प्रकरण दो : कैसे नूह और अब्राहम ने परमेश्वर के वचनों का पालन किया और उसके प्रति समर्पण किया (भाग एक) खंड चार

मुर्गियों और अंडों से जुड़े जिन लोगों के बारे में मैंने अभी बात की, क्या उन्होंने आज्ञापालन और समर्पण किया? (नहीं।) उन्होंने परमेश्वर के वचनों को किस रूप में लिया? अपने कानों पर से बहने वाली हवा के रूप में, और उनके मन में उनका एक निश्चित दृष्टिकोण था : “तुम वो कहते हो जो तुम्हें कहना है, और मैं वो करूँगा जो मुझे करना है। मुझे तुम्हारी अपेक्षाओं की परवाह नहीं! यह काफी है कि मैं तुम्हें खाने के लिए अंडों की आपूर्ति करता हूँ—कौन परवाह करता है कि तुम कौन-से अंडे खाते हो। तुम जैविक अंडे खाना चाहते हो? असंभव। सपने देखते रहो! तुमने मुझे मुर्गियाँ पालने के लिए कहा, और मैं उन्हें इसी तरह पालता हूँ, लेकिन ऊपर से तुम अपनी माँगें जोड़ रहे हो—क्या तुम्हें इस बारे में बोलने का अधिकार है?” क्या ये वे लोग हैं, जो आज्ञापालन और समर्पण करते हैं? (नहीं।) ये क्या करने की कोशिश कर रहे हैं? ये विद्रोह करने की कोशिश कर रहे हैं! परमेश्वर का घर वह स्थान है, जहाँ परमेश्वर बोलता और कार्य करता है, और वह स्थान जहाँ सत्य शासन करता है—परमेश्वर ने इन लोगों के मुँह पर जो कुछ कहा, अगर इन लोगों ने उसका पालन नहीं किया, उसके प्रति समर्पण नहीं किया—तो क्या ये परमेश्वर की पीठ पीछे उसके वचनों का पालन कर सकते हैं? यह और भी असंभव है! असंभव से और भी असंभव तक : इन दो चीजों को देखते हुए, क्या परमेश्वर उनका परमेश्वर है? (नहीं।) तो उनका परमेश्वर कौन है? (वे खुद।) यह सही है—वे खुद को ही परमेश्वर मानते हैं, वे खुद में ही विश्वास करते हैं। ऐसी हालत में, वे अभी भी यहाँ मँडराते हुए क्या कर रहे हैं? चूँकि वे खुद ही अपने परमेश्वर हैं, तो फिर वे परमेश्वर में विश्वास का झंडा लहराते हुए क्या कर रहे हैं? क्या यह दूसरे लोगों को धोखा देना नहीं है? क्या वे खुद को धोखा नहीं दे रहे? अगर ऐसे लोगों का परमेश्वर के प्रति यही रवैया है, तो क्या वे आज्ञापालन करने में सक्षम हैं? (बिल्कुल नहीं।) इतनी छोटी-सी चीज में भी वे परमेश्वर के वचन का पालन नहीं कर सकते या परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं कर सकते, परमेश्वर के वचनों का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और वे उन्हें ग्रहण नहीं करते और उनके प्रति समर्पित नहीं हो सकते। क्या ऐसे लोगों को बचाया जा सकता है? (नहीं।) तो वे उद्धार से कितनी दूर हैं? बहुत दूर, पास तो बिल्कुल भी नहीं! आंतरिक रूप से, क्या परमेश्वर उन लोगों को बचाने का इच्छुक है, जो उसके वचनों का पालन नहीं करते, जो उसके विरुद्ध खड़े होते हैं? निश्चित रूप से नहीं। यहाँ तक कि अपने विचारों के आधार पर मापने पर लोग भी ऐसा करने के लिए तैयार नहीं होंगे। अगर ऐसे दानव और शैतान तुम्हारा विरोध करें, हर तरह से तुम्हारे खिलाफ खड़े हो जाएँ, तो क्या तुम उन्हें बचाओगे? असंभव। कोई ऐसे लोगों को नहीं बचाना चाहता। कोई ऐसे लोगों से दोस्ती नहीं करना चाहता। मुर्गी-पालन के मामले में—इतनी छोटी-सी चीज में—लोगों की प्रकृति उजागर हो गई; इतनी छोटी-सी चीज में भी लोग मैंने जो कहा उसका पालन करने में असमर्थ रहे। क्या यह एक गंभीर समस्या नहीं है?

अब हम भेड़ों से जुड़े एक मामले की बात करते हैं। बेशक, यह अभी भी लोगों से संबंधित है। वसंत आ गया था। मौसम सुहाना था और फूल खिले हुए थे। हरियाली छा रही थी, घास हरी थी। सब-कुछ जीवन के साथ जगमगाने लगा था। भेड़ें पूरी सर्दी सूखी घास खाती रही थीं और अब उसे नहीं खाना चाहती थीं, इसलिए वे इंतजार कर रही थीं कि कब घास हरी हो और वे ताजी घास खा सकें। हुआ यह कि तभी भेड़ों ने मेमनों को जन्म दिया था, जिसका अर्थ था कि उनका हरी घास खाना और भी ज्यादा जरूरी था। घास की गुणवत्ता जितनी अधिक होगी, और वह जितनी अधिक मात्रा में होगी, उतना ही अधिक वे दूध देंगी, और मेमने उतनी ही तेजी से बढ़ेंगे; लोग भी इसे देखकर खुश होंगे, यह उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लायक चीज थी : शरद ऋतु के आगमन तक खाने के लिए एक अच्छा मोटा मेमना। और यह देखते हुए कि लोगों के पास उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लायक चीज थी, क्या उन्हें मेमनों को खाने के लिए ज्यादा अच्छी घास देने के उपाय नहीं करने चाहिए थे, उन्हें इस तरह नहीं खिलाना चाहिए था कि वे मजबूत और मोटे हो जाते? क्या उन्हें नहीं सोचना चाहिए था, “इस समय मैदान में घास अच्छी नहीं है। अगर मेमने इसे खाएँगे, तो धीरे-धीरे बढ़ेंगे। अच्छी घास कहाँ है?” क्या उन्हें इसमें थोड़ा प्रयास नहीं करना चाहिए था? लेकिन कौन जानता है कि भेड़ों की देखभाल करने वाला व्यक्ति क्या सोच रहा था। एक दिन मैं भेड़ों को देखने गया। मैंने देखा कि मेमने अच्छे से रह रहे थे, और वे लोगों को देखते ही उछल पड़े, उनसे बात करने की इच्छा से वे अपने अगले पैर उनकी पिंडलियों पर रखकर ऊपर उठ गए। कुछ मेमनों के सींग उग आए थे, इसलिए मैंने उनके छोटे सींग पकड़ लिए और उनके साथ खेला। वे मेमने अच्छे से रह रहे थे, लेकिन वे बहुत दुबले और सूखे थे। मैंने सोचा कि मेमने कितने मुलायम होते हैं और उनका ऊन मोटा नहीं होता, लेकिन फिर भी वे गर्म होते हैं, और मैंने सोचा कि अगर उन्हें थोड़ा मोटा कर दिया जाए तो कितना अच्छा होगा। इस बारे में सोचते हुए मैंने भेड़ पालने वाले व्यक्ति से पूछा, “क्या यह घास घटिया किस्म की है? क्या मैदान में भेड़ों के खाने के लिए पर्याप्त घास नहीं है? क्या जमीन जोत दी जाए और कुछ नई घास बो दी जाए, जिससे उनके पास खाने के लिए पर्याप्त हो?” उसने कहा, “खाने के लिए पर्याप्त हरी घास नहीं है। फिलहाल भेड़ें अभी भी सूखी घास ही खा रही हैं।” यह सुनकर मैंने कहा, “क्या तुम नहीं जानते कि यह कौन-सा मौसम है? तुम उन्हें अभी भी सूखी घास क्यों खिला रहे हो? भेड़ों ने मेमनों को जन्म दिया है, उन्हें अच्छी हरी घास खानी चाहिए। तुम उन्हें अभी भी सूखी घास ही क्यों खिला रहे हो? क्या तुम लोगों ने इसका कोई समाधान सोचा है?” उसने ढेरों बहाने बनाए। जब मैंने उसे खेत जोतने के लिए कहा, तो उसने कहा कि वह ऐसा नहीं कर सकता—अगर वह ऐसा करेगा, तो भेड़ों के पास अब खाने के लिए कुछ नहीं होगा। यह सब सुनने के बाद तुम लोगों को क्या लगता है? क्या तुम्हें किसी दायित्व का बोध महसूस होता है? (मैं घास का एक अच्छा खेत खोजने के उपाय सोचता, या कहीं और से घास काटकर लाता।) इसे हल करने का यह एक तरीका है। तुम्हें समाधान के बारे में सोचना होगा। सिर्फ अपना पेट भरकर बाकी सब-कुछ मत भूल जाओ—भेड़ों को भी अपना पेट भरने की जरूरत है। बाद में मैंने कुछ अन्य लोगों से कहा, “क्या यह खेत जोता जा सकता है? अगर तुम शरद ऋतु में भी पौध लगाते हो, तो भेड़ें अगले साल हरी घास खा सकेंगी। इसके अलावा, अन्य स्थानों पर दो खेत हैं, क्या भेड़ों को प्रतिदिन वहाँ ताजी घास खाने के लिए चराया जा सकता है? अगर दोनों खेतों में बारी-बारी चराया जाए, तो क्या भेड़ें ताजी घास नहीं खा सकेंगी?” क्या मैंने जो कहा, वह करना आसान था? (हाँ।) कुछ लोगों ने कहा, “यह कहना आसान है, करना मुश्किल। तुम हमेशा कहते हो कि चीजें करना आसान है—यह इतना आसान कैसे है? यहाँ बहुत सारी भेड़ें हैं और जब वे इधर-उधर दौड़ती हैं, तो उन्हें चराना बिल्कुल भी आसान नहीं होता।” भेड़ों को चराना भी उनके लिए भारी था, उनके पास बहुत सारे बहाने और मुश्किलें थीं, लेकिन अंत में वे मान गए। कई दिनों बाद मैं फिर देखने गया। घास इतनी बढ़ गई थी कि लगभग कमर जितनी ऊँची हो गई थी। मैंने सोचा कि जब भेड़ें घास खा रही हैं, तो यह इतनी ऊँची कैसे हो सकती है। कुछ सवाल पूछने के बाद मुझे पता चला : भेड़ों को वहाँ चरने के लिए बिल्कुल भी नहीं रखा गया था। लोगों के पास एक बहाना भी था : “उस खेत में कोई छप्पर नहीं है, भेड़ों को बहुत गर्मी लग रही थी।” मैंने कहा, “तो उनके लिए एक छप्पर क्यों नहीं बना देते? यहाँ कुछ ही तो भेड़ें हैं। तुम लोग यहाँ किसलिए हो? क्या तुमसे ये साधारण मामले सँभालने की अपेक्षा नहीं की जाती?” उन्होंने उत्तर दिया, “हमें कोई छप्पर बनाने वाला नहीं मिल पाया।” मैंने कहा, “यहाँ दूसरे काम करने वाले लोग हैं, तो इसे करने वाला कोई क्यों नहीं है? क्या तुमने किसी को ढूँढ़ा है? तुम्हें केवल भेड़ों को खाने की परवाह है, उन्हें पालने की नहीं। तुम इतने स्वार्थी कैसे हो सकते हो! तुम मेमने खाना चाहते हो, लेकिन उन्हें हरी घास नहीं खाने देते—तुम इतने अनैतिक कैसे हो सकते हो!” जब उन्हें मजबूर किया गया, तो छप्पर बन गया और भेड़ों को हरी घास खाने को मिल गई। क्या उनके लिए थोड़ी ताजी घास खाना आसान था? उन लोगों के लिए इतना आसान काम करना भी इतना कठिन था। हर कदम पर वे कोई न कोई बहाना बना देते थे। जब उनके पास कोई बहाना होता, जब कोई कठिनाइयाँ होतीं, वे हार मान लेते और मेरे आकर उसे सुलझाने की प्रतीक्षा करते। मुझे हमेशा इस बात की जानकारी रखनी पड़ती कि क्या हो रहा है, मुझे हमेशा इस पर नजर रखनी पड़ती, मुझे हमेशा उन पर दबाव बनाना पड़ता—ऐसा नहीं हो सकता था कि मैं उन पर दबाव न डालूँ। मुझे भेड़ों को चराने जैसी तुच्छ बात की चिंता क्यों करनी चाहिए? मैं तुम लोगों के लिए सब-कुछ तैयार करता हूँ, तो फिर तुम लोगों से अपने कुछ वचनों का पालन करवाने के लिए इतना प्रयास क्यों करना पड़ता है? क्या मैं तुम्हें चाकुओं के पहाड़ पर चढ़ने या आग के समुद्र में तैरने के लिए कह रहा हूँ? या क्या इसे लागू करना बहुत मुश्किल है? क्या यह तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं है? यह सब हासिल करना तुम्हारी शक्ति के भीतर है, यह तुम्हारी क्षमताओं के दायरे में है। यह कोई बहुत बड़ी माँग नहीं है। ऐसा कैसे है कि तुम इसे पूरा करने में सक्षम नहीं हो? समस्या कहाँ है? क्या मैंने तुमसे जहाज बनाने के लिए कहा था? (नहीं।) तो तुमसे जो करने के लिए कहा गया था, उसमें और जहाज बनाने के बीच कितना बड़ा अंतर है? वह अंतर बहुत बड़ा है। जो काम तुम्हें करने के लिए कहा गया था, उसे करने में केवल एक या दो दिन लगते। इसके लिए केवल कुछ शब्दों की आवश्यकता होती। यह साध्य था। जहाज का निर्माण एक विशाल उपक्रम था, एक 100-वर्षीय उपक्रम। मैं यह कहने की हिम्मत करता हूँ कि अगर तुम लोग उसी युग में पैदा हुए होते जिसमें नूह पैदा हुआ था, तो तुम लोगों में से कोई भी परमेश्वर के वचनों का पालन करने में सक्षम न होता। जब नूह परमेश्वर के वचनों का पालन करता, जब वह परमेश्वर की आज्ञा के अनुसार थोड़ा-थोड़ा करके जहाज बनाता, तो तुम लोग एक तरफ खड़े हुए लोग रहे होते, नूह को वापस खींचते हुए, उसका मजाक उड़ाते हुए, उसका उपहास करते हुए और उस पर हँसते हुए। तुम लोग बिल्कुल इसी तरह के व्यक्ति हो। तुम आज्ञापालन और समर्पण करने वाले रवैये से सर्वथा रहित हो। इसके विपरीत, तुम माँग करते हो कि परमेश्वर तुम पर विशेष अनुग्रह दिखाए और तुम्हें विशेष रूप से आशीष प्रदान करे और तुम्हें प्रबुद्ध बनाए। तुम इतने बेशर्म कैसे हो सकते हो? तुम लोग क्या कहते हो, जिन चीजों के बारे में मैंने अभी बात की है, उनमें से मेरी जिम्मेदारी क्या है? मुझे कौन-सी चीज करनी है? (इनमें से कोई नहीं।) ये सभी चीजें मानवीय मामले हैं। वे मेरा काम नहीं हैं। मुझे तुम लोगों को अकेला छोड़ने में सक्षम होना चाहिए। तो मुझे क्यों शामिल होना पड़ता है? मैं ऐसा इसलिए नहीं करता कि यह मेरा दायित्व है, बल्कि तुम लोगों की भलाई के लिए करता हूँ। तुम लोगों में से किसी को भी इसकी चिंता नहीं है, तुम में से किसी ने भी यह जिम्मेदारी नहीं ली है, तुम में से किसी के ये अच्छे इरादे नहीं हैं—इसलिए मुझे इस बारे में और चिंता करनी पड़ती है। तुम्हें बस आज्ञापालन और सहयोग करने की जरूरत है, यह बहुत आसान है—लेकिन तुम लोग यह भी नहीं कर सकते। क्या तुम इंसान भी हो?

एक और भी गंभीर घटना भी हुई। एक जगह थी, जहाँ एक इमारत का निर्माण किया जा रहा था। इमारत काफी ऊँची थी और काफी बड़े क्षेत्र में फैली थी। अंदर अपेक्षाकृत बड़ी संख्या में साज-सामान रखा गया था और उसे सुविधा से ले जाने के लिए कम से कम दो दरवाजों वाली चौखट की आवश्यकता होती जिसे कम से कम आठ फीट ऊँचा होना चाहिए था। आम लोगों ने यह सब सोचा होगा। लेकिन किसी ने छह फुट का एक अकेला दरवाजा लगाने पर जोर दिया। उसने बाकी सबके सुझाव नजरअंदाज कर दिए, चाहे वे किसी से भी आए हों। क्या यह व्यक्ति भ्रमित था? वह सरासर बदमाश था। बाद में जब किसी ने मुझे इसके बारे में बताया, तो मैंने उस व्यक्ति से कहा, “तुम्हें दो दरवाजे लगाने होंगे, और वे ऊँचे होने आवश्यक हैं।” वह अनिच्छा से सहमत हुआ। खैर, जाहिर तौर पर वह मान गया, लेकिन उसने अकेले में क्या कहा? “उन्हें इतना ऊँचा रखने का क्या मतलब है? उनके और नीचा होने में क्या दिक्कत है?” बाद में मैं फिर देखने गया। बस एक अतिरिक्त दरवाजा जोड़ दिया गया था, लेकिन ऊँचाई वही थी। और ऊँचाई वही क्यों थी? क्या इससे ऊँचा दरवाजा बनवाना असंभव था? या दरवाजा छत को छूकर खत्म होता? क्या मामला था? मामला यह था कि वह आज्ञापालन नहीं करना चाहता था, जैसा उससे कहा गया था। वह वास्तव में यह सोच रहा था, “क्या यह तुम पर निर्भर है? यहाँ आसपास का मालिक मैं हूँ, यहाँ मैं निर्णय लेता हूँ। दूसरे लोग वैसा ही करते हैं, जैसा मैं कहता हूँ, इसके विपरीत नहीं। तुम क्या जानते हो? क्या तुम भवन-निर्माण को समझते हो?” क्या भवन-निर्माण को न समझने का मतलब यह है कि मैं यह नहीं देख सकता कि अनुपात कैसा दिखता है? इतने ऊँचे भवन में इतने नीचे दरवाजे होने पर जब कोई 6’2” से अधिक लंबा व्यक्ति इसमें से जाएगा, तो अगर वह झुकेगा नहीं तो चौखट से टकराकर अपना सिर फुड़वा लेगा। यह कैसा दरवाजा था? मुझे भवन-निर्माण समझने की जरूरत नहीं थी—मुझे बताओ, क्या इस पर मेरा विचार उचित था? क्या वह व्यावहारिक था? लेकिन ऐसी व्यावहारिकता उस व्यक्ति की समझ से बाहर थी। वह केवल नियमों का पालन करना जानता था, और कहता था : “जहाँ से मैं हूँ, वहाँ के सभी दरवाजे इसी तरह के हैं। मुझे इसे इतना ऊँचा क्यों बनाना चाहिए था, जितना तुमने कहा? तुमने मुझे इसे करने के लिए कहा, और मैंने इसे इस तरह बना दिया। अगर तुम्हें मेरी कोई जरूरत नहीं है, तो भूल जाओ! मैं इसी तरह चीजें करता हूँ और मैं तुम्हारा आज्ञापालन नहीं करने वाला हूँ!” यह व्यक्ति किस तरह की चीज था? क्या तुम लोगों को लगता है कि उसका अभी भी परमेश्वर के घर द्वारा उपयोग किया जा सकता है? (नहीं।) तो चूँकि उसका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता, तो क्या किया जाना चाहिए? हालाँकि ऐसे लोग परमेश्वर के घर में कुछ सांकेतिक प्रयास करते हैं और तुरंत बाहर नहीं निकाले जाते, हालाँकि भाई-बहन उन्हें सहन करने में सक्षम होते हैं और मैं उन्हें सहन करने में सक्षम हूँ, लेकिन जब बात उनकी मानवता की आती है—इसे छोड़ देते हैं कि वे सत्य को समझते हैं या नहीं—परमेश्वर के घर जैसे परिवेश में काम करते और रहते हुए, क्या उनके टिके रहने की संभावना है? (नहीं।) क्या हमें उन्हें बाहर निकालने की जरूरत है? (नहीं।) क्या उनके लंबे समय तक कलीसिया में रहने की संभावना है? (नहीं।) क्यों नहीं? इस बात को एक तरफ रख देते हैं कि वे उसे समझ सकते हैं या नहीं, जो उनसे कहा जाता है। उनका ऐसा स्वभाव होने के कारण, कुछ सांकेतिक प्रयास करने के बाद, वे शान बघारने और हुक्म चलाने की कोशिश करना शुरू कर देते हैं। क्या परमेश्वर के घर में इसे बरदाश्त किया जा सकता है? वे कुछ भी नहीं हैं, फिर भी वे सोचते हैं कि वे बहुत अच्छे हैं, कि वे परमेश्वर के घर में एक स्तंभ, एक मुख्य आधार हैं, जहाँ वे बिना सोचे-विचारे कुकर्म करते हैं, और हुक्म चलाने का प्रयास करते हैं। उनका समस्याओं में पड़ना लाजमी है, और वे लंबे समय तक नहीं रहेंगे। इस तरह के लोगों के साथ, भले ही परमेश्वर का घर उन्हें बाहर न निकाले, जब वे यहाँ कुछ देर के लिए रह लेंगे, तो वे देखेंगे कि परमेश्वर के घर में लोग हमेशा सत्य के बारे में, सिद्धांत के बारे में बात कर रहे हैं; उन्हें इसमें कोई दिलचस्पी नहीं होती, उसके तौर-तरीकों का यहाँ कोई उपयोग नहीं होता। वे चाहे जहाँ भी जाएँ और जो कुछ भी करें, वे दूसरों के साथ सहयोग करने में असमर्थ होते हैं, और वे हमेशा हुक्म चलाना चाहते हैं। लेकिन यह काम नहीं आता, और वे खुद को हर मामले में सीमित पाते हैं। जैसे-जैसे समय बीतता है, अधिकांश भाई-बहन सत्य और सिद्धांतों को समझने लगते हैं; जबकि ये लोग अपनी मर्जी के मुताबिक काम करने की कोशिश करते हैं, बॉस बनने की कोशिश करते हैं और हुक्म चलाते हैं, और सिद्धांत के अनुसार कार्य नहीं करते, कई लोग उन्हें हेय नजरों से देखते हैं—क्या वे इसे बरदाश्त कर पाते हैं? जब वह समय आता है, तो वे समझ जाते हैं कि वे इन लोगों के साथ असंगत हैं, कि वे स्वाभाविक रूप से यहाँ के नहीं हैं, कि वे गलत जगह पर हैं : “मैं अचानक परमेश्वर के घर में कैसे आ पहुँचा? मेरी सोच बहुत सरल थी। मैंने सोचा कि अगर मैं थोड़ा-सा प्रयास करूँ, तो मैं आपदा से बच सकता हूँ, और मुझे आशीष मिलेगा। मुझे ऐसा कभी नहीं लगा कि ऐसा नहीं होगा!” वे स्वाभाविक रूप से परमेश्वर के घर के नहीं होते; कुछ समय रहने के बाद उनकी रुचि खत्म हो जाती है, वे उदासीन हो जाते हैं, और उन्हें बाहर निकालने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती—वे खुद खिसक जाते हैं।

कुछ लोग कहते हैं, “क्या ऐसा भी कुछ है, जिसमें तुम अपनी नाक नहीं घुसेड़ते? तुम दूसरों के मामलों में टाँग अड़ाने वाले व्यक्ति हो, है न? तुम बस दूसरों के मामलों में दखल देकर अपनी प्रतिष्ठा स्थापित करते हो, अपनी उपस्थिति का एहसास कराते हो और लोगों को अपनी सर्वशक्तिमत्ता का भान कराते हो, है न?” मुझे बताओ, क्या यह ठीक रहेगा अगर मैं इन चीजों का ध्यान न रखूँ? वास्तव में, मैं इन चीजों का ध्यान नहीं रखना चाहता, ये अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी हैं, लेकिन अगर मैंने ऐसा न किया तो परेशानी होगी, और आने वाला काम प्रभावित होगा। क्या मुझे ऐसे मामलों में शामिल होना पड़ता, अगर तुम लोग उन्हें हल करने में सक्षम होते, अगर तुम वैसा करते जैसा मैंने कहा था? अगर मैं तुम लोगों की चिंता न करता, तो तुम लोग जरा भी मानव-सदृश न जीते, और न ही तुम लोग अच्छे से जीते। तुम खुद कुछ न कर पाते। और ऐसा होने पर भी तुम मेरा आज्ञापालन नहीं करते। मैं तुम्हें एक बहुत ही सरल बात के बारे में बताता हूँ : साफ-सफाई और अपने रहने के परिवेश की देखभाल करने का बेहद छोटा मामला। तुम लोग इस मामले में कैसे काम करते हो? अगर मैं कहीं जाता हूँ और तुम्हें पहले से सूचित नहीं करता, तो तुम्हारा परिवेश असाधारण रूप से गंदा मिलेगा, और तुम्हें उसे फौरन साफ करना पड़ेगा, जिससे तुम परेशान और असहज महसूस करोगे। अगर मैंने तुम लोगों को पहले ही बता दिया होता कि मैं आ रहा हूँ, तो स्थिति इतनी खराब न होती—लेकिन क्या तुम्हें लगता है कि मैं नहीं जानता कि परदे के पीछे क्या चल रहा है? ये सभी छोटी-छोटी बातें हैं, सामान्य मानवता के कुछ सबसे सरल और सबसे बुनियादी बिंदु। लेकिन तुम लोग ऐसे आलसी हो। क्या तुम वाकई अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने में सक्षम हो? मैं दस साल तक मुख्य भूमि चीन में कुछ जगहों पर रहा, वहाँ लोगों को रजाई तह करना और उन्हें धूप में सुखाना, घरों की सफाई करना और घरों में चूल्हे जलाना सिखाया। लेकिन दस साल सिखाने के बाद भी मैं उन्हें सिखाने में सक्षम नहीं हुआ। क्या ऐसा है कि मैं सिखाने में असमर्थ हूँ? नहीं, ये लोग ही बहुत घटिया हैं। बाद में मैंने सिखाना बंद कर दिया। जब मैं कहीं जाता और कोई रजाई तह की हुई न मिलती, तो मैं बस पलटकर चला जाता। मैं ऐसा क्यों करता था? मुझे वह बदबूदार और घिनौना लगता। मैं ऐसी जगह क्यों रहूँ, जो सूअरों के बाड़े से भी बदतर हो? मैं ऐसा करने से इनकार करता हूँ। ये छोटी-छोटी समस्याएँ बदलनी भी बहुत मुश्किल हैं। अगर मैं इसे परमेश्वर के मार्ग और परमेश्वर की इच्छा का पालन करने के स्तर तक ऊपर ले जाता, तो स्पष्ट रूप से कहूँ तो, तुम लोग उसके आसपास भी न पहुँचते। आज मैं मुख्य बात क्या कह रहा हूँ? परमेश्वर के वचनों का पालन करना बहुत महत्वपूर्ण है और तुम्हें इसकी अवहेलना नहीं करनी चाहिए। परमेश्वर के वचनों का पालन करने का मतलब यह नहीं है कि तुम्हें परमेश्वर के वचनों का विश्लेषण, अध्ययन या उन पर चर्चा या उनकी जाँच करनी चाहिए, या तुम्हें उनके पीछे के कारणों की छानबीन करनी चाहिए और कोई कारण ढूँढ़ने का प्रयास करना चाहिए; इसके बजाय, तुम्हें उसके वचनों को लागू करना चाहिए और उन्हें पूरा करना चाहिए। जब परमेश्वर तुमसे बात करता है, जब वह तुम्हें किसी कार्य को करने का आदेश देता है या तुम्हें कोई कार्य सौंपता है, तो परमेश्वर आगे जो देखना चाहता है, वह यह है कि तुम कार्य करते हो, और उसे कदम-दर-कदम कैसे क्रियान्वित करते हो। परमेश्वर इस बात की परवाह नहीं करता कि तुम उस मामले को समझते हो या नहीं, और न ही वह इस बात की परवाह करता है कि अपने दिल में तुम उसके बारे में उत्सुक हो या नहीं, या तुम्हें उसके बारे में कोई संदेह है या नहीं। परमेश्वर जो देखता है, वह यह है कि तुम उसे करते हो या नहीं, तुममें आज्ञापालन और समर्पण करने का रवैया है या नहीं।

संयोग से, मैं कुछ लोगों के साथ प्रदर्शनों के लिए वेशभूषाओं के बारे में बात कर रहा था। प्राथमिक सिद्धांत यह था कि वेशभूषाओं का रंग और शैली शिष्ट, गरिमामय, रुचिकर और शालीन होनी चाहिए। वे विचित्र परिधानों की तरह न दिखें। इतना ही नहीं, ज्यादा पैसे खर्च करने की भी जरूरत नहीं थी। वे किसी विशेष डिजाइनर से न लाए जाएँ, उन्हें खरीदने के लिए नामी-गिरामी ब्रांड वाली दुकानों पर जाने की जरूरत तो बिल्कुल भी नहीं थी। मेरा विचार था कि वेशभूषा से कलाकारों को शालीन, शिष्ट और गरिमामय दिखना चाहिए, उन्हें आकर्षक होना चाहिए। रंग की कोई सीमा नहीं थी, सिवाय मंच पर बहुत नीरस या काली दिखने वाली चीजों से परहेज करने के। अधिकांश अन्य रंग ठीक थे : लाल, नारंगी, पीला, हरा, नीला, जामुनी, बैंगनी—इसके लिए कोई विनियम नहीं थे। यह सिद्धांत क्यों था? परमेश्वर की सृष्टि में हर रंग समाया हुआ है। फूल रंगीन दिखते हैं, वैसे ही पेड़, पौधे और पक्षी भी रंग-बिरंगे होते हैं। इसलिए हमें रंग के बारे में कोई धारणा या नियम नहीं रखना चाहिए। यह कहने के बाद, मुझे डर था कि वे समझेंगे नहीं। मैंने उनसे दोबारा पूछताछ की, और केवल तभी आश्वस्त हुआ, जब मुझे सुनने वालों ने कहा कि वे समझ गए हैं। अब बाकी यह रह गया था कि वे उस सिद्धांत के अनुसार कार्य को कार्यान्वित करें जिसके बारे में मैंने बात की थी। क्या यह सरल बात थी? क्या यह कोई बड़ी बात थी? यह जहाज बनाने से बड़ा उपक्रम था या छोटा? (छोटा।) अब्राहम द्वारा इसहाक की भेंट चढ़ाने की तुलना में, क्या यह कठिन था? (नहीं।) इसमें बिल्कुल भी कोई कठिनाई नहीं थी, और यह सरल था—सिर्फ कपड़ों की बात थी। लोग जन्म के समय से ही कपड़ों के संपर्क में आ जाते हैं; यह कोई कठिन मामला नहीं था। मेरे द्वारा एक निश्चित सिद्धांत को परिभाषित किए जाने के बाद तो लोगों के लिए काम करना और भी आसान हो गया था। महत्वपूर्ण बात यह थी कि उन्होंने आज्ञापालन किया या नहीं, और वे उसे करने के इच्छुक थे या नहीं। कुछ समय बाद, जब कुछ शो और फिल्में बनाई गईं, तो मैंने देखा कि सभी मुख्य पात्रों की वेशभूषा नीली थी। मैंने इस बारे में थोड़ा विचार किया : “क्या इन शो बनाने वाले लोगों के दिमाग में कोई समस्या है? मैंने इस बारे में बहुत स्पष्ट रूप से कहा था। मैंने यह नियम नहीं बनाया था कि वेशभूषा नीली होनी चाहिए, और जो कोई नीली पोशाक नहीं पहनेगा, उसे मंच पर नहीं जाने दिया जाएगा। इन लोगों के साथ क्या गलत है? उन्हें क्या चीज उकसा रही थी और उन पर हावी हो रही थी? क्या बाहरी दुनिया में चलन बदल गया है, और लोग अब केवल नीली पोशाक ही पहनते हैं? नहीं, बाहरी दुनिया में रंगों और शैलियों के बारे में कोई नियम नहीं है, लोग हर रंग की पोशाक पहनते हैं। तो हमारी कलीसिया में ऐसी स्थिति होना अजीब है। वेशभूषाओं का अंतिम पुनरीक्षण कौन कर रहा है? इस मामले पर किसका नियंत्रण है? क्या कोई इसका सूत्रधार है?” कोई तो अवश्य था, जो इसे नियंत्रित कर रहा था; नतीजतन, शैली चाहे जैसी भी हो, सभी वेशभूषाएँ बिना किसी अपवाद के नीले रंग की थीं। मैंने जो कहा था, उससे कोई फर्क नहीं पड़ा। उन्होंने पहले से ही तय कर लिया था कि सभी कपड़े नीले होने चाहिए—लोग नीले रंग के अलावा किसी रंग के कपड़े नहीं पहनेंगे। नीला रंग आध्यात्मिकता और पवित्रता दर्शाता है; यह परमेश्वर के घर का प्रतीकात्मक रंग है। अगर उनकी पोशाक नीली न होती, तो वे शो न होने देते; और वे ऐसा करने की हिम्मत न करते। मैंने कहा कि ये लोग गए काम से। यह इतनी सरल बात थी, मैंने प्रत्येक बिंदु बहुत स्पष्ट रूप से समझाया था, और ऐसा करने के बाद सुनिश्चित किया था कि वे समझ गए हैं; केवल हम सबके सहमत होने पर ही मैंने विषय बंद किया था। और अंतिम परिणाम क्या रहा? मैंने जो कहा, वह भी हवा हो गया। किसी ने उसे महत्वपूर्ण नहीं माना। उन्होंने फिर भी जैसा चाहा, वैसा ही किया और अभ्यास में लाए; जो मैंने कहा, उस पर किसी ने अमल नहीं किया, किसी ने उसे पूरा नहीं किया। जब उन्होंने कहा कि वे समझ गए हैं, तो उनका वास्तव में क्या मतलब था? वे मेरा मन रख रहे थे। वे गली में अधेड़ उम्र की महिलाओं की तरह दिन भर गपशप करते रहते थे। यही उनका मुझसे बात करने का तरीका और रवैया भी था। इसलिए मेरे दिल में यह भावना थी : मसीह के प्रति इन लोगों का रवैया परमेश्वर के प्रति उनका रवैया था, और यह एक बहुत ही चिंताजनक रवैया, एक खतरनाक संकेत, एक अपशगुन था। क्या तुम लोग जानना चाहते हो कि यह क्या संकेत देता है? तुम लोगों को पता होना चाहिए। मुझे तुम लोगों को यह बताना चाहिए, और तुम लोगों को ध्यान से सुनना चाहिए : तुम लोगों में जो प्रकट होता है उसे देखते हुए, परमेश्वर के वचनों के प्रति तुम लोगों के रवैये से, तुम में से कई लोग आपदा में डूब जाएँगे; तुम में से कुछ लोगों को दंड देने के लिए और कुछ लोगों को उनका शोधन करने के लिए आपदा में डाला जाएगा, और आपदा से बचा नहीं जा सकता। जिन्हें दंड दिया जाएगा, वे तुरंत मर जाएँगे, वे नष्ट हो जाएँगे। लेकिन जिन लोगों का आपदा में शोधन किया जाएगा, अगर वह उन्हें आज्ञापालन और समर्पण करने, और दृढ़ रहने में सक्षम बनाता है, और वे गवाही देने में सक्षम हो जाते हैं, तो उनकी सबसे कठिन परीक्षा समाप्त हो जाएगी; अन्यथा, भविष्य में उनके लिए कोई आशा नहीं है, वे खतरे में होंगे, और उनके पास कोई और मौका नहीं होगा। क्या तुम मुझे साफ-साफ सुनते हो? (हाँ।) क्या यह तुम लोगों को अपने लिए कुछ अच्छा लगता है? संक्षेप में, मेरे लिए यह शुभ शकुन नहीं है। मुझे यह एक खराब संकेत लगता है। मैंने तुम लोगों को तथ्य दिए हैं; चुनाव तुम लोगों पर निर्भर है। मैं इस बारे में और कुछ नहीं कहूँगा, मैं खुद को दोहराऊँगा नहीं, मैं दोबारा इसकी चर्चा नहीं करूँगा।

आज मैं जिस विषय पर सहभागिता कर रहा हूँ, वह यह है कि परमेश्वर के वचनों को कैसे लें। परमेश्वर के वचनों का पालन और उनके प्रति समर्पण करना बहुत महत्वपूर्ण है। उन्हें क्रियान्वित करने, लागू करने और अभ्यास में लाने में सक्षम होना बहुत महत्वपूर्ण है। कुछ लोग कहते हैं, “हम आज भी नहीं जानते कि मसीह के प्रति कैसे व्यवहार करना चाहिए।” मसीह के प्रति व्यवहार करने का तरीका बहुत सरल है : मसीह के प्रति तुम्हारा रवैया परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया है। परमेश्वर की दृष्टि में, परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया मसीह के प्रति तुम्हारा रवैया है। बेशक, मसीह के प्रति तुम्हारा जो रवैया है, वह स्वर्ग के परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया है। मसीह के प्रति तुम्हारा रवैया सबसे वास्तविक है—उसे देखा जा सकता है और वही है जिसकी परमेश्वर जाँच करता है। लोग यह समझना चाहते हैं कि परमेश्वर के प्रति उस तरह से कैसे व्यवहार करें, जिस तरह से परमेश्वर चाहता है, और यह सरल है। इसके तीन बिंदु हैं : पहला है ईमानदार होना; दूसरा है आदर, यह सीखना कि मसीह का आदर कैसे करना है; और तीसरा—और यह सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है—उसके वचनों का पालन करना। उसके वचनों का पालन करना : इसका मतलब कानों से सुनना है या किसी और चीज से? (अपने दिल से।) क्या तुम्हारे पास दिल है? अगर तुम्हारे पास दिल है, तो उससे सुनो। केवल अपने दिल से सुनकर ही तुम समझ पाओगे, और जो सुनोगे उसे अभ्यास में लाने में सक्षम होगे। इन तीन बिंदुओं में से प्रत्येक बहुत सरल है। इनका शाब्दिक अर्थ समझना आसान होना चाहिए, और तार्किक रूप से कहें तो, उन्हें पूरा करना आसान होना चाहिए—लेकिन तुम उन्हें कैसे पूरा करते हो, और क्या तुम इसमें सक्षम हो, यह तुम लोगों पर निर्भर है; मैं आगे नहीं समझाऊँगा। कुछ लोग कहते हैं, “तुम सिर्फ एक साधारण व्यक्ति हो। हमें तुम्हारे साथ ईमानदार क्यों होना चाहिए? हमें तुम्हारा सम्मान क्यों करना चाहिए? हमें तुम्हारे वचनों का पालन क्यों करना चाहिए?” मेरे अपने कारण हैं। वे भी तीन हैं। ध्यान से सुनो और देखो कि मैं जो कहता हूँ, क्या उसका कोई अर्थ है। अगर है, तो तुम लोगों को उसे स्वीकारना चाहिए; अगर तुम्हें लगता है कि उसका कोई अर्थ नहीं है, तो तुम्हें उसे स्वीकारने की जरूरत नहीं है, और तुम दूसरा मार्ग तलाश सकते हो। इसका पहला कारण यह है कि जब से तुमने परमेश्वर के कार्य के इस चरण को स्वीकार किया है, तब से तुम मेरे द्वारा कहे गए प्रत्येक वचन को खा-पी रहे हो, उनका आनंद ले रहे हो और प्रार्थना-पाठ कर रहे हो। दूसरा कारण यह है कि तुम स्वयं स्वीकार करते हो कि तुम सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अनुयायी हो, कि तुम उसके विश्वासियों में से एक हो। तो क्या यह कहा जा सकता है कि तुम यह स्वीकारते हो कि तुम उस साधारण देह के अनुयायी हो, जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है? यह कहा जा सकता है। संक्षेप में, दूसरा कारण यह है कि तुम स्वीकार करते हो कि तुम सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अनुयायी हो। तीसरा कारण सबसे महत्वपूर्ण है : समस्त मानवजाति में केवल मैं तुम लोगों को मनुष्य के रूप में देखता हूँ। क्या यह बिंदु महत्वपूर्ण है? (हाँ, है।) इन तीन बिंदुओं में से तुम लोग किसे स्वीकार करने में असमर्थ हो? तुम लोग क्या कहते हो, जो बिंदु मैंने अभी-अभी कहे हैं, क्या उनमें से कोई बिंदु असत्य है, वस्तुनिष्ठ नहीं है, तथ्यात्मक नहीं है? (नहीं।) तो कुल मिलाकर छह बिंदु हैं। मैं उनमें से प्रत्येक के बारे में विस्तार में नहीं जाऊँगा; तुम लोग खुद उन पर चिंतन करो। मैं पहले ही इन विषयों के बारे में विस्तार से बोल चुका हूँ, इसलिए तुम लोगों को इन्हें समझने में सक्षम होना चाहिए।

4 जुलाई 2020

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