सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (9) भाग दो

नैतिक आचरण की इस कहावत “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो” के बारे में हमने किन बिंदुओं पर चर्चा की है? आओ, सार प्रस्तुत करते हैं। इस कहावत का सार वही है, जो नैतिक आचरण की अन्य कहावतों का है। ये सब शासक वर्ग और सामाजिक रीति-रिवाजों के काम आती हैं—इन्हें मानवता के परिप्रेक्ष्य से नहीं बनाया जाता। यह कहना कि ये नैतिक शास्त्र शासक वर्ग और सामाजिक रीति-रिवाजों के काम आते हैं, कुछ हद तक उस दायरे से परे हो सकता है जिसे तुम लोगों को परमेश्वर में अपनी आस्था के जरिये समझना और प्राप्त करने में सक्षम होना चाहिए, हालाँकि यह उन लोगों के लिए कुछ हद तक प्राप्य है जो राजनीति, सामाजिक विज्ञान और मानव-विचार के बारे में कुछ जानते हैं। मानवता के परिप्रेक्ष्य से, यानी तुम्हारे अपने परिप्रेक्ष्य से, तुम्हें ऐसी चीजों से कैसे निपटना चाहिए? उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम्हें तुम्हारी आस्था के कारण पहले गिरफ्तार, कैद और प्रताड़ित किया गया था। कई-कई दिनों और रातों तक बड़े लाल अजगर ने तुम्हें सोने नहीं दिया और यातना देकर तुम्हें अधमरा कर दिया। चाहे तुम पुरुष हो या महिला, तुम्हारे शरीर और मन ने तमाम तरह के दुर्व्यवहार और यातनाएँ झेलीं, और तुम्हें उन शैतानों ने सभी प्रकार की गंदी और निंदात्मक भाषा का इस्तेमाल करते हुए अपमानित भी किया, तुम्हारा मजाक भी उड़ाया और तुम पर हमला भी किया। यह यातना झेलने के बाद तुम इस देश और इस सरकार के प्रति क्या महसूस करते हो? (नफरत।) यह नफरत पैदा करता है, इस सामाजिक प्रणाली के प्रति नफरत, इस सत्ताधारी दल के प्रति नफरत और इस देश के प्रति नफरत। पहले जब भी तुम पुलिस को देखते थे तो तुम्हारे मन में बहुत सम्मान की भावना आती थी, लेकिन उसके हाथों उत्पीड़न, यातना और मलिनता का शिकार होने के बाद, सम्मान की वह भावना गायब हो गई है और तुम्हारा दिल एक शब्द से भर गया है—घृणा। उसकी मानवता की कमी के लिए घृणा, उसकी सरासर बेईमानी के लिए घृणा और इस बात के लिए घृणा कि वे जानवरों और शैतान की तरह काम करते हैं। भले ही तुमने पुलिस से प्रताड़ित, कलंकित और अपमानित होने के कारण बहुत कष्ट सहे हैं, लेकिन तुमने उसके असली रंग देख लिए हैं, और देखा है कि वे सब मनुष्य की खाल में जानवर और सत्य और परमेश्वर से घृणा करने वाले शैतान हैं, इसलिए तुम उसके प्रति नफरत से भरे हुए हो। यह व्यक्तिगत नफरत या व्यक्तिगत शिकायत नहीं है, यह उसके दुष्ट सार को स्पष्ट रूप से देखने का परिणाम है। यह कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसकी तुमने कल्पना की हो, निष्कर्ष निकाला हो या निर्धारित किया हो, ये सब उसके हाथों तुम्हारे अपमान, कलंक और यातना की यादें हैं—जिसमें उसका हर ढंग, कार्य और शब्द शामिल है—जो तुम्हारे हृदय को नफरत से भर देता है। क्या यह सामान्य है? (हाँ।) जब तुम नफरत से भर जाते हो, तब अगर कोई तुमसे कहता है, “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो। नफरत में मत रहो। नफरत दूर करना इससे निपटने का सबसे अच्छा तरीका है,” तो यह सुनकर तुम्हें कैसा लगेगा? (घृणास्पद।) घृणास्पद महसूस करने के सिवाय तुम और क्या कर सकते हो? तो मुझे बताओ, क्या यह नफरत दूर करना संभव है? (नहीं।) इसे दूर नहीं किया जा सकता। कट्टर नफरत कैसे दूर की जा सकती है? अगर कोई तुम्हें अपनी नफरत छोड़ने हेतु राजी करने के लिए इस कहावत का प्रयोग करता है, “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो,” तो क्या तुम उसे छोड़ सकते हो? तुम किस तरह प्रतिक्रिया दोगे? तुम्हारी पहली प्रतिक्रिया होगी, “‘मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो’ यह सब मिथ्या शैतानी शब्द हैं, यह निठल्ले तमाशबीनों की गैर-जिम्मेदाराना टिप्पणी है! परंपरागत संस्कृति के विचार और दृष्टिकोण फैलाने वाले ये लोग रोजाना ईसाइयों और अच्छे लोगों को सताते हैं—क्या वे इन शब्दों से विवश और प्रभावित होते हैं? वे तब तक नहीं रुकेंगे, जब तक कि वे एक-एक को भगा नहीं देते या खत्म नहीं कर देते! वे छद्मवेश में दानव और शैतान हैं। वे जीते-जी लोगों के साथ क्रूरता करते हैं, फिर उनके मर जाने पर वे दूसरों को गुमराह करने के लिए सहानुभूति के कुछ शब्द कह देते हैं। क्या यह घोर दुष्टता नहीं है?” क्या तुम इस तरह प्रतिक्रिया नहीं दोगे और महसूस नहीं करोगे? (बिल्कुल।) जो भी तुम्हें मनाने की कोशिश करेगा, उससे नफरत करते हुए तुम निश्चित रूप से ऐसा महसूस करोगे, यहाँ तक कि उसे शाप भी देना चाहोगे। लेकिन कुछ लोग नहीं समझते। वे कहते हैं, “तुम ऐसा क्यों कर रहे हो? क्या यह घृणास्पद नहीं है? क्या यह द्वेषपूर्ण नहीं है?” ये निठल्ले तमाशबीनों की गैरजिम्मेदाराना टिप्पणियाँ हैं। तुम मुँहतोड़ जवाब दोगे : “मैं एक इंसान हूँ, मेरी गरिमा और निष्ठा है, लेकिन उन्होंने मुझे इंसान नहीं माना। इसके बजाय उन्होंने मेरे साथ एक जानवर या चौपाये की तरह व्यवहार किया, मेरी निष्ठा और गरिमा को बहुत ठेस पहुँचाई। क्या वे द्वेषी नहीं हैं? तुम मौन रूप से उनके द्वेष को स्वीकारते हो, लेकिन जब हम उनका विरोध कर उनसे नफरत करते हैं, तो तुम इसके लिए हमारी निंदा करते हो। तो यह तुम्हें क्या बनाता है? क्या तुम ही दुष्ट नहीं हो? वे हमें इंसान नहीं समझते, हमें प्रताड़ित करते हैं, पर तुम फिर भी हमसे मानवीय नैतिक आचरण कायम रखने और बुराई का बदला भलाई से देने के लिए कहते हो। क्या तुम सिर्फ बकवास नहीं कर रहे? क्या तुम्हारी मानवता सामान्य है? तुम एक कपटी और पाखंडी हो। तुम न सिर्फ बेहद द्वेषी हो, बल्कि दुष्ट और बेशर्म भी हो!” इसलिए, जब कोई तुम्हें यह कहकर सांत्वना देता है कि “इसके बारे में भूल जाओ, यह पूरी तरह से खत्म हो गया है, शिकायत मत रखो। अगर तुम हमेशा इतने क्षुद्र रहोगे, तो अंत में तुम ही आहत होगे। लोगों को नफरत छोड़ना सीखना होगा, और जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनने का अभ्यास करना होगा,” तो तुम इसके बारे में क्या सोचोगे? क्या तुम यह नहीं सोचोगे, “यह तमाम परंपरागत चीनी संस्कृति शासक वर्ग द्वारा लोगों को गुमराह और नियंत्रित करने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला एक साधन है। वे खुद कभी इन विचारों और दृष्टिकोणों से बाध्य नहीं होते, पर लोगों को रोजाना गुमराह करते और निर्दयतापूर्वक चोट पहुँचाते हैं। मैं गरिमा और निष्ठा वाला व्यक्ति हूँ, जिसके साथ जानवर या चौपाये की तरह बेरहमी से खिलवाड़ और दुर्व्यवहार किया गया। मैंने उनकी मौजूदगी में इतना अपमान और बदनामी सही, और मुझे इतना सताया और मेरी गरिमा और निष्ठा से वंचित किया गया कि मैं इंसान भी नहीं दिखता था। और फिर भी तुम नैतिकता की बात करते हो? तुम होते कौन हो इतनी ऊँची-ऊँची बातें करने वाले? क्या मेरे लिए एक बार अपमानित होना काफी नहीं है, जो तुम मुझे उनसे दोबारा अपमानित करवाना चाहते हो? मेरे यह नफरत छोड़ने का कोई उपाय नहीं है!” क्या यह सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति है? (हाँ।) यह सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति है। कुछ लोग कहते हैं : “यह सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति नहीं है, यह नफरत भड़काना है।” उस हालत में, इस व्यक्ति के व्यवहार और इस नफरत का कारण कौन था? क्या तुम जानते हो? अगर बड़े लाल अजगर ने उसे क्रूरता से सताया न होता, तो क्या वह ऐसा व्यवहार करता? उसे सताया गया था और वह सिर्फ अपने मन की बात कह रहा है—यह नफरत भड़काना कैसे है? शैतानी शासन लोगों को इस तरह सताते भी हैं और उन्हें अपने मन की बात कहने भी नहीं देते? शैतान लोगों को सताता है और उनका मुँह भी बंद रखना चाहता है। वह उन्हें नफरत या विरोध नहीं करने देता। यह किस तरह का तर्क है? क्या सामान्य मानवता वाले लोगों को दमन और शोषण का विरोध नहीं करना चाहिए? क्या उन्हें बस दब्बूपन से समर्पण करना चाहिए? शैतान ने हजारों सालों से मानवजाति को भ्रष्ट कर नुकसान पहुँचाया है। जब विश्वासी सत्य समझ जाएँ, तो उन्हें जागना चाहिए, शैतान का विरोध करना चाहिए, उसे उजागर करना चाहिए, उससे नफरत करनी चाहिए और उसके विरुद्ध विद्रोह करना चाहिए। यह सामान्य मानवता है, और यह पूरी तरह स्वाभाविक और उचित है। यह वह अच्छा और धार्मिक कर्म है जिसमें सामान्य मानवता सक्षम होनी चाहिए और परमेश्वर इसकी प्रशंसा करता है।

तुम इसे चाहे जिस भी कोण से देखो, नैतिक आचरण के बारे में यह कहावत कि, “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो,” बहुत ही अमानवीय और घिनौनी है। यह शासित वर्ग के लोगों से कहती है कि वे किसी भी अनुचित व्यवहार का विरोध न करें—चाहे उन्हें अपने ईमान, गरिमा और मानवाधिकारों पर कैसे भी हमले, अपमान या चोटें सहनी पड़ें—बल्कि नम्रता से उसके प्रति समर्पित हो जाएँ। उन्हें बदला नहीं लेना चाहिए, न ही घृणास्पद चीजों के बारे में सोचना चाहिए, प्रतिशोध के बारे में सोचने की बात तो छोड़ ही दो, बल्कि जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार होना सुनिश्चित करना चाहिए। क्या यह अमानवीय नहीं है? एकदम स्पष्ट है कि यह अमानवीय है। यह देखते हुए कि यह कहावत शासित वर्ग—साधारण लोगों—से यह सब करने और इस तरह के नैतिक आचरण से खुद को संचालित करने की अपेक्षा करती है, क्या शासक वर्ग का नैतिक आचरण इस अपेक्षा से बढ़कर नहीं होना चाहिए? क्या यह ऐसी चीज नहीं है, जिसे करने के लिए उन्हें और भी ज्यादा बाध्य होना चाहिए? क्या उन्होंने यह किया है? क्या वे यह कर सकते हैं? क्या उन्होंने इस कहावत का इस्तेमाल खुद को बाध्य करने और मापने के लिए किया? क्या उन्होंने अपने लोगों के साथ, उन लोगों के साथ जिन पर वे शासन करते हैं, अपने व्यवहार में इस कहावत को लागू किया? (नहीं।) उन्होंने ऐसा कभी नहीं किया है। वे सिर्फ अपने लोगों से कहते हैं कि वे इस समाज, इस देश या शासक वर्ग को शत्रुता से न देखें, और चाहे वे समाज में या अपने समुदाय के भीतर कितना भी अनुचित व्यवहार क्यों न झेलें, और चाहे वे शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक रूप से कितने भी पीड़ित क्यों न हों, उन्हें जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार होना सीखना चाहिए। इसके विपरीत, अगर साधारण लोग—उनकी नजर में आम लोग—उनसे “नहीं” कहते हैं या शासक वर्ग की हैसियत, शासन और अधिकार के बारे में कोई असहमतिपूर्ण राय रखते और आवाज उठाते हैं, तो उन्हें सख्ती से प्रशासित किया जाएगा, यहाँ तक कि गंभीर रूप से दंडित भी किया जाएगा। क्या उस शासक वर्ग का नैतिक आचरण यही होना चाहिए, जो लोगों से “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो” की वकालत करता है? अगर शासित वर्ग के साधारण लोगों में जरा-सी भी परेशानी या जरा-सा भी बदलाव हो, या लोगों के विचारों में उनके प्रति जरा-सा भी विरोध हो, तो उसे फौरन कुचल दिया जाएगा। वे लोगों के दिलो-दिमाग को नियंत्रित करते हैं, और लोगों को अपने प्रति समर्पित होने के लिए बाध्य करते हैं, कोई समझौता नहीं करते। यह ठीक वैसा ही है, जैसा इन कहावतों में कहा गया है, “जब सम्राट अपने अधिकारियों को मरने का आदेश देता है, तो उनके पास मरने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता,” और “आकाश के नीचे की सारी भूमि राजा की होती है, दुनिया के सारे लोग राजा के अधीन होते हैं।” इसका निचोड़ यही है कि शासक जो करता है, सही करता है और लोगों को उससे गुमराह होना चाहिए, उससे नियंत्रित होना चाहिए, उससे अपमानित होना चाहिए, उसे अपने साथ खिलवाड़ करने देना चाहिए, उसके द्वारा कुचला जाना चाहिए, और अंत में उसके द्वारा निगला जाना चाहिए; और शासक वर्ग चाहे कुछ भी करे, वह सही होता है, और जब तक लोग जीवित हैं, तब तक उन्हें आज्ञाकारी नागरिक होना चाहिए, और राजा के प्रति विश्वासघाती नहीं होना चाहिए। राजा कितना भी बुरा क्यों न हो, उसका शासन कितना भी बुरा क्यों न हो, साधारण लोगों को “नहीं” नहीं कहना चाहिए, और प्रतिरोध के विचार नहीं रखने चाहिए, और पूरी तरह आज्ञापालन करना चाहिए। चूँकि “दुनिया के सारे लोग राजा के अधीन होते हैं,” जिसका अर्थ है कि राजा द्वारा शासित आम लोग उसके अधीन होते हैं, तो क्या राजा को आम लोगों के सामने इस कहावत की मिसाल नहीं देनी चाहिए कि “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो”? चूँकि आम लोग मूर्ख, अज्ञानी, बेखबर होते हैं और कानून नहीं समझते, इसलिए वे अक्सर कुछ गैरकानूनी और आपराधिक काम कर देते हैं। तो क्या राजा को यह कहावत लागू करने वाला पहला व्यक्ति नहीं होना चाहिए कि “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो”? साधारण लोगों के साथ उसे उतना ही उदार होना चाहिए, जितना कि वह अपने बच्चों के साथ होता है—क्या राजा को ऐसा ही नहीं करना चाहिए? क्या राजा में भी ऐसी दरियादिली नहीं होनी चाहिए? (हाँ, होनी चाहिए।) तो क्या वह खुद से यह अपेक्षा करता है? (नहीं।) जब राजाओं ने धार्मिक विश्वासों के दमन का आदेश दिया, तो क्या उन्होंने खुद से इस कहावत का पालन करने की अपेक्षा की कि “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो”? जब उनकी सेना और पुलिस बल ने ईसाइयों को क्रूरता से सताया और प्रताड़ित किया, तो क्या उन्होंने अपनी सरकार से इस कहावत का पालन करने के लिए कहा, “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो”? उन्होंने अपनी सरकार या अपने पुलिस बल से ऐसा करने के लिए कभी नहीं कहा। इसके बजाय, उन्होंने सरकार और पुलिस बल पर धार्मिक विश्वासों को सख्ती से दबाने का दबाव डाला और उन्हें उसके लिए मजबूर किया, यहाँ तक कि “उन्हें मौत के घाट उतार दो, इसके लिए कोई दंड नहीं मिलेगा” और “उन्हें बिना आवाज किए नष्ट कर दो” जैसे आदेश जारी किए, जो यह दर्शाता है कि इस दुष्ट संसार के राजा दानव हैं, वे दानवी राजा हैं, वे शैतान हैं। वे सिर्फ अधिकारियों को आग जलाने देते हैं, लेकिन लोगों को दीया भी नहीं जलाने देते। वे नैतिक आचरण संबंधी इन पारंपरिक कहावतों का उपयोग लोगों को विवश और प्रतिबंधित करने के लिए करते हैं, इस डर से कि लोग उनके खिलाफ उठ खड़े होंगे। इसलिए शासक वर्ग लोगों को गुमराह करने के लिए नैतिक आचरण की तमाम तरह की कहावतों का उपयोग करता है। उसका एक ही उद्देश्य होता है, जो लोगों के हाथ-पैर जकड़ना और बाँधना है, ताकि लोग उनके शासन के अधीन हो जाएँ, और उन्हें कोई प्रतिरोध न सहना पड़े। वे नैतिक आचरण संबंधी इन सिद्धांतों का उपयोग लोगों को बेवकूफ बनाने और धोखा देने के लिए करते हैं, इनसे वे उनकी आँखों में धूल झोंकते हैं, ताकि वे झुक जाएँ और आज्ञाकारी नागरिक बन जाएँ। शासक वर्ग कितना भी बुरा कर ले और लोगों को पैरों तले रौंद डाले, वह चाहे लोगों का कितना भी दमन और शोषण कर ले, लोग सिर्फ नम्रता से उसके सामने झुक ही सकते हैं, बिल्कुल भी विरोध नहीं कर सकते। मृत्यु का सामना करने पर भी, लोग सिर्फ पलायन ही चुन सकते हैं। वे विरोध नहीं कर सकते, यहाँ तक कि विरोध करने के विचार रखने का साहस भी नहीं कर सकते। यह दिखाने के उद्देश्य से कि वे आज्ञाकारी नागरिक हैं और हमेशा राजा के शासन के प्रति समर्पित और राजा के प्रति वफादार रहेंगे, वे कुदाल और दरांती की ओर देख भी नहीं सकते और न ही उन्हें अपने पास रख सकते हैं, और न ही अपनी जेब में छोटा चाकू और नेल-कटर ले जा सकते हैं। उनकी वफादारी कितनी व्यापक होनी चाहिए? कोई भी यह कहने की हिम्मत नहीं करता, “बतौर प्रजा, हमें परंपरागत संस्कृति के विचारों और दृष्टिकोणों का उपयोग अपने राजा पर निगरानी रखने और उसे विवश करने के लिए करना चाहिए,” और राजा को बुराई करते देखकर कोई भी थोड़ा-सा भी अलग मत सामने रखने की हिम्मत नहीं करता, वरना वह मारा जाएगा। जाहिर है, शासक खुद को न सिर्फ लोगों का राजा मानता है, बल्कि लोगों का संप्रभु और नियंत्रक भी मानता है। चीनी इतिहास में इन सम्राटों ने खुद को “तियांजी” कहा। “तियांजी” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है आकाशीय स्वर्ग का पुत्र, या संक्षेप में “स्वर्ग का पुत्र”। उन्होंने खुद को “पृथ्वी का पुत्र” क्यों नहीं कहा? अगर वे पृथ्वी पर पैदा हुए थे, तो उन्हें पृथ्वी के पुत्र होना चाहिए था, और चूँकि वे स्पष्ट रूप से पृथ्वी पर ही पैदा हुए थे, तो उन्होंने खुद को “स्वर्ग का पुत्र” क्यों कहा? खुद को स्वर्ग का पुत्र कहने का क्या उद्देश्य था? क्या यह कि वे सभी जीवित प्राणियों और इन आम लोगों का तिरस्कार करना चाहते थे? शासन करने का उनका तरीका सर्वोपरि बनकर लोगों को सत्ता और हैसियत से नियंत्रित करना था। कहने का तात्पर्य यह है कि जब उन्होंने सत्ता सँभाली और सम्राट बने, तो उन्हें लोगों की भावनाओं की परवाह न करते हुए उनकी गर्दन पर बेरहमी से सवारी गाँठना मामूली बात लगी, और लोगों की जरा-सी भी हिचकिचाहट उनके प्राण संकट में डाल सकती थी। इस तरह “स्वर्ग का पुत्र” उपाधि अस्तित्व में आई। अगर सम्राट कहता कि वह पृथ्वी का पुत्र है, तो वह निम्न हैसियत का प्रतीत होता, और उसके पास वह प्रताप न होता, जो उसके अनुसार राजा के पास होना चाहिए, और न ही वह शासित वर्ग को डराने में सक्षम होता। इसलिए, उसने इसका स्तर बढ़ा दिया और दावा किया कि वह स्वर्ग का पुत्र है और स्वर्ग का प्रतिनिधित्व करना चाहता है। क्या वह स्वर्ग का प्रतिनिधित्व कर सकता था? क्या उसके पास वह सार था? अगर कोई स्वर्ग का प्रतिनिधित्व करने का सार न होने पर भी वैसा करने पर जोर देता है, तो यह ढोंग करना है। एक ओर ये शासक स्वर्ग और परमेश्वर को शत्रुता से देखते हैं, लेकिन दूसरी ओर वे ढोंग करते हैं कि वे स्वर्ग के पुत्र हैं और स्वर्ग द्वारा आदेशित हैं, ताकि उनका शासन सुगमता से चल सके। क्या यह बेशर्मी नहीं है? इन तथ्यों को देखते हुए, मनुष्यों के बीच फैली नैतिक आचरण संबंधी इन विभिन्न कहावतों का उद्देश्य लोगों की सामान्य सोच को प्रतिबंधित करना, उनके हाथ-पैर बाँधना, उनके व्यवहार को प्रतिबंधित करना, यहाँ तक कि उनके विभिन्न विचारों, दृष्टिकोणों और अभिव्यक्तियों को भी सामान्य मानवता के दायरे में सीमित करना है। इसके मूल को देखें तो, उनका उद्देश्य अच्छे सामाजिक रीति-रिवाज और सामाजिक नैतिकता निर्मित करना है। बेशक, यह परिणाम प्राप्त करके वे शासक वर्ग की लंबे समय तक शासन करने की महत्वाकांक्षा भी पूरी करती हैं। लेकिन वे चाहे कैसे भी शासन करें, अंततः पीड़ित मानवजाति ही होती है। मानवजाति परंपरागत संस्कृति के इन विभिन्न विचारों और दृष्टिकोणों से सीमित और प्रभावित है। लोगों ने न सिर्फ सुसमाचार सुनने और परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने का अवसर खो दिया है, बल्कि उन्होंने सत्य खोजने और जीवन में सही मार्ग पर चलने का अवसर भी खो दिया है। इसके अलावा, शासकों के नियंत्रण में लोगों के पास शैतान से आने वाले कई प्रकार के विष, भ्रांतियाँ और अन्य नकारात्मक चीजें स्वीकारने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। मानवजाति के लंबे इतिहास के पिछले कुछ हजार वर्षों में शैतान ने ज्ञान और विभिन्न वैचारिक सिद्धांतों का प्रसार करके मानवजाति को शिक्षित किया है, इन्हें उसके मन में बैठाया है और उसे गुमराह किया है, जिसके परिणामस्वरूप लोगों की पीढ़ियाँ इन विचारों और दृष्टिकोणों से गहराई से प्रभावित कर जकड़ दी गई हैं। निस्संदेह, शैतान के इन विचारों और दृष्टिकोणों के प्रभाव में, लोगों के भ्रष्ट स्वभाव तीव्र और ज्यादा गंभीर हो जाते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि इस आधार पर लोगों के भ्रष्ट स्वभाव पोषित और “उन्नत” किए गए हैं और वे लोगों के दिलों में गहराई से जड़ें जमा चुके हैं, जिसके कारण वे परमेश्वर को नकारते हैं, परमेश्वर का विरोध करते हैं, और पाप में गहरे डूब जाते हैं जिससे वे खुद को निकालने में असमर्थ हैं। जहाँ तक नैतिक आचरण संबंधी इस कहावत—“मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो”—के गढ़ने का और साथ ही इस अपेक्षा को सामने रखने के उद्देश्यों, नैतिक आचरण संबंधी इस कहावत के बनने के बाद से लोगों को हुए नुकसान और अन्य तमाम पहलुओं का संबंध है, हम अब इन चीजों पर संगति नहीं करेंगे, और तुम लोग बाद में खुद इन पर और विचार करने के लिए समय निकाल सकते हो।

चीनी लोग परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण संबंधी कहावतों से अनजान नहीं हैं, लेकिन ये चीजें लोगों को रातोंरात प्रभावित नहीं करतीं। तुम इस तरह के सामाजिक परिवेश में रहते हो, तुमने परंपरागत संस्कृति और नैतिकता के पहलुओं पर इस तरह की वैचारिक शिक्षा प्राप्त की है और तुम इन चीजों से परिचित हो, लेकिन यह तुम्हारे दिमाग में कभी नहीं आया कि इन चीजों का अत्यधिक नकारात्मक प्रभाव हो सकता है। ये चीजें तुम्हें परमेश्वर में विश्वास करने, सत्य का अनुसरण करने और सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करने से कितना बाधित करेंगी, या भविष्य में तुम जिस मार्ग पर चलोगे उस पर इनका कितना प्रभाव या अवरोध होगा? क्या तुम लोग इन मुद्दों से अवगत हो? तुम लोगों को उस विषय पर और ज्यादा चिंतन और विचार करना चाहिए, जिसके बारे में हमने आज संगति की है, ताकि तुम इस बात की पूरी समझ हासिल कर सको कि मानवजाति को शिक्षित करने में परंपरागत संस्कृति क्या भूमिका निभाती है, वह वास्तव में क्या है और लोगों को उसे सही तरीके से कैसे लेना चाहिए। ऊपर संगति में हमने जो बातें की हैं, वे परंपरागत संस्कृति की चीजें समझने में तुम लोगों के लिए मददगार और फायदेमंद हैं। बेशक, यह समझ न सिर्फ परंपरागत संस्कृति की समझ है, बल्कि शैतान द्वारा मानवजाति को भ्रष्ट करने की और उन विभिन्न तरीकों और साधनों की भी समझ है, जिनके माध्यम से शैतान मानवजाति को भ्रष्ट करता है, खासकर उसके द्वारा लोगों में डाले गए विभिन्न विचारों और साथ ही उन विभिन्न तरीकों और साधनों, दृष्टिकोणों, परिप्रेक्ष्यों, रवैयों आदि की समझ भी है, जिनके साथ वह दुनिया और मानवजाति के साथ व्यवहार करता है। परंपरागत संस्कृति की चीजों की पूरी समझ हासिल करने के बाद तुम लोगों को बस परंपरागत संस्कृति की विभिन्न कहावतों और विचारों से बचना और उन्हें नकारना भर नहीं है। इसके बजाय, तुम्हें और ज्यादा विशिष्ट रूप से यह समझना और विश्लेषण करना चाहिए कि नैतिक आचरण संबंधी जिन कहावतों का तुम पालन करते हो और जिन्हें बनाए रखते हो, उन्होंने तुम्हें क्या नुकसान पहुँचाया है, तुम्हारे लिए क्या अवरोध पैदा किए हैं और तुम्हें किन बंधनों में जकड़ा है, और तुम्हारे द्वारा आचरण करने और साथ ही परमेश्वर के वचनों को स्वीकारने और सत्य खोजने के संबंध में उन्होंने तुम्हारे विचारों और दृष्टिकोणों को प्रभावित, अस्तव्यस्त और बाधित करने और इस तरह सत्य स्वीकारने, उसे समझने, उसका अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति पूरी तरह से और अबाध रूप से समर्पण करने में तुमसे देरी करवाने में क्या भूमिका निभाई है। ठीक यही वे चीजें हैं, जिन पर लोगों को चिंतन करना चाहिए और जिनके बारे में जागरूक होना चाहिए। तुम उन्हें सिर्फ टाल या नकार नहीं सकते, तुम्हें उन्हें पहचानने और पूरी तरह से समझने में सक्षम होना चाहिए, ताकि तुम परंपरागत संस्कृति में मौजूद इन दिखावटी और भ्रामक चीजों से अपना दिमाग पूरी तरह से मुक्त कर सको। भले ही नैतिक आचरण संबंधी कुछ कहावतें तुममें गहराई से जड़ें न जमाए हों, बस समय-समय पर तुम्हारी सोच और धारणाओं में अभिव्यक्त होती हों, फिर भी वे तुम्हें थोड़े समय के लिए या किसी एक घटना के दौरान परेशान कर सकती हैं। अगर तुम उन्हें स्पष्ट रूप से नहीं पहचान सकते, तो तुम अभी भी कुछ कहावतों और विचारों को ऐसी चीजें मान सकते हो, जो काफी सकारात्मक या सत्य के करीब हैं, और यह बहुत परेशानी वाली बात है। नैतिक आचरण के बारे में कुछ कहावतें हैं, जिन्हें तुम अंदर से काफी पसंद करते हो। तुम न सिर्फ अपने दिल में उनसे सहमत हो, बल्कि तुम्हें यह भी लगता है कि उन्हें सार्वजनिक रूप से प्रसारित किया जा सकता है, कि लोग उन्हें सुनने में रुचि लेंगे और उन्हें सकारात्मक चीजों के रूप में स्वीकारेंगे। ये कहावतें त्यागना निस्संदेह तुम्हारे लिए सबसे कठिन है। भले ही तुमने उन्हें सत्य न माना हो, फिर भी तुम आंतरिक रूप से उन्हें अपने हृदय में सकारात्मक चीजें मानते हो और वे अनजाने ही तुम्हारे हृदय में जड़ें जमा लेती हैं और तुम्हारा जीवन बन जाती हैं। जब तुम परमेश्वर में विश्वास करने लगते हो और परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्य स्वीकारते हो, तो स्वाभाविक रूप से ये चीजें तुम्हें परेशान करने के लिए उभरेंगी और तुम्हें सत्य स्वीकारने से रोकेंगी। ये सब वे चीजें हैं, जो लोगों को सत्य का अनुसरण करने से रोकती हैं। अगर तुम इन्हें स्पष्ट रूप से नहीं पहचान पाते, तो इन चीजों को सत्य समझ बैठना और उन्हें वही दर्जा देना आसान होता है, जिसका लोगों पर कुछ नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। हो सकता है, तुमने इन कहावतों को—जैसे कि “उठाए गए धन को जेब में मत रखो,” “दूसरों की मदद करने में खुशी पाओ,” और “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो”—सत्य न समझा हो और तुम उन्हें अपने नैतिक आचरण को मापने के लिए मानक न मानते हो, और तुम अपना आचरण करने के लक्ष्य के रूप में उनका अनुसरण न करते हो, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि तुम परंपरागत संस्कृति से प्रभावित और भ्रष्ट नहीं हुए हो। यह भी हो सकता है कि तुम ऐसे व्यक्ति हो, जो तुच्छ विवरणों के प्रति इस हद तक उदासीन रहता है कि तुम इस बात की परवाह नहीं करते कि तुम उठाए गए धन को जेब में रखते हो या नहीं, या दूसरों की मदद करने में खुशी पाते हो या नहीं। लेकिन तुम्हें एक बात समझकर उसके बारे में स्पष्ट होना होगा : तुम इस तरह के सामाजिक परिवेश में और एक परंपरागत सांस्कृतिक और वैचारिक शिक्षा के प्रभाव में रहते हो, इसलिए तुम अनिवार्य रूप से इन कहावतों का पालन करोगे जिनकी मानवजाति वकालत करती है, और इनमें से कम से कम कुछ को नैतिक आचरण को मापने के अपने मानक के रूप में अपनाओगे। इसी पर तुम्हें सोच-समझकर विचार करना चाहिए। यह भी हो सकता है कि तुम “उठाए गए धन को जेब में मत रखो” या “दूसरों की मदद करने में खुशी पाओ” जैसी कहावतों को नैतिक आचरण को मापने के अपने मानक के रूप में न अपनाते हो, लेकिन अपने दिल की गहराई में तुम सोचते हो कि अन्य कहावतें, जैसे “मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा,” विशेष रूप से उत्कृष्ट हैं, और वे तुम्हारे जीवन को प्रभावित करने वाले सिद्धांत या वे उच्चतम मानदंड बन गई हैं, जिनके द्वारा तुम लोगों और चीजों को देखते हो, और आचरण और कार्य करते हो। यह क्या दर्शाता है? हालाँकि अपने दिल की गहराई में तुम जानबूझकर परंपरागत संस्कृति का सम्मान या पालन नहीं करते, फिर भी तुम्हारे आचरण के सिद्धांत, तुम्हारे आचरण के तरीके और तुम्हारे जीवन-लक्ष्य, और साथ ही जीवन-लक्ष्यों के सिद्धांत, मूल बिंदु और मत जिनका तुम अनुसरण करते हो, परंपरागत संस्कृति से स्वतंत्र बिल्कुल नहीं हैं। वे परोपकार, धार्मिकता, उपयुक्तता, बुद्धिमत्ता और विश्वसनीयता के मूल्यों से नहीं बच पाए हैं जिन्हें मानवजाति कायम रखती है, न ही नैतिक आचरण के उन कुछ सिद्धांतों से बच पाए हैं, जिनकी मानवजाति वकालत करती है—तुम इन सीमाओं से बिल्कुल भी नहीं निकल पाए हो। स्पष्ट रूप से कहूँ तो, अगर तुम एक भ्रष्ट इंसान हो, एक जीवित इंसान हो और इंसानों की दुनिया का खाना खाते हो, तो आचरण और जीवन के वे सिद्धांत, जिनका तुम पालन करते हो, परंपरागत संस्कृति से आए नैतिक आचरण के इन सिद्धांतों और मतों से ज्यादा कुछ नहीं हैं। मैं ये जो वचन कहता हूँ और जो समस्याएँ उजागर करता हूँ, उन्हें तुम्हें समझना चाहिए। लेकिन शायद तुम सोचते हो कि तुममें ये समस्याएँ नहीं हैं, इसलिए तुम मेरी बातों की परवाह नहीं करते। तथ्य यह है कि सभी लोगों में अलग-अलग मात्रा में ये समस्याएँ हैं, चाहे तुम इसे महसूस करो या न करो, और यह ऐसी चीज है जिसे परमेश्वर में विश्वास और सत्य का अनुसरण करने वालों को विचारपूर्वक चिंतन कर समझना चाहिए।

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