प्रकरण एक : सत्य क्या है (खंड तीन)
ख. अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना
अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोने और पित्त चाटने की दूसरी अभिव्यक्ति अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना है। अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना भी एक तरह की सोच है, एक मानसिकता है और उन चीजों के प्रति एक रवैया है जिनकी सांसारिक लोग हिमायत करते हैं। समाज और दुनिया में, यह सोचने का एक तरीका है जो अपेक्षाकृत सकारात्मक है, और जिसके बारे में मानवजाति सोचती है कि यह अपेक्षाकृत आशावादी, प्रगतिशील और सकारात्मक है। तो वह क्या है जिसका हम गहन-विश्लेषण करना चाहते हैं? अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने में क्या बुरा है? यह सत्य क्यों नहीं है? इसका मूल रूप से सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। जब मैं कहता हूँ कि इसका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है, तो मेरे कहने का क्या अर्थ है? मेरे कहने का यह अर्थ है कि अगर तुम सत्य का अभ्यास करना चाहते हो, तो तुम्हें इसे पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों के सिद्धांतों के अनुसार और परमेश्वर द्वारा अपेक्षित मानकों और विवरणों के अनुसार करना चाहिए। तुम्हें इसमें चीजों को करने के प्रति रवैयों और राय को, और मनुष्य की तथाकथित विचारधाराओं, मानसिकताओं और सत्यनिष्ठा के तरीकों और साधनों को नहीं मिलाना चाहिए। परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं, और उनका इन चीजों से कोई लेना-देना नहीं है। तो फिर अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना बुरा क्यों है? मैं क्यों कहता हूँ कि यह सत्य नहीं है? क्या यह गहन-विश्लेषण करने योग्य नहीं है? (हाँ, है।) चलो हम शुरूआत इस वाक्यांश का शाब्दिक अर्थ समझाने से करते हैं; फिर इसे समझना आसान हो जाएगा। अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने का अर्थ है अपनी जिम्मेदारियों, दायित्वों, या तुम जिस मिशन को हाथ में लेते हो और स्वीकार करते हो, उसकी खातिर सब शर्म, दर्द और तिरस्कार सहने में समर्थ होना। यही इस वाक्यांश का मूल अर्थ है। तो, आम तौर पर इस वाक्यांश का उपयोग किन परिवेशों और परिस्थितियों में किया जाता है? अगर कोई कहता है कि कोई व्यक्ति अपमान सह रहा है और भारी दायित्व उठा रहा है, तो क्या वह व्यक्ति फिलहाल किसी ऐसी परिस्थिति में है जहाँ उसका मिशन पूरा हो गया है, और उसने वह लक्ष्य हासिल कर लिया है जिसे वह हासिल करना चाहता था? (नहीं।) इसलिए, आम तौर पर जब कोई अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने की बात करता है, तो वह किसी ऐसे मामूली व्यक्ति की बात कर रहा होता है जो ऐसी परिस्थिति में है जहाँ उसके पास कोई रुतबा नहीं है, कोई प्रभामंडल नहीं है, कोई शक्ति होने की तो बात ही छोड़ दो। वह इस तरह की परिस्थिति में है, फिर भी उसे अपनी जिम्मेदारियाँ उठानी हैं, वह ध्येय सँभालना है जिसे उसे पूरा करना है, निराश नहीं होना है, समझौता नहीं करना है और हार नहीं माननी है। क्या यह भी एक तरह की मानसिकता नहीं है? इस मानसिकता का जोर किस पर है? यह “सहने” और “उठाने” पर है। “सहने” का अर्थ है धैर्य रखना और किसी चीज को बर्दाश्त करना। कुछ सहने के साथ-साथ, उसे एक भारी दायित्व और जिम्मेदारी स्वीकार करनी चाहिए और निभानी चाहिए, सभी की उम्मीदों पर खरा उतरना चाहिए, और जिस व्यक्ति ने उसे यह कार्य सौंपा है उसे निराश नहीं करना चाहिए। यह किस तरह की मानसिकता है? (दृढ़ता की मानसिकता।) इसके अर्थ में यह तत्व मौजूद है, लेकिन यह अर्थ का सबसे मूलभूत और सतही स्तर है। यहाँ और क्या है? चलो इसकी इस तरह से छान-बीन करें। “अपमान सहना” में “अपमान” का क्या अर्थ है? (तिरस्कार और शर्म।) यह तब होता है जब इस व्यक्ति के आसपास के सभी लोग उसे शर्मिंदा करते हैं और उसे यह महसूस करवाते हैं कि उसने तिरस्कार सहा है। खास तौर पर कौन-से व्यवहार लोगों को शर्मिंदा करते हैं और उन्हें यह महसूस करवाते हैं कि उन्होंने तिरस्कार सहा है? (उन्हें चिढ़ाना, उन्हें बदनाम करना और उनके बारे में कड़वी टिप्पणियाँ करना।) सही कहा, उन्हें चिढ़ाना और उन्हें बदनाम करना, साथ ही, उनका मजाक उड़ाना, उनसे खिलवाड़ करना और उनके बारे में कड़वी टिप्पणियाँ करना। तो, “भारी दायित्व उठाना” में “भारी दायित्व” का क्या अर्थ है? (जिम्मेदारी और आदेश।) जिम्मेदारी और आदेश में क्या शामिल है? इनमें एक किस्म का मिशन और भारी बोझ शामिल है—यह भारी बोझ वह हो सकता है जिसे दूसरे लोगों ने किसी को सौंपा हो, या यह कोई ऐसा लक्ष्य हो सकता है जिसके लिए वह लड़ रहा हो, या कोई मिशन हो सकता है जिसे वह खुद सोचता हो। लोग किस किस्म के मिशन हाथ में लेने के बारे में सोचते हैं? (भीड़ से ऊपर उठना और अपने पूर्वजों का नाम करना।) (सर्वश्रेष्ठ बनना।) ये सभी उदाहरण हैं। ये मूल रूप से लोगों की अपनी महत्वाकांक्षाएँ हैं। इन लक्ष्यों को हासिल और साकार करने के लिए, वे अपनी मौजूदा परिस्थितियों में, अपने आसपास के लोगों से तिरस्कार, मजाक, बदनामी, कड़वी टिप्पणियाँ और यहाँ तक कि ताने भी सहने में समर्थ होते हैं। उन्हें यह सब सहने के लिए क्या प्रेरित करता है? मिसाल के तौर पर, एक व्यक्ति है जो वरिष्ठ सेनापति बनने की महत्वाकांक्षा रखता है। शक्ति हासिल करने से पहले की बात है, एक दिन डाकुओं का एक गिरोह उसे अपमानित करता है, और उससे कहता है, “तुम? और एक सेनापति? इस समय तो तुम्हारे पास एक घोड़ा तक नहीं है—तुम सेनापति कैसे बन सकते हो? अगर तुम सेनापति बनना चाहते हो, तो पहले मेरी टाँगों के बीच से रेंगकर जाओ!” उसके साथ खड़े सभी लोग ठहाका लगाकर हँसने लगते हैं। वह एक पल के लिए सोचता है, “सेनापति बनने की इच्छा रखने में कुछ भी गलत नहीं है। वे मुझे ताने क्यों देते हैं और मेरा मजाक क्यों उड़ाते हैं? लेकिन अभी मैं लापरवाह बनकर अपनी योग्यताओं का प्रदर्शन नहीं कर सकता। आज चीजें जिस तरह से हो रही हैं, उन्हें देखते हुए, अगर मैंने इनके कहे अनुसार कार्य नहीं किया तो मुझे पीटा जाएगा और अगर मामला बिगड़ गया तो मैं अपनी जान भी गँवा सकता हूँ। फिर मैं सेनापति कैसे बन पाऊँगा? अपनी आकांक्षाओं की खातिर, एक डाकू की टाँगों के बीच से रेंगना कुछ भी नहीं है। मैं अब भी वही हूँ, है ना?” यह कहकर वह झट से घुटनों के बल गिर पड़ता है, दोनों हाथों को जमीन पर रखता है, और एक कुत्ते की तरह चलते हुए उस डाकू की टाँगों के बीच से रेंगने लगता है। जब वह रेंगता है, तो उसके दिल के लिए इसे बर्दाश्त कर पाना मुश्किल हो जाता है, और उसके दिल को गहरी चोट पहुँचती है, मानो उसमें किसी ने चाकू घोंप दिया हो—उसका दिल नफरत से भर जाता है! वह सोचने लगता है, “एक दिन जब मैं सच में सेनापति बन जाऊँगा, तो मैं तुम्हें काटकर तुम्हारे लाखों टुकड़े कर दूँगा!” वह अपने दिल में यह बात सोचता है, लेकिन बाहर से उसे इसे सहना पड़ता है—वह दूसरों को यह नहीं दिखा सकता है कि वह क्या सोच रहा है। जब वह उस डाकू की टाँगों के बीच से रेंग लेता है, तो डाकुओं का गिरोह संतुष्ट हो जाता है और उसे बख्श देता है, और एक तेज लात मारकर उसे रास्ते से हटा देता है। वह उठ खड़ा होता है, खुद पर लगी मिट्टी को झाड़ता है, और यह भी कहता है, “अच्छी लात थी। अब से मैं तुम्हें ‘साहब’ कहकर बुलाऊँगा।” वह अपने भीतर जो सोचता है और बाहर जो दिखाता है, दोनों चीजें पूरी तरह से अलग हैं। वह ऐसा कैसे कर पाता है? उसका सिर्फ एक ही लक्ष्य है : “मुझे जिंदा बचे रहना होगा। मैं यह सब-कुछ इसलिए सह रहा हूँ ताकि वह दिन आए जब मैं सेनापति बन जाऊँ, और सर्वश्रेष्ठ बन जाऊँ। आज यह कष्ट और अपमान सहने योग्य हैं। कल मुझे और ज्यादा मेहनत करनी होगी और अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए प्रयास करने होंगे। चाहे मुझे कितनी भी मुश्किलों का सामना क्यों ना करना पड़े, और चाहे मुझे कितना भी कष्ट और तिरस्कार क्यों ना सहना पड़े, मुझे सेनापति बनना ही होगा! सेनापति बनने के बाद, सबसे पहले चीज जो मुझे करनी है वह है इस बदमाश को मारना और अपनी टाँगों के बीच से रेंगवाकर उसने मुझे जो अपमानित किया था, उसका हिसाब बराबर करना!” भविष्य में चाहे वह सेनापति बने या ना बने, उस पल “सहनशक्ति” उसका सर्वोच्च सिद्धांत है। क्या इसमें कोई रणनीति या गुप्त योजना निहित है? (हाँ, है।) यहाँ गुप्त योजनाएँ हैं। वह इसलिए सहता है क्योंकि वह कुछ और नहीं कर सकता है; यह किसलिए है? यह इसलिए है ताकि एक दिन वह इस सारे तिरस्कार का हिसाब बराबर कर सके। उसकी सहनशक्ति ऐसी कहावतों पर आधारित है कि “जहाँ जीवन है वहाँ आशा है” और “सज्जन के बदला लेने में देर क्या और सबेर क्या”—ये सब योजनाएँ हैं। इन्हीं योजनाओं ने उसे उस डाकू की टाँगों के बीच से रेंगने का अपमान सहने के लिए प्रेरित किया। उस पल से, उसके दिल में सेनापति बनने की इच्छा और बढ़ जाती है, और प्रबल हो जाती है; वह बिल्कुल भी हार नहीं मानेगा। तो, वह क्या था जिसके लिए उसने वह तिरस्कार और अपमान सहा? क्या यह किसी उचित उद्देश्य को बनाए रखने के लिए था या सच्ची गरिमा को बनाए रखने के लिए था? यह उसने अपनी खुद की असंयमित महत्वाकांक्षा की खातिर किया। फिर यह सकारात्मक है या नकारात्मक? (नकारात्मक है।) अर्थ के इस स्तर को देखते हुए, यह “सहनशक्ति” पूरी तरह से व्यक्तिगत रुचि, इच्छा और निरंकुश महत्वाकांक्षा से प्रेरित थी। क्या इस सहनशक्ति के भीतर सत्य है? (नहीं है।) अगर यहाँ सत्य नहीं है, तो क्या यहाँ सामान्य मानवता है? (नहीं है।) यह उचित नहीं है, और ना ही यह सच्चा है, निष्कलंक होने की तो बात ही छोड़ दो; बल्कि, यह इच्छा, गुप्त योजनाओं और हिसाबों से लबालब भरा हुआ है—यह सकारात्मक नहीं है।
इस दुष्ट मानवजाति में अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने की जिस सोच और मानसिकता की हिमायत की जाती है, वह मूल रूप से ठीक उसी कहानी की तरह है जो मैंने अभी-अभी सुनाई, जहाँ अगर कोई व्यक्ति बड़ी चीजें हासिल करना चाहता है, तो उसे वह चीज सहन करने में जरूर समर्थ होना चाहिए जो औसत व्यक्ति सहन नहीं कर सकता है। यह सहनशक्ति मुख्य रूप से किस बारे में बात करती है? (शर्मिंदगी सहने के बारे में।) नहीं। यह सहनशक्ति लोगों को जिन चीजों को जीने के लिए मजबूर करती है, वे सच्ची हैं या झूठी हैं? (झूठी हैं।) यही महत्वपूर्ण बिंदु है। लोग अपनी आकांक्षाओं और निरंकुश महत्वाकांक्षाओं की खातिर जिन चीजों को जीते हैं, जो शब्द बोलते हैं, और जो व्यवहार प्रदर्शित करते हैं, वे सभी झूठी हैं, वे सभी अनैच्छिक हैं; ये चीजें इन सभी इच्छाओं, स्वार्थ और लोगों की तथाकथित महत्वाकांक्षाओं और लक्ष्यों की पूर्व-शर्त से प्रेरित हैं। ये चीजें जिन्हें लोग जीते हैं, वे सभी अस्थायी उपाय हैं; इनका एक भी अंश ईमानदार या सच्चा नहीं है; एक भी अंश उजागर किया हुआ, खुला या स्पष्ट नहीं है; ये सभी अस्थायी उपाय हैं। क्या ये सभी धूर्त साजिशें नहीं हैं? अस्थायी उपाय तब होते हैं जब लोग इस तरीके से अस्थायी रूप से किसी चीज को सहते हैं; अस्थायी रूप से सुखद लगने वाले शब्द कहते हैं, मनाते हैं और धोखा देते हैं; और थोड़ी देर के लिए अपनी असली पहचान, मानसिकता, विचारों, राय और यहाँ तक कि नफरत को भी छिपाते हैं, और दूसरे व्यक्ति को इसे नहीं देखने देते हैं। बल्कि, वे चाहते हैं कि दूसरा व्यक्ति उनका वह पक्ष देखे जो कमजोर और अक्षम है, अशक्त और बुजदिल है। वे अपना असली चेहरा पूरी तरह से छिपा लेते हैं—वे ऐसा किसलिए करते है? वे ऐसा इसलिए करते हैं ताकि एक दिन वे कोई बड़ा उद्देश्य पूरा कर सकें, सर्वश्रेष्ठ बन सकें, दूसरों को नियंत्रित कर सकें और दूसरों पर अपना दबदबा बना सकें। जब लोग “अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना” वाक्यांश का अभ्यास और उसकी अभिव्यक्ति करते हैं तो क्या प्रदर्शित होता है? क्या ऐसा करने वाले लोगों में ईमानदार रवैया होता है? क्या उन्हें अपने बारे में सही समझ और अपने लिए पश्चात्ताप होता है? (नहीं।) मिसाल के तौर पर, दूसरे लोग कहते हैं, “तुम जैसा व्यक्ति सेनापति बनना चाहता है?” वे इस बारे में सोचते हैं, फिर कहते हैं, “मैं यह नहीं कर सकता। मैं सेनापति नहीं बनूँगा। मैं तो सिर्फ मजाक कर रहा था।” क्या उनके द्वारा कहे गए शब्द सच हैं या झूठ हैं? (झूठ हैं।) वे अपने दिल में क्या सोच रहे हैं? “सिर्फ मेरे जैसा ही कोई सेनापति बन सकता है!” वे अपने दिल में यही सोचते हैं, लेकिन क्या उनके लिए यह जोर से कहना ठीक है? (नहीं।) क्यों नहीं? पीटे जाने से बचने के लिए, और अपनी असली क्षमताओं को छिपाने के लिए, वे कहते हैं, “मैं तो सिर्फ मजाक कर रहा था। मैं इतना दबंग नहीं हूँ कि सच में सेनापति बनना चाहूँ। तुम तो वरिष्ठ सेनापति की तरह हो—तुम भविष्य के प्रधान सेनापति हो। वह सेनापति से भी ऊँचा ओहदा होता है!” क्या ये शब्द सच हैं? (नहीं।) उनके सच्चे शब्द कहाँ हैं? (उनके दिल में हैं।) सही कहा, वे अपने सच्चे शब्दों को अपने दिल में रखते हैं और उन्हें जोर से नहीं कहते हैं। वे उन्हें जोर से क्यों नहीं कहते हैं? वे डरते हैं कि अगर उन्होंने ऐसा किया तो उन्हें पीटा जाएगा, इसलिए वे उन्हें नहीं कहते हैं, और उन्हें प्रकट नहीं करते हैं; वे किसी को पता लगने नहीं देते हैं, और अपनी वास्तविक क्षमताओं को हमेशा के लिए छिपा लेते हैं। अपनी वास्तविक क्षमताओं को छिपाने का क्या अर्थ है? यह तब होता है जब कोई व्यक्ति दूसरों को अपनी वास्तविक क्षमताएँ नहीं देखने देता है; वह इन क्षमताओं को ढक लेता है और उन्हें दूसरों के सामने प्रकट नहीं होने देता है ताकि दूसरे लोग सतर्क ना हो जाएँ और उसके हितों के विपरीत कार्य ना करें। क्या यह भी अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोने और पित्त चाटने का सही अर्थ नहीं है? (हाँ, है।) अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना; अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना; अपने लक्ष्यों, इच्छाओं और नफरत को कभी नहीं भूलना; और लोगों को कभी भी अपना असली चेहरा और वास्तविक क्षमताएँ नहीं देखने देना। कुछ समर्थ लोग जब लोगों के समूह में होते हैं तो ज्यादा कुछ नहीं कहते हैं; वे शांत और मितभाषी होते हैं, और अगर वे कुछ कहते भी हैं, तो वे जो सोच रहे होते हैं, उसका आधा भाग ही प्रकट करते हैं। दूसरे लोग हमेशा यह समझने में असमर्थ रहते हैं कि वे सच में क्या कहना चाहते हैं, और सोचते हैं, “वे इतने रहस्यमय तरीके से क्यों बात करते हैं? दिल से कुछ कहना इतना मुश्किल क्यों है? यहाँ क्या चल रहा है?” दरअसल, उनके दिल में ऐसे विचार हैं जिन्हें वे अभिव्यक्त नहीं कर रहे हैं, और इसमें एक भ्रष्ट स्वभाव निहित है। दूसरे लोग हैं जो इस तरह से बात नहीं करते हैं, लेकिन जब वे चीजें करते हैं, तो वे अपनी क्षमताओं की वास्तविक हद को हमेशा छिपा लेते हैं। अपनी क्षमताओं की वास्तविक हद को छिपा लेने में उनका क्या लक्ष्य है? वे डरते हैं कि अगर समर्थ लोग या शक्तिशाली शख्सों ने इसे देखा, तो उन्हें ईर्ष्या होगी, वे उनसे वैर-भाव रखेंगे और उन्हें नुकसान पहुँचाएँगे। समूहों में, जो लोग हमेशा दूसरों की तारीफ करते हैं, हमेशा दूसरों के बारे में अच्छा बोलते हैं, और हमेशा यह कहते हैं कि बाकी सभी उनसे बेहतर हैं, क्या सबसे कपटी लोग नहीं होते हैं? (हाँ, होते हैं।) तुम यह कभी नहीं जान पाते हो कि वे भीतर से सच में कैसे हैं। बाहर से, तुम देखते हो कि वे इस बारे में बात नहीं करते हैं, इसलिए तुम्हें लगता है कि उनकी निरंकुश महत्वाकांक्षाएँ नहीं हैं, लेकिन दरअसल तुम गलत हो। इस तरह के कुछ लोग वे लोग हैं जो अपमान सहते हैं और भारी दायित्व उठाते हैं। यह वैसा ही है जैसा फिल्मों में होता है, जहाँ अक्सर इस तरह के दृश्य होते हैं—कुछ लोग जब घर से बाहर होते हैं तो अक्सर अच्छी-अच्छी चीजें करते हैं, वे जो कपड़े पहनते हैं वे फटे-पुराने होते हैं, और जब वे समूह में होते हैं तो उन्हें हमेशा परेशान किया जाता है; वे दूसरों के सामने ऐसे ही रहते हैं। लेकिन, अपने घर पहुँचते ही वे एक गुप्त कमरे में चले जाते हैं। इस गुप्त कमरे की दीवार पर एक नक्शा होता है, और उन्होंने नक्शे पर मौजूद अस्सी प्रतिशत जगहों पर चीजों की निगरानी करने के लिए पहले से ही खबरी तैनात कर रखे होते हैं। फिर भी, जो लोग अक्सर उनसे बातचीत करते हैं, वे अब भी उन्हें परेशान करते हैं और उन्हें बिल्कुल पता नहीं होता है कि उनकी ये निरंकुश महत्वाकांक्षाएँ हैं। एक दिन जब नक्शे पर मौजूद सभी जगहें उनके नियंत्रण में आ जाएँगी और उनका लक्ष्य पूरी तरह हासिल हो जाएगा, तो उन्हें परेशान करने वाले लोग पूरी तरह हैरत में पड़ जाएँगे, और कहेंगे “पता चला है कि यह व्यक्ति दानव है—उसकी महत्वाकांक्षाएँ बहुत ही ज्यादा हैं! उसने इतने वर्षों से दिखावा किया। कोई भी उसकी वास्तविक प्रकृति को पहचान नहीं पाया।” वे कहते हैं, “मैंने जो किया वह अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना था। अगर मैंने उस तरीके से नहीं सहा होता जैसे मैंने सहा और तुम लोगों को मेरी करतूतों से अनजान नहीं रखा होता, अगर मैंने तुम लोगों को सब कुछ बता दिया होता, तो क्या मैं इतना बड़ा कार्य पूरा कर पाता?” वे कौन-सी विशेषताएँ हैं जो बुरे लोगों और बहुत ज्यादा महत्वाकांक्षाओं वाले लोगों, दोनों ही में होती हैं? एक पहलू यह है कि आम लोगों की तुलना में उनमें आंतरिक बल और दृढ़ता बहुत ज्यादा होती है। साथ ही, आम लोगों की तुलना में उनकी गुप्त योजनाएँ बहुत ज्यादा होती हैं और अगर औसत व्यक्ति उनसे बातचीत करता है, तो वे उससे चालाकी से अपना काम निकाल सकते हैं। चालाकी से अपना काम निकालने का क्या अर्थ है? इसका यह अर्थ है कि कोई भी उन्हें स्पष्ट रूप से नहीं देखता है। लोगों को सिर्फ वही चीजें दिखाई देती हैं जिन्हें वे ऊपर से कहते हैं और करते हैं। ऐसा मत सोचो कि उनकी कथनी और करनी से तुम इस बात का कोई सुराग ढूँढ़ पाओगे कि वे अपने दिल की गहराइयों में क्या सोच रहे हैं। क्या यह उनके द्वारा चालाकी से अपना काम निकालना नहीं है? आंतरिक बल और दृढ़ता अपने आप में सकारात्मक शब्द हैं, लेकिन उनकी गुप्त योजनाओं ने उनके आंतरिक बल और दृढ़ता को नकारात्मक बना दिया। साथ ही, उनमें ऐसी इच्छाएँ और निरंकुश महत्वाकांक्षाएँ हैं, जो आम लोगों की तुलना में बहुत ही ज्यादा हैं। औसत व्यक्ति में इच्छाएँ और निरंकुश महत्वाकांक्षाएँ होती हैं, लेकिन जब उन्हें लगता है कि वे किसी चीज को हासिल नहीं कर सकते हैं, तो वे हार मान लेते हैं और उस कष्ट से गुजरने के इच्छुक नहीं होते हैं। इसके अलावा, वे हमेशा इस बारे में बेबाक होते हैं कि वे किससे लड़ना चाहते हैं; उनके पास गुप्त योजनाएँ नहीं होती हैं। लेकिन, इस किस्म के कुकर्मियों की महत्वाकांक्षाएँ बहुत ज्यादा होती हैं, और वे हमेशा गुप्त योजनाओं और धोखेबाज साजिशों को अंजाम देते हैं। वे किसी भी समय अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं का त्याग नहीं करेंगे; वे बिल्कुल अंत तक लड़ेंगे—मरते दम तक लड़ेंगे।
पाठ्यपुस्तकों में यह कहानी बताई गई है कि कैसे यू राज्य के राजा गौजियन अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोते थे और पित्त चाटते थे। माता-पिता भी अपने बच्चों को इस बारे में सिखाते हैं। कहानी सुनने वाले कुछ बच्चे सोचते हैं, “औसत व्यक्ति होना बहुत ही अच्छा है। लोगों के लिए इतनी ज्यादा महत्वाकांक्षाएँ होना नितांत जरूरी क्यों है? कौन अपमान के जख्म हरे रखने के लिए खुद को सूखी लकड़ी पर सोने और पित्त चाटने का कष्ट दे सकता है? यह वह कष्ट नहीं है जिसे आम लोग बर्दाश्त कर सकें।” सिर्फ निरंकुश महत्वाकांक्षाओं वाले लोगों में ही इस तरह से कष्ट सहने का संकल्प होता है; इसमें एक गुप्त योजना अंतर्निहित है। लेकिन, मानवजाति इस किस्म की मानसिकता की हिमायत करती है। मिसाल के तौर पर, एक कहावत है कि “लोगों को चाहे कितना भी कष्ट और तिरस्कार क्यों ना सहना पड़े, उनकी परिस्थितियाँ चाहे कितनी भी भयानक क्यों ना हों, उन्हें अपनी महत्वाकांक्षाओं को कभी नहीं भूलना चाहिए।” यह समाज लोगों को अपनी खुशी और लक्ष्यों के लिए लड़ने हेतु प्रोत्साहित और प्रेरित करने के लिए अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोने और पित्त चाटने, और अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने जैसे विचारों की हिमायत करता है, तो हम इसे गलत मानकर इसकी आलोचना क्यों करते हैं? सारी मानवजाति शैतान द्वारा भ्रष्ट हो गई है। क्या मानवजाति का ऐसा कोई सदस्य है जिसके उद्देश्यों का लक्ष्य सत्य की तरफ है, और सही दिशा में है? (नहीं।) इसलिए, मानवजाति अपमान के जख्म हरे रखने के लिए जितना ज्यादा सूखी लकड़ी पर सोएगी और पित्त चाटेगी, और जितना ज्यादा वह अपमान सहेगी और भारी दायित्व उठाएगी, शैतान की शक्तियाँ उतनी ही हिंसक होती जाएँगी, मानवजाति की लड़ाइयों और नरसंहारों की संख्या उतनी ही बढ़ती जाएगी, मानवजाति उतनी ही ज्यादा दुष्ट होती जाएगी, और समाज उतना ही ज्यादा अंधकारमय होता जाएगा। इसके विपरीत, अगर तुम स्वर्ग की व्यवस्थाओं का पालन करने में और खुद को हर चीज की प्राकृतिक व्यवस्था के अनुरूप बनाने में समर्थ हो, अगर तुम चीजों को वैसे ही स्वीकार करने में समर्थ हो जैसे वे आती हैं, इस व्यवस्था का सम्मान करने और स्वर्ग की व्यवस्थाओं की प्रतीक्षा करने में समर्थ हो, तो तुम्हें अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने की जरूरत नहीं है। तुम्हें जागृत होने और अपने होश में आने की जरूरत है। परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं का पालन करने में समर्थ होना सही है। इसके अलावा, लोग जो कुछ भी करते हैं, उसे कम से कम अपने जमीर के अनुसार करने में लोगों को समर्थ होना चाहिए, और एक कदम और ऊँचा उठकर, उसे परमेश्वर द्वारा मानवजाति के लिए निर्धारित नियमों के अनुसार करने में लोगों को समर्थ होना चाहिए। तो, क्या अब भी लोगों को मुखौटा पहनने और भारी दायित्व उठाने की जरूरत है? (नहीं।) नहीं, उन्हें इसकी जरूरत नहीं है। इस संगति के माध्यम से, क्या तुम लोगों को समझ आया है कि अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना वास्तव में किस किस्म का व्यवहार है? अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने का लक्ष्य सकारात्मक है या नकारात्मक है? (नकारात्मक है।) अगर कोई यह कहे कि कोई व्यक्ति अगुआ बनने के लिए अपमान सहता है और भारी दायित्व उठाता है, या यह कहे कि कोई व्यक्ति परमेश्वर द्वारा उसे दिए गए आदेश को पूरा करने और पुरस्कृत होने के लिए अपमान सहता है और भारी दायित्व उठाता है, या यह कहे कि कोई व्यक्ति पूर्ण बनाए जाने का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए अपमान सहता है और भारी दायित्व उठाता है—तो क्या इन शब्दों में दम है? (नहीं, इनमें दम नहीं है।) अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना पूरी तरह से एक शैतानी फलसफा है; इसमें कोई सत्य नहीं है, और जैसे ही तुम इन शब्दों को सुनते हो, यह स्पष्ट हो जाता है कि ये विकृत हैं। अगर कोई यह कहे कि कोई व्यक्ति परमेश्वर की व्यवस्थाओं की प्रतीक्षा करने और परमेश्वर की संप्रभुता के प्रति समर्पण करने के लिए अपमान सहता है और भारी दायित्व उठाता है, तो क्या यह कहना सही है? (नहीं।) यह कैसे सही नहीं है? ये दोनों एक दूसरे से मेल नहीं खाते हैं—परमेश्वर तुम से अपमान सहने की अपेक्षा नहीं रखता है और ना ही वह तुम से तिरस्कार सहने की अपेक्षा रखता है। अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने, जैसा कि यहाँ चर्चा की गई है, और लोगों का परमेश्वर में विश्वास रखने और उसके प्रति समर्पण करने के बीच क्या मूलभूत अंतर है? (अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं को त्याग देने का एक प्रयास है।) अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने का यह अर्थ है कि लोगों की अपनी योजनाएँ, महत्वाकांक्षाएँ, इच्छाएँ और अपने लक्ष्य होते हैं जिनका वे अनुसरण करते हैं। क्या ये उन मानकों के अनुरूप हैं जिनकी परमेश्वर लोगों से अपेक्षा करता है, और क्या ये उन लक्ष्यों के अनुरूप हैं, जिनका अनुसरण करने के लिए परमेश्वर लोगों को देता है? (नहीं।) नहीं, वे नहीं हैं। अपमान सहकर और भारी दायित्व उठाकर लोग अपने लिए क्या हासिल करने का लक्ष्य रखते हैं? वे जो हासिल करने का लक्ष्य रखते है वह स्वार्थ है, और इसका मनुष्य की उस नियति से कोई संबंध नहीं है जिसकी परमेश्वर योजना बनाता है और जिस पर परमेश्वर संप्रभु है।
जो कोई भी अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने का अभ्यास करता है, उसकी एक मंशा और एक लक्ष्य होता है। मिसाल के तौर पर, जब कोई नया कॉलेज स्नातक पहली बार प्रशिक्षुता के लिए किसी कंपनी में आता है, तो कंपनी के वरिष्ठ कर्मचारी कहते हैं, “यहाँ आने वाले कॉलेज स्नातकों को तीन साल तक कॉफी लानी पड़ती है।” वे भीतर से सोचते हैं, “भले ही मैं कॉलेज स्नातक हूँ, लेकिन मैं तुम लोगों के आगे नहीं झुकूँगा!” वे भीतर से ऐसा सोचते हैं, लेकिन इसे जोर से व्यक्त करने की हिम्मत नहीं करते हैं। बाहर से, उन्हें अब भी एक नकली मुस्कान दिखानी पड़ती है; हर रोज उन्हें नियमों का पालन करना पड़ता है, दब्बू बने रहना पड़ता है, और बहुत ज्यादा और झूठी विनम्रता से व्यवहार करना पड़ता है और दूसरों द्वारा उनकी कमियाँ निकाले जाने पर उसे सहना पड़ता है। इसे सहने में उनका क्या लक्ष्य है? वह यह है कि एक दिन ऐसा आएगा जब वे विजयी ठहाका लगा सकेंगे, प्रबंधक या मालिक के सचिव बन सकेंगे और उन लोगों को मात दे सकेंगे जिन्होंने उन्हें परेशान किया। क्या वे ऐसा ही नहीं सोचते हैं? कुछ लोग कहते हैं, “उन्हें इसी तरीके से सोचना चाहिए और यही कार्य करना चाहिए। नहीं तो, वे जीवन भर लोगों से घटिया बर्ताव झेलते रहेंगे। कौन इस तरह से कष्ट सहना चाहता है? साथ ही, अगर लोगों में महत्वाकांक्षाएँ नहीं होंगी तो उनका काम कैसे चलेगा? आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है—जीवन का यही दस्तूर है। जो सैनिक सेनानायक नहीं बनना चाहता वह अच्छा सैनिक नहीं है।” ये शब्द उनका आदर्श वाक्य बन जाते हैं, लेकिन यह सब शैतानी तर्क है। उन्हें अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए इस तरीके से सहते रहना होगा—दिन-ब-दिन, साल-दर-साल, सभी के प्रति शिष्ट और आदरपूर्ण बने रहना होगा। एक दिन, उनका मालिक उनसे कहता है, “इन तीन वर्षों में तुम्हारा प्रदर्शन अच्छा रहा है। अगले हफ्ते से, तुम विक्रेता बन जाओगे।” जब वे यह बात सुनते हैं, तो उनका दिल दुखी हो जाता है : “तो मैंने सिर्फ विक्रेता बनने के लिए तीन वर्ष कड़ी मेहनत की! मैंने सोचा था कि मैं बिक्री विभाग का कार्यकारी निदेशक बन जाऊँगा!” लेकिन उन्हें इस तरक्की के लिए धन्यवाद कहना पड़ता है। वे अभी तक अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँचे हैं, इसलिए उन्हें सहन करते रहना पड़ेगा। वे अपमान सहते रहते हैं और भारी दायित्व उठाते रहते हैं, अपने मालिक के साथ शराब पीते हुए और नकली मुस्कान दिखाते हुए आगे-पीछे घूमने में कड़ी मेहनत करते हैं, और जब वे दस वर्षों तक यह सब सह लेते हैं, तो अंत में वे अपना लक्ष्य हासिल कर लेते हैं। एक दिन, उनका मालिक उनसे कहता है, “तुमने अपना कार्य बहुत अच्छा किया है। मैं तुम्हें तरक्की देकर सहायक बना दूँगा।” जब वे यह सुनते हैं, तो भीतर से खास तौर पर खुश हो जाते हैं—अंत में, उन्होंने यह कर दिखाया! यह क्या परिणाम है? उनकी नजर में, अब वे बाकी सभी से बेहतर हैं। क्या उन्होंने यह सब अपनी खुशी से नहीं किया? (नहीं।) उन्होंने यह सब किसके लिए किया? (अपने लिए।) अपने लिए। इसमें कुछ भी ऐसा नहीं है जो सकारात्मक हो या जिसे अपनाया जाना चाहिए, तारीफ और बड़ाई के योग्य होने की तो बात ही छोड़ दो। लेकिन आज समाज में इसी किस्म की मानसिकता की हिमायत की जाती है—अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना, दुम दबाए यहाँ-वहाँ घूमना। इसलिए, यह किस किस्म का वाक्यांश है जिसकी लोग हिमायत करते हैं : “अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना”? (यह बुरा वाक्यांश है।) यह कैसे बुरा है? लोग पूरी तरह से अपने खुद की मंशाओं और प्रेरणाओं के कारण और अपनी खुद की इच्छाओं और निरंकुश महत्वाकांक्षाओं को संतुष्ट करने के लिए अपमान सहते हैं और भारी दायित्व उठाते हैं। यह सही लक्ष्यों की खातिर नहीं है। इसलिए मैं कहता हूँ कि इसमें से कुछ भी अपनाने योग्य नहीं है, और इसमें से कुछ भी तारीफ या सराहना करने के योग्य नहीं है, और यकीनन याद रखने योग्य तो है ही नहीं। चलो एक बार फिर देखें कि प्राचीन काल में महल में क्या हुआ था। एक सम्राट की मृत्यु हो गई। महारानी ने देखा कि उसका बेटा अभी भी छोटा है और अगर वह सिंहासन पर बैठता है, तो वह दरबार को नियंत्रित करने में पूरी तरह से असमर्थ रहेगा, इसलिए, यह सुनिश्चित करने के लिए कि उसका बेटा वास्तव में सम्राट के रूप में शासन करे, उसने अपमान सहा और भारी दायित्व उठाया और पिछले सम्राट के छोटे भाई से शादी कर ली, और उन दोनों ने मिलकर सिंहासन पर उसके बेटे के दावे का समर्थन किया। अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने में उसका क्या लक्ष्य था? उसने यह सम्राट के रूप में अपने बेटे के पद के लिए किया। जब सम्राट के रूप में उसके बेटे का पद सुरक्षित हो जाता, तो उसका रुतबा राजमाता का हो जाता। इसे अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना कहते हैं। वह कौन-सा अपमान सह रही थी? वह पतिव्रता नहीं रही; जैसे ही सम्राट की मृत्यु हुई, उसने फौरन उसके छोटे भाई से शादी कर ली, जिससे उसकी बदनामी हुई। लोगों ने पीठ पीछे उसकी आलोचना की और उसके बारे में राय बनाई, और यहाँ तक कि इतिहास की किताबों में भी उसे खराब दर्जा दिया गया। क्या उसने इसकी परवाह की? दरअसल, अपने पूर्व देवर से शादी करने से पहले उसने इसके परिणामों के बारे में सोच-विचार किया था, फिर भी उसने ऐसा क्यों किया? यह सम्राट के रूप में अपने बेटे के पद को सुनिश्चित करने और राजमाता के रूप में अपने रुतबे की रक्षा करने के लिए था। यही एकमात्र कारण था कि उसने इतनी बदनामी बर्दाश्त की और खुशी से इस कष्ट को सहन किया। इसे अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना कहते हैं। इस सारे तिरस्कार को सहने से उसे क्या हासिल हुआ? उसे जो हासिल हुआ वह और भी बड़ा फायदा था। अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने में उसका यही लक्ष्य था। जैसे ही उसने बड़ा फायदा हासिल कर लिया, उस सारी बदनामी की कोई अहमियत नहीं रही। इस बदनामी के बदले, उसने अपने और अपने बेटे के लिए शक्ति और रुतबा हासिल किया। तो क्या उसका अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना सकारात्मक था या नकारात्मक था? (नकारात्मक था।) अगर कोई सिर्फ उसके व्यवहार को देखे, तो यह पता चलता है कि वह खुद का त्याग करने में समर्थ थी, और, कोई उसके बेटे के नजरिये से देखे, तो उसने जो तिरस्कार और कष्ट बर्दाश्त किया, उसका एक निस्वार्थ पक्ष था, इसलिए लोगों को उसकी तारीफ करनी चाहिए और कहना चाहिए कि “कितनी महान माँ थी!” लेकिन जब उसकी इच्छाओं और निरंकुश महत्वाकांक्षाओं और उसके सच्चे लक्ष्य को देखा जाता है, तो लोगों को उसकी आलोचना करनी चाहिए; उसके क्रियाकलाप राय बनाए जाने लायक हैं।
क्या परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोगों को अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने की जरूरत है? (नहीं है।) अगर लोग परमेश्वर के वचनों को स्वीकार करते हैं और उसके न्याय, ताड़ना, काट-छाँट, परीक्षाओं और शोधन को स्वीकार करते हैं, और यहाँ तक कि लोगों के प्रति उसके शापों और निंदा को भी स्वीकार करते हैं, तो क्या उन्हें अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने की जरूरत है? (नहीं है।) यकीनन ऐसा ही है। विश्वासियों के संदर्भ में “अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना” वाक्यांश का उपयोग करने में बिल्कुल दम नहीं है और इसकी निंदा की जाती है। इस संदर्भ में इस वाक्यांश का उपयोग करना क्यों गलत है? कोई यह कैसे साबित कर सकता है कि इस संदर्भ में यह व्यवहार सही नहीं है? सिर्फ मौखिक रूप से और सिद्धांत के लिहाज से यह स्वीकार करना कि यह वाक्यांश गलत है, स्वीकार्य नहीं है; तुम्हें पता होना चाहिए कि यह किन सत्यों का जिक्र करता है। इससे पहले, तुम सोचते थे कि परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाने और परमेश्वर द्वारा बचाए जाने को स्वीकार करने के लिए, लोगों को अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना, अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना, यू राज्य के राजा गौजियन की मानसिकता अपनाना, और कभी हार न मानना सीखने की जरूरत होती है—तुम निहायत बेवकूफ थे और तुम्हारे पास सत्य समझने की क्षमता नहीं थी। अब, मेरी संगति के बाद, तुम सोचते हो, “यह वाक्यांश अच्छा नहीं है। इससे पहले, मैं हमेशा इस वाक्यांश का उपयोग किया करता था—मैं इतना बेवकूफ कैसे था?” तुम देख सकते हो कि तुम सत्य नहीं समझते हो और तुम्हारी समझने की क्षमता कमजोर है। तुम्हें यह समझना चाहिए कि इस वाक्यांश में क्या गलत है। एक बार जब तुम सही मायने में यह समझने में समर्थ हो जाओगे कि इसमें क्या गलत है, तो तुम्हें वाक्यांश की पूरी समझ हो जाएगी। अगर तुम वाक्यांश का सिर्फ एक भाग स्पष्ट रूप से देखते हो, जहाँ तुम इसके नकारात्मक पक्ष को स्पष्ट रूप से देखते हो, लेकिन वह पक्ष नहीं देखते हो जिसे लोग सकारात्मक और अग्रसक्रिय मानते हैं, तो इसका यह अर्थ है कि तुम अभी भी सत्य नहीं समझते हो। मैंने अभी-अभी जो संगति की है, उसे सुनने के बाद, क्या तुम लोग मेरे इन तरीकों के अनुसार इन चीजों का गहन-विश्लेषण और छान-बीन कर पाओगे? परमेश्वर के घर में अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने का अभ्यास क्यों जरूरी नहीं है? मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि परमेश्वर का घर इस तरीके और मानसिकता की निंदा करता है और यह सत्य के अनुरूप नहीं है? (परमेश्वर, मेरी समझ यह है कि परमेश्वर के घर में, परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना, और यहाँ तक कि बर्खास्त कर दिया जाना या निंदा किया जाना भी अपमान सहना नहीं है। बल्कि, यह वह तरीका है जिससे परमेश्वर लोगों को बचाने के लिए कार्य करता है, और इसका उद्देश्य हमें सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर लेकर जाना है। इसका अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने से बिल्कुल कोई लेना-देना नहीं है। अगर लोग सही तरह से समझ पाते हैं, तो वे जानेंगे कि यह परमेश्वर का प्रेम और उत्थान है, और परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना लोगों के लिए परमेश्वर की महान देखभाल और सुरक्षा है, और परमेश्वर का उद्धार है।) क्या यह कथन सही है? (हाँ।) अगर तुम स्पष्ट रूप से न्याय और ताड़ना को नहीं देख पाते हो, तो तुम्हारे दिल में विरोध और शिकायतें उत्पन्न होंगी, और तुम शैतानी फलसफे वाले वाक्यांश “अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना” का अभ्यास करोगे, और मन में सोचोगे, “ओह नहीं, मुझे अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना चाहिए, और यू राज्य के राजा गौजियान की मानसिकता अपनानी चाहिए।” फिर, तुम खुद को आगे बढ़ने के लिए उकसाने और खुद को प्रेरित करने के लिए अपनी मेज के सबसे ऊपर “अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना” शब्दों को उकेरोगे, और तुम इसे अपना आदर्श वाक्य बना लोगे। क्या यह परेशानी का कारण नहीं है? माना कि आज की संगति के बाद तुम लोग यकीनन ऐसा नहीं करोगे, लेकिन क्या तुम लोग दूसरे वाक्यांशों को अपना उसूल बना लोगे, जैसे कि यह वाक्यांश जिसका मैंने गहन-विश्लेषण नहीं किया है, “अपना प्रकाश छिपाओ और अँधेरे में शक्ति जुटाओ”? क्या इसकी प्रकृति ठीक वैसी ही नहीं है? ये चीजें पारंपरिक चीनी संस्कृति का भाग हैं। क्या ये चीजें शैतान के जहर हैं? ये सभी शैतान के जहर हैं; ये सभी सांसारिक आचरण के शैतानी फलसफे हैं।
इससे पहले, जब मैं चीन की मुख्यभूमि की कलीसियाओं में कार्य करता था, यह तब की बात है जब मैंने हाल ही में अपना कार्य शुरू किया था, परमेश्वर के घर ने कुछ भाई-बहनों की साक्षरता सुधारने की व्यवस्था की। उस समय हालत क्या थी? वहाँ कुछ लोग बुजुर्ग थे और कुछ लोग ऐसे थे जो बहुत दूर-दराज के इलाकों में रहते थे। उनकी शिक्षा का स्तर अपेक्षाकृत कम था और वे अच्छी तरह से पढ़ नहीं पाते थे। मिसाल के तौर पर, परमेश्वर के वचन “कम काबिलियत,” “परमेश्वर का स्वभाव,” “परमेश्वर का इरादा,” और दूसरे निश्चित शब्दों के बारे में बात करते हैं, लेकिन वे यह नहीं समझते या जानते थे कि इनका अर्थ क्या है। बाद में, परमेश्वर के घर ने भाई-बहनों से कहा कि वे खाली समय में अपनी साक्षरता सुधारने का प्रयास कर सकते हैं, और उन्हें कम से कम यह पता तो होना ही चाहिए कि कुछ निश्चित वाक्यांशों, शब्दावली और संज्ञाओं का अर्थ क्या है। नहीं तो, जब वे परमेश्वर के वचन पढ़ेंगे तो उन्हें शब्दों और वाक्यांशों का अर्थ ही समझ नहीं आएगा, तो वे परमेश्वर के वचन कैसे समझ पाएँगे? और अगर वे परमेश्वर के वचन नहीं समझ पाए तो वे सत्य का अभ्यास कैसे कर पाएँगे? इसके बाद, भाई-बहनों ने ये चीजें सीखने के लिए मेहनत करनी शुरू कर दी। यह अच्छी बात है, लेकिन विकृत समझ वाले कुछ लोगों ने इस स्थिति का फायदा उठाया। कुछ अगुआओं ने सभाओं के दौरान साक्षरता में सुधार करने के महत्व के बारे में और इस बारे में खास तौर पर बात की कि भाई-बहनों को कैसे साक्षर बनना चाहिए, साक्षरता के क्या फायदे हैं और अगर वे साक्षर नहीं हुए तो क्या होगा। उन्होंने ऐसे ढेरों सिद्धांतों के बारे में बात की। ये चीजें सत्य नहीं हैं, और इनके बारे में बहुत ज्यादा बात करने की कोई जरूरत नहीं है। जैसे ही कोई ये चीजें कहता है तो लोग उन्हें समझ जाते हैं; सभाओं में उन पर ऐसे संगति करने की कोई जरूरत नहीं होती है कि मानो वे सत्य हों। कुछ अगुआओं ने सभाओं के दौरान ना सिर्फ बहुत सारा समय इन चीजों पर ऐसे संगति करने में लगा दिया कि मानो वे सत्य हों, बल्कि उन्होंने एक नई तरकीब भी ढूँढ़ निकाली और भाई-बहनों की खास तौर पर उन शब्दों पर परीक्षा ली जिनका उपयोग शायद ही कभी किया जाता है। अगर भाई-बहन उत्तर नहीं दे पाए तो क्या इससे वे अगुआ उच्च शिक्षित के रूप में नहीं दिखे? उस दौरान वहाँ कुछ झूठे अगुआ मौजूद थे, जिन्होंने वास्तविक कार्य नहीं किया—उन्होंने जीवन के अनुभवों, सत्य या परमेश्वर के वचनों पर संगति नहीं की, बल्कि उन्होंने सिर्फ साक्षरता पर संगति की। इसे क्या कहते हैं? इसे अपना उचित कार्य नहीं करना कहते हैं। क्या यह कोई समस्या नहीं है? (हाँ, है।) मैं इस मुद्दे पर क्यों बात कर रहा हूँ? इससे तुम लोगों का क्या फायदा है? क्या तुम लोग इस किस्म की चीज करने में समर्थ हो? क्या कोई ऐसा है जो इस तरह से कार्य करने की योजना बनाता है? अगर तुम लोग इस तरह से कार्य करते हो तो तुम लोग सच में भ्रमित लोग हो! ऐसे कुछ लोग हैं जो मुझे इन मुहावरों के बारे में बात करते हुए देखते हैं, और वे कार्रवाई करने के लिए उद्यत होते हैं और तैयारी करना शुरू कर देते हैं, और कहते हैं, “पता चला है कि सत्य पर संगति करना बहुत ही आसान है। बस मुहावरों पर संगति करना ही काफी है। तुम मुहावरों पर संगति करो, और मैं वक्रोक्तियों, बोलचाल के शब्दों, कहावतों और सुक्तियों पर संगति करूँगा।” क्या यह अपना उचित कार्य न करना नहीं है? (हाँ, है।) ये किस किस्म के लोग हैं? क्या उन्हें आध्यात्मिक समझ है? (नहीं है।) उन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं है और वे सत्य नहीं समझते हैं। वे क्या सोचते हैं? “जब तुम्हारे पास करने को कुछ नहीं होता है, तो तुम वहाँ बैठकर बकबक करते हो और हमें दो-चार मुहावरे सुनाकर उल्लू बनाते हो। अगर मैं तुम्हारे तरीके अपनाता तो मैं भी संगति कर सकता था!” जिन लोगों को आध्यात्मिक समझ नहीं होती है, वे चीजों को सिर्फ ऊपरी तौर पर देखते हैं और आँख मूंदकर मेरी नकल करते हैं। इन अगुआओं को इस व्यवहार की नकल करने के लिए बर्खास्त कर देना चाहिए, और जो कोई भी उनकी तरह करता है उसे भी बर्खास्त कर देना चाहिए। मैं इस बारे में क्यों बात कर रहा हूँ? इससे पहले कि तुम लोग ऐसा व्यवहार करने लगो, मैं तुम लोगों का ध्यान इस तरफ खींच रहा हूँ, ताकि तुम गलत रास्ते पर न चल पड़ो। मैं इन चीजों के बारे में बात कर सकता हूँ, लेकिन अगर तुम इनके बारे में बात करते हो, तो क्या तुम इसे समझने लायक तरीके से कर सकते हो? तुम नहीं कर सकते हो। तो, मैं इन कहावतों और मुहावरों के बारे में क्यों बात करता हूँ? मैं किस शर्त पर इनके बारे में बात करता हूँ? जब लोग सत्य की अवधारणा और परिभाषा समझते हैं, और फिर अगर मैं उस आधार पर और गहराई में जाता हूँ और उन चीजों का गहन-विश्लेषण करता हूँ जिन्हें लोग सत्य मानते हैं, तो लोग इसे नहीं समझ पाते हैं; उन्हें यह नहीं पता होता है कि उन्हें इस पर कैसे चिंतन करना चाहिए, और उन्हें यह नहीं मालूम होता है कि उन्हें इसे किन दूसरी चीजों से जोड़ना चाहिए। चूँकि तुम लोग यह नहीं समझते हो इसीलिए मैंने तुम लोगों को मुहावरों के बारे में कुछ कहानियाँ सुनाई हैं। यह जरूरी था। कुछ लोग सोचते हैं कि जब सत्य की बात आती है, तो वे विश्वविद्यालय स्तर पर हैं, और हैरान होते हैं कि वे अब भी इन प्राथमिक विद्यालय के पाठ्यक्रमों को क्यों दोहरा रहे हैं। वे यह नहीं समझ पाते हैं कि यह प्राथमिक कक्षा नहीं है, यह तो पहले से ही विश्वविद्यालय की कक्षा है। तुम लोग अभी तक विश्वविद्यालय में नहीं पहुँचे हो; तुम हमेशा प्राथमिक विद्यालय में ही रहे हो, लेकिन तुम्हें लगता है कि तुम विश्वविद्यालय में पहुँच गए हो, और तुम अपने बारे में अच्छा महसूस करते हो। दुर्भाग्यवश, यह भावना गलत है; यह एक गलत भावना है—तुम लोग अभी भी विश्वविद्यालय पहुँचने से बहुत दूर हो। इसलिए, मैं तुम लोगों को फिर से याद दिलाता हूँ : मैंने अभी-अभी जिन चीजों के बारे में बात की, उन्हें मत करो। तुम जो चीजें समझते हो, उन पर ईमानदारी से संगति करो, और अगर तुम नहीं समझते हो, तो बकवास मत करो। सत्य पर संगति करना बकबक नहीं है; किसी के पास तुम्हारी बकबक सुनने के लिए फालतु समय नहीं है। आँख मूँदकर मेरी नकल मत करो, और यू राज्य के राजा गौजियन, या आधुनिक इतिहास या प्राचीन इतिहास के बारे में बात मत करो, क्योंकि मैंने अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोने और पित्त चाटने के बारे में बात की। उन चीजों के बारे में बात करने का क्या फायदा है? क्या लोग उन्हें सुनने के इच्छुक हैं? भले ही लोग सुनने के इच्छुक हों, लेकिन वे बातें सत्य नहीं हैं।
अभी-अभी, मैंने इस बारे में बात की कि कैसे परमेश्वर में विश्वास रखने वाले और उसका अनुसरण करने वाले लोगों को अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने की जरूरत नहीं है, अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने का अभ्यास करने की तो बात ही छोड़ दो। ऐसे “अच्छे” वाक्यांश और “महान” मानसिकता का अभ्यास क्यों नहीं किया जा सकता है? समस्या कहाँ है? अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने की मानसिकता क्यों नहीं रखी जा सकती? धर्म-सिद्धांत के लिहाज से कहें, तो ऐसा इसलिए है क्योंकि अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना सत्य नहीं है; यह वाक्यांश परमेश्वर द्वारा नहीं बोला गया; यह मानवजाति से परमेश्वर की अपेक्षा नहीं है, ना ही यह क्रियाकलाप का कोई सिद्धांत है जो उसने उसका अनुसरण करने वाले लोगों को दिया। मैं यह क्यों कहता हूँ कि यह वाक्यांश सत्य नहीं है और अभ्यास का सिद्धांत नहीं है? सबसे पहले, आओ अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने में “अपमान” शब्द को देखें। “अपमान” का क्या अर्थ है? तिरस्कार और शर्मिंदा होना। तो जब लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और परमेश्वर उनके भाग्य पर संप्रभु है, तो परमेश्वर के प्रति समर्पण करके क्या वे अपमानित हो रहे हैं? क्या वे तिरस्कार सह रहे हैं? (नहीं।) क्या लोगों को सहने और यह कहने की जरूरत है, “परमेश्वर के प्रति समर्पण प्राप्त करने के लिए, मुझे अपने दिल की आग को दबाना होगा, अपने दिल के गुस्से को दबाना होगा, अपने दिल की शिकायतों को दबाना होगा, और अपने दिल की असंतुष्ट भावना को दबाना होगा। मुझे इसे सहना चाहिए और उफ तक नहीं करना चाहिए। मेरे लिए, ये सभी चीजें अपमान हैं, इसलिए मैं उन्हें दबा दूँगा”? क्या ऐसा करके वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं? (नहीं।) वे किसका अभ्यास कर रहे हैं? विद्रोहीपन, झूठ और दिखावे का। सत्य का अभ्यास प्राप्त करने के लिए, और सत्य के प्रति समर्पण प्राप्त करने के लिए और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण प्राप्त करने के लिए, पहली चीज जो तुम्हें करनी होगी वह है किसी भी तरह का दर्द नहीं सहना, और तुम्हें किसी भी तरह का तिरस्कार सहने की जरूरत नहीं है। परमेश्वर के पास जो संप्रभुता है और तुम्हारे लिए जो व्यवस्थाएँ हैं और उसकी तुमसे जो अपेक्षाएँ हैं, क्या वे अपमान हैं? (नहीं।) वह तुम्हें अपमानित नहीं कर रहा है। परमेश्वर तुम्हें उजागर करके, तुम्हारा न्याय करके, तुम्हे ताड़ना देकर, तुम्हारा परीक्षण करके और तुम्हारा शोधन करके तुम्हें अपमानित नहीं कर रहा है। बल्कि, जिस समय वह तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों के खुलासों को उजागर कर रहा है, उसी समय वह तुम्हें खुद को समझने के लिए भी कह रहा है, तुम्हें उन्हें छोड़ देने और उनके खिलाफ विद्रोह करने के लिए भी कह रहा है, और फिर परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करने के लिए भी कह रहा है। इससे क्या प्रभाव प्राप्त होगा? तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकोगे, सत्य समझ सकोगे, परमेश्वर को खुश करने वाले व्यक्ति बन सकोगे, और ऐसे व्यक्ति बन सकोगे जिसे परमेश्वर स्वीकार करता है। इसलिए, तुम इन चीजों को प्राप्त करने की प्रक्रिया और समयावधि के दौरान जिन चीजों से गुजरते हो, क्या उनमें से कोई भी चीज तिरस्कार है? क्या ऐसी कोई चीज है जिसमें परमेश्वर तुम्हें अपमानित कर रहा है? (नहीं।) जब परमेश्वर तुम्हें उजागर करता है, मिसाल के तौर पर, जब वह तुम्हारे घमंड, दुष्टता, धोखेबाजी, अड़ियलपन या क्रूरता को उजागर करता है, तो क्या इनमें से कुछ ऐसा है जो तथ्य नहीं है? (नहीं।) वे सभी तथ्य हैं। परमेश्वर तुम्हें जिन वचनों से उजागर करता है, तुमसे जो वचन कहता है, उनका ढंग चाहे कैसा भी हो, वे सभी तथ्य हैं। चाहे लोग इसे पहचानने में समर्थ हों या नहीं हों, और चाहे लोग इसे कितना भी समझने और स्वीकार करने में समर्थ हों, ये सभी चीजें तथ्य हैं। ये बेबुनियाद नहीं हैं, और ना ही ये अतिशयोक्ति हैं, और यकीनन ये तुम्हें फँसाने के लिए नहीं हैं। तो क्या ये चीजें तुम्हें अपमानित करने के लिए हैं? (नहीं।) ये ना सिर्फ तुम्हें अपमानित करने के लिए नहीं हैं, बल्कि कुकर्मियों के मार्ग पर नहीं चलने, और शैतान का अनुसरण नहीं करने के एक संकेत और चेतावनी के रूप में भी हैं, ये तुम्हें जीवन में उचित मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करने के लिए हैं। इन चीजों का तुम पर जो परिणाम और प्रभाव पड़ता है, वह सकारात्मक है। परमेश्वर के इन क्रियाकलापों की प्रकृति पूरी तरह से उचित है। वह ये चीजें तुम्हें बचाने के लिए कर रहा है, और ये पूरी तरह से सत्य के अनुरूप हैं। यही वह कष्ट है जिसे लोगों को सहना चाहिए, और यही वह कष्ट है जिसे उन्हें अपने भ्रष्ट स्वभावों को छोड़ देने, परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट करने और एक सच्चा सृजित प्राणी बनने के लिए सहना चाहिए। लोगों का रवैया इस कष्ट को एक तिरस्कार के रूप में सहने के बजाय खुद आगे बढ़कर इसे स्वीकार करने का होना चाहिए। यह कष्ट अपमान नहीं है, यह उपहास नहीं है, और यह लोगों पर कटाक्ष नहीं है, परमेश्वर द्वारा लोगों को चिढ़ाने की तो बात ही छोड़ दो। यह कष्ट केवल इसलिए होता है क्योंकि लोगों के स्वभाव भ्रष्ट हैं, वे परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करते हैं, और वे सत्य से प्रेम नहीं करते हैं। लोगों में यह दर्द परमेश्वर के वचनों और परमेश्वर की लोगों से अपेक्षाओं के कारण उत्पन्न होता है, तो क्या इस दर्द का कोई भाग ऐसा है जो परमेश्वर जानबूझकर लोगों को देता है या उन्हें अतिरिक्त रूप से देता है, और जिसे उन्हें नहीं सहना चाहिए? ऐसा कुछ भी नहीं है। इसके विपरीत, अगर लोग इस दर्द को बहुत कम सहते हैं, तो वे अपने भ्रष्ट स्वभावों को छोड़ नहीं सकते। चाहे लोगों के विद्रोही स्वभाव कितने भी गंभीर क्यों ना हों, और चाहे लोग परमेश्वर द्वारा उनके भ्रष्ट स्वभावों को उजागर किए जाने पर इसे मानने और स्वीकार करने में कितने भी समर्थ क्यों ना हों, अंत में, परमेश्वर लोगों को जो देता है वह अपमान नहीं है, और लोग जो सहते हैं वह तिरस्कार नहीं है। बल्कि, यह वह है जिसे लोगों को सहना चाहिए; यह वह दर्द है जिसे शैतान द्वारा बहुत ज्यादा भ्रष्ट किए गए व्यक्ति को सहना चाहिए; लोगों को यह दर्द सहना चाहिए। मैं क्यों कहता हूँ कि उन्हें इसे सहना चाहिए? क्योंकि लोग परमेश्वर के प्रति बहुत ज्यादा विद्रोही हैं और वे शैतान बन गए हैं। अगर लोग इन भ्रष्ट स्वभावों को छोड़ना चाहते हैं और परमेश्वर के उद्धार को स्वीकार करना चाहते हैं, तो उन्हें यह कष्ट सहना चाहिए। यह पूरी तरह सही और उचित है; यह एक ऐसा मार्ग है जिससे लोगों को गुजरना चाहिए, और यह एक ऐसा कष्ट है जिसे उन्हें सहना चाहिए। यह कष्ट उन्हें परमेश्वर नहीं दे रहा है। यह बात वैसी ही है जैसे ठंडा पानी पीने के बाद तुम्हारा पेट खराब हो जाता है। इसके लिए कौन दोषी है? ठंडा पानी? (नहीं।) यह कष्ट तुम पर कौन लेकर आया? (हम लेकर आए।) तुम खुद ही यह कष्ट अपने ऊपर लेकर आए। यह परिणाम और यह प्रक्रिया जिसे लोग सहते हैं, उनकी अपनी करनी है; इसमें कोई कहने लायक अपमान या तिरस्कार नहीं है। कुछ लोग इसे इस तरह से नहीं समझते हैं; वे सत्य स्वीकार नहीं करते हैं। वे क्या सोचते हैं? “परमेश्वर के घर ने मुझे अगुआ बनने दिया; उसने इस पद के लिए मेरी सिफारिश की, और मैंने अगुआ के रूप में अपना कार्य खुशी-खुशी पूरा किया है। मैंने कभी नहीं सोचा था कि परमेश्वर का घर मुझे मेरा कार्य ठीक से नहीं करने और गलतियाँ करने के लिए बर्खास्त कर देगा। मैं क्या बन गया हूँ? क्या अब भी मुझमें ईमानदारी और गरिमा है? क्या अब भी मेरे पास कोई मानवीय स्वतंत्रता है? क्या अब भी मेरे पास स्वायत्तता है?” वे सोचते हैं कि लोगों को इस मामले में बिना किसी विकल्प के परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण नहीं करना चाहिए, और अगर लोग पूरी तरह से समर्पण करते हैं, तो वे बेवकूफ और गरिमाहीन लोग हैं, और वे बहुत ज्यादा कमजोर और व्यथित ढंग से जीते हैं। इसलिए, इस प्रकार का व्यक्ति सोचता है कि जब लोग न्याय, ताड़ना और काट-छाँट करने को स्वीकार कर लेते हैं, तो उन्हें अपमान सहना ही चाहिए, जैसे कि कहावत है, “जब कोई व्यक्ति कम ऊँचे छज्जे के नीचे खड़ा होता है, तो उसके पास अपना सिर नीचा करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता है।” देखो, यह एक और शैतानी फलसफा है। यह प्रसिद्ध वाक्यांश उसे उसका सिर नीचा करने पर मजबूर कर देता है। वह क्या सोच रहा है? क्या वह खुशी से समर्पण कर रहा है, या अपमान सह रहा है और भारी दायित्व उठा रहा है? (दूसरी बात सही है।) उसे लगता है कि वह अपमान सह रहा है और भारी दायित्व उठा रहा है। वह खुशी से समर्पण नहीं कर रहा है। उसका समर्पण खुशी से नहीं किया गया है, और यह खरा नहीं है। बल्कि, उसके पास समर्पण करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है। इसलिए वह इस विकल्प के अभाव को एक तरह के अपमान के रूप में देखता है। चूँकि इस किस्म का व्यक्ति इस तरीके से सोच सकता है, तो क्या वह परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पण करने का अभ्यास करने को सत्य का अभ्यास करना मानता है? नहीं। वह समर्पण करने को सत्य नहीं मानता है। इसके बजाय, वह अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने को सत्य मानता है। क्या इन चीजों की प्रकृति अलग-अलग नहीं है? (हाँ, है।) वैसे तो जो लोग खुशी से समर्पण करते हैं और जो लोग अपमान सहते हैं और भारी दायित्व उठाते हैं, दोनों ही समर्पण करते हैं, और वैसे तो इनमें से कोई भी मुश्किल खड़ी नहीं करता है या प्रतिरोध नहीं करता है, और बाहर से वे दोनों ही आज्ञाकारी, शिष्ट और अच्छे प्रतीत होते हैं, फिर भी ये चीजें प्रकृति के लिहाज से अलग-अलग हैं। जो लोग सच्चाई से समर्पण करते हैं, वे समर्पण करने को अपनी जिम्मेदारी, कर्तव्य और दायित्व मानते हैं; वे इसे अपना परम कर्तव्य और सत्य मानते हैं। भले ही सच्चाई से समर्पण नहीं करने वाले लोग बाहरी रूप से विरोध नहीं करते हों, लेकिन उन्हें अपने दिल में लगता है कि वे अपमान सह रहे हैं और भारी दायित्व उठा रहे हैं, और उनकी नजर में, अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना सर्वोच्च सत्य है। वे अपमान सहने को सत्य का अभ्यास करना मानते हैं, और वे समर्पण करने को क्या मानते हैं? वे इसे सत्य का अभ्यास करना नहीं, बल्कि अपमान सहना मानते हैं। क्या यह उल्टे क्रम में नहीं है? इसे क्या कहते हैं? (उन्होंने इसे उल्टा कर दिया है।) उन्होंने इसे उल्टा कर दिया है। वे सत्य को सांसारिक आचरण के फलसफे मानते हैं; वे धर्म-सिद्धांत और मनुष्य के सांसारिक आचरण के फलसफे को सत्य मानते हैं। क्या यह काले और सफेद का उलटफेर नहीं है? (हाँ, है।) यह काले और सफेद का उलटफेर है। तो इस समस्या को कैसे सुलझाना चाहिए? लोगों को यह समझना चाहिए कि वे जो कष्ट सहते हैं, वह अपमान नहीं है, ना ही इसके द्वारा कोई उन्हें अपमानित करने का प्रयास कर रहा है। तो लोगों को जो कष्ट सहना पड़ता है, उसका क्या कारण है? (लोगों का भ्रष्ट स्वभाव।) सही कहा। अगर तुम्हारे स्वभाव भ्रष्ट नहीं होते, और तुम सत्य समझते, परमेश्वर के प्रति समर्पण कर पाते, परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति पूरी तरह से समर्पण कर पाते, और परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रह पाते, तो तुम्हें यह कष्ट नहीं सहना पड़ता। इसलिए, यह अपमान कहीं नहीं है। तुम समझ रहे हो, है ना?
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