प्रकरण छह : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव सार का सारांश (भाग तीन) खंड चार
ख. सत्य से विमुख होना
इसके बाद हम मसीह-विरोधियों के स्वभाव सार की दूसरी मद—सत्य से विमुख होना—पर संगति करेंगे। हमने सत्य से विमुख होने की इस मद के कई विवरणों पर पहले भी संगति की है, लेकिन यहाँ हम मुख्य रूप से मसीह-विरोधियों को उनके उस स्वभाव सार का गहन-विश्लेषण करके निरूपित करेंगे, जो सत्य से विमुख होना है। मसीह-विरोधी सत्य को कैसे लेते हैं, इसकी मुख्य स्वभावगत विशेषता मात्र अरुचि होना नहीं है, बल्कि विमुखता है। अरुचि सत्य के प्रति अपेक्षाकृत हलका रवैया मात्र है, जो शत्रुता, निंदा या विरोध के स्तर तक नहीं बढ़ा है। यह सिर्फ सत्य में रुचि न होना, उस पर ध्यान न देना और यह कहना है, “कौन-सी सकारात्मक चीजें, कौन-सा सत्य? अगर मैं ये चीजें प्राप्त कर भी लूँ, तो भी क्या हो जाएगा? क्या इनसे मेरा जीवन बेहतर हो जाएगा या मेरी योग्यताएँ बढ़ जाएँगी?” वे इन चीजों में रुचि नहीं रखते और इसलिए वे इनकी चिंता नहीं करते, लेकिन ये चीजें विमुखता के स्तर तक नहीं पहुँचतीं। विमुखता एक निश्चित रवैया इंगित करती है। कैसा रवैया? जैसे ही वे किसी सकारात्मक चीज या सत्य से जुड़ी किसी चीज के बारे में सुनते हैं, उन्हें घृणा, विकर्षण, प्रतिरोध और सुनने की अनिच्छा महसूस होती है। यहाँ तक कि वे सत्य की निंदा करने और इसे नीचा दिखाने के लिए सबूत ढूँढ़ने की कोशिश भी कर सकते हैं। यह उनका सत्य से विमुख होने का स्वभाव सार है।
अन्य लोगों की तरह मसीह-विरोधी भी परमेश्वर के वचन पढ़ सकते हैं, परमेश्वर जो कहता है उसे सुन सकते हैं और परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर सकते हैं। देखने में ऐसा लगता है कि वे परमेश्वर के वचनों का शाब्दिक अर्थ भी समझ सकते हैं, जान सकते हैं कि परमेश्वर ने क्या कहा है और यह भी जान सकते हैं कि ये वचन लोगों को सही मार्ग अपनाने और अच्छे लोग बनने में सक्षम बनाते हैं। लेकिन ये चीजें उनके लिए महज सैद्धांतिक ही रहती हैं। इसका क्या मतलब है कि वे सैद्धांतिक ही रहती हैं? यह उसी तरह है, जैसे कुछ लोग मानते हैं कि किसी पुस्तक में एक सिद्धांत-विशेष अच्छा है, लेकिन जब वे वास्तविक जीवन से उसकी तुलना करते हैं और बुरी प्रवृत्तियों, इंसानी भ्रष्टता और पूरी मानवजाति की विभिन्न आवश्यकताओं के बारे में सोचते हैं, तो उन्हें वह सिद्धांत अव्यावहारिक और वास्तविक जीवन से कटा हुआ लगता है, और उन्हें एहसास होता है कि वह लोगों को इन बुरी प्रवृत्तियों और इस बुरे समाज के अनुकूल होने या उसका अनुगमन करने में मदद नहीं कर सकता। इसलिए उन्हें लगता है कि यह सिद्धांत अच्छा तो है, लेकिन यह सिर्फ बोलने के लिए है, सुंदर चीजों के लिए मानवजाति की इच्छाएँ और कल्पनाएँ पूरी करने के लिए है। उदाहरण के लिए, अगर किसी को रुतबा पसंद है और वह पदाधिकारी बनकर लोगों के बीच ऊँचा उठना और पुजना चाहता है, तो उसे यह लक्ष्य प्राप्त करने के लिए झूठ बोलने, खुद को आकर्षक रूप में प्रस्तुत करने और दूसरों के साथ अन्याय करने आदि जैसे असामान्य तरीकों पर निर्भर रहना होगा। लेकिन बिल्कुल इन्हीं चीजों की तो सत्य निंदा करता है। वह मनुष्यों की इन इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं की निंदा करता है और इन्हें नकारता है। वास्तविक जीवन में लोग सोचते हैं कि अपनी अलग पहचान बनाना एक वैध चीज है, लेकिन परमेश्वर और सत्य ऐसी माँगों की निंदा करते हैं। इसलिए परमेश्वर के घर में ये माँगें स्वीकार नहीं की जातीं, वहाँ इन्हें लागू करने का कोई मौका नहीं होता और इन्हें साकार करने की कोई गुंजाइश नहीं होती। लेकिन क्या मसीह-विरोधी इन्हें छोड़ देंगे? (वे इन्हें नहीं छोड़ेंगे।) सही कहा, वे इन्हें नहीं छोड़ेंगे। जैसे ही मसीह-विरोधी इसे देखते हैं, वे सोचते हैं, “अब मैं समझ गया। तो सत्य लोगों से निस्स्वार्थ होने, आत्म-बलिदान करने, सहनशील और उदार होने, अपना अहंकार त्यागकर दूसरों के लिए जीने की अपेक्षा करता है। यही सत्य है।” जब वे सत्य को इस तरह से परिभाषित कर देते हैं, तो वे सत्य में रुचि रखते हैं या उससे विकर्षित हो जाते हैं? वे उससे विकर्षित हो जाते हैं, परमेश्वर से भी विकर्षित हो जाते हैं और कहते हैं, “परमेश्वर हमेशा सत्य बोलता है, वह हमेशा इंसानी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं जैसी अशुद्ध चीजें उजागर करता है और वह हमेशा इंसानी आत्माओं की तह में जो कुछ भी होता है उसे उजागर करता है। ऐसा लगता है कि परमेश्वर लोगों को उनके रुतबे, इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं के अनुसरण से वंचित करने के उद्देश्य से सत्य के बारे में संगति करता है। शुरू में मुझे लगा कि परमेश्वर लोगों की इच्छाएँ पूरी कर सकता है, उनकी अभिलाषाएँ और सपने पूरे कर सकता है और लोग जो चाहते हैं वह उन्हें दे सकता है। मुझे उम्मीद नहीं थी कि परमेश्वर इस तरह का परमेश्वर है। वह उतना महान नहीं लगता। मैं महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं से भरा हुआ हूँ : क्या परमेश्वर मुझ जैसे व्यक्ति को पसंद कर सकता है? परमेश्वर ने हमेशा जो कहा है उससे आँकते हुए और उसके वचनों का निहितार्थ समझने पर ऐसा लगता है कि परमेश्वर मुझ जैसे लोगों को पसंद नहीं करता, न ही वह मुझ जैसे किसी व्यक्ति के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध रख सकता है। ऐसा लगता है कि मैं ऐसे व्यावहारिक परमेश्वर के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध नहीं रख सकता। वह जो वचन बोलता है, जो कार्य करता है, उसके क्रियाकलापों के सिद्धांत और उसका स्वभाव—ये सब मुझे इतने अप्रिय क्यों लगते हैं? परमेश्वर लोगों से ईमानदार होने, जमीर रखने, चीजें आ पड़ने पर परमेश्वर की खोज करने, उसका आज्ञापालन करने, उसका भय मानने और अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ त्यागने के लिए कहता है—ये ऐसी चीजें हैं जो मैं नहीं कर सकता! परमेश्वर जो माँग करता है वह न सिर्फ इंसानी धारणाओं के साथ असंगत है, बल्कि इंसानी भावनाओं के प्रति असंवेदनशील भी है। मैं उसमें विश्वास कैसे कर सकता हूँ?” अपने मन में इस तरह से सोचने के बाद उनमें परमेश्वर के प्रति अच्छी भावना विकसित होती है या वे उससे दूर हो जाते हैं? (वे उससे दूर हो जाते हैं।) कुछ समय के अनुभव के बाद मसीह-विरोधी तेजी से महसूस करते हैं कि उन जैसे लोगों का, जिनमें महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ होती हैं और जो आकांक्षाओं से भरे होते हैं, परमेश्वर के घर में स्वागत नहीं किया जाएगा, यहाँ उनके लिए अपने कौशल इस्तेमाल करने की कोई गुंजाइश नहीं है और वे यहाँ अपनी आकांक्षाएँ खुलकर पूरी नहीं कर सकते। वे सोचते हैं, “परमेश्वर के घर में मैं अपनी असाधारण प्रतिभा प्रकट नहीं कर सकता। मुझे कभी उत्कृष्टता प्राप्त करने का मौका नहीं मिलेगा। वे कहते हैं कि मुझमें आध्यात्मिक समझ नहीं है, मैं सत्य नहीं समझता और मुझमें मसीह-विरोधी का स्वभाव है। न सिर्फ मुझे पदोन्नत नहीं किया गया है या किसी महत्वपूर्ण पद पर नहीं रखा गया है, बल्कि मेरी निंदा भी की गई है। मेरे द्वारा अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने में क्या गलत है? मेरा दूसरों को यातनाएँ देने में क्या गलत है? चूँकि मेरे पास शक्ति है, इसलिए मुझे ऐसा व्यवहार करना ही चाहिए! कौन होगा जो शक्ति होने पर ऐसा व्यवहार नहीं करेगा? तो चुनावों के दौरान मेरे द्वारा कुछ बेईमानी और धोखाधड़ी करने में क्या गलत है? क्या सभी गैर-विश्वासी ऐसा नहीं करते? परमेश्वर के घर में ऐसा क्यों नहीं करने दिया जाता? वे तो यहाँ तक कहते हैं कि यह बेशर्मी है। इसे बेशर्मी कैसे माना जा सकता है? आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है। यह उचित है! परमेश्वर का घर मजेदार नहीं है। लेकिन इस दुनिया में लोग बहुत ही दुष्ट हैं और उनके साथ सौहार्दपूर्ण संबंध रखना आसान नहीं है। तुलनात्मक रूप से, परमेश्वर के घर के लोग थोड़े बेहतर व्यवहार करने वाले हैं। अगर परमेश्वर न होता, तो यहाँ समय बिताना बहुत बढ़िया होता; अगर लोगों पर शासन करने वाला कोई परमेश्वर और कोई सत्य न होता, तो मैं परमेश्वर के घर में बॉस, मालिक और राजा होता।” परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभाते हुए वे लगातार विभिन्न चीजों का अनुभव करते हैं, उनकी लगातार काट-छाँट की जाती है और उन्हें बदल-बदलकर विभिन्न कर्तव्य दिए जाते हैं और अंततः उन्हें कुछ एहसास होता है और वे कहते हैं, “परमेश्वर के घर में जो कुछ भी होता है, उसे सत्य का इस्तेमाल करके मापा और हल किया जाता है। सत्य पर हमेशा जोर दिया जाता है और परमेश्वर हमेशा उसके बारे में बात करता है। मैं यहाँ अपनी आकांक्षाएँ खुलकर पूरी नहीं कर सकता!” अपने अनुभवों में इस बिंदु पर पहुँचने के बाद वे सत्य से, सत्य द्वारा शासन करने से, परमेश्वर द्वारा की जाने वाली हर चीज के सत्य होने से और सत्य खोजने से अधिकाधिक विमुख हो जाते हैं। वे इन चीजों से किस हद तक विमुख महसूस करते हैं? वे सत्यों के उन धर्म-सिद्धांतों को भी मानना या स्वीकारना नहीं चाहते, जिन्हें उन्होंने बिल्कुल शुरू में स्वीकार लिया था और वे अपने दिलों में बेहद घृणा महसूस करते हैं। इसलिए जैसे ही सभा का समय आता है, वे उनींदे और चिंतित हो जाते हैं। वे चिंतित क्यों होते हैं? वे सोचते हैं, “ये सभाएँ एक बार में तीन-चार घंटे तक चलती हैं—यह कब खत्म होगी? मैं अब और नहीं सुनना चाहता!” एक वाक्यांश है, जो उनकी मनःस्थिति का वर्णन कर सकता है, “काँटों पर लोटना।” उन्हें एहसास होता है कि जब तक परमेश्वर के घर में सत्य का शासन है, तब तक उन्हें कभी उत्कृष्टता हासिल करने का मौका नहीं मिलेगा, बल्कि वे हमेशा सभी के द्वारा प्रतिबंधित, खारिज और अस्वीकृत किए जाएँगे और चाहे वे कितने भी सक्षम हों, उन्हें महत्वपूर्ण भूमिकाएँ नहीं दी जाएँगी। नतीजतन, सत्य और परमेश्वर के प्रति उनकी घृणा तीव्र हो जाती है। कोई पूछ सकता है, “उन्होंने शुरू से ही घृणा महसूस क्यों नहीं की?” वास्तव में, वे शुरू से ही घृणा महसूस करते थे, लेकिन उस समय परमेश्वर के घर में सब-कुछ उनके लिए अपरिचित था। उन्हें उसकी कोई संकल्पना नहीं थी, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उन्हें घृणा या विमुखता महसूस नहीं हुई। वास्तव में, वे अपने प्रकृति सार के भीतर सत्य से विमुखता महसूस करते थे, उन्हें बस इसका एहसास नहीं था। इन लोगों का प्रकृति सार निस्संदेह सत्य से विमुख है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? वे अन्याय, दुष्टता, शक्ति, बुरी प्रवृत्तियों, प्रभारी होने, लोगों को नियंत्रित करने और ऐसी तमाम नकारात्मक चीजों से सहज रूप से प्रेम करते हैं। इन चीजों से आँकें तो, जिनसे वे प्रेम करते हैं, इसमें कोई शक नहीं कि मसीह-विरोधी सत्य से विमुख महसूस करते हैं। इसके अलावा, वे जिस चीज के लिए प्रयास करते हैं, उसके अनुसार वे रुतबे के लिए प्रयास करते हैं, वे खुद को औरों से अलग दिखाने का प्रयास करते हैं, वे अपने सिर पर प्रभामंडल रखने का प्रयास करते हैं, वे लोगों के बीच अगुआ बनने का प्रयास करते हैं, प्रभावशाली और शक्तिशाली होने का प्रयास करते हैं, जहाँ भी वे बोलते और काम करते हैं वहीं प्रतिष्ठा और ताकत पाने के साथ-साथ लोगों को नियंत्रित करने की योग्यता पाने का प्रयास करते हैं—वे इन चीजों के लिए प्रयास करते हैं। यह भी सत्य से विमुख महसूस करने की अभिव्यक्ति है। इसके अलावा, सत्य के प्रति उनके रवैये से आँकें तो, चाहे ये व्यक्ति इसे कितना भी सुन लें, यह बेकार होगा। कुछ लोग पूछ सकते हैं, “क्या ऐसा इसलिए है कि उनकी याददाश्त खराब है?” नहीं, ऐसा नहीं है। कुछ मसीह-विरोधियों की याददाश्त बहुत अच्छी होती है, वे विशेष रूप से वाक्पटु होते हैं और वे जो सीखते हैं उसे तुरंत लागू कर उसका प्रदर्शन कर सकते हैं। नतीजतन जिन लोगों में विवेक नहीं होता, उन्हें लगता है कि इन व्यक्तियों में काबिलियत है और इनमें पवित्र आत्मा काम कर रहा है। लेकिन विवेकशील लोग तुरंत पहचान सकते हैं कि वे जो कुछ भी बोलते हैं, वह सब धर्मसिद्धांत और खोखले शब्द हैं, उनमें कोई सत्य-वास्तविकता नहीं है और वे लोगों को गुमराह करने के इरादे से बोले गए हैं। मसीह-विरोधी ऐसे लोग होते हैं : वे विशेष रूप से ऊँचे उपदेश देना, आध्यात्मिक सिद्धांतों पर खोखले तरीके से चर्चा करना और शब्दों की झड़ी लगाना पसंद करते हैं, जो एक बार शुरू होने के बाद, विषय से हटकर और बड़बड़ होती है। बहुत-से लोग उसे समझ नहीं पाते, और मसीह-विरोधी कहते हैं, “यह तीसरे स्वर्ग की भाषा है; तुम लोग इसे कैसे समझ सकते हो?” मसीह-विरोधियों के सत्य से विमुख होने की मुख्य अभिव्यक्ति उसके प्रति उनके रवैये में देखी जा सकती है और बेशक, यह उनके सामान्य दैनिक जीवन और गतिविधियों में भी अभिव्यक्त होता है, खासकर इसमें कि वे अपने कर्तव्य कैसे निभाते हैं। वे कई अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करते हैं। पहली, वे कभी सत्य नहीं खोजते, तब भी नहीं जब उन्हें स्पष्ट रूप से पता होता है कि उन्हें खोजना चाहिए। दूसरी, वे कभी सत्य का अभ्यास नहीं करते। चूँकि वे सत्य नहीं खोजते, इसलिए वे उसका अभ्यास कर ही कैसे सकते हैं? समझ सिर्फ खोजने से ही आ सकती है और सिर्फ समझ ही अभ्यास की ओर ले जा सकती है; वे न तो खोजते हैं, न ही सत्य-सिद्धांतों के बारे में गंभीरता से सोचते हैं। यहाँ तक कि वे उनका तिरस्कार भी करते हैं, उनसे विमुख महसूस करते हैं और उन्हें शत्रुता से देखते हैं। नतीजतन, वे कभी सत्य के अभ्यास को छूते तक नहीं, और अगर वे कभी-कभी सत्य को समझते भी हैं, तो भी वे उसका अभ्यास नहीं करते। उदाहरण के लिए, जब उनके साथ बुरा होता है और दूसरे लोग कोई अच्छा उपाय सुझाते हैं, तो वे पलटकर कह सकते हैं, “इसमें क्या अच्छा है? अगर मैं ऐसा करूँगा, तो क्या मेरे अपने विचार व्यर्थ नहीं चले जाएँगे?” कुछ लोग कह सकते हैं, “अगर हम तुम्हारे तरीके से काम करेंगे तो परमेश्वर के घर को नुकसान होगा; हमें सिद्धांतों के अनुसार काम करना चाहिए।” वे जवाब देते हैं, “कौन-से सिद्धांत! मेरा तरीका ही सिद्धांत है; मैं जो सोचता हूँ वही सिद्धांत है!” क्या यह सत्य का अभ्यास न करना नहीं है? (हाँ, है।) उनकी एक और मुख्य अभिव्यक्ति यह है कि वे कभी परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ते या आध्यात्मिक भक्ति में संलग्न नहीं होते। जब कुछ लोग काम में व्यस्त होते हैं और परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए समय नहीं निकाल पाते, तो वे चुपचाप चिंतन करते हैं या कुछ भजन गा लेते हैं और अगर उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़े कई दिन हो जाते हैं तो उन्हें खालीपन का एहसास होता है। अपनी व्यस्तता के बीच वे एक अंश पढ़कर खुद को समृद्ध करने के लिए एक पल चुराते हैं, तब तक चिंतन करते हैं जब तक परमेश्वर की उपस्थिति महसूस नहीं कर लेते और उनका दिल स्थिर नहीं हो जाता। ऐसे लोग परमेश्वर से बहुत दूर नहीं होते। दूसरी ओर, मसीह-विरोधी अगर किसी दिन परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ पाते, तो उन्हें कोई परेशानी महसूस नहीं होती। अगर वे 10 दिनों तक भी परमेश्वर के वचन न पढ़ें, तो भी उन्हें कुछ महसूस नहीं होता। वे एक साल तक भी परमेश्वर के वचन पढ़े बिना काफी अच्छी तरह से रह सकते हैं और वे परमेश्वर के वचन पढ़े बिना तीन साल भी बिता सकते हैं और कुछ महसूस नहीं करते—उन्हें अपने दिल में डर या खालीपन महसूस नहीं होता और वे आराम से जीते रहते हैं। उन्हें परमेश्वर के वचनों से गहन विमुखता महसूस होती है! कोई व्यक्ति व्यस्तता के कारण परमेश्वर के वचन पढ़े बिना एक दिन या शायद उसी कारण से 10 दिन बिता सकता है। लेकिन अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर के वचन पढ़े बिना पूरा महीना बिता सकता है और फिर भी कुछ महसूस नहीं करता, तो फिर समस्या है। अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर के वचन पढ़े बिना एक साल भी बिता देता है, तो उसमें न सिर्फ परमेश्वर के वचनों के लिए ललक नहीं होती—बल्कि उसमें सत्य से विमुखता भी होती है।
मसीह-विरोधियों के सत्य से विमुख महसूस करने की एक और अभिव्यक्ति उनके द्वारा मसीह की अवहेलना है। हमने पहले भी उनके द्वारा मसीह की अवहेलना के बारे में संगति की है। तो, मसीह ने ऐसा क्या किया है जो वे उसकी अवहेलना करते हैं? क्या उसने उन्हें चोट पहुँचाई या नुकसान पहुँचाया या उनकी इच्छा के विपरीत कुछ किया? क्या उसने उनके किसी हित को नुकसान पहुँचाया? नहीं। मसीह उनसे कोई व्यक्तिगत द्वेष नहीं रखता और वे उससे मिले भी नहीं हैं। फिर वे उसकी अवहेलना कैसे कर सकते हैं? इसका मूल कारण मसीह-विरोधियों के सत्य से विमुख महसूस करने के सार में निहित है। मसीह-विरोधियों के सत्य से विमुख महसूस करने की एक और अभिव्यक्ति तमाम सकारात्मक चीजों की वास्तविकता के प्रति उनकी अवहेलना है। सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता में कई तरह की चीजें शामिल हैं, जैसे कि परमेश्वर द्वारा सृजित तमाम चीजें और उनके नियम, विभिन्न जीवित चीजें और उनके जीवन को नियंत्रित करने वाले नियम और मुख्य रूप से मनुष्य कहे जाने वाले इन जीवित प्राणियों के जीवन को नियंत्रित करने वाले विभिन्न नियम। उदाहरण के लिए, जन्म, आयु, बीमारी और मृत्यु के मामले, जो मानव-जीवन के सबसे करीब होते हैं—सामान्य लोगों के पैर उम्र बढ़ने के साथ कमजोर हो जाते हैं, उनका स्वास्थ्य गिर जाता है, उनकी आँखें धुँधली हो जाती हैं, उन्हें सुनने में कठिनाई होती है, उनके दाँत ढीले हो जाते हैं और उन्हें लगता है कि उन्हें वृद्धावस्था स्वीकार लेनी चाहिए। परमेश्वर इन सब पर संप्रभुता रखता है और कोई भी इस प्राकृतिक नियम के विरुद्ध नहीं जा सकता—सामान्य लोग ये तमाम चीजें स्वीकार सकते हैं। लेकिन कोई व्यक्ति चाहे कितने भी लंबे समय तक जीवित रहे या उसका शारीरिक स्वास्थ्य कैसा भी हो, कुछ चीजें नहीं बदलतीं, जैसे कि उन्हें अपना कर्तव्य किस तरह निभाना चाहिए, उन्हें कौन-सी स्थिति अपनानी चाहिए और उन्हें अपना कर्तव्य किस रवैये से निभाना चाहिए। दूसरी ओर, मसीह-विरोधी झुकने से इनकार करते हैं। वे कहते हैं, “मैं कौन हूँ? मैं बूढ़ा नहीं हो सकता। मुझे हर समय साधारण लोगों से अलग होना चाहिए। क्या मैं तुम्हें बूढ़ा दिखता हूँ? कुछ काम होते हैं जो तुम इस उम्र में नहीं कर सकते, लेकिन मैं कर सकता हूँ। तुम्हारे पैर पचास की उम्र में कमजोर हो सकते हैं, लेकिन मेरे पैर फुर्तीले रहते हैं। मैं तो एक छत से दूसरी छत पर कूदने का भी अभ्यास करता हूँ!” वे हमेशा परमेश्वर द्वारा निर्धारित इन सामान्य नियमों को चुनौती देना चाहते हैं, वे लगातार इन्हें तोड़ने की कोशिश करते हैं और दूसरों को यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि वे साधारण लोगों से अलग, असाधारण और श्रेष्ठ हैं। वे ऐसा क्यों करते हैं? वे परमेश्वर के वचनों को चुनौती देना चाहते हैं और इस बात को नकारना चाहते हैं कि उसके वचन सत्य हैं। क्या यह सत्य से विमुखता महसूस करने के मसीह-विरोधियों के सार की अभिव्यक्ति नहीं है? (हाँ, है।) एक और पहलू यह है कि मसीह-विरोधी बुरी प्रवृत्तियों और अंधेरे प्रभावों का सम्मान करते हैं; यह और पुष्टि करता है कि वे सत्य के दुश्मन हैं। मसीह-विरोधी शैतान के शासन, और किंवदंतियों में वर्णित बुरी आत्माओं की विभिन्न योग्यताओं, कौशलों और कर्मों के साथ-साथ बुरी प्रवृत्तियों और अंधेरे प्रभावों की गहराई से प्रशंसा करते हैं और उनके प्रति श्रद्धा रखते हैं। इन चीजों में उनका विश्वास अडिग होता है और वे कभी उन पर संदेह नहीं करते। उनके दिल न सिर्फ उनके प्रति विमुखता से मुक्त होते हैं, बल्कि उनके लिए सम्मान, श्रद्धा और ईर्ष्या से भरे होते हैं। यहाँ तक कि अपने दिल की गहराई में वे इन चीजों का घनिष्ठता से अनुगमन करते हैं। मसीह-विरोधी इन बुरी और अंधेरी चीजों के संबंध में अपने दिलों में इसी तरह का रवैया रखते हैं—क्या इसका मतलब यह नहीं है कि वे सत्य से विमुख होते हैं? बिल्कुल है! जो व्यक्ति इन बुरी और अंधेरी चीजों से प्रेम करता है, वह सत्य से प्रेम कैसे कर सकता है? ये वे लोग हैं, जो बुरी शक्तियों और शैतान के गिरोह से संबंधित हैं। बेशक, वे शैतान की चीजों पर अडिग रूप से विश्वास करते हैं, जबकि उनके दिल सत्य और सकारात्मक चीजों से विरक्ति और तिरस्कार से भरे होते हैं। हम सत्य के प्रति विमुखता के विषय पर अपना सारांश कमोबेश यहीं समाप्त करेंगे।
ग. क्रूरता
मसीह-विरोधियों के स्वभाव सार का एक और अंग क्रूरता है। मसीह-विरोधियों को एक वाक्यांश में सारांशित किया जा सकता है : मसीह-विरोधी बुरे लोग होते हैं। जब उनके पास रुतबा होता है, तब तो यह स्पष्ट हो ही जाता है कि वे मसीह-विरोधी हैं। जब उनके पास रुतबा नहीं होता, तब तुम यह कैसे आँक सकते हो कि वे मसीह-विरोधी हैं या नहीं? तुम्हें उनकी मानवता देखनी चाहिए। अगर उनकी मानवता दुर्भावनापूर्ण, कपटपूर्ण और जहरीली हो, तो वे शत-प्रतिशत मसीह-विरोधी होते हैं। अगर किसी व्यक्ति के पास कभी रुतबा न रहा हो, वह कभी अगुआ न रहा हो और उसकी मानवता अच्छी न हो, तब तुम कैसे तय कर सकते हो कि वह मसीह-विरोधी है या नहीं? तुम्हें देखना होगा कि क्या उसकी मानवता जहरीली है और क्या वह बुरा व्यक्ति है। अगर वह बुरा व्यक्ति है, अगर उसके पास रुतबा न भी हो तो भी वह शत-प्रतिशत मसीह-विरोधी होता है। इसलिए मसीह-विरोधियों के स्वभाव सार का एक और विशिष्ट पहलू क्रूरता है। क्या मसीह-विरोधियों का क्रूर स्वभाव शिकार करने वाले शेरों या बाघों की क्रूरता जैसा ही होता है? (नहीं।) मांसाहारी पशु भूख के कारण शिकार करते हैं; यह शारीरिक आवश्यकता और सहज प्रवृत्ति है। लेकिन जब वे भूखे नहीं होते, तो वे शिकार नहीं करते। यह मसीह-विरोधियों की क्रूरता से किस तरह अलग है? क्या ऐसा है कि मसीह-विरोधी तब उग्र नहीं होते, जब तुम उन्हें भड़काते नहीं हो और सिर्फ तभी उग्र होते हैं जब उन्हें भड़काया जाता है? या ऐसा है कि अगर तुम उनकी बात नहीं सुनते तो वे तुम्हें नियंत्रित नहीं करेंगे, लेकिन अगर तुम उनकी बात सुनते हो तो ही वे तुम्हें नियंत्रित करेंगे? या क्या ऐसा है कि अगर तुम उनकी बात सुनते हो तो वे तुम्हें यातनाएँ नहीं देंगे, लेकिन अगर तुम उनकी बात नहीं सुनते तो वे तुम्हें यातनाएँ देंगे? (नहीं।) मसीह-विरोधियों की क्रूरता एक स्वभाव, एक सार होता है—यह एक वास्तविक शैतानी सार होता है। यह कोई सहज प्रवृत्ति नहीं होती, न ही देह की आवश्यकता होती है, बल्कि यह मसीह-विरोधियों के स्वभाव की अभिव्यक्ति और विशेषता होती है। तो मसीह-विरोधियों के क्रूर स्वभाव की अभिव्यक्तियाँ, प्रकाशन और तरीके क्या होते हैं? उनके कौन-से क्रियाकलाप दर्शाते हैं कि उनका स्वभाव क्रूर है, उनमें बुरे लोगों का सार है? तुम लोग अपने विचार साझा करो। (वे दूसरों को यातनाएँ देते हैं।) (वे उन लोगों को दबाते और बहिष्कृत करते हैं, जो उनसे अलग होते हैं।) (वे दूसरों को फँसाते हैं और उनके लिए जाल बिछाते हैं।) (वे लोगों को नियंत्रित और चालाकी से काबू करते हैं।) (वे गुट बनाते हैं और कलह के बीज बोते हैं।) गुट बनाना और कलह के बीज बोना थोड़ा कपटपूर्ण है; ये दुष्ट स्वभाव की अभिव्यक्तियाँ हैं, लेकिन वे क्रूरता के स्तर तक नहीं पहुँचतीं। धारणाएँ फैलाना, स्वतंत्र राज्य स्थापित करना—क्या ये क्रूरताएँ हैं? (हाँ।) कार्य-व्यवस्थाओं का विरोध करना, परमेश्वर के घर के कार्य में बाधा डालना, परमेश्वर के चढ़ावे हड़पना और सीधे परमेश्वर का विरोध करना—क्या ये क्रूरताएँ हैं? (हाँ।) चढ़ावे हड़पना सिर्फ लालच नहीं है; यह बुरे स्वभाव की अभिव्यक्ति भी है। मसीह-विरोधियों का चढ़ावे हड़पना एक अत्यंत क्रूर स्वभाव दर्शाता है, जो डाकुओं के स्वभाव के बराबर है। जो मदें हमने अभी सारांशित की हैं, उन्हें दोबारा बताओ। (वे दूसरों को यातनाएँ देते हैं, उन लोगों को दबाते और बहिष्कृत करते हैं, जो उनसे अलग होते हैं, उन्हें फँसाते हैं और उनके लिए जाल बिछाते हैं, लोगों को नियंत्रित और प्रभावित करते हैं, धारणाएँ फैलाते हैं, स्वतंत्र राज्य स्थापित करते हैं, कार्य-व्यवस्थाओं का विरोध करते हैं, परमेश्वर पर हमला करते हैं और चढ़ावे हड़प लेते हैं।) ये कुल नौ मदें हैं। ये कमोबेश मसीह-विरोधियों के क्रूर स्वभाव की अभिव्यक्तियाँ हैं। दरअसल कुछ विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ और भी हैं, लेकिन वे इनसे लगभग मिलती-जुलती ही हैं, इसलिए मैं उन्हें विस्तार से सूचीबद्ध नहीं करूँगा। संक्षेप में, जो लोग ये नजरिये और रणनीतियाँ अपनाते हैं, वे बुरे लोग होते हैं। एक ओर, उनके तरीके कपटपूर्ण होते हैं, उदाहरण के लिए, फँसाना, जाल बिछाना और धारणाएँ फैलाना, ये सभी अपेक्षाकृत कपटपूर्ण हैं। दूसरी ओर, उनकी रणनीतियाँ काफी जहरीली और भयंकर होती हैं, जो उन्हें क्रूर स्वभाव वाला बनाती हैं।
मसीह-विरोधियों के स्वभाव सार के इन तीन पहलुओं से आँकें तो, क्या उन्हें बचाया जा सकता है? (नहीं, उन्हें नहीं बचाया जा सकता।) क्या वे परमेश्वर के घर में श्रम करने के लिए तैयार होते हैं? (नहीं, वे इसके लिए तैयार नहीं होते।) वे सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे सत्य से प्रेम नहीं करते और उनके हृदय परमेश्वर और सकारात्मक चीजों के प्रति शत्रुता से भरे होते हैं। यहाँ तक कि वे सबसे बुनियादी चीजें करने के लिए भी तैयार नहीं होते—परमेश्वर के घर में श्रम करना और अपना कर्तव्य निभाना—यानी वे वह भी नहीं कर सकते जो एक व्यक्ति को सामान्य रूप से करना चाहिए। न सिर्फ वे ऐसा नहीं कर सकते, बल्कि इसके विपरीत वे भाई-बहनों द्वारा अपने कर्तव्य निभाने के सामान्य क्रम को और साथ ही सामान्य कलीसियाई जीवन में बाधा डालते, गड़बड़ी करते और नष्ट भी करते हैं। साथ ही, वे परमेश्वर के घर के कार्य, लोगों के सामान्य जीवन-प्रवेश और लोगों में परमेश्वर के सामान्य कार्य को बाधित भी करते हैं। इतना ही नहीं, वे परमेश्वर के घर में शासन करना और शक्ति का प्रयोग करना भी चाहते हैं; वे लोगों को गुमराह करना, उन्हें फुसलाना, नियंत्रित करना भी चाहते हैं, परमेश्वर के घर में अपने स्वतंत्र राज्य और गुट स्थापित करना चाहते हैं और परमेश्वर का अनुगमन करने वालों को पूरी तरह से अपना अनुयायी बना लेना चाहते हैं, ताकि वे सत्ता और प्रभाव का इस्तेमाल करने, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नियंत्रित करने और परमेश्वर के प्रतिद्वंद्वी होने का प्रदर्शन करने की अपनी महत्वाकांक्षा और इच्छा पूरी कर सकें। तो क्या परमेश्वर के घर में मसीह-विरोधियों का इस्तेमाल करने का जरा भी मूल्य है? क्या वे परमेश्वर के घर में कोई अच्छा कार्य कर सकते हैं? (नहीं।) उनकी मानवता से लेकर उनके अनुसरणों तक, उनकी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं से लेकर उनके द्वारा अपनाए गए मार्गों तक और सत्य और परमेश्वर के प्रति उनके रवैये से आँकें तो, परमेश्वर के घर में ऐसे लोग सिर्फ परमेश्वर के कार्य को बाधित करने, उसमें गड़बड़ी करने और नष्ट करने का कार्य ही कर सकते हैं। वे थोड़ा-सा भी सकारात्मक कार्य नहीं कर सकते, क्योंकि वे कभी सत्य का अनुसरण नहीं करते, और अपने प्रकृति सार में वे सत्य से विमुख होते हैं, सत्य और परमेश्वर के प्रति शत्रुता से भरे होते हैं। यही मसीह-विरोधियों का सार होता है।
अब तक हमने मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों पर संगति पूरी तरह से समाप्त कर ली है। आज हमने जिस बारे में संगति की है, उसके जरिये क्या अब तुम लोग मसीह-विरोधियों को पहचानने में सक्षम हो? इसे सरलतम वाक्यांश से सारांशित करें तो : बुरे लोग मसीह-विरोधी होते हैं और सभी मसीह-विरोधी बुरे लोग होते हैं। इसे इस तरह से कहने से क्या चीजें तुम लोगों के लिए बहुत स्पष्ट नहीं हो गई हैं? क्या अब उन्हें समझना आसान नहीं हो गया है? हम पिछले दो वर्षों से लगातार मसीह-विरोधियों के प्रकृति सार का गहन-विश्लेषण कर रहे हैं और तुम लोग बहुत ज्यादा शोधन से गुजरे हो, इस चिंता में कि तुम मसीह-विरोधी हो सकते हो। अब अंततः परिणाम सामने आ गया है। प्रक्रिया काफी चुनौतीपूर्ण रही है, लेकिन अंतिम परिणाम अच्छा है : तुम लोगों में मसीह-विरोधी का स्वभाव है, लेकिन तुम मसीह-विरोधी नहीं हो। तुम इस समझ तक कैसे पहुँचे? मेरी संगति की किस पंक्ति ने तुम लोगों को इसका एहसास कराया? (पिछली बार, मसीह-विरोधियों और अन्य लोगों के चरित्र और स्वभाव सार के बीच अंतर पर परमेश्वर की संगति के माध्यम से हम थोड़ा समझने लगे थे। जमीर और विवेक वाले लोग बुराई करने के बाद पश्चात्ताप कर बदल सकते हैं, जबकि मसीह-विरोधियों के स्वभाव सार वाले लोग पश्चात्ताप न करने में कट्टर होते हैं, वे चाहे कितनी भी बुराई करें, उन्हें कुछ महसूस नहीं होता।) लोगों में मसीह-विरोधियों के स्वभाव के कुछ प्रकाशन होते हैं, लेकिन वे अनैच्छिक होते हैं और उनकी सक्रिय इच्छा से नहीं आते; जब इन प्रकाशनों का पता चलता है, तो लोग असुविधा, पीड़ा, पछतावा और ऋणी होने की भावना महसूस करते हैं और फिर वे धीरे-धीरे अपना मार्ग बदल सकते हैं। जब लोग यह बात समझते हैं, तो वे बहुत ज्यादा सहज महसूस करते हैं और पाते हैं कि अभी भी उनके बचाए जाने की गुंजाइश है और वे मसीह-विरोधी नहीं हैं। हालाँकि उनका मसीह-विरोधियों के स्वभाव से कुछ संबंध होता है, लेकिन सौभाग्य से उनका मसीह-विरोधियों के स्वभाव सार से कोई संबंध नहीं होता। अगर तुम बुरे व्यक्ति नहीं हो, तो तुम मसीह-विरोधी नहीं हो। लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि तुममें मसीह-विरोधियों का स्वभाव नहीं है? (नहीं, इसका यह मतलब नहीं है।) अब जब मैं कहता हूँ कि हर किसी में मसीह-विरोधियों का स्वभाव है, तो क्या तुम लोग अपने दिलों में प्रतिरोध महसूस करते हो? (मैं नहीं करता।) तुम प्रतिरोध महसूस नहीं करते; तुम अब इस तथ्य को स्वीकार सकते हो। मसीह-विरोधियों के स्वभाव सार की अभिव्यक्तियों को सारांशित करो। (मसीह-विरोधी सत्य से विमुख होते हैं, वे सत्य से घृणा करते हैं और कभी सत्य नहीं स्वीकारते।) यह सार तक पहुँचता है; मसीह-विरोधी कभी सत्य नहीं स्वीकारेंगे; वे सत्य से विमुख और शत्रुतापूर्ण महसूस करते हैं। कुछ लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, लेकिन वे उसके प्रति शत्रुतापूर्ण नहीं होते और वे यह भी सोचते हैं कि परमेश्वर जो कुछ भी कहता है वह सही और अच्छा होता है, वे उसकी प्रशंसा करते हैं और उसका अनुसरण करना चाहते हैं, लेकिन उनमें कम काबिलियत होती है और उनके पास कोई मार्ग नहीं होता। दूसरों की सत्य में कोई रुचि नहीं होती, लेकिन वे उसके प्रति शत्रुतापूर्ण भी नहीं होते; वे गुनगुने किस्म के होते हैं। लेकिन मसीह-विरोधी अलग होते हैं; वे सत्य से विमुख और उसके प्रति शत्रुतापूर्ण महसूस करते हैं। जैसे ही सत्य या परमेश्वर का उल्लेख किया जाता है, वे घृणा महसूस करते हैं और उनसे सत्य स्वीकार करवाने की कोशिश करने से वे असामान्य हो जाते हैं, वे अपने दिलों में विकर्षण महसूस करते हैं, उसे कभी नहीं स्वीकारते—यह मसीह-विरोधियों का सार होता है। और कुछ? (मसीह-विरोधी चाहे कुछ भी गलत करें, वे पश्चात्ताप न करने में कट्टर होते हैं और वे कभी सत्य का अभ्यास नहीं करेंगे।) वे अपनी गलतियाँ नहीं पहचानेंगे, वे कभी पश्चात्ताप नहीं करेंगे और वे कई वर्षों के बाद भी नहीं बदलेंगे। वे यह स्वीकार नहीं करते कि परमेश्वर सत्य है, परमेश्वर के वचन सत्य हैं, तो वे सत्य का अभ्यास कैसे कर सकते हैं? उनमें मानवता नहीं होती, वे मानव नहीं होते, वे दानव, शैतान और परमेश्वर के दुश्मन होते हैं, इसलिए वे बिल्कुल भी सत्य का अभ्यास नहीं करेंगे।
26 दिसंबर 2020
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