प्रकरण एक : सत्य क्या है (खंड पाँच)
“अपमान” वास्तव में क्या है? क्या विश्वासियों को अपमान सहने की जरूरत है? क्या यह “अपमान” मौजूद है? (नहीं, यह मौजूद नहीं है।) यह मौजूद नहीं है, तो क्या यह मुद्दा हल नहीं हो गया है? अगली बार जब तुम किसी को यह कहते हुए सुनो कि “विश्वासी के रूप में जो पहली चीज तुम्हें सीखनी चाहिए, वह है सहना। चाहे कुछ भी हो जाए, तुम्हें उसे सहना चाहिए और उसे अपने अंदर ही दबा देना चाहिए।” जब तुम उसे ये शब्द कहते हुए सुनो, तो क्या तुम्हें उससे कुछ कहना चाहिए? (हाँ।) तुम्हें क्या कहना चाहिए? तुम्हें कहना है : “तुम किस चीज के लिए सह रहे हो? अगर तुम सही मायने में अपमान सह रहे हो, तो तुम बहुत ही दयनीय हो, और यह दर्शाता है कि तुम सत्य नहीं समझते हो। अगर तुम सत्य समझते, तो यह तिरस्कार मौजूद नहीं होता, और तुम स्वेच्छा और खुशी से वे सभी परिस्थितियाँ स्वीकार कर लेते, जिनकी योजना परमेश्वर तुम्हारे लिए बनाता है। लोगों को तिरस्कार नहीं, बल्कि कष्ट सहना चाहिए। यह परमेश्वर द्वारा तुम्हारा उत्थान करना है। यह सच्चाई कि हम इस कष्ट को सह सकते हैं यह साबित करता है कि परमेश्वर अब भी हमें एक मौका दे रहा है और बचाए जाने के लिए हमें समर्थ बना रहा है। अगर हमें कष्ट सहने का अवसर ही नहीं मिलता या हम इसके योग्य ही नहीं होते, तो हमारे पास बचाए जाने का कोई मौका ही नहीं होता। यह तिरस्कार नहीं है; तुम्हें इस बारे में स्पष्ट हो जाना चाहिए, और यह देखना चाहिए कि तुम जो कह रहे हो वह वास्तव में सही है भी या नहीं। यह तिरस्कार मौजूद नहीं है—हम भ्रष्ट लोग हैं और इस कष्ट को सहने लायक हैं। जब तुम बीमार पड़ते हो, तो दवा लेने और सर्जरी करवाने में तुम्हें थोड़ा कष्ट होता है। क्या अपनी बीमारी को ठीक करने के लिए तुम जो कष्ट सहते हो, उसे तिरस्कार माना जाता है? यह तिरस्कार नहीं है; यह तुम्हें ठीक करने के लिए किया जाता है। परमेश्वर में हमारे विश्वास और न्याय और ताड़ना का अनुभव हमारे भ्रष्ट स्वभावों को त्याग देने, और मानव के समान जिंदा रहने, परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार जीने, परमेश्वर के प्रति समर्पण करने, उसकी आराधना करने, और बेहतर तरीके से जीने और ज्यादा गौरव के साथ जीने के लिए है। हम अपने भ्रष्ट स्वभावों के कारण यह कष्ट सहने लायक हैं। यह कष्ट हम सत्य और जीवन प्राप्त करने की खातिर सहते हैं। हम इसकी व्याख्या तिरस्कार के रूप में नहीं कर सकते हैं। हमें इसे अपनी जिम्मेदारी और दायित्व के रूप में, और उस मार्ग के रूप में स्वीकार करना चाहिए जो हमें अपनाना चाहिए। यह परमेश्वर द्वारा हमारा उत्थान है, और हमारा उत्थान करने के लिए हमें परमेश्वर की तारीफ करनी चाहिए, और उसने हमें जो मौका दिया है उसके लिए हमें उसकी तारीफ करनी चाहिए। हमने जो सब किया है और हमने जिस तरह से कार्य किया है, उसके आधार पर हम इस कष्ट को सहने योग्य नहीं हैं, और हमें दुनिया के लोगों की तरह नष्ट कर दिया जाना चाहिए। अगर हम हमें जो कष्ट सहना चाहिए उसे और परमेश्वर द्वारा हमें दिए गए सारे अनुग्रह को तिरस्कार मानते हैं, तो हम में बुरी तरह से विवेक का अभाव है और हम परमेश्वर के दिल को ठेस पहुँचा रहे हैं! हम परमेश्वर के उद्धार के योग्य नहीं हैं।” क्या यही बात नहीं है? (हाँ।) यह जरा-सा धर्म-सिद्धांत बहुत ही सरल है। क्या इसे बिना कहे ही समझना संभव नहीं है? इस तरह से प्रबुद्ध होकर और इन चीजों को समझकर, लोगों के दिल ज्यादा सहज हो जाएँगे, और जब उनके साथ कुछ घटेगा, तो वे अनुचित रूप से कार्य नहीं करेंगे। कुछ लोग अपने दिलों में स्पष्ट रूप से यह जानते हैं कि यही सत्य है और उन्हें इसे स्वीकार कर लेना चाहिए, लेकिन जब वे बोलते हैं तो, वे अब भी यही कहते हैं कि यह वाकई नाइंसाफी है, और वे तब तक लगातार बोलते रहते हैं जब तक कि परमेश्वर के खिलाफ आलोचना के शब्द बाहर नहीं आ जाते। ऐसी चीजें मत करो। जब भी तुम्हारे साथ कुछ घटे, तो सत्य की तलाश करो। यही पहली महत्वपूर्ण चीज है; इसे कभी भी नजरअंदाज मत करना। अगर तुम यह स्वीकार करते हो कि परमेश्वर ही सत्य है, परमेश्वर ही मार्ग है और परमेश्वर ही जीवन है, तो तुम्हें ऐसी किसी भी परिस्थिति को मानव का कार्य नहीं मानना चाहिए जिसे परमेश्वर उत्पन्न करता है। बल्कि, तुम्हें परमेश्वर द्वारा उत्पन्न की गई हर परिस्थिति को अपना स्वभाव बदलने का एक मौका और सत्य स्वीकार करने का एक मौका मानना चाहिए।
मैंने “अपमान” के अर्थ पर संगति समाप्त कर ली है। इसके बाद, मैं अगले भाग पर संगति करूँगा, जो इस बारे में है कि “भारी दायित्व उठाने” का क्या अर्थ होता है। अभी-अभी हमने इस बारे में बात की कि लोग जो भारी दायित्व उठाते हैं वह कैसे उनके दिल की गहराई में बसी एक इच्छा और एक निरंकुश महत्वाकांक्षा है, एक लक्ष्य है जिसे वे हासिल करने की उम्मीद करते हैं। जब परमेश्वर में विश्वास रखने वालों के परमेश्वर द्वारा बचाए जाने और परमेश्वर की अगुवाई स्वीकार करने की बात आती है, तो क्या उन्हें अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने की जरूरत है? अभी-अभी मैंने कहा कि परमेश्वर के घर में “अपमान सहने” वाले वाक्यांश का कोई तुक नहीं है। तुम्हें अपमान सहने की जरूरत नहीं है; तुम्हें यह महसूस करने की जरूरत नहीं है कि तुम इतना कष्ट उठा रहे हो; तुम्हारे दिल को ऐसा महसूस करने की जरूरत नहीं है कि उसके साथ अनुचित व्यवहार किया जा रहा है; और तुम्हें परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए यह सारा तिरस्कार सहने की जरूरत नहीं है, जैसे कि तुम बहुत ही कुलीन हो। तुम्हें ये चीजें करने की जरूरत नहीं है। तो भारी दायित्व उठाने का क्या अर्थ है? अगर कोई यह कहे कि परमेश्वर लोगों को ये सारे कष्ट सहन करवाता है ताकि वे और बड़ी जिम्मेदारियाँ और लक्ष्य स्वीकार कर सकें, और ज्यादा आशीष और बेहतर गंतव्य प्राप्त कर सकें, तो क्या यह कथन ठोस और उचित होगा? (नहीं, यह ठोस नहीं है।) यह ठोस नहीं है। तो फिर हमें इसे कैसे निरूपित करना चाहिए? परमेश्वर लोगों को बचाए जाने और परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने की अनुमति देता है, और उन्हें बेहतर जीवन जीने देता है। वास्तव में, क्या परमेश्वर यह लोगों की खातिर करता है, या अपनी खातिर करता है? (लोगों की खातिर करता है।) यकीनन यह लोगों की खातिर है। लोग सबसे बड़े लाभार्थी हैं। इसीलिए मैं कहता हूँ कि इसका इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि परमेश्वर इससे क्या प्राप्त करता है, इस बात को तो छोड़ ही दो कि यह कष्ट सहने से लोगों को कितनी मात्रा में आशीषें मिल सकती हैं। तुम्हें सहने की जरूरत नहीं है, और तुम्हें इस तरह की “महान महत्वाकांक्षाएँ” रखने की जरूरत नहीं है, और ना ही तुम्हें चीजों को इस तरह से त्याग देने की जरूरत है। दरअसल, तुमने कुछ भी नहीं त्यागा है, और ना ही तुमने कुछ भी फेंका है। इसके विपरीत, लोगों को सबसे ज्यादा फायदा ही हुआ है। एक चीज है कि लोगों ने आचरण करने की सभी अलग-अलग कसौटियों को समझ लिया है। साथ ही, लोग इस पूरी व्यवस्था का और परमेश्वर द्वारा स्थापित इन सभी नियमों का पालन कर सकते हैं, और सुव्यवस्थित तरीके से जी सकते हैं। जीने का यह तरीका लोगों के इस समय के जीने के तरीके की तुलना में कैसा है? (यह बेहतर है।) यह लोगों के इस समय के जीने के तरीके की तुलना में बेहतर है। फिर, जीने के इन दो तरीकों में से, कौन-सा तरीका ज्यादा धन्य है, सच्चे सृजित प्राणी से ज्यादा मिलता-जुलता है, और इससे भी ज्यादा, कौन-सा तरीका वह जीवन है जो मानवजाति के पास होना चाहिए? (पहला तरीका।) यकीनन पहला तरीका ऐसा है। यह कष्ट सहने के बाद, तुम परमेश्वर के इरादों को समझते हो, और साथ ही, कई सत्यों को समझते हो, और आधार के रूप में सत्य की समझ के साथ, तुम सीखते हो कि तुम्हें कैसे आचरण करना है, और ऐसा सत्य मौजूद है जो तुम्हारी मानवता में जीवन के रूप में कार्य करता है। क्या इससे तुम्हें सार्थकता मिलती है? लोगों के पास मूल रूप से बिल्कुल कोई सत्य नहीं होता है। वे तो सिर्फ नालायक अभागे होते हैं जो चींटियों से भी कमतर हैं और जिंदा रहने लायक नहीं हैं, लेकिन अब तुमने सत्य समझ लिया है, और सत्य के अनुसार बोलते हो और कार्य करते हो। परमेश्वर चाहे तुमसे कुछ भी करवाए, तुम उसे सुनने और उसे पूरी तरह से अंजाम देने में समर्थ हो, और चाहे परमेश्वर तुम्हारे लिए कोई भी व्यवस्थाएँ करे, तुम उनके प्रति समर्पण करने में समर्थ हो। तो, क्या तुम अब भी परमेश्वर की आलोचना करोगे? क्या तुम खुद आगे बढ़कर उसके खिलाफ विद्रोह करोगे? अगर कोई तुम्हें परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करने के लिए उकसाता है, तो क्या तुम ऐसा करोगे? (नहीं।) अगर कोई तुम्हें गुमराह करने के लिए परमेश्वर के बारे में झूठी बातें बनाता है, तो क्या तुम उस पर विश्वास करोगे? (नहीं।) नहीं, तुम ऐसा नहीं करोगे। इसलिए चाहे व्यक्तिपरक अर्थ में हो या वस्तुपरक अर्थ में, तुम परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह नहीं करोगे। इस तरह के मनुष्य पूरी तरह से परमेश्वर के प्रभुत्व में रहते हैं। तो क्या इस तरह के मनुष्यों को अब भी लोगों का दर्द सहने की जरूरत है? क्या उनके दिलों में अब भी नफरत और दर्द है? क्या उनके दिलों में दुखद और दर्दनाक बातें हैं? (नहीं।) यह दर्द वहाँ नहीं है। इस तरह के लोग अपने सभी कार्यों में सिद्धांतवादी होते हैं और अविवेकी नहीं होते हैं। साथ ही, जब चीजें घटती हैं, तो परमेश्वर के पास संप्रभु अधिकार होता है, और शैतान तुम्हें नुकसान नहीं पहुँचा सकता है; तुम एक सच्चे व्यक्ति की तरह जीते हो। क्या परमेश्वर इस तरह के मनुष्यों को नष्ट कर देगा? क्या इस तरह के मनुष्य खुद को नष्ट कर लेंगे? (नहीं।) नहीं, वे ऐसा नहीं करेंगे। वे आज के भ्रष्ट मनुष्यों की तुलना में पूरी तरह से अलग प्रकार के लोग हैं। आज लोगों के दिल नफरत और दर्द से भरे हुए हैं। वे कभी भी, कहीं भी आत्महत्या करने, कभी भी, कहीं भी लोगों से लड़ने और उन्हें मार डालने, और कभी भी, कहीं भी बुरे काम करने, और मानव दुनिया पर आपदा लाने में सक्षम हैं। जबकि, वे मनुष्य जो परमेश्वर द्वारा बचाए जाते हैं और जिन्होंने जीवन के रूप में सत्य प्राप्त कर लिया है, लड़ाई या नफरत किए बिना शांति से मिलजुलकर रह सकते हैं। वे परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने, और परमेश्वर के कहे हर वचन के प्रति एकजुट दिलों और प्रयास से समर्पण करने में समर्थ हैं। ये सभी लोग परमेश्वर के वचन में जीते हैं, और उसी दिशा में कड़ी मेहनत करते हैं। परमेश्वर की इच्छा पूरी करवाने की खातिर—जब तुम सत्य समझते हो, वह सत्य समझता है, वह सत्य समझती है और वे सत्य को समझते हैं—तो जब वे एक साथ होते हैं, तब भी क्या उनके विचार अलग-अलग हो सकते हैं? (नहीं।) इस तरह से, वे उस बिंदु तक पहुँच सकते हैं जहाँ हर कोई परमेश्वर की मौजूदगी में जी रहा है, उसके वचन में जी रहा है, सत्य के अनुसार जी रहा है और जहाँ लोगों के दिल अनुकूलता में हैं। इस तरह, क्या अब भी लोगों के बीच हत्याएँ और लड़ाइयाँ हो सकती है? (नहीं।) नहीं। क्या अब भी लोगों को दर्द सहने की जरूरत है? यहाँ कोई दर्द नहीं है। इस तरह के मनुष्य बिना किसी लड़ाई या हत्या के एक धन्य जीवन जीते हैं। तो फिर लोगों को उन सभी चीजों का प्रबंधन कैसे करना चाहिए जो परमेश्वर ने उन्हें सौंपी हैं? (उन्हें शांति से मिलजुलकर रहना चाहिए।) इसका एक भाग यह है कि उन्हें शांति से मिलजुलकर रहना चाहिए। दूसरा भाग यह है कि उन्हें परमेश्वर द्वारा स्थापित की गई व्यवस्था और नियमों के अनुसार सभी चीजों को प्रबंधित करना चाहिए। जिसका अर्थ यह है कि यह पूरी व्यवस्था और ये सभी नियम और जीवित चीजें मानवजाति की हैं, मानवजाति द्वारा उपयोग की जाती हैं, और मानवजाति के लिए फायदे उत्पन्न करती हैं। इस प्रकार की मानवजाति कितनी अद्भुत है! उस समय मानवजाति का जीवन परिवेश मनुष्यों को दे दिया जाता है ताकि वे उसका प्रबंध करें। परमेश्वर इस दुनिया के लिए व्यवस्था और नियम मनुष्यों की खातिर स्थापित करता है, और फिर परमेश्वर इसमें दखल नहीं देता है। अगर एक दिन तुम किसी भेड़िये को एक खरगोश खाते हुए देख लो, तो तुम क्या करोगे? तुम्हें भेड़िये को इसे खाने देना चाहिए। तुम किसी भेड़िये को खरगोश खाने से नहीं रोक सकते और उसे घास खाने पर मजबूर नहीं कर सकते। तुम क्या गलती कर रहे होगे? (चीजों की प्राकृतिक व्यवस्था के खिलाफ जा रहे होगे।) तुम चीजों की प्राकृतिक व्यवस्था के खिलाफ जा रहे होगे। खरगोश घास खाते हैं और भेड़िये माँस खाते हैं, इसलिए तुम्हें उनकी जन्मजात प्रकृति का सम्मान करना चाहिए और उन्हें स्वतंत्र रूप से बढ़ने देना चाहिए। किसी बनावटी, अतिरिक्त तरीके से उनकी गतिविधियों और जीवनशैली में दखल देने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हें इन चीजों का प्रबंधन करने की जरूरत नहीं है; परमेश्वर ने पहले से ही इन चीजों को उसी तरीके से तय कर दिया है जैसे उन्हें होना चाहिए। अगर कुछ जगहें ऐसी हैं जहाँ बहुत वर्षा होती है और जलवायु उपयुक्त नहीं है, तो जानवरों को प्रवास करना ही पड़ता है। तुम कहते हो, “हमें यह जगह ठीक करनी चाहिए। यहाँ हमेशा इतनी बारिश क्यों होती है? जानवरों के लिए हमेशा प्रवास करना कितना थकाऊ होता होगा!” क्या यह फिर से बेवकूफी नहीं है? (बिल्कुल है।) यह बेवकूफी कैसे है? क्या यह जलवायु परमेश्वर ने नहीं बनाई? (हाँ, बनाई।) परमेश्वर ने यह जलवायु बनाई और इन जानवरों को इस इलाके में रहने दिया। क्या परमेश्वर ने उनका प्रवास नहीं बनाया? (हाँ, बनाया।) तो फिर तुम बीच में क्यों आना चाहते हो? तुम आँख मूँदकर अच्छे इरादों पर कार्य क्यों कर रहे हो? प्रवास करने में क्या अच्छा है? जब जानवरों का एक बड़ा समूह किसी इलाके में आधे वर्ष तक रहता है, तो वे सारी घास खा लेते हैं। अगर बारिश नहीं हुई और वे जाने के इच्छुक नहीं हुए, तो क्या होगा? हर समय बारिश होती रहना जरूरी हो जाएगा। जब जमीन गीली रहेगी, तो वे वहाँ नहीं रह पाएँगे और बारिश के पानी में घास डूब जाएगी, इसलिए उन्हें वहाँ से चले जाना पड़ेगा। यह प्रवास उनके शरीर को चुस्त बनाता है और घास को फिर से उगने का मौका देता है। जब वे दूसरी जगह की ज्यादातर घास खा लेंगे, तो वहाँ बर्फ पड़ने का समय आ जाएगा और एक तरह से कह सकते हैं कि उन्हें एक बार फिर बाहर निकाल दिया जाएगा और उन्हें जल्दी से प्रवास करना पड़ेगा। वे फिर से अपने मूल जगह की तरफ लौटने लगेंगे। अब यहाँ बारिश नहीं हो रही है, घास बड़ी हो गई है और वे इसे फिर से खा सकते हैं। इस तरह से, यह पारिस्थितिकी तंत्र प्राकृतिक तरीके से लगातार संतुलन बनाए रखता है। कुछ लोग कहते हैं, “शेर हमेशा अफ्रीकी बारहसिंघों को खा जाते हैं—बेचारे भोले जानवर! क्या हम अफ्रीकी बारहसिंघों को और होशियार नहीं बना सकते हैं?” तुम आँख मूँदकर अच्छे इरादों पर कार्य क्यों कर रहे हो? क्या तुम यह दिखाने का प्रयास कर रहे हो कि तुम दयालु हो? तुम्हारी अच्छाई बहुत ही ज्यादा दूर तक जा रही है। अगर अफ्रीकी बारहसिंघे चालाक होते, तो शेर भूखे रह जाते। क्या तुम शेरों को भूखे रहते देखना बर्दाश्त कर पाओगे? दूसरे लोग हैं जो कहते हैं, “शेर बुरे होते हैं। वे हिरणों और धारीदार गधों को काट खाते हैं। यह बहुत ही वीभत्स और निर्दयी है!” अगर तुमने शेरों को नष्ट कर दिया, तो ढेर सारे धारीदार गधे और हिरण हो जाएँगे। अंतिम परिणाम क्या होगा? सारी घास चर ली जाएगी, और घास के मैदान रेगिस्तान में बदल जाएँगे। क्या तुम इसे बर्दाश्त कर पाओगे? क्या तुम तब भी इन अच्छे इरादों पर कार्य करोगे? तो, तुम्हें क्या करना चाहिए? उन्हें स्वतंत्र रूप से बढ़ने दो। जानवरों के साथ ऐसा ही है। परमेश्वर ने यह पूरी व्यवस्था बहुत पहले ही स्थापित कर दी, और भले ही तुम चाहो या ना चाहो, तुम्हें इसे स्वीकार करना ही पड़ेगा; हर चीज ठीक वैसे ही आगे बढ़नी चाहिए जैसे वह व्यवस्थित है। अगर तुम प्राकृतिक व्यवस्था के खिलाफ जाओगे, तो जीवन कायम नहीं रह पाएगा। एक बार जब तुम ये सभी नियम समझ लोगे, तो तुम नियमों का आदर करोगे, और इन चीजों को नियमों के अनुसार देखोगे। तब तुम्हें हर चीज पर परमेश्वर की संप्रभुता की बुद्धिमानी दिखाई देगी। साथ ही, ये सभी नियम जीवन में अंतर्निहित हैं। यह कैसे हुआ? (यह परमेश्वर द्वारा नियत किया गया था।) यह परमेश्वर द्वारा नियत किया गया था। परमेश्वर ने इसी तरह से इसकी व्यवस्था की। मनुष्य विज्ञान पर शोध करते हैं, जीवविज्ञान पर शोध करते हैं, अध्ययन के सभी प्रकार के क्षेत्रों पर शोध करते हैं। उन्होंने कई-कई वर्षों तक शोध किया है, लेकिन वे सिर्फ सरल सिद्धांत और व्यवस्था ही समझते हैं; किसी को भी इस सिद्धांत और परिघटना में परमेश्वर की संप्रभुता या बुद्धिमानी नहीं दिखाई देती है। यह पूरा पारिस्थितिकी तंत्र और खाद्य श्रृंखला इतनी सूक्ष्म और अद्भुत बनकर क्यों उभरी? मनुष्य इस दुनिया में लोगों के सामने सिर्फ एक परिघटना को स्पष्ट करते हैं या किसी तथ्य की घोषणा करते हैं, लेकिन कोई भी संक्षेप में यह प्रस्तुत नहीं कर सकता है या स्पष्ट रूप से यह नहीं देख सकता है कि यह सब परमेश्वर से आया है—यह अपने आप नहीं हुआ है। अगर हम यह कहते हुए आगे बढ़ते रहें कि यह अपने आप हुआ, तो इतने वर्षों में कभी किसी ने किसी वानर को मनुष्य में बदलते हुए क्यों नहीं देखा? ये सभी नियम परमेश्वर द्वारा स्थापित किए गए। क्या वानरों के मनुष्यों में बदलने से उनका कोई लेना-देना है? (नहीं।) ऐसी कोई चीज नहीं है। परमेश्वर ने ये सभी नियम और यह पूरी व्यवस्था स्थापित की। अगर लोगों की किस्मत इतनी अच्छी हुई कि वे यहाँ टिक पाएँ, तो उस समय वे ना सिर्फ इस पूरी व्यवस्था और इन सभी नियमों का आदर करेंगे, इन्हें बनाए रखेंगे और इनका प्रबंधन करेंगे, बल्कि इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि वे इस पूरी व्यवस्था और इन सभी नियमों के सबसे बड़े लाभार्थी भी होंगे। परमेश्वर ने यह सब मानवता के लिए तैयार किया, और इसे लोगों के लिए स्थापित किया—लोगों के आनंद के लिए सब कुछ पहले से ही तैयार है। सभी चीजों में, सृजित प्राणी यानी लोग सबसे ज्यादा धन्य हैं। लोगों के पास भाषा है, सोच है, वे परमेश्वर की आवाज सुन सकते हैं, परमेश्वर के वचन समझ सकते हैं, उनके पास परमेश्वर से बातचीत करने के लिए भाषा है, और वे परमेश्वर के वचन समझने में सबसे माहिर हैं। वे सबसे ज्यादा धन्य हैं क्योंकि परमेश्वर ने उन्हें वह सबसे बड़ी पूँजी दी है जिससे वे उद्धार प्राप्त कर सकते हैं और उसके सामने आ सकते हैं। अंत में, परमेश्वर ने जो कुछ भी किया है उसके लिए, और इस पूरी व्यवस्था और परमेश्वर द्वारा स्थापित किए गए सभी नियमों के लिए यह जरूरी हो जाएगा कि लोग उनका प्रबंधन करें और उन्हें बनाए रखें। वे लोग जो इस पूरी व्यवस्था पर और इन सभी नियमों पर सिर्फ शोध करते हैं, इन्हें बर्बाद करते हैं, इनके लिए नुकसानदायक हैं और इन्हें तोड़ते-मरोड़ते हैं, उन्हें मिटा देना चाहिए। लोगों ने बहुत ज्यादा कष्ट सहा है। वह सुंदर गंतव्य जिस पर लोग अपने दिलों में विश्वास करते हैं, और जिसका वे अनुसरण करते हैं और जिसकी लालसा रखते हैं, क्या वह सच में मौजूद है? वह सच में मौजूद नहीं है। यह सिर्फ लोगों की इच्छा और निरंकुश महत्वाकांक्षा है, और यह उस चीज से अलग है जो परमेश्वर लोगों को देना चाहता है। ये दो अलग-अलग चीजें हैं और इनका एक-दूसरे से कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने का “भारी दायित्व उठाना” वाला भाग लोगों में मौजूद नहीं है। यह मौजूद नहीं है से मेरा क्या अर्थ है? मेरा मतलब है कि जिस सुंदर गंतव्य पर तुम विश्वास करते हो, और अपने दिल की गहराई में बसी इच्छाओं और निरंकुश महत्वाकांक्षाओं में तुम जिन चीजों को हासिल करना चाहते हो, वे बिल्कुल मौजूद नहीं हैं। चाहे तुम कितने भी कष्ट क्यों ना उठा लो या कितना भी तिरस्कार क्यों ना सह लो, अंत में, तुम जिस गंतव्य की लालसा रखते हो, जो चीजें हासिल करना चाहते हो, जो व्यक्ति बनना चाहते हो, और जिस हद तक तुम धन्य होना चाहते हो, इन सबका कोई औचित्य नहीं है। ये वे चीजें नहीं हैं जो परमेश्वर तुम्हें देना चाहता है। यहाँ और कौन-सी समस्या है? अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना तब होता है जब लोग तिरस्कार सहकर अपनी वास्तविक क्षमताओं को छिपाते हैं, फिर अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए तिरस्कार सहते हैं। ये लक्ष्य क्या हैं? ये लोगों के दिलों में बसी आकांक्षाएँ और यहाँ तक कि गहरी इच्छाएँ भी हैं। तो फिर जब विश्वासी कष्ट सहते हैं, तो क्या यह किसी इच्छा को पूरा करने के लिए होता है? (नहीं।) तो फिर यह किसलिए है? जब विश्वासी कष्ट सहते हैं, तो क्या वे जिस लक्ष्य का अनुसरण करना और जिसे हासिल करना चाहते हैं, वह सकारात्मक होता है या नकारात्मक होता है? (सकारात्मक होता है।) क्या यह इच्छा से जुड़ा हुआ है? (नहीं।) तो फिर यह सकारात्मक लक्ष्य क्या है? (अपना भ्रष्ट स्वभाव त्याग देना, एक सच्चा व्यक्ति बनना, और बेहतर तरीके से जी पाना।) अपना भ्रष्ट स्वभाव त्याग देना, एक सच्चा व्यक्ति बनना, और बेहतर तरीके से जी पाना। और क्या? ऐसा व्यक्ति बनना जिसे बचाया जाता है, और फिर से परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह नहीं करना। क्या तुम लोग अय्यूब और पतरस जैसे व्यक्ति बनना चाहते हो? (हाँ।) तो क्या यह कोई लक्ष्य नहीं है? (हाँ, है।) क्या यह लक्ष्य इच्छा से जुड़ा हुआ है? (नहीं।) यह लक्ष्य एक उचित अनुसरण है, और यह वही लक्ष्य और मार्ग है जो परमेश्वर ने लोगों को दिया है। यह उचित है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि अनुसरण के इस उचित लक्ष्य के कारण तुम जो कष्ट सहते हो, वह अपमान सहना नहीं है। बल्कि, यह वही है जिसका लोगों को अनुसरण करना चाहिए, और यह वही मार्ग है जिसे लोगों को अपनाना चाहिए। वे लोग जो अपने दिलों की गहराई में यह सोचते हैं कि वे तिरस्कार सहने वाले व्यक्ति हैं, क्या इस मार्ग पर आ सकते हैं? वे नहीं आ सकते हैं और ना ही वे यह लक्ष्य हासिल कर सकते हैं।
अब इसे देखते हुए, क्या वाक्यांश “अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना” सत्य है? (नहीं है।) यह सत्य नहीं है और यह इस बात की कोई कसौटी नहीं है कि लोगों को कैसे कार्य करना चाहिए, कैसे आचरण करना चाहिए या परमेश्वर की आराधना कैसे करनी चाहिए। क्या परमेश्वर द्वारा बचाए जाने के लिए लोगों को अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने की जरूरत है? (नहीं।) क्या यह कहना सही है या गलत है कि किसी व्यक्ति ने अपमान सहकर और भारी दायित्व उठाकर उद्धार प्राप्त किया? (गलत है।) यह कैसे गलत है? अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना सत्य का अभ्यास करना नहीं है, तो वे उद्धार कैसे प्राप्त कर सकते हैं? यह ऐसा कहने जैसा है कि एक व्यक्ति ने लोगों को मार डाला, चीजों को आग लगा दी और बहुत सारी बुरी चीजें की, और अंत में, “लोगों का प्यारा अगुआ” बन गया। क्या यह ऐसा कहने जैसा ही नहीं है? (हाँ, है।) इसका यही अर्थ है। वे जाहिर तौर पर दुष्टता के मार्ग पर हैं, लेकिन फिर भी सकारात्मक व्यक्ति बन गए। यह एक विरोधाभास है। अगर कोई यह कहे कि किसी व्यक्ति ने अपमान सहा और भारी दायित्व उठाया, और अंत में, उसने परमेश्वर के साथ अनुरूपता प्राप्त की, या किसी व्यक्ति ने अपमान सहा और भारी दायित्व उठाया, और अंत में, वह परीक्षणों के दौरान अटल रहा, या किसी व्यक्ति ने अपमान सहा और भारी दायित्व उठाया और अंत में, उसने परमेश्वर का आदेश पूरा किया—इनमें से कौन-सा कथन सही है? (इनमें से कोई भी नहीं।) इनमें से कोई भी सही नहीं है। क्या यह कहना सही है कि किसी ने पूरे गाँव में सुसमाचार फैलाते समय अपमान सहा और भारी दायित्व उठाया? (नहीं।) मैं देख रहा हूँ कि कुछ लोग दुविधा में हैं और सोच रहे हैं, “क्या यह सही है? मुझे लगता है कि यह कथन सही है, है ना? ऐसा कई बार होता है जब लोगों को सुसमाचार का प्रचार करने और परमेश्वर की गवाही देने के दौरान अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना पड़ता है।” इस संदर्भ में इस वाक्यांश का उपयोग सही है, है ना? (नहीं, यह सही नहीं है।) क्यों नहीं है? मुझे बताओ। (क्योंकि अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने से जो परिणाम प्राप्त होता है वह सकारात्मक नहीं है।) क्या यह सही अनुप्रयोग है? विश्लेषण करो कि यह वाक्यांश गलत कैसे है। इसका गहन-विश्लेषण करो। “सुसमाचार का प्रचार करते समय, अपमान सहकर और भारी दायित्व उठाकर, उन्होंने बहुत से लोगों का धर्म परिवर्तन किया, बहुत सफलता प्राप्त की, और परमेश्वर के नाम का गुणगान किया।” क्या तुम्हें नहीं पता कि यह कथन सही है या नहीं? अगर हम इसे उस हर कथन के अनुरूप लागू करते हैं जिस पर आज हमने संगति की है, तो इस स्थिति में इस वाक्यांश का उपयोग करना गलत होगा, लेकिन अगर हम इस बारे में एक कदम आगे सोचें कि सुसमाचार का प्रचार करते समय कैसे कुछ लोगों को संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता चोट पहुँचाते हैं या उन पर चिल्लाते हैं और उन्हें अपने दरवाजे से लौटा देते हैं, तो क्या इसे अपमान सहना माना जाएगा? (नहीं।) तो फिर यह क्या है? (वह कष्ट जिसे सुसमाचार का प्रचार करते समय विश्वासियों को सहना चाहिए।) सही कहा। यह वह कष्ट है जिसे लोगों को सहना चाहिए। यह उनकी जिम्मेदारी है, उनका दायित्व है और परमेश्वर द्वारा लोगों को दिया गया आदेश है। यह वैसा ही है जैसे प्रसव दर्दनाक होता है—क्या यह वह कष्ट नहीं है जिसे सहन करना चाहिए? (हाँ, है।) अगर कोई महिला अपने बच्चे से यह कहे, “तुम्हें दुनिया में लाने के लिए मैंने अपमान सहा और भारी दायित्व उठाया,” तो क्या यह कहना सही होगा? (नहीं।) उसने कष्ट सहा, तो यह कहना गलत क्यों है? क्योंकि उसे यह कष्ट सहना चाहिए। मिसाल के तौर पर, अगर कोई भेड़िया एक खरगोश पकड़ने से पहले कई घंटों तक शिकार के लिए भटकता रहे, और फिर कहे, “एक खरगोश खाने के लिए मैंने अपमान सहा और भारी दायित्व उठाया,” तो क्या यह सही होगा? (नहीं।) एक खरगोश खाने के लिए, भेड़िये को बदले में किसी चीज का बलिदान देना होगा। खरगोश सिर्फ वहाँ बैठकर यह इंतजार नहीं करने वाला कि भेड़िया आए और उसे खा जाए। कौन-सा कार्य इतना आसान होता है? कार्य चाहे कोई भी हो, व्यक्ति को कुछ बलिदान तो देना ही पड़ता है। यह अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना नहीं है। अभी, हमने “अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना” वाक्यांश को पूरी तरह से किस रूप में श्रेणीबद्ध किया है? (नकारात्मक रूप में।) हमने इसे एक नकारात्मक और अपमानजनक वाक्यांश के रूप में श्रेणीबद्ध किया है, और शैतान के तर्क और शैतान के सांसारिक आचरण के फलसफे के रूप में श्रेणीबद्ध किया है। इसका परमेश्वर या सकारात्मक चीजों में आस्था से कोई लेना-देना नहीं है। अगर कोई कहता है, “मैंने कई वर्षों से सुसमाचार का प्रचार किया है। मैंने वाकई अपमान सहा है और भारी दायित्व उठाया है!” तो यह उचित नहीं है। सुसमाचार का प्रचार करना तुम लोगों की जिम्मेदारी है, और यह वह कष्ट है जिसे तुम लोगों से सहने की अपेक्षा की जाती है। चाहे तुम सुसमाचार का प्रचार न भी करो, तो भी क्या सिर्फ जीवित रहकर तुम कष्ट नहीं सहोगे? यह वह कष्ट है जिसे लोगों से सहने की अपेक्षा की जाती है; यह उचित है। वाक्यांश “अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना” को मूल रूप से परमेश्वर के घर से मिटा दिया गया है। अगर कोई फिर से इस वाक्यांश का जिक्र करता है, तो तुम इसकी व्याख्या कैसे करोगे? अगर कोई कहता है, “मैंने यहूदा नहीं बनने के लिए अपमान सहा और जेल में भारी दायित्व उठाया!” तो क्या यह कथन सही है? (नहीं।) क्यों नहीं? “यहूदा नहीं बनने के लिए” एक बहुत ही उचित लक्ष्य है और कहने लायक उचित बात है, तो यह अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना कैसे नहीं हो सकता है? (एक विश्वासी को यहूदा नहीं बनना चाहिए।) यह सही बात है। एक विश्वासी के लिए यहूदा बनना कैसे उचित है? क्या यह कहना बेहूदा नहीं है कि यहूदा ना बनने का अर्थ अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना है? परमेश्वर की गवाही देना तुम्हारा मिशन है। यही वह गवाही है जिसमें सृजित प्राणियों को अटल रहना चाहिए, और वह रवैया है जिस पर उन्हें अटल रहना चाहिए। शैतान मनुष्य की तारीफ के योग्य नहीं है। सिर्फ परमेश्वर ही वह है जिसकी लोगों को आराधना करनी चाहिए, और परमेश्वर की आराधना करना पूरी तरह स्वाभाविक और न्यायोचित है। जब शैतान तुम्हें अपनी इच्छा के अनुसार झुकाने का प्रयास करता है, तो तुम्हें परमेश्वर के लिए अपनी गवाही में अटल रहना चाहिए, अपना जीवन त्याग देना चाहिए, और यहूदा नहीं बनना चाहिए। यह अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने के समान नहीं है। मैंने यह वाक्यांश अब स्पष्ट रूप से समझा दिया है। अगर कोई फिर से कहता है कि उन्होंने कैसे अपमान सहा है और भारी दायित्व उठाया है, तो तुम्हें यह मामला कैसे सँभालना चाहिए? वे तब समझेंगे जब तुम उन्हें वह धर्मोपदेश सुनने दोगे जिसका मैंने आज प्रचार किया है। यही सबसे आसान तरीका है।
ग. लड़ने के लिए कभी हार न मानने का संकल्प
अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोने और पित्त चाटने की तीसरी अभिव्यक्ति है, लड़ने के लिए कभी हार न मानने का संकल्प। कभी हार न मानने वाला स्वभाव कैसा होता है? यह अहंकारी स्वभाव होता है। यह कैसे हो सकता है कि लोग कभी असफल हों ही ना? यह कैसे हो सकता है कि लोग कभी कुछ गलत करें ही ना, कभी कुछ गलत कहें ही ना, या कभी कोई गलती ही ना करें? तुम्हें स्वीकार करना चाहिए कि “मैं एक आम व्यक्ति हूँ, और मैं एक सामान्य व्यक्ति हूँ। मुझमें दोष और कमियाँ हैं। ऐसे समय आते हैं जब मैं गलत काम करता हूँ और ऐसे समय आते हैं जब मैं गलत बात कहता हूँ। मैं गलत चीज करने और गलत मार्ग का अनुसरण करने के काबिल हूँ। मैं एक आम व्यक्ति हूँ।” तो कभी हार न मानने का क्या अर्थ है? यह तब होता है जब कोई व्यक्ति असफल होता है, बाधाओं का सामना करता है, या भटककर गलत मार्ग पर आ जाता है, लेकिन इसे स्वीकार नहीं करता है। वह बस जिद पकड़कर चलता रहता है। वह असफल तो होता है, लेकिन हिम्मत नहीं हारता है, वह असफल तो होता है, लेकिन अपनी गलतियाँ स्वीकार नहीं करता है। चाहे कितने भी लोग उसे डाँटें या उसकी निंदा करें, वह वापस नहीं आता है। वह लड़ने, कार्य करने और अपनी दिशा में और अपने खुद के लक्ष्यों की तरफ बढ़ते रहने पर अड़ा रहता है, और कीमत के बारे में बिल्कुल नहीं सोचता है। यह वाक्यांश इसी किस्म की मानसिकता के बारे में बात करता है। क्या यह मानसिकता लोगों का मनोबल बढ़ाने के लिए बहुत अच्छी नहीं है? आम तौर पर, किन स्थितियों में “कभी हार मत मानो” का उपयोग किया जाता है? हर किस्म की स्थिति में। जहाँ भी भ्रष्ट मनुष्य मौजूद हैं, वहीं पर यह वाक्यांश मौजूद है; यह मानसिकता मौजूद है। तो मनुष्यों ने, जो शैतान के हैं, यह कहावत किसलिए गढ़ी? ताकि लोग खुद को कभी नहीं समझें, अपनी गलतियाँ नहीं पहचानें, और अपनी गलतियाँ स्वीकार नहीं करें। ताकि लोग सिर्फ अपने उस पक्ष को ही नहीं देखें जो भंगुर, कमजोर और अयोग्य है, बल्कि अपने उस पक्ष को भी देखें जो काबिल है, और जो ताकतवर और दिलेर है, वे खुद को कम नहीं समझें, बल्कि सोचें कि वे योग्य हैं। जब तक तुम यह मानते हो कि तुम समर्थ हो, तब तक तुम समर्थ हो; जब तक तुम मानते हो कि तुम सफल हो सकते हो, तुम असफल नहीं होगे, और जब तक तुम यह मानते हो कि तुम सर्वश्रेष्ठ बन सकते हो, तब तक बिल्कुल ऐसा ही होगा। जब तक तुममें वह दृढ़ निश्चय और संकल्प है, वह इच्छा और निरंकुश महत्वाकांक्षा है, तब तक तुम यह सब हासिल कर सकते हो। लोग मामूली नहीं हैं; वे ताकतवर हैं। अविश्वासियों में एक कहावत है : “तुम्हारा मंच उतना ही बड़ा है जितना तुम्हारा दिल।” कुछ लोगों को यह कहावत सुनते ही पसंद आ जाती है : “वाह, मुझे एक दस कैरेट का हीरा चाहिए, तो क्या इसका अर्थ है कि मुझे यह मिल जाएगा? मुझे एक मर्सिडीज बेंज चाहिए, तो क्या इसका अर्थ है कि मुझे यह मिल जाएगी?” क्या तुम्हें जो मिलेगा वह तुम्हारे दिल की इच्छा के विस्तार से मेल खाएगा? (नहीं।) यह कहावत एक भ्रांति है। सीधे शब्दों में कहें तो, “कभी हार मत मानो” वाक्यांश पर विश्वास करने वाले और उसे स्वीकार करने वाले लोगों के अहंकार की कोई सीमा नहीं होती है। इन लोगों के सोचने का तरीका परमेश्वर के किन वचनों का सीधा खंडन करता है? परमेश्वर लोगों से यह अपेक्षा करता है कि वे खुद को समझें और व्यावहारिक तरीके से आचरण करें। लोगों के स्वभाव भ्रष्ट होते हैं; उनमें कमियाँ होती हैं और उनमें परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाले स्वभाव होते हैं। मनुष्यों के बीच एक भी पूर्ण व्यक्ति नहीं है; कोई भी पूर्ण नहीं है; वे बस आम लोग हैं। परमेश्वर ने लोगों को कैसा आचरण करने की सलाह दी? (शिष्ट तरीके से।) शिष्ट तरीके से आचरण करना, और व्यावहारिक तरीके से सृजित प्राणियों के रूप में अपने स्थान पर दृढ़ता से बने रहना। क्या कभी परमेश्वर ने लोगों से कभी हार नहीं मानने की अपेक्षा की है? (नहीं।) नहीं। तो परमेश्वर लोगों के गलत मार्ग पर चलने, या भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करने के बारे में क्या कहता है? (वह इसे मान लेने और स्वीकार करने के लिए कहता है।) इसे मान लो और स्वीकार करो, फिर इसे समझो, खुद को बदलने में और सत्य का अभ्यास करने में समर्थ बनो। इसके विपरीत, कभी हार नहीं मानना तब होता है जब लोग अपनी समस्याएँ नहीं समझते हैं, अपनी गलतियाँ नहीं समझते हैं, अपनी गलतियाँ स्वीकार नहीं करते हैं, किसी भी मामले में खुद को नहीं बदलते हैं, और किसी भी मामले में पश्चात्ताप नहीं करते हैं, परमेश्वर की संप्रभुता या व्यवस्थाएँ स्वीकार करने की तो बात ही छोड़ दो। वे ना सिर्फ इसकी तलाश ही नहीं करते हैं कि लोगों का भाग्य वास्तव में क्या है, या परमेश्वर के आयोजन और व्यवस्थाएँ क्या हैं—वे ना सिर्फ इन चीजों की तलाश ही नहीं करते हैं, बल्कि वे अपना भाग्य अपने हाथ में ले लेते हैं; वे चाहते हैं कि अंतिम फैसला उन्हीं का हो। इसके अलावा, परमेश्वर लोगों से अपेक्षा करता है कि वे खुद को समझें, सटीकता से अपना मूल्यांकन करें और खुद को दर्जा दें, और व्यावहारिक और शिष्ट तरीके से वे जो कुछ भी कर सकते हैं, उसे करें, और उसे अपने पूरे दिल, दिमाग और आत्मा से करें, जबकि शैतान लोगों को उनके अहंकारी स्वभाव का पूरा उपयोग करने देता है, और उनके अहंकारी स्वभाव को खुली छूट देता है। यह लोगों को अतिमानवीय, महान बनाता है और यहाँ तक कि उन्हें महाशक्तियाँ भी प्रदान करता है—यह लोगों को ऐसी चीजें बना देता है जो वे नहीं हो सकते हैं। इसलिए, शैतान का फलसफा क्या है? यह ऐसा है कि भले ही तुम गलत हो, फिर भी तुम गलत नहीं हो, और जब तक तुममें हार न मानने की मानसिकता है, और जब तक तुममें कभी हार न मानने वाली मानसिकता है, तब तक देर-सवेर एक दिन ऐसा आएगा जब तुम सर्वश्रेष्ठ बन जाओगे, और देर-सवेर एक दिन ऐसा आएगा जब तुम्हारी इच्छाएँ और लक्ष्य साकार हो जाएँगे। तो क्या ऐसा कोई अर्थ है जिसमें कभी हार न मानने का मतलब यह हो कि तुम कोई चीज को पूरा करने के लिए किसी भी साधन का उपयोग करोगे? अपने लक्ष्य हासिल करने के लिए तुम्हें अवश्य ही यह नहीं मानना चाहिए कि तुम असफल हो सकते हो, तुम्हें अवश्य ही यह नहीं मानना चाहिए कि तुम एक आम व्यक्ति हो और तुम्हें अवश्य ही यह नहीं मानना चाहिए कि तुम गलत मार्ग का अनुसरण करने में सक्षम हो। इसके अलावा, तुम्हें अपनी इच्छाओं और निरंकुश महत्वाकांक्षाओं को साकार करने के लिए बेईमानी से हर तरह के तरीके या गुप्त योजना का उपयोग अवश्य ही करना चाहिए। क्या कभी हार नहीं मानने के बारे में ऐसा कुछ है जिसमें लोग अपने भाग्य को प्रतीक्षा और समर्पण के रवैये से देखते हैं? (नहीं।) नहीं। लोग अपना भाग्य पूरी तरह से अपने हाथ में लेने पर अड़े रहते हैं; वे अपने भाग्य पर खुद नियंत्रण करना चाहते हैं। चाहे यह इस बारे में हो कि वे किस मार्ग पर जाएँगे, उन्हें आशीष मिलेगा या नहीं या उनकी जीवनशैली कैसी होगी, हर चीज में अंतिम फैसला अवश्य ही उन्हीं का होना चाहिए। अविश्वासियों में एक कहावत है : “अवसर उन लोगों पर मेहरबान होते हैं जो तैयार रहते हैं।” यह किस किस्म की कहावत है? ऐसे बहुत से लोग हैं जो तैयारी करने में वर्षों बिता देते हैं, जो अपना पूरा जीवन तैयारी करने में बिता देते हैं, लेकिन वे कभी कोई अवसर मिले बिना ही मर जाते हैं। अवसर कैसे आता है? (परमेश्वर से।) अगर परमेश्वर तुम्हारे लिए अवसर तैयार नहीं करता है, तो क्या तुम्हारी तरफ से किसी भी मात्रा में की गई तैयारी का कोई फायदा है? (नहीं।) अगर परमेश्वर तुम्हें अवसर देने की योजना नहीं बनाता है और यह भाग्य में नहीं है, तो तुम चाहे कितने भी वर्ष तैयारी करने में क्यों ना बिता दो, इसका क्या फायदा है? क्या परमेश्वर तुम पर तरस खाएगा और तुम्हें एक अवसर देगा क्योंकि तुमने इतने वर्ष तैयारी में बिताए? क्या परमेश्वर ऐसा करेगा? (नहीं।) अगर परमेश्वर ने तुम्हारे लिए कोई अवसर तैयार किया है, तो वह अवसर आएगा, और अगर परमेश्वर ने तुम्हारे लिए उसे तैयार नहीं किया है, तो तुम्हें अवसर नहीं मिलेगा। क्या कभी हार न मानने का कोई फायदा है? (नहीं।) कुछ लोग कहते हैं, “मैं कभी हार नहीं मानता। अपने भाग्य का नियंत्रण मैं अपने हाथ में रखता हूँ!” उनके शब्द प्रचण्ड होते हैं, लेकिन वे इसे हासिल कर पाएँगे या नहीं, यह उन पर निर्भर नहीं करता है। मिसाल के तौर पर, एक महिला को एक बेटा चाहिए। वह कई बच्चों को जन्म देती है, लेकिन वे सभी लड़कियाँ निकलती हैं। दूसरे लोग उससे और बच्चे नहीं पैदा करने के लिए बोलते हैं, और कहते हैं कि उसके भाग्य में बेटा नहीं है, लेकिन वह दबाव में नहीं आती है, और कहती है, “मैं यह बात नहीं मानती। मैं कभी हार नहीं मानूँगी!” जब उसका दसवाँ बच्चा भी लड़की होती है, तो अंत में वह हार मान लेती है : “ऐसा लगता है कि मेरे भाग्य में बेटा नहीं है।” क्या अब भी वह कभी हार न मानने वालों में से है? क्या अब भी उसमें आत्मविश्वास है? क्या अब भी उसमें और बच्चों को जन्म देने की हिम्मत है? नहीं, उसमें हिम्मत नहीं है। एक दूसरा व्यक्ति जब कारोबार करता है, तो वह दो वर्ष में पाँच लाख डॉलर कमाने की योजना बनाता है। शुरू में, पहले छह महीनों में जब वह बिल्कुल कुछ नहीं कमाता है, तो वह कहता है, “कोई बात नहीं। शुरू के छह महीनों में पैसे नहीं कमाने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। मैं यकीनन बाकी के छह महीनों में पैसा कमा लूँगा।” एक वर्ष से ऊपर बीत जाने के बाद भी जब वह कुछ नहीं कमा पाता है, तो भी वह हार नहीं मानता है : “मैं कभी हार नहीं मानता। मैं मानता हूँ कि सब कुछ मनुष्य के हाथ में है—मेरे पास ढेरों अवसर हैं!” जब दो वर्ष बीत जाते हैं, तो उसने पचास हजार तक नहीं कमाए होते हैं, पाँच लाख कमाने की तो बात ही छोड़ दो। उसे लगता है कि उसके पास पर्याप्त समय नहीं था और उसके पास पर्याप्त अनुभव नहीं था, इसलिए वह और दो वर्ष पढ़ाई करता है। चार वर्ष बीत जाने के बाद, उसने ना सिर्फ पाँच लाख डॉलर नहीं कमाए होते हैं, बल्कि वह अपना लगभग सारा मूलधन भी गँवा चुका होता है, लेकिन फिर भी वह कभी हार न मानने में विश्वास रखता है : “मेरे भाग्य में पैसा कमाना लिखा है। तो फिर मैं पाँच लाख डॉलर क्यों नहीं कमा पा रहा हूँ?” जब लगभग दस वर्ष बीत जाते हैं, तो क्या तब भी उसका लक्ष्य पाँच लाख डॉलर कमाना होगा? अगर तुम लोग उससे फिर से पूछते हो कि इस वर्ष उसकी योजना कितने पैसे कमाने की है, तो वह कहता है, “ओह, अगर मैं इससे अपना गुजारा भर कर पाऊँ, तो यह काफी होगा।” क्या वह अब भी कभी हार न मानने में विश्वास रखता है? वह विफल हो गया है, है ना? वह कैसे विफल हुआ है? क्या वह इसलिए विफल हुआ है क्योंकि उसकी कमाई का लक्ष्य बहुत ज्यादा ऊँचा था? क्या ऐसी बात है? नहीं। चाहे यह लोगों की संपत्ति के बारे में हो या उनके बच्चों के बारे में हो, या उन कष्टों के बारे में हो जिन्हें वे अपने जीवन में सहते हैं, या यह इस बारे में हो कि वे कब और कहाँ जाते हैं, वे इनमें से कुछ भी तय नहीं कर सकते हैं। कुछ लोग लोक प्रशासन में जाना चाहते हैं, लेकिन उन्हें कभी यह अवसर नहीं मिलता है—क्या इसके लिए योग्यता की कमी को दोष दिया जा सकता है? वे काबिल हैं, सोच-समझकर चालें चलते हैं, और लोगों की खुशामद करने का तरीका जानते हैं, तो उनके लिए लोक अधिकारी बनना इतना मुश्किल क्यों है? ऐसे बहुत से लोग हैं जो उनके समान योग्य नहीं हैं, फिर भी वे अधिकारी बन गए हैं, और ऐसे बहुत से ऐसे लोग हैं जिन्हें वे नीची नजर से देखते हैं, वे अधिकारी बन गए हैं। ये लोग बातचीत में अच्छे हैं, उनमें सच्ची प्रतिभा है, और उन्होंने ठोस शैक्षिक योग्यताएँ हासिल की हुई हैं, इसलिए अगर वे लोक अधिकारी बनना चाहते हैं, तो यह इतना मुश्किल क्यों है? उन्होंने अपनी युवावस्था में कभी हार नहीं मानी, लेकिन जब वे बूढ़े हो गए और तब भी सिर्फ औसत दर्जे के मुंशी थे, तो अंत में उन्होंने हार मान ही ली, और कहा, “मनुष्य का भाग्य स्वर्ग द्वारा तय होता है। अगर भाग्य में यह लिखा है, तो यह मिलेगा। अगर यह नहीं लिखा है, तो उसे भरसक प्रयास करके भी प्राप्त नहीं किया जा सकता है।” उन्होंने अपने भाग्य को स्वीकार कर लिया है, है ना? उनकी कभी हार न मानने वाली मानसिकता का क्या हुआ? सच्चाइयों से सामना होने पर लोग अपमानित होते हैं।
कभी हार न मानने वाली मानसिकता से लोगों को क्या मिलता है? यह उनकी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को प्रोत्साहित करती है। इससे लोगों को सकारात्मक प्रभाव या मार्गदर्शन नहीं मिलता है; बल्कि, यह उन पर एक तरह का नकारात्मक, प्रतिकूल प्रभाव डालती है। लोग खुद ब्रह्मांड में अपने स्थान के बारे में कुछ नहीं जानते हैं, स्वर्ग ने उनके लिए जो भाग्य तय किया है उसके बारे में कुछ नहीं जानते हैं, और परमेश्वर की संप्रभुता या व्यवस्थाओं के बारे में कुछ नहीं जानते हैं। ऊपर से, उन्होंने यह तथाकथित दिमागी बैसाखी हासिल कर ली है। जब लोग ऐसी स्थिति में होते हैं जहाँ वे सिर्फ गुमराह हो सकते हैं, तो अंत में क्या होता है? वे बिना किसी फायदे के बहुत सारा कार्य करते हैं, और बहुत सारा निरर्थक कार्य करते हैं। अपने लक्ष्य हासिल करने के लिए एक बात यह है कि लोगों के शरीर और मन कोई कम नुकसान और आघात सहन नहीं करते हैं, और उन्होंने अपनी इच्छाएँ, निरंकुश महत्वाकांक्षाएँ और लक्ष्य हासिल करने के लिए यकीनन बहुत सारे बुरे कर्म किए हैं। ये बुरे कर्म लोगों को उनके अगले जीवन में क्या परिणाम दिलाएँगे? वे उन्हें सिर्फ दंड दिलाएँगे। भ्रष्ट स्वभाव लोगों के लिए इच्छा और निरंकुश महत्वाकांक्षा लेकर आता है। लोगों की इच्छाएँ और निरंकुश महत्वाकांक्षाएँ उनसे जो चीजें करवाती हैं, क्या उनमें से कोई भी चीज जायज है? क्या इनमें से कोई भी चीज सत्य के अनुरूप है? (नहीं।) ये चीजें क्या हैं? ये सिर्फ बुरे कार्य हैं। इन बुरे कार्यों में क्या शामिल है? दूसरों के प्रति सोची-समझी चालें चलना, दूसरों को धोखा देना, दूसरों को नुकसान पहुँचाना और दूसरों को झाँसा देना। लोग दूसरों के बहुत ज्यादा कर्जदार हो जाते हैं, और अपने अगले जीवन में एक जानवर के रूप में पुनर्जन्म ले सकते हैं। जिसके वे सबसे ज्यादा कर्जदार होते हैं, जिसे वे सबसे ज्यादा झाँसा देते हैं, और जिसे वे सबसे ज्यादा धोखा देते हैं, उसी के घर में वे एक जानवर के रूप में रहेंगे, बोलने में असमर्थ होंगे और लोग उन पर हुक्म चलाएँगे। भले ही उनका पुनर्जन्म एक व्यक्ति के रूप में हो, लेकिन वे अंतहीन कष्ट भरा जीवन जीएँगे; उन्हें अपने कर्मों की कीमत चुकानी पड़ेगी। इसका यही प्रतिकूल परिणाम होगा। अगर वे “कभी हार न मानने” वाली कहावत से संचालित नहीं होते, तो उनमें महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पैदा नहीं होतीं, और अगर दो-तीन वर्षों में उनकी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी नहीं होतीं, तो लोग संभवतः उन्हें छोड़ देते, लेकिन जैसे ही शैतान आग को हवा देता है, उनकी इच्छाएँ लगातार बढ़ती जाती हैं। इच्छाओं का बढ़ना अपने आप में समस्या नहीं है, लेकिन यह उन्हें दुष्ट मार्ग पर ले जाता है। जब कोई व्यक्ति दुष्ट मार्ग पर चल रहा होता है, तो क्या वह अच्छी चीजें कर सकता है? क्या वह मानवीय चीजें कर सकता है? नहीं, वह नहीं कर सकता है। वह अपने उद्देश्यों और लक्ष्यों को हासिल करने के लिए किसी भी साधन का उपयोग करेगा, वह कसम खाएगा कि जब तक उसके लक्ष्य पूरे नहीं हो जाते हैं, तब तक वह आराम नहीं करेगा, और वह किसी भी किस्म की बुरी चीज करने में सक्षम होता है। जरा देखो, क्या ऐसे मामले हुए हैं जहाँ बच्चे अपने माता-पिता की जायदाद हासिल करने के लिए उनकी हत्या कर देते हैं? (हाँ, हुए हैं।) ऐसी बहुत सी घटनाएँ हुई हैं जहाँ लोग अपने स्वार्थ की खातिर अपने दोस्तों और प्रियजनों को अपने हाथों से मार डालते हैं। जब दो लोगों को एक ही फायदेमंद अवसर मिलता है और उन्हें इसके लिए एक-दूसरे से लड़ना पड़ता है, तो वे इसे हासिल करने के लिए किसी भी साधन का उपयोग करते हैं। सबसे महत्वपूर्ण क्षण में उनकी क्या मान्यताएँ होती हैं? “मैं कभी हार नहीं मानता। मैं इस बार बिल्कुल भी असफल नहीं हो सकता। अगर मैं यह अवसर चूक गया, तो हो सकता है कि मुझे अपने बाकी जीवन में फिर कभी ऐसा अच्छा अवसर ना मिले। इसलिए, इस बार मुझे जीतना ही होगा। मुझे यह अवसर जरूर मिलना चाहिए। चाहे कोई भी मेरा मार्ग रोके, मैं बिना किसी अपवाद के उन्हें मार डालूँगा!” अंत में क्या होता है? वे सामने वाले को मार डालते हैं। हो सकता है कि उन्होंने अपना लक्ष्य हासिल कर लिया हो और इच्छा पूरी कर ली हो, लेकिन उन्होंने बुरा कर्म भी किया है, और इससे मुसीबत खड़ी हो गई है। जीवनभर उनका दिल बेचैन रह सकता है, वह दोषी महसूस कर सकता है, या वह पूरी तरह से बेखबर रह सकता है। लेकिन, इस तथ्य का कि उन्हें इसका बिल्कुल भी एहसास नहीं है, यह अर्थ नहीं है कि परमेश्वर ने इस मामले को परिभाषित नहीं किया है। परमेश्वर के पास इसे सँभालने का एक तरीका है। हो सकता है कि इस व्यक्ति ने इस जीवन में अपना लक्ष्य हासिल कर लिया हो, हो सकता है कि उसने इसमें सफलता पा ली हो, लेकिन अगले जीवन में उसे इस जीवन में किए अपने उस कर्म की एक बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी, जो शायद एक बुरा कर्म था। उसे इसकी कीमत एक जीवन में, या दो जीवन में, या तीन जीवन में, या यहाँ तक कि अनंतकाल तक चुकानी पड़ सकती है। यह कीमत बहुत ही ज्यादा भयानक है! तो यह परिणाम कैसे उत्पन्न हुआ? यह एक ही वाक्यांश, एक ही मान्यता से आया। यह व्यक्ति उस अवसर को हासिल करना चाहता है। वह हार नहीं मानता है, वह प्रयास करना नहीं छोड़ता है, और वह खुद को विफल नहीं होने देता है। वह इस अवसर को मजबूती से दबोचना चाहता है। परिणामस्वरूप, मुसीबत खड़ी हो जाती है। मुसीबत खड़ी हो जाने के बाद, परिणामों की कीमत चुकाने और उनकी भरपाई करने के लिए एक या दो वर्ष पर्याप्त नहीं होंगे। क्या यह कीमत बहुत बड़ी नहीं है? लोगों का जीवन अस्सी से नब्बे वर्ष लंबा होता है, और छोटे जीवन पचास से साठ वर्ष के होते हैं। चाहे तुम ने व्यक्तिगत फायदे, रुतबा, धन-दौलत या दूसरी भौतिक चीजें हासिल की हों या नहीं, तुम सचेतन अवस्था में बीस या तीस वर्षों तक इन चीजों का आनंद लोगे। लेकिन, इन बीस या तीस वर्षों के आनंद के लिए, तुम्हें अपने हर जीवन में, बाकी के अनंत काल तक एक कीमत चुकानी पड़ सकती है। क्या यह कीमत बहुत बड़ी नहीं है? (हाँ, है।) जो लोग परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते हैं, वे सत्य नहीं समझते हैं, और ना ही वे जानते हैं कि परमेश्वर इन सभी चीजों पर संप्रभु है। इसलिए वे कुछ धारणाओं या शैतानी तर्क के प्रभाव में अपनी स्वार्थी इच्छा, अपने हित के लिए क्षणिक चकाचौंध भरी इच्छा की खातिर बेवकूफी भरे कार्य करने में समर्थ हैं, जो उन्हें अनंत पछतावा देकर जाते हैं। “अनंत” का अर्थ इस जीवन में बीस या तीस वर्ष नहीं हैं, बल्कि यह है कि उन्हें इस जीवन समेत अपने हर जीवन में कष्ट सहना पड़ेगा। जो लोग परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते हैं, वे ये चीजें नहीं समझेंगे, और अगर परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोग सत्य नहीं समझते हैं या परमेश्वर को नहीं जानते हैं, तो वे भी ये चीजें नहीं समझेंगे। कुछ लोग ऐसी चीजें नहीं करते हैं, जो स्पष्ट रूप से बुरी हैं। जब तुम उन्हें बाहर से देखते हो, तो वे ऐसे नहीं होते हैं जो लोगों की हत्या करते हों या आग लगाते हों, और दूसरों के लिए खुलेआम जाल बिछाते हों, लेकिन उनके पास कई गुप्त युक्तियाँ होती हैं। परमेश्वर की नजर में, इस बुराई का और स्पष्ट बुराई का चरित्र एक जैसा है। उनका चरित्र एक जैसा है से मेरा क्या मतलब है? मेरा मतलब यह है कि परमेश्वर के नजरिये से, वह ऐसी चीजों की निंदा करने के लिए जिन सिद्धांतों का उपयोग करता है वे एक ही हैं। वह उनकी निंदा करने के लिए एक ही तरीके और सत्य की एक ही मद का उपयोग करता है। उन लोगों ने जो भी चीजें की हैं, उनकी परमेश्वर द्वारा निंदा की जाती है, चाहे उन्हें करने के पीछे उनकी प्रेरणा कुछ भी रही हो, और चाहे उन्होंने उन्हें परमेश्वर के घर में किया हो या बाहर की दुनिया में किया हो। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो, लेकिन फिर भी ये चीजें करते हो, तो क्या अंत में परमेश्वर तुम्हें जो परिणाम देगा, वह अविश्वासियों के परिणाम से कुछ अलग होगा? मुझे बताओ, इस सच्चाई के कारण कि तुमने कई वर्षों तक उसमें विश्वास रखा और कुछ वर्षों तक कलीसिया के लिए सेवा प्रदान की, क्या परमेश्वर तुम्हारे साथ नरमी बरतेगा और अपना धार्मिक स्वभाव बदल लेगा? क्या तुम लोगों को लगता है कि यह संभव है? यह बिल्कुल संभव नहीं है। जब मैं यह कहता हूँ तो मेरा क्या अर्थ है? अगर तुम सत्य नहीं समझते हो तो तुम जो कुकर्म करते हो, वह बुराई है, और जब तुम सत्य समझते हो तो तुम जो कुकर्म करते हो, वह भी बुराई है। परमेश्वर के नजरिये से, यह सब बुराई है। बुराई के ये दोनों प्रकार एक दूसरे के समतुल्य हैं। दोनों में कोई फर्क नहीं है। जब तक कोई चीज सत्य के अनुरूप नहीं है, तब तक वह बुराई है। परमेश्वर के नजरिये से, दोनों के चरित्र में कोई फर्क नहीं है। चूँकि ये दोनों ही बुराई हैं, इसलिए लोगों को दोनों मामलों में किए गए बुरे कर्म का भुगतान करना पड़ेगा—उन्हें कीमत चुकानी पड़ेगी। यह परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव है। चाहे तुम इस पर संदेह करो या विश्वास करो, परमेश्वर यही करता है, और वह इसी तरह से चीजों को परिभाषित करता है। मेरे ऐसा कहने का क्या अर्थ है? मैं तुम लोगों को एक सच्चाई बताना चाहता हूँ : तुम्हें यह धारणा नहीं बनानी चाहिए कि “परमेश्वर ने मुझे चुना, इसलिए मुझे उसकी नजरों में अनुग्रह मिल गया है। मैं कई सत्य समझता हूँ। अगर मैं थोड़ा-सा कुकर्म करता हूँ, तो परमेश्वर उसे ऐसे निरूपित नहीं करेगा या उसकी निंदा नहीं करेगा। मैं जैसा चाहूँ कर सकता हूँ। मैं सत्य का अभ्यास करने के लिए कष्ट सहने के बहाने अपने हाथ में मौजूद कुकर्म को पूरा कर सकता हूँ। तब परमेश्वर उसकी निंदा नहीं करेगा, है ना?” तुम गलत हो। बुराई की निंदा करने के लिए परमेश्वर के सिद्धांत एक जैसे हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि यह किस परिस्थिति में घटती है, या यह किस समूह के लोगों में घटती है। परमेश्वर ना अलग-अलग जातियों के बीच, और ना ही उन लोगों के बीच फर्क करता है जिन्हें उसने चुना है और जिन्हें उसने नहीं चुना है। चाहे वह कोई अविश्वासी हो या विश्वासी हो, परमेश्वर उसे एक ही नजर से देखता है। तुम मेरी बात समझ रहे हो? (हाँ, हम समझ रहे हैं।)
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