मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए (भाग एक)
हाल में, हम मुख्य रूप से नैतिक आचरण से संबद्ध कुछ वक्तव्यों पर संगति करते रहे हैं। हमने एक-एक कर नैतिक आचरण के हर उस पहलू के वक्तव्यों का बारीकी से विश्लेषण और विच्छेदन कर उन्हें उजागर किया है, जो पारंपरिक संस्कृति में प्रस्तुत किए गए हैं। इसने पारंपरिक संस्कृति में सकारात्मक माने जाने वाले, नैतिक आचरण से जुड़े विविध वक्तव्यों के प्रति लोगों को विवेकयुक्त कर दिया है, और उनके सार की असलियत देखने दी है। जब एक व्यक्ति को इन वक्तव्यों की स्पष्ट समझ हो जाती है, तो वह इनसे विमुख होकर इन्हें ठुकराने में सक्षम हो जाएगा। इसके बाद, वह वास्तविक जीवन में धीरे-धीरे इन चीजों को छोड़ पाएगा। पारंपरिक संस्कृति की स्वीकृति, उसमें अंधी आस्था, और उसके पालन को किनारे करने से, वह परमेश्वर के वचनों और उसकी माँगों को स्वीकार करने, और उन सत्य सिद्धांतों को स्वीकार करने में दिल से समर्थ हो जाएगा जो एक व्यक्ति में होने ही चाहिए, ताकि वह पारंपरिक संस्कृति को दिल से उखाड़ सके। इस तरह, वह व्यक्ति इंसान की तरह जीने और परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करने में समर्थ होगा। सार रूप में देखें तो, मानवजाति की पारंपरिक संस्कृति द्वारा प्रतिपादित विभिन्न वक्तव्यों के विश्लेषण का लक्ष्य लोगों को नैतिक आचरण पर इन वक्तव्यों के सार के बारे में स्पष्ट विवेक और ज्ञान देना है, और यह बताना है कि शैतान किस प्रकार से मानवजाति को भ्रष्ट करने, उसे गुमराह और नियंत्रित करने में इसका प्रयोग करता है। इस तरह लोग सटीक रूप से भेद कर पाएँगे कि सत्य क्या है और सकारात्मक चीजें क्या हैं। सटीक रूप से कहें तो, नैतिक आचरण के बारे में इन वक्तव्यों, उनके सार, उनकी प्रकृति, और शैतान की चालबाजी को स्पष्ट रूप से समझने के बाद, लोग यह जानने में सक्षम हो जाएँगे कि सत्य वास्तव में क्या है। पारंपरिक संस्कृति और उसके द्वारा इंसान के मन में बिठाए गए नैतिक आचरण से जुड़े उन वक्तव्यों को सत्य से मिलाकर न देखो। ये चीजें सत्य नहीं हैं, ये सत्य का स्थान नहीं ले सकतीं, और यकीनन इनका सत्य से कुछ लेना-देना नहीं है। पारंपरिक संस्कृति को तुम चाहे जिस भी परिप्रेक्ष्य से देखो, और इसके चाहे जो भी विशिष्ट कथन या अपेक्षाएँ हों, यह सिर्फ मानवजाति के लिए शैतान के निर्देशों, और उसके द्वारा मानवजाति के मन में विचार भरने, उसे गुमराह करने और जबरन उसका मत परिवर्तन करने का प्रतिनिधित्व करता है। यह शैतान की चालबाजी, उसके प्रकृति सार का प्रतिनिधित्व करता है। यह सत्य और परमेश्वर की माँगों से पूरी तरह असंबद्ध है। इसलिए, नैतिक आचरण को लेकर तुम्हारा अभ्यास, या तुम्हारे द्वारा इसका कार्यान्वयन या इस पर तुम्हारी पकड़ कितनी भी अच्छी क्यों न हो, इसका अर्थ यह नहीं है कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो, या तुममें इंसानियत और समझ है, और निश्चित रूप से इसका यह अर्थ तो नहीं है कि तुम परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट करने में समर्थ हो। नैतिक आचरण के बारे में किसी भी वकतव्य या अपेक्षा का—चाहे वह किसी भी किस्म के व्यक्ति या व्यवहार को निशाना बनाए—मनुष्य से परमेश्वर की माँगों के साथ कोई लेना-देना नहीं है। परमेश्वर मनुष्य से जिस सत्य का अभ्यास करने और जिन सिद्धांतों का पालन करने की अपेक्षा करता है, उनसे भी इसका कुछ लेना-देना नहीं है। क्या तुम इस प्रश्न पर चिंतन-मनन करते रहे हो? क्या अब यह तुम्हें स्पष्ट समझ आ रहा है? (हाँ।)
पारंपरिक संस्कृति के इन विभिन्न वक्तव्यों के बारे में विस्तृत संगति और उसके मदवार बारीक विश्लेषण के बिना, लोग यह नहीं देख सकते कि इसके द्वारा प्रस्तुत वक्तव्य झूठे, कपटपूर्ण और अवैध हैं। परिणामस्वरूप, लोग अपने दिलों की गहराइयों में, अभी भी पारंपरिक संस्कृति के विभिन्न वक्तव्यों को उस पंथ या नियमों के अंश के रूप में देखते हैं, जिनका उन्हें अपने कार्य या आचरण में पालन करना है। वे पारंपरिक संस्कृति में अच्छे माने जाने वाले व्यवहार और नैतिक आचरण को अभी भी सत्य के रूप में लेते हैं, और उनका इसी तरह पालन करते हैं, यहाँ तक कि उन्हें सत्य से मिला भी देते हैं। इससे भी बुरा यह है कि लोग इनका प्रचार कर इन्हें ऐसे आगे बढ़ाते हैं, मानो वे सही हों, मानो वे सकारात्मक चीजें हों, और यहाँ तक कि मानो वे सच हों; वे लोगों को गुमराह करते हैं, विचलित करते हैं, और वे उन्हें सत्य को स्वीकार करने के लिए परमेश्वर के सामने आने से रोकते हैं। यह सबसे असल समस्या है, जिसे सभी लोग देख सकते हैं। नैतिक आचरण पर जो वक्तव्य मनुष्य को अच्छे और सकारात्मक लगते हैं, उन्हें लोग अक्सर सत्य के रूप में देखते हैं। वे सभाओं में शामिल होकर परमेश्वर के वचनों के बारे में बोलते समय पारंपरिक संस्कृति के वक्तव्यों और शब्दों पर संगति भी करते हैं। यह एक बहुत गंभीर समस्या है। परमेश्वर के घर में ऐसी बात या घटना नहीं होनी चाहिए, मगर ऐसा अक्सर होता है—यह एक आम समस्या है। यह एक और मसला दर्शाता है : जब लोग पारंपरिक संस्कृति और नैतिक आचरण पर वक्तव्यों के वास्तविक सार को नहीं समझते, तो वे नैतिक आचरण के बारे में पारंपरिक संस्कृति के वक्तव्यों को सकारात्मक चीजों के रूप में लेते हैं, जिन्हें सत्य का स्थान दिया जा सकता है या जो सत्य से ऊपर हैं। क्या यह एक आम घटना है? (हाँ।) उदाहरण के लिए, पारंपरिक संस्कृति के वक्तव्यों जैसे कि, “दूसरों के साथ दयालु रहो,” “सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है,” “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो,” “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो,” “एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए,” और इनसे भी अधिक लोकप्रिय वक्तव्य जैसे कि, “मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा” और “वफादार प्रजा दो राजाओं की सेवा नहीं कर सकती, अच्छी महिला दो पतियों से शादी नहीं कर सकती,” पहले ही पंथ बन चुके हैं, जिनके अनुसार लोग आचरण करते हैं, और जिनकी कसौटी और मानकों पर एक व्यक्ति की कुलीनता आंकी जाती है। इसलिए, परमेश्वर के अनेक वचन और सत्य सुनने के बाद भी, लोग पारंपरिक संस्कृति के वक्तव्यों और सिद्धांतों का उन मानकों के रूप में प्रयोग करते हैं, जिनसे वे दूसरों को मापते और चीजों को देखते हैं। इसमें मसला क्या है? यह एक बहुत गंभीर समस्या दर्शाता है, जो यह है कि पारंपरिक संस्कृति मनुष्य के दिल की गहराई में बड़ा अहम स्थान रखती है। क्या यह इसे नहीं दर्शाता? (दर्शाता है।) शैतान ने लोगों में जो विचार बैठाए हैं उन्होंने उनके दिलों में गहरी जड़ें जमा ली हैं। वे प्रबल होकर मानवजाति के जीवन, माहौल, और समाज की मुख्यधारा बन चुके हैं। इसलिए, पारंपरिक संस्कृति न केवल लोगों के दिलों की गहराई में अहम स्थान बना चुकी है, बल्कि वह प्रबल रूप से उन सिद्धांतों और रवैयों को, और उन नजरियों और तरीकों को भी प्रभावित कर नियंत्रित करती है, जिनसे वे लोगों और चीजों को देखते हैं, आचरण व कार्य करते हैं। परमेश्वर के वचनों की विजय को, और साथ ही उनके खुलासे, न्याय और ताड़ना को, लोगों द्वारा स्वीकार कर लिए जाने के बाद भी, पारंपरिक संस्कृति के ये विचार अभी भी उनके आध्यात्मिक जगत और उनके दिलों की गहराइयों में एक अहम स्थान रखते हैं। इसका अर्थ है कि वे उस दिशा, लक्ष्यों, सिद्धांतों, रवैयों और नजरियों को नियंत्रित करते हैं, जो इसका आधार हैं कि वे लोगों और चीजों को किस तरह देखते हैं, किस तरह आचरण व कार्य करते हैं। क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि लोगों को शैतान ने पूरी तरह बंदी बना लिया है? क्या यह एक तथ्य नहीं है? (बिल्कुल है।) यह एक तथ्य है। लोग जैसा जीवन जीते हैं और जीवन में उनके जो लक्ष्य होते हैं, वे हर चीज को जिस दृष्टिकोण और रवैए से देखते हैं, वह पूरी तरह पारंपरिक संस्कृति पर आधारित होता है, जिसे शैतान ने प्रोत्साहन देकर उनके भीतर बिठा दिया है। पारंपरिक संस्कृति लोगों के जीवन में सबसे अधिक हावी होती है। कहा जा सकता है कि परमेश्वर के सम्मुख आने और उसके वचन सुनने से पहले और उसके कुछ सही वक्तव्य और विचार स्वीकार कर लेने के बावजूद, पारंपरिक संस्कृति के विभिन्न विचारों का उनके आध्यात्मिक जगत और उनके दिलों की गहराई में सबसे ज्यादा दबदबा और अहम स्थान होता है। इन विचारों के कारण, लोग परमेश्वर और उसके वचनों और कार्य को देखने के लिए पारंपरिक संस्कृति के तरीकों, दृष्टिकोणों और रवैयों का प्रयोग किए बिना नहीं रह पाते। यहाँ तक कि वे परमेश्वर के वचनों, कार्य, पहचान और सार को इन्हीं के आधार पर आँकेंगे, और उनका विश्लेषण और अध्ययन करेंगे। क्या ऐसी बात नहीं है? (बिल्कुल है।) यह एक निर्विवाद तथ्य है। जब लोग परमेश्वर के वचनों और कार्य, उसके कार्यकलापों, सार, सत्ता और बुद्धिमत्ता के द्वारा जीत लिए जाते हैं, तब भी पारंपरिक संस्कृति उनके दिलों में एक अहम स्थान रखती है, इतना अहम कि उसे कोई उखाड़ नहीं सकता। स्वाभाविक रूप से, परमेश्वर के वचनों और सत्य के लिए भी यह सच है। परमेश्वर द्वारा लोगों पर विजय पा लेने के बाद भी, उसके वचन और सत्य उनके दिलों में पारंपरिक संस्कृति का स्थान नहीं ले पाते। यह बहुत दुखदाई और भयावह है। लोग परमेश्वर का अनुसरण करते समय, उसके वचन सुनते समय, और उससे सत्य और विभिन्न विचारों को स्वीकार करते समय भी पारंपरिक संस्कृति से चिपके रहते हैं। सतह पर तो लगता है कि ये लोग परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, लेकिन पारंपरिक संस्कृति और शैतान द्वारा उनमें बिठाए गए विभिन्न विचार, दृष्टिकोण, और परिप्रेक्ष्य उनके दिलों में एक स्थिर और अपूरणीय स्थान जमाए होते हैं। हालाँकि शायद लोग रोज परमेश्वर के वचन खाते-पीते हों और अक्सर उन्हें प्रार्थनापूर्वक पढ़कर उन पर चिंतन-मनन करते हों, फिर भी वे लोगों और चीजों को कैसे देखते हैं, कैसे आचरण और कार्य करते हैं, उनमें निहित बुनियादी विचार, सिद्धांत और तरीके अभी भी परंपरागत संस्कृति पर आधारित होते हैं। इसलिए, परंपरागत संस्कृति दैनिक जीवन में लोगों को अपने जोड़-तोड़, आयोजनों और नियंत्रण के अधीन रखकर उन्हें प्रभावित करती है। यह उनकी छाया जैसी ही स्थाई, और अपरिहार्य है। ऐसा क्यों है? क्योंकि लोग परंपरागत संस्कृति और शैतान द्वारा मनुष्य के मन में बैठाए गए विभिन्न विचारों और मतों को अपने दिल की गहराइयों से अनावृत, विश्लेषित या उजागर नहीं कर सकते; वे इन चीजों को पहचान नहीं सकते, इनकी असलियत देख या इनसे विद्रोह नहीं कर सकते, इन्हें त्याग नहीं सकते; वे उस तरह लोगों और चीजों को नहीं देख सकते, उस तरह आचरण व कार्य नहीं कर सकते, जिस तरह परमेश्वर लोगों से कहता है या जिस तरह से वह सिखाता और समझाता है। इस वजह से आज भी ज्यादातर लोग कैसी विकट दुर्दशा में जी रहे हैं? उस परिस्थिति में, जिसमें उनके दिलों की गहराई में परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को देखने, आचरण व कार्य करने, परमेश्वर के इरादों के विरुद्ध न जाने या सत्य के खिलाफ न जाने की इच्छा रहती है, फिर भी, प्रतिरोध न करते हुए भी और न चाहते हुए भी, वे अभी भी शैतान द्वारा सिखाए गए तरीकों के अनुसार ही लोगों से बातचीत करते हैं, आचरण करते हैं और मामले सँभालते हैं। लोग भीतर से सत्य की लालसा रखते हैं, परमेश्वर के प्रति एक जबरदस्त इच्छा रखना चाहते हैं, परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को देखना, आचरण व कार्य करना चाहते हैं, और सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं करना चाहते हैं, फिर भी चीजें हमेशा उनकी इच्छा के विपरीत ही होती हैं। अपने प्रयास दोगुने करने के बाद भी उन्हें जो परिणाम मिलते हैं, वे उनकी इच्छा के अनुसार नहीं होते। सकारात्मक चीजों से प्रेम करने के लिए लोग चाहे कितना भी संघर्ष करें, कितना भी प्रयास करें, कितना भी संकल्प और इच्छा करें, अंत में, जिस सत्य का वे अभ्यास और सत्य की जिस कसौटी का वे वास्तविक जीवन में पालन कर पाते हैं, वे बहुत कम और कभी-कभार होते हैं। लोगों के दिलों की गहराई में यह सबसे निराशाजनक बात है। आखिर इसका क्या कारण है? एक कारण तो यही है कि परंपरागत संस्कृति द्वारा लोगों को सिखाए जाने वाले विभिन्न विचार और मत अभी भी उनके दिलों पर हावी हैं, उनके शब्दों, कार्यों, विचारों, और आचरण तथा कार्य की पद्धतियों व तरीकों को नियंत्रित करते हैं। इस प्रकार, परंपरागत संस्कृति को पहचानने, उसका गहन विश्लेषण कर उसे उजागर करने, उसमें प्रभेद करने, उसकी असलियत देखने, और अंततः उसे हमेशा के लिए त्यागने के लिए एक प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। ऐसा करना बहुत महत्वपूर्ण है, यह वैकल्पिक नहीं है। ऐसा इसलिए कि परंपरागत संस्कृति लोगों के दिलों की गहराई में पहले से हावी है—यह उनके पूरे व्यक्तित्व पर भी हावी रहती है। इसका अर्थ है कि वे अपने जीवन में जिस तरह आचरण करते और मामले सँभालते हैं, उसमें सत्य का उल्लंघन करने से बच नहीं पाते, और वे आज तक जैसे थे, उसी तरह न चाहते हुए भी परंपरागत संस्कृति से नियंत्रित और प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाते।
अगर व्यक्ति परमेश्वर में अपनी आस्था में सत्य को पूरी तरह स्वीकार करना चाहता है, और अच्छी तरह अभ्यास कर उसे पाना चाहता है, तो उसे गहराई और विशेष रूप से खोदकर, विश्लेषण कर, और पारंपरिक संस्कृति के विभिन्न विचारों और दृष्टिकोणों को जानने से शुरू करना चाहिए। स्पष्ट है कि पारंपरिक संस्कृति के ये विचार हर व्यक्ति के दिल में एक अहम स्थान रखते हैं, फिर भी अलग-अलग लोग इसके विचारसूत्र के विभिन्न पहलुओं से चिपके रहते हैं; हर व्यक्ति इसके अलग भाग पर ध्यान केंद्रित करता है। कुछ लोग इस वक्तव्य की विशेष पैरवी करते हैं : “मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा।” वे अपने मित्रों के प्रति बहुत निष्ठावान होते हैं, और उनके लिए निष्ठा किसी भी दूसरी चीज से बढ़कर है। निष्ठा उनका जीवन है। जन्म से ही, वे निष्ठा के लिए जीते हैं। कुछ लोग दयालुता को बहुत मूल्य देते हैं। अगर वे किसी व्यक्ति से दया प्राप्त करते हैं, चाहे वो छोटी हो या बड़ी, वे उसे दिल से लगा लेते हैं, और इसकी कीमत चुकाना उनके जीवन का सबसे अहम काम बन जाता है—यह उनके जीवन का मिशन बन जाता है। कुछ लोग दूसरों पर अच्छी छाप छोड़ने को मूल्य देते हैं; वे सम्मानित, कुलीन और बढ़िया किस्म का इंसान बनना चाहते हैं, जिससे दूसरे उनका आदर करें, उनके बारे में ऊँचा सोचें। वे चाहते हैं कि दूसरे उनके बारे में अच्छा बोलें, वे अच्छी साख चाहते हैं, प्रशंसा पाना चाहते हैं, सभी से जोरदार शाबाशी पाना चाहते हैं। पारंपरिक संस्कृति और नैतिक आचरण के विभिन्न वक्तव्यों के अपने अनुसरण में प्रत्येक व्यक्ति का ध्यान एक अलग बात पर होता है। कुछ लोग शोहरत और दौलत को मूल्य देते हैं, दूसरे सत्यनिष्ठा को, कुछ लोग शुद्धता को, और दूसरे दयालुताओं की कीमत चुकाने को। कुछ लोग निष्ठा को मूल्य देते हैं, तो दूसरे परोपकार को और कुछ लोग उपयुक्तता को—वे सभी के प्रति सम्मानपूर्ण और शिष्ट होते हैं, वे हमेशा दूसरों को रास्ता और प्रामुख्यता देते हैं—इत्यादि। प्रत्येक व्यक्ति का ध्यान एक अलग चीज पर केंद्रित होता है। इसलिए अगर तुम समझना चाहते हो कि पारंपरिक संस्कृति ने तुम्हें किस तरह प्रभावित किया है और वह तुम्हें कैसे नियंत्रित करती है, अगर तुम जानना चाहते हो कि तुम्हारे दिल की गहराई में इसका कितना वजन है, तो तुम्हें विश्लेषण करना चाहिए कि तुम किस प्रकार के व्यक्ति हो, और किन चीजों को मूल्य देते हो। क्या तुम “उपयुक्तता” या “परोपकार” की परवाह करते हो? क्या तुम “विश्वसनीयता” या “सहनशीलता” को मूल्य देते हो? तुम पर पारंपरिक संस्कृति के किस पहलू ने सबसे गहन प्रभाव डाला है, और तुम पारंपरिक संस्कृति का अनुसरण क्यों करते हो, इसका तुम्हें विभिन्न नजरियों से और अपने वास्तविक व्यवहार के आधार पर गहन-विश्लेषण करना चाहिए। तुम पारंपरिक संस्कृति के जिस किसी सार का अनुसरण करते हो, तुम उसी किस्म के व्यक्ति हो। तुम जिस भी किस्म के इंसान हो, वही तुम्हारे जीवन पर हावी होता है—और तुम्हारे जीवन पर जो हावी होता है, उसी चीज को तुम्हें पहचानने, विश्लेषित करने, उसकी असलियत को समझने, उसके विरुद्ध विद्रोह करने, और उसे छोड़ देने की जरूरत है। इसे अनावृत कर उसकी समझ हासिल कर लेने के बाद तुम धीरे-धीरे पारंपरिक संस्कृति से खुद को अलग कर सकते हो, सही मायनों में उसे छोड़ सकते हो, और अंततः उससे पूरी तरह अलग हो सकते हो, और इसे अपने दिल की गहराइयों से उखाड़ सकते हो। फिर तुम उसे पूरी तरह उसके खिलाफ विद्रोह कर निर्मूल कर सकोगे। ऐसा कर लेने के बाद, अब पारंपरिक संस्कृति तुम्हारे जीवन में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाएगी; इसके बजाय, परमेश्वर के वचन और सत्य धीरे-धीरे तुम्हारे दिल की गहराइयों में मुख्य भूमिका निभाने लगेंगे और तुम्हारा जीवन बन जाएँगे। परमेश्वर के वचन और सत्य धीरे-धीरे वहाँ एक अहम स्थान पा लेंगे, और परमेश्वर के वचन और परमेश्वर तुम्हारे दिल के सिंहासन पर बैठ जाएँगे, और तुम्हारे राजा के रूप में राज करेंगे। वे तुम्हारे हर भाग में बस जाएँगे। फिर क्या जीने की पीड़ा छोटी महसूस नहीं होगी? क्या तुम्हारा जीवन निरंतर कम पीड़ादायक नहीं बनता जाएगा? (अवश्य।) क्या तुम्हारे लिए पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना, और आचरण व कार्य करना आसान नहीं हो जाएगा? (बिल्कुल।) यह कहीं अधिक आसान होगा। मैं देख सकता हूँ कि तुम लोग हर रोज अपने कर्तव्यों में बहुत व्यस्त रहते हो। परमेश्वर के वचन पढ़ने के अलावा, तुम्हें हर रोज सत्य पर संगति भी करनी चाहिए, पढ़ना, सुनना, याद करना और लिखना चाहिए। तुम बहुत समय और शक्ति खपाते हो, बड़ी कीमत चुकाते हो, बहुत पीड़ा सहते हो, और संभवतः तुम बहुत-से धर्म-सिद्धांत समझते हो। लेकिन, कर्तव्य निभाने की बात पर, यह बहुत बुरी बात है कि तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते, और सिद्धांतों को नहीं समझ सकते। तुमने कई बार सत्य के विभिन्न पहलुओं को सुना है, उन पर संगति की है, लेकिन जब तुम्हारे साथ कुछ घट जाता है, तब तुम नहीं जानते कि परमेश्वर के वचनों का अनुभव, अभ्यास और प्रयोग कैसे करें। तुम नहीं जानते कि सत्य का अभ्यास कैसे करें; तुम्हें अभी भी दूसरों के साथ मिलकर खोजना और विचार-विमर्श करना पड़ता है। परमेश्वर के वचनों को मनुष्य के दिल में जड़ें जमाने में इतना समय क्यों लगता है? उसके वचनों के जरिए सत्य को समझना और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना इतना मुश्किल क्यों होता है? इसे खारिज नहीं किया जा सकता कि लोगों पर पारंपरिक संस्कृति का गंभीर प्रभाव इसका एक प्रमुख कारण है। इसने लोगों के दिलों में बड़े लंबे समय से एक अहम स्थान हथिया रखा है, और यह लोगों के विचारों और मन को नियंत्रित करता है। पारंपरिक संस्कृति मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों को मनमानी करने देती है; वे सहजता से इसे प्रदर्शित करते हैं, जैसे कि कसाई और चाकू, पानी और मछली। क्या बात ऐसी नहीं है? (बिल्कुल है।) पारंपरिक संस्कृति मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों से नजदीकी से जुड़ी हुई है। ये साथ काम करते हैं और एक-दूसरे को मजबूती देते हैं। मछली और पानी की तरह, जब भ्रष्ट स्वभाव पारंपरिक संस्कृति से मिलते हैं, तो वे अपनी पूरी क्षमताएँ दिखा पाते हैं। भ्रष्ट स्वभाव को पारंपरिक संस्कृति से प्रेम होता है और उसे उसकी जरूरत होती है। इसलिए, सहस्राब्दियों से दी गई पारंपरिक संस्कृति की शिक्षा से, शैतान ने मनुष्य को और अधिक गहराई से भ्रष्ट कर दिया है। और मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव को और अधिक गंभीर बना और बढ़ा दिया है। इसके छद्मवेश और स्वांग में, ये स्वभाव न सिर्फ और अधिक गंभीर हो जाते हैं, बल्कि और भी ज्यादा छद्मवेशी हो जाते हैं। अहंकार, कपट, धूर्तता, कट्टरता, और सत्य से विमुख होने वाले स्वभाव और ज्यादा गहराई में छुप जाते और ढक जाते हैं—वे और अधिक धूर्त तरीकों से प्रदर्शित होते हैं, जिससे लोगों के लिए इन्हें देख पाना मुश्किल हो जाता है। तो, पारंपरिक संस्कृति के अनुकूलन, निर्देश, गुमराह करने, और नियंत्रण के अधीन मानवजाति की दुनिया धीरे-धीरे क्या बन गयी है? यह दानवों की दुनिया बन गयी है। लोग इंसानों की तरह नहीं जीते; उनमें इंसानियत या मानवता नहीं है। फिर भी, जो लोग पारंपरिक संस्कृति से चिपके रहते हैं, जिनमें यह धारा समा गयी है, जिनमें यह व्याप्त है, जो इसके पूर्ण नियंत्रण में हैं, वे अपनी ही महानता, कुलीनता, श्रेष्ठता के प्रति आश्वस्त हो गए हैं। वे बेहद अहंवादी हैं; उनमें से कोई भी नहीं सोचता कि वह तुच्छ है, वह मूल्यहीन है, वह महज एक अदना-सा सृजित प्राणी है। इनमें से एक भी इंसान सामान्य व्यक्ति नहीं होना चाहता; ये सभी प्रसिद्ध होना चाहते हैं, महान बनना चाहते हैं, संत बनना चाहते हैं। पारंपरिक संस्कृति के अनुकूलन के अधीन, न सिर्फ लोग स्वयं से आगे बढ़ जाना चाहते हैं—वे पूरी दुनिया और पूरी मानवजाति के पार निकल जाना चाहते हैं। तुमने वह गाना सुना है जो गैर-विश्वासी गाते हैं, “मैं ऊँचे उड़ना चाहता हूँ, ऊँचे उड़ना चाहता हूँ,” और वह गीत जिसके बोल हैं, “मैं एक छोटी चिड़िया हूँ, मैं उड़ना चाहती हूँ, मगर ऊँचे उड़ नहीं सकती।” क्या ये बोल समझ से रिक्त नहीं हैं, पूरी इंसानियत और समझ से रिक्त नहीं हैं? क्या यह शैतान की खूंख्वार गरज नहीं है? (बिल्कुल हैं।) ये शैतान की विक्षिप्त गरज के स्वर हैं। इसलिए, इसे किसी भी दृष्टि से देखें, पारंपरिक संस्कृति का विष लंबे समय से मनुष्य के दिल में समा चुका है, और यह ऐसी चीज नहीं है जिसे रातोरात मिटाया जा सके। यह किसी निजी दोष या बुरी आदत से उबरने जितना आसान नहीं है—तुम्हें सत्य के अनुसार, अपने विचारों, दृष्टिकोणों और भ्रष्ट स्वभाव को अनावृत कर पारंपरिक संस्कृति की जहरीली जड़ों को अपने जीवन से मिटा देना चाहिए। फिर तुम्हें परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं के अनुरूप लोगों और चीजों को देखने, आचरण और कार्य करने, और उसके वचनों के सत्य को अपना जीवन बनाने की जरूरत है। ऐसा करके ही तुम सही मायनों में, परमेश्वर का अनुसरण करने और उसमें विश्वास रखने के सही मार्ग पर चलोगे।
हम पारंपरिक संस्कृति के विषय का बारीकी से विश्लेषण कर उसे उजागर करने के लिए काफी कुछ कर चुके हैं, और हमने उसके बारे में विस्तार से संगति की है। हमने उस पर चाहे कितनी भी संगति की हो, जितनी भी लंबी संगति की हो, लेकिन लोगों के सत्य का अनुसरण करते समय आने वाली तमाम कठिनाइयों या उनके जीवन प्रवेश में मौजूद विभिन्न कठिनाइयों और समस्याओं को सुलझाने का ध्येय बाकी ही है। लक्ष्य सभी बाधाओं, व्यवधानों और कठिनाइयों को हटाना है—जिनमें सबसे प्रमुख हैं पारंपरिक संस्कृति के विभिन्न वक्तव्य, विचार और दृष्टिकोण—जो सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों की राह के आड़े आते हैं। आज की तिथि में, हमने पारंपरिक संस्कृति के विषय पर अपनी संगति को सार रूप में पूरा कर लिया है। तो क्या हमने सत्य के अनुसरण से संबंधित विषयों पर संगति पूरी कर ली है? (नहीं।) क्या पारंपरिक संस्कृति पर हमारी संगति और विश्लेषण सत्य के अनुसरण से संबंधित थे? (बिल्कुल।) ये सत्य के अनुसरण से संबंधित थे। सत्य के अनुसरण के मार्ग में लोगों के सामने सबसे बड़ी कठिनाई है पारंपरिक संस्कृति। अब चूँकि हम सत्य के अनुसरण में सबसे बड़ा व्यवधान—पारंपरिक संस्कृति—के बारे में संगति पूरी कर चुके हैं, इसलिए आज हम इस प्रश्न पर संगति करेंगे, “मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए?” मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए? क्या हमने इस प्रश्न पर पहले संगति की है? हमें इस पर संगति क्यों करनी चाहिए? क्या यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है? (बिल्कुल।) यह क्यों महत्वपूर्ण है? तुम लोग अपने विचार साझा करो। (मेरी समझ से सत्य का अनुसरण सीधे मनुष्य के उद्धार से संबंधित है। चूँकि हम सबका स्वभाव गंभीर रूप से भ्रष्ट है, हमारे भीतर बहुत छो टी आयु से ही पारंपरिक संस्कृति ने इतनी गहराई से हमें सिखा-पढ़ा दिया है और विषाक्त किया है, इसलिए हमें सत्य का अनुसरण करने की आवश्यकता है, वरना हम शैतान से आने वाली नकारात्मक चीजों में प्रभेद नहीं कर सकेंगे। हम सत्य का अभ्यास भी नहीं कर सकेंगे, और हमें सकारात्मक ढंग से और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप कार्य करना भी नहीं आएगा। हमारे पास अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार आचरण करने और कार्य करने के सिवाय कोई विकल्प नहीं होगा। अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर में इस तरह विश्वास करता है, तो अंत में, वह एक जीवित शैतान ही बना रहेगा, ऐसा व्यक्ति नहीं जिसे परमेश्वर बचाएगा। इसलिए, सत्य का अनुसरण करना बहुत महत्वपूर्ण है। यही नहीं, हमारे भ्रष्ट स्वभाव को सत्य के अनुसरण के जरिये ही स्वच्छ किया जा सकता है; साथ ही यही एकमात्र तरीका है जिससे हम लोगों और चीजों के प्रति अपने दृष्टिकोण और अपने आचरण और कार्य के तरीके के बारे में अपने गलत विचारों को सुधार सकते हैं। सत्य को समझने और प्राप्त करने के बाद ही कोई व्यक्ति सक्षम होकर अपना कर्तव्य निभा सकता है और परमेश्वर को समर्पण करने वाला व्यक्ति बन सकता है। वरना, वह अनजाने ही अपने कर्तव्य में काम करने के लिए अपने भ्रष्ट स्वभाव का पालन करेगा, जिससे कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी और बाधा उत्पन्न होगी।) तुमने दो बातें रखीं। मेरा प्रश्न क्या था? (मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए?) क्या यह एक सरल प्रश्न है? यह कारण-व-प्रभाव का सरल प्रश्न लगता है। क्या तुम सबका यही विचार है कि एक तरह से सत्य का अनुसरण व्यक्ति के उद्धार से संबंधित होता है, और दूसरी तरह से गड़बड़ियाँ और बाधाएँ न पैदा करने से संबंधित होता है? (हाँ।) जब तुम उसे इस तरह प्रस्तुत करते हो, तो प्रश्न बहुत सरल ही लगता है। क्या यह वास्तव में इतना सरल है? तुम सब अपने विचार साझा करो। (मुझे लगता है यह प्रश्न कि “मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए?” सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य में थोड़ा सरल है, मगर जब यह अभ्यास करने और वास्तविकता में प्रवेश करने से जुड़ा होता है, तो यह सरल नहीं रह जाता।) “मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए?”—यह कितने प्रश्न समेटे हुए है? इसमें ऐसे प्रश्न शामिल हैं जैसे कि सत्य के अनुसरण की महत्ता क्या है, इसके कारण क्या हैं—और क्या? (सत्य के अनुसरण का महत्त्व।) यह सही है : इसमें सत्य का अनुसरण करने का महत्त्व भी शामिल है; इसमें ये प्रश्न शामिल हैं। इन चीजों पर ध्यान देने पर क्या यह प्रश्न, “मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए?” सरल है? (बिल्कुल नहीं।) इन चीजों के प्रकाश में, इस प्रश्न पर दोबारा चिंतन-मनन करो कि “मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए?” पहले पीछे मुड़कर देखो—सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है? इसे परिभाषित कैसे किया जाए? (परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर, लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना।) क्या यह सही है? तुम्हारी बात में “पूरी तरह” शब्द की कमी है। दोबारा पढ़ो। (पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना।) “मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए?” यह प्रश्न लोगों और चीजों पर लोगों के दृष्टिकोण और उनके आचरण और कार्यों से संबंधित है। यह इस बारे में है कि लोगों को लोगों और चीजों को किस दृष्टि से देखना चाहिए, उन्हें कैसा आचरण और कार्य करना चाहिए; और उन्हें पूर्णतया परमेश्वर के वचनों के अनुसार और सत्य की कसौटी पर क्यों लोगों और चीजों को देखना और आचरण व कार्य करना चाहिए। उन्हें काम करने के इस तरीके का अनुसरण क्यों करना चाहिए—क्या यह इस प्रश्न का मूल नहीं है? क्या यह आधारभूत प्रश्न नहीं है? (बिल्कुल है।) अब तुम प्रश्न के आधारभूत मुख्य विषय को समझ गए हो। आओ प्रश्न पर वापस चलें, “मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए?” यह प्रश्न सरल नहीं है। इसमें सत्य के अनुसरण की महत्ता और मूल्य शामिल हैं, साथ ही इसमें कुछ और भी है जो अत्यंत महत्त्व का है : मानवजाति के सार और सहज प्रवृत्ति के आधार पर, उसे अपने जीवन के रूप में सत्य की जरूरत है, और इसलिए उसे इसका अनुसरण करना चाहिए। स्वाभाविक रूप से, यह मानवजाति के भविष्य और जीवित रहने से भी जुड़ा हुआ है। सरल शब्दों में कहें तो सत्य का अनुसरण लोगों के उद्धार और उनके भ्रष्ट स्वभाव को बदलने से संबद्ध है। स्वाभाविक रूप से, यह लोगों के जीने के विभिन्न आधारों, उनके उद्गारों और उनके रोजमर्रा के जीवन में उनके व्यवहार से भी संबंधित है। अगर लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो यह सत्यता के साथ कहा जा सकता है कि बचाए जाने की उनकी संभावना शून्य है। अगर लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो उनके परमेश्वर का प्रतिरोध करने, उसे धोखा देने और ठुकराने की संभावना शत प्रतिशत है। वे कभी भी किसी भी स्थान पर परमेश्वर का प्रतिरोध कर उसे धोखा दे सकते हैं, और स्वाभाविक रूप से वे कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के घर को बाधित कर सकते हैं, या ऐसा कुछ कर सकते हैं जिससे किसी भी समय, किसी भी स्थान पर व्यवधान या गड़बड़ी पैदा हो सकती है। लोग सत्य का अनुसरण क्यों करें, इसके ये कुछ सरलतम और सबसे बुनियादी कारण हैं, जो वे अपने रोजमर्रा के जीवन में देख और समझ सकते हैं। लेकिन आज हम, “मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए?” इस प्रश्न के कुछ अहम भागों पर ही संगति करेंगे। हम इस प्रश्न के सबसे आधारभूत आयामों पर पहले ही संगति कर चुके हैं, जिसे लोगों ने धर्म-सिद्धांत के मामले के रूप में समझा और पहचाना है, इसलिए हम आज उन बुनियादी, सरल प्रश्नों के बारे में संगति नहीं करेंगे। हमारे लिए कई मुख्य तत्वों पर संगति करना काफी होगा। हम सत्य का अनुसरण करने के विषय पर संगति क्यों कर रहे हैं? स्पष्ट है कि इसमें कुछ और महत्वपूर्ण प्रश्न निहित हैं, ऐसे प्रश्न जिन्हें गहराई से लोग नहीं समझ सकते हैं, जिन्हें वे नहीं जानते, और नहीं समझते, मगर जिसके लिए उनकी समझ-बूझ जरूरी है।
“मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए?” हम उन बुनियादी आयामों से शुरू नहीं करेंगे जो लोग पहले ही समझते हैं, न ही हम उस धर्म-सिद्धांत से शुरू करेंगे जो लोग पहले ही जानते हैं। तो, हम कहाँ से शुरू करेंगे? हमें इस प्रश्न के मूल से आरंभ करना होगा, परमेश्वर की प्रबंधन योजना और उसके इरादों से। प्रश्न के मूल से आरंभ करने का अर्थ क्या है? इसका अर्थ है कि हम परमेश्वर की प्रबंधन योजना और परमेश्वर द्वारा मानवजाति के सृजन से शुरू करेंगे। जब से लोग अस्तित्व में आए, जब से एक सजीव प्राणी—सृजित मानवजाति—को परमेश्वर की श्वास मिली, तब से परमेश्वर ने इनके बीच से एक समूह को प्राप्त करने की योजना बनाई है। यह समूह उसके वचनों की अवगाहना करने, उन्हें समझने और उनका पालन करने में सक्षम होगा। यह परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सभी चीजों, परमेश्वर के अनगिनत सृजन, वनस्पतियों, प्राणियों, अरण्यों, समुद्रों, नदियों, झीलों, पर्वतों, खाड़ियों, मैदानों, आदि के संचालक के रूप में कार्य कर पाएगा। इस योजना को बनाने के बाद, परमेश्वर ने इसी अनुसार मानवजाति से अपनी आशाएँ रखीं। उसे आशा है कि एक दिन लोग इस मानवजाति, दुनिया में मौजूद सारी चीजों, उनके बीच जीनेवाले तमाम प्राणियों के संचालक के रूप में कार्य कर पाएँगे, और वे यह कार्य सुव्यवस्थित ढंग से, उसके द्वारा तय किए गए तरीकों, नियमों और व्यवस्थाओं के अनुसार कर पाएँगे। हालाँकि परमेश्वर ने पहले ही यह योजना और ये अपेक्षाएँ तय कर रखी हैं, उसे अपना अंतिम लक्ष्य हासिल करने में बहुत लंबा समय लगेगा। यह ऐसी चीज नहीं है जिसे दस-बीस वर्ष में, सौ-दो सौ वर्ष में पूरा किया जा सकेगा और न ही हजार-दो हजार वर्ष में। इसमें छह हजार वर्ष लगेंगे। इस प्रक्रिया में, मानवजाति को विभिन्न अवधियों, युगों, कल्पों और परमेश्वर के कार्य के विभिन्न चरणों का अनुभव करना होगा। उन्हें आकाश में नक्षत्रों की गति, समुद्रों के सूखने, और चट्टानों के टूटने का अनुभव करना होगा, उन्हें नाटकीय परिवर्तन का अनुभव करना होगा। पहले और थोड़े-से इंसानों से लेकर अब तक मानवजाति ने विराट उतार-चढ़ाव देखे हैं, और इस दुनिया के उलटफेर और तब्दीलियों को देखा है, जिसके बाद धीरे-धीरे लोगों की संख्या बढ़ी है, और धीरे-धीरे उन्होंने अनुभव प्राप्त किया है, मानवजाति की कृषि, अर्थतंत्र, जीवन-यापन और जीवित रहने के तौर-तरीके धीरे-धीरे बदल गए हैं, और इन्होंने नए तौर-तरीकों को जन्म दिया है। एक विशेष अवधि और एक विशेष युग के आने पर ही लोग उस स्तर पर पहुँच सकते हैं जहाँ परमेश्वर उनका न्याय कर, उन्हें ताड़ना देकर उन पर विजय प्राप्त करेगा, और जहाँ परमेश्वर उनके समक्ष सत्य, अपने वचन और अपने इरादे व्यक्त करेगा। इस स्तर पर पहुँचने के लिए, मानवजाति ने और इस दुनिया में मौजूद तमाम चीजों ने अत्यधिक उथल-पुथल का अनुभव किया है। स्वाभाविक है, आकाश और ब्रह्मांड में भी नाटकीय परिवर्तन हुए हैं। परिवर्तन का यह क्रम परमेश्वर के प्रबंधन के साथ-साथ धीरे-धीरे हुआ है, और प्रकट हुआ है। लोगों को उस मुकाम पर पहुँचने में बहुत समय लगा है जहाँ वे परमेश्वर के सामने आकर उसकी विजय, न्याय, ताड़ना और उसके वचनों के पोषण को स्वीकार कर सकते हैं। मगर कोई बात नहीं; परमेश्वर प्रतीक्षा कर सकता है, क्योंकि यह परमेश्वर की योजना है, और यही उसकी इच्छा है। परमेश्वर को अपनी योजना और अपनी इच्छा के कारण लंबे समय तक प्रतीक्षा करनी होगी। वह अब तक प्रतीक्षा करता रहा है, जो कि सचमुच बड़ा लंबा समय है।
मानवजाति के अज्ञान, भ्रम और उलझन की प्रारंभिक अवस्था से गुजरने के बाद, परमेश्वर उन्हें व्यवस्था के युग में ले आया। हालाँकि मानवजाति एक नए युग, परमेश्वर की प्रबंधन योजना के एक युग में प्रवेश कर चुकी थी, और भले ही लोग अब निरंकुश ढंग से भेड़ों के झुंडों की तरह अनुशासनहीन जीवन नहीं जी रहे थे, भले ही वे अपने जीवन के उस माहौल में प्रवेश कर चुके थे जिसमें व्यवस्था का मार्गदर्शन, निर्देश, और विधि निहित थी, मगर लोग सिर्फ थोड़ी-सी आसान चीजें जानते थे जो उन्हें व्यवस्था के द्वारा सिखाई, बताई या सूचित की गई थीं, या जो इंसानी जीवन के दायरे में पहले से ही मालूम थीं : उदाहरण के लिए, चोरी क्या है, या व्यभिचार क्या है, हत्या क्या है, हत्या के लिए लोगों को कैसे उत्तरदायी ठहराया जाएगा, पड़ोसियों के साथ कैसे बातचीत की जाए, या तमाम चीजें करने के लिए लोगों को कैसे उत्तरदायी ठहराया जाएगा। कुछ भी न जानने-समझने की अपनी प्रारंभिक परिस्थितियों से निकलकर मानवजाति परमेश्वर द्वारा सूचित मानव आचरण की कुछ सरल, अनिवार्य व्यवस्थाओं तक पहुँच गई थी। परमेश्वर द्वारा इन व्यवस्थाओं की घोषणा के बाद, व्यवस्था में रह रहे लोग नियमों और व्यवस्थाओं का पालन करना जान गए थे, और उनके मस्तिष्क और भीतरी संसार में, व्यवस्था उनके आचरण के लिए एक अंकुश और एक मार्गदर्शक की तरह थी, और मनुष्यों में आरंभिक इंसानी सदृशता आ गई थी। ये लोग समझ गए थे कि उन्हें कुछ नियमों और व्यवस्थाओं का पालन करना होगा। उन लोगों ने इनका चाहे जितना अच्छा अनुसरण या जितनी भी सख्ती से अनुपालन किया हो, किसी भी स्थिति में, इन लोगों में व्यवस्था से पहले आए लोगों की अपेक्षा अधिक इंसानी सदृशता थी। अपने व्यवहार और जीवन के आधार पर, वे कुछ विशेष मानकों पर कुछ अंकुशों के साथ कार्य करते और जीवन जीते थे। वे अब वैसे खोए हुए और अज्ञानी नहीं थे जैसे वे पहले कभी थे, और अब जीवन में उतने लक्ष्यहीन नहीं थे। परमेश्वर की व्यवस्थाओं और परमेश्वर द्वारा उन्हें दिए गए सभी वक्तव्यों ने उनके दिलों में जड़ें जमा ली थीं, और वहाँ उन्होंने एक स्थान पा लिया था। मनुष्य अब जानते थे कि उन्हें क्या करना है; वे अब लक्ष्य, दिशा या अंकुश से रहित नहीं थे। इसके बावजूद, वे परमेश्वर की योजनाओं और उसकी इच्छाओं के अनुरूप व्यक्ति बन पाने से बहुत दूर थे। वे अभी भी सभी चीजों के स्वामी की तरह कार्य कर पाने से बहुत दूर थे। परमेश्वर को अभी भी प्रतीक्षा करने और धैर्य रखने की जरूरत थी। हालाँकि व्यवस्था के अधीन रहने वाले लोग परमेश्वर की आराधना करना जानते थे, पर वे ऐसा सिर्फ औपचारिकता के लिए करते थे। उनके दिलों में परमेश्वर का स्थान और छवि परमेश्वर की सच्ची पहचान और सार से बिल्कुल भिन्न थी। इसलिए, वे अभी भी वो सृजित मानव नहीं थे, जिन्हें परमेश्वर चाहता था, और वे ऐसे लोग नहीं थे जिनकी परमेश्वर ने कल्पना की थी, जो सभी चीजों के संचालक के रूप में कार्य करने योग्य थे। उनके दिलों की गहराइयों में, परमेश्वर का सार, पहचान और हैसियत महज मानवजाति के शासक के रूप में थी, और लोग उस शासक की प्रजा या लाभार्थी मात्र थे, और कुछ नहीं। तो, परमेश्वर को अभी भी इन लोगों की अगुआई कर उन्हें आगे बढ़ाना था, जो व्यवस्था के अधीन जीते थे, और सिर्फ व्यवस्था को ही जानते थे। ये लोग व्यवस्था के सिवाय कुछ भी नहीं समझते थे; वे सभी चीजों के लिए संचालक की तरह कार्य करना नहीं जानते थे; वे नहीं जानते थे कि परमेश्वर कौन है; वे जीवनयापन का सही मार्ग नहीं जानते थे। वे परमेश्वर की माँगों के अनुसार कैसे आचरण और जीवन-यापन करना है, न ही वे जिस तरह वे जी रहे थे उससे बेहतर तरीके से जीना जानते थे, न यह जानते थे कि लोगों को अपने जीवन में किसका अनुसरण करना चाहिए, आदि-आदि। व्यवस्था के अधीन जीने वाले लोग इन चीजों से बिल्कुल अनजान थे। व्यवस्था के अलावा, इन लोगों को परमेश्वर की अपेक्षाओं, सत्य या परमेश्वर के वचनों का कोई ज्ञान नहीं था। इस कारण से, परमेश्वर को व्यवस्था में रहने वाली मानवजाति को सहन करते रहना पड़ा। ये लोग उनसे पहले रहने वाले लोगों की अपेक्षा एक विशाल कदम से आगे थे—कम-से-कम वे यह समझते थे कि पाप क्या है, और यह कि उन्हें व्यवस्था का पालन और अनुसरण करना चाहिए, और व्यवस्था के ढाँचे के भीतर रहना चाहिए—फिर भी वे परमेश्वर की अपेक्षाओं से बहुत दूर थे। जो भी हो, परमेश्वर अभी भी उत्सुकतापूर्वक आशा और प्रतीक्षा कर रहा था।
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