प्रकरण एक : सत्य क्या है (खंड छह)
“कभी हार न मानना” कुछ ऐसा है जो लोग तब कहते हैं जब वे शैतानी स्वभाव द्वारा संचालित होते हैं, और यह एक ऐसी मानसिकता है जिसकी शैतानी दुनिया हिमायत करती है। हम इस मानसिकता को किस तरह देखते हैं? (एक दिमागी बीमारी की तरह।) यह जीवन जीने और चीजें करने के लिए लोगों के सोचने का एक तरीका और सिद्धांत है, जिसकी दिमागी रूप से बीमार लोग हिमायत करते हैं। यह लोगों को अपनी खुद की इच्छाएँ और निरंकुश महत्वाकांक्षाएँ संतुष्ट करने के लिए किसी भी संभव साधन का उपयोग करने, चाहे कोई भी परिस्थिति हो, कभी भी हिम्मत नहीं हारने, “अपनी बात पर अड़े रहो और उसे कभी जाने मत दो” के सिद्धांत के अनुसार चीजों का अनुसरण करने, और यह विश्लेषण नहीं करने के लिए उकसाती और प्रेरित करती है कि उनकी इच्छाएँ और निरंकुश महत्वाकांक्षाएँ उचित हैं या नहीं; जब तक उनमें यह मानसिकता है, तब तक यह तारीफ करने के योग्य है। अगर किसी व्यक्ति ने मानवजाति के लिए किसी फायदेमंद चीज पर शोध किया, कभी हार नहीं मानी, वह असफलता से हिम्मत नहीं हारा, सकारात्मक दिशा में विकास करता रहा, और शोध करता रहा ताकि लोग भविष्य में बेहतर जीवन जी सकें, तो यह कुछ हद तक सराहनीय होगा। लेकिन, क्या यह वही लक्ष्य है जिसका मानवजाति इस दुनिया में अनुसरण करती है? मानवता की भलाई के लिए निस्वार्थ भाव से ऐसी चीजें कौन करता है? कोई नहीं। भले ही ऐसे कुछ लोग हों जो बाहरी तौर पर मानवता की भलाई करने के नाम पर चीजें करते हैं, लेकिन इसके पीछे वे इसे अपनी प्रतिष्ठा और पेशेवर उपलब्धि के लिए कर रहे होते हैं, ताकि उनका नाम इतिहास में लिखा जाए। ये उनके लक्ष्य हैं, और इनमें से कोई भी लक्ष्य उचित नहीं है। इन चीजों के अलावा, कभी हार न मानने वाली मानसिकता लोगों को क्या करने के निर्देश देती है? सबसे पहले, कभी हार न मानने वाली मानसिकता लोगों की सीमाओं और सहज प्रवृत्ति को चुनौती देती है। मिसाल के तौर पर, खेल के मैदान में, एक व्यक्ति लगातार तीन बार पलटी मारता है और उसका दिल इसे बर्दाश्त नहीं कर पाता है, और वह व्यक्ति कहता है, “मैं कभी हार नहीं मानता। मुझे अपनी सीमाओं को चुनौती देनी चाहिए और गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड को चुनौती देनी चाहिए। मैं दस बार पलटी मारूँगा!” परिणामस्वरूप, जब वह आठवीं पलटी मारता है, तो वह मर जाता है। अगर उसके पास उसे ऐसा करने के लिए प्रेरित करने वाली यह मानसिकता नहीं होती, तो क्या होता? (वह इसे अपनी क्षमताओं के अनुसार करता।) सही कहा। परमेश्वर लोगों से क्या करने की अपेक्षा करता है? परमेश्वर लोगों से सामान्य मानवता में जीने की अपेक्षा करता है, और लोगों को अपने भीतर कमजोरियाँ रखने की अनुमति देता है। लोगों की शारीरिक सहज प्रवृत्ति और उनके अंगों की सहनशक्ति की एक सीमा होती है। लोगों को इस बारे में स्पष्ट होना चाहिए कि वे कौन-सा स्तर हासिल कर सकते हैं। क्या वह व्यक्ति लगातार दस बार पलटी मारने के परिणामों के बारे में स्पष्ट था? वह इस बारे में स्पष्ट नहीं था, और उसने इसे आँख मूँदकर किया और अपनी सीमाओं को चुनौती दी, तो उसकी मृत्यु के लिए कौन दोषी था? (वह खुद दोषी था।) उस व्यक्ति के दस बार पलटी मारने का प्रयास करने का स्रोत यह था कि शैतान उसे हमेशा प्रेरित कर रहा था, और कह रहा था, “तुम्हें कभी हार नहीं माननी चाहिए। पाँच बार पलटी मारने के बाद हार मान लेना दयनीय है। तुम्हें आठ बार पलटी मारनी होगी!” उसने सोचा, “आठ बार भी काफी नहीं है। मैं दस बार पलटी मारूँगा!” परिणामस्वरूप, आठ बार पलटी मारने के बाद, उसके दिल ने धड़कना बंद कर दिया और उसकी साँसें रुक गईं। क्या शैतान ने उसके साथ खिलवाड़ नहीं किया? यकीनन, हम इसका उपयोग सिर्फ एक मिसाल के तौर पर कर रहे हैं; कोई ऐसा भी हो सकता है जो बिना किसी समस्या के बीस बार पलटी मार सके। जब लोगों में लड़ने के लिए कभी हार न मानने का संकल्प होता है, तो वे लगातार वार और बचाव करते हुए लड़ते रहते हैं और अंत में अपना जीवन नष्ट कर देते हैं। थोड़ा बेहतर परिदृश्य यह है कि वे अपना जीवन नष्ट कर देते हैं, लेकिन कोई कुकर्म नहीं करते हैं। तब उन्हें अपने अगले जीवन में एक व्यक्ति के रूप में पुनर्जन्म लेने का अवसर फिर भी मिल सकता है, और वे एक व्यक्ति होने का फिर से अनुभव कर सकते हैं। लेकिन, कुछ लोगों ने बहुत ज्यादा कुकर्म किया है और इससे मुसीबत खड़ी हो गई है, इसलिए उन्हें कई जन्मों तक इसकी एक भयानक कीमत चुकानी पड़ेगी; उन्हें इसकी भरपाई करते रहने पड़ेगा, और हर जीवन में कष्ट सहना पड़ेगा। अगर वे इस जीवन में इसकी पूरी भरपाई नहीं करते हैं, तो अगला जीवन अब भी बाकी है, और यह पता नहीं है कि इसकी पूरी भरपाई करने में उन्हें कितने जीवन लगेंगे। यही परिणाम होता है।
जब कुछ लोग सुसमाचार का प्रचार करने में असफल हो जाते हैं, तो वे इसे स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं, और कहते हैं, “मैं कभी हार नहीं मानता। मैंने इस बार किसी को भी परिवर्तित नहीं किया—मैं असफल हो गया। अगली बार मैं असफल नहीं हो सकता। मुझे परमेश्वर के लिए गवाह बनना ही होगा, और ऐसा बालक बनना होगा जो मुश्किलों पर जीत हासिल करता है!” यह अच्छा है कि लोगों में यह संकल्प है, लेकिन इस तथ्य का क्या किया जाए कि वे “कभी हार न मानने” वाले शब्द कहने में सक्षम हैं? यह क्या स्वभाव है? क्या यह महादूत का स्वभाव नहीं है? क्या परमेश्वर ने उन्हें इस तरह से गवाही देने के लिए बनाया था? क्या वे सत्य समझते हैं? क्या वे जो कर रहे हैं वह परमेश्वर के लिए गवाही देना है? वे जो कर रहे हैं वह परमेश्वर को अपमानित करना है। तुम लोग उन्हें किस किस्म के लोग कहोगे? (बेवकूफ लोग।) वे बेवकूफ लोग हैं। वे सत्य नहीं समझते हैं, फिर भी वे कहते हैं कि वे परमेश्वर के लिए गवाही देते हैं—यह काफी अच्छा होगा अगर वे परमेश्वर को अपमानित ना करें। “कभी हार न मानना” किस तरह के शब्द हैं? इन शब्दों का क्या अर्थ है? इनका अर्थ है कि कभी भी असफलता स्वीकार मत करो। दरअसल, ये लोग असफल हो चुके हैं, लेकिन वे मानते हैं कि असफलता को स्वीकार नहीं करके उन्होंने दिमागी जीत हासिल कर ली है। सभी अविश्वासी इस तरह की मानसिकता का बहुत सम्मान करते हैं जहाँ लोग कई असफलताओं के बाद भी लड़ना जारी रखते हैं, और वे जितनी ज्यादा असफलताओं का सामना करते हैं, उतने ही ज्यादा बहादुर होते जाते हैं। अगर तुममें इस तरह की मानसिकता थी, और तुम लोग किसी लक्ष्य को हासिल करने हेतु लड़ने के लिए इस किस्म की मानसिकता पर भरोसा करते थे, तो क्या यह शर्मनाक बात नहीं है? “कभी हार न मानने” वाले शब्द लोगों के भ्रष्ट स्वभाव के किन पहलुओं को मुख्य रूप से प्रदर्शित करते हैं? ये शब्द लोगों के सार के किन पहलुओं को दर्शा सकते हैं? क्या इस तरह के लोग—जो आत्मसमर्पण करने के बजाय मर जाना पसंद करेंगे और जो हार मानने से पहले मर जाएँगे—घमंडी और विवेकहीन नहीं हैं? यह सच्चाई कि लोग इस हद तक अहंकारी हो सकते हैं, और हार मानने के बजाय मर जाना पसंद करेंगे, सिर्फ विवेकहीनता की समस्या नहीं है; हताश लोगों की तरह, इनमें कुछ हद तक होशियारी की भी कमी है। कुछ लोग कहते हैं, “क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि वे युवा और दुस्साहसी हैं?” इसका एक संबंध है। समाज में एक लोकप्रिय कहावत है : “जीतने के लिए तुम्हें अपना सब कुछ दाँव पर लगाना पड़ेगा।” यह युवाओं की उस मानसिकता को दर्शाता है जो एक गुस्सैल युवा की तरह अपना सब कुछ दाँव पर लगा देने की बात करता है। “अगर तुम अपना जीवन जोखिम में डालने को तैयार हो, तो तुम कुछ भी हासिल कर सकते हो”—यह कभी हार न मानने वाली मानसिकता है। क्या बुजुर्ग लोगों में इस तरह की भावना होती है? उनमें भी होती है। देखो, राजनीति की दुनिया में लगभग सभी लोग वयस्क और वरिष्ठ होते हैं—इनमें भयंकर प्रतिद्वंद्विता होती है! लोगों के स्वभाव भ्रष्ट होते हैं और वे अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीवन जीते हैं। सभी में कम या ज्यादा मात्रा में इस किस्म की मानसिकता होती है। इसका इस बात से बहुत ज्यादा लेना-देना नहीं है कि वे बूढ़े हैं या युवा हैं, लेकिन यह सीधे उनके स्वभाव से संबंधित है। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो और सत्य समझते हो, तो तुम इस मामले को स्पष्ट रूप से देखोगे, और जानोगे कि इस किस्म की मानसिकता सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है, और यह एक भ्रष्ट स्वभाव है। अगर तुम सत्य को नहीं समझते हो, तो तुम इस मामले को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाओगे और सोचोगे, कि “लड़ने की इच्छा रखना अच्छी बात है; यह उचित है। अगर लोगों में लड़ने की थोड़ी-सी भी इच्छा न हो, तो वे कैसे जी सकते हैं? अगर उनमें लड़ने की थोड़ी भी इच्छा न हो, तो उनमें जीवन जीते रहने की भावना बिल्कुल बाकी नहीं रहेगी। तो फिर जीने का क्या मतलब है? वे हर प्रतिकूल परिस्थिति को स्वीकार कर लेते हैं—यह कितना कमजोर और कायरतापूर्ण है!” सभी लोग सोचते हैं कि जब तक वे जिंदा हैं, उन्हें सम्मान के लिए लड़ना चाहिए। वे सम्मान के लिए कैसे लड़ते हैं? “लड़ाई” शब्द पर जोर देकर। उन्हें चाहे किसी भी परिस्थिति का सामना करना पड़े, वे लड़कर अपना लक्ष्य हासिल करने का प्रयास करते हैं। कभी हार नहीं मानने की मानसिकता की उत्पत्ति “लड़ाई” शब्द से हुई है। नास्तिक लोग लड़ने की भावना का सबसे ज्यादा सम्मान करते हैं। वे स्वर्ग से लड़ते हैं; वे धरती से लड़ते हैं; वे दूसरे लोगों से लड़ते हैं—यही चीज उन्हें सबसे ज्यादा खुशी देती है। वे मानते हैं कि व्यक्ति जितना ज्यादा लड़ने के काबिल होता है, वह उतना ही ज्यादा शूरवीर होता है—नायक में लड़ने की इच्छा कूट-कूटकर भरी होती है। यहीं से कभी हार न मानने की मानसिकता उत्पन्न हुई; यही लड़ाई का मूल है। सभी किस्मों के राक्षस जो शैतान के हैं, उन्होंने कभी भी सत्य स्वीकार नहीं किया है, तो वे किसके अनुसार जीवन जीते हैं? वे लड़ाई के शैतानी फलसफे के अनुसार जीवन जीते हैं। वे रोज लड़ते हुए जीते हैं। चाहे वे कुछ भी करें, वे हमेशा लड़कर जीत हासिल करने का प्रयास करते हैं और अपनी जीत की शान बघारते हैं। वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें सम्मान के लिए लड़ने का प्रयास करते हैं—क्या वे इसे हासिल कर सकते हैं? असल में वे किस चीज के लिए प्रतिस्पर्धा और लड़ाई कर रहे हैं? उनकी सारी लड़ाई प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के लिए है; उनकी सारी लड़ाई उनके स्वार्थ के लिए है। वे क्यों लड़ रहे हैं? वे नायक की भूमिका निभाने और संभ्रांत कहे जाने के लिए लड़ रहे हैं। लेकिन, उनकी लड़ाई का अंत मृत्यु के साथ होना चाहिए, और उन्हें दंड मिलना ही चाहिए। इस बारे में कोई प्रश्न ही नहीं है। जहाँ कहीं भी शैतान और दानव हैं, वहाँ लड़ाई है; अंत में जब वे नष्ट कर दिए जाएँगे, तो यह लड़ाई भी समाप्त हो जाएगी। शैतान और दानवों का यही परिणाम होगा।
क्या लड़ने के लिए कभी न हार मानने के संकल्प की मानसिकता को पोषित और प्रोत्साहित किया जाना चाहिए? (नहीं।) फिर लोगों को इसे कैसे देखना चाहिए? (लोगों को इसे त्याग देना चाहिए।) लोगों को इसका भेद पहचानना चाहिए, इसकी निंदा करनी चाहिए, और इसे त्याग देना चाहिए। यह वाक्यांश सत्य नहीं है, और यह कोई ऐसी कसौटी नहीं है जिसका लोगों को पालन करना चाहिए, यह मानवजाति से परमेश्वर की अपेक्षा तो बिल्कुल भी नहीं है। इसका परमेश्वर के वचनों से और लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाओं से कोई संबंध नहीं है। परमेश्वर की लोगों से क्या अपेक्षा होती है? परमेश्वर की यह आवश्यकता नहीं है कि तुम्हारे पास लड़ने के लिए कभी हार न मानने का संकल्प हो। परमेश्वर की आवश्यकता यह है कि लोग अपने स्वयं के भ्रष्ट सार को समझें, यह जानें कि वे कैसे व्यक्ति हैं, वे किस प्रकार के व्यक्ति हैं, उनमें क्या कमी है, उनकी काबिलियत ज्यादा है या कम, उनकी समझने की क्षमता क्या है, क्या वे कोई ऐसे व्यक्ति हैं जो वास्तव में परमेश्वर से प्रेम करते हैं, और क्या वे कोई ऐसे व्यक्ति हैं जो सत्य से प्रेम करते हैं। परमेश्वर चाहता है कि तुम इन तरीकों से अपने आप को सटीक रूप से समझ लो, फिर तुम जो कुछ कर सकते हो उसे अपने आध्यात्मिक कद के अनुसार और तुम्हारे पास जो भी काबिलियत हो उसके अनुसार करो, जितना भी अच्छा तुम कर सको। क्या इसमें “लड़ने” का अर्थ सम्मिलित है? (नहीं।) तुम्हें लड़ने की आवश्यकता नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, “क्या मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव से नहीं लड़ सकता हूँ?” क्या तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव लड़ने से जीता जा सकता है? क्या यह लड़ने से बदला जा सकता है? (नहीं।) नहीं, यह बदला नहीं जा सकता। कुछ लोग कहते हैं, “क्या मैं शैतान की बुरी ताकतों से लड़ सकता हूँ? क्या मैं मसीह-विरोधियों से लड़ सकता हूँ? क्या मैं बुरे लोगों से, दुष्ट स्वभाव वाले लोगों से, और गड़बड़ियाँ और विघ्न पैदा करने वाले लोगों से लड़ सकता हूँ?” यह निश्चित रूप से सही नहीं है। यह क्यों सही नहीं है? लड़ना अपने आप में सत्य का अभ्यास करना नहीं है। परमेश्वर के वचनों ने कब कहा था : “मसीह-विरोधियों से लड़ो,” “फरीसियों से लड़ो,” “पाखंडियों से लड़ो,” या “अपने भ्रष्ट स्वभाव से लड़ो”? क्या परमेश्वर ने ये बातें कही थीं? (नहीं।) इसके विपरीत, समाज में, शैतानी दुनिया में जमींदारों के विरुद्ध लड़ाइयाँ होती हैं, सत्ताधारियों के खिलाफ लड़ाई होती है, बुद्धिजीवियों के विरुद्ध लड़ाई होती है, साथ ही सामान्य जनता के बीच लड़ाइयाँ होती हैं, मुर्गों की लड़ाई, कुत्तों की लड़ाई, साँडों की लड़ाई, आदि। कुछ भी हो, इनमें से कोई भी बात अच्छी नहीं है। लड़ाई एक चाल है जिसके माध्यम से शैतान लोगों को हानि पहुँचाता है और जीवित प्राणियों पर विपत्ति लाता है। वह मानवजाति को शांति से सह-अस्तित्व के साथ जीने नहीं देता। बल्कि, वह लोगों के बीच भेद-भाव और नफरत पैदा करता है, फिर वह लोगों को आपस में लड़ाता है और एक-दूसरे का कत्ल करवाता है, जबकि वह दूर से इस मनोरंजन और शोर-गुल को देखता है। चूँकि यह शैतानी व्यवहार है, यदि कलीसिया में, और परमेश्वर के घर में, कोई ऐसा व्यवहार, कोई ऐसी घटनाएँ या बातें होती हैं जिनका संबंध झगडे से हो, तो तुम लोग इसे किस तरह देखोगे? क्या तुम समर्थन और सहमति में अपने हाथ उठाओगे, या इसे रोकोगे? (इसे रोकेंगे।) तुम्हें इसे रोकना चाहिए, उन्हें स्पष्ट रूप से बताना चाहिए, उन्हें समझाना चाहिए, और उनसे कहना चाहिए कि उन्हें सत्य के अनुसार काम करना चाहिए, सिद्धांतों के अनुरूप कार्य करना चाहिए, और परमेश्वर के वचनों के साथ पूर्ण तालमेल से काम करना चाहिए। तुम उनकी काट-छाँट भी कर सकते हो, लेकिन काट-छाँट करना, डाँटना और यहाँ तक कि उन्हें अनुशासित करना भी लड़ाई नहीं है। तो लड़ाई का क्या अर्थ होता है? किसी मामले के बारे में दूसरे लोगों के साथ उतावलेपन में क्या सच है और क्या सच नहीं है, इस पर विवाद करना, लोगों के साथ बहस करना और अतार्किक होना, गुस्सा दिखाना, यहाँ तक कि गुप्त योजनाओं और कपटपूर्ण साजिशों का उपयोग करना, या किसी को हराने के लिए मानवीय चालों, तरीकों और साधनों का उपयोग करना ताकि व्यक्ति से समर्पण कराया जा सके, उसे हराया जा सके, और बार-बार उसे तब तक यातना देते रहना जब तक कि वह घुटने न टेक दे, यह लड़ाई करना है। लड़ाई करना इसे कहा जाता है। लड़ाई करना विशुद्ध रूप से एक प्रकार का उतावलेपन वाला व्यवहार और कार्यकलाप है, और यह विशुद्ध रूप से एक शैतानी व्यवहार, तरीका और चीजों को करने का साधन भी है। इसका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, “यह कैसे गलत है जब परमेश्वर के चुने हुए लोग उठ खड़े होते हैं और झूठे अगुआओं, मसीह-विरोधियों, फरीसियों और बुरे लोगों से लड़ते हैं? क्या यह एक अच्छी बात नहीं है कि उनसे तब तक लड़ा जाए जब तक वे झुक न जाएँ, या उन्हें हटा न दिया जाए? तब क्या परमेश्वर के घर में शांति न होगी? तब क्या भाई-बहन अपने कलीसियाई जीवन को चैन से न जी सकेंगे? हमें इन लोगों से लड़ने क्यों नहीं दिया जाता है?” क्या इन लोगों से लड़ना सही है? सबसे पहले, एक बात तो निश्चित है, और वह यह है कि लड़ना गलत है। यह गलत क्यों है? परमेश्वर बुरे लोगों को दंडित करता है और उनकी निंदा करता है, तो क्या फर्क पड़ता है यदि लोग उनके साथ लड़ें? जब लोग उन्हें नीचा दिखाते हैं, उन्हें कड़ी सजा देते हैं और जब उनके पास करने के लिए कुछ भी बेहतर न हो तो उन्हें पीड़ा पहूँचाते हैं, वे उन पर चिल्लाते हैं, उन्हें जमीन पर गिरा देते हैं और उनकी आलोचना करते हैं, तब यह क्यों गलत है? परमेश्वर प्रशासनिक आदेश निर्धारित करता है, और उन आदेशों में ऐसी कोई बातें नहीं हैं जो लड़ाई से संबंधित हों। परमेश्वर केवल प्रशासनिक आदेश निर्धारित करता है, जिसके अंतर्गत हर प्रकार के व्यक्ति से निपटने के तरीके और सिद्धांत होते हैं। ये आदेश लोगों को बताते हैं कि किस प्रकार के लोगों को निष्कासित करना चाहिए, किस प्रकार के लोगों को बाहर निकाल देना चाहिए, किस प्रकार के लोगों को बर्खास्त किया जाना चाहिए, किस प्रकार के लोगों का पोषण करना चाहिए, किस प्रकार के लोगों का उपयोग करना चाहिए, किस प्रकार के लोगों का उपयोग नहीं करना चाहिए, किस प्रकार के लोगों को बचाया जा सकता है, और किस प्रकार के लोगों को नहीं बचाया जा सकता। परमेश्वर लोगों को केवल सिद्धांत बताता है। इसलिए, लोगों के रूप में, तुम लोगों को परमेश्वर के इन वचनों की व्याख्या कैसे करनी चाहिए? परमेश्वर के ये सभी वचन सत्य हैं। सत्य क्या है? सत्य यह है कि जब परमेश्वर कुछ भी करता है या किसी भी प्रकार के व्यक्ति से निपटता है, चाहे वह कोई बुरा व्यक्ति हो जिसने बुरे काम किए हों, जिससे परमेश्वर के घर के कार्य और हितों को अत्यधिक नुकसान हुआ हो, तब भी परमेश्वर उससे निपटने के लिए अपने ही तरीकों का उपयोग करेगा; वह उससे निपटने के लिए किसी भी शैतानी या उतावलेपन वाले तरीकों का उपयोग कभी नहीं करेगा। इसे क्या कहा जाता है? इसे लोगों के साथ उचित व्यवहार करना कहते हैं। क्या इस उचित व्यवहार में लड़ाई शामिल है? नहीं। क्या यह सत्य है? (बिल्कुल।) यह व्यक्ति चाहे कितना भी जल्दबाज, कितना ही शैतान, और कितना भी दुष्ट क्यों न हो, हम परमेश्वर के वचनों को सर्वोच्च निर्देश के रूप में, और उससे निपटने हेतु उपयोग करने के लिए सटीक सिद्धांतों के रूप में लेते हैं। हम उनकी भर्त्सना नहीं करते हैं, या जल्दबाजी में उन पर मिलकर टूट नहीं पड़ते हैं; हम उस तरह का काम बिल्कुल नहीं करते हैं। इसे ही लोगों के साथ उचित व्यवहार करना कहा जाता है, और परमेश्वर ने लोगों को जो सिद्धांत दिए थे वे यही हैं।
पूर्वी दुनिया में, एक निश्चित वाक्यांश है “लड़ने के लिए कभी हार न मानने का संकल्प।” पश्चिमी दुनिया में, इसी अर्थ वाला कोई वाक्यांश हो सकता है। जब तक कोई व्यक्ति शैतान द्वारा भ्रष्ट किया गया हो और शैतान की ताकत के अधीन हो, तब तक उसके पास एक शैतानी स्वभाव होता है, वह विशेष रूप से घमंडी और आत्मतुष्ट होता है, और किसी के भी सामने झुकता नहीं है। जब वह इस प्रकार के स्वभाव से प्रेरित होता है, तो लोगों में कभी हार न मानने वाली मानसिकता और सोचने का एक तरीका निश्चित रूप से पैदा होगा। सभी लोग मानवता द्वारा प्रचारित इस प्रकार की सोच और मानसिकता को उचित, सकारात्मक, और एक ऐसी चीज के रूप में देखते हैं जो लोगों को निरंतर अपने मार्ग पर चलते रहने और जीवन जीते रहने में सहारा देने के लिए पर्याप्त है। चाहे वे इस तथाकथित मानसिकता और सोच को कितना ही उचित मानते हों, और वे इसे कितना भी उचित कहें, हम सभी में इसके प्रति विवेक होना चाहिए। संपूर्ण मानवजाति में, एक भी जाति ऐसी नहीं है जिसमें सत्य की सत्ता हो। किसी जाति ने चाहे कितने भी ऊँचे, प्राचीन, रहस्यमय विचार या पारंपरिक संस्कृति को जन्म दिया हो, उसने कैसी भी शिक्षा प्राप्त की हो या उसके पास कैसा भी ज्ञान हो, एक बात तो निश्चित है : इनमें से कोई भी चीज सत्य नहीं है या सत्य से उसका कोई नाता नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, “पारंपरिक धारणाओं में निहित कुछ नैतिकताएँ या सही-गलत, उचित-अनुचित, काले-सफेद को मापने की अवधारणाएँ सत्य के काफी करीब लगती हैं।” सुनने में ये सत्य के करीब लगती हैं, इस तथ्य का यह मतलब नहीं होता कि वे अर्थ में इसके करीब हैं। भ्रष्ट मानवजाति की बातें शैतान से उत्पन्न होती हैं, वे कभी भी सत्य नहीं होती, जबकि केवल परमेश्वर के वचन ही सत्य होते हैं। इस प्रकार, भले ही मानवजाति की कुछ बातें परमेश्वर के वचनों के कितने भी करीब क्यों न लगें, वे सत्य नहीं होती हैं और सत्य नहीं बन सकती हैं; यह बात संदेह से परे है। वे केवल शब्दों और अभिव्यक्ति में करीब हैं, लेकिन वास्तव में, ये पारंपरिक धारणाएं परमेश्वर के वचनों के सत्य से मेल नहीं खातीं। हालाँकि इन शब्दों के शाब्दिक अर्थ में कुछ निकटता हो सकती है, लेकिन उनका स्रोत एक नहीं है। परमेश्वर के वचन सृष्टिकर्ता से आते हैं, जबकि पारंपरिक संस्कृति के शब्द, विचार और दृष्टिकोण शैतान और राक्षसों से आते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “पारंपरिक संस्कृति के विचारों, दृष्टिकोण और प्रसिद्ध कहावतों को सार्वभौमिक रूप से सकारात्मक माना जाता है; भले ही वे झूठ और भ्रांतियाँ हैं, लेकिन अगर लोग उन्हें सैकड़ों-हजारों साल तक कायम रखें तो क्या वे सच बन जाएँगी?” बिल्कुल नहीं। ऐसा दृष्टिकोण उतना ही हास्यास्पद है जितना कि यह कहना कि इंसान बंदर से विकसित हुआ है। पारंपरिक संस्कृति कभी सच नहीं बनेगी। संस्कृति संस्कृति ही रहती है, चाहे वह कितनी भी नेक क्यों न हो, फिर भी वह भ्रष्ट मानवजाति द्वारा निर्मित अपेक्षाकृत सकारात्मक चीज ही है। सकारात्मक होना सत्य होने के समतुल्य नहीं होता, सकारात्मक होना कोई मानदंड नहीं है; यह केवल अपेक्षाकृत सकारात्मक होने से अधिक कुछ नहीं है। तो क्या अब यह हमें स्पष्ट है कि इस “सकारात्मकता” के पीछे, मानवजाति पर पारंपरिक संस्कृति का प्रभाव अच्छा है या बुरा? निस्संदेह, मानवजाति पर इसका बुरा और नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
आज हमने इस कहावत का विश्लेषण किया “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।” यह एक प्रकार का सांसारिक आचरण का फलसफा है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि वाले एक प्रसिद्ध मुहावरे का भी हमने विश्लेषण किया : “अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना।” क्या ये दो वाक्यांश अकेले ही तुम लोगों को मानवजाति की पारंपरिक संस्कृति और सांसारिक आचरण के फलसफों के बारे में एक नई समझ देने के लिए पर्याप्त नहीं हैं? सांसारिक आचरण के फलसफों और पारंपरिक संस्कृति का सार वास्तव में क्या है? सबसे पहले तो तुम निश्चित हो सकते हो कि ये चीजें बिल्कुल भी सकारात्मक नहीं हैं। वे लोगों के भ्रष्ट स्वभावों से पैदा होती हैं—उनका स्रोत शैतान है। वे मानवजाति के लिए क्या लेकर आती हैं? वे मानवजाति को गुमराह करती हैं, भ्रष्ट करती हैं, और बांधती हैं तथा विवश करती हैं। यह निश्चित है और इसमें कोई संदेह नहीं है। वे मानवजाति के लिए जो कुछ भी लेकर आती हैं वह एक नकारात्मक असर और नकारात्मक प्रभाव है, तो क्या वे सत्य हैं? (नहीं।) वे सत्य नहीं हैं, फिर भी मानवजाति उन्हें सत्य के रूप में प्रतिष्ठित करती है। यहाँ क्या हो रहा है? लोगों को गुमराह किया गया है। चूँकि लोगों को परमेश्वर द्वारा बचाया नहीं गया है, वे सत्य को नहीं समझते हैं, और उन्होंने इस तरह के वाक्यांशों और मुद्दों के बारे में परमेश्वर जो सटीक बातें कहना चाहता है उन्हें नहीं सुना है, वे अंततः उन विचारों और दृष्टिकोणों को स्वीकार कर लेते हैं जो उनकी अवधारणाओं के अनुसार उन्हें अपेक्षाकृत सही, अच्छे और उनकी इच्छा से मेल खाते हुए लगते हैं। ये बातें पहले उनके हृदय में प्रवेश कर गईं और अब वहाँ हावी हो गई हैं, इसलिए लोग सैकड़ों और हजारों वर्षों तक उनसे चिपके रहते हैं। ये पारंपरिक संस्कृतियाँ, जो शैतानी फलसफे हैं, बहुत पहले ही लोगों के दिलों में अपनी जड़ें जमा चुकी हैं, ये पीढ़ी दर पीढ़ी लोगों को गुमराह और प्रभावित करती रही हैं। यदि तुम लोग सत्य स्वीकार नहीं करते हो तो तुम इन फलसफों से गुमराह और प्रभावित होते रहोगे। आज मैंने “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” और “अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना” का गहन-विश्लेषण किया और उन पर संगति की। उन दो वाक्यांशों में एक कहावत है, दूसरा एक मुहावरा है। इन दो वाक्यांशों में हम देख पाते हैं कि वास्तव में समस्त विश्व में शैतानी संस्कृति क्या है : यह उन पाखंडों और भ्रांतियों से बनी है जो लोगों को गुमराह करती हैं, भ्रष्ट करती हैं, लोगों के लिए हानिकारक हैं, और लोगों को नुकसान पहुँचाती हैं। यदि मानवजाति शैतान के इन फलसफों का पालन करती है, तो जैसे-जैसे लोग जीवन में आगे बढ़ेंगे, वे उत्तरोत्तर अधिक भ्रष्ट और अधिक दुष्ट ही होंगे; वे एक दूसरे का कत्ल करेंगे, आपस में लड़ेंगे, और इसका कोई अंत नहीं होगा। लोगों के बीच कोई विश्वास नहीं होगा, कोई सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व नहीं होगा, और न ही कोई आपसी प्रेम होगा। संक्षेप में, मानवजाति के लिए यह संस्कृति केवल दुष्परिणाम लेकर आती है। इन तथाकथित विचारों और मानसिकता के मार्गदर्शन के अधीन, मानवजाति निरंतर दुष्टता करती है, निरंतर परमेश्वर का विरोध करती है, लगातार लोगों की नैतिक मर्यादाओं को चुनौती देती है, और अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए किसी भी साधन का उपयोग करती है। अंततः, वे लोग विनाश के मार्ग का अनुसरण करेंगे और दंडित किए जाएँगे। मानव संस्कृति का सार यही है। कहावतों की बात करें तो, उनके बारे में तुम लोगों का क्या दृष्टिकोण है? कुछ लोग कह सकते हैं, “वे ठोस विचार नहीं हैं जिनकी मानवजाति द्वारा हिमायत की जाती है। ऊँचे समाज में जिन लोगों के पास अपेक्षाकृत उच्च स्तर की अंतर्दृष्टि होती है, वे उनका पालन नहीं करते हैं।” अभी-अभी, हमने एक मुहावरे का गहन-विश्लेषण किया जिससे उच्च समाज के लोग सहमत होते हैं, “अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना।” क्या यह मुहावरा उच्च स्तर का है? (नहीं।) यह उच्च स्तर का नहीं है, लेकिन इस मुहावरे की, इन विचारों और इन मानसिकताओं की निश्चित रूप से हर उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में और मानव समाज के हर उच्च-स्तरीय क्षेत्र में हर किसी के द्वारा सराहना और हिमायत की जाती है। यही मानव संस्कृति है। मानवजाति पारंपरिक संस्कृति के इन पहलुओं से अनुकूलित, सुन्न और भ्रष्ट हो गई है। और अंतिम परिणाम क्या होता है? मानवजाति पारंपरिक संस्कृति से गुमराह, बेबस, और बाधित होती है, और इससे एक प्रकार की मानसिकता और सिद्धांत स्वाभाविक रूप से पैदा होते हैं मानवजाति जिनकी हिमायत करती और जिन्हें फैलाती है, व्यापक रूप से प्रसारित करती है और लोगों से स्वीकार करवाती है। अंततः, ये हर किसी के दिल पर कब्जा कर लेते हैं, हर किसी से इस प्रकार की मानसिकता और विचार का समर्थन करवाते हैं, और हर कोई इस विचार से भ्रष्ट हो जाता है। जब लोग एक सीमा तक भ्रष्ट हो जाते हैं, तो सही या गलत के बारे में उनकी अब कोई अवधारणाएँ नहीं होतीं; वे अब यह भेद करना नहीं चाहते कि न्याय क्या है और दुष्टता क्या है, न ही वे अब और यह परखना चाहते हैं कि सकारात्मक चीजें क्या हैं और नकारात्मक चीजें क्या। यहाँ तक कि एक दिन ऐसा भी आता है जब वे स्पष्ट नहीं होते हैं कि वे वास्तव में इंसान हैं भी कि नहीं, और कई विकृत लोग ऐसे भी हैं जो नहीं जानते कि वे पुरुष हैं या महिला। इस तरह की मानवजाति, विनाश से कितनी दूर है? आज की मानवजाति नूह के जमाने के लोगों की तुलना में कैसी है? क्या लोग अधिक दुष्ट नहीं हैं? ये पहले से ही दुष्टता के शिखर पर पहुँच चुके हैं, और इतने दुष्ट हैं कि कुछ बातें हैं जिन्हें तुम सुनने में ही असमर्थ हो—इसे सुनने के बाद तुम्हें घृणा होने लगेगी। एक हद तक, सभी लोग बीमार हैं। बाहर से तो, लोगों के शरीर मानवीय दिखाई पड़ते हैं, परन्तु जो बातें वे अपने दिल में सोचते हैं वे वास्तव में वो नहीं होतीं जो लोगों को सोचनी चाहिए; वे सभी बीमार हैं और खुद को सही करने में असमर्थ हैं। वे खुद को सही करने में असमर्थ हैं, इससे मेरा क्या तात्पर्य है? मेरा मतलब है कि शायद सौ या दो सौ साल पहले, अधिक लोग परमेश्वर की बातें और कथन सुनने के इच्छुक होते। उनका विश्वास था कि इस दुनिया में न्याय मौजूद था, साथ ही धार्मिकता और निष्पक्षता भी थी। लोग इस प्रकार के तथ्य को स्वीकार करने के लिए तैयार रहते थे, और वे लालायित रहते थे कि यह साकार हो जाए। इससे भी बढ़कर, उन्हें आशा थी कि ऐसा भी एक दिन होगा जब उद्धारकर्ता आएगा, जो मानवजाति को अंधकार और दुष्टता के प्रभाव से बचा सकेगा। हालाँकि, एक या दो सौ साल बाद, अब इस तरह के लोग कम, और भी कम होते जा रहे हैं। कितने लोग ऐसे हैं जो परमेश्वर के वचनों को समझ सकते हैं? कितने लोग ऐसे हैं जो सत्य स्वीकार कर सकते हैं? भले ही बहुत लोगों ने परमेश्वर का अनुग्रह प्राप्त किया हो, तो क्या? जो सचमुच उसका अनुसरण करते हैं उन लोगों की संख्या लगातार कम होती जा रही है। कहने का अर्थ यह है कि मानवजाति में ऐसे लोग उत्तरोत्तर कम होते जा रहे हैं जो परमेश्वर के वचनों को सुनने के बाद, प्रोत्साहित होते हैं, सकारात्मक चीजों से प्रेम करने में समर्थ होते हैं, प्रकाश के लिए लालायित रहते हैं, न्याय के लिए लालायित रहते हैं, और परमेश्वर के राज्य के आगमन के लिए, निष्पक्षता और धार्मिकता के लिए लालायित रहते हैं। यह क्या दर्शाता है? यह दर्शाता है कि शैतान के फलसफों, नियमों, विचारों और तथाकथित मानसिकताओं से समस्त मानवजाति गुमराह और भ्रष्ट हो गई है। लोग किस हद तक गुमराह और भ्रष्ट हो गए हैं? सभी लोगों ने शैतान की भ्रांतियों और दुष्ट बातों को सत्य मान लिया है; वे सभी शैतान की आराधना करते हैं और शैतान का अनुसरण करते हैं। वे सृष्टिकर्ता परमेश्वर के वचनों को नहीं समझते। सृष्टिकर्ता चाहे जो भी कहे, जितना भी कहे, और उसके वचन कितने ही स्पष्ट एवं व्यावहारिक क्यों न हों, कोई भी नहीं समझता है; कोई भी नहीं बूझता है। वे सभी सुन्न और मंदबुद्धि हैं, और उनकी सोच और उनके दिमाग उलझे हुए हैं। उन्हें कैसे उलझाया गया था? यह शैतान है जिसने उन्हें उलझाया है। शैतान ने लोगों को पूरी तरह से भ्रष्ट कर दिया। आज के समाज में, सभी तरह के अलग-अलग विचार, सैद्धांतिक विचारधाराएँ और कथन होते हैं। लोग जिसे चुनते हैं उसी पर विश्वास करते हैं, और जिसे चुनते हैं उसी का अनुसरण करते हैं। कोई भी उन्हें नहीं बता सकता है कि क्या करना है, न ही कोई उन्हें यह बताने में समर्थ है कि उन्हें क्या करना है। बात इस हद तक की है। तो यह तथ्य कि तुम लोग परमेश्वर में विश्वास करना चुन सकते हो, एक आशीष है। आज, तुम लोग यह समझने में सक्षम हो कि परमेश्वर क्या कह रहा है, तुम्हारे पास अंतरात्मा की थोड़ी-सी अनुभूति है, परमेश्वर जो कहता है उस पर तुम विश्वास करते हो, तुम्हें यह लालसा है कि परमेश्वर का राज्य आए, और तुम प्रकाश, न्याय, निष्पक्षता और धार्मिकता के राज्य में रहने के लिए लालायित हो। क्या तुम्हारे लिए इस नेकी का होना दुर्लभ है? तुम्हें यह कैसे मिली? यह परमेश्वर की सुरक्षा के कारण, और तुम्हें स्पष्टता देने हेतु पवित्र आत्मा द्वारा तुममें कार्य करने के माध्यम से ही है कि तुम परमेश्वर में विश्वास करने में और उसका अनुसरण करने में समर्थ हो। यदि परमेश्वर ने तुममें कार्य नहीं किया होता, तो क्या तुम लोग अभी यहाँ एक विश्वासी के रूप में होते? क्या तुम लोग जिस तरह से अब बदले हो, वैसे बदल सकते थे? जरा देखो, क्या वे अविश्वासी अब भी मानव के समान है? हो सकता है कि तुम अभी कई सच्चाइयों को न समझो, और कई मुद्दों पर तुम्हारे विचार अभी भी बिल्कुल अविश्वासियों जैसे ही हैं—वे जैसा सोचते हैं, तुम भी वैसा ही सोचते हो। हालाँकि कभी-कभी तुम लोग उनके कुछ दृष्टिकोणों को स्वीकार नहीं करते हो, फिर भी तुम्हारे पास कोई विवेक नहीं होता, और अनुसरण के लिए कोई अन्य मार्ग नहीं होता है। जब वह दिन आएगा जब तुम सत्य को समझोगे, तो तुम यह भेद कर पाओगे कि उनके विचार गलत और दुष्ट हैं, और तुम्हारा दिल उन्हें नकारने में सक्षम होगा। तब तुम उनके शैतानी चेहरे स्पष्ट रूप से देखोगे। तुम देखोगे कि वे जीते-जागते शैतान हैं, इंसान नहीं। वे इंसानों का चोला तो पहने हुए हैं, लेकिन इंसानों जैसे काम नहीं करते हैं। तुम कैसे कह सकते हो कि मामला यही है? वे जिन बातों का प्रचार करते हैं वे सभी बातें विशेष रूप से कर्णप्रिय होती हैं और लोगों को गुमराह करने में सक्षम होती हैं, लेकिन वे जो काम करते हैं और जिसे अंजाम देते हैं वह अत्यंत दुष्ट और भद्दा होता है, और यह केवल निर्लज्ज और बेतुका होता है। वे जिन तथाकथित विचारों और तथाकथित मानसिकताओं से चिपके रहते हैं, वे अत्यधिक दुष्ट और प्रतिक्रियावादी होती हैं, वे परमेश्वर के वचनों और सत्य से बिल्कुल उल्टी चलती हैं, वे परमेश्वर के वचनों और सत्य से ठीक विपरीत होती हैं, फिर भी ये लोग इन झूठे तर्कों और पाखंडों को सच्चाई मान लेते हैं और उनका गहन प्रचार करते हैं, मानवजाति को गुमराह और भ्रष्ट करने के लिए उनको जोर-शोर से और खुलकर बढ़ावा देते हैं, ताकि वे अपने विभिन्न नीच और बेशर्म अपराधों तथा कुरूप चेहरों पर पर्दा डाल सकें। इससे तुम यह साफ देख सकते हो कि वे सभी दानव हैं, साथ ही जानवर हैं और अशुद्ध आत्माएँ हैं जिन्हें समझाया नहीं जा सकता। तुम उनसे मतलब की बात कर ही नहीं सकते, और उनसे अच्छे, सच्चे शब्द नहीं बोल सकते। जब वह दिन आएगा जब तुम इस हद तक स्पष्ट देख सकोगे, तब तुम जान लोगे कि मानवजाति अत्यंत गहराई से भ्रष्ट हो चुकी है; कि तुम भी उतने ही भ्रष्ट हो गए हो जितने दूसरे लोग हैं; कि यह केवल इस वर्तमान समय में ही है जब तुम परमेश्वर में विश्वास करने लगे हो और कुछ सच्चाइयों को समझते हो ताकि तुम कुछ इंसानी समानता जी पाओ, दुष्टों और शैतान के प्रभाव से दूर हट सको, और उनका भेद कर सको, उनसे घृणा कर सको, और उन्हें त्याग सको; कि परमेश्वर के उद्धार के बिना तुम ठीक उनके जैसे ही होगे—कोई अंतर न होगा—और तुम किसी भी तरह की बुरी या दुष्ट चीज करने में सक्षम होगे। अब तुम सत्य का अनुसरण कर रहे हो, सत्य के लिए बहुत-सा कार्य और प्रयास कर रहे हो, अभ्यास को महत्व दे रहे हो, और सत्य को अपनी वास्तविकता में बदल रहे हो। जब तुम सत्य को समझ लेते हो, सत्य का अभ्यास कर सकते हो, परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता जी सकते हो, और तुम्हारे पास वास्तविक अनुभवजन्य गवाही होती है, तब तुम्हारा दिल खुश और शांत होगा, तुम्हारी सोच और अवस्था उत्तरोत्तर सामान्य होगी, परमेश्वर से तुम्हारा संबंध अधिकाधिक घनिष्ठ और उत्तरोत्तर सामान्य होता जाएगा, और तुम्हारे दिन निरंतर बेहतर होते जाएँगे। यदि तुम सत्य का अभ्यास नहीं करते हो, हमेशा शैतानी फलसफे के मुताबिक जीते हो, और हमेशा परमेश्वर को गलत समझते हो और उस पर संदेह करते हो, तो तुम्हारा दिल परमेश्वर से उत्तरोत्तर दूर होता जाएगा, परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास व्यर्थ होगा, और तुम्हें कोई लाभ नहीं होगा। भले ही तुमने परमेश्वर में कई वर्षों से विश्वास किया हो, भले ही तुम कई बातों और धर्म-सिद्धांतों को समझते हो, और अविश्वासियों के विभिन्न भ्रांतिपूर्ण विचारों और दृष्टिकोणों को स्वीकार नहीं करते हो, यह किसी काम का नहीं है। यह इसलिए है कि तुम सत्य को नहीं समझते हो और केवल कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों की ही बात कर सकते हो, और तुम अब भी सत्य का अभ्यास नहीं कर पाते हो। क्योंकि जो बातें सर्वप्रथम तुम्हारे दिल में प्रविष्ट और प्रभावी हुई थीं, वे अब भी तुम पर हावी हैं, तुम केवल उन बातों के अनुसार ही जीने में सक्षम हो। चाहे तुम कुछ भी करना चाहो, चाहे तुम पर कोई भी परिस्थिति आ पड़े, तुम इन शैतानी फलसफों से नियंत्रित हुए बिना रह नहीं पाओगे। तो, यदि ये शैतानी फलसफे तुम्हारे दिल पर हावी हैं, तो तुम सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ होगे। कुछ लोग कहते हैं, “मैं सत्य का अभ्यास नहीं करता, न ही मैं शैतान का अनुसरण करता हूँ।” क्या यह संभव है? कोई बीच का रास्ता नहीं है। जब तुम सत्य को स्वीकार कर लो, सत्य को समझ लो, और फिर उन शैतानी चीजों को साफ कर लो जो सर्वप्रथम तुम्हारे दिल में प्रविष्ट हुईं और वहाँ हावी हुई थीं, केवल तभी तुम सत्य के अनुसार चीजें करने लग सकते हो। जब तुम्हारे दिल पर सत्य का प्रभुत्व होगा, जब तुम्हारे दिल पर परमेश्वर के वचन का प्रभुत्व होगा, तब तुम अपनी कथनी और करनी में स्वाभाविक रूप से सत्य का अभ्यास कर सकोगे।
लोग शैतान के तर्क और विचारों के साथ, और उन मानसिक बैसाखियों के साथ जो लोगों के जीवन को नियंत्रित करती हैं, कैसा व्यवहार करते हैं? मनोवैज्ञानिक पोषण की तरह? आत्मा के लिए चिकन सूप की तरह? दरअसल, ये वो चीजें हैं जो लोगों को भ्रष्ट करती हैं, और यदि कोई उन्हें “खा ले” तो उसका काम खत्म है। अगर लोग लगातार इन बातों को स्वीकार करते हैं और शैतानी चीजों को अपने अंदर जमा होने देते हैं, तो इसका क्या मतलब होता है? इसका मतलब है उन्होंने अभी तक अपना मूल भ्रष्ट स्वभाव नहीं त्यागा है, और इसके ऊपर, शैतान से नई भ्रष्टता स्वीकार करने के लिए आगे बढ़ चुके हैं। इसका मतलब है उनका काम तमाम हो गया है। उन्हें बचाया नहीं जा सकता, यह अपरिहार्य है। तुम्हें लगातार इन चीजों को पहचान कर नकारना चाहिए, साथ ही लगातार इन्हें त्यागना चाहिए, इनके अनुसार नहीं जीना चाहिए, और परमेश्वर के वचनों को स्वीकारना चाहिए। ऐसे लोग हैं जो कहते हैं, “मैं इन चीजों को स्वीकार नहीं करूँगा। परमेश्वर के वचन अपने आप ही मुझमें प्रवेश कर जाएँगे।” यह संभव नहीं है। तुम्हें सक्रिय रूप से सत्य की तलाश करनी होगी और सत्य को स्वीकार करना होगा, और सत्य को समझने की प्रक्रिया के माध्यम से, तुम स्वाभाविक रूप से झूठे तर्कों और पाखंडों पर विवेक हासिल करोगे, और धीरे-धीरे उन्हें जाने दोगे। इस तरह से, परमेश्वर के वचन कार्यों को करने के लिए क्रमशः तुम्हारे सिद्धांत बन जाएँगे, और जब तुम कार्य करोगे तो तुम्हें यह मालूम होगा कि उन्हें करने का कौन-सा तरीका परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है, तुम सत्य का अभ्यास बहुत स्वाभाविक रूप से करोगे, और तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव का यह पहलू बदल चुका होगा। क्या तुम लोगों को लगता है कि यह करना कठिन है, या नहीं है? यह वास्तव में कठिन नहीं है। इसके बारे में केवल एक ही कठिन बात यह है कि लोग इसे अभ्यास में नहीं डालते हैं। कुछ लोग सोचते हैं, “यह तो सचमुच ही कठिन है—स्वर्ग पर चढ़ने से भी अधिक कठिन! क्या यह मछली को जमीन पर रहने को मजबूर करना नहीं है? क्या यह मुझे कठिन परिस्थिति में नहीं डाल रहा है?” क्या मामला यही है? नहीं, बात यह नहीं है। तुम लोगों को इन मामलों को सही तरीके से देखना चाहिए और इन मुद्दों पर सही विवेक रखना चाहिए। आज केवल कुछ ही शैतानी भ्रांतियों पर संगति और गहन-विश्लेषण करते हुए मैंने इतना लंबा समय खर्च किया है, लेकिन क्या बस ये कुछ चीजें ही हैं जो लोगों के अंदर जमी पड़ी हैं? (नहीं।) वे तो इनसे कहीं अधिक हैं! बाद में, मैं एक के बाद एक इन विषयों पर संगति करूँगा। इससे पहले, मैंने इस पहलू पर कभी संगति नहीं की थी, तो क्या तुम लोगों ने खुद कभी इन मुद्दों पर चिंतन किया था? तुमने नहीं किया। यदि तुम उन पर चिंतन करते हो, तो क्या तुम्हें कुछ परिणाम हाथ आएँगे? यदि तुम लोगों ने सत्य समझने का कुछ प्रयास किया होता, तो तुम्हें शैतानी भ्रांतियों के बारे में कुछ विवेक होता और तुम अब की तरह पूरी तरह से अनजान नहीं होते। क्या आज इन विषयों पर मेरी संगति अनायास-सी प्रतीत होती है? क्या कोई है जो कहता है, “क्या हम मसीह-विरोधियों की पहचान जानने के बारे में संगति नहीं कर रहे हैं? हम अचानक ही इन मुद्दों पर संगति क्यों कर रहे हैं?” इन तमाम मुद्दों का संबंध शैतान के भ्रष्ट स्वभाव से है। इन सभी मामलों का संबंध लोगों द्वारा शैतान के भ्रष्ट स्वभाव को पहचानने से भी है, और सत्य को सही ढंग से समझ पाने के बारे में लोगों की क्षमता के लिए ये लाभदायक हैं। कम से कम, संगति करने के बाद, लोग यह जान लेंगे, “यह पता चला है कि यह ‘महान’ वाक्यांश सत्य नहीं है।” इस बिंदु से आगे, “अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना” और “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” जैसी भ्रांतियां तुम्हारे दिल से बाहर निकल सकती हैं। तुम लोगों में कुछ ऐसे भी हो सकते हैं जो इस समय उन्हें बाहर नहीं निकाल सकते, लेकिन कम से कम तुम यह जानते हो कि ये वाक्यांश सत्य नहीं हैं, और अगली बार जब तुम किसी को इन वाक्यांशों को कहते हुए सुनोगे, तो तुम्हें मालूम होगा कि ये वाक्यांश भ्रामक हैं, और तुम उन्हें स्वीकार नहीं करोगे। यद्यपि तुम्हारे दिल को लगता है कि ये वाक्यांश कुछ हद तक सही हैं, और वे अभी भी करने के लिए अच्छी चीजें हैं, तुम यह भी सोचते हो, “परमेश्वर ने कहा है कि ये वाक्यांश सत्य नहीं हैं। मैं उनके अनुसार कार्य नहीं कर सकता।” क्या यह तुम लोगों के लिए लाभदायक नहीं है? (बिल्कुल है।) इन बातों को कहने का मेरा लक्ष्य क्या है? मैं इन वाक्यांशों का इस तरह से गहन-विश्लेषण क्यों कर रहा हूँ? विश्वासी लोग हमेशा कहते हैं, “हमें सत्य का अभ्यास करना ही चाहिए। परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं। परमेश्वर के सभी वचन सकारात्मक बातें हैं, और ये वो हैं जिनका हमें अभ्यास करना चाहिए।” एक दिन तुम्हारी काट-छाँट की जाती है, और ये वाक्यांश तुम्हारे दिल में उभर आते हैं, “अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना” और “जब स्वर्ग किसी व्यक्ति को बड़ी जिम्मेदारी देने वाला होता है, तो सबसे पहले उसके हृदय को पीड़ा का अनुभव होना चाहिए।” क्या ये सच्चाई हैं? क्या यह मजाक नहीं है? यदि तुमसे परमेश्वर की गवाही देने के लिए कहा जाए, तो तुम यह कैसे करोगे? तुम कहोगे, “विश्वासियों को अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना चाहिए, अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना चाहिए, और उनके पास लड़ने के लिए कभी न हार मानने का संकल्प और मानसिकता होनी चाहिए।” क्या यह परमेश्वर की गवाही देना है? (नहीं।) शैतानी तर्क को परमेश्वर के वचन और सत्य मानकर और उसकी गवाही देकर, न केवल तुमने परमेश्वर की उचित रूप से गवाही नहीं दी, बल्कि तुम शैतान के लिए हँसी का पात्र बन गए हो और तुमने परमेश्वर का अपमान किया है। तुम यह क्या कर रहे हो? यदि परमेश्वर इसके लिए तुम्हारी निंदा करे, तो तुम इसे अन्याय समझोगे और कहोगे, “मैं अज्ञानी हूँ। मैं समझता नहीं हूँ। परमेश्वर ने इस बारे में मेरे साथ कभी संगति नहीं की।” यदि वह तुम्हारी निंदा नहीं करता है, किन्तु तुम्हारे क्रियाकलापों की प्रकृति बहुत ही गंभीर हो, तो परमेश्वर को इसके बारे में क्या करना चाहिए? तुम्हें एक तरफ कर देना चाहिए? (नहीं।) कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है। जहाँ तक मेरी बात है, मैं बस तुम लोगों को—तुम लोगों के समझ के स्तर के अनुसार और जो मैं तुम लोगों को बताने में सक्षम हूँ उसके अनुसार—जितना हो सके उतना समझाऊँगा, और जितना हो सके उतना बताऊँगा कि सत्य वास्तव में क्या है, वे वाक्यांश जिन्हें तुम लोग अच्छे और सही मान रहे हो, क्या सत्य से जुड़े हैं, और क्या वे सत्य हैं। मुझे तुम लोगों को ये बातें समझानी होगी। यदि, इन बातों को जानने के बाद भी, तुम उसी तरह से सोचते हो और अभी भी उतने ही आग्रही हो, तो परमेश्वर तुम्हें एक तरफ नहीं रखेगा, न ही वह तुम्हारी उपेक्षा करेगा। तुम निंदा के पात्र होगे, और परमेश्वर कार्यवाही करेगा। परमेश्वर ऐसा क्यों करेगा? यदि तुम इन बातों को न समझते हुए इस तरह से काम करते हो, तो परमेश्वर इसे तुम्हारे मूर्ख और अज्ञानी होने के रूप में लेगा, परन्तु यदि तुम इन बातों को जानते हो और फिर भी इस तरह से काम करते हो, तो तुम जानबूझकर गलत कर रहे हो, और परमेश्वर को इससे सिद्धांतों के अनुसार निपटना होगा।
19 दिसंबर 2019
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