प्रकरण पाँच : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव सार का सारांश (भाग दो) खंड तीन
2. मसीह-विरोधी परमेश्वर के प्रति क्या करते हैं
मसीह-विरोधियों द्वारा लोगों के प्रति प्रदर्शित की जाने वाली विभिन्न दुष्ट अभिव्यक्तियों के बारे में संगति करने के बाद आओ हम इस बारे में संगति करें कि मसीह-विरोधियों द्वारा पूरे दिन सिर्फ दुष्ट चीजों के बारे में सोचते रहने के लिहाज से वे परमेश्वर के प्रति क्या अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करते हैं। हम इस विषय पर पहले बहुत-कुछ चर्चा कर चुके हैं, इसलिए आओ उसका सारांश प्रस्तुत करते हैं। हम हलके मामलों से शुरू करेंगे और फिर धीरे-धीरे ज्यादा गंभीर मामलों की ओर बढ़ेंगे। पहला है संदेह, जिसके बाद आता है परमेश्वर की जाँच-पड़ताल करना और फिर संशय, सतर्कता, माँगें और सौदेबाजी करना भी है। क्या कुछ और भी है? (परमेश्वर की परीक्षा लेना।) इस व्यवहार की प्रकृति काफी गंभीर है। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते हैं, प्रत्येक व्यवहार की प्रकृति ज्यादा से ज्यादा गंभीर होती जाती है—इनकार, निंदा, आलोचना, ईशनिंदा, मौखिक दुर्व्यवहार, हमला, शोरगुल और विरोध। देखने में इनमें से कुछ शब्दों के अर्थ कुछ हद तक समान लग सकते हैं, लेकिन करीब से जाँच-पड़ताल करने पर उनकी गहराई या बल अलग-अलग होता है। विभिन्न परिप्रेक्ष्यों को अपनाकर या मसीह-विरोधियों के विभिन्न नजरियों पर विचार करके हम इन शब्दों की प्रकृति में अंतर कर सकते हैं।
i. संदेह
संदेह, जाँच-पड़ताल और संशय अपेक्षाकृत प्रारंभिक अभिव्यक्तियाँ हैं। कुछ लोग यह सोचते हुए अपने दिलों में सिर्फ संदेह पालते हैं, “क्या देहधारी देह वास्तव में परमेश्वर है? वह मुझे एक व्यक्ति जैसा लगता है। क्या उसके सभी वचन सत्य हैं? उनमें से कौन-से वचन सत्य जैसे लगते हैं? वह जो कहता है, उसमें से कुछ इंसानी बोलचाल और ज्ञान से परे हो सकता है। लोग शायद रहस्य और भविष्यवाणियाँ स्पष्ट रूप से नहीं समझा सकते, लेकिन क्या भविष्यवक्ता भी ऐसी बातें नहीं कह सकते? कहा जाता है कि परमेश्वर धार्मिक है, लेकिन परमेश्वर धार्मिक कैसे है? कहा जाता है कि परमेश्वर हर चीज का संप्रभु है तो फिर शैतान हमेशा खराब चीजें क्यों करता है? जब शैतान हमें पकड़ता और सताता है, हमें अपशब्द कहता है तो परमेश्वर हस्तक्षेप क्यों नहीं करता? परमेश्वर कहाँ है? क्या परमेश्वर का वास्तव में अस्तित्व है?” जब लोगों में वास्तविक आस्था की कमी होती है, वे परमेश्वर की संप्रभुता को नहीं पहचानते, परमेश्वर के स्वभाव या सार को नहीं जानते और सत्य को नहीं समझते तो फिर उनके दिलों में ऐसे संदेह पैदा होंगे ही। लेकिन जैसे-जैसे लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हैं, सत्य समझते हैं और परमेश्वर की संप्रभुता को पहचानते हैं, ये संदेह धीरे-धीरे दूर होते जाते हैं और वास्तविक आस्था में बदल जाते हैं। यह उन सभी के लिए अपरिहार्य मार्ग है जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं। लेकिन क्या दुष्ट सार वाले मसीह-विरोधियों के संदेह बदले जा सकते हैं? (नहीं, वे नहीं बदले जा सकते।) वे क्यों नहीं बदले जा सकते? (मसीह-विरोधी छद्म-विश्वासी होते हैं—वे परमेश्वर को नहीं मानते।) सिद्धांत रूप में वे छद्म-विश्वासी होते हैं, इसलिए वे लगातार परमेश्वर पर संदेह करते हैं। वस्तुगत कारण यह है कि इस तरह के लोग मूल रूप से सत्य और सकारात्मक चीजों को स्वीकारने से इनकार करते हैं। लेकिन परमेश्वर जो कुछ भी करता है, वह सकारात्मक और सत्य होता है। चूँकि मसीह-विरोधी सत्य से विमुख और उसके प्रति शत्रुतापूर्ण होते हैं, इसलिए भले ही हर कोई यह स्वीकार करता हो कि परमेश्वर द्वारा किया गया हर एक कार्य तथ्य है, कि यह सब परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है और परमेश्वर की संप्रभुता—परमेश्वर की ही तरह—निश्चित रूप से अस्तित्व में है, फिर भी मसीह-विरोधी यह नहीं मानते या स्वीकारते कि ये तथ्य हैं। उनके दिलों में परमेश्वर के बारे में संदेह हमेशा बने रहते हैं। स्पष्ट रूप से ये तथ्य हैं, हर कोई इनकी गवाही देता है, यहाँ तक कि जो लोग आम तौर पर सबसे कम आस्था रखते हैं, बहुत सारे वर्षों तक परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के बाद परमेश्वर के बारे में उनके संदेह भी मिट जाते हैं और वे परमेश्वर में सच्ची आस्था विकसित कर लेते हैं। अकेले मसीह-विरोधी ही परमेश्वर के बारे में अपने संदेहों को नहीं बदल सकते। वस्तुनिष्ठ रूप से कहें तो ये व्यक्ति सिद्धांत रूप में छद्म-विश्वासी होते हैं जो सत्य नहीं स्वीकारते, लेकिन वास्तव में ऐसा इसलिए होता है क्योंकि मसीह-विरोधी सत्य से विमुख होते हैं और दुष्ट सार रखते हैं—यही मूलभूत कारण है। परमेश्वर ने जो किया है, चाहे कितने भी लोग उसकी पुष्टि करें या गवाही दें या मसीह-विरोधियों की आँखों के सामने कितना भी जबरदस्त सबूत रख दिया जाए, वे फिर भी परमेश्वर के सार पर या इस बात पर विश्वास करने से इनकार करते हैं कि परमेश्वर सभी चीजों का संप्रभु है—यह अत्यधिक दुष्टता है। इसे एक बिंदु से स्पष्ट किया जा सकता है : जब मसीह-विरोधी सभी चीजों पर परमेश्वर की संप्रभुता का जबरदस्त और स्पष्ट तथ्य देखते हैं तो वे न तो उस पर विश्वास करते हैं और न ही उसे स्वीकारते हैं, यहाँ तक कि वे परमेश्वर पर संदेह भी करते हैं। लेकिन जब उन तथाकथित बुद्ध या अमर लोगों के कर्मों की बात आती है जिनके बारे में गैर-विश्वासी, दानव और बुरी आत्माएँ बात करती हैं—उन कर्मों की जिन्हें मसीह-विरोधी लोगों ने नहीं देखा है और जिनके कोई ठोस सबूत नहीं हैं—तो वे आसानी से विश्वास कर लेते हैं। यह दुष्टता का चरम प्रदर्शन है। परमेश्वर के क्रियाकलाप चाहे कितने भी महान या धरती को कँपाने वाले क्यों न हों, मसीह-विरोधी फिर भी संदेह करते हैं, अवमानना करते हैं और अपने दिलों में लगातार संदेह पालते रहते हैं। लेकिन जब दानव या शैतान कुछ भी विचित्र करते हैं तो वे आश्वस्त हो जाते हैं और प्रशंसा में झुक जाते हैं। परमेश्वर चाहे कितनी भी बड़ी चीजें क्यों न करे, वे परमेश्वर का भय या उसके प्रति वास्तविक आस्था उत्पन्न नहीं कर सकते। इसके विपरीत, वे शैतान की तमाम मनगढ़ंत बातों पर आसानी से विश्वास कर लेते हैं और पूरे दिल से इनका आदर करते हैं। यह दुष्टता का प्रदर्शन है। यह तथ्य कि मसीह-विरोधी परमेश्वर पर संदेह करते हैं, हमेशा मौजूद रहता है। वे कभी नहीं मानते कि परमेश्वर सभी चीजों का संप्रभु है और वे कभी नहीं स्वीकारते कि परमेश्वर सत्य है; चाहे कितने भी लोग इन चीजों की गवाही दें या इनके लिए कितने भी सबूत पेश किए जाएँ, वे न तो उन्हें स्वीकार सकते हैं और न ही उन पर विश्वास कर सकते हैं। एक ओर यह मसीह-विरोधियों के दुष्ट स्वभाव सार के कारण होता है और दूसरी ओर यह इंगित करता है कि ऐसे व्यक्ति वास्तव में मानव नहीं हैं, क्योंकि उनमें सामान्य मानवता की विचार-प्रक्रिया नहीं होती। इसका क्या मतलब है कि उनमें सामान्य मानवता की विचार-प्रक्रिया नहीं होती? इसका मतलब है कि उनमें सकारात्मक चीजों, सत्य और सभी चीजों के पीछे के सार और उद्गम के बारे में सही आकलन और समझ नहीं होती। यहाँ तक कि परमेश्वर के वचन पढ़ने, धर्मोपदेश सुनने और परमेश्वर के वचनों का अनुभव करने पर भी वे पुष्टि या विश्वास नहीं कर सकते, बल्कि संदेहग्रस्त रहते हैं। स्पष्ट रूप से इन व्यक्तियों में सामान्य मानवता की विचार-प्रक्रिया नहीं होती। ये लोग जिनमें सामान्य विचार-प्रक्रिया नहीं होती, जो सत्य, परमेश्वर के वचनों, सकारात्मक चीजों और तथ्यों को नहीं समझ सकते, क्या फिर भी मानव होते हैं? (नहीं, वे मानव नहीं होते।) वे मानव नहीं हैं, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि वे जानवर हैं, क्योंकि जानवरों में दुष्ट स्वभाव नहीं होता; चूँकि इन व्यक्तियों में दुष्ट स्वभाव होता ही है, इसलिए यह कथन सत्य है : ये लोग वास्तव में असली मसीह-विरोधी हैं और इनमें राक्षसी प्रकृति है। संदेह मसीह-विरोधी लोगों के विचारों में परमेश्वर के प्रति अभिव्यक्त होने वाली एक दशा है और यह उनके व्यवहार में प्रकट होने वाला एक प्रकार का स्वभाव सार भी है, जो बेहद सतही, मूलभूत, बाहरी और सामान्य अभिव्यक्ति है।
ii. जाँच-पड़ताल
मसीह-विरोधी अपने दिलों में परमेश्वर के बारे में संदेह से भरे होते हैं तो क्या वे वास्तव में परमेश्वर के वचनों, उसके स्वभाव और कार्य को स्वीकारते हैं? क्या वे वास्तव में इन सबके प्रति समर्पण करते हैं? क्या वे वास्तव में परमेश्वर का अनुसरण करते हैं? स्पष्ट रूप से उत्तर है, नहीं। इससे क्या नतीजा निकलता है? जब ये व्यक्ति परमेश्वर के घर में आते हैं तो सोचते हैं : “परमेश्वर कहाँ है? मैं उसे देख नहीं सकता, सिर्फ उसकी वाणी सुन सकता हूँ। वाणी से लगता है कि वह महिला है; वचनों से वह अनपढ़ नहीं, शिक्षित लगती है; लेकिन उसके बोलने के तरीके और वचनों की विषयवस्तु से देखें तो वह क्या कह रही है? यह भ्रामक क्यों लगता है? सुनने के बाद बहुत से लोग कहते हैं कि यह सत्य है, लेकिन मुझे ऐसा क्यों नहीं लगता? इस सबका संबंध मानवता, मानव स्वभाव, लोगों द्वारा अपने कार्यों में प्रकट की जाने वाली विभिन्न दशाओं के मामलों से है—क्या इसमें जीवन और मार्ग है? मैं वास्तव में नहीं समझता। सुनने के बाद हर कोई कहता है कि उसे अपने कर्तव्य निष्ठापूर्वक निभाने चाहिए, परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहिए और उद्धार का अनुसरण करना चाहिए। बहुत से लोग तो अनुभवजन्य गवाही के लेख लिखते हैं और गवाही देते हैं। क्या यह व्यक्ति परमेश्वर है? क्या वह परमेश्वर जैसी दिखती है? मैंने उसका चेहरा नहीं देखा है; अगर देखा होता तो शायद मैं उसके चेहरे के भाव पढ़कर एक निश्चित उत्तर पा सकता था। अभी तो बस उसकी वाणी और वह जो कहती है उसे सुनकर मैं अभी थोड़ा अनिश्चित महसूस करता हूँ।” वे क्या कर रहे हैं? वे पड़ताल कर रहे हैं, परख रहे हैं, वास्तविक स्थिति समझने की कोशिश कर रहे हैं, ताकि यह देखें कि क्या यह वास्तव में परमेश्वर है और फिर यह निर्धारित करें कि उसका अनुसरण करना है या नहीं, उसका अनुसरण कैसे करना है और यह पता लगाएँ कि वे जो आशीष और गंतव्य पाना चाहते हैं उसके उत्तर और साथ ही अपनी इच्छाओं के उत्तर क्या इस व्यक्ति में पा सकते हैं और क्या वे इस व्यक्ति के माध्यम से सटीक रूप से यह जान सकते हैं कि स्वर्ग का परमेश्वर कैसा है, क्या वास्तव में उसका अस्तित्व है, उसका स्वभाव क्या है, मनुष्यों से निपटने का उसका तरीका और रवैया क्या हो सकता है और उसमें किस प्रकार की योग्यताएँ, कौशल और अधिकार हैं। क्या यह परमेश्वर की पड़ताल करना नहीं है? स्पष्ट रूप से यह ऐसा ही है।
परमेश्वर की पड़ताल करते समय क्या मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन के रूप में स्वीकार सकते हैं और उन्हें अपने दैनिक जीवन और व्यवहार के लिए एक मार्गदर्शक और लक्ष्य के रूप में ले सकते हैं? (नहीं।) एक साधारण भ्रष्ट व्यक्ति हो सकता है कुछ समय के लिए परमेश्वर की पड़ताल करे और फिर यह सोचे, “यह मार्ग गलत है, मैं दिल में बेचैनी महसूस कर रहा हूँ; मैं इस तरह परमेश्वर की पड़ताल करके उत्तर नहीं पा सकता। परमेश्वर का कोई विश्वासी उसकी पड़ताल कैसे कर सकता है? परमेश्वर की पड़ताल करने से क्या हासिल हो सकता है? जब विश्वासी परमेश्वर की पड़ताल करते हैं तो परमेश्वर उनसे अपना चेहरा छिपा लेता है और वे सत्य प्राप्त नहीं कर सकते। ऐसा कहा जाता है कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं और लोग उसके वचनों से मार्ग पा सकते हैं और जीवन प्राप्त कर सकते हैं। मेरे लिए इस तरह से कार्य करना अच्छा नहीं है—मैं उसकी पड़ताल करना जारी नहीं रख सकता।” जैसे-जैसे वह धर्मोपदेश सुनता है और परमेश्वर के वचन पढ़ता है, उसे धीरे-धीरे पता चलता है कि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव हैं और उसे लगातार एहसास होता है कि जब तक इन भ्रष्ट स्वभावों का समाधान नहीं किया जाता, वह परमेश्वर के अनुरूप नहीं हो सकता, अपने कर्तव्य ठीक से नहीं निभा सकता या कुछ भी अच्छी तरह से नहीं कर सकता। उसे धीरे-धीरे पता चलता है कि लोग अपने कर्तव्य अच्छी तरह से इसलिए नहीं निभा पाते, क्योंकि उनके भ्रष्ट स्वभाव और उनकी विद्रोहशीलता उन्हें बाधित करते हैं और वे अपने भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार कार्य करते हैं और मामले सत्य सिद्धांतों के अनुसार सँभालने में सक्षम नहीं हैं। इसके बाद वह सोचने लगता है, “मैं सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य कैसे कर सकता हूँ? जब मेरे भ्रष्ट स्वभाव अपने आप प्रकट होते हैं तो मैं उनका समाधान कैसे कर सकता हूँ?” लोगों के भ्रष्ट स्वभावों का सबसे अच्छा समाधान सत्य और परमेश्वर के वचन हैं। लोगों के लिए सत्य में प्रवेश करने का सबसे सीधा तरीका सत्य सिद्धांत खोजना है और वे जो कुछ भी करते हैं उसके लिए सिद्धांत खोजना है। यह लक्ष्य, दिशा, मार्ग और अभ्यास के तरीके स्थापित करता है। जब ये स्थापित हो जाते हैं, तब लोगों के पास अनुसरण का एक मार्ग होता है और जब वे कार्य करते हैं तो उनके द्वारा प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करने, अपने भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करने या गड़बड़ी और व्यवधान पैदा करने की संभावना नहीं होती और परमेश्वर का विरोध करने की संभावना तो और भी कम होती है। ऐसे अनुभव से गुजरने के बाद उन्हें लगता है कि उन्हें परमेश्वर में अपने विश्वास के लिए एक उपयुक्त मार्ग मिल गया है और यह वह मार्ग है जिसकी उन्हें आवश्यकता है, जिसमें उन्हें प्रवेश करना चाहिए, यह परमेश्वर में विश्वास और जीवन के लिए सही मार्ग है और यह उसकी पड़ताल करने और उसके प्रति हमेशा प्रतीक्षा करो और देखो का तरीका अपनाने से कहीं बेहतर है। उन्हें एहसास होता है कि परमेश्वर की पड़ताल करना व्यर्थ है और चाहे कोई उसकी कितनी भी पड़ताल करे, इससे उनके द्वारा प्रकट किए जाने वाले विभिन्न भ्रष्ट स्वभावों या अपने कर्तव्य निभाते समय उत्पन्न होने वाली समस्याओं का समाधान नहीं होगा। इसलिए वे धीरे-धीरे परमेश्वर की पड़ताल करने से सत्य सिद्धांतों की खोज करने के मार्ग पर चले जाते हैं। यह सामान्य भ्रष्ट मनुष्यों के लिए प्रवेश और अनुभवजन्य प्रक्रिया का सामान्य तरीका है। लेकिन मसीह-विरोधियों का तरीका अलग है। परमेश्वर के घर में प्रवेश करने और उसकी दहलीज पार करने के पहले दिन से ही वे सोचते हैं, “परमेश्वर के घर में सब-कुछ कितना दिलचस्प है, सब-कुछ कितना नया है—यह अविश्वासियों की दुनिया से अलग है। परमेश्वर के घर में सभी को ईमानदार होना चाहिए; यह एक बड़े परिवार की तरह है और कितना जीवंत है!” भाई-बहनों की पड़ताल करने, उनसे परिचित होने और उन्हें अच्छी तरह से समझने के बाद उनके द्वारा परमेश्वर की पड़ताल करने का समय आता है। वे मन ही मन सोचते हैं, “परमेश्वर कहाँ है? परमेश्वर क्या कर रहा है? वह यह कैसे कर रहा है? स्वर्ग के परमेश्वर की पड़ताल करना मुश्किल है; उसकी थाह पाना मुश्किल है और हम इसमें असफल रहते हैं। लेकिन अब एक सुविधाजनक लघु मार्ग है—परमेश्वर धरती पर आ गया है, जिससे उसकी पड़ताल करना आसान हो गया है।” उनमें से कुछ इतने भाग्यशाली हैं कि धरती के परमेश्वर के संपर्क में आ जाते हैं, इस व्यक्ति को अपनी आँखों से देखते हैं, जिससे उनके लिए उसकी पड़ताल करना और भी सुविधाजनक हो जाता है। वे यह कैसे करते हैं? वे पृथ्वी के परमेश्वर की प्रसन्नचित्त बातचीत की पड़ताल करते हैं, यह पड़ताल करते हैं कि वह किन मामलों में बोलने के एक तरीके का इस्तेमाल करता है और किन मामलों में दूसरे तरीके का, वह किस संदर्भ में हँसता और खुश होता है और उस समय वह किस बारे में बात कर रहा होता है, साथ ही जब वह खुश नहीं होता या क्रोधित होता है तो किस बारे में बात करता है। वे पड़ताल करते हैं कि किन स्थितियों में वह लोगों को अनदेखा करता है या उनके साथ काफी मैत्रीपूर्ण होता है, वह कब लोगों की काट-छाँट करता है और कब नहीं करता, वह किन मामलों पर ध्यान देता है और किनकी परवाह नहीं करता, साथ ही यह भी कि क्या वह जानता है कि लोग कब उसकी पड़ताल करते हैं, उसे धोखा देते हैं या उसकी पीठ पीछे उसे चोट पहुँचाते हैं। व्यापक पहलुओं की पड़ताल करने के बाद मसीह-विरोधी बारीकियों में जाते हैं, जैसे कि पृथ्वी पर परमेश्वर क्या खाता है, क्या पहनता है और उसकी दैनिक दिनचर्या क्या है। वे पड़ताल करते हैं कि उसे क्या पसंद है, वह कहाँ जाना पसंद करता है, यहाँ तक कि उसे कौन-से रंग पसंद या नापसंद हैं, उसे धूप वाला मौसम पसंद है या बादलों वाला और क्या वह खराब मौसम में बाहर जाता है—ये सभी विशिष्ट विवरण। शुरू से आखिर तक मसीह-विरोधी हमेशा पड़ताल करते रहते हैं और इस बात को नजरअंदाज कर देते हैं कि परमेश्वर की पहचान रखने वाला यह व्यक्ति क्या करने आया है। वे कहते हैं, “मुझे परवाह नहीं कि तुम यहाँ क्या करने आए हो; जब भी मैं तुम्हें देखूँगा, तुम मेरी जाँच-पड़ताल के विषय बनोगे।” उनकी जाँच-पड़ताल का उद्देश्य क्या होता है? वे सोचते हैं, “अगर मैं पुष्टि कर पाऊँ कि तुम सच में परमेश्वर हो तो मैं दृढ़तापूर्वक और पूरे दिल से तुम्हारा अनुसरण करने के लिए सब-कुछ छोड़ सकता हूँ। चूँकि परमेश्वर में विश्वास करना शर्त लगाने जैसा है और चूँकि तुम परमेश्वर होने और परमेश्वर की देहधारी देह होने का दावा करते हो, इसलिए तुम पर विश्वास करना तुम पर शर्त लगाने के बराबर है। मैं तुम्हारी पड़ताल क्यों न करूँ? अगर मैंने तुम्हारी पड़ताल न की तो यह मेरे साथ अन्याय होगा। अगर मैंने तुम्हारी पड़ताल न की तो इसका मतलब है कि मैं अपने गंतव्य, संभावनाओं और नियति की जिम्मेदारी नहीं ले रहा हूँ। मैं अंत तक तुम्हारी पड़ताल करूँगा।” आज भी सारी जाँच-पड़ताल के बाद भी वे निश्चित नहीं हैं : “क्या यह व्यक्ति वास्तव में मसीह है? क्या यह वास्तव में देहधारी परमेश्वर है? यह बहुत स्पष्ट नहीं है। वैसे भी, बहुत-से लोग उसका अनुसरण कर रहे हैं और सुसमाचार फैलाने की स्थिति अपेक्षाकृत आशाजनक है। ऐसा लगता है कि यह और फैल सकता है, इसलिए मुझे पीछे नहीं रहना चाहिए। लेकिन मुझे अभी भी इसकी पड़ताल करते रहना होगा।” वे सुधर नहीं सकते।
मसीह-विरोधियों में दुष्ट स्वभाव सार होता है, इसलिए वे कभी जाँच-पड़ताल बंद नहीं करते। गैर-विश्वासियों के संगठन या समुदाय में, वे सभी प्रकार के लोगों की पड़ताल और शोषण करते हैं, यह पता लगाते हैं कि उनके वरिष्ठों को क्या पसंद है, उनकी कमजोरियों की पहचान करते हैं और फिर उनकी चापलूसी करने के लिए अपने कार्यों को उनकी पसंद के अनुसार ढालते हैं। परमेश्वर के घर में प्रवेश करने के बाद भी उनका स्वभाव अपरिवर्तित रहता है—वे जाँच-पड़ताल जारी रखते हैं। वे यह समझने में विफल रहते हैं कि परमेश्वर की पड़ताल करना वह मार्ग नहीं है जिस पर विश्वासियों को चलना चाहिए। परमेश्वर की पड़ताल करने से वे कभी परमेश्वर के क्रियाकलाप नहीं समझ पाएँगे या यह नहीं देख पाएँगे कि परमेश्वर द्वारा व्यक्त की जाने वाली हर चीज सत्य है, न ही यह समझ पाएँगे कि परमेश्वर के ये सभी सत्य और क्रियाकलाप मानवजाति के उद्धार के लिए हैं। मसीह-विरोधी इस बिंदु को कभी नहीं समझेंगे। वे सिर्फ यह देखते हैं कि परमेश्वर के चुने हुए लोग लगातार शैतान के हाथों उत्पीड़न और धर-पकड़ सहते हैं। वे सिर्फ यह देखते हैं कि बुरे लोग कलीसिया के भीतर बुरे काम कर गड़बड़ी पैदा करते हैं और धार्मिक दुनिया में मसीह-विरोधी ताकतें लगातार परमेश्वर की बदनामी और निंदा करती रहती हैं, लेकिन परमेश्वर कभी इनमें से किसी भी समस्या का समाधान नहीं करता। इस प्रकार मसीह-विरोधी अपनी ही धारणाओं और कल्पनाओं से चिपके रहते हैं और परमेश्वर द्वारा व्यक्त किसी भी सत्य को स्वीकारने से दृढ़तापूर्वक इनकार करते हैं। नतीजा क्या होता है? उनकी धारणाएँ और कल्पनाएँ उनके द्वारा परमेश्वर का विरोध करने का सबूत बन जाती हैं। मसीह-विरोधियों की नजर में, ये तथाकथित सबूत ही वे कारण हैं जिनकी वजह से वे परमेश्वर की पहचान और सार पर विश्वास नहीं करते या इन्हें स्वीकार नहीं करते। वे सत्य स्वीकारने से इनकार करते हैं, ठीक इसी कारण वे इन तथ्यों के पीछे निहित सत्य कभी भी नहीं देख पाएँगे, वे सत्य कभी भी नहीं देख पाएँगे जो लोगों को समझने और बूझने चाहिए और परमेश्वर के इरादों को कभी भी नहीं देख पाएँगे। यह उनकी जाँच-पड़ताल का नतीजा है। इन तथ्यों का सामना होने पर जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, सत्य से प्रेम करते हैं और परमेश्वर में सच्ची आस्था रखते हैं, वे परमेश्वर से चीजें स्वीकार सकते हैं और परमेश्वर के घर में चाहे कुछ भी घटित हो वे सही ढंग से प्रतिक्रिया दे सकते हैं, वे परमेश्वर की प्रतीक्षा कर सकते हैं, परमेश्वर के सामने शांत रहकर उससे प्रार्थना कर सकते हैं, परमेश्वर के इरादे समझने की कोशिश कर सकते हैं और यह भी बूझ सकते हैं कि इन सभी चीजों के घटित होने के पीछे परमेश्वर के इरादे अच्छे हैं। बुरे लोगों को प्रकट करने और उन्हें अलग करने की खातिर परमेश्वर बहुत सी ऐसी चीजें करता है जिनके बारे में लोग सोच भी नहीं सकते। साथ ही, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को पूर्ण बनाने और उन्हें विवेक प्राप्त करने और सबक सीखने में सक्षम बनाने की खातिर वह सेवा प्रदान करने के लिए बुरे लोगों और उनके बुरे कर्मों का भी उपयोग करता है। एक ओर परमेश्वर उन्हें प्रकट कर अलग कर देता है; दूसरी ओर वह अपने चुने हुए लोगों को यह देखने में सक्षम बनाता है कि कौन-सी चीजें सकारात्मक हैं और कौन-सी नकारात्मक, परमेश्वर किसे अनुमोदित करता है, किससे घृणा करता है, परमेश्वर किसे हटा देता है और किसे आशीष देता है। ये सब वे सबक हैं जिन्हें परमेश्वर के चुने हुए लोगों को सीखने की जरूरत है, वे सकारात्मक परिणाम हैं जो सत्य का अनुसरण करने वालों को प्राप्त करने चाहिए और वे सत्य हैं जो लोगों को समझने चाहिए। लेकिन अपने दुष्ट स्वभाव सार के कारण मसीह-विरोधी ये सबसे कीमती चीजें कभी प्राप्त नहीं करेंगे। इसलिए उनकी सिर्फ एक ही दशा होती है—जब वे परमेश्वर की उपस्थिति में होते हैं तो उस पर संदेह करने के अलावा वे लगातार उसकी पड़ताल कर रहे होते हैं। भले ही वे इसकी तह तक न पहुँच पाएँ, फिर भी वे उसकी पड़ताल करना जारी रखते हैं। अगर तुम उनसे पूछो कि क्या वे थक जाते हैं तो वे कहते हैं, “बिल्कुल नहीं। परमेश्वर की पड़ताल करना एक मजेदार, आकर्षक, दिलचस्प और दिलकश चीज है!” क्या ये दानवी शब्द नहीं हैं? उनका चेहरा शैतान का है, उनमें मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार होता है। सत्य या परमेश्वर के उद्धार को स्वीकारने का उनका कोई इरादा नहीं होता; वे यहाँ सिर्फ परमेश्वर की पड़ताल करने के लिए हैं।
iii. संशय
इसके बाद हम परमेश्वर के प्रति मसीह-विरोधियों के संशय के बारे में संगति करेंगे। संशय का शाब्दिक अर्थ क्या है? परमेश्वर की पड़ताल करने के लिए कुछ विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ, विचार और व्यवहार होते हैं और यह कहना बिल्कुल सही है कि संशय के बारे में भी यही सच है। परमेश्वर की पड़ताल करने के बाद भी कुछ लोग नहीं जानते कि परमेश्वर का स्वभाव वास्तव में क्या है या परमेश्वर की भावनाएँ किस प्रकार की हैं और वे निश्चित नहीं होते कि वास्तव में परमेश्वर का अस्तित्व है भी या नहीं। यह निर्धारित करने में तो वे बिल्कुल सक्षम नहीं होते कि यह साधारण व्यक्ति मसीह है या नहीं या उसमें परमेश्वर का सार है या नहीं। वे इन चीजों को नहीं समझते और इनके बारे में अस्पष्ट होते हैं। बाद में जब उन्हें परमेश्वर के साथ मेलजोल का अवसर मिलता है तो वे सोचते हैं, “मसीह ने मेरे साथ लोगों द्वारा अपने कर्तव्य बेमन से निभाने के बारे में संगति की; क्या ऐसा हो सकता है कि किसी ने मेरे द्वारा अपने कर्तव्य बेमन से निभाने के बारे में कहा हो और मसीह को इसके बारे में पता चल गया हो? क्या इसीलिए उसने हमारी मुलाकात के दौरान इस बारे में बात की? यह निश्चित रूप से इसलिए है कि किसी ने मेरे बारे में मुखबिरी की और पता चलने के बाद मसीह ने मुझे उजागर करने के लिए निशाना बनाया। क्या मसीह यह जानने के बाद भी मुझे पसंद करता है कि मैं किस तरह का व्यक्ति हूँ? क्या वह मेरे प्रति विमुख है या मेरे बारे में खराब राय रखता है? क्या वह मुझे बर्खास्त करने की तैयारी कर रहा है?” कुछ देर प्रतीक्षा करने और यह देखने के बाद कि उन्हें बर्खास्त नहीं किया गया है, वे सोचते हैं, “ओह, मैं कितना डरा हुआ था। मैं सोच रहा था कि मसीह शायद क्षुद्र होगा, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। अब मैं निश्चिंत हो सकता हूँ।” कुछ लोग कह सकते हैं, “मसीह के साथ अपनी पिछली मुलाकात के दौरान मैंने एक अशिक्षित व्यक्ति की तरह असंगतिपूर्ण ढंग से बातें कीं और मेरी भाषा थोड़ी गड़बड़ थी। मैंने अपना असली रूप उजागर कर दिया। क्या मसीह पर मेरा गलत प्रभाव पड़ेगा? क्या वह बाद में मुझे हटा देगा? जब मैं उसे नहीं देखता तो सब-कुछ ठीक रहता है—मेरी समस्याएँ तभी सामने आती हैं, जब मैं उससे मिलता हूँ। मुझे उससे दोबारा नहीं मिलना चाहिए, उसके दिखने पर मुझे उससे बचना चाहिए और जितना हो सके उससे दूर रहना चाहिए और मुझे मसीह के साथ बिल्कुल भी व्यवहार, बातचीत या निकट संपर्क नहीं रखना चाहिए। वरना वह मेरे बारे में खराब राय बना सकता है।” ये कैसे विचार और तरीके हैं? (संशय।) ये संशय हैं। ऐसे लोग भी हैं जो कहते हैं, “पिछली सभा में परमेश्वर ने एक सरल प्रश्न पूछा था, लेकिन मैंने उसका ठीक से उत्तर नहीं दिया जिससे मेरी खामियाँ प्रकट हो गईं। क्या परमेश्वर सोचेगा कि मुझमें काबिलियत नहीं है और क्या वह भविष्य में मुझे विकसित नहीं करेगा? पिछली बार किसी ने मेरे द्वारा की गई कोई चीज यह कहते हुए उजागर कर दी थी कि मैं मूर्ख हूँ और बिना सोचे-समझे काम करता हूँ। अगर परमेश्वर को इस बारे में पता चलता है तो क्या वह भविष्य में भी मुझे पूर्ण करेगा? परमेश्वर के मन में मेरा रुतबा क्या है—उच्च है या निम्न है, श्रेष्ठ है या हीन? मैं किस वर्ग में आता हूँ? भविष्य में जब भी मैं परमेश्वर से बात करूँगा, मुझे अपने शब्दों को सोच-समझकर चुनने की जरूरत है। मैं लापरवाही से बात नहीं कर सकता या जो कुछ भी मेरे मन में है, उसे नहीं कह सकता। मुझे ज्यादा चिंतन करना चाहिए, चीजों के बारे में ज्यादा सोचना चाहिए, ज्यादा विचार करना चाहिए, अपनी भाषा अच्छी तरह से व्यवस्थित करनी चाहिए और मसीह के सामने अपना सबसे उत्कृष्ट और कुशल पक्ष प्रस्तुत करना चाहिए। यह कितना अद्भुत और उत्तम होगा!” यह भी संशय है।
संशय मसीह-विरोधियों के दुष्ट स्वभाव का एक और लक्षण है। संदेह और पड़ताल करने के अलावा मसीह-विरोधी अनेक संशय भी पालते हैं। संक्षेप में कहें तो उनके विचारों पर चाहे जो भी पहलू हावी हो, उनमें से किसी का भी सत्य का अभ्यास करने और इसे खोजने से कोई लेना-देना नहीं होता। तो क्या ये नजरिये, विचार या तरीके इस बात की पुष्टि कर सकते हैं कि मसीह-विरोधियों का स्वभाव सार दुष्ट होता है? (हाँ।) मसीह-विरोधी चाहे परमेश्वर पर संदेह कर रहे हों, परमेश्वर की पड़ताल कर रहे हों या परमेश्वर के प्रति संशय पाल रहे हों, हर हाल में वे सत्य पर ध्यान केंद्रित करने में हमेशा विफल रहते हैं, कभी पीछे नहीं मुड़ते और सत्य खोजे बिना परमेश्वर से संबंधित मामलों पर चिंतन करने और परमेश्वर से व्यवहार करने के लिए लगातार इन तरीकों का उपयोग करते हैं। चाहे ये क्रियाकलाप कितने भी थकाऊ और कठिन क्यों न हों, वे अथक रूप से उन्हें करते और दोहराते रहते हैं। चाहे उन्होंने कितने भी समय तक परमेश्वर की पड़ताल की हो या उस पर संशय किया हो या उन्हें कोई नतीजा मिला हो या नहीं, वे पहले की तरह इस मार्ग पर चलते रहते हैं, इसी तरह कार्य करते रहते हैं और अपने क्रियाकलाप दोहराते रहते हैं। वे यह सोचकर कभी अपनी जाँच नहीं करते, “क्या यही वह तरीका और रवैया है जिससे एक सृजित प्राणी को परमेश्वर के साथ व्यवहार करना चाहिए? मैं जिस तरह परमेश्वर के साथ व्यवहार करता हूँ उसकी प्रकृति क्या है? मैं किस तरह का स्वभाव प्रकट कर रहा हूँ? क्या उसके साथ इस तरह व्यवहार करना सत्य के अनुरूप है? क्या परमेश्वर इससे घृणा करता है? अगर मैं वही चीजें करता रहा जिनसे परमेश्वर घृणा करता है तो इसका अंतिम नतीजा क्या होगा? क्या मैं परमेश्वर द्वारा त्याग और हटा दिया जाऊँगा? चूँकि इसके नकारात्मक परिणाम होंगे तो मैं परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं के अनुसार कार्य और अभ्यास क्यों नहीं कर सकता?” क्या वे इन मामलों पर चिंतन करते हैं? (नहीं।) वे चिंतन क्यों नहीं करते? क्योंकि उनके चरित्र में जमीर और तर्कसंगतता का अभाव होता है। उनमें जमीर नहीं होता, इसलिए वे अनजाने ही ऐसे अनुचित और बेतुके क्रियाकलाप करते हैं। तर्कसंगतता के अभाव के कारण वे कभी नहीं समझ पाते कि वे कौन हैं या उन्हें कौन-सी स्थिति, परिप्रेक्ष्य और रुतबा अपनाना चाहिए। उन्हें कभी नहीं लगता कि वे एक साधारण व्यक्ति, एक भ्रष्ट मनुष्य या शैतान की वह किस्म या संतान हैं जिससे परमेश्वर घृणा करता है। लोगों को जो चीजें स्वीकार करनी चाहिए वे हैं परमेश्वर के वचन, परमेश्वर की अपेक्षाएँ और वह सत्य जिसकी परमेश्वर उन्हें आपूर्ति करता है; उन्हें परमेश्वर की इस तरह से पड़ताल नहीं करनी चाहिए मानो वे उसके बराबर के हों और परमेश्वर के साथ इस तरह से हँसना और बातचीत नहीं करनी चाहिए मानो वे किसी दूसरे व्यक्ति के साथ बातचीत कर रहे हों—क्या ये ऐसी चीजें नहीं हैं जिन्हें कोई गैर-मानव करेगा? इस समय मसीह-विरोधियों का चरित्र प्रकट हो जाता है और मसीह-विरोधियों का दुष्ट स्वभाव सार उन पर हावी हो जाता है जिससे वे बिना थके इन बेकार और निरर्थक क्रियाकलापों में संलग्न हो जाते हैं जो दूसरों को तो नुकसान पहुँचाते ही हैं, खुद उन्हें भी कोई लाभ नहीं पहुँचाते। फिर भी वे इन्हें छोड़ नहीं सकते; वे इस मार्ग की त्रुटि और इन क्रियाकलापों के पीछे की प्रकृति से अनजान रहते हैं। इस मामले में चाहे जितना भी प्रयास, कष्ट और असफलता शामिल हों, वे कोई आत्म-ग्लानि, कोई दोष और कोई ऋण की भावना महसूस नहीं करते। वे परमेश्वर के साथ बराबरी के स्तर पर होने पर जोर देते हैं, यहाँ तक कि वे ऊँचाई से परमेश्वर की पड़ताल और उसका तिरस्कार भी करते हैं, बार-बार उस पर संदेह करते हैं और उससे संशयग्रस्त रहते हैं। चाहे वे कितने भी वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते रहे हों, परमेश्वर के प्रति उनका रवैया और उसके साथ उनका व्यवहार कभी नहीं बदला। अगर वे उस पर संदेह नहीं कर रहे होते तो वे उसकी पड़ताल कर रहे होते हैं और अगर वे उसकी पड़ताल नहीं कर रहे होते तो वे उस पर संशय कर रहे होते हैं। ऐसा लगता है जैसे वे किसी राक्षस के कब्जे में हों या उन पर जादू कर दिया गया हो—ये मसीह-विरोधियों के दुष्ट सार की कई अभिव्यक्तियाँ हैं। मसीह-विरोधी स्वाभाविक रूप से दुष्ट होते हैं; कुछ लोग जो मसीह-विरोधियों के सार को अच्छी तरह नहीं समझ सकते, वे कह सकते हैं, “क्या तुम परमेश्वर की पड़ताल करने से बाज नहीं आ सकते? क्या तुम उस पर संदेह करना बंद नहीं कर सकते? क्या तुम उसके प्रति संशयग्रस्त होना बंद नहीं कर सकते? अगर तुम ये काम करना बंद कर दो तो तुम सत्य समझ पाओगे, परमेश्वर को परमेश्वर मान पाओगे, परमेश्वर में वास्तविक आस्था विकसित कर पाओगे और वैध रूप से परमेश्वर के लोगों में से एक बन पाओगे; तुम्हारे पास मानक स्तर का सृजित प्राणी बनने का अवसर होगा और क्या तब तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से एक कहलाने के योग्य नहीं होगे? यह कितना अद्भुत होगा!” लेकिन मसीह-विरोधी जवाब देते हैं, “मैं इतना मूर्ख नहीं हूँ। मानक स्तर का सृजित प्राणी होने का क्या लाभ है? यह उबाऊ है। यह तभी दिलचस्प होता है जब मैं परमेश्वर पर संदेह करता हूँ, उसकी पड़ताल करता हूँ और उसके प्रति संशयग्रस्त होता हूँ!” मसीह-विरोधियों की यह अभिव्यक्ति वैसी ही है, जैसा कि बड़ा लाल अजगर कहता है : “अन्य लोगों और स्वर्ग के साथ लड़कर बहुत मजा आता है।” यह मसीह-विरोधियों के दुष्ट प्रकृति सार की एक सटीक परिभाषा और सच्चा प्रतिबिंब है। संक्षेप में कहें तो मसीह-विरोधी अत्यधिक दुष्ट होते हैं, वे चरम सीमा तक दुष्ट होते हैं। जो लोग परमेश्वर में विश्वास तो करते हैं लेकिन सत्य स्वीकारने से साफ इनकार कर देते हैं, वे दुष्ट लोग होते हैं। बहुत-से लोग यह सोचकर हमेशा मसीह-विरोधियों को पश्चात्ताप करने का मौका देना चाहते हैं कि वे एक दिन पश्चात्ताप करेंगे—क्या यह तर्क सही है? कहावत है, “बाघ अपनी धारियाँ नहीं बदल सकता” और “कुत्ते की दुम कभी सीधी नहीं होती।” इसलिए तुम मनुष्यों से व्यवहार करने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले मानक और तरीके मसीह-विरोधियों से व्यवहार करने या उनसे माँगें करने के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकते। वे जो हैं सो हैं। अगर वे परमेश्वर की पड़ताल या उस पर संदेह न करें या उसके प्रति संशयग्रस्त न हों तो वे असहज महसूस करते हैं, क्योंकि वे अपनी दुष्ट प्रकृति से नियंत्रित होते हैं।
iv. सतर्कता
इसके बाद हम सतर्कता के बारे में संगति करेंगे। मसीह-विरोधियों का एक सबसे प्रमुख और स्पष्ट विचार और दृष्टिकोण होता है। वे कहते हैं, “लोगों को परमेश्वर को अपने भाग्य पर नियंत्रण या संप्रभुता नहीं रखने देनी चाहिए; अगर परमेश्वर व्यक्ति के भाग्य का नियंत्रक होता है तो उसके लिए सब-कुछ खत्म हो जाता है। खुशी पाने, निश्चिंत होकर खाने, पीने और मौज-मस्ती करने के लिए लोगों पर अपना ही नियंत्रण होना चाहिए। परमेश्वर लोगों को खाने, पीने और मौज-मस्ती नहीं करने देता, वह उन्हें अच्छी तरह से जीने नहीं देता; वह सिर्फ लोगों से कष्ट सहन करवाता है। इसलिए हमें अपनी खुशी का प्रभार खुद लेना चाहिए; हम अपनी नियति परमेश्वर को नहीं सौंप सकते या निष्क्रिय रूप से हर चीज का इंतजार नहीं कर सकते या परमेश्वर को हमारे बारे में तैयारियाँ करने, हमें प्रबुद्ध करने और हमारी अगुआई करने नहीं दे सकते—हम उस तरह के व्यक्ति नहीं हो सकते। हमारे मानवाधिकार हैं, हमें स्वायत्त क्रियाकलाप करने का अधिकार है और हमारी स्वतंत्र इच्छा है। हमें हर चीज की रिपोर्ट परमेश्वर को करने और हर चीज के लिए परमेश्वर से पूछने की जरूरत नहीं है—इससे हम बहुत अक्षम दिखेंगे; सिर्फ मूर्ख ही ऐसा करते हैं!” वे क्या कर रहे हैं? (परमेश्वर से सतर्कता बरत रहे हैं।) कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर के सामने शपथ लेते समय सावधान रहना; अपने शब्दों के बारे में सावधानी से सोचना। जब मनुष्य कार्य करता है तो स्वर्ग देख रहा होता है!” कुछ लोग प्रार्थना करते हैं, “हे परमेश्वर, मैं अपना पूरा जीवन और यौवन तुम्हें समर्पित करता हूँ; मैं जीवनसाथी की तलाश नहीं करूँगा या शादी नहीं करूँगा।” लेकिन ऐसा कहने के बाद वे यह सोचकर पछताते हैं, “क्या परमेश्वर मेरे वचन पूरे कर देगा? अगर मुझे वास्तव में जीवनसाथी की जरूरत हुई या मैंने शादी करनी चाही तो? क्या परमेश्वर मुझे दंड देगा? यह तो खराब बात है!” तब से वे उदास और दुखी हो जाते हैं, विपरीत लिंगी से दूर रहने लगते हैं और दंड मिलने से डरते हैं। वे क्या कर रहे हैं? (परमेश्वर से सतर्कता बरत रहे हैं।) दूसरी तरह का व्यक्ति कहता है, “परमेश्वर के लिए खुद को खपाना न तो आसान है और न ही सरल। तुम्हारे पास एक पूरक योजना होनी चाहिए; परमेश्वर के लिए खुद को खपाने से पहले तुम्हें अपने लिए कोई रास्ता तैयार कर लेना चाहिए। वरना जब तुम्हारे संसाधन समाप्त हो जाएँगे तो परमेश्वर तुम्हारा खयाल नहीं रखेगा! परमेश्वर के लिए खुद को खपाने का संबंध तुमसे है; परमेश्वर का सभी चीजों पर संप्रभु होना दूसरी बात है। परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभु है—क्या वह तुम जैसे छोटे व्यक्ति का खयाल रखेगा? परमेश्वर सिर्फ बड़े मामलों पर ध्यान देता है; वह इन छोटी चीजों की परवाह नहीं करता। इसलिए तुम्हें योजना बनाकर अपना रास्ता तैयार कर लेना चाहिए; अगर बाद में परमेश्वर ने तुम्हें नहीं चाहा और चलता कर दिया तो वह तुम पर कोई दया नहीं दिखाएगा।” यह किस तरह की सोच है? (परमेश्वर से सतर्कता।) लोग बहुत मतलबी होते हैं। कुछ लोग अगुआ बनने के बाद कुछ कीमतें चुकाते हैं और वास्तव में खुद को थोड़ा खपाते हैं, लेकिन मानवता न होने, घृणित स्वभाव और अपने अंदर मौजूद मसीह-विरोधियों के स्वभाव के कारण वे परमेश्वर के घर को काफी नुकसान पहुँचाते हैं। नतीजतन, उन्हें चलता कर दिया जाता है। उसके बाद वे उचित और विनम्र व्यवहार करना और अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने से बचना सीखते हैं, किसी पर भरोसा करके उससे निजी बातें साझा नहीं करते और कहते हैं, “मैं हमेशा लोगों पर भरोसा करके उनसे निजी बातें साझा कर लिया करता था, इसलिए हर कोई जानता था कि मेरे साथ वास्तव में क्या चल रहा है, लेकिन फिर किसी ने मेरे बारे में परमेश्वर के घर को रिपोर्ट कर दी और मुझे चलता कर दिया गया। इसलिए अब मुझे दूसरों से संपर्क न रखना, खुद को छिपाना, अपना बचाव और रक्षा करना सीखना होगा। मुझे लोगों पर भरोसा करके उनसे निजी बातें साझा करने के बारे में सावधान रहना चाहिए, यहाँ तक कि इस मामले में मुझे परमेश्वर पर भी भरोसा नहीं करना चाहिए। मैं अब यह नहीं मानता कि परमेश्वर सत्य है, कि वह विश्वसनीय है। भाई-बहनों पर तो मुझे और भी कम भरोसा है। कोई भी मेरे भरोसे के लायक नहीं है, यहाँ तक कि मेरे परिवार के सदस्य या रिश्तेदार भी नहीं, सत्य का अनुसरण करने वालों की तो बात ही छोड़ दो।” वे क्या कर रहे हैं? (वे सतर्कता बरत रहे हैं।) जब मसीह-विरोधी काट-छाँट, असफलता, पतन और बेनकाब किए जाने का अनुभव करते हैं तो वे इसका जायजा लेते हैं और एक कहावत प्रस्तुत करते हैं : “कभी दूसरों को नुकसान पहुँचाने का इरादा न रखो, लेकिन उनके द्वारा पहुँचाए जा सकने वाले नुकसान के प्रति हमेशा सतर्कता बरतो।” वास्तव में उन्होंने दूसरों को काफी नुकसान पहुँचाया होता है और अंत में वे स्वाँग रचकर यह भ्रांति लेकर सामने आते हैं। बहुत सारे वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करने और कई असफलताओं और बाधाओं का अनुभव करने के बाद और साथ ही परमेश्वर के प्रकाशन और काट-छाँट का अनुभव करने के बाद सामान्य परिस्थितियों में लोगों को इन असफलताओं से सबक लेकर आत्मचिंतन करना और खुद को जानना चाहिए, समस्याएँ हल करने के लिए सत्य खोजना चाहिए, परमेश्वर के वचनों में अपनी असफलताओं और चूकों के कारण ढूँढ़ने चाहिए और साथ ही अभ्यास का वह मार्ग खोजना चाहिए जिस पर उन्हें चलना चाहिए। लेकिन मसीह-विरोधी ऐसा नहीं करते। कई बार चूकने और असफल होने के बाद वे अपने व्यवहार को और संगीन बना देते हैं, परमेश्वर के बारे में उनके संदेहों की संख्या बढ़ती जाती है और ये और ज्यादा गंभीर हो जाते हैं, परमेश्वर के बारे में उनकी जाँच-पड़ताल और ज्यादा गहन हो जाती है, परमेश्वर के बारे में उनका संशय और ज्यादा गहरा हो जाता है और इसी तरह उनका दिल परमेश्वर के प्रति सतर्कता से भर जाता है। उनकी सतर्कता शिकायतों, क्रोध, अवज्ञा और क्षोभ से भरी होती है, यहाँ तक कि वे धीरे-धीरे परमेश्वर के प्रति इनकार, आलोचना और निंदा भी पैदा कर लेते हैं। क्या वे बढ़ते हुए खतरे में नहीं हैं? (हैं।)
परमेश्वर और उसके द्वारा इंतजाम किए गए परिवेशों और लोगों, घटनाओं और चीजों और परमेश्वर द्वारा उन्हें प्रकट करने और अनुशासित करने, इत्यादि के प्रति मसीह-विरोधियों के रवैये से आँकें तो क्या उनका सत्य खोजने का जरा-सा भी इरादा होता है? क्या उनका परमेश्वर के प्रति समर्पण करने का जरा-सा भी इरादा होता है? क्या उनमें जरा-सी भी आस्था होती है कि यह सब संयोगिक नहीं, बल्कि परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है? क्या उनमें यह समझ और जागरूकता होती है? जाहिर है, नहीं होती। कहा जा सकता है कि उनकी सतर्कता की जड़ परमेश्वर के बारे में उनके संदेहों से आती है। परमेश्वर के प्रति उनके संशय की जड़ भी परमेश्वर के बारे में उनके संदेहों से आती कही जा सकती है। उनके द्वारा परमेश्वर की जाँच-पड़ताल से उत्पन्न परिणाम उन्हें परमेश्वर के प्रति और ज्यादा संशयग्रस्त और ज्यादा सतर्क बना देते हैं। मसीह-विरोधियों की सोच से उत्पन्न विभिन्न विचारों, दृष्टिकोणों और साथ ही इन विचारों और दृष्टिकोणों के प्रभुत्व के तहत उत्पन्न विभिन्न नजरियों और व्यवहारों से आँकें तो ये लोग बहुत ही अविवेकी होते हैं; ये सत्य नहीं समझ सकते, परमेश्वर में वास्तविक आस्था विकसित नहीं कर सकते, परमेश्वर के अस्तित्व को पूरी तरह से मान और स्वीकार नहीं सकते, यह मान और स्वीकार नहीं सकते कि परमेश्वर समस्त सृष्टि पर संप्रभुता रखता है, वह हर चीज पर संप्रभुता रखता है। यह सब उनके दुष्ट स्वभाव सार के कारण होता है।
19 दिसंबर 2020
परमेश्वर का आशीष आपके पास आएगा! हमसे संपर्क करने के लिए बटन पर क्लिक करके, आपको प्रभु की वापसी का शुभ समाचार मिलेगा, और 2025 में उनका स्वागत करने का अवसर मिलेगा।