प्रकरण छह : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव सार का सारांश (भाग तीन) खंड तीन
vii. इनकार, निंदा, आलोचना और ईशनिंदा
इसके बाद, आओ इनकार, निंदा, आलोचना और ईशनिंदा शब्दों के बारे में संगति करते हैं। परमेश्वर के बारे में संदेहों से भरे होने के कारण मसीह-विरोधी परमेश्वर द्वारा व्यक्त किसी भी सत्य में कोई रुचि नहीं दिखाते। उनके दिल घृणा और नफरत से भरे होते हैं और वे कभी स्वीकार नहीं करते कि मसीह सत्य है, किसी तरह का समर्पण दिखाना तो दूर की बात है। चूँकि वे अक्सर अपने दिलों में परमेश्वर पर संदेह और शक करते हैं, परमेश्वर के क्रियाकलापों के बारे में अक्सर धारणाएँ और विभिन्न विचार बनाते हैं, इसलिए वे यह सोचते हुए लगातार और अनजाने ही मूल्यांकन करते हैं, “क्या परमेश्वर वास्तव में मौजूद है? वह जो कहता है, उसका क्या मतलब है? अगर ज्ञान और धर्मसिद्धांत के दृष्टिकोणों से मूल्यांकन किया जाए, तो इन वचनों को कैसे समझा जाना चाहिए? इन चीजों को कहने से परमेश्वर का क्या मतलब है? इस शब्द का इस्तेमाल करने से उसका क्या मतलब है? वह किसे संबोधित कर रहा है?” वे शोध पर शोध करते हैं और वर्षों के ऐसे अन्वेषण के बाद भी वे परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए जाने वाले वचनों और उसके द्वारा किए गए कार्य में सबसे महत्वपूर्ण सत्य नहीं देख पाते : कि परमेश्वर सत्य, जीवन और मार्ग है—वे इसे समझ या देख नहीं पाते। जब लोग कहते हैं कि परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं, तो मसीह-विरोधी विचार करते हैं और सोचते हैं, “क्या उसके सभी वचन सत्य हैं? क्या वे साधारण वचन नहीं हैं? सिर्फ कुछ परंपरागत कथन? उनमें कुछ भी गहन नहीं है।” परमेश्वर के कार्य को देखते हुए वे सोचते हैं, “कलीसिया में या अपने चुने हुए लोगों के बीच वह जो कुछ भी करता है, मैं उसमें परमेश्वर की आभा नहीं देखता। वे कहते हैं कि परमेश्वर सब पर संप्रभु है, लेकिन मैं इसे नहीं देख पाता। चाहे मैं आवर्धक लेंस से देखूँ या खगोलीय दूरबीन से, मैं परमेश्वर के रूप को नहीं देख पाता, चाहे मैं कैसे भी देखूँ, मैं उसके कर्म नहीं खोज पाता। इसलिए फिलहाल तो मैं शत-प्रतिशत पुष्टि करने में असमर्थ हूँ कि क्या परमेश्वर वास्तव में मौजूद है। लेकिन अगर मैं कहता हूँ कि परमेश्वर मौजूद नहीं है, तो मैंने दुनिया में कुछ अजीब और असाधारण चीजों के अस्तित्व के बारे में सुना है; इसलिए उस स्थिति में परमेश्वर मौजूद होना चाहिए। लेकिन परमेश्वर वास्तव में दिखता कैसा है? परमेश्वर कार्य कैसे करता है? मुझे नहीं पता। सबसे सरल तरीका यह देखना है कि परमेश्वर अपना अनुगमन करने वालों में क्या करता है और उनसे क्या कहता है।” अवलोकन के माध्यम से, वे देखते हैं कि परमेश्वर का घर अक्सर लोगों की काट-छाँट करता है, अक्सर लोगों को पदोन्नत और बर्खास्त करता है, अक्सर लोगों के साथ विभिन्न कर्तव्यों और विभिन्न व्यवसायों से संबंधित कार्य के बारे में संगति, चर्चा, विचार-विनिमय और बहुत-कुछ करता है। वे सोचते हैं, “क्या ये सभी वही चीजें नहीं हैं जो लोग करते हैं? इनमें से कोई भी चीज अलौकिक नहीं है; ये सभी बहुत सामान्य हैं और मैं नहीं देख पाता या महसूस कर पाता कि परमेश्वर का आत्मा कैसे काम कर रहा है। अगर मैं इसे महसूस नहीं कर पाता, तो क्या यह नहीं कहा जा सकता कि पवित्र आत्मा का कार्य मौजूद नहीं है? क्या यह सब लोगों द्वारा अपनी चेतना और दिमाग में की गई कल्पना नहीं है? अगर पवित्र आत्मा का कार्य मौजूद नहीं है, तो क्या परमेश्वर का आत्मा वास्तव में मौजूद है? ऐसा लगता है कि यह भी संदेहास्पद है। अगर परमेश्वर का आत्मा मौजूद नहीं है, तो क्या परमेश्वर वास्तव में मौजूद है? कहना मुश्किल है।” पाँच साल के अनुभव के बाद वे पुष्टि नहीं कर पाते और दस या पंद्रह साल के अनुभव के बाद भी नहीं कर पाते। ये कैसे लोग हैं? ये प्रकट कर दिए गए हैं—ये छद्म-विश्वासी हैं। ये छद्म-विश्वासी परमेश्वर के घर में ऐसे ही बेकार भटकते रहते हैं, बहाव के साथ बहते रहते हैं। अगर दूसरे लोग सुसमाचार प्रचार कर रहे होते हैं, तो वे भी करते हैं; अगर दूसरे लोग अपना कर्तव्य निभा रहे होते हैं, तो वे भी निभाते हैं। अगर उन्हें पदोन्नति का अवसर मिलता है, तो वे सोचते हैं कि वे परमेश्वर के घर में “पद सँभाल” सकते हैं और रुतबे की खातिर वे थोड़े-बहुत प्रयास भी करते हैं। साथ ही, वे लापरवाही से दुष्कर्म भी कर सकते हैं, जिससे गड़बड़ी और बाधा पैदा हो सकती है; अगर वे बिना किसी रुतबे के साधारण कलीसिया-सदस्य होते हैं, तो वे दिखावे के लिए कुछ काम करके उसे जल्दबाजी में निपटाने के तरीके खोज सकते हैं। बेकार भटकने का यही मतलब है। मैं “बेकार भटकना” क्यों कहता हूँ? अपने दिलों में वे परमेश्वर के प्रति संदेह और इनकार रखते हैं, परमेश्वर के अस्तित्व और सार के प्रति इनकार का रवैया बनाए रखते हैं, जिसके कारण वे परमेश्वर के घर में अनिच्छा से अपने कर्तव्य निभाते हैं। वे समझते नहीं और हमेशा मन ही मन सोचते रहते हैं, “इस तरह से अपना कर्तव्य निभाने और परमेश्वर का अनुगमन करने का क्या मतलब है? मैं नौकरी करके पैसा नहीं कमा रहा हूँ या सामान्य जीवन नहीं जी रहा हूँ। कुछ युवा लोग तो परमेश्वर के लिए खपने में अपना पूरा जीवन समर्पित कर देते हैं, लेकिन उन्हें मिलेगा क्या? इसलिए मैं पहले निरीक्षण करूँगा। अगर मैं वाकई चीजों की तह तक पहुँच पाया और आशीष प्राप्त करने की आशा दिखी, तो प्रयास करना और खुद को खपाना व्यर्थ नहीं होगा। अगर मैं परमेश्वर के सटीक वचन प्राप्त नहीं कर पाया या चीजों की तह तक नहीं पहुँच पाया, तो बेकार भटकने में कोई हरज नहीं। आखिरकार, मैं थकूँगा नहीं और मैंने ज्यादा कुछ नहीं दिया होगा।” क्या यह सिर्फ बेकार भटकना नहीं है? वे जो कुछ भी करते हैं उसमें ईमानदार नहीं होते, वे किसी भी चीज पर टिक नहीं पाते या उसमें उत्कृष्टता हासिल नहीं कर पाते और वे वास्तव में कीमत नहीं चुका पाते। बेकार भटकने का यही मतलब है। भले ही वे बेकार भटकते रहते हों, लेकिन उनके विचार खाली नहीं रहते—वे बहुत व्यस्त रहते हैं। वे परमेश्वर द्वारा की जाने वाली कई चीजों के बारे में धारणाओं और विचारों से भरे रहते हैं और जो कई चीजें उनकी धारणाओं से मेल नहीं खातीं, वे ज्ञान, कानूनों, सामाजिक नैतिकता, परंपरागत संस्कृति इत्यादि का इस्तेमाल करके अपने दिलों में उनका मूल्यांकन करते हैं। अपने तमाम मूल्यांकनों के बावजूद, वे न सिर्फ आकलन के माध्यम से सत्य देखने या सत्य का अभ्यास करने के सिद्धांत खोजने में विफल रहते हैं, बल्कि परमेश्वर और उसके कार्य के प्रति तमाम तरह की निंदा, आलोचना, यहाँ तक कि ईशनिंदा भी करते हैं। मसीह-विरोधी पहले किसकी आलोचना करते हैं? वे कहते हैं, “परमेश्वर के घर का सारा काम लोगों द्वारा तय किया जाता है; वह सब मनुष्यों द्वारा किया जाता है। मैं परमेश्वर को काम करते या पवित्र आत्मा को अगुआई या मार्गदर्शन करते बिल्कुल नहीं देख पाता।” क्या यह छद्म-विश्वासियों का कथन नहीं है? यह दावा करना कि सब-कुछ लोगों द्वारा किया जाता है, कई मुद्दे प्रकट करता है। उदाहरण के लिए, अगर परमेश्वर का घर किसी ऐसे व्यक्ति को चुनकर उसे विकसित करता है जो उनकी पसंद का नहीं है, तो उनके दिल जिद्दी हो जाते हैं। क्या मसीह-विरोधी वास्तव में समर्पण कर सकते हैं? (नहीं, वे नहीं कर सकते।) तो वे क्या करेंगे? वे उसे कमजोर करने की कोशिश करेंगे। अगर उसे कमजोर करने में सफलता नहीं मिलती और कोई भाई-बहन उनकी बात नहीं सुनता या उनका समर्थन नहीं करता, तो वे यह कहते हुए उसकी निंदा करना शुरू कर देंगे, “परमेश्वर का घर लोगों के साथ व्यवहार करने में अनुचित और सिद्धांतहीन है। दुनिया में कई तेज घोड़े हैं, लेकिन ऐसा कोई नहीं जो उन्हें पहचान सके।” इसका क्या मतलब है? इसका तात्पर्य है कि वे तेज घोड़े हैं, लेकिन दुर्भाग्य से परमेश्वर के घर में ऐसा कोई नहीं जो उन्हें पहचान सके। परमेश्वर के घर द्वारा किए गए इस मामले की निंदा करने के बाद, जो कि उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं है, वे बेबुनियाद अफवाहें, धारणाएँ और नकारात्मकता जैसी चीजें फैलाना शुरू कर देंगे। बेशक, उनके तमाम शब्द कठोर होंगे। कुछ लोग तो यह तक कह सकते हैं, “ये लोग पढ़े-लिखे, सुदर्शन, स्मार्ट तरीके से कपड़े पहने हुए और शहर से हैं; हम ग्रामीण लोग हैं, हममें कुछ प्रतिभा है लेकिन हम खुद को व्यक्त करने या ऊपरवाले से बातचीत करने में सक्षम नहीं हैं—हमारे लिए पदोन्नत होना आसान नहीं है। परमेश्वर के घर में पदोन्नत होने वाले तमाम लोग वाक्पटु होते हैं, चापलूसी करने में अच्छे होते हैं और उनके पास रणनीतियाँ होती हैं। दूसरी ओर, मैं स्पष्टवादी या वाक्पटु नहीं हूँ और सिर्फ आंतरिक प्रतिभा होना बेकार है। इसलिए परमेश्वर के घर में ‘तेज घोड़े तो बहुत-से हैं, मगर उन्हें पहचानने वाले बहुत कम हैं’ कहावत ठीक वैसे ही लागू होती है, जैसे दुनिया में होती है।” इस कथन का क्या अर्थ है? क्या यह आलोचना करना नहीं है? वे परमेश्वर के घर के काम की आलोचना करते हैं और पर्दे के पीछे अपनी आलोचनाएँ फैलाते हैं। परमेश्वर, उसके कार्य, उसकी अभिव्यक्तियों, उसके वचनों, उसके स्वभाव और उसके काम करने के विभिन्न तरीकों के प्रति अपने नजरिये में मसीह-विरोधी उनका आकलन करने, शोध करने और उनके बारे में तर्क करने के लिए ज्ञान और फलसफे का इस्तेमाल करते हैं। अंततः, वे एक गलत निष्कर्ष पर पहुँच जाते हैं। इसलिए वे अपने दिल में परमेश्वर द्वारा कहे गए किसी भी वचन को कभी गंभीरता से नहीं स्वीकारते, समझते या उस पर विचार नहीं करते। इसके बजाय, वे परमेश्वर के वचनों को सिर्फ एक तरह के सिद्धांत या अच्छे लगने वाले शब्दों के रूप में लेते हैं। जब मामले उठते हैं, तो वे परमेश्वर के वचनों को इस चीज के आधार और सिद्धांत के रूप में नहीं लेते कि वे प्रत्येक मामले को कैसे देखते, परिभाषित करते और मापते हैं। इसके बजाय, वे इन मामलों का आकलन करने के लिए इंसानी परिप्रेक्ष्यों और शैतान के फलसफे और सिद्धांतों का इस्तेमाल करते हैं। वे जो निष्कर्ष निकालते हैं, वह यह है कि कुछ भी उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं है और परमेश्वर द्वारा व्यक्त किया गया प्रत्येक वचन और उसके द्वारा किया गया प्रत्येक क्रियाकलाप उनकी पसंद के अनुसार नहीं है। अंत में, मसीह-विरोधियों के परिप्रेक्ष्य से, परमेश्वर द्वारा किए गए हर कार्य की निंदा की जाती है।
कुछ मसीह-विरोधी हमेशा परमेश्वर के घर में सत्ता पाने की इच्छा रखते हैं, लेकिन उनमें काबिलियत और विशेष कौशल नहीं होते, इसलिए वे अनिवार्य रूप से परमेश्वर के घर में कुछ तुच्छ कार्य करके ही रह जाते हैं, जैसे कि सफाई करना, सामान बाँटना और दूसरे सरल, साधारण कार्य। संक्षेप में, ऐसे लोग निश्चित रूप से कलीसिया के अगुआ, प्रचारक या ऐसे ही अन्य पदाधिकारी नहीं बन सकते। लेकिन वे साधारण अनुयायी होने या ऐसा काम करने से संतुष्ट नहीं होते जिसे वे औसत दर्जे का समझते हैं, क्योंकि वे महत्वाकांक्षा से भरे होते हैं। महत्वाकांक्षा से भरा होना कैसे अभिव्यक्त होता है? वे परमेश्वर के घर में हर छोटे-बड़े मामले में दरियाफ्त करना, उसके बारे में पूछना, जानना और खासकर हस्तक्षेप करना चाहते हैं। अगर कोई ऐसा काम होता है जिसके लिए उनसे श्रम करना अपेक्षित होता है, तो वे हमेशा पूछते रहते हैं, “हमारे परमेश्वर के घर के लिए पुस्तकों की छपाई कैसी चल रही है? हमारी कलीसिया के फिल्म-निर्देशक का चयन कैसा चल रहा है? वर्तमान निर्देशक कौन है? पटकथाएँ कौन लिख रहा है? यहाँ जिला-अगुआ कौन है और वह कैसा है?” इन चीजों के बारे में पूछने का उनका क्या मतलब है? क्या उन्हें इन मामलों में पूछताछ करनी चाहिए या इनमें संलग्न होना चाहिए? (नहीं, उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए।) ये सभी सामान्य मामले हैं जो सत्य से संबंधित नहीं हैं। ये “नेकनीयत लोग” हमेशा पूछताछ क्यों करते रहते हैं? क्या यह पूछताछ वास्तविक चिंता की वजह से होती है या उनके पास करने के लिए कुछ बेहतर नहीं होता? दोनों में से कुछ नहीं—ऐसा इसलिए है कि उनमें महत्वाकांक्षाएँ होती हैं और वे पदोन्नत होकर सत्ता हासिल करना चाहते हैं। क्या वे समझ सकते हैं कि यह महत्वाकांक्षा और सत्ता हासिल करने की इच्छा है? नहीं, वे नहीं समझ सकते; उनमें वह विवेक नहीं होता। अपनी घृणित मानवता और कम काबिलियत के कारण वे कुछ भी संपन्न नहीं कर पाते या सरलतम कर्तव्य भी अच्छी तरह से नहीं निभा पाते। अपने कर्तव्यों के प्रदर्शन के दौरान वे लगातार खराब व्यवहार करते हैं, आलसी होते हैं, आराम करने में प्रवृत्त रहते हैं, यहाँ तक कि विभिन्न मामलों के बारे में पूछताछ भी करते रहते हैं। अंत में, इन अभिव्यक्तियों के कारण उन्हें बाहर निकाल दिया जाता है। क्या परमेश्वर के घर द्वारा उन्हें बाहर निकालना सही है? (हाँ।) क्या उन्हें इसलिए बाहर निकाला जाता है, क्योंकि वे अत्यधिक चिंतित और जिज्ञासु होते हैं? (नहीं।) ऐसा इसलिए है, क्योंकि वे उचित मामले नहीं सँभालते और परमेश्वर के घर में लगातार मुफ्तखोरी करना चाहते हैं, इसलिए उन्हें चलता कर दिया जाता है और बेकार भटकने नहीं दिया जाता। वे कुछ भी अच्छे से नहीं कर सकते, इसलिए उन्हें रखना परेशानी उठाने लायक नहीं है—क्या वे छद्म-विश्वासी नहीं हैं? क्या उन्हें बाहर नहीं निकाला जाना चाहिए? जब उन्हें बाहर निकाले जाने का समय आया, तो वे चिंतित हो गए और तभी उन्होंने सत्य-सिद्धांतों की खोज की और पूछा, “मुझे यह खोजना है कि परमेश्वर के घर से लोगों को बाहर निकालने और उन्हें निष्कासित करने के लिए वास्तव में क्या सिद्धांत हैं : मुझे किस आधार पर बाहर निकाला जा रहा है?” तुम्हें उन्हें यह जवाब देना चाहिए : “तुम जैसे व्यक्ति, जो आरामपसंद हैं और काम से नफरत करते हैं, जो कुछ भी करते हैं उसी में गड़बड़ी और विनाश का कारण बनते हैं, बाहर निकाले जाने के सिद्धांतों पर पूरी तरह से खरे उतरते हैं।” क्या इतने सारे बुरे काम करने के बाद उनका बिना यह समझे कि वे किस तरह के व्यक्ति हैं, लोगों को बाहर निकालने के सिद्धांत खोजना बहुत हास्यास्पद नहीं लगता? (हाँ, लगता है।) ऐसे कुछ लोगों को बाहर निकाल दिया गया है, जबकि अन्य को साधारण कलीसियाओं में भेज दिया गया है। वे परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभाने के लिए उपयुक्त नहीं हैं और वे अपने कर्तव्य निभाने की शर्तें पूरी नहीं करते। क्या ऐसे व्यक्ति यह महसूस कर सकते हैं कि परमेश्वर ने जो किया है, वह सत्य के अनुरूप है? मैं यह कहने का साहस करता हूँ कि मसीह-विरोधी कभी इसे महसूस नहीं करेंगे, क्योंकि वे छद्म-विश्वासी हैं और वे ऐसी किसी भी सकारात्मक चीज की निंदा कर उसकी आलोचना करते हैं जो सत्य के अनुरूप होती है। मसीह-विरोधी को, जो हमेशा पूछताछ करने के लिए उत्सुक रहता है, महत्वाकांक्षा से भरा रहता है और लगातार ऊँचा उठने की कोशिश करता है, जबकि अपने कर्तव्य निभाने के प्रति उसमें कोई ईमानदारी और निष्ठा नहीं होती, जब चलता किया जाता है तो वह जमीन पर बैठकर जोर से विलाप करने लगता है। वह कहता है, “कोई भी मेरे नेकनीयत दिल, मेरी ईमानदारी और निष्ठा को नहीं समझता। मुझे चलता क्यों किया जा रहा है? मेरे साथ अन्याय हुआ है और मैं इच्छुक नहीं हूँ! कोई भी परमेश्वर के लिए इतना चिंतित नहीं है और कोई भी परमेश्वर के घर में इतना वफादार नहीं है। मेरे जबर्दस्त उत्साह और विशाल दयालुता को दुर्भावना के रूप में लिया जा रहा है—परमेश्वर बहुत अन्यायी है!” क्या यह बेगुनाही की दलील नहीं है? क्या उनके कोई भी शब्द ऐसे हैं जो लोगों को कहने चाहिए? क्या उनमें से कोई भी वास्तविक तथ्यों के अनुरूप हैं? (नहीं।) वे सब अनुचित, बेतुके, छद्म-विश्वासियों के शब्द हैं जो शिकायतों, उलाहनों और निंदा से भरे हुए हैं। यह उनका प्रकट होना है। अगर उन्हें चलता न किया जाता, तो वे अपना ढोंग जारी रखते और परमेश्वर के घर के स्वामी बनने की आकांक्षा रखते। क्या कोई स्वामी इस तरह से व्यवहार करेगा? क्या कोई स्वामी इस तरह गुस्से से फट पड़ेगा? क्या कोई स्वामी परमेश्वर के घर का इस तरह से प्रबंधन करेगा? उन्हें सफाई करने के लिए कहा गया, लेकिन वे हर जगह निष्प्रयोजन घूमते रहे और कोई काम नहीं किया। उन्हें भोजन बनाने के लिए कहा गया, लेकिन वे दो लोगों के लिए भी भोजन बनाने को तैयार नहीं थे। वे थक जाने से डरते थे और सोचते थे कि यह निम्न श्रेणी का है—तो वे और क्या कर सकते हैं? क्या वे अगुआ होने और आदेश जारी करने के अलावा कुछ और करने में सक्षम हैं? क्या परमेश्वर के घर के लिए उन्हें बाहर निकालना उचित नहीं है? (है।) यह पूरी तरह से उचित है, फिर भी वे पर्दे के पीछे से कोसना, गुस्से से फट पड़ना और मुँहजोर महिलाओं की तरह व्यवहार करना जारी रखते हैं। क्या ये मसीह-विरोधी नहीं हैं? यह मसीह-विरोधियों के स्वभाव सार की अभिव्यक्ति है। जब उनका सामना ऐसे मामलों से होता है जो उनके हितों या प्राथमिकताओं से मेल नहीं खाते, जब उनका सामना ऐसी चीजों से होता है जो उनकी इच्छाएँ या अभिलाषाएँ पूरी नहीं करतीं, तो क्या वे जरा भी समर्पण करते हैं? क्या वे सत्य खोज सकते हैं? क्या वे शांत हो सकते हैं, अपने पाप स्वीकार सकते हैं और पश्चात्ताप कर सकते हैं? नहीं, वे ऐसा नहीं कर सकते। उनकी तात्कालिक प्रतिक्रिया उठ खड़े होकर परमेश्वर के लिए निंदा, आलोचना, ईशनिंदा और शाप के शब्दों से भरकर चिल्लाने की होती है। वे सोचते हैं, “अगर परमेश्वर का घर मुझे नहीं चाहता, तो ठीक है। तुम कोई दया नहीं दिखाते, तो मुझे हृदयहीन होने का दोष न देना। आ जाओ भिड़ते हैं और देखते हैं कौन ज्यादा निर्दयी है!” क्या यह सत्य खोजने की अभिव्यक्ति है? क्या ऐसी अभिव्यक्ति एक सामान्य सृजित प्राणी में होनी चाहिए? (नहीं, यह वह अभिव्यक्ति नहीं है।) तो फिर यह कैसी अभिव्यक्ति है? परमेश्वर में सच्चा विश्वास और उसका अनुगमन करने वालों को उसके साथ कैसे पेश आना चाहिए? उन्हें और बिना शर्त परमेश्वर के प्रति समर्पण करना चाहिए। सिर्फ परमेश्वर के शत्रु—शैतान और दानव—ही परमेश्वर को नकारेंगे, उसकी निंदा करेंगे, आलोचना करेंगे, ईशनिंदा करेंगे और उसे कोसेंगे, यहाँ तक कि उसके विरुद्ध शोर मचाएँगे और उसका विरोध करेंगे। अगर तुम अभी यह तथ्य न स्वीकार सको और यह दावा करते हुए सौ कारण बताओ कि परमेश्वर के घर ने तुम्हारे साथ अनुचित व्यवहार किया है, तो भी अगर तुममें तर्कशीलता, मानवता और परमेश्वर का थोड़ा-सा भी भय है, तो क्या तुम परमेश्वर के साथ इस तरह से पेश आ सकते हो? बिल्कुल नहीं! अगर कोई ऐसा कर सकता है, तो क्या उसमें जमीर का लेश मात्र भी है? क्या उसमें मानवता है? क्या उसे परमेश्वर का भय है? (नहीं, उसमें ये चीजें नहीं हैं।) स्पष्ट रूप से, वह परमेश्वर की भेड़ों में से नहीं है। उसने कभी परमेश्वर को अपना स्वामी नहीं माना; उसने कभी परमेश्वर को अपना परमेश्वर नहीं माना। उसके हृदय में, परमेश्वर उसका शत्रु है, उसका परमेश्वर नहीं। परमेश्वर के शत्रु मसीह-विरोधी और शैतान हैं; इसके विपरीत, मसीह-विरोधी परमेश्वर के शत्रु हैं—वे शैतान और दानव हैं। मसीह-विरोधी कभी परमेश्वर द्वारा की गई कोई चीज नहीं स्वीकारेंगे और परमेश्वर द्वारा कहे गए किसी वचन पर कभी आमीन नहीं कहेंगे। यह परमेश्वर के शत्रु—शैतान—का सार है और यही मसीह-विरोधियों का अंतर्निहित सार है। वे अकारण ही परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण होते हैं और अकारण ही परमेश्वर की निंदा करते हैं। क्या यह दुष्टता नहीं है? यह सरासर दुष्टता है।
मसीह-विरोधी के ये स्वभाव अलग-अलग मात्रा में हर व्यक्ति में मौजूद होते हैं, लेकिन लोग जब विश्वास करते हैं तब इन स्वभावों के प्रकाशन और उनके द्वारा चुने गए मार्ग के जरिये क्या तुम लोग यह तय कर सकते हो कि कौन मसीह-विरोधी है, कौन श्रमिक है और कौन परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से एक है जिसे बचाया जा सकता है? (हालाँकि वे सभी मसीह-विरोधी स्वभाव प्रकट करते हैं, फिर भी कुछ लोगों द्वारा अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करने के बाद भी उनकी अंतरात्मा जगी रहती है, वे खुद को दोषी महसूस करते हैं, पश्चात्ताप कर सकते हैं और सत्य का अभ्यास कर सकते हैं—ये वे लोग हैं जिन्हें बचाया जा सकता है। लेकिन जिन लोगों की अंतरात्मा जगी नहीं होती, जिन्हें लगता है कि गलतियाँ करने के बाद भी वे सही हैं, जो हठपूर्वक पश्चात्ताप करने से इनकार कर देते हैं और पूरी तरह से सत्य खारिज कर देते हैं—ये लोग मसीह-विरोधी होते हैं और उनके पास उद्धार का कोई मौका नहीं होता।) क्या ये दोनों कथन सही हैं? (हाँ।) अभी जो कहा गया, वह मूलभूत रूप से तो सही है, लेकिन पर्याप्त विशिष्ट नहीं है। हालाँकि उनमें भी मसीह-विरोधी स्वभाव होता है, फिर भी जब कुछ लोग स्थितियों का सामना करते हैं, तो वे सत्य खोजने, देह-सुख के खिलाफ विद्रोह करने, अपने भ्रष्ट स्वभाव को पहचानने के बाद पछताने, ऋणी महसूस करने, पीछे मुड़ने, सत्य-सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने, सही मार्ग चुनने, सत्य का अभ्यास करने का चुनाव करने और अंततः सत्य की समझ प्राप्त कर सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करने, परमेश्वर के प्रति समर्पण प्राप्त करने में सक्षम होते हैं। ऐसे लोगों को बचाया जा सकता है और वे परमेश्वर के चुने हुए लोग होते हैं। एक दूसरी तरह का व्यक्ति होता है, जो जानता है कि उसमें मसीह-विरोधी का स्वभाव है, लेकिन स्थितियों का सामना करने पर वह अपनी जाँच नहीं करता। जब उसे पता चलता है कि उसने कुछ गलत किया है, तो उसे कोई वास्तविक समझ नहीं होती, वह अपने भीतर कृतज्ञता की प्रबल भावना विकसित नहीं कर सकता, पश्चात्ताप करने या पीछे मुड़ने में असमर्थ होता है और सत्य और उद्धार के बारे में भ्रमित होता है। परमेश्वर के घर में वह श्रम करने के लिए तैयार और इच्छुक होता है, उसे जो भी करने के लिए कहा जाता है उसे कर सकता है, लेकिन वह उसे गंभीरता से नहीं लेता; कभी-कभी वह गड़बड़ी और बाधा पैदा कर सकता है, लेकिन वह बुरा व्यक्ति नहीं होता। वह काट-छाँट स्वीकार सकता है, लेकिन कोई काम करते समय कभी सक्रिय रूप से सत्य नहीं खोज सकता या मामले सँभालते समय सत्य-सिद्धांतों का पालन नहीं कर सकता। वह परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने और सत्य में कोई रुचि नहीं दिखाता। हालाँकि वह अपने कर्तव्यों में कामचलाऊ ढंग से प्रयास कर सकता है, लेकिन जब सत्य का अनुसरण करने की बात आती है तो उसमें उत्साह नहीं होता और ऐसा करने में उसकी कोई रुचि नहीं होती। वह अपने कर्तव्य के प्रदर्शन में कोई निष्ठा नहीं दिखाता; वह तुलनात्मक रूप से कुछ इच्छा और ईमानदारी प्रदर्शित करता है। वह विभिन्न भ्रष्ट स्वभावों को जान सकता है, लेकिन स्थितियों का सामना करने पर कभी आत्मचिंतन नहीं करता और ऐसा व्यक्ति बनने का प्रयास नहीं करता जो सत्य को समझकर उसे व्यवहार में ला सके। ये श्रमिक होते हैं। अंतिम श्रेणी में मसीह-विरोधी शामिल हैं। वे परमेश्वर, सत्य और सकारात्मक चीजों के दुश्मन होते हैं। उनके दिल दुष्टता, परमेश्वर के खिलाफ शोरगुल, परमेश्वर के विरोध, और न्याय, सकारात्मक चीजों और सत्य के खिलाफ निंदा, आलोचना और ईशनिंदा से भरे होते हैं। वे परमेश्वर के अस्तित्व, सभी चीजों पर उसकी संप्रभुता में विश्वास नहीं करते और परमेश्वर को मानवता की नियति पर संप्रभुता रखने देने के प्रति और भी ज्यादा अनिच्छुक होते हैं। वे कभी खुद को नहीं समझते और चाहे वे कितनी भी गलतियाँ या अपराध करें, वे कभी उन्हें स्वीकार नहीं करते, पश्चात्ताप नहीं करते या पीछे नहीं मुड़ते। उनके दिलों में कोई पछतावा नहीं होता और वे सत्य को पूरी तरह से खारिज कर देते हैं। ये मसीह-विरोधी होते हैं। यह आकलन करना कि किसी व्यक्ति में सत्य के प्रति स्वीकार्यता का रवैया है या नहीं, आम तौर पर यह निर्धारित करने में सटीक रहता है कि वह किस श्रेणी का व्यक्ति है। तुम लोग किस श्रेणी के हो? क्या तुम लोग परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से हो जिन्हें बचाया जा सकता है या तुम मसीह-विरोधी या श्रमिक हो? क्या तुम पहली श्रेणी की ओर बढ़ रहे हो या तुम इनमें से किसी भी श्रेणी में नहीं आते? ऐसा कोई नहीं है जो इनमें से किसी भी श्रेणी में न आता हो : हर कोई इन तीनों में से किसी एक श्रेणी में तो आता ही है। दुष्ट लोग, जिनमें मानवता नहीं होती, मसीह-विरोधियों के सार वाले होते हैं; जिनमें थोड़ी मानवता होती है, जिनमें जमीर और विवेक होता है, साथ ही अपेक्षाकृत अच्छा चरित्र होता है, जो सत्य का अनुसरण कर सकते हैं, सकारात्मक चीजों और सत्य से प्रेम कर सकते हैं और जो परमेश्वर का भय मानते हैं और उसके प्रति समर्पण कर सकते हैं, उन्हें बचाया जा सकता है—वे परमेश्वर के चुने हुए लोग होते हैं। जिनका चरित्र औसत है, न तो विशेष रूप से अच्छा है और न ही विशेष रूप से बुरा है, जिनकी सत्य में कोई रुचि नहीं है और जो उसका अनुसरण करने के लिए बिल्कुल भी इच्छुक नहीं हैं, लेकिन अपने कर्तव्य कुछ ईमानदारी से निभाते हैं, वे श्रमिक होते हैं। यह आकलन का मानक है। क्या मसीह-विरोधी श्रमिक बन सकता है? (नहीं।) तो क्या श्रमिकों में लोगों का कोई ऐसा वर्ग है, जो परमेश्वर के चुने हुए लोग बन सकता हो? (हाँ।) यहाँ बदलाव की क्या गुंजाइश है? (उन्हें सत्य का अनुसरण करने की जरूरत है।) शायद ज्यादा वर्षों की आस्था, ज्यादा अनुभवों और मुश्किलों का सामना करने और ज्यादा सत्यों की समझ के साथ वे धीरे-धीरे श्रमिक की अवस्था से परमेश्वर के चुने हुए लोग बनने की ओर बढ़ते हैं। चूँकि अभी सत्य के बारे में उनकी समझ कम है और परमेश्वर में उनकी आस्था विशेष रूप से कम है, इसलिए उनमें अपने कर्तव्य निभाने और सत्य का अभ्यास करने में बहुत कम रुचि है। उनमें सत्य का अनुसरण करने लायक आध्यात्मिक कद नहीं होता और वे अन्य विभिन्न दैहिक जरूरतों के अलावा अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ नहीं छोड़ सकते। इसलिए वे अभी सिर्फ श्रमिक की अवस्था में ही बने रह सकते हैं। लेकिन अपेक्षाकृत रूप से कहें तो, इन लोगों में जमीर होता है और वे सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं; जैसे-जैसे वे सत्य समझने लगते हैं, वैसे-वैसे उनका परिवेश बदलता जाता है, वे परमेश्वर पर ज्यादा समय तक विश्वास करने लगते हैं, उन्हें ज्यादा गहरे अनुभव होने लगते हैं और वे परमेश्वर में वास्तविक आस्था विकसित कर लेते हैं, वे धीरे-धीरे सत्य और सकारात्मक चीजों को ज्यादा स्पष्ट रूप से देखने लगते हैं, जिस मार्ग पर उन्हें चलना चाहिए वह ज्यादा स्पष्ट हो जाता है, वे सत्य में रुचि विकसित कर लेते हैं और सत्य से ज्यादा से ज्यादा प्रेम करने लगते हैं। ऐसे लोग धीरे-धीरे उद्धार के मार्ग पर आगे बढ़ सकते हैं और परमेश्वर के चुने हुए लोग बन सकते हैं; उनमें सुधार और बदलाव की गुंजाइश होती है। दूसरी ओर, यह कहना कि मसीह-विरोधियों का सार रखने वाले लोग परमेश्वर के चुने हुए लोग बन सकते हैं और बचाए जा सकते हैं, ठीक नहीं है, क्योंकि मसीह-विरोधियों का सार दानवों और परमेश्वर के शत्रुओं का होता है—मसीह-विरोधी कभी नहीं बदल सकते।
अभी हम उनके उस दुष्ट स्वभाव सार से निकलने वाले इनकार, निंदा, आलोचना और ईशनिंदा के बारे में संगति कर रहे हैं, जो वे परमेश्वर और उसके कार्य के साथ पेश आने के तरीके से प्रकट करते हैं। जब भी कोई चीज मसीह-विरोधियों की धारणाओं के विपरीत होती है या उनके हितों को नुकसान पहुँचाती है, तो उनकी तात्कालिक प्रतिक्रिया खड़े होकर यह कहते हुए उसका विरोध और निंदा करने की होती है : “यह गलत है, यह लोगों द्वारा किया गया है और मैं इसके आगे नहीं झुकूँगा। मैं शिकायत दर्ज करूँगा और इस मामले को स्पष्ट करने के लिए सबूत ढूँढूँगा। मैं अपनी स्थिति घोषित करूँगा, अपना बचाव करूँगा, इस मामले का पूरा विवरण स्पष्ट करूँगा और देखूँगा कि बीच में कौन परेशानी खड़ी करने वाला है जो मेरी प्रतिष्ठा और मेरे द्वारा शुरू की गई अच्छी चीजें बर्बाद कर रहा है।” “सभी चीजों में परमेश्वर के अच्छे इरादे होते हैं” वाक्यांश मसीह-विरोधियों के दिलों में एक खोखला कथन बनकर रह जाता है, जो उनके कार्य करने के साधन, तरीके और सिद्धांत निर्देशित या परिवर्तित करने में असमर्थ होता है। इसके विपरीत, जब वे किसी स्थिति का सामना करते हैं, तो वे उस पर भरोसा करते हैं जो उनके लिए स्वाभाविक होता है और कार्य करने के हर तरीके के बारे में सोचते हैं और उसमें अपनी तमाम योग्यताएँ और रणनीतियाँ नियोजित कर देते हैं। निस्संदेह, वे जो करते हैं वह परमेश्वर की निंदा, आलोचना और ईशनिंदा होती है। लोगों के विचार शैतान के तर्क और विचारों से परिपूर्ण होते हैं, जिनमें कोई सत्य नहीं होता। इसलिए जब ऐसे मामलों से सामना होता है, तो मसीह-विरोधियों की अभिव्यक्तियाँ शैतान की अभिव्यक्तियों का ही अक्स होती हैं : जैसा व्यवहार शैतान परमेश्वर के साथ करता है, मसीह-विरोधी भी उसके साथ वैसा ही व्यवहार करते हैं और जो साधन या शब्द शैतान परमेश्वर के प्रति इस्तेमाल करता है, मसीह-विरोधी भी वही साधन या शब्द इस्तेमाल करते हैं। इस तरह मसीह-विरोधियों के दुष्ट सार का परमेश्वर का शत्रु होना स्पष्ट है। भले ही वह कोई ऐसा व्यक्ति हो, जिसने सिर्फ एक या दो दिन ही परमेश्वर में विश्वास किया हो, क्या वह अपनी सामान्य इंसानी सोच और तर्कसंगतता में मनुष्यों और परमेश्वर के बीच का अंतर समझता है? (हाँ, समझता है।) सामान्य मानवता वाले वयस्क के रूप में, क्या वह अपने हृदय में जानता है कि परमेश्वर के साथ कैसा व्यवहार करना है? (हाँ।) क्या इंसानी तर्कसंगतता में किसी ऐसे व्यक्ति के साथ सबसे उपयुक्त और सर्वोत्तम तरीके से व्यवहार करने का कोई मानक है, जिसकी वह आराधना करता है? (हाँ।) लोग झुकते और चापलूसी करते हैं, कर्णप्रिय बातें कहते हैं और अनुग्रह प्राप्त करते हैं; अगर वह व्यक्ति उन्हें पीटता या कोसता भी हो, तो भी वे दब्बू और आज्ञाकारी होने का तरीका ढूँढ़ ही लेते हैं। तो जब बात उनके माता-पिता की आती है, तो क्या लोग जानते हैं कि सम्मान और प्रेम कैसे दिखाया जाए और कौन-सा व्यवहार नुकसान और घृणा है? क्या इसका आकलन करने के लिए कोई मानक है? (हाँ, है।) यह साबित करता है कि मनुष्य, मानव-त्वचा से ढके हुए जीवित प्राणी, जानवरों से अलग और उच्च होते हैं। तुम जानते हो कि अपने माता-पिता का सम्मान और उनसे प्रेम कैसे करना है, तो फिर तुम यह क्यों नहीं जानते कि परमेश्वर के साथ प्रेम और सम्मान से कैसे पेश आना है? तुम परमेश्वर के साथ इस तरह कैसे पेश आ सकते हो? यूँ ही निंदा और आलोचना करना, यूँ ही ईशनिंदा करने और शाप देने का साहस करना—क्या सामान्य लोग ऐसा करते हैं? (नहीं।) जानवर भी इस तरह व्यवहार नहीं करते। अगर कोई व्यक्ति किसी जानवर को पालता है, चाहे वह जंगली जानवर ही क्यों न हो और उसके साथ कुछ समय बिता लेता है और अगर वह पहचानता है कि उसका मालिक कौन है, तो वह हमेशा उस मालिक के प्रति श्रद्धालु रहेगा, मालिक को अपना रिश्तेदार, अपने परिवार का सदस्य समझेगा, उसके साथ उससे अलग व्यवहार करेगा जैसा वह अन्य जानवरों या लोगों के साथ करता है। मान लो तुम उसके मालिक हुआ करते थे : उसके दो-तीन अन्य घरों में जाने के बाद भी जब तुम उससे दोबारा मिलोगे, तो तुम्हारी गंध मिलते ही वह तुरंत तुमसे स्नेह करने लगेगा। अगर वह कोई खूँख्वार जानवर भी हुआ, तो भी वह तुम्हें नहीं खाएगा। उसकी खूँख्वारियत जन्मजात होती है, जो परमेश्वर के सृजन और पूर्वनियति से उपजी होती है। यह परमेश्वर द्वारा उसे दी गई जीवित रहने की प्रवृत्ति है, न कि क्रूर या दुष्ट स्वभाव—यह मसीह-विरोधियों की बुराई से अलग होती है। दो लोगों ने एक छोटा शेर का बच्चा गोद लिया। जैसे-जैसे शेर बड़ा होता गया, उसके मांस-आधारित आहार का खर्च उठाना चुनौतीपूर्ण होता गया, इसलिए जब वह एक साल का हो गया, तो वे उसे वापस उसके प्राकृतिक परिवेश में छोड़ आए। तीन साल बाद उनका दोबारा उस शेर से सामना हुआ। दूर से शेर ने उन्हें देखा और उत्सुकता से उनकी ओर दौड़ा। पहले तो वे चिंतित हुए और सोचने लगे, “यह हमें खाएगा तो नहीं? आखिर यह शेर है।” लेकिन हुआ यह कि शेर उनके पास आकर दोस्तों की तरह उनके गले लग गया और बदले में उन्होंने भी शेर को गले लगाकर उसका दुलार किया। शेर ने फिर अपने परिवार के सदस्यों को उनसे मिलवाया और जब वे जाने को हुए तो वह अलग होने को तैयार नहीं हुआ। जब जंगली जानवरों में सबसे क्रूर, यह मांसाहारी मनुष्यों के साथ पेश आता है, तो तुम इस तरह का दृश्य देख सकते हो। क्या यह बहुत मार्मिक नहीं है? (हाँ, है।) यहाँ तक कि खूँख्वार जानवरों में भी लोग उनका दोस्ताना पक्ष देख सकते हैं, लेकिन मसीह-विरोधियों में यह अनुपस्थित होता है। चूँकि मसीह-विरोधियों में शैतान का स्वभाव होता है और वे शैतानी स्वभाव सार वाले लोग होते हैं, इसलिए वे परमेश्वर की आलोचना, निंदा और ईशनिंदा कर सकते हैं। ऐसे रवैये तदनुरूपी अभिव्यक्तियों और खासकर तरीकों की ओर ले जाते हैं। क्या मसीह-विरोधी जानवरों से भी बदतर नहीं हैं? लोग जानते हैं कि उन्हें अपने आराध्य लोगों, अपने निकटतम रिश्तेदारों, अपने माता-पिता के प्रति सम्मान और प्रेमपूर्ण देखभाल कैसे दिखानी है और उनके कौन-से क्रियाकलाप उन्हें चोट और नुकसान पहुँचा सकते हैं। वे इन चीजों का आकलन कर सकते हैं। लेकिन मसीह-विरोधी परमेश्वर के प्रति ऐसे व्यवहार प्रदर्शित कर सकते हैं, जो वास्तव में क्रोधित करने वाला हो। यह दर्शाता है कि ऐसे व्यक्तियों की अंतर्निहित प्रकृति मसीह-विरोधियों का सार होती है। सटीक रूप से कहें तो, ये लोग शैतान के प्रतिरूप होते हैं, वे जीते-जागते शैतान हैं, वे दानव हैं—वे परमेश्वर की भेड़ें नहीं हैं। क्या परमेश्वर की भेड़ें उसे शाप देंगी? क्या परमेश्वर की भेड़ें उसकी निंदा करेंगी? (नहीं।) क्यों नहीं करेंगी? (क्योंकि वे परमेश्वर की बात सुनती हैं और उसके प्रति समर्पण करती हैं।) वे सुनती और समर्पण करती हैं—यह एक पहलू है। मुख्य बात है परमेश्वर में उनका सच्चा विश्वास। अगर तुम वाकई परमेश्वर की पहचान, दर्जे और सार में विश्वास करते हो, तो चाहे परमेश्वर कुछ भी करे या कैसे भी करे, चाहे उससे नुकसान ही क्यों न हो, तुम उसकी निंदा नहीं करोगे। जो लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं, जिनका उसमें सच्चा विश्वास होता है, सिर्फ वे ही खुद को सृजित प्राणी के स्थान पर रखते हैं, हमेशा परमेश्वर को परमेश्वर समझते हैं। यह एक तथ्य है।
हम पहले ही मसीह-विरोधियों द्वारा परमेश्वर को कोसने, उसका विरोध करने और उसके खिलाफ शोर मचाने के बारे में संगति कर चुके हैं। कुछ लोग खुलेआम उसका विरोध करते हैं, गुट बनाते हैं, गठबंधन करते हैं और स्वतंत्र राज्य बनाते हैं। दूसरे लोग बंद दरवाजों के पीछे गुप्त रूप से उसे कोसते हैं, कुछ लोग अपने दिल में उसे कोसते हैं और अपने दिल में उसका विरोध करते हैं और उसके खिलाफ शोर मचाते हैं। चाहे वे उसे खुलेआम कोसें या गुप्त रूप से, वे सब मसीह-विरोधी हैं; वे परमेश्वर की भेड़ें नहीं हैं। वे शैतान की किस्म के हैं और निस्संदेह सामान्य लोग नहीं हैं या ऐसे सृजित प्राणी नहीं हैं जो मानक स्तर के हों। जब ज्यादातर लोग ऐसी स्थितियों का सामना करते हैं जो उनकी अपनी धारणाओं से मेल नहीं खातीं या परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का सामना करते हैं, तो वे सिर्फ परेशान, भ्रमित महसूस करते हैं और उसे स्वीकार नहीं कर पाते। वे शिकायतें करते हैं या अड़ियलपन दिखाते हैं; वे नकारात्मक या ढीले भी हो सकते हैं, लेकिन वे विरोध और शोर मचाने की हद तक नहीं जाते। समय के साथ प्रार्थना करने, परमेश्वर के वचन पढ़ने, भाई-बहनों की मदद और पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता, मार्गदर्शन और अनुशासन के जरिये वे धीरे-धीरे बदल सकते हैं। विपरीत परिस्थितियाँ आने पर साधारण भ्रष्ट मनुष्यों की यह अभिव्यक्ति होती है। दूसरी ओर, मसीह-विरोधियों में ये सकारात्मक अभिव्यक्तियाँ नहीं होतीं और वे अपना ढर्रा नहीं बदलते। अगर कोई स्थिति उनकी इच्छाओं के अनुरूप नहीं होती, तो वे शाप दे देते हैं। अगर अगली स्थिति भी उनकी इच्छाओं के अनुरूप न हो, तो भी वे शाप देते हैं। शाप देना विरोध करने और शोर मचाने के साथ-साथ चलता है। कुछ मसीह-विरोधी तो यहाँ तक कहते हैं, “अगर मुझ जैसे लोगों को नहीं बचाया जा सकता, तो फिर किसे बचाया जा सकता है?” क्या यह शोर मचाना नहीं है? क्या यह विरोध नहीं है? (हाँ, है।) यह विरोध है। उनमें समर्पण का लेशमात्र नहीं होता और वे परमेश्वर के खिलाफ शोर मचाने और उसका विरोध करने का साहस करते हैं—ये शैतान हैं। हम दुष्ट स्वभाव की विभिन्न अभिव्यक्तियों पर अपनी संगति यहीं समाप्त करते हैं।
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