प्रकरण दो : कैसे नूह और अब्राहम ने परमेश्वर के वचनों का पालन किया और उसके प्रति समर्पण किया (भाग एक) खंड दो

II. अब्राहम ने इसहाक की भेंट चढ़ाई

सुनाने लायक एक कहानी और है : अब्राहम की कहानी। एक दिन अब्राहम के घर दो दूत आए, जिनका उसने उत्साह से स्वागत किया। दूतों को अब्राहम को यह बताने का काम सौंपा गया था कि परमेश्वर उसे एक पुत्र प्रदान करेगा। जैसे ही अब्राहम ने यह सुना, वह बहुत खुश हुआ : “मेरे प्रभु का धन्यवाद!” लेकिन उनके पीछे अब्राहम की पत्नी सारा मन ही मन हँसी। उसकी हँसी का मतलब था, “यह असंभव है, मैं बूढ़ी हो गई हूँ—मैं बच्चा कैसे पैदा कर सकती हूँ? मुझे एक बेटा दिया जाएगा, क्या मजाक है!” सारा को विश्वास नहीं हुआ। क्या दूतों ने सारा की हँसी सुनी? (हाँ, सुनी।) बेशक उन्होंने सुनी, और परमेश्वर ने भी इसे देखा। और परमेश्वर ने क्या किया? परमेश्वर अदृश्य रूप से देख रहा था। वह अबोध स्त्री सारा इस पर विश्वास नहीं करती थी—लेकिन परमेश्वर जो करने का निश्चय करता है, क्या उसमें मनुष्य विघ्न डाल सकते हैं? (नहीं।) उसमें कोई मनुष्य विघ्न नहीं डाल सकता। जब परमेश्वर कुछ करने का निश्चय करता है, तो कुछ लोग कह सकते हैं, “मुझे इस पर विश्वास नहीं है, मैं इसके विरोध में हूँ, मैं इससे मना करता हूँ, मुझे इस पर आपत्ति है, मुझे इससे समस्या है।” क्या उनकी बातों में दम होता है? (नहीं।) तो जब परमेश्वर देखता है कि ऐसे लोग भी हैं, जो असहमत हैं, जिनके पास कहने के लिए कुछ है, जो विश्वास नहीं करते, तो क्या उसे उन्हें स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता है? क्या उसे उन्हें यह स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता है कि वह जो करता है, वह कैसे और क्यों करता है? क्या परमेश्वर ऐसा करता है? वह ऐसा नहीं करता। वह इस बात पर ध्यान नहीं देता कि ये अज्ञानी लोग क्या करते और कहते हैं, वह इस बात की परवाह नहीं करता कि उनका रवैया क्या है। परमेश्वर ने अपने हृदय में जो कुछ करने की ठानी है, वह बहुत पहले से निश्चित है : उसे यही करना है। सभी चीजें और घटनाएँ परमेश्वर के हाथों के नियंत्रण और संप्रभुता के अधीन हैं, जिसमें यह भी शामिल है कि कब किसी को बच्चा होना है और वह किस तरह का बच्चा है—कहने की आवश्यकता नहीं कि यह भी परमेश्वर के ही हाथों में है। जब परमेश्वर ने दूतों को अब्राहम को यह बताने के लिए भेजा कि वह उसे एक पुत्र देगा, तो वास्तव में, परमेश्वर ने बहुत पहले ही उन बहुत-सी चीजों की योजना बना ली थी, जिन्हें उसे बाद में करना था। पुत्र कौन-सी जिम्मेदारियाँ निभाएगा, उसका जीवन किस तरह का होगा, उसके वंशज कैसे होंगे—परमेश्वर ने बहुत पहले ही यह सब योजना बना ली थी, और इसमें कोई त्रुटि या फेरबदल नहीं होगा। और इसलिए, क्या किसी मूर्ख औरत की हँसी कुछ बदल सकती थी? वह कुछ नहीं बदल सकती थी। और जब समय आया, तो परमेश्वर ने वैसा ही किया, जैसी उसने योजना बनाई थी, और यह सब वैसे ही पूरा हुआ, जैसा परमेश्वर ने कहा और निश्चय किया था।

जब अब्राहम 100 वर्ष का हुआ, तो परमेश्वर ने उसे एक पुत्र दिया। पुत्र के बिना 100 वर्ष जीकर अब्राहम के दिन नीरस और एकाकी हो चुके थे। कोई 100-वर्षीय आदमी बिना बच्चों के, खासकर बिना बेटे के कैसा महसूस करता है? “मेरे जीवन में एक अभाव है। परमेश्वर ने मुझे बेटा नहीं दिया, और मैंने जीवन में थोड़ा अकेलापन, थोड़ा खेद अनुभव किया है।” लेकिन जब परमेश्वर ने अब्राहम को यह बताने के लिए दूत भेजे कि उसे एक पुत्र दिया जाएगा, तो उसकी मनःस्थिति कैसी हो गई? (प्रसन्नतापूर्ण।) आनंदमग्न होने के अलावा वह प्रत्याशा से भी भर गया था। उसने परमेश्वर को उसके अनुग्रह के लिए, अपने जीवन के शेष वर्षों में एक बच्चे के लालन-पालन का अवसर देने के लिए धन्यवाद दिया। यह कितनी अद्भुत बात थी, और यह इसी तरह घटित हुई। तो, उसके पास खुश होने के लिए क्या चीजें थीं? (उसे अपना वंशज मिल गया था, जिससे उसका वंश चलता रहने वाला था।) यह एक बात है। सबसे ज्यादा खुशी की एक बात और थी—क्या थी वह? (यह बच्चा परमेश्वर द्वारा व्यक्तिगत रूप से प्रदान किया गया था।) यह सही है। जब किसी साधारण व्यक्ति के यहाँ बच्चा होता है, तो क्या परमेश्वर आकर उन्हें बताता है? क्या वह कहता है, “मैं व्यक्तिगत रूप से तुम्हें यह बच्चा प्रदान करता हूँ, जिसका मैंने तुमसे वादा किया था”? क्या परमेश्वर यही करता है? नहीं, तो इस बच्चे के बारे में क्या खास बात थी? परमेश्वर ने अब्राहम को व्यक्तिगत रूप से यह बताने के लिए दूत भेजे, “100 वर्ष की आयु में तुम्हें एक बच्चा प्राप्त होगा, जो व्यक्तिगत रूप से परमेश्वर द्वारा दिया गया है।” यह बात है, जो उस बच्चे के बारे में खास है : उसे परमेश्वर द्वारा बताया गया था, और परमेश्वर द्वारा व्यक्तिगत रूप से दिया गया था। यह कितनी खुशी की बात थी! और क्या इस बच्चे का विशेष महत्व लोगों के मन में विचारों की बाढ़ लाने का कारण नहीं है? जब अब्राहम ने इस बच्चे का जन्म होते देखा, तो उसे कैसा लगा? “आखिरकार मेरा एक बच्चा है। परमेश्वर के वचन पूरे हो गए; परमेश्वर ने कहा था कि वह मुझे एक बच्चा देगा, और उसने सचमुच दे दिया!” जब यह बच्चा पैदा हुआ और उसने उसे अपनी बाँहों में लिया, तो पहली चीज जो उसने महसूस की, वह यह थी, “यह बच्चा मुझे इंसानों के हाथों से नहीं, बल्कि परमेश्वर के हाथों से मिला है। बच्चे का आगमन इतना समयोचित है। यह परमेश्वर द्वारा दिया गया है, और मुझे इसका अच्छी तरह से लालन-पालन करना चाहिए, इसे अच्छी तरह से शिक्षित करना चाहिए और इसे परमेश्वर की आराधना करने और परमेश्वर के वचनों का पालन करने के लिए प्रेरित करना चाहिए, क्योंकि यह परमेश्वर से आया है।” क्या वह इस बच्चे को बहुत सँजोता था? (हाँ।) यह एक विशेष बच्चा था। यही नहीं, अब्राहम की उम्र देखते हुए यह कल्पना करना मुश्किल नहीं है कि वह इस लड़के को कितना सँजोता था। एक सामान्य व्यक्ति की अपने बच्चे के प्रति लाड़-प्यार, दुलार और स्नेह की सभी भावनाएँ अब्राहम में भी पाई गईं। अब्राहम ने परमेश्वर द्वारा बोले गए वचनों पर विश्वास किया था, और अपनी आँखों से उसके वचनों को पूरा होते देखा था। वह इन वचनों के बोले जाने से लेकर उनके पूरे होने तक का साक्षी भी रहा था। उसने महसूस किया कि परमेश्वर के वचन कितने अधिकारपूर्ण हैं, उसके कर्म कितने चमत्कारी हैं, और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि परमेश्वर मनुष्य की कितनी परवाह करता है। हालाँकि बच्चे को देखकर अब्राहम ने कई जटिल और तीव्र भावनाएँ अनुभव कीं, लेकिन अपने दिल में उसके पास परमेश्वर से कहने के लिए केवल एक ही बात थी। मुझे बताओ, तुम लोग क्या सोचते हो कि उसने क्या कहा? (परमेश्वर को धन्यवाद!) “मेरे प्रभु को धन्यवाद!” अब्राहम आभारी था और उसने परमेश्वर को हार्दिक धन्यवाद और स्तुति भी अर्पित की। परमेश्वर और अब्राहम के लिए यह बच्चा असाधारण महत्व का था। वह इसलिए, क्योंकि जिस क्षण से परमेश्वर ने कहा कि वह अब्राहम को एक बच्चा देगा, परमेश्वर ने योजना बनाई और निर्धारित किया कि वह कुछ हासिल करेगा : ऐसे महत्वपूर्ण मामले थे, बड़े मामले थे, जिन्हें वह इस बच्चे के माध्यम से हासिल करना चाहता था। परमेश्वर के लिए बच्चे का ऐसा महत्व था। जहाँ तक अब्राहम का संबंध है, उस पर परमेश्वर के विशेष अनुग्रह के कारण, चूँकि परमेश्वर ने उसे एक बच्चा दिया था, इतिहास की विकास प्रक्रिया के दौरान और समस्त मानवजाति के संदर्भ में, उसके अस्तित्व का मूल्य और महत्त्व असाधारण था, यह साधारण से परे था। और क्या यह कहानी का अंत है? नहीं। महत्वपूर्ण भाग तो अभी शुरू होना बाकी है।

परमेश्वर से इसहाक को प्राप्त करने के बाद अब्राहम ने इसहाक का परमेश्वर की आज्ञा और अपेक्षा के अनुसार लालन-पालन किया। उन तमाम मामूली वर्षों के दौरान अपने दैनिक जीवन में अब्राहम इसहाक को बलिदान के लिए अपने साथ ले गया, और इसहाक को स्वर्ग के परमेश्वर की कहानियाँ सुनाईं। थोड़ा-थोड़ा करके इसहाक को बातें समझ में आने लगीं। उसने परमेश्वर को धन्यवाद देना और परमेश्वर की स्तुति करना सीखा, और उसने आज्ञापालन करना और उसे भेंटें देना सीखा। वह जानता था कि भेंटें कब दी जाती हैं, और वेदी कहाँ है। इसके बाद, हम कहानी के मुख्य बिंदु पर आते हैं। एक दिन, ऐसे समय में, जब इसहाक ने चीजों को समझना शुरू कर दिया था लेकिन वह अभी तक परिपक्व नहीं हुआ था, परमेश्वर ने अब्राहम से कहा, “मुझे इस बलिदान के लिए कोई मेमना नहीं चाहिए। उसके बजाय इसहाक को अर्पित करो।” अब्राहम जैसे व्यक्ति के लिए, जो इसहाक को इतना सँजोता था, क्या परमेश्वर के वचन चौंकाने वाले और अप्रत्याशित थे? अब्राहम की तो बात ही छोडो जो इतना बूढ़ा था—मध्यम आयु-वर्ग के—30 से 40 तक की उम्र के—लोगों में से भी कितने इस समाचार को सह सकते हैं? क्या कोई सह सकता है? (नहीं।) और परमेश्वर के वचनों को सुनने के बाद अब्राहम की क्या प्रतिक्रिया थी? “आह? क्या परमेश्वर ने जो कहा, वह उसने गलती से कह दिया? परमेश्वर कभी गलती नहीं करता, तो क्या ऐसा है कि मेरे बूढ़े कानों ने गलत सुन लिया? मैं दोबारा पता करूँगा।” उसने पूछा, “परमेश्वर, क्या तुम मुझसे इसहाक की भेंट चढ़ाने के लिए कह रहे हो? क्या तुम इसहाक का बलिदान चाहते हो?” परमेश्वर ने कहा, “हाँ, यह सही है!” पुष्टि करने के बाद अब्राहम जान गया कि परमेश्वर के वचन गलत नहीं थे, और न ही वे बदलेंगे। यह ठीक वैसा ही था, जैसे परमेश्वर के मायने थे। और क्या अब्राहम के लिए यह सुनना कठिन था? (हाँ, कठिन था।) कितना कठिन था? अब्राहम ने अपने मन में सोचा, “इतने वर्षों के बाद मेरा बच्चा आखिरकार बड़ा होने लगा है। अगर उसे जीवित बलि के रूप में चढ़ाया गया, तो इसका मतलब होगा कि वह वेदी पर वध करने के लिए लाए गए मेमने की तरह काट दिया जाएगा। काट दिए जाने का मतलब है कि उसे मार दिया जाएगा, और उसके मारे जाने का मतलब है कि आज से मैं इस बच्चे से वंचित हो जाऊँगा...।” अपने विचारों के इस बिंदु तक पहुँच जाने के बाद क्या अब्राहम ने आगे कुछ सोचने की हिम्मत की? (नहीं।) क्यों नहीं की? आगे सोचने से और ज्यादा दर्द होगा, जैसे दिल में चाकू घुस जाए। आगे सोचने का मतलब खुशी की बातों के बारे में सोचना नहीं होगा—इसका मतलब होगा यातना। बच्चे को कहीं लेकर नहीं जाया जा रहा था, जिससे वह कुछ दिनों या वर्षों के लिए दिखता भले नहीं, लेकिन फिर भी जीवित रहता; ऐसा नहीं था कि अब्राहम लगातार उसके बारे में सोचता रहेगा, और फिर उसके बड़ा होने के बाद किसी उपयुक्त समय पर दोबारा उससे मिलेगा। ऐसी बात नहीं थी। एक बार बच्चे को वेदी पर चढ़ा दिया गया, तो वह जीवित नहीं रहेगा, उसे फिर कभी नहीं देखा जाएगा, उसे परमेश्वर के लिए बलिदान किया जा चुका होगा, और वह परमेश्वर के पास लौट चुका होगा। चीजें वैसी ही हो जाएँगी, जैसी वे पहले थीं। बच्चे से पहले, जीवन एकाकी था। और अगर चीजें ऐसे ही चलतीं, उसका कभी बच्चा न होता, तो क्या यह दर्दनाक होता? (यह बहुत दर्दनाक न होता।) बच्चा होना और फिर उसे खो देना—यह बहुत दर्दनाक है। यह दिल दहला देने वाली चीज है! इस बच्चे को परमेश्वर को लौटाने का मतलब होगा कि उसके बाद से बच्चा फिर कभी नहीं दिखेगा, उसकी आवाज फिर कभी सुनाई नहीं देगी, अब्राहम उसे फिर कभी खेलते हुए नहीं देख पाएगा, उसका लालन-पालन नहीं कर पाएगा, उसे हँसा नहीं पाएगा, उसे बड़ा होते नहीं देख पाएगा, उसकी मौजूदगी से मिलने वाले तमाम पारिवारिक सुखों का आनंद नहीं ले पाएगा। जो कुछ रह जाएगा, वह दर्द और तड़प होगी। जितना अधिक अब्राहम ने इसके बारे में सोचा, यह उतना ही कठिन होता गया। लेकिन यह कितना भी कठिन क्यों न हो, एक बात उसके दिल में स्पष्ट थी : “परमेश्वर ने जो कहा और जो वह करने जा रहा है, वह मजाक नहीं है, वह गलत नहीं हो सकता, बदल तो बिल्कुल भी नहीं सकता। इसके अलावा, बच्चा परमेश्वर से आया है, इसलिए यह पूरी तरह से स्वाभाविक और उचित है कि उसे परमेश्वर को अर्पित कर दिया जाए, और जब परमेश्वर चाहे, तब बिना किसी समझौते के मैं उसे परमेश्वर को लौटाने के लिए बाध्य हूँ। पारिवारिक आनंद का पिछला दशक एक विशेष उपहार रहा है, जिसका मैंने भरपूर आनंद लिया है; मुझे परमेश्वर को धन्यवाद देना चाहिए, और परमेश्वर से अनुचित माँग नहीं करनी चाहिए। यह बच्चा परमेश्वर का है, मुझे इसके अपना होने का दावा नहीं करना चाहिए, यह मेरी निजी संपत्ति नहीं है। सभी लोग परमेश्वर से आते हैं। यहाँ तक कि अगर मुझसे अपना जीवन अर्पित करने के लिए भी कहा जाए, तो मुझे परमेश्वर से बहस करने या शर्तें रखने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, फिर इसकी तो बात ही क्या जब बच्चा होने की बात परमेश्वर द्वारा व्यक्तिगत रूप से बताई गई हो और बच्चा उसी के द्वारा दिया गया हो। अगर परमेश्वर उसे अर्पित करने के लिए कहता है, तो मैं उसे अर्पित करूँगा!”

क्षण-प्रति-क्षण, पल-प्रति-पल समय इसी तरह बीतता गया, बलिदान का क्षण निकट से निकटतर आता गया। लेकिन ज्यादा दुखी होने के बजाय अब्राहम अधिकाधिक शांत महसूस करता गया। उसे किस चीज ने शांत किया? किस चीज ने अब्राहम को दर्द से बचने और होनी के प्रति सही दृष्टिकोण रखने दिया? उसका मानना था कि परमेश्वर ने जो कुछ भी किया है, उसके लिए किसी व्यक्ति का रवैया केवल समर्पण वाला होना चाहिए, न कि परमेश्वर से बहस करने की कोशिश करनी चाहिए। उसके विचार इस बिंदु पर पहुँच जाने के कारण उसे अब और दर्द नहीं हुआ। छोटे इसहाक को लेकर वह कदम दर कदम चलता हुआ वेदी तक पहुँच गया। वेदी पर कुछ नहीं था—आम तौर पर पहले से इंतजार करता दिखने वाला मेमना भी नहीं। “पिताजी, क्या आपने अभी तक आज के बलिदान की तैयारी नहीं की है?” इसहाक ने पूछा। “अगर नहीं, तो आज क्या बलिदान किया जाएगा?” जब इसहाक ने यह पूछा, तो अब्राहम ने क्या महसूस किया? क्या यह संभव है कि उसने खुशी महसूस की हो? (नहीं।) तो उसने क्या किया? क्या अपने हृदय में उसने परमेश्वर से घृणा की? क्या उसने परमेश्वर से शिकायत की? क्या उसने प्रतिरोध किया? (नहीं।) इनमें से कुछ नहीं किया। यह कैसे पता चलता है? आगे जो कुछ हुआ, उससे यह स्पष्ट है कि अब्राहम ने वास्तव में ऐसी बातें नहीं सोची थीं। उसने वह जलाऊ लकड़ी वेदी पर रखी, जिसे वह जलाने वाला था, और इसहाक को बुलाया। और उस समय अब्राहम द्वारा इसहाक को वेदी पर बुलाते देखकर लोग क्या सोचते हैं? “तुम कितने निर्दयी बूढ़े हो। तुममें इंसानियत नहीं है। तुम इंसान नहीं हो! वह तुम्हारा बेटा है, क्या तुम वाकई इसे सहन कर सकते हो? क्या तुम वाकई ऐसा कर सकते हो? क्या तुम वाकई इतने क्रूर हो? क्या तुम्हारे पास दिल है भी?” क्या वे ऐसा ही न सोचते? और क्या अब्राहम ने ये बातें सोची थीं? (नहीं।) उसने इसहाक को अपने पास बुलाया और एक शब्द भी कह पाने में असमर्थ होकर उसने तैयार की गई रस्सी निकाली और उससे इसहाक के हाथ-पैर बाँध दिए। क्या ये कार्य बताते हैं कि यह भेंट असली होने वाली थी या नकली? यह असली और शुद्ध होने वाली थी, दिखावे के लिए नहीं। उसने इसहाक को अपने कंधों पर उठाया, और उस छोटे बच्चे ने चाहे कितना भी संघर्ष किया और वह कितना भी रोया-चिल्लाया, अब्राहम ने कभी हार मानने के बारे में नहीं सोचा। उसने संकल्पपूर्वक अपने कमसिन बेटे को वेदी पर जलाने के लिए जलाऊ लकड़ी पर रख दिया। इसहाक रोया, चिल्लाया, हाथ-पैर मारे—लेकिन अब्राहम बलिदान के लिए सब-कुछ तैयार करते हुए परमेश्वर के लिए बलिदान करने की क्रियाएँ करता रहा। इसहाक को वेदी पर रखने के बाद अब्राहम ने एक चाकू निकाला, जो आम तौर पर मेमनों को मारने के लिए इस्तेमाल किया जाता था, और उसे दोनों हाथों में मजबूती से पकड़कर अपने सिर के ऊपर ले गया और इसहाक को निशाना बना लिया। उसने अपनी आँखें बंद कर लीं, और चाकू धँसने ही वाला था कि परमेश्वर ने अब्राहम से बात की। परमेश्वर ने क्या कहा? “अब्राहम, अपना हाथ रोक लो!” अब्राहम ने कभी नहीं सोचा होगा कि परमेश्वर उस समय ऐसा कुछ कह सकता है, जब वह इसहाक को उसे लौटाने वाला था। उसने ऐसा कुछ सोचने की हिम्मत नहीं की थी। और फिर भी, एक-एक करके परमेश्वर के वचन उसके हृदय से टकराते रहे। इस प्रकार इसहाक बच गया। उस दिन, वह बलिदान जो वास्तव में परमेश्वर को दिया जाना था, अब्राहम के पीछे था; वह एक मेमना था। परमेश्वर ने इसकी तैयारी बहुत पहले ही कर ली थी, लेकिन परमेश्वर ने अब्राहम को इसका कोई पूर्व-संकेत नहीं दिया था, इसके बजाय उसने उसे ठीक उस समय रुकने के लिए कहा, जब उसने चाकू उठा लिया था और उसे घोंपने के लिए तैयार था। किसी ने इसकी कल्पना भी नहीं की होगी, न अब्राहम ने, न इसहाक ने। अब्राहम द्वारा इसहाक की बलि देने को देखें तो, क्या अब्राहम वास्तव में अपने बेटे की बलि देने का इरादा रखता था या वह दिखावा कर रहा था? (वह सचमुच ऐसा करने का इरादा रखता था।) वह सचमुच ऐसा करने का इरादा रखता था। उसके कार्यकलाप शुद्ध थे, उनमें कोई छल-कपट नहीं था।

अब्राहम ने अपना मांस और लहू परमेश्वर को बलिदान के रूप में दिया—और जब परमेश्वर ने उससे यह भेंट चढ़ाने के लिए कहा, तो अब्राहम ने यह कहकर उससे बहस करने की कोशिश नहीं की, “क्या हम किसी और का उपयोग नहीं कर सकते? मैं करूँ, या कोई और व्यक्ति।” ऐसी बातें कहने के बजाय अब्राहम ने अपना सबसे प्रिय और बहुमूल्य पुत्र परमेश्वर को दे दिया। और यह भेंट कैसे चढ़ाई गई? परमेश्वर ने जो कहा, उसने उसे सुन लिया, और फिर बस, आगे बढ़कर कर दिया। क्या लोगों को यह तर्कसंगत लगेगा कि परमेश्वर ने अब्राहम को एक बच्चा दिया, और जब वह बच्चा बड़ा हो गया, तो उसने अब्राहम को बच्चा वापस देने के लिए कहा, और बच्चा वापस लेना चाहा? (नहीं लगेगा।) मनुष्य के परिप्रेक्ष्य से, क्या यह पूरी तरह से अनुचित न होता? क्या ऐसा न लगता कि परमेश्वर अब्राहम के साथ खिलवाड़ कर रहा है? एक दिन परमेश्वर ने अब्राहम को यह बच्चा दिया, और फिर कुछ ही वर्षों बाद उसने उसे ले लेना चाहा। अगर परमेश्वर को बच्चा चाहिए था, तो उसे बस ले लेना चाहिए था; वेदी पर बच्चे का बलिदान करने के लिए कहकर उस व्यक्ति को इतनी पीड़ा देने की आवश्यकता नहीं थी। बच्चे की वेदी पर बलि देने का क्या मतलब था? यही कि अब्राहम को उसे मारना था और फिर अपने दोनों हाथों से जलाना था। क्या यह ऐसी चीज है, जिसे करना कोई व्यक्ति सहन कर सकता है? (नहीं।) परमेश्वर ने जब यह बलिदान माँगा, तो उसका क्या आशय था? कि अब्राहम को व्यक्तिगत रूप से यह काम करना चाहिए : व्यक्तिगत रूप से अपने बेटे को बाँधना चाहिए, व्यक्तिगत रूप से उसे वेदी पर रखना चाहिए, व्यक्तिगत रूप से उसे चाकू से मारना चाहिए, और फिर व्यक्तिगत रूप से उसे परमेश्वर को चढ़ाई गई एक भेंट के रूप में जला देना चाहिए। मनुष्यों को इनमें से कोई भी बात मनुष्य की भावनाओं के प्रति विचारशील नहीं लगेगी; अपनी धारणाओं, मानसिकता, नैतिक दर्शन, या नैतिकता और रीति-रिवाजों के अनुसार इनमें से कोई चीज तर्कसंगत नहीं लगेगी। अब्राहम शून्य में नहीं रहता था, न ही वह किसी काल्पनिक दुनिया में रहता था; वह मनुष्य की दुनिया में रहता था। उसमें मानवीय विचार और मानवीय दृष्टिकोण थे। और जब यह सब उसके साथ हुआ, तो उसने क्या सोचा? अपनी पीड़ा के अलावा, और उन कुछ चीजों के अलावा जिन्होंने उसे हैरान कर दिया था, क्या उसमें विद्रोह या अस्वीकृति थी? क्या उसने मौखिक रूप से परमेश्वर पर हमला किया और उसे अपशब्द कहे? बिल्कुल नहीं। ठीक इसके विपरीत : जिस क्षण से परमेश्वर ने उसे यह कार्य करने की आज्ञा दी, अब्राहम ने इसे हलके में लेने का साहस नहीं किया; बल्कि उसने तुरंत तैयारियाँ शुरू कर दीं। और जब उसने ये तैयारियाँ शुरू कीं, तो उसकी मनोदशा कैसी थी? क्या वह प्रसन्न, आनंदित और खुश था? या वह दुखी, उदास और मायूस था? (वह दुखी और उदास था।) वह दुखी था! उसका हर कदम भारी था। इस बात से अवगत होने के बाद, और परमेश्वर के वचनों को सुनने के बाद, अब्राहम को हर दिन एक वर्ष के समान लगा; वह तकलीफ में था, आनंदित होने में असमर्थ था, और उसका दिल भारी था। लेकिन उसका एकमात्र दृढ़ विश्वास क्या था? (यही कि उसे परमेश्वर के वचनों का पालन करना चाहिए।) यह सही है, वह यही था कि उसे परमेश्वर के वचनों का पालन करना चाहिए। उसने मन ही मन कहा, “मेरे प्रभु यहोवा का नाम धन्य है; मैं परमेश्वर के लोगों में से एक हूँ, और मुझे परमेश्वर के वचनों का पालन करना चाहिए। परमेश्वर जो कहता है, वह सही हो या गलत, और चाहे इसहाक मेरे पास कैसे भी आया हो, अगर परमेश्वर कहता है तो मुझे देना चाहिए; ऐसा ही विवेक और रवैया मनुष्य में पाया जाना चाहिए।” परमेश्वर के वचन स्वीकारने के बाद अब्राहम पीड़ा या कठिनाई से मुक्त नहीं था; उसने पीड़ा महसूस की और उसकी अपनी कठिनाइयाँ थीं जिन पर काबू पाना आसान नहीं था! फिर भी, अंत में क्या हुआ? जैसा कि परमेश्वर ने चाहा था, अब्राहम अपने पुत्र को, जो एक छोटा बच्चा था, वेदी पर ले आया, और जो कुछ उसने किया, उसे परमेश्वर ने देखा। जैसे परमेश्वर ने नूह को देखा था, वैसे ही उसने अब्राहम की हर चेष्टा को देखा था, और जो कुछ उसने किया, उससे परमेश्वर प्रभावित हुआ था। हालाँकि चीजें उस तरह घटित नहीं हुईं, जिस तरह होने की किसी ने सोची होगी, फिर भी अब्राहम ने जो किया, वह पूरी मानवजाति के बीच अद्वितीय था। क्या उसे उन सभी के लिए एक उदाहरण होना चाहिए, जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं? (हाँ।) वह उन सभी मनुष्यों के लिए एक आदर्श है, जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं। मैं क्यों कहता हूँ कि वह मनुष्यों के लिए एक आदर्श है? अब्राहम बहुत-से सत्य नहीं समझता था, न ही उसने परमेश्वर द्वारा उससे व्यक्तिगत रूप से कहे गए कोई सत्य या उपदेश सुने थे। उसने केवल विश्वास किया था, स्वीकार किया था और आज्ञापालन किया था। उसकी मानवता में ऐसी क्या अनोखी चीज थी? (सृजित प्राणी का विवेक।) कौन-से शब्द इसे दर्शाते हैं? (उसने कहा, “मेरे प्रभु यहोवा का नाम धन्य है; मुझे परमेश्वर के वचनों का पालन करना चाहिए, और चाहे वे मनुष्य की धारणाओं के अनुरूप हों या नहीं, मुझे समर्पण करना चाहिए।”) इसमें, अब्राहम में सामान्य मानवता का विवेक था। इतना ही नहीं, उसमें सामान्य मानवता का जमीर भी था। और यह जमीर कहाँ परिलक्षित हुआ? अब्राहम जानता था कि इसहाक को परमेश्वर ने प्रदान किया है, कि वह परमेश्वर की एक वस्तु है, कि वह परमेश्वर का है, और कि जब परमेश्वर माँगे, तब अब्राहम को उसे परमेश्वर को लौटा देना चाहिए, न कि हमेशा उससे चिपके रहना चाहिए; यही वह अंतरात्मा है जो मनुष्य के पास होना चाहिए।

क्या आज के लोगों में जमीर और विवेक है? (नहीं।) यह किन बातों में परिलक्षित होता है? परमेश्वर लोगों पर चाहे कितना भी अनुग्रह करे, और चाहे वे कितने भी आशीषों या कितने भी अनुग्रह का आनंद लें, जब उनसे परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान करने के लिए कहा जाता है, तो उनका क्या दृष्टिकोण होता है? (प्रतिरोध और कभी-कभी कठिनाई और थकावट से डरना।) कठिनाई और थकावट से डरना जमीर और विवेक न होने की एक ठोस अभिव्यक्ति है। बहाने बनाना, शर्तें रखना और सौदेबाजी करने का प्रयास करना भी ठोस अभिव्यक्तियाँ हैं, है ना? (हाँ।) साथ ही, शिकायत करना, चीजें लापरवाह और ढुलमुल तरीके से करना और दैहिक सुख-सुविधाओं का लालच करना भी है—ये सब ठोस अभिव्यक्तियाँ हैं। लोगों में आज जमीर नहीं है, फिर भी वे अक्सर परमेश्वर के अनुग्रह की स्तुति करते हैं, और ऐसे सभी अनुग्रहों को गिनते हैं और उन्हें गिनते हुए भावुक होकर आँसू बहाते हैं। लेकिन जब वे गिनती समाप्त कर लेते हैं तो यह सब समाप्त हो जाता है; वे अभी भी लापरवाह बने रहते हैं, अनमने ढंग से काम करते रहते हैं, धोखेबाज बने रहते हैं, और पश्चात्ताप की किसी विशेष अभिव्यक्ति के बिना शातिर और सुस्त बने रहते हैं। तो फिर तुम्हारी गणना का क्या मतलब था? यह जमीर की कमी की अभिव्यक्ति है। तो, विवेक की कमी कैसे अभिव्यक्त होती है? जब परमेश्वर तुम्हारी काट-छाँट करता है, तो तुम शिकायत करते हो, तुम्हारी भावनाएँ आहत हो जाती हैं, और तब तुम और अपना कर्तव्य करना नहीं चाहते और कहते हो कि परमेश्वर में प्रेम नहीं है; जब तुम अपना कर्तव्य करते हुए थोड़ा कष्ट सहते हो, या जब परमेश्वर तुम्हारे लिए जिस परिवेश का इंतजाम करता है, वह थोड़ा कठिन, थोड़ा चुनौतीपूर्ण या थोड़ा सख्त होता है, तब तुम उसे नहीं निभाना चाहते; और परमेश्वर द्वारा इंतजाम किए गए विभिन्न परिवेशों में से किसी में भी तुम समर्पण करने की तलाश करने में समर्थ नहीं होते हो, तुम केवल देह के प्रति विचारशील रहते हो, और तुम केवल असंयमित होकर बेलगाम होना चाहते हो। यह विवेक न होने का संकेत है या नहीं? तुम परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाएँ स्वीकार नहीं करना चाहते, और तुम केवल उससे लाभ प्राप्त करना चाहते हो। जब तुम कोई छोटा-सा कार्य कार्यान्वित करते हो और थोड़ा पीड़ित होते हो, तो तुम अपनी योग्यताओं का दावा करते हो, रुतबे के फायदे उठाते हुए खुद को दूसरों से ऊपर समझते हो और अधिकारी की तरह शान बघारना शुरू कर देते हो। तुम्हारी कोई वास्तविक कार्य करने की इच्छा नहीं होती, न ही तुम कोई वास्तविक कार्य कार्यान्वित करने में सक्षम हो—तुम केवल आदेश देना और अधिकारी बनना चाहते हो। तुम अपने आपमें कानून बनना चाहते हो, जो तुम्हारा जी चाहे वह करना चाहते हो, और बिना सोचे-विचारे कुकर्म करना चाहते हो। असंयमित होकर बेलगाम होने के अलावा तुममें और कुछ भी अभिव्यक्त नहीं होता। क्या यह विवेक होना है? (नहीं।) अगर परमेश्वर तुम लोगों को एक अच्छा बच्चा दे, और बाद में तुमसे स्पष्ट रूप से कह दे कि वह उस बच्चे को वापस लेने वाला है, तो तुम्हारा क्या रवैया होगा? क्या वही रवैया रख सकते हो जो अब्राहम का था? (नहीं।) कुछ लोग कहेंगे, “मैं वैसा रवैया कैसे न रख सकता? मेरा पुत्र बीस वर्ष का है और मैंने उसे परमेश्वर के घर को अर्पित कर दिया, जहाँ वह अब अपना कर्तव्य करता है!” क्या यह बलिदान है? ज्यादा से ज्यादा, तुम अपने बच्चे को सही रास्ते पर ले गए हो—लेकिन तुम्हारा एक गूढ़ प्रयोजन भी है : तुम डरते हो कि अन्यथा तुम्हारा बच्चा आपदा में नष्ट हो सकता है। क्या ऐसा नहीं है? तुम जो कर रहे हो, उसे बलिदान करना नहीं कहा जाता; यह अब्राहम द्वारा इसहाक के बलिदान के समान बिल्कुल नहीं है। इन दोनों में कोई तुलना ही नहीं है। जब अब्राहम ने सुना कि परमेश्वर ने उसे क्या आज्ञा दी है, तो इस निर्देश को कार्यान्वित करना उसके लिए—या मानवजाति के किसी भी अन्य सदस्य के लिए—कितना कठिन रहा होगा? यह दुनिया में सबसे कठिन काम होता; इससे कठिन कुछ भी नहीं है। यह एक मेमना या थोड़े-से पैसे चढ़ाना नहीं था, और यह कोई सांसारिक संपत्ति या भौतिक वस्तु नहीं थी, न ही यह कोई ऐसा जानवर था जिसका भेंट चढ़ाने वाले व्यक्ति से कोई संबंध नहीं था। ये चीजें ऐसी हैं जिन्हें व्यक्ति क्षणिक प्रयास से ही चढ़ा सकता है—जबकि परमेश्वर द्वारा अब्राहम से माँगा गया बलिदान एक दूसरे व्यक्ति के जीवन का बलिदान था। यह अब्राहम के अपने मांस और लहू का बलिदान था। यह कितना कठिन रहा होगा! बच्चे की भी एक विशेष पृष्ठभूमि थी, क्योंकि उसे परमेश्वर द्वारा प्रदान किया गया था। उसे बच्चा देने में परमेश्वर का लक्ष्य क्या था? वह यह था कि अब्राहम का एक बेटा होगा, जो पाल-पोसकर बड़ा किया जाएगा, उसकी शादी और बच्चे होंगे, और इस प्रकार उसके परिवार का नाम आगे बढ़ेगा। लेकिन अब, इस बच्चे के बड़े होने से पहले ही उसे परमेश्वर को लौटाया जाना था, और वे चीजें कभी नहीं होंगी। तो, परमेश्वर द्वारा अब्राहम को एक बच्चा देने का क्या मतलब था? क्या कोई प्रेक्षक इसका कोई मतलब निकाल सकता है? लोगों की धारणाओं के आलोक में, इसका कोई मतलब नहीं है। भ्रष्ट मानवजाति स्वार्थी है; कोई इसका मतलब नहीं निकाल सकता। अब्राहम भी इसे समझ नहीं पाया; वह नहीं जानता था कि आखिरकार परमेश्वर क्या करना चाहता है, सिवाय इसके कि उसने उससे इसहाक का बलिदान करने के लिए कहा है। इस प्रकार, अब्राहम ने क्या चुनाव किया? उसका रवैया क्या था? यद्यपि वह यह सब समझने में असमर्थ था, फिर भी वह वैसा करने में सक्षम था जैसी परमेश्वर ने आज्ञा दी थी; उसने परमेश्वर के वचनों का पालन किया और जो कुछ उसने माँगा, उसके हर वचन के प्रति समर्पित हो गया, बिना प्रतिरोध किए या बिना कोई विकल्प माँगे, परमेश्वर पर शर्तें थोपने या उससे बहस करने की कोशिश तो उसने बिल्कुल भी नहीं की। जो कुछ भी हो रहा था, उसे समझ पाने से पहले अब्राहम आज्ञापालन करने और समर्पित होने में सक्षम था—जो बिल्कुल दुर्लभ और सराहनीय है और यहाँ बैठे तुम लोगों में से किसी की भी क्षमता से परे है। अब्राहम नहीं जानता था कि क्या हो रहा है और परमेश्वर ने उसे पूरी कहानी नहीं सुनाई थी; फिर भी उसने इसे गंभीरता से लिया, इस बात पर विश्वास करते हुए कि जो कुछ भी परमेश्वर करना चाहता है, लोगों को उसके प्रति समर्पित होना चाहिए, और कि उन्हें सवाल नहीं पूछने चाहिए, कि अगर परमेश्वर कुछ और नहीं कहता, तो यह ऐसा कुछ नहीं है जिसे लोगों को समझने की जरूरत हो। कुछ लोग कहते हैं, “लेकिन तुम्हें इस मामले की तह तक अवश्य जाना चाहिए, है ना? भले ही इसमें मरना शामिल हो, तुम्हें पता होना चाहिए कि क्यों।” क्या यही वह रवैया है, जो एक सृजित प्राणी में होना चाहिए? जब परमेश्वर ने तुम्हें समझने नहीं दिया, तो क्या तुम्हें समझना चाहिए? जब तुमसे कुछ करने के लिए कहा जाए, तो तुम उसे करो। चीजों को इतना जटिल क्यों बनाते हो? अगर परमेश्वर चाहता कि तुम समझो, तो वह तुम्हें पहले ही समझा चुका होता; यह देखते हुए कि उसने नहीं समझाया है, तुम्हें समझने की कोई आवश्यकता नहीं है। जब तुम्हें समझने की आवश्यकता न हो, और जब तुम समझने में असमर्थ हो, तो सब-कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि तुम कैसे कार्य करते हो और तुम परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकते हो या नहीं। यह तुम लोगों के लिए कठिन है, है ना? ऐसी परिस्थितियों में तुम लोग समर्पित नहीं होते, और तुम्हारे पास शिकायत, गलत व्याख्या और प्रतिरोध के सिवाय कुछ नहीं बचता। तुम लोगों में जो प्रदर्शित होता है, अब्राहम उसके ठीक विपरीत था। तुम लोगों की तरह वह भी नहीं जानता था कि परमेश्वर क्या करने वाला है, न ही वह परमेश्वर के कार्यों के पीछे के तर्क को जानता था; वह इसे नहीं समझा। क्या वह पूछना चाहता था? क्या वह जानना चाहता था कि क्या चल रहा है? वह चाहता था, लेकिन जब परमेश्वर ने उसे नहीं बताया, तो वह और कहाँ पूछने जा सकता था? वह किससे पूछ सकता था? परमेश्वर के मामले एक रहस्य हैं; परमेश्वर के मामलों से संबंधित सवालों के जवाब कौन दे सकता है? उन्हें कौन समझ सकता है? मनुष्य परमेश्वर की जगह नहीं ले सकता। किसी और से पूछोगे, तो वे भी नहीं समझेंगे। तुम इसके बारे में सोच सकते हो, लेकिन तुम इसका पता नहीं लगा पाओगे, यह तुम्हारी समझ से बाहर होगा। तो, अगर तुम्हें कोई चीज समझ में न आए, तो क्या इसका मतलब यह है कि तुम्हें वह नहीं करना है, जो परमेश्वर कहता है? अगर तुम्हें कोई चीज समझ में नहीं आती, तो क्या तुम बस देखते रह सकते हो, हीला-हवाला कर सकते हो, अवसर की प्रतीक्षा कर सकते हो और कोई अन्य विकल्प तलाश सकते हो? अगर तुम कोई चीज नहीं समझ सकते—अगर वह तुम्हारी समझ से बाहर है—तो क्या इसका मतलब यह है कि तुम्हें समर्पण नहीं करना है? क्या इसका मतलब यह है कि तुम अपने मानवाधिकारों से चिपके रह सकते हो और कह सकते हो, “मेरे पास मानवाधिकार हैं; मैं एक स्वतंत्र व्यक्ति हूँ, तो तुम्हें मुझसे मूर्खतापूर्ण चीजें करवाने का क्या अधिकार है? मैं स्वर्ग और पृथ्वी के बीच ऊँचा खड़ा हूँ—मैं तुम्हारी अवज्ञा कर सकता हूँ”? क्या अब्राहम ने यही किया? (नहीं।) चूँकि वह मानता था कि वह सिर्फ एक साधारण और मामूली सृजित प्राणी है, एक ऐसा व्यक्ति है जो परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है, इसलिए उसने आज्ञापालन और समर्पण करने, परमेश्वर के किसी भी वचन को हलके में न लेने, बल्कि उनका पूरी तरह से अभ्यास करने का चुनाव किया। परमेश्वर लोगों से जो कुछ भी कहता है, और परमेश्वर उनसे जो कुछ भी करने के लिए कहता है, उनके संबंध में लोगों के पास कोई अन्य विकल्प नहीं है; उन्हें सुनना चाहिए, और सुनने के बाद उन्हें जाकर उसे अभ्यास में लाना चाहिए। इतना ही नहीं, उसे अभ्यास में लाते समय लोगों को पूरी तरह से और शांत मन से समर्पण करना चाहिए। अगर तुम स्वीकारते हो कि परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर है, तो तुम्हें उसके वचनों का पालन करना चाहिए; उसके लिए अपने दिल में स्थान रखना चाहिए और उसके वचनों को अभ्यास में लाना चाहिए। अगर परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर है तो तुम्हें यह विश्लेषण करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए कि वह तुमसे क्या कहता है; वह जैसे भी कहता है कि चीजें हैं, वे वैसी ही हैं और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम समझते या बूझते नहीं हो। महत्वपूर्ण बात यह है कि वह जो कहता है वह तुम्हें स्वीकारना चाहिए और उस चीज के प्रति समर्पण करना चाहिए। जब परमेश्वर के वचनों की बात आई तो अब्राहम का रवैया ऐसा ही था। ठीक अपने इस रवैये के कारण ही अब्राहम परमेश्वर के वचनों का पालन करने में सक्षम था, परमेश्वर ने उसे जो करने की आज्ञा दी थी उसके प्रति समर्पित होने में सक्षम था, और वह ऐसा व्यक्ति बन सका जो परमेश्वर की नजर में धार्मिक और पूर्ण है। यह इस तथ्य के बावजूद था कि उन सभी अभिमानी और नकचढ़े लोगों की नजर में अब्राहम अपनी आस्था की खातिर अपने ही बेटे के जीवन की अवहेलना करके उसे मारने के लिए यूँ ही वेदी पर रखकर मूर्ख और भ्रमित दिखाई दिया। उन्होंने सोचा कि यह कितना गैर-जिम्मेदाराना कृत्य है; वह कितना अक्षम और हृदयहीन पिता है, और अपने विश्वास की खातिर ऐसा काम करने के कारण वह कितना स्वार्थी है! अब्राहम सभी लोगों की नजर में इसी प्रकार देखा गया। लेकिन क्या परमेश्वर ने उसे ऐसे ही देखा? नहीं। परमेश्वर ने उसे कैसे देखा? अब्राहम परमेश्वर ने जो कहा उसका पालन करने और उसके प्रति समर्पित होने में सक्षम था। वह किस हद तक समर्पित होने में सक्षम था? उसने बिना किसी समझौते के ऐसा किया। जब परमेश्वर ने उससे वह माँगा जो उसके लिए सबसे कीमती था, तो अब्राहम ने बच्चे को परमेश्वर के लिए बलिदान करते हुए उसे परमेश्वर को लौटा दिया। अब्राहम ने हर उस चीज का पालन और उसके प्रति समर्पण किया, जो परमेश्वर ने उससे कही थी। चाहे मनुष्य की धारणाओं के चश्मे से देखा जाए या भ्रष्ट लोगों की आँखों से देखा जाए, परमेश्वर का अनुरोध अत्यधिक अनुचित प्रतीत हुआ, फिर भी अब्राहम समर्पित होने में सक्षम था; यह उसकी ईमानदारी की बदौलत था, जो परमेश्वर के प्रति सच्ची आस्था और समर्पण से चिह्नित थी। यह सच्ची आस्था और समर्पण कैसे परिलक्षित हुआ? सिर्फ दो शब्दों में : उसकी आज्ञाकारिता। एक सच्चे सृजित प्राणी के लिए इससे अधिक अनमोल या मूल्यवान कुछ भी नहीं है, और कुछ भी इससे अधिक दुर्लभ और प्रशंसनीय नहीं है। ठीक यही वह सबसे कीमती, दुर्लभ और प्रशंसनीय चीज है, जो आज परमेश्वर के अनुयायियों में एकदम अनुपस्थित है।

आज लोग शिक्षित और जानकार हैं। वे आधुनिक विज्ञान को समझते हैं और पारंपरिक संस्कृति और भ्रष्ट सामाजिक रीति-रिवाजों से गहराई से संक्रमित, अनुकूलित और प्रभावित हुए हैं; उनका दिमाग गोल-गोल घूमता है, उनके पास जटिल धारणाएँ हैं, और भीतर से वे पूरी तरह से अस्त-व्यस्त हैं। कई वर्षों तक उपदेश सुनने, और यह स्वीकार और विश्वास करने के बाद भी कि परमेश्वर सभी चीजों का संप्रभु है, वे परमेश्वर के प्रत्येक वचन के प्रति एक उपेक्षापूर्ण और उदासीन रवैया रखते हैं। इन वचनों के प्रति उनका रवैया उन्हें नजरअंदाज करने का होता है; वह उनकी ओर से आँख मूँदने और उन पर कान न देने का होता है। यह किस तरह का व्यक्ति है? ऐसे लोग हर चीज के बारे में “क्यों” कहते हैं; उन्हें हर चीज का पता लगाने और उसे अच्छी तरह से समझने की आवश्यकता महसूस होती है। वे सत्य के प्रति बहुत गंभीर प्रतीत होते हैं; उनका बाहरी व्यवहार और प्रयास और वे जिन चीजों को बाहर से छोड़ देते हैं, ये सब परमेश्वर में आस्था और विश्वास के प्रति अजेय रवैये का संकेत देते हैं। लेकिन, खुद से यह पूछो : क्या तुम लोगों ने परमेश्वर के वचन और उसके हर निर्देश का पालन किया है? क्या तुम लोगों ने उन सभी को लागू किया है? क्या तुम लोग आज्ञाकारी हो? अगर, अपने दिलों में तुम इन सवालों का जवाब “नहीं” और “मैंने नहीं किया” से देते रहते हो, तो भला तुम किस तरह का विश्वास रखते हो? तुम वास्तव में किस उद्देश्य से परमेश्वर में विश्वास करते हो? तुमने उस पर अपने विश्वास से भला क्या हासिल किया है? क्या ये बातें खोजबीन लायक हैं? क्या वे गहराई से जानने लायक हैं? (हाँ।) तुम सभी लोग चश्मा पहनते हो; तुम आधुनिक, सभ्य लोग हो। तुम्हारे बारे में वास्तव में आधुनिक क्या है? तुम्हारे बारे में सभ्य क्या है? क्या “आधुनिक” और “सभ्य” होना यह साबित करता है कि तुम ऐसे व्यक्ति हो, जो परमेश्वर के वचनों का पालन करता है? ऐसी बातों का कोई मतलब नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, “मैं उच्च शिक्षित हूँ, और मैंने धर्मशास्त्र का अध्ययन किया है।” कुछ लोग कहते हैं, “मैंने शास्त्रीय बाइबल कई बार पढ़ी है, और मैं हिब्रू बोलता हूँ।” कुछ लोग कहते हैं, “मैं कई बार इस्राएल गया हूँ, और मैंने व्यक्तिगत रूप से उस सलीब को छुआ है जिसे प्रभु यीशु ने उठाया था।” कुछ लोग कहते हैं, “मैं अरारत पर्वत पर गया हूँ और मैंने जहाज के अवशेष देखे हैं।” कुछ लोग कहते हैं, “मैंने परमेश्वर को देखा है,” और “मुझे परमेश्वर के सामने उठा लिया गया है।” इन सबका क्या उपयोग है? परमेश्वर तुमसे कोई कठिन माँग नहीं करता, बस तुम उसके वचनों का गंभीरता से पालन करो। अगर यह तुम्हारे वश के बाहर है, तो बाकी सब-कुछ भूल जाओ; तुम जो कुछ भी कहोगे, वह किसी काम का नहीं होगा। तुम सभी नूह और अब्राहम की कहानियाँ जानते हो, लेकिन केवल कहानियाँ जानना अपने आप में बेकार है। क्या तुम लोगों ने कभी इस बारे में सोचा है कि इन दो लोगों में सबसे दुर्लभ और प्रशंसनीय क्या था? क्या तुम लोग उनके जैसे बनना चाहते हो? (हाँ।) तुम यह कितना चाहते हो? कुछ लोग कहते हैं, “मैं सचमुच उनके जैसा बनना चाहता हूँ; जब भी मैं खा रहा होता हूँ, सपने देख रहा होता हूँ, अपना कर्तव्य कर रहा होता हूँ, परमेश्वर के वचन पढ़ रहा होता हूँ और भजन सीख रहा होता हूँ, तो मैं इसके बारे में सोचता हूँ। मैंने इसके लिए कई बार प्रार्थना की है, और एक मन्नत भी लिखी है। अगर मैं परमेश्वर के वचनों का पालन न करूँ, तो वह मुझे शाप दे। बस मैं यह नहीं जानता कि परमेश्वर कब मुझसे बात करता है; ऐसा नहीं है कि वह आकाश में गरज के साथ मुझसे बोलता हो।” इन सबका क्या उपयोग है? तुम्हारे यह कहने का क्या मतलब है कि, “मैं सचमुच चाहता हूँ”? (यह केवल खयाली पुलाव है; यह केवल एक अभिलाषा है।) अभिलाषा का क्या उपयोग है? यह उस जुआरी की तरह है, जो रोजाना जुआघर जाता है; यहाँ तक कि जब वह सब-कुछ खो देता है, तब भी वह जुआ खेलना चाहता है। कभी-कभी वह सोच सकता है, “बस एक कोशिश और, और फिर मैं वादा करता हूँ कि मैं छोड़ दूँगा और फिर कभी जुआ नहीं खेलूँगा।” वे एक ही बात सोचते हैं, चाहे वे सपने देख रहे हों या खा रहे हों, लेकिन इसके बारे में सोचने के बाद वे फिर भी वापस जुआघर चले जाते हैं। हर बार जब वे जुआ खेलते हैं, तो वे कहते हैं कि यह आखिरी बार होगा; और हर बार जब वे जुआघर के दरवाजे से निकलते हैं, तो वे कहते हैं कि वे कभी वापस नहीं आएँगे—परिणाम यह होता है कि जीवन भर की कोशिशों के बाद भी वे कभी नहीं छोड़ पाते। क्या तुम लोग उस जुआरी की तरह हो? तुम बार-बार चीजें करने का संकल्प लेते हो और फिर अपने संकल्पों से मुकर जाते हो, परमेश्वर को धोखा देना तुम्हारी गहरी प्रकृति है और इसे बदलना आसान नहीं है।

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