प्रकरण एक : सत्य क्या है (खंड एक)

आओ हम एक भजन गाएँ : सारी सृष्टि परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन होनी चाहिए।

1  परमेश्वर ने सभी चीजों की सृष्टि की थी, और इसलिए वह समूची सृष्टि को अपने प्रभुत्व के अधीन लाता और अपने प्रभुत्व के प्रति समर्पित करवाता है; वह सभी चीजों पर अधिकार रखेगा, ताकि सभी चीजें उसके हाथों में हों। परमेश्वर की सारी सृष्टि, पशुओं, पेड़-पौधों, मानवजाति, पहाड़ तथा नदियों, और झीलों सहित— सभी को उसके प्रभुत्व के अधीन आना ही होगा। आकाश में और धरती पर सभी चीजों को उसके प्रभुत्व के अधीन आना ही होगा। उनके पास कोई विकल्प नहीं हो सकता है और सभी को उसके आयोजनों के समक्ष समर्पण करना ही होगा। इसकी आज्ञा परमेश्वर द्वारा दी गई थी, और यह परमेश्वर का अधिकार है।

2  परमेश्वर सभी चीजों पर नियंत्रण रखता है, और सभी चीजों को व्यवस्थित और श्रेणीबद्ध करता है, जिसमें प्रत्येक को उनके प्रकार के अनुसार वर्गीकृत किया जाता है और परमेश्वर की इच्छाओं के अनुसार उनका अपना स्थान प्रदान किया जाता है। चाहे वह कितनी भी बड़ी क्यों न हो, कोई भी चीज़ परमेश्वर से बढ़कर नहीं हो सकती है, और सभी चीजें परमेश्वर द्वारा सृजित मानवजाति की सेवा करती हैं, और कोई भी चीज परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करने या परमेश्वर से कोई भी माँग करने की हिम्मत नहीं करती है। इसलिए मनुष्य को भी सृजित प्राणी होने के नाते मनुष्य का कर्तव्य अच्छे से निभाना ही चाहिए। चाहे वह सभी चीजों का स्वामी हो या देख-रेख करने वाला हो, सभी चीजों के बीच मनुष्य का दर्जा चाहे जितना भी ऊँचा हो, तो भी वह परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन एक अदना मानव भर है, और तुच्छ मानव, सृजित प्राणी से अधिक कुछ भी नहीं है, और वह कभी परमेश्वर से ऊपर नहीं होगा।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है

“सारी सृष्टि परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन होनी चाहिए,” इस भजन में सत्य क्या है? कौन-सी पंक्ति सत्य है? (सारी पंक्तियाँ ही सत्य हैं।) अंतिम पंक्ति क्या कहती है? (“सभी चीजों के बीच मनुष्य का दर्जा चाहे जितना भी ऊँचा हो, वह फिर भी परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन एक अदना-सा मानव भर है; वह एक अदने से मनुष्य, एक सृजित प्राणी से अधिक कुछ नहीं है, और वह कभी परमेश्वर से ऊपर नहीं होगा।”) मानव कभी भी परमेश्वर से ऊपर नहीं हो सकता, सृजित प्राणी कभी भी परमेश्वर से ऊपर नहीं हो सकते; परमेश्वर के अलावा अन्य सभी सृजित प्राणी ही हैं। मानव कभी भी परमेश्वर से ऊपर नहीं हो सकता; यही सत्य है। क्या यह सत्य बदल सकता है? क्या काल के अंत में यह बदल जाएगा? (नहीं।) यही सत्य है। कौन मुझे बता सकता है कि सत्य क्या है? (सत्य इंसान के स्व-आचरण, क्रियाकलापों और परमेश्वर की आराधना की कसौटी है।) “सत्य क्या है” इस विषय पर हमने दो बार संगति की है, इसलिए आओ, कसौटियाँ क्या हैं, इसकी बात करें। यहाँ कसौटियाँ ही महत्वपूर्ण हैं। (कसौटियाँ मानक, सटीक सिद्धांत, विधि-विधान, और नियम हैं। कसौटियों का आधार परमेश्वर के वचन हैं।) और कौन इसे जारी रखना चाहता है? (कसौटियाँ सर्वाधिक मानक, सर्वाधिक सटीक सिद्धांत, विधि-विधान, और नियम हैं जो कि परमेश्वर के वचनों से लिए जाते हैं।) “सर्वाधिक” शब्द को यहाँ जोड़ा गया है, पर क्या यह “सर्वाधिक” आवश्यक है? “सर्वाधिक” शब्द जोड़ने और न जोड़ने के बीच क्या अंतर है? “सर्वाधिक” के साथ, दूसरा सर्वाधिक, तीसरा सर्वाधिक, इत्यादि होते हैं। तुम लोग “सर्वाधिक” जोड़ने के बारे में क्या सोचते हो? (यह उपयुक्त नहीं है, क्योंकि सत्य ही एक मात्र मानक है। एक बार जब “सर्वाधिक” जोड़ दिया जाता है तो यह एक प्रकार की सापेक्षता का सुझाव देता है, जिसमें अन्य चीजें दूसरे और तीसरे स्थान पर होती हैं।) क्या यह स्पष्टीकरण सही है? (हाँ।) इसका कुछ तो मतलब निकलता है। यदि तुम लोगों के पास “सत्य क्या है” इसकी परिभाषा को लेकर एक सटीक दृष्टिकोण और समझ है, और यदि तुम स्पष्ट रूप से यह समझते हो कि परमेश्वर ही सत्य है, तो तुम लोग यह समझ सकते हो कि “सर्वाधिक” शब्द जोड़ना चाहिए या नहीं, क्या यह जोड़ना सही है, इसे जोड़ने से क्या फर्क पड़ता है, इसे नहीं जोड़ने का क्या अर्थ होता है, और यदि तुम इसे जोड़ते हो तो इसका क्या अर्थ है। अब, इसकी पुष्टि हो गई है कि “सर्वाधिक” शब्द नहीं जोड़ना सही है। उस व्यक्ति ने क्या भूल की है जिसने यह जोड़ा है? उसने सोचा कि परमेश्वर के चाहे किसी भी पहलू का वर्णन किया जा रहा हो, “सर्वाधिक” शब्द जोड़ा जाना चाहिए। यह तुलना करते समय उससे कहाँ भूल हुई है? परमेश्वर के कौन-से कथन का, किस सत्य का विरोध हुआ है? (सृजित प्राणी कभी भी परमेश्वर से ऊपर नहीं हो सकते; “सर्वाधिक” शब्द जोड़ना शायद यह सुझाव देता है कि सृजित प्राणी और परमेश्वर के बीच दूसरी और तीसरी श्रेणियाँ हैं।) क्या यह सही है? (हाँ।) इसका कुछ तो मतलब निकलता है; इसे इस तरह से समझाया जा सकता है। क्या कोई और कथन हैं जो सत्यापित कर सकें कि आगे “सर्वाधिक” शब्द जोड़ना गलत है? (मुझे कुछ याद आ रहा है, जो यह है कि सत्य केवल परमेश्वर से ही आ सकता है, केवल परमेश्वर ही सत्य है, इसलिए दूसरा सर्वाधिक, तीसरा सर्वाधिक, इत्यादि की कोई भी सापेक्षिक अभिव्यक्तियाँ नहीं हो सकतीं।) यह भी सही है। (सत्य इंसान के स्व-आचरण, क्रियाकलापों और परमेश्वर की आराधना की कसौटी है। चूँकि विधि-विधान, नियम, और कसौटियाँ केवल परमेश्वर से ही आ सकती हैं, लोगों के पास उनके क्रियाकलापों के लिए कसौटियाँ या विधि-विधान नहीं हैं, न ही वे उनके लिए नियम स्थापित कर सकते हैं, इसलिए “सर्वाधिक” शब्द जोड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है।) यह स्पष्टीकरण कुछ अधिक व्यावहारिक है। क्या और कोई बात है? (परमेश्वर का अधिकार और परमेश्वर का सार अद्वितीय हैं। परमेश्वर का सार सत्य है, और इससे किसी की भी तुलना नहीं की जा सकती। “सर्वाधिक” शब्द जोड़ने से ऐसा लगता है कि सत्य अब अद्वितीय नहीं रहा।) यह कथन कैसा है? (अच्छा है।) इसमें क्या अच्छा है? (यह इंगित करता है कि परमेश्वर अद्वितीय है।) “अद्वितीय”—तुम सभी लोग इस शब्द को भूल गए हो। परमेश्वर अद्वितीय है। क्या परमेश्वर के द्वारा बोले गए प्रत्येक वाक्य में दी गईं कसौटियाँ, साथ ही मानव से परमेश्वर की हर अपेक्षा, मानवजाति के बीच पाई जा सकती है? (नहीं।) क्या मानवता के ज्ञान, पारंपरिक संस्कृति, या विचारों में ये चीजें हो सकती हैं? (नहीं।) क्या इनसे सत्य उत्पन्न हो सकता है? नहीं, नहीं हो सकता। इसलिए “सर्वाधिक” शब्द जोड़ना दूसरी और तीसरी श्रेणियों का सुझाव देता है, उच्च, निम्न और उससे भी निम्नतर में अंतर करता है, और चीजों को पहले स्तर, दूसरे स्तर, तीसरे स्तर... में बाँटता है। इसका अर्थ है कि सभी सही चीजें एक निश्चित क्रम के अनुसार एक कसौटी बन सकती हैं। क्या इसे इस तरह से समझा जा सकता है? (हाँ।) तो फिर, “सर्वाधिक” शब्द जोड़ने से क्या समस्या है? यह परमेश्वर के वचन, परमेश्वर के सत्य को किसी सापेक्षिक चीज में बदल देता है, जो कि उसके द्वारा सृजित मनुष्यों के ज्ञान, फलसफे, और अन्य सही चीजों से केवल अपेक्षाकृत उच्चतर होती है। यह सत्य को श्रेणियों में बाँट देता है। परिणामस्वरूप, भ्रष्ट लोगों के बीच सही चीजें भी सत्य बन जाती हैं। इसके अलावा, ऐसी चीजें मानव के क्रियाकलापों और स्व-आचरण के लिए कसौटियाँ भी बन जाती हैं—बस वे अपेक्षाकृत निचले स्तर पर होती हैं। उदाहरण के लिए, सभ्य होना, विनम्र होना, मानवीय दया, और कुछ अन्य अच्छी बातें जिनके साथ लोग पैदा होते हैं वे सभी कसौटियाँ बन जाती हैं—इसका क्या अर्थ है, वे क्या बन जाते हैं? (सत्य।) वे सत्य बन जाते हैं। देखो, “सर्वाधिक” शब्द जोड़ने से इस कसौटी की प्रकृति ही बदल जाती है। एक बार कसौटी की प्रकृति के बदलते ही, क्या परमेश्वर की परिभाषा भी बदल जाती है? (हाँ।) परमेश्वर की परिभाषा क्या बन जाती है? इस परिभाषा में परमेश्वर अद्वितीय नहीं है; परमेश्वर का अधिकार, सामर्थ्य, और सार अद्वितीय नहीं हैं। परमेश्वर मानवजाति के बीच सामर्थ्य और अधिकार के साथ बस उच्चतम भूमिका में है। मानव जाति के बीच योग्यता और प्रतिष्ठा वाले किसी भी व्यक्ति को परमेश्वर के समकक्ष माना जा सकता है और उसकी चर्चा परमेश्वर के साथ समान स्तर पर की जा सकती है, बस वह परमेश्वर जितना ऊँचा या महान नहीं हो सकता। मानवजाति के बीच ये अपेक्षाकृत सकारात्मक हस्तियाँ और अगुआ परमेश्वर के ठीक पीछे श्रेणीबद्ध किए जा सकते हैं और वे कमान में दूसरे, तीसरे, चौथे..., स्थान पर हो जाते हैं, जहाँ परमेश्वर का दर्जा सर्वोच्च होता है। क्या एक ऐसी व्याख्या परमेश्वर की पहचान और उसके सार को पूरी तरह से बदल नहीं देती? बस एक ही शब्द “सर्वाधिक” से, परमेश्वर का सार पूरी तरह बदल जाता है। क्या यह कोई समस्या है? (हाँ।) इसलिए, “सर्वाधिक” शब्द जोड़े बिना, किस प्रकार से ये शब्द सही हैं? (वे एक तथ्य बताते हैं।) यह तथ्य क्या है? (तथ्य यह है कि परमेश्वर ही सत्य, सिद्धांत, मानक, और कसौटी है।) बात यह है कि परमेश्वर इन सभी कसौटियों का मूल है। भ्रष्ट मानवजाति के बीच, सृजित प्राणियों के बीच, ऐसी कोई कसौटियाँ नहीं हैं। परमेश्वर ही एक मात्र स्रोत है जो इन कसौटियों को व्यक्त करता है। केवल परमेश्वर के पास ही यह सार है। सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता और कसौटी केवल परमेश्वर से ही आ सकती हैं। यदि कोई व्यक्ति इंसान के स्व-आचरण, क्रियाकलापों, और परमेश्वर की आराधना के कुछ सिद्धांत जानता है, कुछ कसौटियाँ जानता है, और कुछ सत्य समझता है, तो क्या वह परमेश्वर बन सकता है? (नहीं।) क्या वह सत्य का स्रोत होता है? सभी सच्चाइयों को अभिव्यक्त करने वाला बन जाता है? (नहीं।) तो क्या उसे परमेश्वर कहा जा सकता है? नहीं। यही सारभूत अंतर है। क्या तुम समझते हो? (हाँ।) हालाँकि मैं “सत्य क्या है” के विषय पर अब दो बार बात कर चुका हूँ, तुम लोगों के उत्तरों में अभी भी एक इतनी बड़ी भूल है, जो परमेश्वर को एक सृजित प्राणी बना देती है, सृजित प्राणियों को परमेश्वर के समान बना देती है, उनके बीच बराबरी का संबंध बना देती है। इससे मुद्दे की प्रकृति ही बदल जाती है जो कि परमेश्वर को नकारने के समान ही है। परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, मानव सृजित प्राणी हैं—ये दोनों एक ही श्रेणी की भूमिकाएँ नहीं हैं। पर जब तुम “सर्वाधिक” शब्द जोड़ देते हो, तब क्या होता है? तब वे सार और श्रेणी में समान हो जाते हैं, उनमें अंतर केवल उच्च और निम्न स्तर का ही रह जाता है। जब मैंने तुम लोगों से यह विस्तारपूर्वक पूछा था, तब तुम लोगों ने अपने मन में यह सोचा, “क्या यह हमें कम आँकना नहीं है? हम सभी शिक्षित लोग हैं, इन चंद शब्दों को हम कैसे भूल सकते हैं? हम बिना अपने नोट्स देखे ही इस बारे में सरलता से बात कर सकते हैं।” जैसे ही तुम लोगों ने अपना मुँह खोला, समस्या उजागर हो गई। मेरे बोलने के बाद, तुम लोगों ने इसे कई बार पढ़ा और फिर भी तुम इसे ठीक से दोहरा नहीं सके। इसका कारण क्या है? तुम लोग इस विषय में अभी भी सत्य को नहीं समझते हो। किसी ने “सर्वाधिक” शब्द जोड़ा और उसने सोचा, “तुम लोगों में से किसी ने भी ‘सर्वाधिक’ नहीं जोड़ा; तुम लोगों को परमेश्वर में अधिक आस्था नहीं है, है ना? मुझे देखो, मैंने ‘सर्वाधिक’ जोड़ा। यह बताता है कि मैं पढ़ा-लिखा हूँ—मैंने महाविद्यालय में समय व्यर्थ नहीं गँवाया था!” जब उसने “सर्वाधिक” जोड़ा, तुम लोगों में से अधिकांश ने समस्या की ओर ध्यान नहीं दिया। तुम लोगों में से कुछ ने महसूस किया कि कहीं कुछ गलत तो था, पर यह नहीं बता सके कि ऐसा क्यों था। जब अन्य लोगों ने इसे समझाया, तब तुम लोग इसे सिद्धांत के तौर पर समझ गए, और तुम जानते थे कि यह व्याख्या सही थी। पर क्या तुम लोग यह सत्य समझे? (नहीं।) मैंने इस बात पर संगति की थी कि “सर्वाधिक” शब्द जोड़ना क्यों गलत है, और तुम लोग इसे समझ गए, लेकिन क्या तुम लोगों ने समस्या के सार को सचमुच समझा था? (नहीं।) तुमने इसे स्पष्ट रूप से नहीं देखा था। ऐसा क्यों है? (हम सत्य को नहीं समझते।) और तुम सत्य को क्यों नहीं समझते? क्या तुम लोग वो नहीं समझे थे जो मैंने कहा था? यदि तुमने इसे समझा था तो तुम फिर भी सत्य को कैसे नहीं समझ पाते हो? “स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है” के विषय पर कितने अध्याय हैं? कितनी बार तुम लोगों ने उन्हें पढ़ा है? क्या तुम वाकई इन शब्दों को समझते हो? (नहीं।) तुम लोग नहीं समझते हो, इसलिए तुमने आज खुद को ही बेवकूफ बना डाला। इन शब्दों ने तुम्हें उजागर कर दिया है। क्या यह सही नहीं है? (हाँ।) क्या तुमने इससे कुछ भी सीखा है? अगली बार जब तुम कुछ ऐसी ही परिस्थिति का सामना करो, तब भी क्या तुम अपनी स्वयं की मानी गई चतुराई से ही काम करोगे? तुम्हें इसकी हिम्मत नहीं होगी, है ना? यदि कोई व्यक्ति सत्य को नहीं समझता है, तब चाहे कितनी भी शिक्षा या जानकारी हो वह उपयोगी नहीं होगी। यदि तुम अशिक्षित होते और इस शब्द के उपयोग के तरीके नहीं जानते, तो शायद तुम “सर्वाधिक” शब्द नहीं जोड़ते और यह समस्या नहीं उठी होती। कम से कम, तुमने यह भूल नहीं की होती और खुद को ही बेवकूफ नहीं बनाया होता। पर चूँकि तुम पढ़े-लिखे हो और कुछ शब्दों के अर्थ और उपयोग को समझते हो, तुमने उन्हें परमेश्वर पर लागू किया। नतीजतन, तुमने एक समस्या खड़ी कर ली, चतुर बनने चले थे अनाड़ी बन गए। यदि तुम इसे किसी व्यक्ति पर लागू करते हो, तो यह केवल पूजा करना और चापलूसी करना है जो अधिक से अधिक बस घृणास्पद है। पर यदि तुम इसे परमेश्वर पर लागू करते हो तो समस्या गंभीर बन जाती है। यह एक ऐसा शब्द बन जाता है जो परमेश्वर को नकारता है, परमेश्वर का विरोध करता है और परमेश्वर की निंदा करता है। सत्य से रहित भ्रष्ट मनुष्य से ऐसी भूल होने की संभावना सबसे अधिक होती है। भविष्य में, क्रिया विशेषणों और विशेषणों को लापरवाही से नहीं जोड़ने को लेकर सावधान रहो। क्यों? क्योंकि जब बात परमेश्वर की पहचान, सार, वचनों और स्वभाव की होती है तो ये वो चीजें हैं जिनकी भ्रष्ट मनुष्यों में सबसे अधिक कमी है, और जिनकी उन्हें सबसे उथली और सबसे कम समझ होती है। इसलिए, जो लोग सत्य को नहीं समझते हैं उन्हें लापरवाही से कुछ नहीं करने के बारे में सतर्क रहना चाहिए; विवेकी होना बेहतर होता है।

I. “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” के विचार का गहन-विश्लेषण

कुछ लोगों ने अभी-अभी सत्य की परिभाषा और अवधारणा को समझाया है। तुम लोग सत्य की परिभाषा और अवधारणा को तो समझते हो, पर क्या तुम लोग वाकई यह समझते हो कि सत्य क्या है? इस बारे में मुझे तुम लोगों की परीक्षा लेनी होगी। मैं तुम लोगों की परीक्षा कैसे लूँगा? तुम लोगों की परीक्षा लेने के लिए मैं तुम्हारी ताकतों का उपयोग करूँगा। और तुम लोगों की ताकतें क्या हैं? तुम लोग विद्वता, शब्दों और शब्दावली से परिचित हो; सांसारिक आचरण के उन विभिन्न फलसफों और दृष्टिकोणों से परिचित हो जो हर भीड़ में लोगों के पास होते हैं; एवं मानवीय पारंपरिक संस्कृतियों से, साथ ही उनकी धारणाओं और कल्पनाओं से भी परिचित हो। तुम लोग उन विभिन्न कानूनों और धारणाओं से भी परिचित हो जिनके अनुसार सभी नस्लों, जातीयताओं और राष्ट्रीयताओं के लोग जीते हैं। क्या ये तुम्हारी ताकतें नहीं हैं? इनमें से कुछ अपेक्षाकृत निश्चित मुहावरे हैं, कुछ कहावतें हैं, और कुछ लोकोक्तियाँ हैं; कुछ आमतौर पर सामान्य लोगों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले आकर्षक बोलचाल के शब्द हैं। अपने आप से पूछो, ऐसी कौन-सी चीजें हैं जिन पर अक्सर लोगों के गहन विचार और दृष्टिकोण होते हैं जिन्हें वे एक मुहावरे में बदल देते हैं? चलो, हम पहले कुछ लोकोक्तियों, मुहावरों, और विधि-विधानों का, और साथ ही सांसारिक आचरणों और उनकी पारम्परिक धारणाओं के प्रति लोगों के दृष्टिकोण का गहन-विश्लेषण करें ताकि हम ठीक से समझ सकें कि सत्य क्या है। सत्य वास्तव में क्या है इसकी चर्चा हम एक नकारात्मक परिप्रेक्ष्य से करेंगे। क्या यह एक अच्छा तरीका है? (हाँ।) तो, हमें शुरू करने के लिए ऐसा एक परिप्रेक्ष्य दो। (न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।) क्या यह कथन सही है? (नहीं।) “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।” आओ, हम पहले इसी पर संगति करना शुरू करें। आगे बढ़ो, और यह समझाओ कि इस कहावत का क्या अर्थ है। (इसका अर्थ यह है कि तुम जिन लोगों को नियोजित करते हो तुम्हें उनके प्रति चौकन्ने रहे बिना उन पर भरोसा करना चाहिए। यदि तुम्हें किसी पर विश्वास नहीं है तो उसे काम पर मत रखो।) यही इसकी शाब्दिक व्याख्या है। सबसे पहले, मुझे बताओ, क्या संसार के अधिकांश लोग इस कहावत से सहमत हैं या असहमत? (सहमत।) वे इससे सहमत हैं। यह कहना उचित है कि इस समाज में अधिकांश लोग दूसरों को नियुक्त करने के एक सिद्धांत के रूप में, “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” कहावत को मानते हैं, और लोगों के साथ व्यवहार करने में वे इस सिद्धांत का पालन करते हैं। तो क्या इस कहावत का कोई पहलू सही है? (नहीं।) तो फिर, क्यों अधिकांश अविश्वासी इस कहावत को सही मानते हैं और बिना किसी हिचकिचाहट के इसे स्वीकार और लागू करते हैं? ऐसा करने के लिए उनकी प्रेरणा क्या होती है? वे ऐसा क्यों कहते हैं? कुछ लोग कहते हैं : “यदि तुम किसी व्यक्ति को नियुक्त करने जा रहे हो तो तुम उस पर संदेह नहीं कर सकते हो; तुम्हें उस पर भरोसा करना चाहिए। तुम्हें यह विश्वास होना चाहिए कि उसके पास कार्य को पूरा करने के लिए प्रतिभा और चरित्र है, और वह तुम्हारे प्रति वफादार रहेगा। यदि तुम उस पर संदेह करते हो तो उसे नियुक्त मत करो। जैसा कि कहा जाता है, ‘न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।’ यह कहावत सही है।” दरअसल, यह कहावत भ्रामक शैतानी बात के अलावा और कुछ नहीं है। यह कहावत कहाँ से आती है? इसका इरादा क्या है? इसकी योजना क्या है? (परमेश्वर, मुझे याद है कि पिछली संगति के दौरान, यह उल्लेख किया गया था कि यदि कुछ लोग अपने काम में अन्य लोगों का हस्तक्षेप नहीं चाहते तो वे कहेंगे, “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।” उनका मतलब यह होता है, “चूँकि तुमने मुझे यह कार्य सौंपा है और तुम मेरा उपयोग कर रहे हो तो तुम्हें मेरे कार्य में दखल नहीं देना चाहिए—मैं जो करता हूँ उसमें तुम्हें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।”) जो लोग इस कहावत का उपयोग करते हैं उनका स्वभाव कैसा होता है? (एक मसीह-विरोधी, स्‍वेच्‍छाचारी, और स्वयं में ही एक व्यवस्था होने का स्वभाव।) वास्तव में यही उन का स्वभाव होता है। वे जो इसका उपयोग करते हैं, या जिन्होंने इसे शुरू किया था, क्या वे नियुक्त होने या करने वाले लोग हैं? इस कहावत से सर्वाधिक लाभ किसे होता है? (जो नियुक्त किए गए हैं उन्हें।) जो नियुक्त हुए हैं, उन्हें इस कहावत से कैसे लाभ होता है? यदि वे अपने नियोक्ता पर बार-बार इस कथन पर जोर देते हैं तो वे उनमें एक विशेष प्रकार का विचार डाल रहे होते हैं; यह विचार मन में बैठाने या धारणा बनाने जैसा होता है। यह नियोक्ता से यह कहने के बराबर है : एक बार जब तुम किसी को नियुक्त कर लेते हो तो तुम्हें यह भरोसा करना चाहिए कि वह तुम्हारे प्रति वफादार रहेगा। तुम्हें विश्वास करना चाहिए कि वह अपना काम अच्छी तरह से करेगा, कि उसके पास इसकी योग्यता है। तुम्हें उस पर संदेह नहीं करना चाहिए, क्योंकि संदेह करने से तुम्हारा ही नुकसान होगा। यदि तुम हमेशा दुविधा में हो, यदि तुम हमेशा उसकी जगह किसी और को रखने की सोचते हो तो इससे तुम्हारे प्रति उसकी वफादारी प्रभावित हो सकती है। इसे सुनकर, क्या नियोक्ता आसानी से इस कहावत से प्रभावित या गुमराह होगा? (हाँ।) और एक बार जब वह नियोक्ता प्रभावित या गुमराह हो गया तो जो नियुक्त हुआ है उसे लाभ होगा। यदि नियोक्ता इस तरह की सोच को स्वीकार कर लेता है तो जिसे वह नियुक्त करता है उस पर उसे कोई संदेह या शक नहीं होगा; वह न तो इस बात की निगरानी करता है और न ही इसके बारे में पूछताछ करता है कि आखिर उसने क्या किया है, क्या वह अपने नियोक्ता के प्रति वफादार है, और क्या उसमें इन चीजों को करने की क्षमता है। इस तरह से नियुक्त किए जाने वाला व्यक्ति इस नियोक्ता के निरीक्षण और पर्यवेक्षण से बच सकता है और उसके बाद अपने नियोक्ता की इच्छाओं का पालन नहीं करते हुए मनमानी कर सकता है। मुझे बताओ, जब कोई कर्मचारी इस कहावत का उपयोग करता है तो क्या उसके पास सचमुच अपने नियोक्ता के प्रति पूरी तरह से वफ़ादार होने वाला चरित्र है? क्या उस पर निगरानी रखने की बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं है? (नहीं, आवश्यकता है।) हम ऐसा क्यों कहते हैं? यह प्राचीन काल से लेकर वर्तमान समय तक का एक सार्वभौमिक स्वीकृत तथ्य है कि मानव बहुत ही भ्रष्ट होते हैं, उनके पास भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, और वे विशेष रूप से धूर्त और धोखेबाज होते हैं; ईमानदार लोग हैं ही नहीं और यहाँ तक कि मूर्ख लोग भी झूठ बोलते हैं। जब अन्य लोगों को काम पर नियुक्त करने की बात आती है तो इसके कारण बहुत कठिनाइयाँ पैदा होती हैं, और किसी पूरी तरह से भरोसेमंद व्यक्ति को खोजने की बात तो दूर रही, किसी विश्वासपात्र व्यक्ति को खोज पाना भी लगभग असंभव हो जाता है। अधिक से अधिक, कुछ अपेक्षाकृत रोजगार-योग्य लोगों को खोज पाने की उम्मीद की जा सकती है। चूँकि कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो भरोसेमंद हो, तो फिर, “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” यह कैसे संभव है? यह संभव नहीं है, क्योंकि कोई भी भरोसेमंद नहीं है। तो, फिर, हमें उन लोगों का उपयोग कैसे करना चाहिए जो अपेक्षाकृत रोजगार-योग्य हैं? हम केवल निरीक्षण और निर्देश के माध्यम से ऐसा कर सकते हैं। अविश्वासी लोग अपने यहाँ नियुक्त व्यक्ति की निगरानी करने के लिए मुखबिर और जासूस भेजते हैं ताकि वे अपने को सापेक्षिक रूप से आश्वस्त महसूस करा सकें। इस प्रकार, प्राचीन काल में लोग स्वयं को धोखा दे रहे थे जब उन्होंने कहा, “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।” जिसने इस कहावत, “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो,” को बनाया था, उसने इसे स्वयं पर लागू नहीं किया। यदि उसने सचमुच ऐसा किया होता तो वह एक विचारहीन व्यक्ति होता, एक प्रथम श्रेणी का मूर्ख होता जिसे केवल धोखा दिया जा सकता था और छला जा सकता था। क्या यह एक तथ्य नहीं है? आओ, हम यह बात करें कि “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” में सबसे महत्वपूर्ण भूल कहाँ है। “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” का आधार क्या है? इसका आधार अवश्य ही यह होना चाहिए कि नियुक्त किया गया व्यक्ति पूरी तरह से भरोसेमंद, वफादार और जिम्मेदार है। मालिक “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” कहावत को लागू कर सके इसके लिए वह कर्मचारी कोई ऐसा ही व्यक्ति हो, यह 100% निश्चित होना चाहिए। आजकल ऐसे भरोसेमंद व्यक्ति नहीं मिलते हैं; उनका अस्तित्व नहीं के बराबर है, जिससे यह कहावत “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” निरर्थक हो जाती है। यदि तुम किसी अविश्वसनीय व्यक्ति को चुनते हो और फिर उस व्यक्ति के बारे में अपने संदेहों को नियंत्रित करने के लिए, इस कहावत “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” को लागू करते हो तो क्या तुम स्वयं को धोखा नहीं दे रहे हो? क्या नियुक्त किए जाने वाला व्यक्ति सिर्फ इसलिए भरोसेमंद होने और चीजों को वफादारी और जिम्मेदारी से करने में समर्थ हो जाता है क्योंकि तुम उस पर शक नहीं कर रहे हो? हकीकत में, तुम्हारे संदेह के बावजूद, वह जिस किस्म का व्यक्ति है वैसे ही कार्य करना जारी रखेगा। यदि वह एक धोखेबाज व्यक्ति है तो वह धोखेबाजी के काम करता रहेगा; यदि वह एक निष्कपट व्यक्ति है तो वह उन चीजों को करना जारी रखेगा जिनमें कपट न हो। यह इस पर निर्भर नहीं करता कि तुम्हारे मन में उसके प्रति कोई संदेह है या नहीं। उदाहरण के तौर पर, मान लो कि तुम किसी धोखेबाज व्यक्ति को नियुक्त करते हो। तुम अपने दिल में जानते हो कि यह व्यक्ति धोखेबाज है, फिर भी तुम उससे कहते हो, “मैं तुम पर संदेह नहीं करता हूँ, इसलिए आगे बढ़ो और अपना काम आत्मविश्वास के साथ करो”; तो क्या वह व्यक्ति तब एक ऐसा निष्कपट व्यक्ति बन जाएगा जो बिना छल के काम करे, सिर्फ इसलिए कि तुम उस पर संदेह नहीं करते हो? क्या यह संभव है? इसके विपरीत, अगर तुम किसी निष्कपट व्यक्ति को नियुक्त करते हो तो क्या वह एक धोखेबाज व्यक्ति में इसलिए बदल जाएगा कि तुम उस पर संदेह करते हो या उसे समझ नहीं पाते हो? नहीं, वह नहीं बदलेगा। इसलिए, “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” वाली कहावत विशुद्ध रूप से मन की शांति के लिए किसी मूर्ख का प्रयास है, यह स्वयं को छलने वाली बकवास है। मानवजाति की भ्रष्टता की सीमा क्या है? रुतबे और ताकत का अनुसरण, पिता-पुत्र के और भाई-भाई के एक दूसरे के विरुद्ध होने और एक-दूसरे को मारने का कारण बन चुका है; इसने माताओं और बेटियों को एक दूसरे से नफरत कराई है। कौन किस पर भरोसा कर सकता है? ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो पूरी तरह से भरोसेमंद हो, केवल अपेक्षाकृत रोजगार-योग्य व्यक्ति ही हैं। चाहे तुम किसी को भी नियुक्त करो, गलतियों को रोकने का एकमात्र तरीका उस पर नजर रखना या उसकी निगरानी करना है। इस प्रकार, “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” एक आत्म-भ्रमित करने वाली कहावत है। यह एक बकवास है, एक भ्रम है और इसमें कोई दम नहीं है। परमेश्वर, अंतिम दिनों में, मानवजाति को शुद्ध करने और बचाने के लिए क्यों सत्य को व्यक्त करता है और क्यों न्याय का कार्य करता है? ऐसा इसलिए है क्योंकि मानवजाति गहराई तक भ्रष्ट की जा चुकी है। ऐसा कोई नहीं है जो सचमुच में परमेश्वर के प्रति समर्पण करता हो, और कोई भी व्यक्ति परमेश्वर के उपयोग के योग्य नहीं है। इस प्रकार, परमेश्वर बार-बार यह माँग करता है कि लोग ईमानदार बनें। ऐसा इसलिए है क्योंकि मानव बहुत अधिक धोखेबाज हैं, वे शैतान के भ्रष्ट स्वभाव से भरे हुए हैं और उनमें शैतान की प्रकृति है। वे पाप करने और बुराई करने से खुद को रोक नहीं सकते हैं, और वे कहीं भी और कभी भी, परमेश्वर का विरोध करने और उन्हें धोखा देने में समर्थ हैं। भ्रष्ट मनुष्यों में ऐसा कोई नहीं है जिसका उपयोग किया जा सके या जिस पर भरोसा किया जा सके। मानवजाति में से किसी व्यक्ति को चुनना और उसका उपयोग करना वास्तव में कठिन होता है! सबसे पहले तो, लोगों के लिए किसी को समझना वास्तव में असंभव होता है; दूसरा, लोग अन्य व्यक्तियों की असलियत नहीं देख पाते; तीसरा, विशेष परिस्थितियों में, लोगों के लिए दूसरों पर लगाम लगाना या उनका प्रबंधन करना और भी अधिक असंभव होता है। इस पृष्ठभूमि में, किसी ऐसे व्यक्ति को ढूँढ़ना जिसका उपयोग किया जा सके, सबसे मुश्किल काम होता है। इसलिए, “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” वाली कहावत अत्यधिक गलत है और तनिक भी व्यावहारिक नहीं है। इस कहावत के आधार पर किसी व्यक्ति को चुनना और उसका उपयोग करना सिर्फ धोखा खाना है। जो कोई भी इस कहावत को सही मानता है और इसे सत्य समझता है, वह लोगों में सबसे अधिक मूर्ख है। क्या यह कहावत दूसरों का उपयोग करने की कठिनाई को वास्तव में हल कर सकती है? बिल्कुल नहीं। यह केवल स्वयं को दिलासा देने का, आत्म-छल में उलझाने का, और खुद को ही भ्रमित करने का एक तरीका है।

हमारी संगति के इस बिंदु पर, क्या तुम्हारे पास इस बात की एक मौलिक समझ है कि क्या “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” वाली कहावत सही है? क्या यह कहावत सत्य है? (नहीं।) तो यह क्या है? (शैतान का फलसफा।) विशेष तौर पर, यह कहावत किसी व्यक्ति के लिए अन्य व्यक्ति की निगरानी या देखरेख से मुक्त होने या बाहर निकलने का एक बहाना है; यह एक धुँए का पर्दा भी है जिसे सभी बुरे लोग अपने स्वयं के हितों की रक्षा करने और अपने स्वयं के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए फैलाते हैं। यह कहावत उन लोगों के लिए एक बहाना है जो मनमानी करने के लिए छिपे हुए इरादे रखते हैं। यह ऐसे लोगों द्वारा फैलाई गई भ्रांति भी है ताकि वे नैतिक न्याय और अंतरात्मा द्वारा की जाने वाली निगरानी, देखरेख और निंदा से युक्ति-संगत ढंग से अलग हो सकें। बहरहाल, अब ऐसे लोग भी हैं जो मानते हैं कि “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” वाली कहावत व्यावहारिक और सही है। क्या ऐसे लोगों के पास विवेक है? क्या वे सत्य समझते हैं? क्या ऐसे लोगों के विचारों और दृष्टिकोणों में समस्या है? कलीसिया के भीतर यदि कोई व्यक्ति इस कहावत का प्रचार करता है, तो वह ऐसा किसी मकसद से करता है, वह दूसरों को गुमराह करने की कोशिश कर रहा है। वह “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” वाली कहावत का उपयोग अपने बारे में दूसरों के भ्रम या संदेह को दूर करने का प्रयास करने के लिए कर रहा है। इसका निहितार्थ यह है कि वह चाहता है कि दूसरों को यह विश्वास हो जाए कि वह काम कर सकता है, यह भरोसा हो जाए कि वह एक ऐसा व्यक्ति है जिसका उपयोग किया जा सकता है। क्या यही उसका इरादा और ध्येय नहीं होता है? यही होना चाहिए। वह मन ही मन सोचता है, “तुम लोग कभी भी मुझ पर विश्वास नहीं करते हो और हमेशा मुझ पर शक करते हो। किसी बिंदु पर, शायद तुम मुझमें कोई मामूली समस्या ढूँढ़ निकालोगे और मुझे पद से हटा दोगे। अगर यही चिंता हमेशा मेरे मन में रहेगी तो मैं कैसे काम कर सकता हूँ?” इस तरह, वे इस दृष्टिकोण का प्रचार करते हैं ताकि परमेश्वर का घर बिना किसी संदेह के उन पर विश्वास करे और उन्हें स्वच्छंद रूप से काम करने के लिए छोड़ दे, जिससे वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सके। अगर कोई वाकई सत्य का अनुसरण कर रहा है, तो उसे अपने काम पर परमेश्वर के घर के निरीक्षण को, जब कभी भी वह दिखे, सही तरीके से लेना चाहिए, यह जानते हुए कि यह उसकी अपनी सुरक्षा के लिए है और, इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह कि ऐसा करना परमेश्वर के घर के कार्य के लिए जिम्मेदार होना भी है। हालाँकि वह अपनी भ्रष्टता प्रकट कर सकता है, फिर भी वह परमेश्वर से प्रार्थना कर सकता है कि परमेश्वर उसकी जाँच-पड़ताल करे और उसकी रक्षा करे, या वह परमेश्वर से यह शपथ ले सकता है कि यदि वह बुरा करता है तो वह परमेश्वर के दण्ड को स्वीकारेगा। क्या इससे उसका मन शांत नहीं होगा? लोगों को गुमराह करने और अपने ही मकसद को हासिल करने के लिए किसी भ्रांति का प्रचार क्यों करें? कुछ अगुआओं और कार्यकर्ताओं में परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा उनके निरीक्षण के प्रति या ऊपरी अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा उनके काम के बारे में जानने के प्रयासों के प्रति हमेशा एक विरोध का रवैया रहता है। वे क्या सोचते हैं? “‘न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।’ तुम लोग हमेशा मेरी देखरेख क्यों करते रहते हो? यदि तुम लोग मुझ पर भरोसा नहीं करते हो तो तुम मेरा उपयोग क्यों करते हो?” यदि तुम उनसे उनके कार्य के बारे में पूछते हो या काम की प्रगति के बारे में पूछताछ करते हो और फिर उनकी व्यक्तिगत स्थिति के बारे में पूछते हो, तो वे और भी अधिक रक्षात्मक हो जाएँगे : “यह कार्य मुझे सौंपा गया है; यह मेरे अधिकार क्षेत्र में आता है। तुम लोग मेरे काम में हस्तक्षेप क्यों कर रहे हो?” हालाँकि उनमें इसे स्पष्ट रूप से कहने की हिम्मत नहीं होती, वे चालाकी से इशारा करेंगे, “जैसा कि कहा जाता है, ‘न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।’ तुम इतने शक्की क्यों हो?” वे तुम लोगों की निंदा तक करेंगे और तुम पर ठप्पा भी लगा देंगे। और, यदि तुम सत्य नहीं समझते हो और तुम्हारे पास कोई विवेक नहीं है, तो क्या होगा? उनके इशारे को सुनकर, तुम कहोगे, “क्या मैं शक्की हूँ? फिर तो मैं गलत हूँ। मैं धूर्त हूँ! तुम सही हो : न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।” क्या तुम इस तरह गुमराह नहीं किए गए हो? क्या यह कहावत “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” सत्य से मेल खाती है? नहीं, यह तो बकवास है! ये दुष्ट लोग कपटी और धोखेबाज हैं; ये भ्रमित लोगों को गुमराह करने के लिए इस कहावत को सत्य के रूप में प्रस्तुत करते हैं। एक भ्रमित व्यक्ति इस कहावत को सुनकर, सचमुच गुमराह हो जाता है, वह और भ्रमित हो जाता है और सोचता है : “वह सही है, मैंने इसके साथ गलत किया है। उसने खुद ही तो कहा था : ‘न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।’ मैंने कैसे उस पर संदेह किया? इस तरह से तो काम नहीं हो सकता। मुझे उसके काम में ताक-झाँक किए बिना उसे प्रोत्साहित करना चाहिए। चूँकि मैं उसका उपयोग कर रहा हूँ, मुझे उस पर भरोसा करना होगा और उसे बिना बाधित किए स्वतंत्र रूप से काम करने देना होगा। उसे काम करने के लिए कुछ स्वतंत्रता देनी होगी। उसमें काम करने की क्षमता है। और यदि उसमें क्षमता न हो, तो भी पवित्र आत्मा तो कार्य कर ही रहा है!” यह किस तरह का तर्क है? क्या इसमें से कुछ भी सत्य के अनुरूप है? (नहीं।) ये सभी शब्द सुनने में सही लगते हैं। “हम दूसरों को बाधित नहीं कर सकते।” “लोग कुछ नहीं कर सकते; यह पवित्र आत्मा है जो सब कुछ करता है। पवित्र आत्मा हर बात की जाँच-पड़ताल करता है। हमें शक करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि परमेश्वर पूर्ण रूप से प्रभारी है।” लेकिन ये किस तरह के शब्द हैं? क्या उन्हें बोलने वाले लोग भ्रमित नहीं हैं? वे तो इतनी-सी बात को भी ठीक से नहीं समझ सकते और बस एक ही वाक्य से गुमराह हो जाते हैं। यह कहना गलत न होगा कि अधिकांश लोग “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” मुहावरे को सच मानते हैं, और वे इससे गुमराह होकर बंध जाते हैं। लोगों को चुनते या उपयोग करते समय वे इससे परेशान और प्रभावित हो जाते हैं, यहाँ तक कि वे इससे उनके कार्यों को भी निर्देशित होने देते हैं। परिणामस्वरूप, बहुत से अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कलीसिया के काम की जाँच करते समय, लोगों को तरक्की देते और उपयोग करते समय हमेशा मुश्किलें आती हैं और आशंका होने लगती है। अंत में, वे बस इन शब्दों से खुद को तसल्ली दे पाते हैं, “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।” काम का निरीक्षण या पूछताछ करते समय, वे सोचते हैं, “‘न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।’ मुझे अपने भाई-बहनों पर भरोसा करना चाहिए, आखिरकार, पवित्र आत्मा लोगों की जाँच-पड़ताल करता है, इसलिए मुझे हमेशा दूसरों पर संदेह और उनकी निगरानी नहीं करनी चाहिए।” वे इस मुहावरे से प्रभावित हो गए हैं, है न? इस मुहावरे के प्रभाव से क्या परिणाम सामने आते हैं? सबसे पहले, अगर कोई व्यक्ति इस विचार को मानता है कि “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो,” तो क्या वह दूसरों के कार्य का निरीक्षण करेगा और उसे निर्देश देगा? क्या वह लोगों के काम की निगरानी करेगा और उसकी खोज-खबर लेगा? अगर यह व्यक्ति हर उस व्यक्ति पर भरोसा करता है जिसका वह उपयोग करता है और कभी भी उसके काम में उसका निरीक्षण नहीं करता है या उसे निर्देश नहीं देता है, और कभी भी उसकी निगरानी नहीं करता है, तो क्या वह अपना कर्तव्य निष्ठापूर्वक निभा रहा है? क्या वह कलीसिया का कार्य सक्षम तरीके से कर सकता है और परमेश्वर के आदेश को पूरा कर सकता है? क्या वह परमेश्वर के आदेश के प्रति निष्ठावान है? दूसरा, यह परमेश्वर के वचनों और कर्तव्यों का पालन करने में तुम्हारी विफलता मात्र नहीं है, बल्कि यह शैतान की साजिशों और सांसारिक आचरण के उसके फलसफों को सत्य मानना है, उनका अनुसरण और अभ्यास करना है। तुम शैतान की आज्ञा का पालन कर रहे हो और शैतानी फलसफे के अनुसार जी रहे हो, है न? तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाले व्यक्ति नहीं हो, तुम परमेश्वर के वचनों का पालन करने वाले व्यक्ति तो बिल्कुल नहीं हो। तुम पूरे बदमाश हो। परमेश्वर के वचनों को दर-किनार कर, शैतानी मुहावरे को अपनाना और सत्य के रूप में उसका अभ्यास करना, सत्य और परमेश्वर के साथ विश्वासघात करना है! तुम परमेश्वर के घर में काम करते हो, फिर भी शैतानी तर्क और सांसारिक आचरण के उसके फलसफे ही तुम्हारे क्रियाकलापों के सिद्धांत हैं; तुम किस तरह के व्यक्ति हो? यह एक ऐसा व्यक्ति है जो परमेश्वर से विश्वासघात करता है और जो परमेश्वर का बुरी तरह अपमान करता है। इस हरकत का सार क्या है? खुले तौर पर परमेश्वर की निंदा करना और सत्य को नकारना। क्या यही इसका सार नहीं है? (यही है।) तुम परमेश्वर की इच्छा का पालन करने के बजाय, शैतान की एक दानवी कहावत और सांसारिक आचरण के शैतानी फलसफों को कलीसिया में निरंकुशता करने दे रहे हो। ऐसा करके, तुम खुद शैतान के सहयोगी बन जाते हो और कलीसिया में शैतान की गतिविधियों को अंजाम देने में उसकी सहायता करते हो और कलीसिया के कार्य में विघ्न-बाधाएँ डालते हो। इस समस्या का सार गंभीर है, है ना?

आजकल, अधिकांश अगुआओं और कार्यकर्ताओं के दिलों में शैतान का विष है और अब भी वे शैतानी फलसफों के अनुसार जीते हैं, और परमेश्वर के कुछ ही वचन हैं जो उनके दिलों पर हावी हैं। कई अगुआओं और कार्यकर्ताओं के काम में समस्या है—वे काम की व्यवस्था करने के बाद कभी भी उसका निरीक्षण या पर्यवेक्षण नहीं करते, भले ही वे हकीकत में अपने दिल में जानते हों कि कुछ लोग वह काम नहीं कर सकते और समस्याएँ तो निश्चित रूप से पैदा होंगी। बहरहाल, इस मुद्दे को सुलझाने का तरीका नहीं जानने के कारण, वे बस “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” का दृष्टिकोण अपनाते हैं और बेपरवाही से काम करते हैं, यहाँ तक कि उनके मन भी शांत रहते हैं। नतीजतन, कुछ लोग वास्तविक कार्य नहीं कर पाते, और वे केवल सामान्य मुद्दों में खुद को व्यस्त रखते हैं, और बेमन से काम करते हैं। परिणाम यह होता है कि कलीसिया का काम गड़बड़ा जाता है, और कुछ स्थानों पर तो परमेश्वर की भेंटों की भी चोरी हो जाती है। परमेश्वर के चुने हुए लोग, जो इसे सहन नहीं कर पाते हैं, ऊपरवाले को इस मामले की रिपोर्ट करते हैं। झूठा अगुआ, इस बारे में जानकारी पाकर, स्तब्ध हो जाता है और उसे लगता है जैसे आपदा आ रही हो। ऊपरवाला फिर उससे पूछता है : “तुमने काम का निरीक्षण क्यों नहीं किया? तुमने गलत व्यक्ति को काम पर क्यों लगाया?” उस पर झूठा अगुआ जवाब देता है : “मुझे किसी के सार के विषय में कोई अंतर्दृष्टि नहीं है, इसलिए मैं बस इस सिद्धांत का पालन करता हूँ कि ‘न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।’ मैंने गलत व्यक्ति का उपयोग करने और ऐसी मुसीबत का कारण बनने की उम्मीद कभी नहीं की थी।” क्या तुम लोग मानते हो कि “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” वाला दृष्टिकोण सही है? क्या यह मुहावरा सत्य है? परमेश्वर के घर के काम करने में और अपना कर्तव्य करने में वह इस मुहावरे का उपयोग क्यों करेगा? यहाँ क्या समस्या है? “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” यह मुहावरा साफ तौर से अविश्वासियों के शब्द हैं, शैतान के मुँह से निकले हुए शब्द हैं—तो वह उनके साथ ऐसे क्यों पेश आता है जैसे कि वे सत्य हों? वह क्यों नहीं बता पाता कि ये शब्द सही हैं या गलत? ये स्पष्ट रूप से मनुष्य के शब्द हैं, भ्रष्ट इंसान के शब्द हैं, ये बिल्कुल सत्य नहीं हैं, ये परमेश्वर के वचनों के अनुरूप बिल्कुल नहीं हैं, इन्हें लोगों के कार्यों, स्व-आचरण और परमेश्वर की आराधना के लिए मानदंड नहीं मानना चाहिए। तो इस मुहावरे के साथ कैसे पेश आना चाहिए? यदि तुम वास्तव में पहचानने में सक्षम हो, तो अभ्यास के अपने सिद्धांत के रूप में तुम्हें इसकी जगह किस प्रकार के सत्य सिद्धांत का उपयोग करना चाहिए? सत्य सिद्धांत यह होना चाहिए कि “तुम पूरे दिल, आत्मा और मन से अपने कर्तव्य का अच्छी तरह से निर्वहन करो।” अपने पूरे दिल, पूरी आत्मा और पूरे मन से कार्य करना किसी के द्वारा बाधित नहीं किया जाना है; यह एक दिलो-दिमाग से होना चाहिए, न कि आधे-अधूरे मन से। यह तुम्हारी जिम्मेदारी और कर्तव्य है और तुम्हें इसे अच्छी तरह से निभाना चाहिए, क्योंकि ऐसा करना पूरी तरह से स्वाभाविक और न्यायसंगत है। तुम्हारे सामने जो भी समस्याएँ आएँ, तुम्हें सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए। उनसे तुम वैसे ही निपटो, जैसा जरूरी हो; यदि काट-छाँट की आवश्यकता है, तो वैसे ही करो और यदि बर्खास्तगी अनिवार्य है, तो वही सही। संक्षेप में कहूँ तो, परमेश्वर के वचनों और सत्य के आधार पर कार्य करो। क्या यही सिद्धांत नहीं है? क्या यह इस वाक्यांश के ठीक विपरीत नहीं है “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो”? यह कहने का क्या अर्थ है कि न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो? इसका अर्थ यह है कि यदि तुमने किसी व्यक्ति को नौकरी पर रखा है तो तुम्हें उस पर शक नहीं करना चाहिए, तुम्हें बागडोर ढीली छोड़ देनी चाहिए, उसकी देखरेख नहीं करनी चाहिए और वह जैसा चाहे उसे वैसा करने देना चाहिए; यदि तुम उस पर संदेह करते हो, तो तुम्हें उसे काम पर नहीं रखना चाहिए। क्या यही इसका मतलब नहीं है? यह तो एकदम गलत है। शैतान ने इंसान को बुरी तरह से भ्रष्ट कर दिया है। हर व्यक्ति में एक शैतानी स्वभाव होता है, वह परमेश्वर के साथ विश्वासघात कर उसका विरोध कर सकता है। तुम कह सकते हो कि भरोसे लायक तो कोई भी नहीं होता। यहाँ तक कि अगर कोई व्यक्ति दुनियाभर की कसम खा ले, तो भी कोई फायदा नहीं, क्योंकि लोग अपने भ्रष्ट स्वभाव से बाधित हैं और अपने आप को नियंत्रित नहीं कर सकते। अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर करने से पहले और परमेश्वर का विरोध और उससे विश्वासघात करने की समस्या को पूरी तरह से दूर करने से पहले—लोगों के पापों की जड़ को समूल नष्ट करने से पहले—उन्हें परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना चाहिए। जो लोग परमेश्वर के न्याय और शुद्धिकरण से नहीं गुजरे हैं और उद्धार प्राप्त नहीं कर पाए हैं, वे भरोसे लायक नहीं हैं। वे विश्वासपात्र नहीं हैं। इसलिए, जब तुम किसी को उपयोग करो, तो उसकी निगरानी और उसे निर्देशित करो। तुम उसकी काट-छाँट भी करो और अक्सर सत्य पर संगति करो, और तभी तुम समझ पाओगे कि उस व्यक्ति को उपयोग में लेते रहना चाहिए या नहीं। अगर कुछ लोग सत्य स्वीकार कर लेते हैं, काट-छाँट स्वीकार कर लेते हैं, निष्ठापूर्वक अपना कार्य करते हैं और जीवन में निरंतर प्रगति कर रहे हैं, तभी सही मायनों में ये लोग उपयोग के लायक होते हैं। जो वास्तव में उपयोग के लायक हैं उनके पास पवित्र आत्मा के कार्य की पुष्टि होती है। जिन लोगों के पास पवित्र आत्मा का कार्य नहीं होता है वे भरोसेमंद नहीं हैं; वे मजदूर हैं और भाड़े के लोग हैं। जब अगुआओं और कार्यकर्ताओं के चयन की बात आती है, तो उनमें से ज्यादातर लोगों को, कम से कम आधे से भी अधिक को, हटा दिया जाता है, जबकि केवल कुछ ही लोगों को उपयोग के लायक या योग्य माना जाता है—यह एक तथ्य है। कलीसिया के कुछ अगुआ कभी भी दूसरों के काम का पर्यवेक्षण या उसकी जाँच नहीं करते हैं, और संगति समाप्त करने या काम की व्यवस्था करने के बाद काम पर कोई ध्यान नहीं देते हैं। बल्कि, वे इस कहावत के अनुसार चलते हैं “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो,” यहाँ तक कि वे खुद से भी कहते हैं, “बाकी काम परमेश्वर को करने दो।” फिर वे सुख और आराम में लिप्त हो जाते हैं, मामले की जाँच नहीं करते हैं और इसकी अवहेलना करते हैं। इस तरह से कार्य करके, क्या वे लापरवाह नहीं हो रहे हैं? क्या उन्हें जिम्मेदारी का जरा भी एहसास है? क्या ऐसे लोग झूठे अगुआ नहीं हैं? परमेश्वर की माँग है कि लोग अपने कर्तव्यों को अपने पूरे दिल, अपनी पूरी आत्मा, अपने पूरे मन, और अपनी पूरी शक्ति से करें। परमेश्वर लोगों से जो माँगता है—वही सत्य है। कार्य या अपने कर्तव्यों को करते समय, यदि अगुआ और कार्यकर्ता परमेश्वर के वचनों के बजाय दुष्टों और शैतान के शब्दों का अनुपालन करते हैं, तो क्या यह परमेश्वर का विरोध करने और उसे धोखा देने की अभिव्यक्ति नहीं है? अगुआओं और कार्यकर्ताओं को चुनते समय, परमेश्वर के घर को केवल उन्हीं लोगों को क्यों चुनना चाहिए जो सत्य स्वीकार करने में समर्थ हों, क्यों उन अच्छे लोगों को चुनना चाहिए जिनके पास अंतरात्मा और विवेक हो, और जो अच्छी क्षमता वाले हों और कार्य करने में समर्थ हों? ऐसा इसलिए है क्योंकि मानवजाति गहराई तक भ्रष्ट है और लगभग कोई भी उपयोग के योग्य नहीं है। जब तक किसी के पास वर्षों का प्रशिक्षण और पोषण न हो, वह कार्यों को अत्यंत अक्षम रूप से करता है और अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से पूरा करने में उसको काफी कठिनाई होती है, और इससे पहले कि वह उपयोग में लिए जाने के योग्य हो जाए, उसका न्याय किया जाना चाहिए, उसे ताड़ना दी जानी चाहिए, और उसकी कई बार काट-छाँट होनी चाहिए। अधिकांश लोगों को उनके प्रशिक्षण के दौरान बेनकाब किया जाता है और हटा दिया जाता है, और काफी बड़ी संख्या में अगुआओं और कार्यकर्ताओं को हटाया जाता है। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि मानवजाति को शैतान के द्वारा अत्यधिक गहराई तक भ्रष्ट किया जा चुका है। अधिकांश लोग सत्य से प्रेम नहीं करते हैं, न ही वे अंतरात्मा और विवेक के मानक को पूरा करते हैं। इसलिए उनमें से अधिकांश लोग उपयोग में लेने के योग्य नहीं हैं। कुछ कर्तव्यों को करने में समर्थ होने के लिए उन्हें कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करना होगा और कुछ सत्य समझना होगा। भ्रष्ट मानवजाति की यही वास्तविकता है। इसलिए, इस आधार पर, हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” वाली कहावत पूरी तरह से गलत है और इसका कोई व्यावहारिक महत्व नहीं है। हम यह निश्चित रूप से कह सकते हैं कि “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” एक पाखंड और भ्रांति है; यह एक दुष्ट कहावत है, एक शैतानी फलसफा है, और ऐसा चरित्र-चित्रण करना नितांत सही है। परमेश्वर ने कभी भी ऐसा कुछ नहीं कहा है कि “भ्रष्ट मानवजाति का भरोसा किया जा सकता है।” उसने हमेशा यह माँग की है कि लोग ईमानदार बनें, जिससे यह साबित होता है कि सारी मानवजाति में ईमानदार लोग बहुत ही कम हैं, सभी झूठ बोलने और धोखा देने में सक्षम होते हैं, और सभी का एक धोखेबाज स्वभाव होता है। इसके अलावा, परमेश्वर ने कहा था कि इसकी सौ प्रतिशत संभावना है कि भ्रष्ट मानवजाति परमेश्वर को धोखा देगी। यदि परमेश्वर किसी व्यक्ति का उपयोग करता भी है, तो उस व्यक्ति को वर्षों की काट-छाँट से गुजरना होगा, और उसके उपयोग के दौरान भी, उसे शुद्ध होने के लिए वर्षों तक न्याय और ताड़ना का अनुभव करना होगा। अब, तुम लोग मुझे बताओ, क्या सचमुच कोई ऐसा व्यक्ति है जो भरोसेमंद हो? किसी में यह कहने की हिम्मत नहीं है। और किसी में हिम्मत नहीं है इस बात से क्या साबित होता है? इससे यह साबित होता है सभी लोग अविश्वसनीय हैं। तो चलो, फिर से “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” वाले वाक्यांश पर वापस जाते हैं। यह किस तरह से गलत है? इसमें असंगत क्या है? क्या यह स्वतः स्पष्ट नहीं है? यदि कोई अब भी मानता है कि यह कहावत किसी भी तरह से सही या लागू करने योग्य है, तो निश्चित रूप से उस व्यक्ति के पास सत्य नहीं है, और वह एक बेतुका व्यक्ति है। आज तुम लोग इस कहावत में समस्या को देख पाते हो, और यह तय कर पाते हो कि यह एक भ्रांति है, और यह पूरी तरह से इसलिए है कि तुमने परमेश्वर के कार्य का अनुभव किया है और तुम अब अधिक स्पष्ट रूप से देखने में तथा भ्रष्ट मानवजाति के सार में अधिक स्पष्ट अंतर्दृष्टि हासिल करने में सक्षम हो। यह केवल इसी वजह से है कि तुम इस दुष्ट वाक्यांश की, इस पाखंड और भ्रांति की निंदा करने में सक्षम हो। यदि परमेश्वर का उद्धार का कार्य न होता, तो तुम लोग भी शैतान के इस दुष्ट कथन से गुमराह हो चुके होते और यहाँ तक कि इसका इस तरह से उपयोग करते मानो यह कोई मानक कथन या कोई आदर्श वाक्य हो। वह तो कितना दयनीय होगा—तुम्हारे पास कोई सत्य वास्तविकता ही नहीं होगी।

यह वाक्यांश, “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो,” अधिकांश लोगों ने पहले भी सुन रखा है। तुम लोग इसे सही समझते हो या गलत? (गलत।) चूँकि तुम इसे गलत मानते हो, तो फिर यह वास्तविक जीवन में तुम्हें प्रभावित क्यों कर पाता है? जब इस तरह के मामले तुम पर आ पड़ते हैं तो यह दृष्टिकोण सामने आएगा। यह कुछ हद तक तुम्हें परेशान करेगा, और जब यह तुम्हें परेशान करता है, तो तुम्हारे काम पर असर पड़ेगा। इसलिए, अगर तुम इसे गलत मानते हो और तुमने यह निश्चित कर लिया है कि यह गलत है तो फिर तुम क्यों अब भी इससे प्रभावित होते हो और क्यों तुम अब भी तसल्ली के लिए इसका उपयोग करते हो? (चूँकि लोग सत्य नहीं समझते हैं, परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास नहीं कर पाते हैं, इसलिए वे सांसारिक आचरण के शैतानी फलसफे को अपना सिद्धांत या अभ्यास की कसौटी मान लेंगे।) यह एक कारण है। क्या दूसरे कारण भी हैं? (चूँकि यह वाक्यांश लोगों के दैहिक हितों के साथ अपेक्षाकृत रूप से सुसंगत है, और जब वे सत्य नहीं समझते हैं तो वे स्वाभाविक रूप से इस वाक्यांश के अनुसार आचरण करेंगे।) जब लोग सत्य नहीं समझते, केवल तभी वे ऐसे नहीं होते; जब वे सत्य समझते हैं तब भी शायद वे सत्य के अनुसार व्यवहार करने में सक्षम नहीं होंगे। यह सही है कि यह वाक्यांश “लोगों के दैहिक हितों के साथ अपेक्षाकृत रूप से सुसंगत है।” सत्य का अभ्यास करने के बजाय लोग अपने ही दैहिक हितों की रक्षा करने के लिए किसी कपटी चाल या सांसारिक आचरण के किसी शैतानी फलसफे का अनुसरण करना अधिक पसंद करेंगे। इसके अलावा, उनके पास ऐसा करने के लिए एक आधार भी है। यह आधार क्या है? वह यह है कि यह वाक्यांश जन-साधारण के द्वारा सही के रूप में व्यापक तौर पर स्वीकार किया जाता है। जब वे इस वाक्यांश के अनुसार काम करते हैं तो उनके कार्यकलाप अन्य सभी लोगों के सामने मान्य होंगे, और वे आलोचना से बच सकते हैं। चाहे इसे नैतिक या कानूनी दृष्टिकोण से देखें, या इसे पारंपरिक धारणाओं के दृष्टिकोण से ही देखें, यह एक नजरिया और एक व्यवहार है जो न्यायोचित लगता है। इसलिए, जब तुम सत्य के अभ्यास के प्रति अनिच्छुक होते हो, या जब तुम इसे नहीं समझते हो तो शायद तुम इसकी जगह परमेश्वर का अपमान करना पसंद करोगे, सत्य का उल्लंघन करना पसंद करोगे, और एक ऐसी जगह पर पीछे हटना पसंद करोगे जो नैतिक सीमा रेखा को पार नहीं करती है। और वो जगह क्या है? यह वह सीमा रेखा है कि तुम “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।” इस जगह पर पीछे हटने और इस वाक्यांश के अनुसार पेश आने से तुम्हारे मन को शांति मिलेगी। यह तुम्हारे मन को शांति क्यों देता है? यह इसलिए है क्योंकि बाकी सभी लोग भी इसी तरह सोचते हैं। साथ ही, तुम्हारा दिल भी इसी अवधारणा को प्रश्रय देता है कि “जब हर कोई अपराधी हो तो कानून लागू नहीं किया जा सकता,” और तुम सोचते हो, “हर कोई तो इसी तरह सोचता है। यदि मैं इस वाक्यांश के अनुसार आचरण करता हूँ तो, कोई बात नहीं यदि परमेश्वर मेरी निंदा करता है क्योंकि वैसे भी मैं न तो परमेश्वर को देख सकता हूँ, न ही पवित्र आत्मा को स्पर्श कर सकता हूँ। कम से कम दूसरों की दृष्टि में, मैं मानवीय गुणों वाले व्यक्ति के रूप में देखा जाऊँगा, एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जिसमें कुछ तो जमीर है।” तुम इन “मानवीय गुणों” की खातिर, सत्य को धोखा देना पसंद करोगे, ताकि लोग तुम्हें बिना द्वेष भावना के देखें। तब हर कोई तुम्हारे बारे में अच्छा सोचेगा, तुम्हारी आलोचना नहीं की जाएगी, और तुम्हारा जीवन आरामदायक होगा, तुम्हारे मन में शांति होगी—तुम्हें तो मन की शांति चाहिए। क्या यह मन की शांति सत्य के प्रति किसी व्यक्ति के प्रेम की अभिव्यक्ति है? (नहीं, यह नहीं है।) तो, यह किस प्रकार का स्वभाव है? क्या इसमें धोखेबाजी निहित है? हाँ, इसमें धोखेबाजी है। तुमने इसके बारे में कुछ सोचा है, और तुम जानते हो कि “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” वाक्यांश सही नहीं है, कि यह सत्य नहीं है। तो क्यों, जब तुम किसी असमंजस में पड़ जाते हो तब भी सत्य का चुनाव नहीं करते हो, बल्कि इसके बजाय, तुम पारंपरिक संस्कृति से लिए गए एक दार्शनिक वाक्यांश का पालन करते हो, जिसके प्रति लोग सबसे अधिक ग्रहणशील होते हैं? तुम क्यों इसे चुनते हो? यह लोगों के जटिल विचारों से संबंधित है, और एक बार जब जटिल विचार हों, तो इसमें किस तरह का स्वभाव निहित होता है? (दुष्टता का।) दुष्टता के अतिरिक्त, यहाँ एक और पहलू काम कर रहा है। तुम पूरी तरह से इस वाक्यांश को सही नहीं मानते हो, फिर भी तुम इसका पालन करते हो और तुम इसे अपने ऊपर हावी होने देते हो और अपने ऊपर नियंत्रण करने देते हो। यहाँ एक बात निश्चित है : तुम सत्य से विमुख हो, और तुम कोई ऐसे व्यक्ति नहीं हो जो सत्य से प्रेम करता हो। क्या यही स्वभाव नहीं है? (हाँ, यह है।) इतनी बात तो निश्चित है। जब लोग काम करते हैं तो वे कई दृष्टिकोणों से प्रभावित होते हैं, और हालाँकि यह आवश्यक नहीं कि तुम अपने दिल में इन दृष्टिकोणों को सही मानते हो, तुम फिर भी इनका पालन कर सकते हो और इनसे चिपके रह सकते हो, जो कि एक निश्चित स्वभाव से प्रेरित होता है। यद्यपि तुम इन दृष्टिकोणों को गलत मानते हो, फिर भी ये तुम्हें प्रभावित कर सकते हैं, तुम पर हावी हो सकते हैं और तुममें हेर-फेर कर सकते हैं। यह एक दुष्ट स्वभाव है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग ड्रग्स लेते हैं या जुआ खेलते हैं, पर साथ ही यह भी कहते हैं कि ड्रग्स लेना या जुआ खेलना बुरा है और यहाँ तक कि दूसरों को सलाह भी देते हैं कि वे ऐसे काम न करें, वर्ना मुमकिन है कि वे सब कुछ खो देंगे। वे इन वस्तुओं को गलत मानते हैं, वे उन्हें नकारात्मक मानते हैं, पर क्या वे उन्हें त्याग सकते हैं, छोड़ सकते हैं? (नहीं।) वे कभी भी अपने को रोक नहीं पाएँगे, और वे खुलकर यह भी कहते हैं “जुआ भी पैसे कमाने का एक तरीका है, और यह एक पेशा बन सकता है।” क्या वे इसे महज अलंकृत नहीं कर रहे हैं? वास्तव में, वे मन ही मन सोचते हैं, “यह कैसा पेशा है? मेरे पास जो कुछ भी कीमती था उसे मैंने गिरवी रख दिया है और इससे जो कुछ भी कमाया था उसे भी गँवा दिया है। अंततः, कोई भी जुआरी एक सामान्य जीवन नहीं जी सकता है।” तो वे इसे फिर भी इस तरह से अलंकृत क्यों करते हैं? क्योंकि वे इसे छोड़ नहीं सकते हैं। और वे इसे क्यों नहीं छोड़ सकते हैं? क्योंकि यह उनकी प्रकृति में है; इसने वहाँ पहले ही अपनी जड़ें जमा ली हैं। उन्हें इसकी जरूरत है और वे इसके खिलाफ विद्रोह नहीं कर सकते हैं, यह उनकी प्रकृति में है। हमने “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” वाक्यांश पर कमोबेश काफी संगति कर ली है। क्या कोई व्यक्ति इसलिए इससे प्रभावित होता है कि उसे इस तरह के दृष्टिकोण को अपनाने के लिए एक क्षणिक भावावेग था, या यह इसलिए है कि शैतान ने, लापरवाही के एक पल का फायदा उठाते हुए, इस व्यक्ति में इस तरह का एक दृष्टिकोण भर दिया, जिससे वह इसके अनुसार क्रियाकलाप करने लगा? (नहीं।) इसमें उस व्यक्ति की भ्रष्ट प्रकृति निहित है; वह ऐसा रास्ता इसलिए चुनता है क्योंकि यह चीज उसकी प्रकृति में है। “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” वाक्यांश का इस तरह से गहन-विश्लेषण कर लेने के बाद, अब तुम इसे मूलतः समझ लेते हो। यह वाक्यांश सांसारिक आचरण के शैतानी फलसफे के रूप में परिभाषित किया जाता है—यह किसी भी तरह से सत्य नहीं है। क्या इसका सत्य से कोई संबंध है? (नहीं।) इसका सत्य से बिल्कुल भी कोई संबंध नहीं है, और यह परमेश्वर के द्वारा निंदित है। यह सत्य नहीं है; यह शैतान से आता है, परमेश्वर से नहीं। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इस वाक्यांश का सत्य से, या परमेश्वर में विश्वास करने वालों को किस तरह से कार्य करना चाहिए, कैसे आचरण करना चाहिए, और परमेश्वर की आराधना कैसे करनी चाहिए, इनकी कसौटी से कोई संबंध नहीं है। इस वाक्यांश की पूरी तरह से निंदा की गई है। इस वाक्यांश के भ्रामक गुण अपेक्षाकृत रूप से बिल्कुल स्पष्ट हैं, ताकि तुम आसानी से पहचान कर सको कि यह सही है या नहीं।

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