए, बिना अपने बारे में कोई ऊँची राय रखे और यह सोचे कि वह परमेश्वर को सुझाव दे सकता है, परमेश्वर की आज्ञाओं में अपने विचार जोड़ सकता है, और बिना अपने नेक इरादों का योगदान किए खुद से पूर्ण समर्पण, आज्ञाकारिता और परमेश्वर के वचनों के क्रियान्वयन की अपेक्षा की। क्या पूर्ण समर्पण प्राप्त करने का प्रयास करते समय इसी का अभ्यास नहीं करना चाहिए?
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