प्रकरण पाँच : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव सार का सारांश (भाग दो) खंड एक

II. चरित्र और स्वभाव सार के बीच अंतर

पिछली बार हमने मसीह-विरोधियों के चरित्र का सारांश प्रस्तुत किया था। क्या तुम लोग बता सकते हो कि इसमें क्या-क्या शामिल है? (पहली मद है आदतन झूठे होना, दूसरी है कपटी और निर्दयी होना, तीसरी है गौरव की भावना से रहित और शर्म से बेपरवाह होना, चौथी है स्वार्थी और नीच होना, पाँचवीं है ताकतवरों से चिपकना और कमजोरों को दबाना, और छठी है सामान्य लोगों से ज्यादा भौतिक चीजों का अभिलाषी होना।) ये कुल छह मदें हैं। इन छह मदों को देखें तो, मसीह-विरोधियों के चरित्र में मानवता, जमीर और विवेक नहीं होता। उनमें निष्ठा कम होती है और उनका चरित्र घटिया होता है। मान लो, तुम किसी व्यक्ति के स्वभाव को नहीं जानते या उसकी थाह नहीं ले पाते या यह नहीं जानते कि वह अच्छा है या बुरा, लेकिन उदाहरण के लिए, उसके चरित्र के बारे में जानकर तुम पाते हो कि उसका चरित्र घटिया है, जैसे कि आदतन झूठ बोलना, गौरव की भावना न होना या कपटी और निर्दयी होना। तब तुम उसे प्रारंभिक रूप से किसी ऐसे व्यक्ति के रूप में निरूपित कर सकते हो जिसके पास जमीर, दयालु हृदय या नेक चरित्र नहीं है, बल्कि जिसके पास खराब, अत्यंत निकृष्ट और बुरी मानवता है। अगर ऐसे लोगों के पास रुतबा न हो, तो उन्हें अस्थायी तौर पर बुरे लोगों के रूप में निरूपित किया जा सकता है; उनके चरित्र से आँकें तो, क्या उन्हें पूरी तरह से और अच्छी तरह से मसीह-विरोधियों के रूप में निरूपित किया जा सकता है? अगर हम केवल उनकी मानवता की इन अभिव्यक्तियों पर विचार करें, तो ऐसे लोगों को 80% निश्चितता के साथ मसीह-विरोधियों के रूप में निरूपित किया जा सकता है। ऐसा नहीं है कि उनमें बस मसीह-विरोधियों का स्वभाव होता है और ऐसा नहीं है कि बस उनकी मानवता बुरी, खराब और निकृष्ट होती है, इसलिए हम उन्हें प्राथमिक रूप से मसीह-विरोधियों के रूप में निरूपित कर सकते हैं। क्योंकि मसीह-विरोधी के रूप में निरूपित किसी भी व्यक्ति के पास अच्छी मानवता, ईमानदारी, दयालुता, सादगी, सच्चाई, दूसरों के प्रति नेकनीयती या गौरव की भावना नहीं होती; कोई भी व्यक्ति जिसमें चरित्र के ये पहलू होते हैं, मसीह-विरोधी नहीं होता। मसीह-विरोधियों की मानवता सबसे पहले तो काफी निकृष्ट होती है। उनमें जमीर और विवेक की कमी होती है और निश्चित रूप से उनमें वह चरित्र नहीं होता जो मानवता और नेक सत्यनिष्ठा वाले लोगों में होता है। इसलिए मसीह-विरोधियों के चरित्र से आँकें तो, अगर उनके पास कोई रुतबा न होता और वे सिर्फ एक साधारण अनुयायी या अपना कर्तव्य निभाने वाले, समूह के सामान्य सदस्य होते हैं, लेकिन अगर उनका चरित्र काफी खराब है और उनमें मसीह-विरोधी के चरित्र के वे लक्षण हैं, तो हम इन लोगों को प्राथमिक रूप से मसीह-विरोधियों के रूप में निरूपित कर सकते हैं। उन लोगों के बारे में क्या किया जाना चाहिए, जिनकी असलियत नहीं जानी जा सकती? उन्हें पदोन्नत नहीं किया जाना चाहिए या रुतबा नहीं दिया जाना चाहिए। कुछ लोग कह सकते हैं, “अगर हम उन्हें रुतबा दे दें, तो क्या इससे यह निर्धारित नहीं हो जाएगा कि वे मसीह-विरोधी हैं या नहीं?” क्या यह कथन सही है? (नहीं, यह सही नहीं है।) अगर हम ऐसे लोगों को रुतबा दे दें, तो वे मसीह-विरोधियों द्वारा की जाने वाली हरकतें करेंगे और हर वो काम करेंगे जो मसीह-विरोधी करते हैं। पहले वे स्वतंत्र राज्य स्थापित करेंगे और इसके अलावा, वे लोगों को नियंत्रित करेंगे। क्या ऐसा व्यक्ति ऐसे काम करेगा जो परमेश्वर के घर को लाभ पहुँचाते हैं? (नहीं, वह ऐसे काम नहीं करेगा।) जब ऐसे लोग रुतबा प्राप्त कर लेते हैं, तो वे स्वतंत्र राज्य स्थापित कर सकते हैं, अनियंत्रित ढंग से कार्य कर सकते हैं, गड़बड़ी और व्यवधान पैदा कर सकते हैं, गुट बना सकते हैं और बुरे लोगों के सभी कर्म कर सकते हैं। यह लोमड़ी को अंगूर के बाग में जाने देने, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को बुरे लोगों के हाथों में सौंपने और उन्हें राक्षसों और शैतानों के हवाले करने जैसा है। जब ये लोग सत्ता सँभाल लेते हैं, तो यह तय है कि वे निस्संदेह मसीह-विरोधी होते हैं। अगर कोई व्यक्ति सिर्फ उसके चरित्र के आधार पर यह निर्धारित करता है कि वह मसीह-विरोधी है या नहीं, तो बहुत से लोगों के लिए, जो वास्तविक तथ्यों से अनजान होते हैं और मसीह-विरोधियों के स्वभाव सार को नहीं समझते या इसका भेद नहीं पहचान पाते, उन्हें यह थोड़ा अत्यधिक लग सकता है। वे सोच सकते हैं, “सिर्फ इसी आधार पर किसी को पूरी तरह से खारिज या उसकी निंदा क्यों की जाए? उसके कुछ करने से पहले ही उस पर मसीह-विरोधी होने का ठप्पा लगाना अनुचित लगता है।” लेकिन मसीह-विरोधियों के स्वभाव सार से आँकें तो उनमें अच्छी मानवता की निश्चित रूप से कमी होती है। पहली बात तो यह कि वे निश्चित रूप से सत्य का अनुसरण करने वाले नहीं होते; दूसरे, वे सत्य से निश्चित रूप से प्रेम नहीं करते; इतना ही नहीं, वे ऐसे लोग बिल्कुल नहीं होते जो परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पित होते हैं, परमेश्वर का भय मानते हैं और बुराई से दूर रहते हैं। जिन लोगों में ऐसे गुण नहीं होते, उनके मामले में यह बिल्कुल स्पष्ट है कि उनका चरित्र महान है या नीच, अच्छा है या बुरा।

पिछली सभा में हमने मसीह-विरोधियों के चरित्र के माध्यम से अभिव्यक्त होने वाले विभिन्न व्यवहारों, बोलने और मामले सँभालने के तरीकों आदि पर संगति की थी। अगर हम किसी व्यक्ति के चरित्र के आधार पर पूरी तरह से यह निर्धारित न कर सकें कि वह मसीह-विरोधी है या नहीं, तो फिर हमारे लिए मसीह-विरोधियों के स्वभाव सार पर आगे और संगति करना आवश्यक है। एक ओर मसीह-विरोधियों के चरित्र की और दूसरी ओर उनके स्वभाव सार की जाँच और भेद की पहचान करके और इन दोनों को जोड़कर हम यह निर्धारित कर सकते हैं कि क्या किसी व्यक्ति में सिर्फ मसीह-विरोधी का स्वभाव है या वह वास्तव में मसीह-विरोधी है। आज आओ इस बात का सारांश निकालते हैं कि मसीह-विरोधियों में क्या स्वभाव सार होते हैं। यह एक ज्यादा महत्वपूर्ण विशेषता है, जिससे हम बेहतर ढंग से यह पता लगा पाएँगे, भेद पहचान पाएँगे या निर्धारित कर पाएँगे कि कोई व्यक्ति मसीह-विरोधी है या नहीं।

स्वभाव के बारे में हमने पहले इसका एक ठोस सारांश बनाया था—लोगों के भ्रष्ट स्वभाव क्या हैं? (कट्टरता, अहंकार, धोखेबाजी, सत्य से विमुखता, क्रूरता और दुष्टता।) कमोबेश ये छह ही हैं और स्वभावों की अन्य व्याख्याएँ, जैसे स्वार्थ और नीचता कुछ हद तक इन छह में से एक से संबंधित या उसके समान ही हैं। मुझे बताओ, क्या किसी के चरित्र और उसके स्वभाव सार के बीच कोई अंतर है? क्या अंतर है? चरित्र मुख्य रूप से जमीर और विवेक से मापा जाता है। इसमें यह शामिल है कि क्या किसी व्यक्ति में सत्यनिष्ठा है, क्या उसकी सत्यनिष्ठा नेक है, क्या उसमें गरिमा है, क्या उसमें इंसानी नैतिकता है, उसकी नैतिकता का स्तर, क्या वह जिस तरीके से आचरण करता है उसमें कोई आधाररेखा और सिद्धांत हैं, उसकी मानवता अच्छी है या बुरी और क्या वह सरल और ईमानदार है—ये पहलू मानव-चरित्र से संबंधित हैं। अनिवार्य रूप से, चरित्र अच्छे और बुरे के प्रति, सकारात्मक और नकारात्मक चीजों के प्रति और सही और गलत के प्रति उन विकल्पों और झुकावों से बना होता है जिन्हें लोग अपने दैनिक जीवन में अभिव्यक्त करते हैं—यही है जिससे उसका संबंध है। इसमें मूलतः सत्य शामिल नहीं होता; इसे सिर्फ जमीर के मानक के साथ-साथ अच्छी और बुरी मानवता का उपयोग करके मापा जाता है और यह सत्य के स्तर तक नहीं पहुँचता। अगर इसमें स्वभाव शामिल है, तो इसे व्यक्ति के सार का उपयोग करके मापा जाना चाहिए। वह अच्छाई पसंद करता है या बुराई, और जब न्याय और दुष्टता के साथ-साथ सकारात्मक और नकारात्मक चीजों की बात आती है, तो वह क्या अभिव्यक्त करता है, उसके विकल्प और वह जो स्वभाव प्रकट करता है, वह वास्तव में क्या है, और उसकी प्रतिक्रियाएँ क्या हो सकती हैं—ये चीजें सत्य का उपयोग करके मापी जानी चाहिए। अगर किसी व्यक्ति का चरित्र अपेक्षाकृत दयालु है, अगर उसमें जमीर और विवेक है, तो क्या कोई यह कह सकता है कि उसमें भ्रष्ट स्वभाव नहीं है? (नहीं, कोई नहीं कह सकता।) अगर कोई व्यक्ति बहुत दयालु है, तो क्या उसमें अहंकार होता है? (हाँ, होता है।) अगर कोई व्यक्ति बहुत ईमानदार है, तो क्या उसमें अड़ियल स्वभाव होता है? (हाँ, होता है।) यह कहा जा सकता है कि चाहे किसी व्यक्ति का चरित्र कितना भी अच्छा क्यों न हो, चाहे उसकी निष्ठा कितनी भी नेक क्यों न हो, इसमें से किसी का यह मतलब नहीं कि उसमें भ्रष्ट स्वभाव नहीं है। अगर किसी व्यक्ति में जमीर और विवेक है तो क्या इसका मतलब यह है कि वह कभी परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं करता या उससे विद्रोह नहीं करता? (बिल्कुल नहीं।) तो यह विद्रोह कैसे घटित होता है? ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि लोगों का स्वभाव भ्रष्ट होता है और उनके स्वभाव सार में कट्टरता, अहंकार, दुष्टता आदि होती है। इसलिए चाहे किसी व्यक्ति का चरित्र कितना भी अच्छा क्यों न हो, इसका मतलब यह नहीं कि उसमें सत्य है, उसमें भ्रष्ट स्वभाव नहीं है या वह सत्य का अनुसरण किए बिना परमेश्वर का प्रतिरोध करने, उससे विश्वासघात करने और उससे विद्रोह करने से बच सकता है और परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकता है। अगर उसका चरित्र अच्छा है, वह अपेक्षाकृत सरल, ईमानदार, सच्चा, दयालु है और उसमें गौरव की भावना है, तो इसका मतलब बस इतना है कि वह सत्य स्वीकार सकता है, सत्य से प्रेम कर सकता है और परमेश्वर जो करता है उसके प्रति समर्पित हो सकता है, क्योंकि उसका चरित्र ऐसा है जो सत्य स्वीकार सकता है।

अच्छा या बुरा चरित्र बुनियादी मानदंडों, जैसे जमीर, नैतिकता और सत्यनिष्ठा का उपयोग करके मापा जाता है। लेकिन व्यक्ति का स्वभाव सार पहले उल्लिखित छह भ्रष्ट स्वभावों का उपयोग करके मापा जाना चाहिए। अगर किसी व्यक्ति में उच्च नैतिक मानक, सत्यनिष्ठा, जमीर, विवेक और दयालु हृदय है, तो यही कहा जा सकता है कि उसका चरित्र अपेक्षाकृत अच्छा है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि यह व्यक्ति सत्य समझता है, उसमें सत्य है या वह सत्य-सिद्धांतों के अनुसार मामले सँभाल सकता है। यह किस बात की पुष्टि करता है? हालाँकि उसके पास अच्छा चरित्र, अपेक्षाकृत नेक सत्यनिष्ठा, आचरण और कार्य करने के उच्चतर नैतिक मानक हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उसमें भ्रष्ट स्वभाव नहीं है, कि उसमें सत्य है या उसका स्वभाव पूरी तरह से परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप है। अगर किसी व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभाव में कोई बदलाव नहीं दिखता और वह सत्य नहीं समझता, तो चाहे उसका चरित्र कितना भी अच्छा क्यों न हो, वह असल में अच्छा व्यक्ति नहीं है। मान लो, कोई व्यक्ति स्वभाव में सापेक्ष परिवर्तन अनुभव करता है, यानी वह अपने कार्यों में सत्य खोजता है, मामले सँभालने में सत्य-सिद्धांतों का सक्रिय रूप से पालन करता है और सत्य और परमेश्वर के प्रति समर्पित होता है, और हालाँकि उसका भ्रष्ट स्वभाव अभी भी कभी-कभी सतह पर आ जाता है, वह अहंकार, धोखेबाजी और गंभीर मामलों में एक क्रूर स्वभाव प्रकट करता है, फिर भी कुल मिलाकर, उसके कार्यों का स्रोत, दिशा और उद्देश्य सत्य सिद्धांतों के अनुसार होते हैं, और जब वह कार्य करता है तो खोज और समर्पण के साथ करता है। तो क्या यह कहा जा सकता है कि उसका चरित्र उन लोगों से ज्यादा नेक है, जिनके स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं दिखता? (बिल्कुल।) अगर किसी व्यक्ति का चरित्र सिर्फ स्वाभाविक रूप से अच्छा है और दूसरों की नजर में वह अच्छा इंसान है लेकिन वह सत्य बिल्कुल नहीं समझता, परमेश्वर के बारे में धारणाओं और कल्पनाओं से भरा हुआ है, वह नहीं जानता कि परमेश्वर के वचनों का अनुभव कैसे करे और वह इस बात से अनभिज्ञ है कि परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं को कैसे स्वीकारे, परमेश्वर द्वारा की जाने वाली हर चीज के प्रति समर्पित होना तो दूर की बात है, तो क्या यह वास्तव में एक अच्छा व्यक्ति है? सटीक रूप से कहूँ तो, वह वास्तव में अच्छा व्यक्ति नहीं है, लेकिन यह सटीक रूप से कहा जा सकता है कि उसका चरित्र काफी अच्छा है। काफी अच्छा चरित्र होने का क्या मतलब है? इसका मतलब है सापेक्ष सत्यनिष्ठा होना, अपने कार्यों और दूसरों के साथ व्यवहार में अपेक्षाकृत निष्पक्ष और न्यायपूर्ण होना, दूसरों से फायदा न उठाना, अपेक्षाकृत ईमानदार होना, दूसरों को चोट या नुकसान न पहुँचाना, जमीर से काम करना और बस कानून तोड़ने से बचने और नैतिक संबंधों का अतिक्रमण करने से परे एक निश्चित नैतिक मानक रखना—यह इन दो मानकों से थोड़ा-सा ऊँचा है। जब लोग ऐसे व्यक्ति के साथ बातचीत करते हैं, तो उन्हें लगता है कि वह व्यक्ति अपेक्षाकृत ईमानदार है और जब वे साथ होते हैं तो उन्हें उससे सावधान रहने की आवश्यकता नहीं पड़ती, क्योंकि वह व्यक्ति दूसरों को नुकसान या चोट नहीं पहुँचाता और जब भी वे उसके साथ बातचीत करते हैं तो लोगों का मन बेतकल्लुफ रहता है—इन गुणों का होना एक काफी अच्छा व्यक्ति होने का संकेत है। लेकिन उन लोगों की तुलना में, जो सत्य समझते हैं और सत्य का अभ्यास और उसके प्रति समर्पण कर सकते हैं, ऐसी मानवता जरा भी नेक नहीं होती। दूसरे शब्दों में कहें तो किसी व्यक्ति की मानवता चाहे कितनी भी अच्छी क्यों न हो, उसकी अच्छाई सत्य समझने या सत्य का अभ्यास करने का स्थान नहीं ले सकती और स्वभाव में परिवर्तन का स्थान तो निश्चित रूप से नहीं ले सकती।

चरित्र का तात्पर्य लोगों के जमीर, नैतिकता और सत्यनिष्ठा से है। किसी के चरित्र को मापने के लिए उसके जमीर, नैतिकता और सत्यनिष्ठा का आकलन करने की आवश्यकता होती है। लेकिन स्वभाव से क्या तात्पर्य है और वह कैसे मापा जाता है? वह सत्य से, परमेश्वर के वचनों से मापा जाता है। मान लो, किसी व्यक्ति का चरित्र सभी पहलुओं में बहुत अच्छा है, हर कोई मानता है कि वह एक अच्छा व्यक्ति है, और यह कहा जा सकता है कि भ्रष्ट मानवजाति की नजर में वह उत्तम और पूर्ण है, उसमें कोई कमी या दोष प्रतीत नहीं होता; लेकिन जब सत्य से मापा जाता है, तो उसकी तथाकथित अच्छाई का थोड़ा-सा भी अंश उल्लेख करने लायक नहीं होता। उसके स्वभाव की जाँच करने पर अहंकार, कट्टरता, धोखेबाजी, दुष्टता, यहाँ तक कि सत्य से विमुखता और क्रूर स्वभाव की और भी अधिक अभिव्यक्ति पाई जा सकती है। क्या यह तथ्य नहीं है? (हाँ, यह तथ्य है।) किसी व्यक्ति का स्वभाव सार कैसे मापा जाता है? वह सत्य से मापा जाता है, सत्य और परमेश्वर के प्रति व्यक्ति के दृष्टिकोण का आकलन करके मापा जाता है। इस तरह उस व्यक्ति का भ्रष्ट स्वभाव पूरी तरह से और सर्वथा प्रकट किया जाता है। हालाँकि लोग उसे जमीर, सत्यनिष्ठा और उच्च नैतिक मानक वाला समझ सकते हैं और वह दूसरों के बीच संत या एक पूर्ण व्यक्ति के उदाहरण के रूप में पेश किया जाता है, लेकिन जब वह सत्य और परमेश्वर के सामने आता है तो उसका भ्रष्ट स्वभाव प्रकट हो जाता है, वह किसी भी गुण से रहित होता है और बाकी मानवता के समान ही भ्रष्ट स्वभाव वाला दिखता है। जब परमेश्वर सत्य व्यक्त करता है, लोगों के सामने प्रकट होता है और कार्य करता है तो वह व्यक्ति अन्य लोगों की तरह ही कट्टरता, अहंकार, धोखेबाजी, सत्य से विमुखता, दुष्टता और क्रूरता का हर एक भ्रष्ट स्वभाव अभिव्यक्त करता है। क्या ऐसे लोग पूर्ण नहीं हैं? क्या वे संत नहीं हैं? क्या वे अच्छे लोग नहीं हैं? वे सिर्फ अन्य लोगों की नजर में अच्छे हैं; क्योंकि लोगों में सत्य का अभाव होता है और उनमें भी वही भ्रष्ट स्वभाव होता है, जिस मानक से वे एक-दूसरे को मापते हैं, वह सिर्फ जमीर, सत्यनिष्ठा और नैतिकता पर आधारित है, सत्य पर नहीं। जब किसी व्यक्ति का चरित्र सत्य से नहीं मापा जाता, तो वह कैसा दिखाई देता है? क्या वह वास्तव में अच्छा व्यक्ति होता है? स्पष्ट रूप से नहीं, क्योंकि जिस व्यक्ति का अन्य लोगों द्वारा अच्छे व्यक्ति के रूप में मूल्यांकन और आकलन किया जाता है, उसमें किसी भी भ्रष्ट स्वभाव की कमी नहीं होती। तो, लोगों के भ्रष्ट स्वभाव कैसे विकसित और उजागर होते हैं? जब परमेश्वर सत्य व्यक्त नहीं करता या मानवजाति के सामने प्रकट नहीं होता, तो लोगों के भ्रष्ट स्वभाव अस्तित्वहीन प्रतीत होते हैं। लेकिन जब परमेश्वर सत्य व्यक्त करता है और मनुष्यों के सामने प्रकट होता है, तो दूसरों की नजर में तथाकथित संतों या पूर्ण लोगों के भ्रष्ट स्वभाव पूरी तरह से उजागर हो जाते हैं। इस परिप्रेक्ष्य से लोगों के भ्रष्ट स्वभाव उनके चरित्र के साथ ही मौजूद रहते हैं। ऐसा नहीं है कि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव तभी होता है जब परमेश्वर प्रकट होता है; बल्कि, जब परमेश्वर सत्य व्यक्त करता है और मानवजाति के बीच प्रकट होकर कार्य करता है, तो उनका भ्रष्ट स्वभाव और कुरूपता उजागर हो जाती है। इस मुकाम पर लोगों को एहसास होता है और पता चलता है कि एक अच्छे चरित्र के पीछे एक भ्रष्ट स्वभाव भी होता है। दूसरों की नजर में अच्छे लोगों, पूर्ण लोगों या संतों में हर किसी की तरह ही भ्रष्ट स्वभाव होता है और किसी भी अन्य व्यक्ति से कम नहीं होता—इन लोगों के भ्रष्ट स्वभाव अन्य लोगों की तुलना में और ज्यादा छिपे होते हैं और उनमें गुमराह करने की क्षमता ज्यादा होती है। तो, भ्रष्ट स्वभाव वास्तव में क्या होता है और स्वभाव सार क्या होता है? व्यक्ति का भ्रष्ट स्वभाव उस व्यक्ति का सार होता है; व्यक्ति का चरित्र सिर्फ स्व-आचरण के कुछ सतही नियम दर्शाता है, वह व्यक्ति का मानवता-सार नहीं दर्शाता। जब हम किसी व्यक्ति के मानवता-सार के बारे में बात करते हैं, तो हम उसके स्वभाव का उल्लेख कर रहे होते हैं। जब हम किसी व्यक्ति के चरित्र की चर्चा करते हैं, तो हम स्पष्ट पहलुओं का उल्लेख कर रहे होते हैं, जैसे कि क्या उसके इरादे अच्छे हैं, क्या वह दयालु है, उसकी सत्यनिष्ठा कैसी है और क्या उसमें नैतिक मानक हैं। क्या अब तुम लोग समझ गए हो कि चरित्र का क्या अर्थ है और स्वभाव सार का क्या अर्थ है? इस मामले को व्यक्ति सिर्फ अपने हृदय में ही समझ सकता है; इसे एक शब्द या वाक्यांश से परिभाषित नहीं किया जा सकता। यह बहुत जटिल मामला है। अगर इसे बहुत संकीर्ण ढंग से परिभाषित किया और समझाया जाए तो यह मानकीकृत लग सकता है, लेकिन यह वास्तव में अस्पष्ट है। मैं इस पर कोई परिभाषा लागू नहीं करूँगा, मैंने इसे इस तरह से समझाया है और अगर तुम लोग इसे हृदयंगम कर लो, तो तुम इसे समझ लोगे।

मनुष्य के कुल छह भ्रष्ट स्वभाव होते हैं : कट्टरता, अहंकार, धोखेबाजी, सत्य से विमुखता, क्रूरता और दुष्टता। इन छह में से कौन-से अपेक्षाकृत गंभीर हैं और कौन-से ज्यादा साधारण या सामान्य हैं, मात्रा के लिहाज से हलके हैं और परिस्थितियों के लिहाज से कम गहन हैं? (कट्टरता, अहंकार और धोखेबाजी थोड़े हलके हैं।) सही कहा। ऐसा लगता है कि तुम लोगों को मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों की विभिन्न अभिव्यक्तियों की कुछ समझ और बोध है। हालाँकि ये तीनों भी शैतान द्वारा भ्रष्ट की गई मानवजाति के भ्रष्ट स्वभावों से संबंधित हैं और सार के मामले में परमेश्वर इनसे घृणा भी करता है, ये सत्य के अनुरूप भी नहीं हैं और ये परमेश्वर के प्रति प्रतिरोधी भी हैं, फिर भी मात्रा के मामले में ये अपेक्षाकृत हलके और उथले हैं, यानी ये थोड़े-से ज्यादा सामान्य हैं; ये भ्रष्ट मानवजाति के प्रत्येक सदस्य में अलग-अलग सीमा तक होते हैं। इन तीनों के अलावा, सत्य से विमुखता, क्रूरता और दुष्टता मात्रा के मामले में तुलनात्मक रूप से बहुत ज्यादा गंभीर हैं। अगर पहले तीन साधारण भ्रष्ट स्वभाव कहे जाते हैं, तो बाद के तीन असाधारण भ्रष्ट स्वभाव हैं, जो मात्रा के मामले में ज्यादा गंभीर हैं। उनके ज्यादा गंभीर होने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि परिस्थितियों, सार और उस सीमा के मामले में ये तीनों ज्यादा गंभीर हैं, जिस सीमा तक व्यक्ति परमेश्वर का प्रतिरोध, उसके प्रति विद्रोह और उसका विरोध करते हैं। ये तीनों ज्यादा गंभीर स्वभाव हैं, जिन्हें लोग सत्य को सीधे नकारने, परमेश्वर को नकारने, परमेश्वर के विरुद्ध चिल्ल-पों मचाने, परमेश्वर पर हमला करने, परमेश्वर की परीक्षा लेने, परमेश्वर की आलोचना करने आदि के द्वारा अभिव्यक्त करते हैं। मनुष्य के ये तीन भ्रष्ट स्वभाव पहले तीन स्वभावों से किस प्रकार भिन्न हैं? पहले तीन स्वभाव ज्यादा सामान्य हैं, वे सभी भ्रष्ट मनुष्यों में पाए जाने वाले भ्रष्ट स्वभावों के लक्षण हैं, अर्थात्, प्रत्येक व्यक्ति में, चाहे उसकी उम्र, लिंग, जन्म-स्थान, नस्ल या जातीयता कुछ भी हो, ये तीनों स्वभाव होते हैं। बाद के तीन स्वभाव अलग-अलग मात्रा में और ज्यादा या कम सीमा तक हर व्यक्ति में होते हैं, जो उनके सार पर निर्भर करता है, लेकिन भ्रष्ट मानवजाति के भीतर सिर्फ मसीह-विरोधियों में ही ये तीन स्वभाव—दुष्टता, सत्य से विमुखता और क्रूरता—सबसे ज्यादा गंभीर सीमा तक होते हैं। मसीह-विरोधियों के अलावा, साधारण भ्रष्ट मनुष्य दुष्टता, सत्य से विमुखता और क्रूरता के स्वभाव सिर्फ एक निश्चित सीमा तक या कुछ निश्चित परिवेशों या विशेष संदर्भों में ही अभिव्यक्त करते हैं। भले ही उनमें ये स्वभाव हों, लेकिन वे मसीह-विरोधी नहीं होते। उनका सार दुष्ट या क्रूर नहीं होता और वह सत्य से विमुख तो निश्चित रूप से नहीं होता। इसका संबंध उनके चरित्र से होता है। ये लोग अपेक्षाकृत दयालु होते हैं, उनमें सत्यनिष्ठा होती है, वे सच्चे होते हैं, उनमें गौरव की भावना होती है, इत्यादि—उनका चरित्र अपेक्षाकृत अच्छा होता है। इसलिए वे बाद के तीन गंभीर भ्रष्ट स्वभाव कभी-कभार ही या कुछ निश्चित परिवेशों और संदर्भों में ही प्रकट करते हैं। लेकिन ये स्वभाव उनके सार पर हावी नहीं होते। उदाहरण के लिए, जब सामान्य भ्रष्ट स्वभाव वाले व्यक्ति अपने कर्तव्यों के प्रदर्शन में लापरवाही बरतते हैं और परमेश्वर के अनुशासन का सामना करते हैं, तो वे यह सोचकर उसके आगे झुकने से इनकार कर सकते हैं, “दूसरे भी तो लापरवाही बरतते हैं; उन्हें अनुशासित क्यों नहीं किया जाता? मुझे ही ऐसा अनुशासन और ताड़ना क्यों मिल रही है?” झुकने से इनकार करने का यह स्वभाव कैसा है? यह स्पष्ट रूप से एक क्रूर स्वभाव है। वे परमेश्वर के अनुचित और पक्षपातपूर्ण व्यवहार के बारे में शिकायत करते हैं, जिसमें परमेश्वर का विरोध करने और उसके विरुद्ध चिल्ल-पों मचाने का दोष होता है—यह एक क्रूर स्वभाव है। ऐसे लोगों का क्रूर स्वभाव इन स्थितियों में प्रकट होता है, लेकिन अंतर यह है कि इन लोगों में एक दयालु हृदय, जमीर की जागरूकता, सत्यनिष्ठा और सापेक्ष ईमानदारी होती है। जब वे परमेश्वर के विरुद्ध शिकायत करते हैं और एक क्रूर स्वभाव प्रकट करते हैं, तो उनका जमीर प्रभावी हो जाता है। जब उनका जमीर प्रभावी हो जाता है तो वह उनके क्रूर स्वभाव के साथ संघर्षरत हो जाता है और उनके मन में कुछ विचार विकसित होने लगते हैं : “मुझे इस तरह से नहीं सोचना चाहिए। परमेश्वर ने मुझे बहुत आशीष दिया है और मुझ पर अनुग्रह दिखाया है। क्या मेरा इस तरह से सोचना जमीर की कमी नहीं है? क्या यह परमेश्वर का प्रतिरोध करना और उसका दिल तोड़ना नहीं है?” क्या यहाँ उनका जमीर काम नहीं कर रहा? इस समय उनका अच्छा चरित्र प्रभावी होता है। जैसे ही उनका जमीर काम करना शुरू करता है, उनका गुस्सा, शिकायतें और झुकने से इनकार, ये चीजें थोड़ा-थोड़ा करके क्षीण पड़ जाती हैं और मन से दरकिनार और हट जाती हैं। क्या यह उनके जमीर का प्रभाव नहीं है? (बिल्कुल है।) तो, क्या वे क्रूर स्वभाव प्रकट करते हैं? (बिल्कुल।) वे क्रूर स्वभाव प्रकट करते हैं, लेकिन चूँकि ऐसे व्यक्तियों में जमीर और मानवता होती है, इसलिए उनका जमीर उनके क्रूर स्वभाव को नियंत्रित कर सकता है और उन्हें तार्किक बना सकता है। जब वे तार्किक बन जाएँगे और शांत हो जाएँगे तो वे चिंतन और एहसास करेंगे कि वे भी परमेश्वर का प्रतिरोध करने में सक्षम हैं। इस समय उनमें अनजाने ही ऋणी होने और पश्चात्ताप की भावना पैदा होगी : “मैं अभी-अभी बहुत ही आवेग में आ गया था, परमेश्वर का प्रतिरोध और उससे विद्रोह कर रहा था। क्या परमेश्वर मुझे अपने प्रेम से अनुशासित नहीं कर रहा है? क्या यह उसका अनुग्रह नहीं है? मैंने इतना अनुचित कार्य क्यों किया? क्या मैंने परमेश्वर को क्रोधित नहीं किया है? मैं ऐसा नहीं करता रह सकता; मुझे परमेश्वर से प्रार्थना करने, पश्चात्ताप करने, जो बुराई मैं कर रहा हूँ उसे छोड़ने और अपना विद्रोह समाप्त करने की आवश्यकता है। चूँकि मैं स्वीकार करता हूँ कि मैं लापरवाही से काम कर रहा था, इसलिए मुझे लापरवाही छोड़ देनी चाहिए, गंभीरता से काम करना चाहिए और खोजना चाहिए कि अपने कार्यों के माध्यम से अपनी वफादारी कैसे पेश करूँ, साथ ही यह जानना चाहिए कि मेरे कर्तव्य निभाने के सिद्धांत क्या हैं।” क्या यह उनके अच्छे चरित्र का प्रभाव नहीं है? निस्संदेह, इन लोगों में क्रूर स्वभाव भी है, लेकिन इनके जमीर के प्रभाव और अपनी तार्किकता का उपयोग करके चीजों को तोलने से इनका अच्छा, सत्य-प्रेमी चरित्र अंततः प्रबल हो जाता है। इन व्यक्तियों के भ्रष्ट स्वभावों में क्रूरता होती है तो क्या यह कहा जा सकता है कि उनमें एक क्रूर सार है? क्या यह कहा जा सकता है कि उनका सार क्रूर है? नहीं। वस्तुपरक ढंग से कहें तो हालाँकि वे जो भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं उनमें क्रूरता शामिल है, लेकिन चूँकि उनमें जमीर, तार्किकता और सत्य के प्रति अपेक्षाकृत प्रेम होता है, इसलिए उनकी क्रूरता सिर्फ एक प्रकार का भ्रष्ट स्वभाव होता है, न कि उनका सार। वह उनका सार क्यों नहीं होता? ऐसा इसलिए है, क्योंकि उनका यह भ्रष्ट स्वभाव बदल सकता है। हालाँकि वे ऐसा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं और वे परमेश्वर का प्रतिरोध और उससे विद्रोह कर सकते हैं, चाहे यह लंबे समय के लिए हो या कम समय के लिए, उनके चरित्र में उनके जमीर, सत्यनिष्ठा, विवेक आदि का प्रभाव उनके क्रूर स्वभाव को सत्य के प्रति उनके व्यवहार या रवैये पर हावी होने से रोकता है। इसका अंतिम परिणाम क्या होता है? वे अपने पाप कबूल सकते हैं, पश्चात्ताप कर सकते हैं, सत्य-सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकते हैं, सत्य के प्रति समर्पित हो सकते हैं और परमेश्वर का आयोजन स्वीकार सकते हैं और यह सब बिना किसी शिकायत के कर सकते हैं। क्रूर स्वभाव प्रकट करने के बावजूद अंतिम परिणाम यह होता है कि वे परमेश्वर से विद्रोह नहीं करते या परमेश्वर की संप्रभुता का विरोध नहीं करते—वे समर्पण करते हैं। यह एक साधारण भ्रष्ट व्यक्ति की अभिव्यक्ति है। ऐसे लोगों में महज भ्रष्ट स्वभाव होता है; उनमें मसीह-विरोधियों का स्वभाव सार नहीं होता। यह एकदम सही है।

उदाहरण के लिए दुष्ट स्वभावों को लें : सबसे ज्यादा दुष्ट स्वभाव कौन-सा है, जिसे लोग परमेश्वर के सामने प्रकट करते हैं? वह है परमेश्वर की परीक्षा लेना। कुछ लोग चिंता करते हैं कि शायद उन्हें अच्छी मंजिल न मिले और शायद उनके परिणाम की गारंटी न हो, क्योंकि परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करने के बाद वे भटक गए थे, उन्होंने कुछ बुरे काम किए थे और कई अपराध किए थे। उन्हें चिंता होती है कि वे नरक में जाएँगे, अपने परिणाम और मंजिल को लेकर वे लगातार डरे रहते हैं। वे लगातार चिंतित रहते हैं और हमेशा सोचते रहते हैं, “मेरा भावी परिणाम और मंजिल अच्छी होगी या बुरी? मैं नीचे नरक में जाऊँगा या ऊपर स्वर्ग में? मैं परमेश्वर के लोगों में से एक हूँ या सेवाकर्ता? मैं नष्ट हो जाऊँगा या बचाया जाऊँगा? मुझे यह पता लगाना होगा कि परमेश्वर के कौन-से वचन इस बारे में बताते हैं।” वे देखते हैं कि परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं और वे सब लोगों के भ्रष्ट स्वभाव उजागर करते हैं और उन्हें वे उत्तर नहीं मिलते जिन्हें वे खोजते हैं, इसलिए वे लगातार सोचते रहते हैं कि और कहाँ पूछताछ की जाए। बाद में जब उन्हें पदोन्नत होने और महत्वपूर्ण भूमिका में रखे जाने का अवसर मिलता है तो वे यह सोचते हुए ऊपरवाले से पता लगाना चाहते हैं : “मेरे बारे में ऊपरवाले की क्या राय है? अगर उसकी राय अनुकूल है, तो इससे साबित होता है कि परमेश्वर ने मेरे द्वारा अतीत में किए गए बुरे काम और अपराध याद नहीं रखे हैं। इससे साबित होता है कि परमेश्वर अभी भी मुझे बचाएगा और मुझे अभी भी उम्मीद है।” फिर अपने विचारों का अनुगमन करते हुए वे सीधे कहते हैं, “जहाँ हम हैं, वहाँ अधिकांश भाई-बहन अपने पेशे में बहुत कुशल नहीं हैं और उन्हें परमेश्वर में विश्वास रखते हुए बहुत कम समय हुआ है। मैं सबसे अधिक समय से परमेश्वर में विश्वास रखता आया हूँ। मैं गिरा हूँ और असफल हुआ हूँ, मैंने कुछ अनुभव किए हैं और कुछ सबक भी सीखे हैं। अगर मौका मिले, तो मैं भारी दायित्व उठाने और परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशीलता दिखाने के लिए तैयार हूँ।” वे ये शब्द यह देखने के लिए एक परीक्षा के रूप में इस्तेमाल करते हैं कि क्या ऊपरवाले का उन्हें पदोन्नत करने का कोई इरादा है या ऊपरवाले ने उन्हें त्याग दिया है। असलियत यह है कि वे वास्तव में यह जिम्मेदारी या दायित्व नहीं उठाना चाहते; ये शब्द कहने का उनका उद्देश्य सिर्फ संभावनाओं का पता लगाना और यह देखना होता है कि क्या उनके अभी भी बचाए जाने की उम्मीद है। यह परीक्षा है। परीक्षा के इस तरीके के पीछे कौन-सा स्वभाव है? यह एक दुष्ट स्वभाव है। चाहे यह तरीका कितनी ही देर के लिए प्रकट हो, वे इसे कैसे भी करें या इसे कितना भी लागू किया जाए, कुछ भी हो, वे जो स्वभाव प्रकट करते हैं वह निश्चित रूप से दुष्ट होता है, क्योंकि इसे करने के दौरान उनके मन में कई विचार, आशंकाएँ और चिंताएँ होती हैं। जब वे इस दुष्ट स्वभाव को प्रकट करते हैं, तो वे ऐसा क्या करते हैं जो दिखाता है कि वे मानवता वाले लोग हैं और ऐसे लोग हैं जो सत्य का अभ्यास कर सकते हैं और जो यह पुष्टि करता है कि उनमें सिर्फ यह भ्रष्ट स्वभाव है, न कि दुष्ट सार? ऐसी चीजें करने और कहने के बाद जमीर, विवेक, सत्यनिष्ठा और गरिमा वाले लोग अपने दिलों में बेचैनी और दर्द महसूस करते हैं। वे यह सोचकर संतप्त हो जाते हैं, “मैंने इतने सारे साल परमेश्वर में विश्वास किया है; मैं कैसे परमेश्वर की परीक्षा ले सकता हूँ? मैं कैसे अभी भी अपनी मंजिल के बारे में चिंतित रह सकता हूँ और परमेश्वर से कुछ पाने और परमेश्वर से मुझे ठोस उत्तर दिलाने के लिए ऐसे तरीके का उपयोग कर सकता हूँ? यह बहुत ही घिनौना है!” वे अपने दिलों में बेचैनी महसूस करते हैं, लेकिन कर्म हो चुका होता है और शब्द कहे जा चुके होते हैं—उन्हें वापस नहीं लिया जा सकता। तब वे समझते हैं, “हालाँकि मुझमें थोड़ी सदिच्छा और न्याय की भावना रही हो सकती है, लेकिन मैं अभी भी ऐसी नीच हरकतें कर सकता हूँ; ये एक नीच व्यक्ति के व्यवहार हैं! क्या यह परमेश्वर की परीक्षा लेने का प्रयास नहीं है? क्या यह परमेश्वर से उगाही करना नहीं है? यह वास्तव में नीच और शर्मनाक है!” ऐसी स्थिति में उचित क्रियाविधि क्या है? प्रार्थना के लिए परमेश्वर के सामने आकर अपने पाप कबूलना या हठपूर्वक अपने ही तरीकों पर अड़े रहना? (प्रार्थना करना और पाप कबूलना।) तो पूरी प्रक्रिया में विचार की कल्पना करने से लेकर कार्रवाई के बिंदु तक और आगे उनके द्वारा प्रार्थना करने और पाप कबूलने तक, कौन-सा चरण भ्रष्ट स्वभाव का सामान्य प्रकाशन है, कौन-सा चरण जमीर का प्रभावी होना है और कौन-सा चरण सत्य को व्यवहार में लाना है? कल्पना से लेकर कार्रवाई तक का चरण दुष्ट स्वभाव द्वारा शासित होता है। तो क्या आत्मनिरीक्षण का चरण उनके जमीर के प्रभाव से शासित नहीं होता? वे यह महसूस करते हुए अपनी जाँच-पड़ताल करना शुरू करते हैं कि उन्होंने जो किया वह गलत था—यह उनके जमीर के प्रभाव से शासित होता है। इसके बाद प्रार्थना और पाप कबूलना होता है, वह भी उनकी सत्यनिष्ठा, अंतरात्मा और चरित्र के प्रभाव से शासित होता है; वे अफसोस, पश्चात्ताप और परमेश्वर के प्रति ऋणी महसूस कर पाते हैं और अपनी मानवता और भ्रष्ट स्वभाव पर चिंतन कर उसे भी समझ पाते हैं और उस बिंदु तक पहुँच जाते हैं जहाँ वे सत्य का अभ्यास कर सकते हैं। क्या इसके तीन चरण नहीं हैं? भ्रष्ट स्वभाव के प्रकाशन से लेकर उनके जमीर के प्रभाव तक और फिर वे जो बुराई कर रहे हैं उसे छोड़ देने, पश्चात्ताप करने, अपनी दैहिक इच्छाओं और विचारों को छोड़ देने, अपने भ्रष्ट स्वभाव के विरुद्ध विद्रोह करने और सत्य का अभ्यास करने की क्षमता तक—ये वे तीन चरण हैं जिन्हें मानवता और भ्रष्ट स्वभावों वाले सामान्य लोगों को हासिल करना चाहिए। अपने जमीर की जागरूकता और अपनी अपेक्षाकृत अच्छी मानवता के कारण ये लोग सत्य का अभ्यास कर सकते हैं। सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होने का अर्थ है कि ऐसे लोगों को उद्धार की आशा है। दूसरे शब्दों में, अच्छी मानवता वाले लोगों के लिए उद्धार की संभावना अपेक्षाकृत ज्यादा होती है।

मसीह-विरोधियों को मसीह-विरोधी के स्वभाव वाले लोगों से कौन-सी चीज अलग करती है? पहले चरण में, मसीह-विरोधी जो प्रकट करते हैं, वह बाह्य रूप से मूलतः किसी भी भ्रष्ट मनुष्य के प्रकाशनों के समान ही होता है, लेकिन अगले दो चरण अलग होते हैं। उदाहरण के लिए, जब कोई व्यक्ति काट-छाँट के दौरान क्रूर भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता है तो अगले चरण में उसकी अंतरात्मा के प्रभावी होने की आवश्यकता होती है। लेकिन मसीह-विरोधियों में जमीर नहीं होता, तो वे क्या सोचेंगे? उनमें कौन-सी अभिव्यक्तियाँ होंगी? वे यह आरोप लगाते हुए परमेश्वर के अन्यायी होने की शिकायत करेंगे कि परमेश्वर उनमें खोट निकालने की कोशिश कर रहा है और हर मोड़ पर उनके लिए कठिनाइयाँ और परेशानियाँ पैदा कर रहा है। इसके बाद वे पक्के पश्चात्तापहीन बने रहेंगे, अपनी सबसे स्पष्ट गलतियों या भ्रष्ट स्वभावों को भी स्वीकारने से इनकार कर देंगे, अपनी त्रुटियाँ कभी नहीं स्वीकारेंगे, यहाँ तक कि अपनी करतूतें आगे बढ़ाएँगे और चुपके से अपने क्रियाकलाप जारी रखने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे। मसीह-विरोधियों द्वारा प्रकट किए जाने वाले भ्रष्ट स्वभावों से आँकें तो, उनका चरित्र कैसा होता है? उनमें कोई जमीर नहीं होता, वे अपनी जाँच-पड़ताल करना नहीं जानते और क्रूरता, द्वेष, हमले और प्रतिशोध प्रकट करते हैं। वे तथ्यों को छिपाने के लिए झूठ गढ़ते हैं, जिम्मेदारी दूसरों पर डाल देते हैं; दूसरों को फँसाने के लिए षड्यंत्र रचते हैं, भाई-बहनों से असली तथ्य छिपाते हैं; वे अपने बचाव के लिए जोरदार तरीके से औचित्य सिद्ध करते हैं और अपने तर्क हर जगह फैलाते हैं। यह उनके क्रूर स्वभाव की निरंतरता है। उनमें न सिर्फ अंतरात्मा की जागरूकता नहीं होती और वे अपनी जाँच करने, आत्मचिंतन करने और खुद को समझने में विफल रहते हैं, बल्कि वे अपनी करतूतें आगे बढ़ाते हैं और अपना क्रूर स्वभाव प्रकट करना जारी रखते हैं, परमेश्वर के घर के विरुद्ध चिल्ल-पों मचाना, भाई-बहनों के खिलाफ शोर मचाना और उनका विरोध करना और इससे भी ज्यादा गंभीर रूप से, परमेश्वर का विरोध करना जारी रखते हैं। कुछ समय बाद जब स्थिति शांत हो जाती है, तो क्या वे पश्चात्ताप कर अपने पाप कबूलते हैं? हालाँकि घटना पहले ही बीत चुकी है, सही तथ्य प्रकट हो चुके हैं, जिम्मेदारी उनकी है, यह बहुत लोगों को पता चल चुका है और उन्हें यह जिम्मेदारी उठानी चाहिए—क्या वे इसे स्वीकार सकते हैं? क्या वे पछतावा महसूस कर सकते हैं या फिर ऋणी होने की भावना? (नहीं।) वे यह सोचते हुए लगातार विरोध करते रहते हैं, “वैसे तो मैं कभी भी दोषी नहीं था, लेकिन अगर मैं था भी तो मेरे इरादे अच्छे थे; अगर मैं दोषी था भी तो अकेले मुझे इसके लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता। तुम दूसरों को दोष क्यों नहीं देते—मुझे क्यों निशाना बनाते हो? मैंने कहाँ गलती की? मैंने जानबूझकर कुछ भी गलत नहीं किया। तुम सभी लोगों ने गलतियाँ की हैं, तो तुम खुद को जवाबदेह क्यों नहीं ठहराते? इसके अलावा, कौन बिना कोई गलती किए जीवन जी सकता है?” क्या उन्हें पश्चात्ताप होता है? क्या वे ऋणी महसूस करते हैं? वे ऋणी महसूस नहीं करते, न ही वे पश्चात्ताप करते हैं। कुछ तो यहाँ तक कहते हैं, “मैंने इतनी बड़ी कीमत चुकाई—तुम लोगों में से किसी ने ध्यान क्यों नहीं दिया? किसी ने मेरी प्रशंसा क्यों नहीं की? मुझे पुरस्कार क्यों नहीं दिया गया? जब कुछ गलत होता है, तो तुम हमेशा मुझे दोषी ठहराते हो और मुझमें खोट निकालते हो। क्या तुम सिर्फ मेरे खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए कोई फायदे की चीज नहीं ढूँढ़ रहे?” यह उनकी मानसिकता और अवस्था होती है। स्पष्ट रूप से यह एक क्रूर स्वभाव है—वे पश्चात्ताप बिल्कुल नहीं करते, जब तथ्य उनके सामने रखे जाते हैं तो वे उन्हें स्वीकारने से इनकार कर देते हैं और लगातार विरोध करते रहते हैं। हालाँकि हो सकता है वे किसी को ऊँचे स्वर में न कोसते हों, लेकिन अंदर ही अंदर वे ऐसा अनगिनत बार कर चुके होंगे—अगुआओं को आँख मूँदकर काम करने के लिए और भाई-बहनों को अच्छे लोग न होने के लिए कोसते होंगे और इस बात के लिए भी कि जब उनके पास रुतबा था तब तो वे उनकी चापलूसी करते थे, लेकिन अब जबकि वे अपना रुतबा खो चुके हैं तो उन पर ध्यान नहीं देते या उनके साथ संगति नहीं करते या उनकी ओर देखकर मुस्कुराते तक नहीं। यहाँ तक कि वे अपने दिल में परमेश्वर को भी कोसते हैं और उसकी आलोचना करते हुए कहते हैं कि वह धार्मिक नहीं है। शुरू से अंत तक वे जो स्वभाव प्रकट करते हैं वह क्रूर होता है, उसमें जमीर का जरा भी प्रभाव नहीं होता, न ही अफसोस या पश्चात्ताप का कोई संकेत होता है। उनका पलटने, सत्य सिद्धांतों की खोज करने, पाप कबूलने और पश्चात्ताप करने के लिए परमेश्वर के सामने आने या परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने का कोई इरादा नहीं होता। इसके बजाय, वे लगातार बहस, विरोध और शिकायत करते हैं। मसीह-विरोधी और पश्चात्ताप करने में सक्षम लोग दोनों ही एक-जैसे भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं, लेकिन क्या इन प्रकाशनों की प्रकृति में कोई अंतर नहीं है? इन समूहों में से किसमें मसीह-विरोधी का स्वभाव है और किसमें मसीह-विरोधी का सार है? (जो लोग पश्चात्ताप नहीं करते, उनमें मसीह-विरोधी का सार होता है।) वे कौन हैं, जो पश्चात्ताप करने में सक्षम होते हैं? वे मसीह-विरोधी स्वभाव वाले भ्रष्ट मनुष्य होते हैं, लेकिन वे मसीह-विरोधी नहीं होते। मसीह-विरोधी के सार वाले लोग मसीह-विरोधी होते हैं, जबकि मसीह-विरोधी के स्वभाव वाले लोग साधारण भ्रष्ट मनुष्य होते हैं। इन दोनों में से कौन-सा समूह बुरे लोगों से बनता है? (मसीह-विरोधी के सार वाले लोगों का समूह।) तुम इसका भेद पहचानने में सक्षम हो, है ना? यह इस बात पर निर्भर करता है कि कुछ गलत करने या काट-छाँट होने, बर्खास्त या अनुशासित किए जाने, आदि जैसी परिस्थितियों का सामना करने पर कौन-सा समूह इस बात का कोई संकेत नहीं देता कि उनका जमीर उन्हें दोषी ठहराता है, पीछे पलटे या चिंतन किए बिना बहस करता रहता है और अमर्यादित रूप से आलोचना करता है और अपनी दलीलें फैलाता है। अगर उन्हें रोकने वाला कोई न हो तो क्या वे अपने क्रियाकलाप रोक देंगे? नहीं। उनके दिल नकारात्मकता और विरोध से भरे होंगे और वे कहेंगे, “चूँकि लोग मेरे साथ अनुचित व्यवहार करते हैं और परमेश्वर मुझ पर अनुग्रह नहीं करता या मेरी ओर से कार्य नहीं करता, इसलिए भविष्य में अपना कर्तव्य निभाते समय मैं बस बेमन से कार्य करूँगा। अगर मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाऊँगा, तो भी मुझे पुरस्कार नहीं मिलेगा, कोई मेरी प्रशंसा नहीं करेगा और फिर भी मेरी काट-छाँट की जाएगी, इसलिए मैं इसे बस बेमन से करूँगा। मुझसे सिद्धांतों के अनुसार मामले सँभालने या अपने काम में दूसरों के साथ चर्चा और सहयोग करने या सत्य खोजने के लिए कहने के बारे में सोचना भी मत! मैं उदासीन रहूँगा, न तो घमंडी और न ही विनम्र। अगर तुम मुझसे कुछ करने के लिए कहोगे तो मैं कर दूँगा; अगर तुम मुझसे कुछ करने के लिए नहीं कहोगे तो मैं बस चला जाऊँगा। तुम लोग जैसा चाहो वैसा करो; मैं जैसा हूँ वैसा ही रहूँगा। मुझसे बहुत ज्यादा की अपेक्षा मत करना; अगर तुम्हारी माँगें ऊँची हुईं, तो मैं उन्हें अनदेखा कर दूँगा।” क्या यह एक क्रूर स्वभाव की निरंतरता नहीं है? क्या ऐसे लोग पश्चात्ताप कर सकते हैं? (नहीं, वे पश्चात्ताप नहीं कर सकते।) यह उन लोगों की अभिव्यक्ति है जिनमें मसीह-विरोधी का सार होता है। यह मसीह-विरोधी द्वारा दुष्ट स्वभाव प्रकट करने जैसा ही है, वे कभी चिंतन भी नहीं करते क्योंकि उनमें जमीर नहीं होता। चाहे वे कोई भी भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करें या जब उन पर कुछ आ पड़े तो उनके कोई भी इरादे, इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ क्यों न हो, वे कभी अपने जमीर से नियंत्रित नहीं होते। इसलिए, जब समय सही और उनके अनुकूल होता है, तो वे जो चाहते हैं वह करते हैं। उनके कार्यों के चाहे जो भी परिणाम हों, वे पलटते नहीं, अपने दृष्टिकोणों से चिपके ही रहते हैं और अपनी महत्वाकांक्षाएँ, इच्छाएँ और इरादे बनाए रखते हैं, साथ ही बिना किसी आत्म-ग्लानि के वे साधन और तरीके भी बनाए रखते हैं जिनके द्वारा उन्होंने हमेशा चीजें की होती हैं। उन्हें आत्म-ग्लानि क्यों नहीं होती? क्योंकि ऐसे लोगों में जमीर नहीं होता, गौरव की भावना नहीं होती और वे बेशर्म होते हैं; उनकी पूरी मानवता के भीतर ऐसा कुछ नहीं होता जो उनके भ्रष्ट स्वभावों को रोक सके और न ऐसा कुछ होता है जिसका उपयोग वे यह आकलन करने के लिए कर सकें कि उनके द्वारा प्रकट किए गए भ्रष्ट स्वभाव सही हैं या गलत। इसलिए जब ये लोग दुष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं, तो चाहे दूसरे उसे कैसे भी देखें या उसकी प्रक्रिया और परिणाम कुछ भी हो, शुरू से अंत तक उन्हें कोई आत्मग्लानि, दुख, पश्चात्ताप, ऋणी होने की भावना महसूस नहीं होती और अपने दिलों में वे निश्चित रूप से पीछे पलटते भी नहीं। ये मसीह-विरोधी हैं। इन दो उदाहरणों से आँकें तो, मसीह-विरोधियों का सबसे स्पष्ट लक्षण क्या होता है? (उनमें जमीर और विवेक नहीं होता।) जमीर और विवेक की यह कमी कैसी अभिव्यक्ति की ओर ले जाती है? उनके द्वारा प्रकट किए गए स्वभावों का क्या परिणाम होता है? (वे चिंतन या पश्चात्ताप नहीं कर सकते।) जो लोग चिंतन या पश्चात्ताप नहीं कर सकते, क्या वे सत्य का अभ्यास कर सकते हैं? कभी नहीं!

जिस व्यक्ति में सिर्फ मसीह-विरोधी का स्वभाव है, उसे सार से मसीह-विरोधी होने के रूप में निरूपित नहीं किया जा सकता। जो लोग मसीह-विरोधी के प्रकृति सार वाले होते हैं, केवल वही असली मसीह-विरोधी होते हैं। निश्चित तौर पर दोनों की मानवता में अंतर होता है, और विभिन्न प्रकार की मानवता के शासन के अंतर्गत, सत्य के प्रति उन लोगों द्वारा अपनाए जाने वाले रवैये भी समान नहीं होते—और जब सत्य के प्रति लोगों द्वारा अपनाए जाने वाले रवैये समान नहीं होते, तो उनके द्वारा चुने गए रास्ते भी अलग होते हैं; और जब उनके रास्ते अलग होते हैं, उनके कार्यों के परिणामी सिद्धांतों और नतीजों में भी अंतर होता है। चूँकि सिर्फ मसीह-विरोधी के स्वभाव वाले व्यक्ति की अंतरात्मा काम कर रही होती है, उसमें विवेक होता है, गौरव की भावना होती है और सापेक्ष रूप से कहें तो, वह सत्य से प्रेम करता है, तो जब उनका भ्रष्ट स्वभाव उजागर होता है, तो मन ही मन वे उसकी भर्त्सना करते हैं। ऐसे में वे आत्मचिंतन कर खुद को जान सकते हैं, वे अपने भ्रष्ट स्वभाव को और भ्रष्टता के प्रकाशन को स्वीकार कर सकते हैं, इस तरह वे देह और भ्रष्ट स्वभाव से विद्रोह करने में सक्षम हो सकते हैं और सत्य का अभ्यास और परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हैं। लेकिन मसीह-विरोधियों के मामले में ऐसा नहीं होता। चूँकि उनकी अंतरात्मा कार्य नहीं कर रही होती है या उनमें अंतरात्मा के प्रति जागरूकता नहीं होती है और उनमें सम्मान की भावना तो और भी नहीं होती है, इसलिए जब उनका भ्रष्ट स्वभाव प्रकट होता है तो वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार इसका आकलन नहीं करते कि उनका प्रकाशन सही है या गलत, वह भ्रष्ट स्वभाव है या सामान्य मानवता या वह सत्य के अनुरूप है या नहीं। वे इन बातों पर कभी विचार नहीं करते। तो वे किस तरह व्यवहार करते हैं? वे हमेशा यही मानते हैं कि उन्होंने जो भ्रष्ट स्वभाव दिखाया और जो रास्ता चुना है, वह सही है। उन्हें लगता है कि वे जो कुछ भी करते हैं वह सही है, जो कहते हैं वह सही है; वे अपने विचारों पर अड़े रहते हैं। और इसलिए वे चाहे कितनी भी बड़ी गलती कर लें, चाहे कितना ही गंभीर भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर लें, वे मामले की गंभीरता को नहीं पहचानेंगे और वे निश्चित रूप से अपने द्वारा प्रकट किए गए भ्रष्ट स्वभाव को नहीं समझेंगे। बेशक, न ही वे परमेश्वर और सत्य के प्रति समर्पण करने जैसे किसी मार्ग को चुनने के पक्ष में अपनी इच्छाओं को दरकिनार करेंगे, अपनी महत्वाकांक्षा या अपने भ्रष्ट स्वभाव के खिलाफ विद्रोह करेंगे। इन दो अलग-अलग परिणामों से देखा जा सकता है कि अगर एक मसीह-विरोधी के स्वभाव वाला व्यक्ति अपने दिल में सत्य से प्रेम करता है तो उसके पास उसकी समझ हासिल करने, उसका अभ्यास करने और उद्धार प्राप्त करने का अवसर होता है, जबकि एक मसीह-विरोधी के सार वाला व्यक्ति सत्य नहीं समझ सकता या उसे व्यवहार में नहीं ला सकता और न ही वह उद्धार प्राप्त कर सकता है। दोनों में यही अंतर होता है।

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