सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (9) भाग एक
अभी कुछ समय से हम नैतिक आचरण के विषय पर संगति कर रहे हैं। पिछली बार हमने एक कहावत के बारे में संगति की थी—“अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो।” आज हम इस कहावत के बारे में संगति कर रहे हैं कि “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो,” जो मनुष्य के नैतिक आचरण के लिए परंपरागत संस्कृति की ही एक अन्य अपेक्षा है। यह कहावत लोगों के नैतिक आचरण के कौन-से पहलुओं को छूती है? क्या इसके लिए लोगों का उदार और सहिष्णु होना अपेक्षित है? (बिल्कुल।) यह मानव-प्रकृति की उदारता से जुड़ी अपेक्षा है। इस अपेक्षा का क्या मानदंड है? इसका मुख्य बिंदु क्या है? (जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो।) यह सही है, मुख्य बिंदु यह है कि तुम्हें जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनना चाहिए और इतना आक्रामक नहीं होना चाहिए कि लोगों के लिए कोई रास्ता न छोड़ो। नैतिक आचरण की यह कहावत लोगों से उदार होने और छोटी-मोटी शिकायतें न पालने की अपेक्षा करती है। लोगों के साथ जुड़ते हुए या अपने रोजमर्रा के काम करते समय अगर कोई विवाद, संघर्ष या द्वेष उत्पन्न होता है तो हमलावर पक्ष से निपटने में ज्यादा सख्त, असामान्य या कठोर न होओ। जब जरूरी हो उदार बनो, जब जरूरी हो दरियादिल बनो और दुनिया और मानवजाति के प्रति सचेत रहो। क्या लोगों में इतनी बड़ी दरियादिली है? (नहीं।) लोगों में इतनी बड़ी दरियादिली नहीं है। लोग निश्चित नहीं हैं कि इस तरह की चीज झेलने की इंसानी प्रवृत्ति की क्षमता कितनी बड़ी है और वह किस हद तक सामान्य है। किसी ऐसे व्यक्ति के प्रति सामान्य लोगों का मूल रवैया क्या होता है जिसने तुम्हें चोट पहुँचाई है, जो तुम्हारे साथ शत्रुता से पेश आया है या जिसने तुम्हारे हितों का अतिक्रमण किया है? वे ऐसे लोगों से नफरत करते हैं। जब लोगों के दिलों में नफरत पैदा होती है तो क्या वे “जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनने” में सक्षम होते हैं? ऐसा करना आसान नहीं है और ज्यादातर लोग ऐसा नहीं कर सकते। जब ज्यादातर लोगों की बात आती है तो क्या वे दूसरे व्यक्ति के साथ उदार होने और बीती बात भूलकर नए सिरे से शुरुआत करने के लिए अपनी मानवता में मौजूद जमीर और समझ पर भरोसा कर सकते हैं? (नहीं।) लेकिन यह कहना पूरी तरह से सही नहीं है कि ऐसा नहीं किया जा सकता। यह पूरी तरह से सही क्यों नहीं है? यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि मुद्दा क्या है और वह कितना अहम या तुच्छ है। साथ ही, समस्याओं की तीव्रता अलग-अलग होती है, इसलिए यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह कितनी गंभीर है। अगर कोई तुम्हें अपने शब्दों से कभी-कभार ही चोट पहुँचाता है तो जमीर और विवेक वाले व्यक्ति होने पर तुम सोचोगे, “उसके मन में द्वेष नहीं है। वह जो कहता है उसका वह मतलब नहीं होता, वह बिना सोचे-समझे जो मन में आए बोल देता है। उसके साथ बिताए तमाम वर्षों की खातिर या अमुक-अमुक की खातिर या इस या उस चीज की खातिर मैं उसका बुरा नहीं मानूँगा। जैसी कि कहावत भी है, ‘मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो।’ उसकी बात एक टिप्पणी भर है, इसने मेरे अभिमान को ठेस नहीं पहुँचाई या मेरे हितों को बिल्कुल भी नुकसान नहीं पहुँचाया, मेरी हैसियत या भविष्य की संभावनाओं को प्रभावित करने की तो बात ही छोड़ो, इसलिए मैं इसे अनदेखा कर दूँगा।” इन तुच्छ मामलों का सामना करते समय लोग इस कहावत का पालन कर सकते हैं कि “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो।” लेकिन अगर कोई वास्तव में तुम्हारे महत्वपूर्ण हितों या तुम्हारे परिवार को नुकसान पहुँचाता है या उसके द्वारा तुम्हें पहुँचाया गया नुकसान तुम्हारे पूरे जीवन को प्रभावित करता है तो क्या तुम फिर भी इस कहावत का पालन कर सकते हो कि “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो”? उदाहरण के लिए, अगर किसी ने तुम्हारे माता-पिता को मार डाला और तुम्हारे परिवार के बाकी लोगों को भी मारना चाहता है, तो क्या तुम इस कहावत पर अमल कर सकते हो कि “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो”? (नहीं, मैं नहीं कर सकता।) हाड़-मांस का कोई भी सामान्य व्यक्ति ऐसा नहीं कर पाएगा। यह कहावत लोगों की गहरी घृणा को बिल्कुल नहीं रोक सकती, और बेशक यह इस मामले पर लोगों के रवैये और राय को प्रभावित तो बिल्कुल भी नहीं कर सकती। अगर कोई जानबूझकर या अनजाने में तुम्हारे हितों को नुकसान पहुँचा दे या तुम्हारी भविष्य की संभावनाओं को प्रभावित कर दे या तुम्हें शारीरिक नुकसान पहुँचा दे, तुम्हें अपंग या जख्मी कर दे या तुम्हारे मानस-पटल और अंतरतम पर ग्रहण लगा दे तो क्या तुम इस कहावत का पालन कर सकते हो, “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो”? (नहीं।) तुम नहीं कर सकते। तो, परंपरागत संस्कृति लोगों से अपने नैतिक आचरण में सहिष्णु और उदार होने की अपेक्षा करती है, पर क्या लोग ऐसा कर सकते हैं? ऐसा करना आसान काम नहीं है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि मामले ने संबंधित व्यक्ति को कितना नुकसान पहुँचाया और प्रभावित किया है, और उसका जमीर और विवेक उसे झेल सकता है या नहीं। अगर कोई बड़ा नुकसान नहीं हुआ है और वह व्यक्ति उसे सह सकता है और वह उस सीमा से अधिक नहीं है जिसे उसकी मानवता सह सकती है, यानी एक सामान्य वयस्क के रूप में वह इन चीजों को झेल सकता है और रोष और घृणा दूर की जा सकती है और उन्हें छोड़ना अपेक्षाकृत आसान है, तो वह दूसरे व्यक्ति के साथ सहिष्णु और उदार हो सकता है। तुम परंपरागत संस्कृति से तुम्हें नियंत्रित करने, सिखाने और क्या करना है इस बारे में मार्गदर्शन करने के लिए नैतिक आचरण संबंधी किसी कहावत के बिना भी ऐसा कर सकते हो क्योंकि यह ऐसी चीज है जो सामान्य मानवता में है और ऐसा किया जा सकता है। अगर इस मामले ने तुम्हें बहुत अधिक चोट नहीं पहुँचाई है या शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक रूप से तुम पर बड़ा असर नहीं डाला है तो तुम इसे आसानी से कर सकते हो। लेकिन अगर उसने शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक रूप से तुम पर इतना बड़ा प्रभाव डाला है कि वह तुम्हें पूरे जीवन परेशान करता है, अक्सर तुम्हें उदास और निराश कर देता है, उसकी वजह से तुम अक्सर खिन्न और हताश महसूस करते हो, उसके कारण तुम इस मानवजाति और इस दुनिया को शत्रु समझते हो, तुम्हारे दिल में कोई चैन या खुशी नहीं है और तुम व्यावहारिक रूप से अपना सारा जीवन घृणा में जीते हो, यानी, अगर वह मामला सामान्य मानवता की सहन-शक्ति से परे चला गया है तो जमीर और विवेक रखने वाले व्यक्ति के रूप में जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनना बहुत मुश्किल है। अगर कुछ लोग ऐसा कर सकते हैं तो वे अपवाद हैं, लेकिन यह किस पर आधारित होना चाहिए? किस तरह की शर्तें पूरी होनी चाहिए? कुछ लोग कहते हैं : “तो उन्हें बौद्ध धर्म स्वीकार लेना चाहिए और बुद्धत्व प्राप्त करने के लिए घृणा त्याग देनी चाहिए।” यह आम लोगों के बीच मुक्ति का मार्ग हो सकता है, लेकिन यह केवल मुक्ति है। वैसे इस शब्द “मुक्ति” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है सांसारिक विवादों, घृणा और हत्या से दूर रहना, और यह “दृष्टि से ओझल, दिमाग से ओझल” कहावत के समान है। अगर तुम ऐसे मामलों से दूर रहते हो और उन्हें देख नहीं पाते, तो उनका तुम्हारी अंतरतम भावनाओं पर बहुत कम प्रभाव पड़ेगा और समय बीतने के साथ वे धीरे-धीरे तुम्हारी याददाश्त से मिट जाएँगी। लेकिन यह इस कहावत का पालन करना नहीं है कि “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो।” लोग इस मामले में उदार या क्षमाशील और सहिष्णु होने और इसे हमेशा के लिए छोड़ पाने में सक्षम नहीं हैं। ये मामले लोगों के दिलों की अंतरतम गहराइयों से सिर्फ धुँधले पड़ गए हैं और वे अब इनकी परवाह नहीं करते। या यह सिर्फ कुछ बौद्ध शिक्षाओं के कारण है कि लोग अनिच्छा से घृणा के साथ जीना बंद कर देते हैं और प्यार और घृणा की इन सांसारिक भावनाओं में फँस जाते हैं। यह सिर्फ प्रेम और घृणा से भरे विवाद और संघर्ष के इन स्थानों से दूर रहने के लिए खुद को निष्क्रिय रूप से मजबूर करना है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि कोई इस कहावत पर अमल कर सकता है कि “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो।” ऐसा क्यों है? जहाँ तक सामान्य मानवता का संबंध है, अगर व्यक्ति के साथ कुछ ऐसा होता है जो उसके तन-मन और आत्मा को गंभीर नुकसान पहुँचाता है, जैसे कि असहनीय दबाव या चोट, तो चाहे उसमें कितनी भी क्षमताएँ क्यों न हों, वह इसे सहन नहीं कर सकता। “इसे सहन नहीं कर सकता” से मेरा क्या मतलब है? मेरा मतलब है कि लोगों की सामान्य मानवता, विचार और दृष्टिकोण ये चीजें सहने या इन्हें दूर करने में असमर्थ हैं। मनुष्य की भाषा में कहा जा सकता है कि वे इसे सहन नहीं कर सकते, कि यह मनुष्य की सहनशीलता की सीमा से परे है। विश्वासियों की भाषा में कहा जा सकता है कि वे इस मामले को समझ नहीं सकते, बूझ नहीं सकते या स्वीकार नहीं सकते। इसलिए, चूँकि घृणा की इन भावनाओं को सहने या इन्हें दूर करने का कोई संभव तरीका नहीं है, तो क्या इस कहावत का पालन करना संभव है कि “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो”? (नहीं।) ऐसा न कर पाने का निहितार्थ क्या है? निहितार्थ यह है कि सामान्य मानवता में इस प्रकार की दरियादिली नहीं होती। उदाहरण के लिए, मान लो किसी ने तुम्हारे माता-पिता को मार डाला और तुम्हारे पूरे परिवार को मिटा दिया, तो क्या तुम इस तरह की चीज भुला सकते हो? क्या यह नफरत दूर करना संभव है? क्या तुम अपने शत्रु को उस तरह देख सकते हो जैसे आम लोगों को देखते हो या अपने शत्रु के बारे में उस तरह सोच सकते हो जैसे तुम आम लोगों के बारे में सोचते हो, और तुम्हारे तन-मन या आत्मा में कोई एहसास न हो? (नहीं।) कोई भी ऐसा नहीं कर सकता, जब तक कि वह बौद्ध धर्म में विश्वास न करता हो और उसने खुद अपनी आँखों से कर्म-फल न देख लिया हो ताकि वह बदला लेने के लिए हत्या का विचार छोड़ सके। कुछ लोग कहते हैं : “मैं नेकदिल हूँ, इसलिए अगर किसी ने मेरे माता-पिता को मार डाला तो मैं उसके प्रति उदार हो सकता हूँ और उससे बदला नहीं लूँगा क्योंकि मैं कर्म-फल में बहुत विश्वास करता हूँ। ‘मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो’ कहावत इसे अच्छी तरह समझाती है : अगर बदला बदले को जन्म देता है तो क्या इसका कभी अंत होगा? यही नहीं, उसने पहले ही अपनी गलती मान ली है, यहाँ तक कि अपने हाथों और घुटनों के बल बैठकर मुझसे माफी भी माँग ली है। हिसाब बराबर हो गया है, मैं उसके प्रति उदार बनूँगा!” क्या लोग इतने उदार हो सकते हैं? (नहीं।) वे ऐसा नहीं कर सकते। उसे पकड़ने पर तुम क्या कर सकते हो, यह बात तो छोड़ ही दो, उसे पकड़ने से पहले भी तुम रोज लगातार बस बदला लेने के बारे में सोचते रहते हो। चूँकि इस मामले ने तुम्हें बहुत आहत किया है और तुम पर बहुत असर डाला है, इसलिए एक सामान्य व्यक्ति के नाते तुम निश्चित रूप से इसे जीते-जी कभी नहीं भूलोगे। यहाँ तक कि अपने सपनों में भी तुम अपने परिवार के मारे जाने और अपना बदला लेने की तस्वीरें ही देखोगे। यह मामला तुम्हें शेष पूरे जीवन, तुम्हारी आखिरी साँस तक प्रभावित कर सकता है। इस तरह की घृणा आसानी से छोड़ी ही नहीं जा सकती। बेशक, इससे थोड़े कम गंभीर मामले भी हैं। उदाहरण के लिए, मान लो किसी ने तुम्हें सार्वजनिक रूप से थप्पड़ मारा, सबके सामने शर्मिंदा और बेइज्जत कर अकारण तुम्हारा अपमान किया। तब से बहुत-से लोग तुम्हें घृणा की नजर से देखते हैं, यहाँ तक कि तुम्हारा मजाक भी उड़ाते हैं, इसलिए तुम लोगों के आसपास रहने में शर्म महसूस करते हो। यह तुम्हारे माता-पिता और परिवार के सदस्यों को मारने से कहीं कम गंभीर है। फिर भी, इस कहावत का पालन करना कठिन है कि “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो” क्योंकि तुम्हारे साथ हुई ये चीजें पहले ही सामान्य मानवता की सहनशीलता की सीमा से परे हैं। इन्होंने तुम्हें बहुत अधिक शारीरिक-मानसिक नुकसान पहुँचाया है, और तुम्हारी गरिमा और चरित्र को बहुत आहत किया है। तुम्हारे इन्हें भूल पाने या छोड़ सकने का कोई उपाय नहीं है, इसलिए तुम्हारे लिए इस कहावत का पालन करना बहुत मुश्किल है कि “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो”—जो सामान्य है।
जिन पहलुओं पर हमने अभी-अभी संगति की, उन्हें देखते हुए परंपरागत चीनी संस्कृति की नैतिक आचरण संबंधी यह कहावत “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो,” एक ऐसा सिद्धांत है जो लोगों को संयमित और प्रबुद्ध करता है। यह सिर्फ छोटे-मोटे विवाद और तुच्छ संघर्ष ही हल कर सकती है, लेकिन जब गहरी नफरत पालने वाले लोगों की बात आती है तो इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। क्या यह अपेक्षा सामने रखने वाले लोग वास्तव में मनुष्य की मानवता को समझते हैं? कहा जा सकता है कि यह अपेक्षा सामने रखने वाले लोग किसी भी तरह से इस बात से अनभिज्ञ नहीं हैं कि इंसानी जमीर और विवेक की सहनशीलता का दायरा कितना बड़ा है। बस इतना है कि यह सिद्धांत सामने रखने से वे दुनियादार और नेक दिखाई दे सकते हैं और लोगों की स्वीकृति और चापलूसी अर्जित कर सकते हैं। तथ्य यह है कि वे अच्छी तरह जानते हैं कि अगर कोई व्यक्ति किसी की गरिमा या चरित्र को ठेस पहुँचाता है, उसके हितों को नुकसान पहुँचाता है या उसकी भविष्य की संभावनाओं और उसके पूरे जीवन पर भी असर डालता है, तो मानव-प्रकृति के दृष्टिकोण से आहत पक्ष को प्रतिकार करना चाहिए। चाहे उसमें कितना भी जमीर और विवेक क्यों न हो, वह उसे चुपचाप बरदाश्त नहीं करेगा। ज्यादा से ज्यादा, उसके प्रतिशोध की मात्रा और तरीका ही भिन्न होगा। इस वास्तविक समाज में, इस बेहद अँधेरे और बुरे सामाजिक परिवेश और सामाजिक संदर्भ में, जिसमें लोग रहते हैं, जिसमें मानवाधिकारों का अस्तित्व नहीं है, लोगों ने कभी एक-दूसरे से लड़ना और एक-दूसरे को मारना बंद नहीं किया है, सिर्फ इसलिए कि जब भी वे आहत होते हैं, वे बदला ले सकते हैं। वे जितने ज्यादा गंभीर रूप से आहत होते हैं, बदला लेने की उनकी इच्छा उतनी ही प्रबल होती है और जिन तरीकों से वे बदला लेते हैं, वे उतने ही ज्यादा क्रूर होते हैं। तो इस समाज में प्रचलित प्रवृत्तियाँ कैसी होंगी? लोगों के बीच संबंधों का क्या होगा? क्या समाज में मारकाट और बदले की भरमार नहीं हो जाएगी? इसलिए, यह अपेक्षा सामने रखने वाला व्यक्ति नैतिक आचरण की इस कहावत का उपयोग करते हुए कि—“मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो”—लोगों के व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए उनसे बहुत ही अप्रत्यक्ष तरीके से प्रतिशोध न लेने के लिए कह रहा है। जब भी लोगों के साथ अनुचित व्यवहार होता है या उनके चरित्र पर लांछन लगता है या उनकी गरिमा को ठेस पहुँचती है, नैतिक आचरण की यह कहावत उन लोगों को कुछ कर गुजरने से पहले दो बार सोचने के लिए प्रेरित कर प्रभावित करती है, और उन्हें आवेश में आने और अति-प्रतिक्रिया करने से रोकती है। अगर इस समाज के लोग अपने साथ अनुचित व्यवहार होने पर, चाहे वह राज्य द्वारा किया जाए या समाज द्वारा या अपने संपर्क में आने वाले लोगों द्वारा, बदला लेना चाहें, तो क्या इस मानवजाति और इस समाज को सँभालना मुश्किल नहीं होगा? जहाँ भी भीड़ होगी, वहाँ झगड़े अपरिहार्य हो जाएँगे और बदला लेना एक सामान्य घटना बन जाएगी। तो क्या तब यह मानवजाति और यह समाज अराजकता में नहीं पड़ जाएँगे? (बिल्कुल।) अराजकता में पड़े समाज को सँभालना शासकों के लिए आसान होता है, या नहीं? (नहीं, उसे सँभालना आसान नहीं होता।) इसी कारण से उन तथाकथित सामाजिक शिक्षकों और विचारकों ने लोगों को समझाने और प्रबुद्ध करने के लिए नैतिक आचरण की यह कहावत सामने रखी कि “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो”, ताकि जब भी उनके साथ कोई अनुचित व्यवहार या भेदभाव हो या उनका अपमान किया जाए, या उनका उत्पीड़न तक हो या उन्हें कुचल ही क्यों न दिया जाए, और चाहे उनकी आध्यात्मिक या शारीरिक पीड़ा कितनी भी बड़ी क्यों न हो, वे पहले बदला लेने की न सोचें, बल्कि नैतिकता की इस उत्कृष्ट कहावत के बारे में सोचें, “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो,” जिससे वे अनजाने ही परंपरागत संस्कृति की नैतिक आचरण संबंधी इन कहावतों के नियंत्रण स्वीकार कर लें और इस प्रकार अपने विचारों और व्यवहार को प्रभावी ढंग से नियंत्रित कर दूसरों के प्रति, राज्य के प्रति और समाज के प्रति अपनी घृणा दूर कर लें। जब मानव-प्रकृति में अनिवार्य रूप से मौजूद यह शत्रुता और रोष और अपनी गरिमा बचाने के ये सहज विचार दूर कर दिए जाएँगे, तो क्या इस समाज में लोगों के बीच संघर्ष और प्रतिशोध बड़ी मात्रा में कम हो जाएँगे? (हाँ।) उदाहरण के लिए, कुछ लोग कहते हैं : “चलो, झगड़ा खत्म करते हैं, समझौते से संघर्ष सुलटना आसान हो जाएगा। कहा जाता है कि ‘मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो।’ मेरे परिवार को मारने के लिए उसके अपने कारण थे। ताली एक हाथ से नहीं बजती और दोनों पक्ष अपने-अपने तर्क से चिपके रहते हैं। इसके अलावा, मेरा परिवार वर्षों पहले मर चुका है, गड़े मुर्दे उखाड़ने से क्या फायदा? जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो—लोगों को अपनी घृणा छोड़ पाने के लिए उदार होना सीखना चाहिए, अपनी घृणा छोड़कर ही वे जीवन में खुश रह सकते हैं।” और भी लोग हैं जो कहते हैं : “जो बीत गई सो बात गई। अगर वह मेरे प्रति छोटी-मोटी शिकायतें नहीं रखता या मुझे पहले की तरह दुश्मनी की नजर से नहीं देखता, तो मैं भी उससे झगड़ा नहीं करूँगा, हम बस नए सिरे से शुरुआत करेंगे। जैसी कि कहावत है, ‘मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो।’” अगर ऐसे लोग, चाहे वे कोई भी हों, जब प्रतिशोध लेने वाले हों, तभी अचानक खुद पर लगाम लगा लें, तो क्या उनके तमाम शब्द, कार्य और सैद्धांतिक आधार अनिवार्य रूप से “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो” जैसे विचारों और दृष्टिकोणों के प्रभाव से उत्पन्न नहीं होते? (हाँ, होते हैं।) और भी लोग हैं, जो कहते हैं : “ये तमाम तर्क-वितर्क क्यों? तुम इतने अच्छे इंसान हो, फिर भी, इतनी छोटी-सी बात भी नहीं छोड़ सकते! महापुरुषों का दिल दरिया होता है। कम से कम, थोड़ी उदारता बरतो! क्या लोगों को जीवन में थोड़ा उदार नहीं होना चाहिए? एक कदम पीछे हटो और छोटी-छोटी शिकायतें पकड़े रखने के बजाय बड़ी तस्वीर देखो। यह निरर्थक बहसबाजी करते देखना हास्यास्पद है।” ये कहावतें और विचार सांसारिक मामलों के प्रति एक प्रकार के इंसानी रवैये को सारांशित करते हैं, ऐसे रवैये को जो सिर्फ “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो” और नैतिकता की ऐसी ही अन्य उत्कृष्ट कहावतों से आते हैं। लोग इन कहावतों से प्रेरित और प्रभावित होते हैं, और उन्हें लगता है कि ये लोगों को समझाने और प्रबुद्ध करने में कुछ भूमिका निभाती हैं, इसलिए वे इन चीजों को सही और उचित मानते हैं।
ऐसा क्यों है कि लोग नफरत त्याग सकते हैं? इसके मुख्य कारण क्या हैं? एक ओर, वे नैतिक आचरण संबंधी इस कहावत से प्रभावित होते हैं—“मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो।” दूसरी ओर, वे इस विचार से चिंतित होते हैं कि अगर वे मन में छोटी-मोटी शिकायतें पालेंगे, लगातार लोगों से घृणा करेंगे और दूसरों के प्रति असहिष्णु रहेंगे तो वे समाज में एक मुकाम हासिल करने में असमर्थ होंगे, जनमत उनकी निंदा करेगा और लोग उनकी हँसी उड़ाएँगे, इसलिए उन्हें मन मारकर और अनिच्छा से अपना गुस्सा पी लेना चाहिए। एक ओर, इंसानी प्रवृत्ति को देखते हुए इस संसार में रहने वाले लोग यह सब अत्याचार, निर्मम चोट और अनुचित व्यवहार सहन नहीं कर सकते। कहने का तात्पर्य यह है कि ये चीजें सहन कर पाना मानव-प्रकृति में नहीं है। इसलिए, किसी से भी यह अपेक्षा रखना अनुचित और अमानवीय है कि “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो।” दूसरी ओर, यह स्पष्ट है कि इस तरह के विचार और दृष्टिकोण इन मामलों पर लोगों के विचारों और परिप्रेक्ष्यों को प्रभावित या विकृत भी करते हैं, इसलिए वे ऐसे मामलों को ठीक से लेने में असमर्थ रहते हैं, बल्कि “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो” जैसी कहावतों को सही और सकारात्मक चीजें समझते हैं। जब लोगों के साथ अनुचित व्यवहार किया जाता है, तो जनमत की निंदा से बचने के लिए उनके पास अपने अपमान और अपने साथ हुए भेदभाव को दबा देने और प्रतिशोध का अवसर मिलने की प्रतीक्षा करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता। भले ही वे पुरजोर अच्छी-अच्छी बातें कहते हों, जैसे “‘मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो।’ भूल जाओ, प्रतिशोध में कुछ नहीं रखा, बात पुरानी पड़ चुकी है,” लेकिन मानव-प्रवृत्ति उन्हें इस घटना से हुआ नुकसान भूलने से हमेशा रोकती है, यानी इससे उनके तन-मन को जो नुकसान हुआ होता है, वह कभी मिटाया या धूमिल नहीं किया जा सकता। जब लोग कहते हैं, “नफरत भूल जाओ, यह मामला खत्म हो गया है, बात पुरानी पड़ चुकी है,” तो यह सिर्फ “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो” जैसे विचारों और दृष्टिकोणों की बाध्यता और प्रभाव से बना एक मुखौटा होता है। बेशक, लोग भी इस तरह के विचारों और दृष्टिकोणों से इस हद तक बँधे होते हैं कि वे सोचते हैं कि अगर वे इन्हें अमल में लाने में सफल नहीं होते, अगर उनमें जहाँ कहीं भी संभव हो, उदार होने का दिल या उदारता नहीं है, तो सभी उन्हें हेय दृष्टि से देखेंगे और उनकी निंदा करेंगे, और समाज में या उनके समुदाय के भीतर उनके साथ और भी ज्यादा भेदभाव किया जाएगा। भेदभाव किए जाने का क्या परिणाम होता है? यही कि जब तुम लोगों के संपर्क में आकर अपना रोजमर्रा का काम करोगे तो वे कहेंगे, “यह आदमी ओछा और प्रतिशोधी है। इसके साथ पेश आते समय सावधान रहना!” जब तुम समुदाय के भीतर अपना रोजमर्रा का काम करते हो तो यह प्रभावी रूप से एक अतिरिक्त बाधा बन जाता है। यह अतिरिक्त बाधा क्यों होती है? क्योंकि “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो” जैसे विचारों और दृष्टिकोणों से समाज समग्र रूप से प्रभावित होता है। समग्र रूप से समाज के रीति-रिवाज इस तरह की सोच का सम्मान करते हैं और पूरा समाज इससे सीमित, प्रभावित और नियंत्रित होता है, इसलिए अगर तुम इसे अमल में नहीं ला सकते तो समाज में पैर जमाना और अपने समुदाय के भीतर बचे रहना मुश्किल होगा। इसलिए, कुछ लोगों के पास दयनीय जीवन जीते हुए इस तरह के सामाजिक रीति-रिवाजों के आगे सिर झुकाने और “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो” जैसी कहावतों और विचारों का पालन करने के सिवाय कोई विकल्प नहीं होता। इन परिघटनाओं के आलोक में क्या नैतिक विचारों और दृष्टिकोणों के बारे में ये चीजें सामने रखने में तथाकथित नैतिकतावादियों के कुछ उद्देश्य और इरादे नहीं थे? क्या उन्होंने ऐसा इसलिए किया कि मनुष्य ज्यादा स्वतंत्रता से जी सकें और उनका तन-मन और आत्मा ज्यादा मुक्त हो सकें? या इसलिए कि लोग सुखी जीवन जी सकें? बिल्कुल भी नहीं। नैतिक आचरण की ये कहावतें लोगों की सामान्य मानवता की जरूरतें बिल्कुल भी पूरी नहीं करतीं और ये खास तौर से इसलिए तो नहीं बनाई गईं कि लोग सामान्य मानवता को जी सकें। बल्कि, ये पूरी तरह लोगों को नियंत्रित कर अपनी सत्ता स्थिर करने की शासक-वर्ग की महत्वाकांक्षा पूरी करती हैं। ये शासक वर्ग के काम आती हैं और इसलिए बनाई गई थीं कि शासक वर्ग हर मनुष्य, हर परिवार, हर व्यक्ति, हर समुदाय, हर समूह और तमाम समूहों से मिलकर बने समाज को बाध्य करने के लिए इन चीजों का उपयोग करके सामाजिक व्यवस्था और सामाजिक रीति-रिवाजों पर नियंत्रण रख सके। ऐसे समाजों में ही, ऐसे नैतिक विचारों और दृष्टिकोणों के शिक्षण, प्रभाव और मतारोपण के तहत, समाज के मुख्यधारा के नैतिक विचार और दृष्टिकोण उभरकर आकार लेते हैं। यह सामाजिक नैतिकता और सामाजिक रीति-रिवाजों का आकार लेना मानवजाति के अस्तित्व के लिए ज्यादा अच्छा नहीं रहा, न ही यह मानव-विचार की प्रगति और शुद्धि के लिए ही ज्यादा अच्छा है, न ही यह मानवता की वृद्धि के लिए ज्यादा अच्छा है। इसके विपरीत इन नैतिक विचारों और दृष्टिकोणों के उद्भव के कारण इंसानी सोच एक नियंत्रणीय दायरे के भीतर ही सीमित है। तो, अंत में लाभ किसे होता है? मानवजाति को? या शासक वर्ग को? (शासक वर्ग को।) सही कहा, यह शासक वर्ग ही है जिसे अंत में लाभ होता है। ये नैतिक शास्त्र मनुष्यों की सोच और नैतिक आचरण का आधार होने के कारण उन पर शासन करना आसान है, उनके आज्ञाकारी नागरिक होने की ज्यादा संभावना है, उन्हें बरगलाना आसान है, वे जो कुछ भी करते हैं उसमें वे नैतिक शास्त्रों की तमाम कहावतों से ज्यादा आसानी से शासित होते हैं, और वे सामाजिक प्रणालियों, सामाजिक नैतिकता, सामाजिक रीति-रिवाजों और जनमत से और भी अधिक आसानी से शासित होते हैं। इस तरह जो लोग समान सामाजिक प्रणालियों, नैतिक परिवेश और सामाजिक रीति-रिवाजों के अधीन होते हैं, एक हद तक उनके मूल रूप से सर्वसम्मत विचार और दृष्टिकोण होते हैं, और आचरण की एक सर्वसम्मत कसौटी होती है क्योंकि तथाकथित नैतिकतावादी, विचारक और शिक्षक उनके विचारों और दृष्टिकोणों को प्रसंस्करण और मानकीकरण की प्रक्रिया से गुजार चुके हैं। इस “सर्वसम्मत” शब्द का क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि जिन लोगों पर शासन किया जाता है उन सभी को—उनके विचारों और उनकी सामान्य मानवता सहित—नैतिक शास्त्रों की इन कहावतों ने एक-सा और सीमित कर दिया है। लोगों के विचार सीमाबद्ध कर दिए जाते हैं और साथ ही उनकी जुबान और दिमाग भी सीमित कर दिए जाते हैं। सभी को परंपरागत संस्कृति के इन नैतिक विचारों और दृष्टिकोणों को स्वीकारने के लिए बाध्य किया जाता है, एक ओर इनका इस्तेमाल अपने ही व्यवहार का आकलन कर उसे बाधित करने के लिए किया जाता है, तो दूसरी ओर अन्य लोगों और इस समाज का आकलन करने के लिए। बेशक, साथ ही वे जनमत से भी नियंत्रित होते हैं जो नैतिक शास्त्रों से आई इन कहावतों पर केंद्रित होता है। अगर तुम सोचते हो कि काम करने का तुम्हारा तरीका इस कहावत का उल्लंघन करता है कि “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो,” तो तुम बहुत परेशान और असहज हो जाते हो, और तुम्हारे मन में यह बात आते देर नहीं लगती कि “अगर मैं जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार नहीं हो पाता, अगर मैं लिलिपुट के कुछ बौनों की तरह बहुत तुच्छ और ओछा हूँ, और मैं थोड़ी-सी नफरत भी नहीं छोड़ सकता, बल्कि इसे हर समय ओढ़े रहता हूँ, तो क्या मेरी हँसी नहीं उड़ाई जाएगी? क्या सहकर्मी और दोस्त मेरे साथ भेदभाव नहीं करेंगे?” इसलिए, तुम्हें विशेष रूप से उदार होने का दिखावा करना होगा। अगर लोगों के ये व्यवहार हैं, तो क्या इसका यह मतलब है कि वे जनमत से नियंत्रित होते हैं? (बिल्कुल।) निष्पक्ष रूप से कहा जाए तो, तुम्हारे दिल की गहराई में अदृश्य बेड़ियाँ हैं, यानी जनमत और पूरे समाज की निंदा तुम्हारे लिए अदृश्य बेड़ियों की तरह हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग जानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करना अच्छा है और परमेश्वर में विश्वास करके वे उद्धार प्राप्त कर सकते हैं, और परमेश्वर में विश्वास करने का अर्थ है सही मार्ग पर चलना और बुरे काम न करना, लेकिन जब वे पहली बार परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो वे इसके बारे में खुलकर बात करने या अपनी आस्था स्वीकारने की हिम्मत नहीं करते, यहाँ तक कि सुसमाचार फैलाने की हिम्मत भी नहीं करते। वे इसके बारे में खुलकर बात करने और लोगों को बताने की हिम्मत क्यों नहीं करते? क्या वे समग्र परिवेश से प्रभावित होते हैं? (हाँ।) तो इस समग्र परिवेश का तुम पर क्या प्रभाव और बाध्यताएँ होती हैं? तुम यह स्वीकारने का साहस क्यों नहीं करते कि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो? तुम लोग सुसमाचार फैलाने का साहस क्यों नहीं करते? अधिनायकवादी देशों जैसे विशेष मामलों के अलावा, जहाँ आस्थावान लोगों को सताया जाता है, एक और कारण यह है कि जनमत से आने वाली विभिन्न कहावतें तुम्हारे लिए असह्य होती हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग कहते हैं कि जब तुम धर्म में विश्वास करना शुरू कर देते हो तो तुम अपने परिवार की परवाह नहीं करते; कुछ लोग यह कहते हुए तुम्हें शैतान के रूप में चित्रित करने लगते हैं कि धर्म में विश्वास करने वाले अमर होना चाहते हैं और वे खुद को समाज से अलग कर लेते हैं; दूसरे लोग कहते हैं कि विश्वासी बिना खाए रह सकते हैं और थकान महसूस किए बिना कई दिनों तक सोते नहीं; और कुछ दूसरे लोग इससे भी बुरी बातें कहते हैं। शुरुआत में क्या तुम लोगों ने यह स्वीकारने का साहस नहीं किया कि तुम परमेश्वर में इसलिए विश्वास करते थे क्योंकि तुम इन मतों से प्रभावित थे? क्या समग्र सामाजिक परिवेश में इन विचारों का तुम पर प्रभाव पड़ता है? (हाँ।) कुछ हद तक ये तुम्हारी मनोदशा को प्रभावित करते हैं और तुम्हारे अभिमान को ठेस पहुँचाते हैं, इसलिए तुम खुले तौर पर यह स्वीकारने की हिम्मत नहीं करते कि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो। चूँकि यह समाज आस्थावान लोगों और परमेश्वर में विश्वास करने वालों के प्रति अमित्रवत और शत्रुतापूर्ण है, और कुछ लोग नीचतापूर्ण अपमानजनक बातें और निंदात्मक टिप्पणियाँ भी करते हैं जो तुम्हारे लिए असह्य होती हैं, इसलिए तुम खुले तौर पर यह स्वीकारने की हिम्मत नहीं करते कि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, और तुम्हें चोरों की तरह छिपकर सभाओं में जाना पड़ता है। तुम डरते हो कि अगर दूसरों को पता चला तो वे निंदात्मक बातें कहेंगे, इसलिए तुम बस यही कर सकते हो कि अपना आक्रोश दबा लो। इस तरह, तुमने चुपचाप बहुत पीड़ा सही है, लेकिन यह तमाम पीड़ा सहना बहुत शिक्षाप्रद है और तुमने बहुत-सी चीजों में एक स्पष्ट अंतर्दृष्टि प्राप्त की है और कुछ सत्य समझे हैं।
अभी-अभी हमने नैतिक आचरण के बारे में इस कहावत पर व्यापक रूप से संगति की है, “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो।” मानवता के परिप्रेक्ष्य से यह कहावत वह न्यूनतम नैतिक आचरण तय करती है जो उदारता और व्यापक सोच के मामले में किसी व्यक्ति में होना चाहिए। तथ्य यह है कि लोगों के मानवाधिकारों, गरिमा, निष्ठा और मानवता को होने वाले नुकसान और उन पर पड़ने वाले प्रभाव के आलोक में, लोगों को दिलासा देने और विवश करने के लिए सिर्फ अपराध-जगत के लुटेरों और डाकुओं की विशिष्ट शब्दावली जैसी इस कहावत का उपयोग करना कि “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो,” जमीर और विवेक वाले लोगों का बहुत बड़ा अपमान है, और यह अमानवीय और अनैतिक है। सामान्य मानवता में स्वाभाविक रूप से आनंद, क्रोध, दुख और खुशी होती है। मैं आनंद, दुख और खुशी के बारे में और कुछ नहीं कहूँगा। क्रोध भी एक भावना है, जो सामान्य मानवता में होती है। क्रोध किन परिस्थितियों में उत्पन्न और सामान्य रूप से अभिव्यक्त होता है? जब सामान्य मानवता का रोष खुद अभिव्यक्त होता है—अर्थात, जब लोगों की निष्ठा, गरिमा, हितों और उनकी आत्मा और मन को चोट पहुँचती है, उन्हें पैरों तले कुचला और अपमानित किया जाता है तो वे स्वाभाविक रूप से और सहज प्रेरणा से क्रोधित हो जाते हैं, आक्रोश या नफरत तक को जन्म दे देते हैं—यही कारण है कि क्रोध उत्पन्न होता है, और यही उसकी विशिष्ट अभिव्यक्ति है। कुछ लोग अकारण ही क्रोधित हो जाते हैं। कोई छोटी-सी बात भी उनके क्रोध को भड़का सकती है या कोई गलती से कुछ ऐसा कह देता है जिससे उन्हें ठेस पहुँचती है और इससे उनकी आँखें क्रोध से लाल हो सकती हैं। वे बहुत गर्ममिजाज होते हैं, है न? इनमें से कोई भी चीज उनके जोश, निष्ठा, गरिमा, मानवाधिकारों या आध्यात्मिक दुनिया से संबंधित नहीं होती, फिर भी वे अकारण आगबबूला हो सकते हैं, शायद इसलिए कि वे बहुत गर्ममिजाज होते हैं। जो भी दिखे, उसी चीज पर क्रोध दिखाना सामान्य नहीं है। हम यहाँ जिस बारे में बात कर रहे हैं, वह सामान्य मानवता द्वारा अभिव्यक्त किया गया आक्रोश, क्रोध, रोष और नफरत है। ये कुछ लोगों की सहज प्रतिक्रियाएँ हैं। जब व्यक्ति की निष्ठा, गरिमा, मानवाधिकार और आत्मा को कुचला जाता है, अपमानित किया जाता है या ठेस पहुँचाई जाती है, तो वह व्यक्ति आक्रोश से भर जाता है। यह आक्रोश नाराजगी का क्षणिक दौरा नहीं होता, न ही यह कोई क्षणिक भावना होती है, बल्कि यह व्यक्ति की निष्ठा, गरिमा और आत्मा को जख्मी किए जाने पर होने वाली एक सामान्य मानवीय प्रतिक्रिया होती है। चूँकि यह एक सामान्य मानवीय प्रतिक्रिया है, इसलिए कहा जा सकता है कि यह प्रतिक्रिया उचित और तर्कसंगत है, इसलिए यह कोई अपराध नहीं है और इसे रोके जाने की जरूरत नहीं है। जहाँ तक उन समस्याओं का सवाल है जो लोगों को इस हद तक चोट पहुँचाती हैं, उन्हें सुलझाया जाना चाहिए और उनसे उचित तरीके से निपटा जाना चाहिए। अगर मामला यथोचित रूप से हल नहीं किया जा सकता या उचित रूप से नहीं निपटाया जा सकता, और “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो” कहावत को अमल में लाने की लोगों से अनुचित रूप से अपेक्षा की जाती है, तो यह पीड़ित के लिए अनैतिक और अमानवीय है, और ऐसी चीज है जिससे लोगों को अवगत होना चाहिए।
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