प्रकरण एक : सत्य क्या है (खंड दो)

II. “अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना” के विचार का गहन-विश्लेषण

आओ, हम एक और कहावत के बारे में बात करें, “अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना।” कौन बता सकता है कि इसका अर्थ क्या है? (“अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना” कहावत में सूखी लकड़ी का अर्थ जलाने की लकड़ी है और पित्त का मतलब एक पित्ताशय की थैली है। इसमें यह जिक्र है कि यू साम्राज्य का राजा गौज्यान कैसे जलाने की लकड़ी के ढेर पर सोया करता था और हर दिन एक पित्ताशय की थैली को चाटा करता था और कैसे वह बदला लेना चाहता था, अपनी पराजय से उबरकर अपने राज्य को फिर से पाना चाहता था।) तुमने इस कहावत की पृष्ठभूमि को समझाया है जिससे यह पता चलता है कि यह कहावत किस कहानी से निकली है। आमतौर पर किसी कहावत की व्याख्या करते समय उसकी पृष्ठभूमि बताने के अलावा तुम्हें उसका विस्तृत अर्थ भी समझाना पड़ता है—आधुनिक समय में उपयोग के लिए इस रूपक का लोगों के लिए क्या अर्थ है। इसे फिर से समझाओ। (यह एक ऐसे व्यक्ति के बारे में एक रूपक कथा है जो मुसीबत का सामना करता है और जो अपने लक्ष्यों और अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए संघर्ष और कड़ी मेहनत करता है।) तो फिर इस संदर्भ में “सूखी लकड़ी” और “पित्ताशय” को कैसे समझना चाहिए? बात यह है कि तुमने अर्थ के इन दो पहलुओं की व्याख्या नहीं की। अगर शब्दों को देखें तो, “सूखी लकड़ी” का संबंध एक प्रकार की कँटीली जलाऊ लकड़ी से है; वह जलाने की कँटीली लकड़ी पर सोता था, फिर बार-बार स्वयं को अपनी परिस्थितियों और अपमान की याद दिलाता रहता था, और बार-बार स्वयं को उस मिशन की याद दिलाता था जो उसने अपने कंधे पर उठाया था। इसके अलावा, उसने छत से एक पित्ताशय की थैली लटका रखी थी और रोज इसे चाटता था। कोई पित्ताशय की थैली को चाटे तो कैसा स्वाद आता है? (कड़वा।) यह तो बहुत कड़वा होगा! उसने इस एहसास का उपयोग खुद को यह याद दिलाने के लिए किया कि वह अपनी नफरत भूल न जाए, अपना मिशन भूल न जाए और अपनी इच्छा न भूल जाए। उसकी इच्छा क्या थी? अपने राज्य को पुनर्स्थापित करने का महान कार्य। अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोने और पित्त चाटने की उसकी इच्छा आमतौर पर किसका रूपक है? यह सामान्यतः एक ऐसे व्यक्ति का रूपक है जो दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति में है लेकिन जो अपने मिशन और इच्छाओं को नहीं भूलता, और जो अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं और मिशन के लिए कीमत चुकाने में समर्थ है। इसका मतलब मोटे तौर पर यही है। संसारी लोगों की दृष्टि में “अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना” वाली कहावत सकारात्मक है या नकारात्मक? (यह एक सकारात्मक कहावत है।) इसे सकारात्मक कहावत क्यों माना जाता है? यह मुश्किलों से घिरे लोगों को अपनी नफरत को न भूलने, अपने अपमान को न भूलने और कठोर परिश्रम करने और मजबूत बनने का प्रयास करने के लिए प्रेरित कर सकती है। यह अपेक्षाकृत रूप में एक प्रेरणादायक कहावत है। संसारी लोगों की नजरों में यह निस्संदेह एक सकारात्मक कहावत है। यदि लोग इस कहावत के अनुसार कार्य करते हैं तो निस्संदेह उनके द्वारा की जाने वाली चीजें, चीजें करने हेतु उनकी प्रेरणा, चीजें करने के उनके तरीके और जिन सिद्धांतों का वे पालन करते हैं, वे सब सही और सकारात्मक हैं। ऐसा कहने से इस कहावत में मौलिक रूप से कुछ भी गलत नहीं है, तो हम इस कहावत को अपने सामने लाकर किस बात का गहन-विश्लेषण करना चाहते हैं? हम कहना क्या चाहते हैं? (हम उन तरीकों का गहन-विश्लेषण करना चाहते हैं जिनमें यह कहावत सत्य के विपरीत जाती है।) सही कहा, हम यह भेद करना चाहते हैं कि यह सत्य है या नहीं। चूँकि यह कहावत इतनी “सही” है, इसलिए यह हमारे लिए गहन-विश्लेषण और सत्यापन करने योग्य है कि यह किस तरह से “सही” है। तब हमारे पास इसकी एक सटीक परिभाषा होगी और हम देख पाएँगे कि यह वास्तव में सत्य है या नहीं। यही वह अंतिम नतीजा है जिसे हम प्राप्त करना चाहते हैं। “अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना” यह कहावत एक उत्तरजीविता का नियम है जिस पर लोग विशेष परिस्थितियों में कायम रहते हैं। आओ, हम पहले निश्चित हो लें—क्या यह कहावत सत्य है? (नहीं।) हमें यह कहकर शुरुआत नहीं करनी चाहिए कि यह सत्य है या नहीं। लोगों को समझ में आने वाले इसके शाब्दिक अर्थ में इस कहावत का कोई नकारात्मक अर्थ नहीं है। तो फिर, इसका सकारात्मक अर्थ क्या है? यह लोगों को प्रेरित कर सकती है, उन्हें दृढ़ संकल्प दे सकती है, उनके लड़ते रहने का कारण बन सकती है, पीछे हटने, हतोत्साहित होने और कायर बनने का नहीं। एक पहलू में इसका सकारात्मक उपयोग है। तो फिर किन परिस्थितियों में लोगों के लिए यह जरूरी है कि वे इस कहावत में निहित स्व-आचरण और काम करने के सिद्धांतों का पालन करें? क्या जिन सिद्धांतों का यह कहावत समर्थन करती है उनके और परमेश्वर में विश्वास के बीच कोई संबंध है? क्या सत्य का अभ्यास करने के साथ इसका कोई संबंध है? क्या अपना कर्तव्य निभाने के साथ इसका कोई संबंध है? क्या परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करने के साथ इसका कोई संबंध है? (नहीं।) तुम इतनी जल्दी निष्कर्ष पर पहुँच गए? तुम लोग कैसे जानते हो कि कोई संबंध नहीं है? (परमेश्वर के वचन ऐसा नहीं कहते हैं।) यह कहना तो अत्यधिक सरल और गैर-जिम्मेदाराना बात है। जब तुम समझ नहीं पाते हो और कहते हो, “वैसे भी, यह परमेश्वर के वचनों में नहीं है और मुझे नहीं पता कि इस कहावत का क्या अर्थ है, इसलिए मुझे यह नहीं सुननी है। चाहे यह जो भी कहे, मुझे इस पर विश्वास नहीं करना है,” ऐसा कहना एक गैर-जिम्मेदाराना बात है। तुम्हें इसे गंभीरता से लेना चाहिए। एक बार यदि तुम इसे गंभीरता से ले लेते हो, इसे अच्छी तरह से समझ लेते हो और इसका भेद अच्छी तरह जान लेते हो, तो तुम इस कहावत को कभी भी सत्य नहीं मानोगे। फिलहाल, मैं तुमसे इस कहावत के सही होने से इनकार नहीं करवा रहा हूँ; बल्कि, मैं तुम लोगों को समझा रहा हूँ कि यह कहावत सत्य नहीं है, और तुम्हें दिखा रहा हूँ कि वे कौन-से सत्य हैं जिन्हें तुम्हें समझना चाहिए और ऐसी ही परिस्थितियों में तुम्हें सत्य को कैसे कायम रखना चाहिए। क्या तुम समझते हो? तो, मुझे बताओ कि तुम लोगों की समझ क्या है। (अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना वाली कहावत का अर्थ यह है कि लोगों को दुर्भाग्य के दौर में किस तरह से अभ्यास करना चाहिए, परन्तु परमेश्वर के घर में “दुर्भाग्य” शब्द का अस्तित्व ही नहीं है। जब परमेश्वर लोगों को उजागर करता है या उन्हें परीक्षणों से गुजारता है, तो यह सब परमेश्वर द्वारा उन्हें पूर्ण बनाने की प्रक्रिया का एक भाग होता है—यह दुर्भाग्य नहीं होता। यह कहावत लोगों को बताती है कि उन्हें इस समय में सहन की गई कठिनाई को याद रखना चाहिए और अपनी खोई हुई कुछ स्थिति भविष्य में हासिल कर लेनी चाहिए। यह अभिव्यक्ति परमेश्वर के घर में लागू नहीं होती है। मैं एक उदाहरण दूँगा जो थोड़ा-सा अनुचित है : बर्खास्त कर दिए जाने के बाद कुछ अगुआ खुद को प्रेरित करने के लिए “अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना” वाले वाक्यांश का उपयोग करते हैं, और कहते हैं, “मैं यू राज्य के राजा गौज्यान से सीखूँगा और अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोऊँगा और पित्त चाटूँगा। एक समय आएगा जब मैं अपने पुराने पद को वापस प्राप्त कर लूँगा और फिर से एक अगुआ बन जाऊँगा। तुम लोग देखोगे! तुम सब मेरी आलोचना करते हुए कहते हो कि मैं इस मामले में खराब हूँ, उस मामले में खराब हूँ। जो मैंने खोया है उसे एक दिन पुनः प्राप्त करूँगा और तुम लोगों को दिखाऊँगा कि मैं वास्तव में किस मिट्टी का बना हुआ हूँ। निश्चित रूप से एक दिन आएगा जब मैंने जो अपमान झेला है, उसके दाग साफ हो जाएँगे!”) यह एक बहुत अच्छा उदाहरण है। क्या इसने तुम लोगों को प्रबुद्ध किया है? क्या तुम लोगों का कभी ऐसा समय आया है जब तुमने अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना चाहा हो? क्या तुम कभी हारी हुई बाजी जीतने के बारे में सोचते हो? (हाँ। जब लोग मेरे विचारों को नकारते हैं तो मेरे मन में ये विचार आते हैं। उदाहरण के तौर पर, जब मैं भाई-बहनों के साथ कुछ बातों पर चर्चा कर रही होती हूँ और वे मेरे विचारों पर सवाल उठाते हैं तो मैं अपने दिल में विद्रोह महसूस करती हूँ और मैं सोचती हूँ, “एक दिन मुझे यह काम बहुत अच्छे से करके तुम लोगों को दिखाना होगा।” फिर, मैं जाती हूँ और कार्य के उस क्षेत्र को सीखने के लिए कठोर परिश्रम करती हूँ, लेकिन यह गलत मानसिकता है।) यह सत्य स्वीकारने, सत्य खोजने या सत्य का अभ्यास करने का रवैया नहीं है, बल्कि अवज्ञा और दूसरों के सामने कुछ साबित करना चाहने का रवैया है—यह हार न मानने का रवैया है। इस तरह के रवैये को मानवजाति के बीच सकारात्मक माना जाता है। कभी भी हार न मानना एक प्रकार का अच्छा मिजाज है, और इसका मतलब है कि व्यक्ति में दृढ़ता है, तो ऐसा क्यों कहा जाता है कि यह सत्य का अभ्यास करना नहीं है? ऐसा इसलिए है क्योंकि कार्यों को करते समय उनका रवैया और जो कुछ वे करते हैं उसके पीछे के सिद्धांत और प्रेरणाएँ सत्य पर आधारित नहीं होती हैं; बल्कि वे पारंपरिक संस्कृति की इस कहावत पर आधारित होती हैं “अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना।” यद्यपि कोई कह सकता है कि इस व्यक्ति की एक सुदृढ़ उपस्थिति है और जीतने की इच्छा रखने और हार न मानने की उसकी मानसिकता और उनका रवैया इस लौकिक संसार में लोगों से सम्मान हासिल करता है, सत्य के सामने इस तरह की मानसिकता और मिजाज क्या हैं? वे क्षुद्र और बहुत ही बुरे हैं; परमेश्वर द्वारा उनसे घृणा की जाती है। क्या किसी के पास साझा करने के लिए और कुछ है? (जब मैं कोई कर्तव्य निभाती हूँ तो, चूँकि मैं कार्य के उस क्षेत्र से परिचित नहीं होती हूँ, इसलिए मुझे लगता है कि लोग मुझे गंभीरता से नहीं लेते हैं। इसलिए मैं अपने दिल में चुपके से खुद को हिम्मत देती हूँ, “मुझे काम के इस क्षेत्र को अच्छी तरह से समझने और तुम लोगों को यह दिखा देने की जरूरत है कि मैं वास्तव में समर्थ हूँ।” कभी-कभी, जब लोग मेरे कर्तव्य में कमियाँ ढूँढ़ निकालते हैं तो मैं बदलने की कोशिश करती हूँ; मैं मुश्किलों का सामना करती हूँ और काम सीखने की कीमत अदा करती हूँ और चाहे मैं कितनी भी कठिनाई क्यों न झेलूँ, मैं उसे झेल लेती हूँ, लेकिन मैं यह नहीं खोज रही होती हूँ कि अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से कैसे करूँ; बल्कि, मैं चाहती हूँ कि वह दिन आए जब लोग अपनी नजरें उठाकर मुझे देखें और मुझे दूसरों से सम्मान मिले। मेरी स्थिति भी अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोने और पित्त चाटने जैसी होती है।) तुम सब लोगों ने जो साझा किया है, उसमें मैंने एक समस्या देखी है। तुम लोगों ने काफी वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया है, अपने परिवारों और पेशों को त्याग दिया है और तुमने कोई कम कठिनाई नहीं झेली है, फिर भी तुमने बहुत कम हासिल किया है। तुम लोग मुश्किलों को झेलने और अपने कर्तव्यों में स्वयं को खपाने में भी सक्षम हो और कीमत चुकाने में भी समर्थ हो, लेकिन तुम कभी सत्य में प्रगति क्यों नहीं करते हो? ऐसा क्यों है कि जिन सत्यों को तुम समझते हो वे बहुत ही कम और बहुत उथले हैं? इसका कारण यह है कि तुम लोग सत्य पर जोर नहीं देते हो। तुम लोग हमेशा अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना चाहते हो, और तुम लोगों के दिल खुद को साबित करने की चाहत से लबालब भरे हुए हैं। अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना एक “बड़ा फोड़ा” है—क्या तुम्हें लगता है कि यह एक अच्छी बात है? अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोने और पित्त चाटने का अंतिम नतीजा क्या होता है? जब कोई व्यक्ति यह साबित करना चाहता है कि वह सक्षम और योग्य है, कि वह दूसरों से कमतर नहीं है, और किसी से हार नहीं सकता है तो वह अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोएगा और पित्त चाटेगा। दूसरे शब्दों में, वह “सबसे महान इंसान बनने के लिए सबसे बड़ी कठिनाइयाँ सहनी होंगी।” तो अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना स्वयं में किस तरह से अभिव्यक्त होता है? इसके अभिव्यक्त होने का पहला तरीका है हार न मानना। दूसरा है, अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना। हो सकता है कि तुम दूसरों के साथ बहस करने, उनकी बात का खंडन करने या अपना पक्ष रखने के लिए किसी भी शब्द का उपयोग न करो, लेकिन तुम गुप्त रूप से कोशिश करते हो। किस तरह की कोशिश? यह वह कीमत हो सकती है जिसका तुम लोग भुगतान करते हो : देर तक जागकर, सुबह जल्दी उठ कर या परमेश्वर के वचनों को पढ़ कर और जब अन्य लोग मजे कर रहे हों तब अपने कार्य क्षेत्र के बारे में सीख कर, इस तरह अतिरिक्त प्रयास करते हो। क्या यह कठिनाई झेलना है? इसे अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना कहा जाता है। इसके अभिव्यक्त होने का तीसरा तरीका क्या है? यह बात उन लोगों में अभिव्यक्त होती है जिनके भीतर किसी तरह की बड़ी महत्वाकांक्षा होती है, और जो इस बड़ी महत्वाकांक्षा के कारण अपनी परेशानियों के बारे में शिकायत नहीं करते हैं। वे उन लक्ष्यों को कायम रखना चाहते हैं जो उन्होंने निर्धारित किए हैं और जिन्हें वे हासिल करना चाहते हैं और वे लड़ने के इस संकल्प को कायम रखना चाहते हैं। लड़ने का यह संकल्प क्या है? उदाहरण के लिए, यदि तुम एक अगुआ बनना चाहते हो या कोई काम पूरा करना चाहते हो तो तुम्हें अपने अंदर हमेशा यह मनःस्थिति कायम रखनी चाहिए; तुम्हें अपना संकल्प, अपना मिशन, अपनी महत्वाकांक्षाएँ और आकांक्षाएँ कभी नहीं भूलनी चाहिए। तुम एक ही वाक्य में इसका वर्णन कैसे करोगे? (कुछ करने की अपनी प्रारंभिक प्रेरणा को अपनी दृष्टि से ओझल मत होने दो।) कुछ करने की अपनी प्रारंभिक प्रेरणा को अपनी दृष्टि से ओझल नहीं होने देना सही तो है लेकिन यह पर्याप्त रूप से सशक्त नहीं है। (अपने हृदय में एक बड़ी महत्वाकांक्षा रखो।) यह बेहतर है। इसमें थोड़ी-सी इस आशय की भावना है। इन शब्दों को तुम अधिक सटीक और संक्षिप्त तरीके से कैसे कह सकते हो? (लड़ने का संकल्प और महत्वाकांक्षाएँ।) इसे पूरे शब्दों में कैसे कहोगे? कई जंग और कई नुकसान, लेकिन जितनी लंबी जंग, उतना ही अधिक साहसी होते जाना। यह लड़ने के लिए “कभी हार न मानने” का संकल्प है। यह तो वैसा ही है जैसा कुछ लोग कहते हैं, “बर्खास्त किए जाने के बाद तुम हतोत्साहित हो गए? मुझे कई बार बर्खास्त किया गया है लेकिन मैं कभी निराश नहीं हुआ। जब भी मैं किसी काम में असफल होता हूँ, तो मैं तुरंत पुनः प्रयास करता हूँ। हममें लड़ने का संकल्प होने की आवश्यकता है!” उन लोगों के परिप्रेक्ष्य में लड़ने का यह संकल्प एक सकारात्मक बात है। वे नहीं मानते कि जब लोगों में महत्वाकांक्षाएँ, आकांक्षाएँ और लड़ने का संकल्प होता है, तो यह कोई बुरी बात है। वे घमंड वाले भ्रष्ट स्वभाव से उत्पन्न इच्छाओं और निरंकुश महत्वाकांक्षाओं से कैसे पेश आते हैं? वे इन्हें सकारात्मक मानते हैं। इसलिए वे सोचते हैं कि जिस लक्ष्य की दिशा में वे लड़ रहे हैं और जिस लक्ष्य को वे सही मानते हैं, उसे पूरा करने के लिए, अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोने और पित्त चाटने की कठिनाई को झेलने में सक्षम होना सही काम है, कि लोग इसे अच्छा मानते हैं, और यही सत्य होना चाहिए। अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोने और पित्त चाटने की ये तीन अभिव्यक्तियाँ होती हैं। क्या ये तीन अभिव्यक्तियाँ अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोने और पित्त चाटने में निहित अर्थ की व्याख्या कर सकती हैं? (हाँ, ये कर सकती हैं।) तो फिर मैं इन तीन अभिव्यक्तियों पर विस्तार से संगति करूँगा।

क. हार न मानना

आओ, अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोने और पित्त चाटने की पहली अभिव्यक्ति—हार न मानना—से शुरुआत करते हैं। हार न मानना क्या होता है? आमतौर पर लोगों के पास कौन-सी अभिव्यक्तियाँ होती हैं जो साबित करती हैं कि उनमें हार न मानने की मानसिकता है? हार न मानना किस प्रकार का स्वभाव होता है? (घमंड और हठीलापन।) इसमें घमंड और हठीलेपन के दो स्पष्ट स्वभाव शामिल हैं। और क्या? (जीतने की चाहत।) क्या यह एक स्वभाव है? यह एक अभिव्यक्ति है। हम अभी स्वभाव के बारे में बात कर रहे हैं। (सत्य से विमुख होना।) सत्य से विमुख होने का निश्चित अर्थ यह है कि वे सत्य स्वीकार नहीं करते हैं। उदाहरण के लिए, यदि कोई अगुआ या कार्यकर्ता यह कहता है कि तुम जो कर रहे हो वह सिद्धांतों का उल्लंघन है और इससे परमेश्वर के घर के कार्य में विलंब हो रहा है, और वह तुम्हें बर्खास्त कर देना चाहता है, तो तुम सोचते हो, “हम्! मुझे नहीं लगता कि मैं जो कर रहा हूँ वह गलत है। यदि तुम मुझे बर्खास्त कर देना चाहते हो तो करो। अगर तुम मुझे ऐसा करने नहीं दोगे तो मैं नहीं करूँगा। मैं समर्पण करूँगा!” इस समर्पण के भीतर हार मानने से इनकार करने का एक रवैया है। यह एक स्वभाव है। घमंड, हठीलापन, और सत्य से विमुख होने के अलावा, इस स्वभाव में और क्या निहित होता है? क्या परमेश्वर से स्पर्धा करने की इच्छा का कोई स्वभाव है? (हाँ।) तो यह कौन-सा स्वभाव है? यह क्रूरता है। तुम लोग एक ऐसे स्वभाव तक को नहीं पहचान सकते हो जो इतना क्रूर है। मैं क्यों कहता हूँ कि यह क्रूर है? (क्योंकि यह परमेश्वर से प्रतिस्पर्धा करना चाहता है।) सत्य से प्रतिस्पर्धा करने की कोशिश को क्रूर कहा जाता है—यह तो बहुत ही क्रूर है! यदि वे क्रूर न होते, तो वे सत्य से प्रतिस्पर्धा करने की कोशिश नहीं करते, और परमेश्वर से प्रतिस्पर्धा करने या उसके साथ होड़ लगाने की कोशिश नहीं करते। यह एक क्रूर स्वभाव है। हार न मानने के भीतर घमंड, हठीलापन, सत्य से विमुख होना, और क्रूरता शामिल हैं। ये वो स्पष्ट स्वभाव हैं जिनसे यह जुड़ा हुआ है। हार न मानना कैसे अभिव्यक्त होता है? इसमें कौन-सी मानसिकताएँ शामिल हैं? जो लोग हार नहीं मानते, वे क्या सोचते हैं? उनका रवैया क्या होता है? वे क्या कहते हैं, क्या सोचते हैं, और जब वे बर्खास्त किए जाने जैसी चीजों का सामना करते हैं तो वे क्या प्रकट करते हैं? सबसे आम अभिव्यक्ति तब होती है जब वे कोई कर्तव्य करते हैं और ऊपरवाला देखता है कि वे इस कर्तव्य को करने के लिए उपयुक्त नहीं हैं और उन्हें बर्खास्त कर देता है, तब वे अपने दिल में बार-बार सोचते हैं, “मैं तुम्हारे बराबर नहीं हूँ। मैं तुमसे बहस नहीं करूँगा। मेरे पास प्रतिभा है। सच्चा सोना अंततः चमकता ही है, और मैं एक प्रतिभाशाली व्यक्ति हूँ चाहे मैं कहीं भी जाऊँ! इस बात की परवाह किए बिना कि ऊपरवाला मेरे लिए क्या व्यवस्था करता है, मैं इसे सहन कर लूँगा और फिलहाल उसकी बात मान लूँगा।” वे परमेश्वर के सामने भी आते हैं और प्रार्थना करते हैं, “हे परमेश्वर, मैं विनती करता हूँ तुम मुझे शिकायत करने से रोक लो। मैं यह प्रार्थना करता हूँ कि तुम मेरी जबान को थाम लो, और मुझे तुम्हारी आलोचना या ईशनिंदा करने से रोक लो, और मुझे समर्पण करने में सक्षम बना दो।” लेकिन वे फिर से मनन करते हैं, “मैं समर्पण नहीं कर सकता। यह सबसे कठिन काम है। मैं इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर सकता। मुझे क्या करना चाहिए? ये ऊपरवाले की व्यवस्थाएँ हैं; मैं कुछ भी नहीं कर सकता। मैं बहुत प्रतिभाशाली हूँ, लेकिन मैं कभी भी परमेश्वर के घर में अपनी प्रतिभा का उपयोग क्यों नहीं कर सकता? ऐसा लगता है कि अभी तक मैंने परमेश्वर के वचनों को पर्याप्त रूप से नहीं पढ़ा है। अब से मुझे परमेश्वर के वचनों को अधिक पढ़ना चाहिए!” वे हार नहीं मानते, और वे नहीं सोचते कि वे दूसरों से कम हैं, बात बस इतनी ही है कि उन्होंने थोड़े कम समय के लिए परमेश्वर में विश्वास किया है और इसकी भरपाई की जा सकती है। इसलिए, वे परमेश्वर के वचनों को पढ़ने और उपदेशों को सुनने में मेहनत लगाते हैं। वे एक नया भजन सीखते हैं और प्रतिदिन परमेश्वर के वचनों का एक अध्याय पढ़ते हैं, और उपदेश देने का अभ्यास करते हैं। धीरे-धीरे, वे परमेश्वर के वचनों से अधिकाधिक परिचित होते जाते हैं, वे बहुत सारे आध्यात्मिक सिद्धांतों पर उपदेश दे सकते हैं, और सभाओं में संगति करने हेतु बोल सकते हैं। क्या यहाँ हार न मानने की कोई दृढ़ इच्छाशक्ति है? (हाँ।) यह किस तरह की दृढ़ इच्छाशक्ति है? (एक दुष्ट इच्छाशक्ति।) यह तो परेशानी वाली बात है! ऐसा क्यों है कि जैसे ही हम इसका गहन-विश्लेषण करते हैं, तो तुम लोग तुरंत इसे एक दुष्ट इच्छाशक्ति के रूप में निरूपित कर देते हो? क्या ये अच्छी बातें नहीं हैं? उनका आध्यात्मिक जीवन सामान्य होता है; वे सांसारिक चीजों में भाग नहीं लेते हैं; वे गपशप नहीं करते; वे परमेश्वर के वचनों के कई अध्यायों को दोहराने में और अपनी याददाश्त से कई भजन गाने में समर्थ होते हैं। वे “कुलीन” हैं! फिर तुम क्यों कहते हो कि यह एक दुष्ट इच्छाशक्ति है? (उनका इरादा यह साबित करना है कि वे सक्षम हैं और दूसरों से कम नहीं हैं।) इसे ही हार न मानना कहते हैं। हार न मानकर, क्या वे वास्तव में खुद को समझ रहे हैं और अपनी समस्याओं को स्वीकार कर रहे हैं? (नहीं।) क्या वे अपनी भ्रष्टता और अपने घमंडी स्वभाव को पहचान रहे हैं? (नहीं।) फिर वे हार न मानकर क्या साबित कर रहे हैं? वे साबित करना चाहते हैं कि वे सक्षम और श्रेष्ठ हैं; वे साबित करना चाहते हैं कि वे दूसरों की अपेक्षा बेहतर हैं, और अंततः यह साबित करना चाहते हैं कि उन्हें बर्खास्त करना एक भूल थी। उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति इसी दिशा में लक्षित होती है। क्या हार न मानना यही है? (हाँ।) हार न मानने के इसी रवैये ने कष्ट सहन करने, कीमत चुकाने, अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने के क्रियाकलापों को उत्पन्न किया। सतही तौर पर, ऐसा लगता है कि वे बहुत कोशिश करते हैं, कठिनाई का सामना कर सकते हैं और एक कीमत चुका सकते हैं, और अंततः अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन ऐसा क्यों है कि परमेश्वर प्रसन्न नहीं होता? वह उनकी निंदा क्यों करता है? क्योंकि परमेश्वर लोगों के अंतरतम हृदयों की जाँच करता है और प्रत्येक व्यक्ति का सत्य के अनुसार मूल्यांकन करता है। परमेश्वर किस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के व्यवहार, इरादों, अभिव्यक्तियों, और स्वभावों का मूल्यांकन करता है? ये सभी बातों का सत्य के अनुसार मूल्यांकन किया जाता है। तो, परमेश्वर किस प्रकार इस मामले का मूल्यांकन करता है और इसे कैसे परिभाषित करता है? चाहे तुम लोगों ने कितनी भी कठिनाई झेली हो और तुमने कितनी ही बड़ी कीमत चुकाई हो, जब बात सत्य की आती है तो तुम सत्य की दिशा में प्रयास नहीं करते हो; तुम्हारा इरादा सत्य के प्रति समर्पण करने का या उसे स्वीकार करने का नहीं होता है; बल्कि, तुम कष्ट सहने और कीमत चुकाने के अपने तरीके का उपयोग यह साबित करने के लिए करते हो कि जिस तरह से परमेश्वर और परमेश्वर के घर ने तुम्हें निरूपित किया और जिस तरह से वे तुम्हारे साथ पेश आये, वह गलत था। इसका क्या मतलब होता है? तुम यह साबित करना चाहते हो कि तुम एक ऐसे व्यक्ति हो जो कभी कुछ गलत नहीं किया और जिसके पास कोई भ्रष्ट स्वभाव नहीं है। तुम यह साबित करना चाहते हो कि जिस तरह से परमेश्वर के घर ने तुम्हें सँभाला वह सत्य के अनुरूप नहीं था, और यह कि कभी-कभी सत्य और परमेश्वर के वचन गलत होते हैं। उदाहरण के लिए, जब तुम्हारी बात करें, तो वहाँ एक चूक हुई और कोई समस्या थी, और तुम्हारा मामला यह साबित करता है कि परमेश्वर के वचन सत्य नहीं हैं और तुम्हें समर्पण करने की आवश्यकता नहीं है। क्या परिणाम यही नहीं होता? (हाँ।) क्या परमेश्वर इस प्रकार के परिणाम का अनुमोदन करता है या वह इसकी निंदा करता है? (वह इसकी निंदा करता है।) परमेश्वर इसकी निंदा करता है।

क्या हार नहीं मानने वाला लोगों का यह रवैया सत्य के अनुरूप है? (नहीं।) अगर हम कहें कि यह रवैया सत्य के अनुरूप नहीं है, और यह तो सत्य से मीलों दूर है, तो क्या यह कहना सही होगा? नहीं, क्योंकि वह रवैया सत्य से बिल्कुल जुड़ा हुआ ही नहीं है। दुनिया भर में और समस्त मानवजाति के बीच, क्या हार न मानने के इस रवैये की प्रशंसा की जाती है, या निंदा? (इसकी प्रशंसा की जाती है।) किस परिवेश में इसकी प्रशंसा की जाती है? (कार्यस्थल में और स्कूलों में।) उदाहरण के लिए, यदि कोई छात्र किसी परीक्षा में साठ प्रतिशत अंक प्राप्त करता है, तो वह कहता है, “मैं हार नहीं मानूँगा। अगली बार मैं नब्बे प्रतिशत लेकर आऊँगा!” और जब वह नब्बे प्रतिशत प्राप्त कर लेता है, तो वह अगली बार सौ प्रतिशत प्राप्त करना चाहता है। आखिरकार वह इसे हासिल कर लेता है, और उसके माता-पिता सोचते हैं कि यह बच्चा महत्वाकांक्षी है और उसका भविष्य उज्ज्वल है। एक और परिवेश—और सबसे आम परिवेश—स्पर्धाओं का होता है। कुछ टीमें एक प्रतियोगिता हार जाती हैं और उनके चेहरे पर कालिख पुत जाती है, पर वे हार नहीं मानते। हार न मानने की इस मानसिकता और रवैये के कारण वे बहुत मेहनत करते हैं और कड़ा प्रशिक्षण लेते हैं, और अगली प्रतियोगिता में वे दूसरी टीम को हरा देते हैं और उन्हें नीचा दिखाते हैं। इस समाज में और मानवजाति के बीच, हार नहीं मानना एक प्रकार की मानसिकता है। मानसिकता क्या होती है? (यह सोचने का एक तरीका है जो मनोवैज्ञानिक रूप से लोगों का समर्थन करता है।) यह सही है। यह एक प्रेरक शक्ति है जो लोगों को हमेशा हिम्मत से आगे बढ़ने में, पराजित न होने में, हतोत्साहित न होने में, पीछे न हटने में और अपनी आकांक्षाओं और लक्ष्यों को हासिल करने में सहायता करती है। इसे ही हार न मानना कहते हैं। यह हार न मानने की एक तरह की मानसिकता है। लोग सोचते हैं कि यदि उनके पास यह मानसिकता, यह “जोश” नहीं है, तो जीवन का कोई अर्थ ही नहीं है। वे जीवन में किस पर निर्भर करते हैं? उनका जीवन एक तरह की मानसिकता पर निर्भर करता है। यह मानसिकता कहाँ से आती है? यह लोगों की अवधारणाओं और कल्पनाओं से, और साथ ही उनके भ्रष्ट स्वभावों से आती है। यह अव्यवहारिक है, और लोग इसे हासिल नहीं कर सकते। जब से परमेश्वर ने मानवजाति को बनाया तब से लेकर अब तक, चाहे कितने ही साल बीत चुके हों, कितनी सारी सकारात्मक चीजें हैं, जैसे कि वह व्यवस्था जिसके अनुसार सजीव प्राणी जीते हैं, वह व्यवस्था जिसके अनुसार मानवजाति जीती है, और वह व्यवस्था जिसके अनुसार स्वर्ग और पृथ्वी और सभी चीजें और ब्रह्मांड संचालित होते हैं, इत्यादि। उनके विचारों और शिक्षा के स्तर के अनुसार, लोगों को इन सब के भीतर एक व्यवस्था खोजने में सक्षम होना चाहिए जिसका वे पालन कर सकें, वे किस तरह कार्य करते हैं और आचरण करते हैं इसके लिए, या इसकी नींव के रूप में, इसे एक सिद्धांत और एक प्रेरणा शक्ति के रूप में ग्रहण कर सकें। बहरहाल, लोग सही दिशा में प्रयास नहीं करते हैं—वे अपनी शक्ति को किस दिशा में लगाते हैं? वे अपनी शक्ति को गलत दिशा में लगाते हैं, अर्थात्, वे उस व्यवस्था का उल्लंघन करते हैं जिसके अनुसार चीजें विकसित होती हैं, और वे उस व्यवस्था का उल्लंघन करते हैं जिसके अनुसार सभी चीजें क्रम से घूमती हैं—वे हमेशा उन कुदरती व्यवस्थाओं को नष्ट करना चाहते हैं जिन्हें परमेश्वर ने नियत किया है, और खुशी पैदा करने के लिए मानवीय तरीकों और साधनों का उपयोग करते हैं। वे नहीं जानते कि खुशी कैसे प्राप्त की जाती है, इसके भीतर क्या रहस्य है, या इसका स्रोत क्या है; वे इस स्रोत की तलाश नहीं करते हैं। इसके बजाय, वे खुशी पैदा करने के लिए एक मानवीय दृष्टिकोण का उपयोग करने की कोशिश करते हैं, और हमेशा चमत्कार करना चाहते हैं। वे इन सभी चीजों के सामान्य क्रम को बदलने के लिए एक इंसानी दृष्टिकोण का उपयोग करने, और फिर इच्छित खुशी और लक्ष्य हासिल करने की कोशिश करते हैं। यह सब असामान्य है। ऐसी चीजों के लिए लड़ने हेतु खुद पर भरोसा करने वाले लोगों का अंतिम परिणाम क्या होता है, चाहे वे कैसे भी लड़ते हों? जो संसार परमेश्वर ने मानवजाति को प्रबंधन के लिए दिया था, वह अब क्षतिग्रस्त हो चुका है। अब जबकि यह क्षतिग्रस्त हो गया है, सबसे अधिक पीड़ित कौन है? (इंसान।) मानवजाति सबसे अधिक पीड़ित है। लोगों ने दुनिया को इस हद तक बिगाड़ दिया है, फिर भी वे दावा करते हैं कि वे कभी हार नहीं मानेंगे। क्या उनके दिमाग में कुछ गड़बड़ी नहीं है? कभी हार न मानने का अंतिम परिणाम क्या होता है? एक भयंकर आपदा। यह सिर्फ एक या दो स्पर्धाओं में हार जाना या अपने चेहरे पर कालिख पुतवाना नहीं है। उन्होंने अपनी संभावनाओं को तबाह कर दिया है और बच निकलने के अपने रास्तों को बंद कर दिया है—उन्होंने स्वयं को नष्ट कर दिया है! यह वो है जो हार न मानने से आता है।

अब हम जिसका गहन-विश्लेषण कर रहे हैं वह शैतान के क्रूर स्वभाव और घमंडी स्वभाव की एक ठेठ अभिव्यक्ति है, कभी हार न मानना। कभी हार न मानना एक मानसिकता होती है। हम तो इसकी आलोचना करते हैं, इसे उजागर करते हैं, और इसकी निंदा करते हैं, लेकिन यदि तुम मानवजाति के बीच इसकी निंदा करो, तो क्या लोग इसे स्वीकार करेंगे? (नहीं।) क्यों नहीं? (क्योंकि सब लोग इस मुहावरे की प्रशंसा करते हैं।) वे इस मानसिकता को बढ़ावा देते हैं। यदि किसी व्यक्ति में हार न मानने और कभी हार न मानने की जरा भी मानसिकता नहीं है, तो दूसरे कहेंगे कि वह एक कमजोर व्यक्ति है। यदि हम इन चीजों को बढ़ावा नहीं देते हैं, तो क्या हम कमजोर हैं? (नहीं, हम नहीं हैं।) लोग कहते हैं, “तुम कमजोर कैसे नहीं हो? तुम दृढ़ता के साथ जीवन नहीं जीते हो। तुम्हारे जीने का क्या लाभ है?” क्या यह कथन सच है? आओ, हम पहले इसका गहन-विश्लेषण करें : “हार न मानना” किस तरह की मनोवृत्ति है? क्या सामान्य समझ रखने वाले लोगों की यह मनोवृत्ति होनी चाहिए? दरअसल, अगर लोगों के पास सामान्य विवेक है, तो उन्हें यह मानसिकता नहीं रखनी चाहिए। ऐसी मानसिकता रखना गलत होता है। किसी व्यक्ति को विवेकवान बनने के लिए वास्तविकता का सामना करना चाहिए। इस तरह, स्पष्ट रूप से, हार न मानने में विवेक का अभाव होता है; इसका मतलब है कि उसके दिमाग में कहीं कुछ सही नहीं है, और यह मनोवृत्ति स्पष्ट रूप से गलत है। सही बात कहूँ तो, परमेश्वर में विश्वास करने वालों के पास यह मानसिकता नहीं होनी चाहिए क्योंकि हार न मानने में एक घमंडी स्वभाव निहित होता है। क्या एक घमंडी स्वभाव के होने पर, लोगों के लिए सत्य स्वीकार करना आसान होता है? (नहीं।) यह एक समस्या है। यदि तुम सत्य का अनुसरण करने के लिए घमंडी स्वभाव का एक नींव के रूप में उपयोग करते हो, तो तुम किसका अनुसरण कर रहे हो? जिसका तुम अनुसरण कर रहे हो वह निश्चित रूप से सत्य नहीं है, क्योंकि यह अनुसरण अपने आप में सकारात्मक नहीं है, और जो कुछ तुम प्राप्त करोगे वह निश्चित रूप से सत्य नहीं होगा; यह निश्चित रूप से लोगों द्वारा कल्पित किसी प्रकार की कोई “मानसिकता” होगी। अगर लोग इस तरह की मानसिकता को सच्चाई मानते हैं, तो वे मार्ग से भटक गए हैं। इसलिए, यदि हमें हार न मानने की मानसिकता को ठीक करना हो, तो हम क्या कहेंगे? हम कहेंगे कि लोगों को वास्तविक समस्याओं का सामना करना होगा और सत्य-सिद्धांतों के अनुसार काम करना होगा, कि उनमें हार न मानने वाली मनोवृत्ति नहीं होनी चाहिए। यदि वे हार नहीं मानते हैं, तो वे किससे हार नहीं मान रहे हैं? (परमेश्वर से।) वे सत्य से हार नहीं मान रहे हैं। अधिक विशेष रूप से, वे मुद्दे के वास्तविक तथ्यों से हार नहीं मान रहे हैं, वे यह नहीं मान रहे हैं कि उन्होंने कोई भूल की है और वे बेनकाब हो गए हैं, और वे यह नहीं मान रहे हैं कि उनके पास घमंडी स्वभाव है। ये बातें सच हैं। अतः तुम लोग इन लोगों की बात का खंडन कैसे कर सकते हो? उनका खंडन करने का सबसे अच्छा तरीका उस चीज का उपयोग करना है जो उन्हें सबसे शर्मनाक लगती है। आज दुनिया में कौन-सी चीज मानवजाति को सबसे शर्मनाक लगती है? विज्ञान। विज्ञान ने मानवजाति को क्या दिया है? (आपदा।) विज्ञान ने, जिसकी मानवजाति सबसे अधिक सराहना करती है और जिस पर उसे सबसे अधिक नाज है, उन पर अभूतपूर्व आपदा ले आई है। अब जब कि तुम्हारे पास यह सुराग है, तो तुम लोगों को, इन लोगों की बात का खंडन कैसे करना चाहिए ताकि तुम उन्हें शर्मिंदा कर सको? तुम लोग क्या कहते हो, क्या शैतान की तरह के लोगों को शर्मिंदा किया जाना चाहिए? (हाँ।) यदि तुम उन्हें शर्मिंदा नहीं करते हो, तो वे हमेशा सत्य को तुच्छ समझते रहेंगे, परमेश्वर में विश्वास करने वालों के साथ भेदभाव करेंगे, और वे सोचेंगे कि परमेश्वर में विश्वास करने वाले केवल इसीलिए विश्वास करते हैं क्योंकि वे कमजोर होते हैं। तुम लोगों को उनका खंडन कैसे करना चाहिए? (यह कह कर : “तुम महज एक साधारण व्यक्ति हो। तुम्हारे पास ऐसा क्या है जिसके कारण तुम्हें हार मानने की आवश्यकता नहीं है? तुम्हारे लिए हार न मानना ठीक क्यों है? अगर कुछ लोग वैज्ञानिक भी हैं, तो क्या? वे जो वैज्ञानिक तकनीकी विकसित करते हैं वह चाहे बहुत ही उन्नत हो, तो क्या? क्या वैज्ञानिक उन सभी आपदाओं को हल कर सकते हैं जो विज्ञान अब मानवजाति पर ले आया है?”) उनका खंडन करने का सही तरीका यही है। इसके बारे में सोचो, क्या उनकी बात का खंडन करने का यह एक अच्छा तरीका है? तुम कहो, “मानवजाति आज तक जीवित रही है, पर लोग तो यह भी नहीं जानते कि उनके पूर्वज कौन हैं, तो वे कैसे हार नहीं मान सकते? तुम यह भी नहीं जानते कि तुम कहाँ से आए हो, तो तुम्हारे पास अभिमानी होने के लिए ऐसा क्या है? तुम उस परमेश्वर को भी स्वीकार नहीं करते जिसने तुम्हें बनाया है, तो तुम हार कैसे नहीं मान सकते? परमेश्वर ने लोगों को बनाया, और यह इतने गौरव की बात है, किन्तु तुम इसे मानते या स्वीकार नहीं करते हो; बजाय इसके, तुम यह मान लेने और स्वीकार करने पर जोर देते हो कि लोग जानवरों से विकसित हुए हैं। तुम कितने ओछे हो? परमेश्वर बहुत शक्तिशाली और श्रेष्ठ है; वह कहता है कि वह तुम्हारा सृष्टिकर्ता है, लेकिन तुम यह स्वीकार नहीं करते हो कि तुम उसके सृजित प्राणी हो। तुम कितने घटिया हो?” वे क्या जवाब देंगे? “लोग बंदरों से विकसित हुए, पर हम अभी भी उच्च स्तर के पशु हैं।” “तो क्या तुम अभी भी जानवर और पशु नहीं हो? हम यह नहीं मानते हैं कि हम पशु हैं। हम मानव हैं, हम परमेश्वर द्वारा बनाए गए इंसान हैं। परमेश्वर ने लोगों को बनाया और वह स्वीकार करता है कि तुम एक व्यक्ति हो, लेकिन तुम एक व्यक्ति बनना नहीं चाहते हो। तुम इस तथ्य को नकारने पर जोर देते हो कि परमेश्वर ने लोगों को बनाया। तुम एक जानवर होने पर जोर देते हो। तुम्हारे लिए जीवित रहने का क्या लाभ है? क्या तुम जीने के योग्य हो?” क्या इन शब्दों में दम है? (हाँ।) हम इन लोगों की बात का खंडन इस तरह करते हैं। चाहे वे इसे मानें या न मानें, या इसे स्वीकार करें या न करें, ये तथ्य हैं। मैं एक अन्य मुद्दे पर भी बात करूँगा। लोग कभी हार नहीं मानते, वे सोचते हैं कि वे इतने समर्थ हैं कि उनके पास उन्नत टेक्‍नोलॉजी और सभी प्रकार का ज्ञान है, लेकिन वे प्रकृति के साथ कैसा व्यवहार करते हैं? वे लगातार इसके साथ लड़ते हैं और हमेशा इसे अपने अधीन कर लेना चाहते हैं। वे जरा भी नहीं समझते कि प्रकृति की व्यवस्था का पालन कैसे किया जाए। मानवजाति के प्रबंधन ने अंततः प्रकृति के साथ क्या किया? क्या इन सबका प्रबंधन उन लोगों के द्वारा नहीं किया जाता जो जानकार हैं और विज्ञान को समझने वाले हैं? क्या तुम हार मानने से इनकार नहीं करते? क्या तुम एक सक्षम व्यक्ति नहीं हो? क्या तुम्हें परमेश्वर की प्रभुता की कोई जरूरत नहीं है? हजारों वर्षों से मानवजाति और प्रकृति सह-अस्तित्व में हैं, फिर भी आश्चर्य की बात है कि मानवजाति अभी भी नहीं जानती कि प्रकृति का प्रबंधन कैसे किया जाए। मानवजाति प्रकृति का उस सीमा तक अति-विकास करती है, अति-भोग करती है, और उसे गंभीर रूप से प्रदूषित करती है कि अब प्राकृतिक संसाधनों की आपूर्ति तेजी से अपर्याप्त होती जा रही है। इसके अतिरिक्त न तो वह पानी जिसे लोग पीते हैं, न ही वह भोजन जिसे वे खाते हैं और न ही वह वायु जिसमें वे साँस लेते हैं, विष से मुक्त हैं। जब परमेश्वर ने पहली बार प्रकृति की, सभी जीवित प्राणियों की रचना की तो, अन्न, हवा और जल स्वच्छ थे और विष से मुक्त थे, परन्तु जब उसने प्रकृति का प्रबंधन मानवजाति को सौंप दिया, उसके बाद, इन सभी वस्तुओं को जहरीला बना दिया गया। लोगों को ही इन चीजों का “आनंद” लेना है। ऐसे में लोग हार कैसे नहीं मान सकते? परमेश्वर ने मानवजाति के लिए एक इतनी खूबसूरत दुनिया बनाई और उसे इसका प्रबंधन करने दिया, लेकिन उसने इसे कैसे प्रबंधित किया? क्या वह जानती है कि इसका प्रबंधन कैसे किया जाए? मानवजाति ने इसका इस सीमा तक दुरुपयोग किया कि यह सब पूरी तरह से अस्त-व्यस्त हो गया—महासागर, पहाड़, भूमि, वायु, और यहाँ तक कि आकाश की ओजोन परत, कुछ भी नहीं छोड़ा गया; वे सभी बर्बाद कर दिए गए। अंततः इन सब के प्रतिकूल नतीजों को कौन बर्दाश्त करेगा? (लोग।) खुद मानवजाति करेगी। लोग जितने बेवकूफ हो सकते थे उतने हैं, फिर भी वे सोचते हैं कि वे महान हैं और वे हार नहीं मानते हैं! वे हार क्यों नहीं मानते? यदि मानवजाति को चीजों का प्रबंधन इसी तरह से करते रहने की अनुमति दी जाए, तो क्या प्रकृति अपने मूल स्वरूप में फिर से स्थापित हो जाएगी? यह कभी नहीं होगी। यदि मानवजाति हार न मानने की इस मानसिकता पर भरोसा करती रही, तो उसके प्रबंधन में विश्व और प्रकृति तेजी से उत्तरोत्तर बदतर, भयावह और दूषित होती जाएगी। अंतिम परिणाम क्या होंगे? मानवजाति इसी परिवेश में मर जाएगी जिसे खुद उसने बर्बाद किया। तो, आखिर यह सब कौन बदल सकता है? परमेश्वर बदल सकता है। यदि लोग ऐसा करने में सक्षम हों, तो उनमें से कोई एक आगे आ सकता है और दुनिया की इस हालत को बदलने की कोशिश कर सकता है, किन्तु क्या कोई है जो इस जिम्मेदारी को लेने का साहस रखता हो? (नहीं।) फिर लोग हार क्यों नहीं मानते? लोग उस पानी की भी रक्षा नहीं कर सकते जिसे वे पीते हैं। प्रकृति सिंहों या बाघों द्वारा बर्बाद नहीं हुई, पक्षियों, मछलियों या कीड़ों की बात तो दूर रही; बल्कि, यह स्वयं इंसान ही हैं जिसने इसे बर्बाद और नष्ट कर दिया। अंततः लोगों को वही काटना होगा जो वे बोते हैं। क्या अब चीजों को बदलने का कोई तरीका है? इन्हें बदला नहीं जा सकता। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि यदि परमेश्वर इन सब कार्यों को करने के लिए नहीं आया, तो वह परिवेश जिसमें समस्त मानवजाति रहती है, उत्तरोत्तर केवल बदतर, और अधिक भयावह होता जाएगा; यह बेहतर नहीं होगा। केवल परमेश्वर ही यह सब बदल सकता है। अगर मानवजाति हार नहीं मानती है तो क्या यह ठीक है? क्या तुम इस परिवेश को बदल सकते हो? तुम्हें एक अच्छा परिवेश दिया गया था, लेकिन तुम सिर्फ इसे बर्बाद कर सकते हो; तुम इसकी रक्षा नहीं करते हो। पूरे विश्व की खाद्य श्रृंखला क्या है? क्या मानवजाति इसे समझती है? नहीं, वो नहीं समझती। उदाहरण के लिए, भेड़िया एक शातिर जानवर होता है। यदि मानवजाति सभी भेड़ियों को मार डाले, तो वह सोचेगी कि उसने प्रकृति पर जीत हासिल कर ली है। एक ऐसे संकल्प, ऐसे मनोबल, और चुनौती का सामना करने की ऐसी मानसिकता के साथ, मानवजाति बड़े पैमाने पर भेड़ियों का शिकार करना शुरू कर देती है। जब लोग घासीय मैदानों के एक क्षेत्र में अधिकांश भेड़ियों को मार डालते हैं, तो मानवजाति सोचती है कि उसने प्रकृति पर विजय प्राप्त कर ली है और भेड़ियों की प्रजातियों पर जीत हासिल कर ली है। साथ ही, लोग अपने घरों में भेड़िये की खाल लटकाते हैं, भेड़िये की खाल से बने परिधान पहनते हैं, भेड़िये की खाल से बने टोपे पहनते हैं, और भेड़ियों के शावकों की खाल को अपने खंजर की नोक पर चढ़ाते हैं। वे तस्वीरें खींचते हैं, और पूरी दुनिया को बताते हैं, “हमने इस प्रजाति पर जीत हासिल की जो मानवजाति के लिए एक खतरा थी—भेड़ियों की प्रजाति!” क्या उनकी आत्म-संतुष्टि थोड़ी अपरिपक्व नहीं है? भेड़ियों के कम हो जाने से, बाहर से ऐसा लगता है कि इंसानों और कुछ अन्य जीवित प्राणियों के जीवन को खतरा नहीं रहा है, लेकिन इसके परिणाम क्या होंगे? मानवजाति को इसके लिए एक बड़ी कीमत चुकानी होगी। कौन-सी कीमत चुकानी होगी? जब बड़ी संख्या में भेड़िये मारे जाते हैं, तो भेड़ियों की संख्या घट जाती है। इसके तुरंत बाद, घास के मैदानों में सभी प्रकार के खरगोश, चूहे, सभी अन्य जानवर जिन्हें भेड़िये खाते हैं, बड़े पैमाने पर बढ़ने लगते हैं। जब इन जानवरों की संख्या अत्यधिक हो जाती है, तो पहला परिणाम क्या होता है? (घास गायब हो जाती है।) घास उत्तरोत्तर कम होती जाती है। जब घास कम हो जाती है, तो भूमि पर वनस्पति का आवरण घटते जाता है। जब इन जानवरों की संख्या अत्यधिक हो जाती है, तो उनके खाने के लिए बड़ी मात्रा में घास की जरुरत होती है, और जिस दर से घास उगती है वह शाकाहारी जानवरों की संख्या के अनुपात में नहीं होती। जब ये चीजें अनुपात में नहीं होती हैं, तो क्या होता है? (मरुस्थलीकरण।) हाँ, मरुस्थलीकरण। जब भूमि पर वनस्पति का आवरण नहीं होता है, तो यह रेत में बदलने लगती है और धीरे-धीरे यह जमीन एक रेतीला क्षेत्र बन जाती है। रेत में अधिकांश पौधे जड़ें नहीं डाल पाते या प्रजनन नहीं करते हैं, इसलिए रेतीली भूमि जल्दी से बढ़ने लगती है और उत्तरोत्तर फैलती जाती है, और अंततः घास के सारे मैदान रेगिस्तान बन जाते हैं। इसके बाद, जहाँ लोग रहते हैं उन क्षेत्रों पर रेगिस्तान अतिक्रमण करना शुरू कर देगा, और लोगों का सबसे पहला एहसास क्या होगा? संभव है कि जब लोग देखें कि रेगिस्तान का क्षेत्र बढ़ गया है तो उन्हें डर न लगे, परन्तु जब वह दिन आएगा कि एक रेतीला तूफान आए, तो मानवजाति को क्या नुकसान होगा? सबसे पहले, चारों ओर धूल उड़ेगी। फिर, जब तेज हवाओं का मौसम आएगा, तो इतनी रेत उड़ेगी कि लोग अपनी आँखें भी नहीं खोल सकेंगे। उनके शरीर रेत से ढक जाएँगे, और उनके मुंह रेत से भर जाएँगे। गंभीर मामलों में, रेगिस्तान के आस-पास के घर, पशुधन, या लोग रेत में समा सकते हैं। क्या लोग रेत को रोक सकते हैं? (नहीं।) वे इसे रोक नहीं सकते हैं, इसलिए उन्हें हट जाना होगा, अंदरूनी क्षेत्रों में दूर-दूर तक पीछे हटना होगा। अंततः, घास के मैदान उत्तरोत्तर छोटे होते जाएँगे, रेगिस्तान और भी बड़ा होता जाएगा, और वहाँ मानवजाति रह सके ऐसी जगह कम, और भी कम, होती जाएगी। तो, क्या वह परिवेश जिसमें लोग रहते हैं बेहतर होगा या बदतर? (बदतर।) यह परिणाम उन्हें क्यों भुगतना पड़ा? इसकी शुरुआत कैसे हुई? (भेड़ियों को मारने से।) यह तब शुरू हुआ जब उन्होंने भेड़ियों को मार दिया। यह एक इतनी छोटी-सी साधारण बात थी। यदि लोग यह नहीं समझते हैं कि इस व्यवस्था का पालन कैसे करें, और यह नहीं समझते कि इस व्यवस्था का बचाव कैसे करें, तो अंत में इसके परिणाम क्या होंगे? रेत से लोगों का सफाया हो जाएगा। क्या यह एक विनाशकारी आपदा नहीं है? भेड़ियों को मारना एक प्रकार का बर्ताव है, लेकिन इसके मूल में कैसा स्वभाव है? इस स्वभाव का सार क्या है? ऐसा करने के लिए उनकी अभिप्रेरणा क्या होती है? लोगों की सोच के कौन-से तरीके इस प्रकार के बर्ताव को जन्म देते हैं? (प्रकृति को वश में करने की चाहत।) यह सही है, वे इसे अपने वश में करना चाहते हैं। लोग सोचते हैं कि भेड़िये मानवजाति के कुदरती दुश्मन हैं। भेड़िये मानवजाति के लिए एक खतरा हैं और वे हमेशा लोगों को खा जाते हैं। भेड़िये अच्छे नहीं होते हैं। मानवजाति इस तरह से भेड़ियों की बुराई करती है, फिर उन्हें अपने अधीन करने और मिटा देने का प्रयास करती है ताकि एक भी भेड़िया न बचे। फिर, मानवजाति आराम से और चैन से रह सकती है और उसे बिल्कुल भी खतरा नहीं होगा। इसी अभिप्रेरणा के आधार पर लोग भेड़ियों को मारना शुरू करते हैं। यह किससे तय हो रहा है? यह हार न मानने की मानसिकता से तय होता है। मानवजाति नहीं जानती कि भेड़ियों का ठीक से प्रबंधन या मानकीकरण कैसे किया जाए, और इसके बजाय वे हमेशा उन्हें मार डालना और उनका सफाया कर देना चाहते हैं। वे इस व्यवस्था को उलटकर एक दूसरी व्यवस्था बनाना चाहते हैं। परिणाम क्या है? लोग रेत से घिर जाते हैं। क्या यही परिणाम नहीं होता है? (बिल्कुल यही होता है।) परिणाम यही होता है। परमेश्वर द्वारा सृजित सम्पूर्ण मानवजाति और सम्पूर्ण विश्व में से, इस ग्रह के एक छोटे-से कोने में—जो शायद परमेश्वर की नजरों में एक मूंगफली के दाने से भी बड़ा न हो—यह छोटी-सी एक घटना हुई, किन्तु लोग इसे स्पष्ट रूप से देख भी नहीं सकते हैं। वे अब भी प्रकृति से स्पर्धा करते हैं, परमेश्वर से होड़ लगाते हैं, और वे हार नहीं मानते! हार न मानने का क्या परिणाम होता है? (विनाश।) वे अपने विनाश को बुलावा दे रहे हैं! यह तथ्य ज्यों का त्यों है। इस परिणाम के सामने आने के बाद, मानवजाति को इसे कैसे ठीक करना चाहिए? (वह इसे ठीक नहीं कर सकती।) वह इसे ठीक नहीं कर सकती। कुछ सामाजिक संगठन और भले लोग जो जनहित की गतिविधियाँ संचालित करते हैं, सामने आते हैं और एक संतुलित परितंत्र बनाए रखने के लिए लोगों से गुहार लगाते हैं। ऐसा करने के पीछे उनकी अभिप्रेरणा और कारण सही हैं, और वे जिसके लिए गुहार लगा रहे हैं वह भी सही है। लेकिन, क्या कोई जवाब देता है? (नहीं।) सरकार भी कार्रवाई नहीं करती—कोई भी इस मामले पर ध्यान नहीं देता है। लोग इस मुद्दे का कारण जानते हैं, लेकिन दर्शक बनकर इसे थोड़ा देख लेते हैं, बस। वे अब भी पहले की तरह भेड़ियों को मारते हैं। कोई कहता है, “यदि तुम उन्हें इस तरह मारते रहोगे, तो एक दिन तुम रेत में दफन हो जाओगे,” लेकिन वे जवाब देते हैं, “तो ठीक है, मैं दफन हो जाऊँगा, पर ऐसा नहीं है कि केवल मैं अकेला ही दफन होऊँगा। इसमें डरने की क्या बात है?” यह कैसा स्वभाव है? सुन्नता और सोच की कमी वाला; उनमें इंसानियत नहीं है। मरने से कौन नहीं डरता? तो वे ऐसी तुच्छ बात कैसे कह सकते हैं? वे नहीं मानते कि ऐसा कुछ होगा। वे सोचते हैं, “पृथ्वी बहुत बड़ी है। रेगिस्तान के अलावा पहाड़ और जंगल हैं। क्या वे सभी इतनी जल्दी नष्ट हो सकते हैं? अभी भी बहुत समय बाकी है! हमने अभी कुछ भेड़ियों को मार डाला और कुछ स्थान मरुस्थल बन गए, और तुम इतने भयभीत हो गए? अगर उन्हें मारना चाहिए, तो हमें उन्हें मारना ही होगा।” क्या यह मूर्खता नहीं है? उन्होंने कुछ भेड़ियों को मार डाला, और केवल बीस या तीस वर्षों के बाद, हरे घास के मैदान का एक बड़ा भू-भाग पूरी तरह से बदल गया। यदि लोग इस जमीन पर घास के कुछ बीज बिखेर देते या ऐसे पौधे लगाते जो रेगिस्तान में पनप सकते हैं—यदि वे इस वातावरण को बदल देते, तो मानवजाति ने अपनी गलतियों की क्षतिपूर्ति कर ली होती और बहुत देर नहीं हुई होती, परन्तु क्या यह हकीकत में इतना आसान है? परमेश्वर ने जो व्यवस्था बनाई है वह सर्वोत्तम है और सबसे सही है। धरती के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए लोगों को इस व्यवस्था का पालन करना होगा, ताकि ये जानवर, पौधे और मानवजाति इस धरा पर रहना जारी रख सकें, जिससे हर प्राणी विशेष रूप से सद्भावना से रह सके, और सह-अस्तित्व की भावना से रह सके जो पारस्परिक रूप से संयमित और सहजीवी, दोनों हो। यदि इस व्यवस्था का एक हिस्सा नष्ट हो जाता है, तो मुमकिन है कि तुम दस साल में कोई परिणाम न देखो, लेकिन बीस साल बाद जब तुम वास्तव में परिणामों का अनुभव करोगे, तो कोई भी इसे पूर्ववत नहीं कर पाएगा। इसका निहितार्थ क्या है? यह कि यदि परमेश्वर बड़े पैमाने पर परिवर्तन नहीं करता है तो उस बिंदु से आगे जिस परिवेश में मानवजाति अभी रहती है वह उत्तरोत्तर बदतर ही होता जाएगा; यह एक अच्छी दिशा में विकसित नहीं होगा। इसका परिणाम यही होगा। इस परिणाम का स्रोत क्या है? इसका स्रोत मानवजाति की हार न मानने की मानसिकता है जिसकी मानवजाति प्रशंसा करती है, जो कि अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोने और पित्त चाटने की पहली अभिव्यक्ति है। जिस तरह से लोग इसे देखते हैं, अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना एक “महान” और “पवित्र” कहावत है, लेकिन इससे उत्पन्न विचार का मानवजाति पर पहला प्रभाव उस पर इतने बड़े प्रतिकूल नतीजों का आना है। लोग सोचते हैं, “क्या प्राकृतिक दुनिया के लिए कोई व्यवस्था नहीं है? मुझे तो कुछ खास नहीं लग रही है। क्या लोग यह नहीं कहते हैं कि यह पवित्र है और इसे नष्ट नहीं करना चाहिए? जो भी हो, मैं इसे नष्ट करने जा रहा हूँ, और हम देखेंगे कि क्या होता है!” मानवजाति आज जिस प्रतिकूल नतीजे का “आनंद” ले रही है, उसे लोग कभी देखना नहीं चाहते हैं। “जो होता है उसे देख लेंगे” का परिणाम यही होता है; यह मानवजाति के देखने के लिए सामने ही रखा है। हर किसी ने “अंतिम समय” के दृश्यों को देखा है। क्या उन्हें वही नहीं मिला जिसके वे योग्य थे? इसके लिए वे खुद जिम्मेदार हैं।

अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोने और पित्त चाटने की पहली अभिव्यक्ति हार नहीं मानना है। लोगों को इसके क्या परिणाम भुगतने होंगे? एक विनाशकारी आपदा; वे अपने कार्यों के प्रतिकूल परिणामों की फसल काट रहे हैं—आम बोलचाल की भाषा में कहूँ तो, उन्हें वही मिल रहा है जो उन्होंने मांगा था, और वही मिल रहा है जिसके वे योग्य हैं! अब तुम जानते हो कि क्या यह वाक्यांश वास्तव में सही है, और क्या यह सत्य है, है ना? क्या यह वाक्यांश सत्य है? (नहीं।) यह सत्य नहीं है। मान लो, अविश्वासी फिर से कहते हैं, “हमारे स्व-आचरण में कुछ जोश और साहस होना चाहिए!” तुम इस पर विचार करते हो और कहते हो, “यह कितना सच है। विश्वासियों के रूप में हम हमेशा समर्पण की बात करते हैं। क्या उसमें स्वायत्तता का बहुत अभाव नहीं है? क्या यह बहुत कमजोर नहीं है? हमारे पास कोई दृढ़ता नहीं है।” क्या तुम ऐसा सोचते हो? जो बातें मैंने आज कही, यदि तुम लोग उन्हें स्वीकार करते हो तो तुम लोग कभी भी इस तरह से नहीं सोचोगे। इसके विपरीत तुम कहोगे, “मानवजाति की बेहतरी की कोई उम्मीद नहीं है। कोई आश्चर्य नहीं कि परमेश्वर इंसानों से घृणा करता है। मानवजाति पहले ही तर्क करने की सीमा को पार कर चुकी है।” तुम इस तरह के विचार को स्वीकार नहीं करोगे। यहाँ तक कि अगर तुम्हारे पास एक उपयुक्त प्रत्युत्तर न हो, या इन लोगों के साथ बहस करना उचित न हो, तो भी तुम्हें यह पता है कि उनके विचार कतई सत्य नहीं हैं। चाहे लोग इस तरह के विचार को कितना ही सकारात्मक मानें, और चाहे इस दुनिया के इंसान इसकी कितनी ही पैरवी और प्रशंसा करें, तुम इससे प्रभावित नहीं होगे। इसके विपरीत, तुम इसे त्याग दोगे और इसका तिरस्कार करोगे। मैंने अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोने और पित्त चाटने की पहली अभिव्यक्ति पर संगति समाप्त कर ली है। मैंने सत्य पर संगति करना शुरू किया था, मैं विषय से कैसे भटक गया? मैं जो सोचता हूँ वह यह है : यदि मेरी संगति से तुम जो कुछ भी लेते हो वह एक परिभाषा या अवधारणा तक ही सीमित है, तो तुम लोग कभी नहीं समझोगे कि इस विचार के सही और गलत भाग कौन-से हैं। तुम बस इनमें उलझ जाओगे—कभी तो तुम सोचोगे कि इस तरह का विचार सही है; कभी सोचोगे कि इस तरह का विचार गलत है, लेकिन तुम इस मुद्दे पर स्पष्ट नहीं होगे कि इसमें क्या गलत है या क्या सही। साथ ही, तुम अक्सर इस “सिद्धांत” के अनुसार अभ्यास करोगे, और तुम हमेशा भ्रमित रहोगे। यदि तुम स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते हो, तो तुम इस तरह के विचार को त्याग नहीं पाओगे। यदि तुम इसे त्याग नहीं सकते, तो क्या तुम पूरी तरह से सत्य का अभ्यास कर सकते हो? क्या तुम परमेश्वर के वचनों को पूर्णतः सत्य मानकर उनकी आराधना और उनका अनुसरण कर सकते हो? नहीं, बिल्कुल नहीं। तुम केवल अपेक्षाकृत रूप से या कभी-कभार ही यह सोच पाओगे कि परमेश्वर के वचन सही हैं या यह कि परमेश्वर के वचन सदैव सही हैं, और तुम सिद्धांत के संदर्भ में इसका समर्थन करोगे। परन्तु यदि तुम अभी भी इस तथाकथित ज्ञान से, और उन बातों से जो देखने में सत्य लगती तो हैं किन्तु वास्तव में मिथ्या हैं, प्रभावित और परेशान हो, तो परमेश्वर के वचन तुम्हारे लिए हमेशा अपेक्षाकृत सही ही होंगे, वे परम सत्य नहीं होंगे।

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