प्रकरण छह : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव सार का सारांश (भाग तीन) खंड एक

III. मसीह-विरोधियों का स्वभाव सार

क. दुष्टता

2. मसीह-विरोधी परमेश्वर के प्रति क्या करते हैं

पिछली सभा के दौरान हमने मुख्य रूप से मसीह-विरोधी के स्वभाव सार पर संगति कर उसका सारांश दिया था, जिसमें भ्रष्ट मानवता के छह स्वभावों में से तीन लक्षणों का चयन कर उनका गहन-विश्लेषण किया गया था। ये तीन लक्षण हैं सत्य से विमुख होना, क्रूरता और दुष्टता। पिछली बार हमने दुष्टता के बारे में संगति की थी और मसीह-विरोधियों की दुष्ट अभिव्यक्तियों के गहन-विश्लेषण के माध्यम से, अर्थात् यह कि उनके विचार पूरे दिन बुराई से भरे रहते हैं, हमने मसीह-विरोधियों की पहचान की और इन अभिव्यक्तियों के माध्यम से उनके दुष्ट स्वभाव सार की पुष्टि की। हम इस तथ्य का गहन-विश्लेषण दो पहलुओं से कर रहे हैं कि उनके विचार पूरे दिन बुराई से भरे रहते हैं : पहला, जब वे दूसरों के साथ पेश आते हैं तो उनके विचारों में क्या होता है, वे अपने भ्रष्ट सार में कौन-से कार्यकलाप और अभिव्यक्तियाँ प्रकट करते हैं; दूसरा, परमेश्वर के बारे में उनके विचार क्या हैं। हमने इस बारे में संगति समाप्त कर ली थी कि वे लोगों के साथ कैसे पेश आते हैं। जहाँ तक परमेश्वर के प्रति मसीह-विरोधियों के विचारों, धारणाओं, दृष्टिकोणों और प्रेरणाओं का, यहाँ तक कि उनके मन में पूर्वनिर्धारित क्रियाकलापों का भी सवाल है, हमने पिछली बार इस बारे में आंशिक रूप से संगति की थी : उदाहरण के लिए, संदेह, जाँच-पड़ताल, और क्या? (संशय और सतर्कता।) संदेह, जाँच-पड़ताल, संशय और सतर्कता। आओ, अब मसीह-विरोधियों द्वारा परमेश्वर की परीक्षा लेने के बारे में संगति करते हैं।

v. परीक्षा लेना

परीक्षा लेने की क्या अभिव्यक्तियाँ हैं? कौन-से कार्यकलाप या विचार परीक्षा लेने की अवस्था या सार को अभिव्यक्त करते हैं? (अगर मैंने कोई अपराध किया है या कुछ बुरा किया है, तो मैं हमेशा परमेश्वर की जाँच-पड़ताल करना चाहता हूँ, स्पष्ट उत्तर चाहता हूँ और देखना चाहता हूँ कि मुझे अच्छा परिणाम या गंतव्य मिलेगा या नहीं।) इसका संबंध विचारों से है; इसलिए आम तौर पर जब कोई बोलता या कार्य करता है, या जब वह किसी चीज का सामना करता है, तो उसकी कौन-सी अभिव्यक्तियाँ परीक्षा लेने वाली होती हैं? अगर किसी ने कोई अपराध किया है और उसे लगता है कि परमेश्वर उसका अपराध याद रख सकता है या उसकी निंदा कर सकता है, और वह खुद अनिश्चित है, नहीं जानता कि परमेश्वर वास्तव में उसकी निंदा करेगा या नहीं, तो वह यह देखने के लिए इसकी परीक्षा लेने का तरीका खोजता है कि परमेश्वर का रवैया वास्तव में क्या है। वह प्रार्थना करने से शुरू करता है, और अगर कोई रोशनी या प्रबुद्धता नहीं मिलती, तो वह अनुसरण के अपने पिछले तरीके पूरी तरह से छोड़ने के बारे में सोचता है। पहले वह चीजें अनमने ढंग से करता था, जहाँ 50% प्रयास कर सकता था वहाँ सिर्फ 30% प्रयास करता था, या जहाँ वह 30% प्रयास कर सकता था वहाँ 10% प्रयास करता था। अब अगर वह 50% प्रयास कर सकता है, तो वह करेगा। वह गंदा या थकाऊ काम करता है जिसे करने से दूसरे लोग बचते हैं, उसे हमेशा दूसरों के सामने करता है और सुनिश्चित करता है कि ज्यादातर भाई-बहन इसे देखें। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि वह देखना चाहता है कि परमेश्वर इस मामले को कैसे देखता है और क्या उसे उसके अपराध से छुटकारा मिल सकता है। जब कठिनाइयों या ऐसी चीजों से सामना होता है जिन पर ज्यादातर लोग काबू नहीं पा सकते, तो वह देखना चाहता है कि परमेश्वर क्या करेगा, क्या वह उसे प्रबुद्ध कर उसका मार्गदर्शन करेगा। अगर वह परमेश्वर की उपस्थिति और उसका विशेष अनुग्रह महसूस कर सके, तो वह मान लेता है कि परमेश्वर ने उसके अपराध को याद नहीं किया है या उसकी निंदा नहीं की है, जिससे यह साबित होता है कि उसे क्षमा किया जा सकता है। अगर वह इस तरह से खुद को खपाता है और ऐसी कीमत चुकाता है, अगर उसका रवैया काफी बदल जाता है लेकिन फिर भी वह परमेश्वर की उपस्थिति महसूस नहीं करता, और वह पहले से बिल्कुल कोई स्पष्ट अंतर महसूस नहीं करता, तो यह संभव है कि परमेश्वर ने उसके पिछले अपराध की निंदा की हो और अब वह उसे नहीं चाहता। चूँकि परमेश्वर उसे नहीं चाहता, इसलिए वह भविष्य में अपना कर्तव्य निभाते समय उतना प्रयास नहीं करेगा। अगर परमेश्वर अभी भी उसे चाहता है, उसकी निंदा नहीं करता, और उसे अभी भी आशीष प्राप्त होने की उम्मीद है, तो वह अपना कर्तव्य निभाने में कुछ ईमानदारी दिखाएगा। क्या ये अभिव्यक्तियाँ और विचार परीक्षा लेने का एक रूप हैं? क्या यह एक विशिष्ट व्यवहार है? (हाँ।) अभी तुम लोगों ने सिर्फ एक सैद्धांतिक पहलू का जिक्र किया, लेकिन तुम विशेष रूप से परमेश्वर की परीक्षा लेने की विस्तृत अभिव्यक्ति में नहीं गए हो कि इस मामले के प्रति उनके हृदय में क्या ठोस नजरिये और योजनाएँ होती हैं, या यह उजागर नहीं किया कि जब मसीह-विरोधी इस गतिविधि में लिप्त होते हैं तो उनके क्या दृष्टिकोण और अवस्थाएँ होती हैं।

कुछ लोगों को परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और उसके द्वारा मानव-हृदय की गहराइयों की जाँच-पड़ताल के बारे में लगातार कोई ज्ञान या अनुभव नहीं होता। उनमें परमेश्वर द्वारा मानव-हृदय की जाँच-पड़ताल के बारे में वास्तविक अनुभूति का भी अभाव होता है, इसलिए स्वाभाविक रूप से वे इस मामले को लेकर संदेह से भरे होते हैं। हालाँकि अपनी व्यक्तिपरक इच्छाओं में वे यह मानना चाहते हैं कि परमेश्वर मानव-हृदय की गहराइयों की जाँच-पड़ताल करता है, लेकिन उनके पास इसका निर्णायक प्रमाण नहीं होता। नतीजतन, वे अपने हृदय में कुछ चीजों की योजना बना लेते हैं और साथ ही उनका निष्पादन और कार्यान्वयन करना शुरू कर देते हैं। जब वे उन्हें लागू करते हैं, तो लगातार देखते हैं कि क्या परमेश्वर वास्तव में उनके बारे में जानता है, क्या उनके मामले उजागर होंगे, और अगर वे चुप रहते हैं तो क्या कोई उनका पता लगा सकता है या क्या परमेश्वर किसी परिवेश-विशेष के माध्यम से उन्हें प्रकट कर सकता है। बेशक, साधारण लोगों में परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और उसके द्वारा मानव-हृदय की गहराइयों की जाँच-पड़ताल के बारे में कमोबेश कुछ अनिश्चितताएँ हो सकती हैं, लेकिन मसीह-विरोधी सिर्फ अनिश्चित नहीं होते—वे संदेह से भरे होते हैं और साथ ही परमेश्वर से पूरी तरह सतर्क भी होते हैं। इसलिए वे परमेश्वर की परीक्षा लेने के लिए कई व्यवहार विकसित करते हैं। चूँकि वे परमेश्वर द्वारा मानव-हृदय की जाँच-पड़ताल पर संदेह करते हैं, और इससे भी बढ़कर, इस तथ्य से इनकार तक करते हैं कि परमेश्वर उसकी जाँच-पड़ताल करता है, इसलिए वे अक्सर कुछ मामलों के बारे में सोचते हैं। फिर थोड़े डर या किसी अवर्णनीय दहशत की भावना के साथ वे कुछ लोगों को गुमराह करके अकेले में गुप्त रूप से इन विचारों को फैलाते हैं। इस बीच वे लगातार अपने तर्क और विचार थोड़ा-थोड़ा करके उजागर करते रहते हैं। उन्हें उजागर करते हुए वे देखते हैं कि परमेश्वर उनके इस व्यवहार को बाधित करेगा या उजागर। अगर वह उसे उजागर या निरूपित करता है, तो वे तुरंत पीछे हटकर दूसरा व्यवहार अपना लेते हैं। अगर ऐसा लगता है कि किसी को इसके बारे में पता नहीं है और कोई उन्हें समझ नहीं सकता या उनकी असलियत नहीं जान सकता, तो वे अपने दिलों में और भी पूरी तरह से आश्वस्त हो जाते हैं कि उनकी अंतर्दृष्टि सही है और परमेश्वर के बारे में उनका ज्ञान उचित है। उनके विचार में परमेश्वर द्वारा मानव-हृदय की जाँच-पड़ताल मूल रूप से अस्तित्वहीन है। यह किस तरह का तरीका है? यह परीक्षा लेने का तरीका है।

मसीह-विरोधी अपने अंतर्निहित दुष्ट स्वभाव के कारण कभी सीधे-सीधे बात या काम नहीं करते। वे चीजों को ईमानदार रवैये और निष्ठा से नहीं सँभालते या ईमानदार शब्दों में बात और हृदयस्पर्शी रवैये से काम नहीं करते। जो कुछ भी वे कहते या करते हैं, वह बेबाक नहीं होता, बल्कि घुमावदार और लुका-छिपा होता है, और वे कभी अपने विचार या प्रयोजन सीधे तौर पर व्यक्त नहीं करते। चूँकि वे मानते हैं कि अगर वे उन्हें व्यक्त करेंगे, तो उन्हें पूरी तरह से समझ और जान लिया जाएगा, उनकी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ प्रकाश में उजागर हो जाएँगी और वे दूसरे लोगों के बीच उच्च या कुलीन नहीं माने जाएँगे या दूसरे उनका आदर और आराधना नहीं करेंगे; इसलिए वे हमेशा अपने बदनाम उद्देश्य और इच्छाएँ ढकने-छिपाने की कोशिश करते हैं। तो वे कैसे बोलते और काम करते हैं? वे विभिन्न तरीके इस्तेमाल करते हैं। जैसी कि गैर-विश्वासियों के बीच कहावत है, “स्थिति का पता लगाना,” मसीह-विरोधी भी ऐसा ही नजरिया अपनाते हैं। जब वे कुछ करना चाहते हैं और उनका कोई खास दृष्टिकोण या रवैया होता है, तो वे उसे कभी सीधे तौर पर व्यक्त नहीं करते; बल्कि वे कुछ खास तरीके इस्तेमाल करते हैं, जैसे कि धूर्ततापूर्ण या पूछताछ करने वाले तरीके या लोगों से बातें निकालकर वह जानकारी जुटाना जो वे चाहते हैं। अपने दुष्ट स्वभाव के कारण मसीह-विरोधी कभी सत्य नहीं खोजते, न ही वे उसे समझना चाहते हैं। उनकी एकमात्र चिंता अपनी प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे को लेकर होती है। वे उन गतिविधियों में लिप्त होते हैं जो उन्हें प्रसिद्धि, लाभ और रुतबा दे सकती हों और उनसे बचते हैं जो ऐसी चीजें नहीं देतीं। वे प्रतिष्ठा, रुतबे, अलग पहचान और महिमा से संबंधित गतिविधियों में उत्सुकता से शामिल होते हैं, जबकि उन चीजों से बचते हैं जो कलीसिया के काम की रक्षा करती हों या दूसरों को नाराज कर सकती हों। इसलिए मसीह-विरोधी किसी भी चीज को खोज के रवैये से नहीं देखते; बल्कि वे परीक्षा लेने के तरीके का इस्तेमाल चीजों का पता लगाने के लिए करते हैं और फिर यह तय करते हैं कि आगे बढ़ना है या नहीं—मसीह-विरोधी इतने चालाक और दुष्ट होते हैं। उदाहरण के लिए, जब वे यह जानना चाहते हैं कि परमेश्वर की नजर में वे कैसे व्यक्ति हैं, तो वे खुद को जानने के द्वारा परमेश्वर के वचनों के माध्यम से अपना आकलन नहीं करते। इसके बजाय वे चारों ओर पूछताछ करते हैं और निहित भाषणों को सुनते हैं, अगुआओं और ऊपरवाले के लहजे और रवैये को देखते हैं, और परमेश्वर के वचनों में यह देखते हैं कि परमेश्वर उनके जैसे लोगों के परिणाम कैसे निर्धारित करता है। वे इन मार्गों और तरीकों का उपयोग यह देखने के लिए करते हैं कि वे परमेश्वर के घर में किस स्थिति में हैं और यह पता लगाते हैं कि उनका भावी परिणाम क्या होगा। क्या इसमें परीक्षा लेने की कुछ प्रकृति शामिल नहीं है? उदाहरण के लिए, जब कुछ लोगों की काट-छाँट की जाती है, तो उसके बाद वे यह जाँच-पड़ताल करने के बजाय कि उनकी काट-छाँट क्यों की गई, अपने क्रियाकलापों के दौरान उनके द्वारा प्रकट किए गए भ्रष्ट स्वभावों और गलतियों की जाँच-पड़ताल क्यों की गई, और खुद को जानने और अपने पिछले दोष सुधारने के लिए उन्हें सत्य के कौन-से पहलू खोजने चाहिए, वे अपने प्रति ऊपरवाले के वास्तविक रवैये का पता लगाने के लिए अप्रत्यक्ष साधनों का उपयोग करके दूसरों पर झूठी छाप छोड़ते हैं। उदाहरण के लिए, काट-छाँट किए जाने के बाद वे जल्दी से एक महत्वहीन मुद्दा उठाकर उससे ऊपरवाले को खोजते हैं, यह देखने के लिए कि ऊपरवाले का लहजा कैसा है, क्या वह धैर्यवान है, क्या जो सवाल वे पूछ रहे हैं उनका गंभीरता से जवाब दिया जाएगा, क्या वह उनके प्रति नरम रवैया अपनाएगा, क्या वह उन्हें काम सौंपेगा, क्या वह अब भी उनका सम्मान करेगा, और ऊपरवाला वास्तव में उनके द्वारा पहले की गई गलतियों के बारे में क्या सोचता है। ये सभी व्यवहार एक तरह से परीक्षा लेना है। संक्षेप में, जब वे ऐसी परिस्थितियों का सामना करते हैं और ये अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करते हैं, तो क्या लोग अपने दिल में इसे जानते हैं? (हाँ, वे जानते हैं।) तो जब तुम जानते हो और ये चीजें करना चाहते हो, तो तुम लोग इसे कैसे सँभालते हो? पहले, सबसे सरल स्तर पर, क्या तुम अपने खिलाफ विद्रोह कर सकते हो? समय आने पर कुछ लोगों को अपने खिलाफ विद्रोह करना चुनौतीपूर्ण लगता है; वे इस पर सोचते हैं, “इसे भूल जाओ, इस बार यह मेरे आशीषों और परिणाम से संबंधित है। मैं अपने खिलाफ विद्रोह नहीं कर सकता। अगली बार करूँगा।” जब अगली बार आता है और वे फिर से अपने आशीषों और परिणाम से जुड़े किसी मुद्दे का सामना करते हैं, तो तब भी वे खुद को अपने खिलाफ विद्रोह करने में असमर्थ पाते हैं। ऐसे व्यक्तियों में जमीर का एक भाव होता है और हालाँकि उनमें मसीह-विरोधी का स्वभाव सार नहीं होता, फिर भी यह उनके लिए काफी परेशानी भरा और खतरनाक होता है। दूसरी ओर, मसीह-विरोधी अक्सर ये विचार मन में रखते हैं और ऐसी अवस्था में रहते हैं, लेकिन वे कभी अपने खिलाफ विद्रोह नहीं करते, क्योंकि उनमें जमीर का कोई भाव नहीं होता। अगर कोई उनकी अवस्थाएँ इंगित करते हुए उनकी काट-छाँट करता भी है, तो भी वे डटे रहकर अपने खिलाफ बिल्कुल भी विद्रोह नहीं करेंगे, न ही वे इसके कारण खुद से घृणा करेंगे या इस अवस्था को छोड़ेंगे और इसका समाधान ही करेंगे। बर्खास्त किए जाने के बाद कुछ मसीह-विरोधी सोचते हैं, “बर्खास्त होना एक सामान्य बात लगती है, लेकिन कुछ हद तक अपमानजनक महसूस होती है। हालाँकि यह कोई महत्वपूर्ण बात नहीं है, लेकिन एक निर्णायक चीज है जिसे मैं नहीं छोड़ सकता। अगर मुझे बर्खास्त कर दिया जाता है, तो क्या इसका मतलब यह है कि परमेश्वर का घर अब मुझे विकसित नहीं करेगा? फिर मैं परमेश्वर की नजर में किस तरह का व्यक्ति रहूँगा? क्या मेरे पास अभी भी आशा होगी? क्या मैं अभी भी परमेश्वर के घर में किसी काम का रहूँगा?” वे इस पर विचार कर एक योजना बनाते हैं, “मेरे पास दस हजार युआन हैं और अब उनका उपयोग करने का समय है। मैं ये दस हजार युआन चढ़ावे के रूप में अर्पित कर देखूँगा कि क्या मेरे प्रति ऊपरवाले का रवैया थोड़ा बदल सकता है और क्या वह मेरे प्रति कुछ अनुग्रह दिखा सकता है। अगर परमेश्वर का घर पैसे स्वीकार कर लेता है, तो इसका मतलब है कि मेरे पास अभी भी आशा है। अगर वह पैसे अस्वीकार कर देता है, तो यह साबित होता है कि मेरे पास कोई आशा नहीं है और मैं अन्य योजनाएँ बनाऊँगा।” यह किस तरह का व्यवहार है? यह परीक्षा लेना है। संक्षेप में, परीक्षा लेना दुष्ट स्वभाव सार की अपेक्षाकृत स्पष्ट अभिव्यक्ति है। लोग इच्छित जानकारी प्राप्त करने, निश्चितता प्राप्त करने और फिर मन की शांति प्राप्त करने के लिए विभिन्न साधनों का उपयोग करते हैं। परीक्षा लेने के कई तरीके हैं, जैसे कि परमेश्वर से बातें उगलवाने के लिए शब्दों का उपयोग करना, उसकी परीक्षा लेने के लिए चीजों का उपयोग करना, अपने मन में चीजों के बारे में सोचना और उन पर विचार करना। परमेश्वर की परीक्षा लेने का तुम लोगों का सबसे आम तरीका क्या है? (कभी-कभी परमेश्वर से प्रार्थना करते समय मैं अपने प्रति परमेश्वर के रवैये की जाँच-पडताल करती हूँ और देखती हूँ कि मेरे दिल में शांति है या नहीं। मैं परमेश्वर की परीक्षा लेने के लिए इस तरीके का उपयोग करती हूँ।) इस तरीके का उपयोग काफी आम है। एक और तरीका यह देखना है कि सभा में संगति के दौरान किसी के पास कहने के लिए कुछ है या नहीं, परमेश्वर प्रबुद्धता या रोशनी प्रदान करता है या नहीं, और इसका यह जाँच-पड़ताल करने के लिए उपयोग करना कि क्या परमेश्वर अभी भी उनके साथ है, क्या वह अभी भी उनसे प्रेम करता है। साथ ही, अपना कर्तव्य निभाने के दौरान यह देखना कि क्या परमेश्वर उन्हें प्रबुद्धता देता है या उनका मार्गदर्शन करता है, क्या उनके कोई विशेष विचार, भाव या अंतर्दृष्टियाँ हैं—इनका यह जाँच करने के लिए उपयोग करना कि परमेश्वर का उनके प्रति कैसा रवैया है। ये सभी तरीके काफी आम हैं। और कुछ? (अगर मैंने प्रार्थना में परमेश्वर के सामने कोई संकल्प लिया है लेकिन उसे पूरा करने में विफल रहता हूँ, तो मैं देखता हूँ कि क्या परमेश्वर मेरे साथ मेरी शपथ के अनुसार व्यवहार करेगा।) यह भी एक तरह का तरीका है। परमेश्वर के साथ पेश आने के लिए लोग चाहे किसी भी तरीके का उपयोग करें, अगर उनके मन में इसके बारे में अपराध-बोध होता है और फिर वे इन क्रियाकलापों और स्वभावों के बारे में ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं और समय से उन्हें बदल सकते हैं, तो फिर समस्या उतनी महत्वपूर्ण नहीं है—यह एक सामान्य भ्रष्ट स्वभाव है। लेकिन अगर कोई लगातार और हठपूर्वक ऐसा कर सकता है, भले ही उसे पता हो कि यह गलत है और परमेश्वर को इससे घृणा है, लेकिन वह इसमें लगा रहता है, कभी इसके विरुद्ध विद्रोह नहीं करता या इसे छोड़ता नहीं, तो यह मसीह-विरोधी का सार है। मसीह-विरोधी का स्वभाव सार साधारण लोगों से अलग होता है, जिसमें वे कभी आत्मचिंतन नहीं करते या सत्य नहीं खोजते, बल्कि लगातार और हठपूर्वक परमेश्वर, लोगों के प्रति उसके रवैये, किसी व्यक्ति के बारे में उसके निष्कर्ष और किसी व्यक्ति के अतीत, वर्तमान और भविष्य के बारे में उसके विचारों और ख्यालों की परीक्षा लेने के लिए विभिन्न तरीकों का उपयोग करते हैं। वे कभी परमेश्वर के इरादे, सत्य और खास तौर से यह नहीं खोजते कि अपने स्वभाव में बदलाव लाने के लिए सत्य के प्रति कैसे समर्पित हों। उनके तमाम क्रियाकलापों के पीछे का उद्देश्य परमेश्वर के विचारों और भावों की जाँच-पड़ताल करना है—यह मसीह-विरोधी है। मसीह-विरोधियों का यह स्वभाव स्पष्ट रूप से दुष्ट होता है। जब वे इन क्रियाकलापों में संलग्न होते हैं और ये अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करते हैं, तो उनमें अपराध-बोध या पश्चात्ताप का नामोनिशान तक नहीं होता। अगर वे खुद को इन चीजों से जोड़ते भी हैं, तो भी वे कोई पश्चात्ताप या रुकने का इरादा नहीं दिखाते, बल्कि तब भी अपने तौर-तरीकों पर कायम रहते हैं। परमेश्वर के प्रति उनके व्यवहार, रवैये और उनके रूख से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे परमेश्वर को अपना विरोधी मानते हैं। उनके विचारों और दृष्टिकोणों में परमेश्वर को जानने, परमेश्वर से प्रेम करने, परमेश्वर के प्रति समर्पित होने या परमेश्वर का भय मानने का कोई विचार या रवैया नहीं होता; वे सिर्फ परमेश्वर से इच्छित जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं और अपने प्रति परमेश्वर का सटीक रवैया और अपने बारे में उसकी परिभाषा सुनिश्चित करने के लिए अपने ही तरीके और साधन इस्तेमाल करते हैं। ज्यादा गंभीर बात यह है कि भले ही वे अपने तरीके परमेश्वर के उजागर करने के वचनों के अनुरूप रखते हों, अगर उन्हें इस बात की थोड़ी-सी भी जानकारी हो कि यह व्यवहार परमेश्वर को घृणास्पद लगता है और किसी व्यक्ति को ऐसा नहीं करना चाहिए, तो भी वे इसे कभी नहीं छोड़ेंगे।

अतीत में परमेश्वर के घर में एक विनियम था : उन लोगों के बारे में जिन्हें निकाल या हटा दिया गया हो, अगर उन्होंने बाद में सच्चा पश्चात्ताप अभिव्यक्त किया हो और वे परमेश्वर के वचन पढ़ने में लगे रहे हों, सुसमाचार प्रचार करते रहे हों और परमेश्वर के लिए गवाही देते रहे हों, सच में पश्चात्ताप किया हो तो उन्हें कलीसिया में फिर से प्रवेश दिया जा सकता है। कोई व्यक्ति था जिसने हटाए जाने के बाद ये मानदंड पूरे किए और कलीसिया ने उसे खोजने, उसके साथ संगति करने और उसे यह बताने के लिए किसी को भेजा कि उसे कलीसिया में वापस प्रवेश दे दिया गया है। यह सुनकर वह काफी प्रसन्न हुआ, लेकिन उसने सोचा, “यह स्वीकृति वास्तविक है या इसके पीछे कोई विचार है? क्या परमेश्वर ने वाकई मेरा पश्चात्ताप देखा है? क्या उसने वाकई मुझ पर दया दिखाकर मुझे क्षमा कर दिया है? क्या वाकई मेरे पिछले क्रियाकलाप नजरअंदाज कर दिए गए हैं?” उसे इस पर विश्वास नहीं हुआ और उसने सोचा, “भले ही वे मुझे वापस लेना चाहते हों, लेकिन मुझे संयमित रहना चाहिए और तुरंत सहमत नहीं होना चाहिए, मुझे ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए मानो मैंने निष्कासित होने के बाद इन वर्षों के दौरान बहुत कष्ट सहे हों और मैं बहुत दयनीय रहा हूँ। मुझे थोड़ा संयमित व्यवहार करना चाहिए और वापस प्रवेश मिलने के तुरंत बाद इस बारे में पूछताछ नहीं करनी चाहिए कि मैं कलीसियाई जीवन में कहाँ भाग ले सकता हूँ या मैं कौन-से कर्तव्य निभा सकता हूँ। मैं बहुत उत्साही नहीं दिख सकता। हालाँकि मैं अंदर से बहुत खुश महसूस कर रहा हूँ, फिर भी मुझे शांत रहने और यह देखने की जरूरत है कि परमेश्वर का घर वाकई मुझे वापस चाहता है या मुझे कुछ खास कार्यों में इस्तेमाल करने के लिए बस कपट कर रहा है।” इसे मद्देनजर रखते हुए उसने कहा, “अपने निष्कासन के बाद मैंने चिंतन किया और जाना कि मैंने जो गलतियाँ कीं, वे बहुत बड़ी थीं। मैंने परमेश्वर के घर के हितों को जो नुकसान पहुँचाया वह बहुत बड़ा था और मैं कभी उसकी भरपाई नहीं कर सकता। मैं वास्तव में एक दानव और परमेश्वर द्वारा शापित शैतान हूँ। लेकिन मेरा आत्मचिंतन अभी भी अधूरा है। चूँकि परमेश्वर का घर मुझे वापस लेना चाहता है, इसलिए मुझे परमेश्वर के वचन और भी ज्यादा खाने-पीने और आत्मचिंतन कर खुद को जानने की जरूरत है। फिलहाल मैं परमेश्वर के घर लौटने के योग्य नहीं हूँ, परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाने के योग्य नहीं हूँ, अपने भाई-बहनों से मिलने के योग्य नहीं हूँ, और निश्चित रूप से इतना शर्मिंदा हूँ कि परमेश्वर का सामना नहीं कर सकता। मैं कलीसिया में तभी वापस आऊँगा, जब मुझे लगेगा कि मेरा आत्मज्ञान और आत्मचिंतन पर्याप्त है, ताकि हर कोई मुझे मान्यता दे सके।” यह कहते हुए, वह यह सोचकर घबरा भी गया, “मैं यह कहने का सिर्फ दिखावा कर रहा हूँ। अगर अगुआ मुझे कलीसिया में वापस न आने देने पर सहमत हो गए तो? क्या मैं खत्म नहीं हो जाऊँगा?” वास्तव में, वह काफी चिंतित था, लेकिन फिर भी उसे इस तरह से बोलना पड़ा और ऐसा दिखावा करना पड़ा जैसे कि वह कलीसिया में वापस लौटने के लिए बहुत उत्सुक नहीं था। ये चीजें कहने का उसका क्या मतलब था? (वह परीक्षा ले रहा था कि क्या कलीसिया वाकई उसे वापस स्वीकारेगी।) क्या यह जरूरी है? क्या यह ऐसी चीज नहीं है, जिसे दानव और शैतान करेंगे? क्या कोई सामान्य व्यक्ति इस तरह से व्यवहार करेगा? (नहीं, वह नहीं करेगा।) सामान्य व्यक्ति ऐसा नहीं करेगा। इतने शानदार अवसर के बावजूद, उसका ऐसा कदम उठा सकना दुष्टता है। कलीसिया में फिर से प्रवेश देना परमेश्वर के प्रेम और दया की अभिव्यक्ति है, उसे अपनी भ्रष्टता और कमियों पर चिंतन कर उन्हें जानना चाहिए और पिछले ऋणों की भरपाई करने के तरीके खोजने चाहिए। अगर कोई अभी भी इस तरह से परमेश्वर की परीक्षा ले सकता है और परमेश्वर की दया से इस तरह से पेश आ सकता है, तो वह वाकई उसकी दया के लिए आभारी होने में विफल है! लोग इस तरह के विचार और व्यवहार अपने दुष्ट सार के कारण विकसित कर लेते हैं। अनिवार्य रूप से, जब लोग परमेश्वर की परीक्षा लेते हैं, तो वे सैद्धांतिक रूप से जो कुछ भी अभिव्यक्त और प्रकट करते हैं, वह अन्य चीजों के अलावा, हमेशा परमेश्वर के विचारों और साथ ही लोगों के बारे में उसके विचारों और परिभाषाओं की परीक्षा लेने से संबंधित होता है। अगर लोग सत्य खोजते हैं, तो वे सत्य-सिद्धांतों के अनुसार कार्य और व्यवहार करते हुए ऐसे अभ्यासों के खिलाफ विद्रोह कर उन्हें छोड़ देंगे। लेकिन मसीह-विरोधी के स्वभाव सार वाले व्यक्ति न सिर्फ इस तरह के अभ्यास नहीं छोड़ सकते और उन्हें घृणित नहीं पाते, बल्कि ऐसे साधन और तरीके रखने के लिए अक्सर खुद को सराहते भी हैं। वे सोच सकते हैं, “देखो, मैं कितना चतुर हूँ। मैं तुम मूर्ख लोगों की तरह नहीं हूँ, जो सिर्फ परमेश्वर और सत्य के प्रति समर्पित होना और उनका आज्ञापालन करना जानते हैं—मैं तुम लोगों जैसा बिल्कुल नहीं हूँ! मैं इन चीजों का पता लगाने के लिए साधनों और तरीकों का उपयोग करने की कोशिश करता हूँ। अगर मुझे समर्पित होना और आज्ञापालन करना भी पड़े, तो भी मैं चीजों की तह तक जाऊँगा। ऐसा मत सोचो कि तुम मुझसे कुछ भी छिपा सकते हो या मुझे धोखा देकर मूर्ख बना सकते हो।” यह होता है उनका विचार और दृष्टिकोण। मसीह-विरोधी कभी समर्पण, भय या ईमानदारी नहीं दिखाते, और देहधारी परमेश्वर के प्रति अपने व्यवहार में वफादारी तो वे बिल्कुल भी नहीं दिखाते। यहाँ परीक्षा लेने से संबंधित अभिव्यक्तियों पर हमारी चर्चा समाप्त होती है।

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