प्रकरण एक : सत्य क्या है (खंड चार)
कष्ट और अपमान में से, कौन-सा सकारात्मक है? क्या इन दोनों में कोई फर्क है? (हाँ, है।) कष्ट सकारात्मक है। अगर तुम खुशी से न्याय, ताड़ना, काट-छाँट करना स्वीकार करते हो और यह कष्ट खुशी से सहते हो, तो फिर तुम इस कष्ट की ऐसे व्याख्या करोगे, “मुझे यह कष्ट सहना चाहिए। परमेश्वर चाहे कुछ भी करे, भले ही मैं इसे ना समझूँ और मेरे दिल के लिए इसे स्वीकार करना मुश्किल हो, और भले ही मैं निराश और कमजोर पड़ जाऊँ, वह जो भी करता है वह सही है। मेरा स्वभाव भ्रष्ट है और मुझे परमेश्वर से बहस नहीं करनी चाहिए। मेरे दिल के लिए इसे सहना चाहे कितना भी मुश्किल क्यों ना हो, यह मेरी अपनी गलतियों के कारण ही हुआ है। परमेश्वर गलत नहीं है; परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सही है। मैं कष्ट सहने लायक हूँ। किसकी वजह से मेरा स्वभाव भ्रष्ट है? किसकी वजह से मैंने परमेश्वर का प्रतिरोध किया? किसकी वजह से मैंने बुरा किया? वे चीजें मुझे परमेश्वर द्वारा नहीं दी गई हैं; वे मेरी अपनी प्रकृति द्वारा संचालित हैं। मुझे यह कष्ट सहना चाहिए।” तो क्या यह कष्ट सहना लोगों के लिए कोई सकारात्मक चीज है? (हाँ।) अगर लोग इसे सकारात्मक तरीके से समझते हैं और इसे परमेश्वर से आया स्वीकारते हैं, तो यह कष्ट सकारात्मक है। लेकिन, मान लो कि वे कहते हैं, “मैं समर्पण कर सकता हूँ, लेकिन समर्पण करने के बाद भी मुझे अपनी दलील स्पष्ट रूप से समझानी होगी, और मैं भीतर से जो सोचता हूँ और जो करता हूँ, उसे स्पष्ट रूप से साझा करना होगा। मैं यूँ ही ऐसे बुजदिल और भ्रमित ढंग से समर्पण नहीं कर सकता। नहीं तो, मैं चीजों को अपने भीतर दबाए रखने के कारण मर जाऊँगा।” वे हमेशा चीजों को स्पष्ट रूप से और दिल खोलकर समझाना चाहते हैं, चीजों की बारीकियाँ स्पष्ट रूप से बताना चाहते हैं, अपनी दलील के बारे में बात करना चाहते हैं, अपनी सोच के बारे में बात करना चाहते हैं, इस बारे में बात करना चाहते हैं कि वे किस तरह कीमत चुकाते हैं, और इस बारे में बात करना चाहते हैं कि वे कितने सही हैं। वे ऐसा व्यक्ति बनने के इच्छुक नहीं हैं जो परमेश्वर के प्रति समर्पण करता है—वे खुद को सही ठहराने से, अपना बचाव करने से या अपनी दलील के बारे में बात करने से बचने के इच्छुक नहीं हैं। वे उस तरीके से कार्य करने के इच्छुक नहीं हैं। ऐसे में, वे समर्पण को क्या मानते हैं? वे इसे तिरस्कार सहना मानते हैं। वे भीतर से क्या सोचते हैं? “मुझे यह सारा तिरस्कार सहना चाहिए ताकि परमेश्वर मुझे स्वीकृति दे और कहे कि मैंने समर्पण कर दिया है।” क्या यह अपमान वास्तव में मौजूद है? अगर यह बिल्कुल भी मौजूद नहीं है, तो वे अब भी इस “अपमान” को छोड़ देने के लिए चीजों को स्पष्ट रूप से और सीधे-सीधे क्यों समझाते हैं? यह सच्चा समर्पण नहीं है। भले ही तुम जिस इरादे से काम करते हो वह सही हो, परमेश्वर इसी तरीके से चीजों का आयोजन करना चाहता है। तुम्हें अपना बचाव करने की जरूरत नहीं है; तुम्हें बहस करने की जरूरत नहीं है। क्या अय्यूब ने चीजों को तुम लोगों से बेहतर तरीके से किया था या नहीं? (उसने चीजों को बेहतर तरीके से किया था।) जब अय्यूब का परीक्षण हुआ, अगर उस समय उसने बहस की होती और अपना बचाव किया होता, तो क्या परमेश्वर ने उसकी बात सुनी होती? नहीं, उसने नहीं सुनी होती। यह एक सच्चाई है। क्या अय्यूब को पता था कि परमेश्वर लोगों के बचावों को नहीं सुनता है? अय्यूब को नहीं पता था, लेकिन अय्यूब ने अपना बचाव नहीं किया। उसका आध्यात्मिक कद ऐसा ही था; उसने सही मायने में समर्पण किया। अय्यूब ने ऐसी कौन-सी बुरी चीज की थी जो परमेश्वर ने उसके साथ ऐसा व्यवहार किया? उसने कुछ भी बुरा नहीं किया। परमेश्वर ने कहा कि अय्यूब उसका भय मानता है और बुराई से दूर रहता है, और वह एक पूर्ण व्यक्ति है। “अपमान” के संदर्भ में बात करें, तो परमेश्वर को अय्यूब को उन तिरस्कारों को सहने के लिए मजबूर नहीं करना चाहिए था, और उसे शैतान के हाथों में नहीं सौंपना चाहिए था और शैतान को उसे लुभाने और उससे उसकी सारी संपत्ति छीनने नहीं देना चाहिए था। समर्पण नहीं करने वाले लोगों के तर्क के लिहाज से देखें, तो अय्यूब ने कष्ट सहा और उसने बहुत तिरस्कार सहा, और जब उसे वे परीक्षण मिले, तो वह अपमान सह रहा था और भारी दायित्व उठा रहा था ताकि इस घटना के बाद वह परमेश्वर से और ज्यादा आशीष प्राप्त कर सके। क्या यह वाकई सच था? (नहीं।) क्या अय्यूब ने इसी तरह से सोचा और अभ्यास किया? (नहीं।) उसने कैसे अभ्यास किया? उसने इन परीक्षणों को कैसे सँभाला? उसे सहने की जरूरत नहीं थी, ना ही उसने सोचा कि वह तिरस्कार सह रहा है। उसने क्या सोचा? (परमेश्वर ने दिया था और उसने ले लिया।) सही कहा। लोग परमेश्वर से आते हैं। परमेश्वर ने तुम्हें जीवन दिया और तुम्हें साँसें दीं। तुम पूरी तरह से परमेश्वर से हो, तो तुम जो सभी चीजें हासिल करते हो, क्या वे वही नहीं हैं जो परमेश्वर ने तुम्हें दीं? तुम्हारे पास शेखी बघारने के लिए क्या है? सब कुछ परमेश्वर का दिया हुआ है, इसलिए अगर परमेश्वर इसे छीन लेना चाहता है, तो तुम्हारे पास बहस करने के लिए क्या है? जब वह तुम्हें कोई चीज देता है, तो तुम खुश हो जाते हो, और जब वह तुम्हें कोई चीज नहीं देता है, तो तुम दुखी हो जाते हो, परमेश्वर की शिकायत करते हो, परमेश्वर से वह चीज माँगते हो, और परमेश्वर से झगड़ते हो। परमेश्वर ने तुम्हें कोई चीज देनी है या नहीं देनी है, यह परमेश्वर की मर्जी पर है; लोगों के पास बहस करने के लिए कुछ भी नहीं है। क्या अय्यूब ने इसी तरह से व्यवहार किया था? (बिल्कुल।) अय्यूब ने इसी तरह से व्यवहार किया था। क्या उसके दिल में अन्याय की भावना थी? (नहीं।) नहीं, ऐसी भावना नहीं थी। ऊपरी तौर पर देखें, तो अय्यूब के पास अन्याय को उजागर करने, खुद को सही ठहराने, अपना बचाव करने, खुद को परमेश्वर के खिलाफ खड़ा करने और परमेश्वर को सब कुछ स्पष्ट रूप से और सीधे-सीधे समझाने के पर्याप्त कारण थे। सिर्फ वह ही एक था जो इन चीजों को करने के लिए सबसे योग्य था, लेकिन क्या उसने ऐसा किया? नहीं, उसने ऐसा नहीं किया। उसने एक शब्द तक नहीं कहा, बस कुछ चीजें कीं : उसने अपना लबादा फाड़ डाला, अपना सिर मुंडा लिया, और जमीन पर गिरकर आराधना की। इन सिलसिलेवार कार्यों के कारण लोगों ने उसे किस किस्म के व्यक्ति के रूप में देखा? उन्होंने उसे एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखा जो परमेश्वर का भय मानता है और बुराई से दूर रहता है, और एक पूर्ण इंसान है। पूर्ण व्यक्ति की परिभाषा क्या है? कोई ऐसा व्यक्ति जो परमेश्वर के कार्यों की बिल्कुल आलोचना नहीं करता है, बल्कि उसकी तारीफ करता है और उसके प्रति समर्पण करता है, और चाहे उसे कितना भी बड़ा कष्ट क्यों ना सहना पड़े, वह यह नहीं कहता है कि “मैंने अन्याय सहा है। यह तिरस्कार है।” वह चाहे कितना भी बड़ा कष्ट क्यों ना सहे, वह कभी भी इस किस्म का एक भी शब्द प्रदर्शित नहीं करता है, या इस किस्म का एक भी शब्द नहीं बोलता है। इसे क्या कहते हैं? अविश्वासी लोग इसे “खुद का त्याग करना” कहते हैं। यहाँ तर्क कहाँ है? क्या यह जो है सो है? (नहीं।) “खुद का त्याग करना” एक दिमागी बीमारी है और बकवास है। अय्यूब ने चाहे कितनी भी बड़ी या कितनी भी दर्दनाक समस्या का सामना किया हो, उसने कभी भी परमेश्वर से बहस नहीं की या उससे झगड़ा नहीं किया; उसने बस समर्पण कर दिया। समर्पण करने का उसका पहला कारण क्या था? परमेश्वर का भय। समर्पण करने की उसकी क्षमता परमेश्वर के बारे में उसकी समझ से आई थी। वह मानता था कि सबकुछ परमेश्वर से आता है, और परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सही है।
कुछ टीम अगुआओं और पर्यवेक्षकों को जब बर्खास्त कर दिया जाता है, तो वे लगातार रोते रहते हैं, आग बबूला हो जाते हैं, और भावुक हो जाते हैं। वे सोचते हैं कि उनके साथ अन्याय हुआ है, वे शिकायत करते हैं कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है, और सोचते हैं कि उन्हें उजागर और रिपोर्ट किए जाने के बारे में भाई-बहनों को बुरा महसूस करना चाहिए, और कहते हैं कि “तुम लोगों में जमीर नहीं है। मैंने तुम लोगों के साथ इतना अच्छा व्यवहार किया, और तुम लोगों ने इस तरह से मेरा बदला चुकाया! परमेश्वर धार्मिक नहीं है। मैंने इतना बड़ा अन्याय सहा है, फिर भी परमेश्वर ने मेरी रक्षा नहीं की; उन्होंने मुझे बड़े रूखेपन से बर्खास्त कर दिया। तुम सब लोग मुझे नीची नजर से देखते हो, और परमेश्वर भी मुझे नीची नजर से देखता है!” वे सोचते हैं कि उनके साथ अन्याय हुआ है और वे आग बबूला हो जाते हैं। मुझे बताओ, क्या ऐसा व्यक्ति समर्पण कर सकता है? जहाँ तक मैं समझता हूँ, यह आसान नहीं है। तो क्या उसके लिए यह बात समाप्त नहीं हो चुकी है? तुम किस बात पर आग बबूला हो रहे हो? अगर तुम इसे स्वीकार कर सकते हो, तो इसे स्वीकार कर लो। अगर तुम सत्य स्वीकार नहीं कर सकते हो, और सत्य के प्रति समर्पण नहीं कर सकते हो, तो परमेश्वर के घर से दफा हो जाओ! परमेश्वर में विश्वास मत रखो—कोई तुम्हें मजबूर नहीं कर रहा है। तुम्हारे साथ क्या अन्याय हुआ है? तुम किस बात पर आग बबूला हो रहे हो? यह परमेश्वर का घर है। अगर तुममें दम है, तो जाकर समाज में आग बबूला हो, और आग बबूला होने के लिए शैतानों और शैतानी राजाओं की तलाश करो। परमेश्वर के घर में आग बबूला मत हो। अगर तुम्हें टीम अगुआ के पद से बर्खास्त कर दिया गया है, तो इसमें क्या बड़ी बात है? अगर तुम टीम अगुआ नहीं हो, तो भी तुम जीवित रह सकते हो, है ना? अगर तुम टीम अगुआ नहीं हो, तो क्या तुम परमेश्वर में विश्वास नहीं रखोगे? अय्यूब ने इतना बड़ा कष्ट सहा, लेकिन उसने क्या कहा? उसने शिकायत का एक भी शब्द नहीं कहा, और यहाँ तक कि परमेश्वर की तारीफ भी की और कहा, “यहोवा का नाम धन्य है” (अय्यूब 1:21)। क्या उसने यहोवा के नाम की तारीफ इसलिए की क्योंकि उसने ढेरों पुरस्कार और फायदे प्राप्त किए थे? नहीं। यह तो बस उसके समझने और अभ्यास करने का तरीका था। क्या व्यक्ति के चरित्र से भी इसका संबंध नहीं है? (हाँ, है।) कुछ लोग नीच चरित्र वाले होते हैं और जब उनके साथ थोड़ा-सा भी अन्याय होता है, तो वे सोचते हैं कि उनके साथ बहुत ही ज्यादा अन्याय हुआ है और दुनिया के हर व्यक्ति को इसके लिए खुद को दोषी महसूस करना चाहिए और उनसे माफी माँगनी चाहिए। ये लोग बहुत ही तकलीफदेह होते हैं! तुम “तिरस्कार” शब्द की व्याख्या कैसे करोगे? तिरस्कार सहना अविश्वासियों के लिए एक आम घटना है, लेकिन परमेश्वर के घर में इसे कहने का एक अलग तरीका है : सत्य की प्राप्ति के लिए कष्ट और तिरस्कार सहना वह कष्ट है जिसे लोगों को सहना चाहिए। सत्य समझने वाले लोगों की चाहे काट-छाँट की जाए या उन्हें बर्खास्त कर दिया जाए, वे इसे तिरस्कार नहीं मानते हैं। वे सोचते हैं कि वे कष्ट सहने के लायक हैं, और लोग इसके प्रति समर्पण नहीं कर सकते हैं क्योंकि उनके स्वभाव भ्रष्ट हैं, लेकिन वह तिरस्कार नहीं है। सही मायने में तिरस्कार कौन सहता है? सिर्फ परमेश्वर ही है जो तिरस्कार सहता है। परमेश्वर मानवजाति को बचाता है, लेकिन लोग यह बात नहीं समझते हैं। देखो, जब परमेश्वर इस्राएलियों को मिस्र से बाहर निकाल लाया, उसके बाद उन्होंने मूर्तियों की आराधना की। जब उनके पास खाने के लिए कुछ नहीं था, तो उन्होंने परमेश्वर के बारे में शिकायत की, और परमेश्वर को उनके लिए मन्ना और दूसरा भोजन नीचे भेजना पड़ा। जब कुछ दिन अच्छे गुजर जाते थे, तो वे परमेश्वर पर ध्यान नहीं देते थे, लेकिन जब उन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़ता था, तो वे फिर से उसे ढूँढ़ने लगते थे। क्या तुम लोग यह नहीं कहोगे कि उसने बहुत तिरस्कार सहा? क्या देहधारी परमेश्वर बहुत तिरस्कार नहीं सहता है जब वह युगों द्वारा अस्वीकार कर दिया जाता है? लोग कुछ भी नहीं हैं, और किसी भी चीज के काबिल नहीं हैं। वे परमेश्वर द्वारा दिए गए इतने सारे अनुग्रह का आनंद लेते हैं, और परमेश्वर द्वारा प्रदान किए गए इतने सारे सत्यों का आनंद लेते हैं, लेकिन जब वे थोड़ा-सा उचित कष्ट सहते हैं, तो उन्हें यह खास तौर पर अन्यायपूर्ण लगता है। लोग कौन-से अन्याय सहते हैं? कुछ लोग हैं जिनमें आम तौर पर काफी हिम्मत होती है, लेकिन जब वे थोड़ा-सा कष्ट सहते हैं—जब भाई-बहन उनकी काट-छाँट करते हैं, या कोई उनसे कुछ बुरा कह देता है, या कोई भी उनका साथ नहीं देता है या उनकी खुशामद नहीं करता है—तो वे दुखी हो जाते हैं, उन्हें महसूस होता है कि उन्होंने बहुत बड़ा कष्ट सहा है, और उनके साथ अन्याय हुआ है, और वे शिकायत करते हैं, “तुम सब लोग मुझे नीची नजर से देखते हो, और कोई भी मेरी तरफ ध्यान नहीं देता है। दुर्व्यवहार सहना ही मेरी नियति है!” तुम किस बात पर आग बबूला हो रहे हो? ऐसी चीजें कहने का क्या फायदा है? क्या उनमें से एक भी शब्द सत्य के अनुरूप है? (नहीं।) तो इसका क्या अर्थ निकलता है—क्या यह अपमान है? तुम उस कष्ट को स्पष्ट रूप से नहीं देख पा रहे हो जिसके तुम लायक हो, और इसे स्वीकार नहीं करते हो। तुम इतने सारे धर्मोपदेश सुन चुके हो, लेकिन तुम यह नहीं समझते हो कि लोगों को सत्य का अभ्यास कैसे करना चाहिए, और उन्हें कैसे समर्पण करना चाहिए। तुम्हें इसके बारे में कुछ नहीं पता है, और फिर भी तुम सोचते हो कि तुमने किसी किस्म का बहुत बड़ा तिरस्कार सहा है। क्या तुम अविवेकी नहीं हो रहे हो? परमेश्वर का उद्धार स्वीकार करने वाले लोगों के लिए क्या यह तिरस्कार मौजूद है? (नहीं।) भले ही कभी-कभी भाई-बहन यकीनन तुम्हारे साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार कर रहे हों, लेकिन तुम्हें इसका अनुभव कैसे करना चाहिए? मिसाल के तौर पर, मान लो कि किसी जगह पचास डॉलर पड़े हैं, और तुम्हारे उसके पास से गुजरने के बाद, वे गायब हो जाते हैं, और हर कोई यही शक करता है कि वे पैसे तुमने लिए। तुम क्या करोगे? तुम अंदर से दुखी और निराश महसूस करोगे : “भले ही मैं गरीब हूँ, फिर भी मुझमें नैतिकता की दृढ़ भावना है। मुझे अब भी अपनी गरिमा की परवाह है। मैंने कभी कोई ऐसी चीज नहीं ली जो किसी और की हो। मैं पूरी तरह से निर्दोष हूँ। तुम लोग हमेशा मुझे नीची नजर से देखते हो, और जब भी ऐसा कुछ होता है, तो तुम सबसे पहले मुझ ही पर शक करते हो। परमेश्वर ने मेरी तरफ से चीजों का खुलासा नहीं किया है। ऐसा लगता है कि वह भी मुझे पसंद नहीं करता है!” तुम आग बबूला हो जाते हो। क्या इसे अपमान माना जाता है? (नहीं।) तो ऐसी परिस्थिति में तुम्हें क्या करना चाहिए? अगर तुमने वे पैसे लिए हैं, तो इसे कबूल करो, और वादा करो कि तुम फिर कभी कुछ नहीं लोगे। अगर तुमने वे नहीं लिए, तो कहो, “मैंने वे नहीं लिए। परमेश्वर लोगों के दिलों की गहराइयों की जाँच-परख करता है। जिसने भी वे पैसे लिए, वह यह बात जानता है, और परमेश्वर भी यह बात जानता है। मैं और एक शब्द नहीं कहूँगा।” तुम्हें यह कहने की जरूरत नहीं है, “तुम लोग मुझे नीची नजर से देखते हो। तुम सभी मुझे परेशान करना चाहते हो।” ऐसी चीजें कहने का क्या फायदा है? क्या इस किस्म की बहुत सारी चीजें कहना अच्छा है? (नहीं।) क्यों नहीं? अगर तुम इस किस्म की बहुत सारी चीजें कहते हो, तो इससे एक सच्चाई साबित होती है : परमेश्वर तुम्हारे दिल में नहीं है; तुम परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते हो, और तुम्हारी परमेश्वर में सच्ची आस्था नहीं है। जब तुम मामले की सच्चाई बताते हो, तो परमेश्वर जानता है। वह लोगों के दिलों की गहराइयों का अवलोकन करता है, और लोग जो कुछ भी कहते हैं और करते हैं उसकी जाँच-पड़ताल करता है। दूसरे लोग इसे कैसे देखना चाहते हैं, यह उनकी मर्जी है। तुम मानते हो कि परमेश्वर इन सभी चीजों को जानता है, और बहुत कुछ कहने की कोई जरूरत नहीं है। क्या तुम्हें दुखी होने की जरूरत है? नहीं, तुम्हें दुखी होने की जरूरत नहीं है। इस मामले का क्या महत्व है? जब तुम्हें परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए बदनाम किया जाता है और तुम्हारी आलोचना की जाती है, तो तुम्हें लगता है कि तुम्हारे साथ अन्याय हुआ है, लेकिन क्या तुम इस बारे में स्पष्ट रूप से बात कर सकते हो? एकचित्त होकर उनसे अपना बचाव करके तुम असली मुद्दे को लटका रहे हो। यह बेकार है, है ना? उनसे बहस करने का क्या फायदा है? यह सत्य का अभ्यास करना नहीं है।
परमेश्वर के उद्धार का अनुभव करने की प्रक्रिया के दौरान लोग बहुत कष्ट सहते हैं। क्या लोगों द्वारा सहा जाने वाला कष्ट तिरस्कार है? (नहीं।) यकीनन यह ऐसा नहीं है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? (क्योंकि लोगों के स्वभाव भ्रष्ट हैं, इसलिए लोगों को यह कष्ट सहना चाहिए।) लोगों के स्वभाव भ्रष्ट हैं—यह इसी का एक भाग है। साथ ही, सत्य का जो भी पहलू तुम्हें समझ में नहीं आता है, और तुम्हारे भीतर का जो भी भाग अब भी नकारात्मक है, तुम उसे सामने ला सकते हो और उस पर संगति कर सकते हो। तुम्हें इसे अपने भीतर दबाए रखने की जरूरत नहीं है। संगति का लक्ष्य क्या है? (समस्याओं को सुलझाना।) सत्य की तलाश करना, सत्य को समझना और अपने भीतर मौजूद समस्याओं को सुलझाना। तुम्हें उन्हें अपने भीतर दबाए रखने की जरूरत नहीं है। तुम्हें तिरस्कार सहने की जरूरत नहीं है। तुम्हें सहने और यह कहने की जरूरत नहीं है कि “मुझे समझ नहीं आता है, फिर भी मुझे समर्पण करने के लिए मजबूर किया जा रहा है। समर्पण करने से पहले मुझे समझ आना चाहिए।” अगर तुम्हें समझ नहीं आता है, तो तुम संगति कर सकते हो। सत्य की तलाश करना ही सही मार्ग है। यह गलत नहीं है। जब कुछ चीजों पर संगति की जाती है और उन्हें स्पष्ट रूप से समझाया जाता है, तो लोग जान जाते हैं कि क्या करना है। तुम्हें सत्य की तलाश करने का रवैया रखना चाहिए, और सत्य की खोज करके समस्याओं को सुलझाना चाहिए। अगर तुम सत्य नहीं समझते हो और सिर्फ समर्पण करने का अभ्यास करते हो, तो अंत में, तुम अपनी समस्याएँ सुलझाने में असमर्थ रहोगे। इसलिए, भले ही तुमसे समर्पण करने की अपेक्षा की जाती हो, तुमसे भ्रमित या गैर-सैद्धांतिक तरीके से समर्पण करने की अपेक्षा नहीं की जाती है। लेकिन, समर्पण में एक सबसे मूलभूत सिद्धांत निहित है, जो यह है कि जब तुम्हें समझ नहीं आता है तो तुम्हें सबसे पहले समर्पण करना चाहिए, और तुम्हारे पास एक आज्ञाकारी दिल और आज्ञाकारी रवैया होना चाहिए। लोगों में यही तार्किकता होनी चाहिए। इसे पूरा कर लेने के बाद, धीरे-धीरे तलाश करो। इस तरह से, तुम परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करने से बच सकते हो और तुम्हारी रक्षा की जा सकती है और तुम इस मार्ग के अंत तक पहुँच सकते हो। क्या परमेश्वर द्वारा लोगों को उजागर करने, उनकी निंदा करने, और यहाँ तक कि उनका न्याय करने और उन्हें शाप देने के लिए उपयोग किए जाने वाले सभी वचनों का उद्देश्य लोगों को अपमानित करना है? (नहीं।) क्या लोगों को यह सब सहने के लिए बहुत ज्यादा धैर्य की जरूरत है? (नहीं।) नहीं, उन्हें इसकी जरूरत नहीं है। इसके विपरीत, यह सब स्वीकार करने के लिए लोगों को बहुत ज्यादा आस्था की जरूरत है। सिर्फ इसे स्वीकार करके ही तुम सही मायने में समझ सकते हो कि शैतान की भ्रष्ट प्रकृति वास्तव में क्या है, लोगों का भ्रष्ट सार वास्तव में क्या है, परमेश्वर के प्रति लोगों के विरोध का स्रोत वास्तव में क्या है, और लोग परमेश्वर के अनुरूप क्यों नहीं हैं। इन समस्याओं को सुलझा पाने से पहले तुम्हें परमेश्वर के वचनों में सत्य की तलाश करनी चाहिए। अगर तुम सत्य स्वीकार नहीं करते हो, और परमेश्वर के वचन चाहे कितनी भी स्पष्टता से चीजों को क्यों ना बताएँ, तुम इसे स्वीकार नहीं करते हो तो फिर तुम उन समस्याओं को कभी सुलझा नहीं पाओगे। भले ही तुम यह समझ जाओ कि “परमेश्वर के वचन हमें अपमानित नहीं करते हैं; वे बस हमें उजागर करते हैं, और हमारे भले के लिए हैं,” तुम इसे सिर्फ धर्म-सिद्धांत के अर्थ में स्वीकार करते हो; तुम्हें यह कभी समझ नहीं आएगा कि परमेश्वर द्वारा कही गई हर बात का सच्चा अर्थ क्या है और यह क्या प्रभाव प्राप्त करने के लिए है। तुम यह भी कभी नहीं समझ पाओगे कि परमेश्वर जिस सत्य के बारे में बात करता है, वह वास्तव में क्या है। इस तरीके से संगति करने के बाद, क्या यह लोगों को काँट-छाँट किए जाना स्वीकार करने, बर्खास्त किया जाना स्वीकार करने, और परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले उस कार्य, व्यवस्थाओं और संप्रभुता को जो लोगों की धारणाओं के अनुरूप नहीं हैं, स्वीकार करने के प्रति एक अग्रसक्रिय और सकारात्मक रवैया रखने में कुछ हद तक समर्थ नहीं बनाता है? (बिल्कुल बनाता है।) कम-से-कम, लोग सोचेंगे कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सही है, उन्हें इसे नकारात्मक तरीके से नहीं समझना चाहिए, और उनका रवैया सबसे पहले सक्रिय रूप से इसे स्वीकार करने का, इसके प्रति समर्पण करने का और फिर उसके साथ सहयोग करने का होना चाहिए। परमेश्वर लोगों के साथ जो कुछ भी करता है, उसके लिए उन्हें अपनी तरफ से मजबूत धैर्य रखने की जरूरत नहीं पड़ती है। इसका यह अर्थ है कि तुम्हें यह सब सहने की जरूरत नहीं है। तुम्हें क्या करने की जरूरत है? तुम्हें स्वीकार करने, तलाश करने और समर्पण करने की जरूरत है। अविश्वासी लोग जिस “अपमान सहना” शब्द का उपयोग करते हैं, वह लोगों के प्रति स्पष्ट रूप से अपमानजनक है। परमेश्वर जो कुछ भी करता है, उसमें से किसी के लिए भी तुमसे अपमान सहने की अपेक्षा नहीं की जाती है। तुम धैर्य, प्रेम, विनम्रता के साथ-साथ समर्पण, स्वीकृति, ईमानदारी, खुलेपन और तलाश का अभ्यास कर सकते हो; ये चीजें अपेक्षाकृत सकारात्मक हैं। तो, अविश्वासी लोग जो कह रहे हैं, उसके पीछे क्या तर्क है? यह शैतानी फलसफा है, और शैतानी झूठ है। संक्षेप में, अपमान सहना कोई ऐसा सिद्धांत नहीं है जिसका पालन परमेश्वर में विश्वास रखने वालों को करना चाहिए। यह सत्य नहीं है; यह एक शैतानी चीज है। परमेश्वर लोगों से अपमान सहने की अपेक्षा नहीं करता है, क्योंकि यहाँ कोई अपमान मौजूद ही नहीं है। लोगों के प्रति परमेश्वर के सभी क्रियाकलाप उनके लिए प्रेम, उद्धार, उनकी देखभाल और उनकी रक्षा करने वाले हैं। परमेश्वर जो चीजें कहता है, और लोगों में वह जो कार्य करता है, वे सभी सकारात्मक हैं और वे सभी सत्य हैं। उनका एक अंश भी शैतान के जैसा नहीं है, और इनमें शैतान का कोई भी तरीका और साधन मौजूद नहीं है। सिर्फ परमेश्वर के वचनों को स्वीकार करके ही लोगों का शोधन किया जा सकता है और बचाया जा सकता है।
शैतान जिस “अपमान सहने” के कार्य की बात करता है, वह लोगों में किस तरह से अभिव्यक्त होता है? यह लोगों में नुकसान, दुर्व्यवहार, तोड़-फोड़ और रौंदने के रूप में अभिव्यक्त होता है। संक्षेप में, यह तुम पर भयंकर संकट लाता है। चाहे तुमने कष्ट सहा हो या तिरस्कार सहा हो, संक्षेप में, शैतान द्वारा लोगों को दी गई चीजों से अंत में जो हासिल होता है, यकीनन वह सत्य नहीं है। लोगों को क्या हासिल होता है? दर्द। शैतान अनगिनत रूपों में लोगों के अपमान और उपहास के साथ-साथ दुर्व्यवहार और भ्रष्टता का कारण बनता है। तो यह लोगों में क्या हासिल करता है और उन्हें क्या महसूस करवाता है? यह लोगों को शिकायतें सहने और अपनी रक्षा करने के लिए समझौते करने पर मजबूर करता है, और यहाँ तक कि उन्हें भीतर से विकृत भी बना देता है। लोग इन सबको सँभालने और इनसे निपटने के लिए सभी तरह की युक्तियों और तरीकों का उपयोग करना सीख लेते हैं, और लोगों की खुशामद करना, दिखावा करना और झूठ बोलना सीख लेते हैं। जब लोग इन सभी चीजों को प्रकट और अभिव्यक्त करते हैं, तो क्या उनके दिल इच्छुक, खुश और शांत होते हैं, या नाराज और व्यथित होते हैं? (नाराज और व्यथित होते हैं।) लोग दुनिया में जितना ज्यादा अपमान सहते हैं, क्या उनके दिलों में गुस्सा उतना ही बढ़ता जाता है, या घटता जाता है? (बढ़ता जाता है।) तो फिर, क्या लोग मानवजाति को अधिकाधिक वैर-भाव से देखते हैं, या अधिकाधिक प्रेम से देखते हैं? (वैर-भाव से देखते हैं।) लोग मानवजाति को अधिकाधिक वैर-भाव से देखते हैं और जिसे भी वे देखते हैं उसी से नफरत करते हैं। जब लोग युवा होते हैं और उन्होंने समाज में अभी-अभी प्रवेश किया होता है तो उन्हें हर चीज अद्भुत नजर आती है, और वे लोगों पर खास सहजता से भरोसा कर लेते हैं। जब उनकी आयु तीस वर्ष हो जाती है, तो फिर वे दूसरों पर उतना भरोसा नहीं करते हैं। जब उनकी आयु चालीस वर्ष हो जाती है, तो उनमें ज्यादातर लोगों के लिए भरोसा नहीं रहता है और पचास वर्ष की आयु होने पर उनके दिलों में नफरत भर जाती है और वे पलटकर दूसरों को नुकसान पहुँचाने लगते हैं। लोग नफरत से भरने से पहले क्या सहते हैं? यह सब तिरस्कार और दर्द है। जब तुम्हारे पास दूसरों जैसी क्षमता और शक्ति नहीं होती है, जब दूसरे तुम पर कोई भी लांछन लगाते हैं, तो तुम्हें फौरन स्वीकृति में अपना सिर हिला देना चाहिए और जब वे तुम्हें कोसें, तो तुम्हें सुन लेना चाहिए। इस बारे में तुम कुछ नहीं कर सकते हो, लेकिन भीतर तुम क्या सोचते हो? “एक दिन जब मेरे पास शक्ति होगी, तो मैं अपने हाथों से तुम्हें मार डालूँगा और तुम्हारे वंश की तीन पीढ़ियों का नामोनिशान मिटा दूँगा!” तुम्हारे दिल में जो नफरत है, वह और भी मजबूत होती जाती है। यही वह परिणाम है जो अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने से भ्रष्ट मानवजाति पर आ पड़ता है। लोग सोचते हैं कि अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना, जिसकी समाज द्वारा तारीफ की जाती है और प्रचार किया जाता है, सकारात्मक चीज है, और यह एक तरह की मानसिकता और सोचने का तरीका है जो लोगों को कड़ी मेहनत करने में और ज्यादा मजबूत बनने का प्रयास करने में समर्थ बनाता है। तो, यह अंत में लोगों में नाराजगी और नफरत क्यों पैदा करता है? (क्योंकि यह सत्य नहीं है।) सही कहा। इससे यह प्रतिकूल परिणाम इसलिए उत्पन्न होता है क्योंकि यह सत्य नहीं है। वह क्या है जो समाज और गिरोहों में पीढ़ियों से चले आ रहे रोष और बदले की भावना से की गई हत्याओं का कारण है? (तिरस्कार सहने के बाद, लोगों के दिलों में बसी नफरत बढ़ने लगती है और वे बदला लेने के लिए हत्याएँ करते हैं।) सही कहा, बदला लेने के लिए की गई हत्याओं का कारण यही है। पीढ़ी दर पीढ़ी, लोग निर्दयता से एक दूसरे को मारते हैं जब तक कि मानवजाति आपदा से नष्ट नहीं हो जाती। यही परिणाम होता है। मानवजाति शैतान के फलसफों और तर्क के अनुसार जीती रही है और धीरे-धीरे शैतान की शक्ति के अधीन वर्तमान समय तक विकसित हुई है। लोगों के आपसी संबंध लगातार विकृत होते जा रहे हैं, लगातार दूरियाँ बढ़ती जा रही हैं, भरोसा तेजी से घट रहा है और रिश्ते ठंडे होते जा रहे हैं। अब यह किस बिंदु तक पहुँच गया है? यह उस बिंदु तक पहुँच गया है जहाँ दो लोग, जिनका एक दूसरे से कोई लेना-देना नहीं है, उनके दिल परस्पर नफरत और परस्पर वैर से भरे हुए हैं। इससे पहले, पड़ोसी अक्सर एक दूसरे के संपर्क में रहते थे और अक्सर एक दूसरे से मिलते-जुलते थे, लेकिन अब अगर कोई व्यक्ति पाँच-छह दिनों तक मरा भी पड़ा रहे, तो भी उसके पड़ोसी को पता नहीं चलेगा; कोई भी उसकी खैर-खबर लेने नहीं आएगा। चीजें इस बिंदु तक कैसे पहुँच गईं? इसी परस्पर नफरत के कारण चीजें इस बिंदु तक पहुँच गईं। तुम नहीं चाहते हो कि दूसरे लोग तुम्हारे प्रति वैर-भाव रखें, लेकिन साथ ही, तुम दूसरों के प्रति वैर-भाव रखते हो—यह एक दुष्चक्र है। यह शैतान के नियमों द्वारा मानवजाति पर लाया गया एक प्रतिकूल नतीजा और आपदा है। लोगों के दिलों में दूसरों के बारे में जो विचार और धारणाएँ हैं, वे लगातार ज्यादा प्रतिकूल होती जा रही हैं, इसलिए वे अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने में बेहतर होते जा रहे हैं, और उनके दिलों में नाराजगी और नफरत बढ़ती जा रही है, जब तक कि वे अंत में यह नहीं कह देते कि “बेहतर होगा अगर वे सभी मर जाएँ और उनमें से एक भी जिंदा नहीं रहे!” क्या हर किसी का दिल इस तरह की नफरत से भरा हुआ नहीं है? वे चाहते हैं कि यह दुनिया जल्द से जल्द नष्ट हो जाए : “सभी लोग बेहद बुरे हैं। वे नष्ट किए जाने लायक हैं!” तुम कहते हो कि दूसरे लोग बेहद बुरे हैं, लेकिन तुम खुद कैसे हो? क्या ऐसा हो सकता है कि तुम सही मायने में बदल गए हो? कि तुमने उद्धार प्राप्त कर लिया है? दूसरों के बेहद बुरे होने के कारण उनसे नफरत करने के साथ-साथ, तुम्हें उनसे बेहतर भी होना चाहिए। अगर तुम दुनिया के लोगों जितने ही बुरे हो, तो तुम्हारे पास कोई विवेक नहीं है। जब कोई विवेक वाला व्यक्ति यह देखता है कि मानवजाति बेहद बुरी है, तो उसे सत्य का अनुसरण करना चाहिए और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए मनुष्य जैसा जीवन जीना चाहिए—यही उचित है। इस तरह, जब परमेश्वर इस दुष्ट मानवजाति को नष्ट करेगा, तो उसे बख्श दिया जाएगा।
क्या तुम लोग इस दुष्ट मानवजाति से नफरत करते हो? (हाँ।) परमेश्वर में विश्वास रखने वाले ज्यादातर लोगों में कुछ मानवता और विवेक होता है; उनके दिल ज्यादा दयालु होते हैं, वे प्रकाश के लिए तरसते हैं, और वे यह लालसा रखते हैं कि शक्ति पर परमेश्वर और सत्य का कब्जा रहे। वे दुष्ट चीजें पसंद नहीं करते हैं, और उन्हें ऐसी चीजें पसंद नहीं हैं जो अनुचित हैं। उनमें मानवजाति के लिए आशा, प्रेम और सहिष्णुता होनी चाहिए, तो फिर वे मानवजाति से नफरत कैसे कर सकते हैं? कुछ लोग कहते हैं, “मुझे याद है, जब मैं स्कूल में था, तो शिक्षक मुझे परेशान किया करता था, लेकिन मैं इसके बारे में बोलने की हिम्मत नहीं करता था; मुझे बस इसे सहन करना पड़ता था। इसलिए मैंने मन में ठान लिया था कि मैं कड़ी मेहनत से पढ़ाई करूँगा और भविष्य में विश्वविद्यालय में दाखिला लूँगा। मैं तुम लोगों को दिखा दूँगा कि मैं किस मिट्टी का बना हूँ, और फिर मैं तुम लोगों को परेशान करूँगा!” कुछ लोग कहते हैं, “मुझे याद है, जब मैं नौकरी करता था तो कंपनी के ताकतवर लोग मुझे हमेशा परेशान करते थे, और मैं सोचता था, ‘बस उस दिन का इंतजार करो जब मैं अपनी उपलब्धियों के बल पर तुम लोगों से आगे निकल जाऊँगा। फिर मैं तुम लोगों का जीवन दुःखी कर दूँगा!’” फिर दूसरे लोग हैं जो कहते हैं, “मुझे याद है, जब मैं व्यापार करता था, तो विक्रेता प्रबंधक मुझे हमेशा ठगता था, और मैं सोचता था, ‘जिस दिन मैं बहुत सारे पैसे कमा लूँगा, उस दिन मैं तुमसे बदला लूँगा!’” किसी का भी जीवन आसान नहीं होता है, और हर किसी के जीवन में ऐसे समय आते हैं जब उन्हें परेशान किया जाता है—उनके पास ऐसे लोग होते हैं जिनसे वे भीतर से नफरत करते हैं और उनसे हिसाब चुकता करना चाहते हैं। अब दुनिया इस हद तक पहुँच चुकी है; यह नफरत और दुश्मनी से भरी हुई है। लोगों की एक-दूसरे से दुश्मनी बहुत ही ज्यादा है, और वे मिलजुलकर नहीं रह सकते हैं और उनके बीच मैत्रीपूर्ण संबंध नहीं हैं। यह दुनिया जल्द ही खत्म हो जाएगी; यह अपने अंतिम परिणाम तक पहुँच चुकी है। हर किसी के भीतर बीते समय की अति दुखद कहानियाँ हैं, जब किसी ने, किसी जगह उन्हें परेशान किया था, या जब किसी कंपनी, संगठन या लोगों के समूह के दूसरे लोगों ने उन्हें परेशान किया था, उन्हें नीची नजर से देखा था, धोखा दिया था या नुकसान पहुँचाया था। ये चीजें हर जगह होती हैं। इससे क्या साबित होता है? इससे यह साबित होता है कि अब मानवजाति में नूह जैसे लोग बिल्कुल नहीं हैं। क्या यही बात नहीं है? (हाँ।) हर किसी का दिल दुष्टता से भरा हुआ है, और सत्य के प्रति, सकारात्मक चीजों के प्रति, और न्याय के प्रति वैर-भाव से भरा हुआ है। लोग पहले से ही बचाए जाने से परे जा चुके हैं। यहाँ ऐसा कोई भी व्यक्ति, कोई भी शिक्षा और कोई भी सिद्धांत नहीं है, जो मानवता को बचा सके—यही सच्चाई है। कुछ लोग अब भी यह उम्मीद करते हैं : “विश्वयुद्ध कब होगा? युद्ध के बाद, वे सभी लोग जो मरने लायक हैं, मर जाएँगे, और जो लोग बच जाएँगे, वे एक नई शुरुआत कर पाएँगे। एक नया युग शुरू होगा, और एक नए देश की स्थापना की जाएगी।” क्या यह हो सकता है? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता है। कुछ लोगों को सभी तरह के अलग-अलग धर्मों से उम्मीद है, लेकिन अब हर धर्म का सूरज अस्त हो रहा है और वे अपनी अंतिम साँसें गिन रहे हैं। हर धर्म जड़ तक सड़ चुका है और हरेक कुख्यात हो चुका है। इन वचनों से मेरा क्या अर्थ है? ये लोगों को एक तथ्य समझाने के लिए हैं : अगर परमेश्वर मानवता को बचाने के लिए वचनों और सत्य का उपयोग नहीं करता है, तो मनुष्यों के भीतर गहराई में निहित नफरत और शातिर स्वभाव सिर्फ लगातार बदतर ही होंगे तथा और ज्यादा अनियंत्रित होते जाएँगे। अंत में, मानवजाति के लिए एकमात्र संभावना यही रहेगी कि लोग एक-दूसरे को निर्दयता से मार डालें और खुद ही अपना विनाश करके खत्म हो जाएँ। वर्तमान समय में, बहुत से लोग इस दुष्ट मानवजाति से बचना चाहते हैं और पहाड़ों के बीच और घने जंगलों में या किसी ऐसी जगह जाकर अकेले रहना चाहते हैं जहाँ मानव जीवन का कोई निशान नहीं हो। इसका क्या परिणाम होगा? मानवजाति की संख्या में और वृद्धि नहीं होगी और कोई अगली पीढ़ी नहीं होगी। मानवजाति वर्तमान पीढ़ी के बाद विलुप्त हो जाएगी—कोई वंशज नहीं होंगे। परमेश्वर के प्रति मानवजाति का प्रतिरोध बहुत ही तीव्र है, जिसने शुरू में ही उसके रोष को भड़का दिया। वे बहुत जल्द खत्म हो जाएँगे। इतने सारे लोग क्यों हैं जो शादी नहीं करते हैं? क्योंकि वे धोखा दिए जाने से डरते हैं, उन्हें विश्वास नहीं होता है कि अब कोई अच्छा इंसान भी है और वे शादी के प्रति वैर-भाव से भरे हुए हैं। इसके लिए किसे दोषी ठहराया जाना चाहिए? इसके लिए लोगों के बहुत ज्यादा भ्रष्ट होने को दोषी ठहराओ, इसके लिए शैतान और दुष्ट लोगों को दोषी ठहराओ, और इसके लिए उन लोगों को दोषी ठहराओ जो स्वेच्छा से भ्रष्टता को स्वीकार कर लेते हैं। तुम दूसरों से नफरत करते हो, लेकिन क्या तुम वाकई उनसे बेहतर हो? तुम्हारे पास सत्य नहीं है, और दूसरों से नफरत करने का कोई फायदा नहीं है। अगर लोगों के पास सत्य नहीं है और वे सत्य नहीं समझते हैं, तो अंत में उनके आगे के रास्ते बंद हो जाएँगे और उन पर आपदा आ पड़ेगी और वे नष्ट हो जाएँगे। उनका यही अंत होगा। अगर परमेश्वर मानवजाति को नहीं बचाता है, तो भ्रष्ट मानवजाति में कोई भी ऐसा नहीं होगा जो सत्य समझ सके।
The Bible verses found in this audio are from Hindi OV and the copyright to the Bible verses belongs to the Bible Society of India. With due legal permission, they are used in this production.
परमेश्वर का आशीष आपके पास आएगा! हमसे संपर्क करने के लिए बटन पर क्लिक करके, आपको प्रभु की वापसी का शुभ समाचार मिलेगा, और 2025 में उनका स्वागत करने का अवसर मिलेगा।