सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (8) भाग तीन

अगर लोग अपने स्वभाव बदलना और उद्धार प्राप्त करना चाहते हैं, तो उनके पास न सिर्फ दृढ़ संकल्प होना चाहिए, बल्कि एक अदम्य मानसिकता भी होनी चाहिए। उन्हें अपनी असफलताओं से अनुभव प्राप्त करना चाहिए, और अपने अनुभव से अभ्यास का मार्ग प्राप्त करना चाहिए। असफल होने पर नकारात्मक और हतोत्साह न हो और निश्चित रूप से हार न मानो। लेकिन कोई मामूली लाभ मिलने से तुम्हें संतुष्ट भी नहीं हो जाना चाहिए। चाहे तुम कुछ करने में विफल या कमजोर हो जाओ, इसका मतलब यह नहीं कि तुम भविष्य में बचाए जाने में असमर्थ होगे। तुम्हें परमेश्वर के इरादों को समझना चाहिए, फिर से उठ खड़े होना चाहिए, परमेश्वर के वचनों का पालन करना चाहिए और अपने भ्रष्ट शैतानी स्वभावों से जूझना जारी रखना चाहिए। व्यक्ति को स्पष्ट रूप से उस नुकसान और बाधा को देखने से शुरू करना चाहिए, जो नैतिक आचरण के बारे में शैतान से आने वाली विभिन्न अपेक्षाओं और कहावतों से लोगों के सत्य के अनुसरण में आती है। ऐसा है कि नैतिक आचरण पर ये कहावतें लोगों के भ्रष्ट स्वभावों को बढ़ावा देने के साथ-साथ उनके मन को लगातार बाँधती और विवश करती हैं। निस्संदेह, ये लोगों द्वारा सत्य और परमेश्वर के वचनों की स्वीकृति को अलग-अलग मात्राओं में कम भी करती हैं, जिससे लोग सत्य पर संदेह और उसका विरोध करते हैं। ऐसी ही एक कहावत है “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो।” सांसारिक लेनदेनों के इस फलसफे ने लोगों की किशोर आत्माओं में जड़ें जमा ली हैं, और लोग अवचेतन रूप से दूसरों को देखने और अपने आसपास घटित होने वाली चीजों को सँभालने के तरीकों में इस तरह के विचारों और दृष्टिकोणों से प्रभावित होते हैं। ये विचार और दृष्टिकोण प्रभावशाली रूप से लोगों के भ्रष्ट स्वभावों के बीच दुष्टता, छल और द्वेष के स्वभावों की लीपापोती कर उन पर पर्दा डाल देते हैं। न सिर्फ वे भ्रष्ट स्वभावों की समस्या हल करने में विफल होते हैं, बल्कि वे लोगों को ज्यादा धूर्त और धोखेबाज भी बना देते हैं, जिससे लोगों के भ्रष्ट स्वभाव और भी बदतर बन जाते हैं। संक्षेप में, परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण के बारे में ये कहावतें और सांसारिक लेनदेनों के फलसफे न सिर्फ लोगों के विचारों और दृष्टिकोणों को प्रभावित करते हैं, बल्कि लोगों के भ्रष्ट स्वभावों पर भी गहरा प्रभाव डालती हैं। इसलिए, परंपरागत संस्कृति के “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” जैसे विचारों और दृष्टिकोणों द्वारा लोगों पर डाले जाने वाले प्रभाव को समझना जरूरी है। इसे नजरअंदाज नहीं करना है।

अभी-अभी हमने मुख्य रूप से इस बात पर संगति की कि जब लोगों के बीच विवाद उत्पन्न होते हैं, तो उन्हें परंपरागत संस्कृति की कहावतों और दृष्टिकोणों के जरिये देखा जाए, या परमेश्वर के वचनों और सत्य-सिद्धांतों के अनुसार; हमने यह संगति भी की कि परंपरागत संस्कृति के विचार समस्याओं का समाधान कर सकते हैं, या परमेश्वर के वचन और सत्य मनुष्य की समस्याओं का समाधान कर सकते हैं। जब लोग इन चीजों को स्पष्ट रूप से देख लेंगे, तो वे सही चुनाव करेंगे, और परमेश्वर के वचनों के सत्य के अनुसार दूसरों के साथ विवादों को सुलझाना आसान हो जाएगा। जब इस तरह की समस्याओं का समाधान हो जाता है, तो नैतिक आचरण पर “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” जैसी कहावत से लोगों के विचारों के प्रभावित होकर जकड़े जाने का मुद्दा भी मूल रूप से हल हो जाएगा। कम से कम, इस तरह के विचारों और दृष्टिकोणों से लोगों का व्यवहार प्रभावित नहीं होगा; वे शैतान के भ्रामक जाल से छूटने, परमेश्वर के वचनों से सत्य प्राप्त करने, लोगों के साथ मेलजोल करने के लिए सत्य-सिद्धांत खोजने, और परमेश्वर के वचनों को अपना जीवन बनाने में सक्षम होंगे। परंपरागत संस्कृति के त्रुटिपूर्ण विचारों और शैतानी फलसफों की बेड़ियों और बंधनों का परमेश्वर के वचनों के अनुसार विश्लेषण कर उन्हें पहचानने भर से व्यक्ति सत्य समझने और विवेक विकसित करने में सक्षम हो सकता है। यह व्यक्ति को शैतान का प्रभाव दूर करने और पाप के बंधन से मुक्त होने में सक्षम बनाता है। इस तरह, परमेश्वर के वचन और सत्य तुम्हारा जीवन बन जाते हैं, तुम्हारे उस पुराने जीवन की जगह ले लेते हैं जिसका सार शैतानी फलसफों और स्वभावों का था। तब तुम एक अलग ही व्यक्ति बन गए होगे। हालाँकि यह व्यक्ति अभी भी तुम ही होते हो, फिर भी यह एक नया ही व्यक्ति उभरा होता है, जो परमेश्वर के वचनों और सत्य को अपने जीवन के रूप में लेता है। क्या तुम लोग ऐसा व्यक्ति बनने के इच्छुक हो? (हाँ।) ऐसा व्यक्ति होना बेहतर है—कम से कम तुम खुश तो रहोगे। जब तुम पहली बार सत्य का अभ्यास करना शुरू करते हो, तो कठिनाइयाँ, बाधाएँ और पीड़ाएँ होंगी, लेकिन जब तक तुम परमेश्वर के वचनों में एक नींव स्थापित नहीं कर लेते, तब तक अगर तुम अपनी कठिनाइयाँ हल करने के लिए सत्य खोज सको, तो पीड़ा समाप्त हो जाएगी, और जैसे-जैसे तुम्हारा जीवन आगे बढ़ेगा, तुम ज्यादा खुश और सहज होते जाओगे। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्योंकि तुम्हारे भीतर उन नकारात्मक चीजों का प्रभाव और नियंत्रण धीरे-धीरे कम हो जाएगा, और जैसा कि आम तौर पर होता है, परमेश्वर के अधिक से अधिक वचन और सत्य तुममें प्रवेश करेंगे, और तुम्हारे हृदय में परमेश्वर के वचनों और सत्यों की छाप अधिकाधिक गहरी होती जाएगी। सत्य की खोज में तुम्हारी जागरूकता ज्यादा मजबूत और तेज हो जाएगी, और जब तुम पर मुसीबतें आएँगी, तब तुम्हारा आंतरिक मार्ग, दिशा और अभ्यास का लक्ष्य अधिकाधिक स्पष्ट हो जाएगा, और जब तुम आंतरिक रूप से लड़ोगे, तब सकारात्मक चीजें पहले से ज्यादा मजबूत हो जाएँगी। क्या तब तुम्हारे जीवन की खुशी बढ़ेगी नहीं? क्या वह शांति और आनंद, जो तुम परमेश्वर से प्राप्त करते हो, तब बढ़ेंगे नहीं? (वे बढ़ेंगे।) तुम्हारे जीवन में ऐसी चीजें कम होंगी, जो तुम्हें, अन्य नकारात्मक भावनाओं के बीच, व्यथित, पीड़ित, उदास और नाराज करें। इन चीजों के स्थान पर, परमेश्वर के वचन तुम्हारा जीवन बन जाएँगे, जो तुम्हारे लिए आशा, खुशी, आनंद, स्वतंत्रता, मुक्ति और सम्मान लाएँगे। जब ये सकारात्मक चीजें बढ़ेंगी, तो लोग पूरी तरह बदल जाएँगे। वह समय आने पर देखना कि तुम कैसा महसूस करते हो, और पहले की चीजों से इनकी तुलना करना : क्या ये जीवन जीने के तुम्हारे पिछले तरीके से पूरी तरह से अलग नहीं हैं? यह सिर्फ तभी होता है, जब तुमने शैतान के जाल और उसके भ्रष्ट स्वभावों, उसके विचारों और दृष्टिकोणों, साथ ही लोगों और चीजों को देखने और आचरण और कार्य करने के उसके विभिन्न तरीकों, दृष्टिकोणों और दार्शनिक सिद्धांतों को छोड़ दिया हो—यह सिर्फ तभी होता है, जब तुमने ये चीजें पूरी तरह से छोड़ दी हों, और तुम सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को देखने, दूसरों के साथ व्यवहार और मेलजोल करने में सक्षम होते हो, और परमेश्वर के वचनों में अनुभव करते हो कि लोगों के साथ सत्य-सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करना वास्तव में कितना अच्छा है, और तुम सुकून और आनंद का जीवन जीते हो—तभी तुम्हें सच्ची खुशी प्राप्त होगी।

आज हमने नैतिक आचरण के बारे में इस कहावत पर संगति कर इसका विश्लेषण किया, “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो।” क्या तुम लोग इस अभिव्यक्ति के साथ जो समस्याएँ हैं, उन्हें समझते हो? (हाँ।) तो क्या तुम लोग यह भी समझते हो कि लोगों से परमेश्वर की क्या अपेक्षाएँ हैं? (हाँ।) इसे समझने के बाद, तुम लोग अंततः इसे खुद में कैसे साकार करोगे? जब तुम पर कोई मुसीबत आती है, तो आवेगशील न होकर, या परंपरागत संस्कृति में आधार न तलाशकर, या सामाजिक रुझानों में आधार न तलाशकर, या जनमत में आधार न तलाशकर, या बेशक, कानूनी प्रावधानों में आधार न तलाशकर। इसके बजाय, परमेश्वर के वचनों में आधार ढूँढ़ो। चाहे सत्य के बारे में तुम्हारी समझ कितनी भी गहरी या सतही हो; यह काफी है कि वह समस्या का समाधान कर सकती है। तुम्हें स्पष्ट रूप से देखना चाहिए कि तुम एक बुरी और खतरनाक दुनिया में रहते हो। अगर तुम सत्य नहीं समझते, तो तुम सिर्फ समाज के रुझानों के अनुसार चल सकते हो और बुराई के भँवर में बह सकते हो। इसलिए, जब तुम पर कोई मुसीबत आती है, चाहे वह कुछ भी हो, तो तुम्हें सबसे पहले क्या करना चाहिए? तुम्हें पहले शांत हो जाना चाहिए, खुद को परमेश्वर के सामने शांत करना चाहिए, और उसके वचनों को बार-बार पढ़ना चाहिए। यह तुम्हें दृष्टि और विचार की स्पष्टता पाने, और स्पष्ट रूप से यह देखने में सक्षम बनाएगा कि शैतान इस मानवजाति को गुमराह और भ्रष्ट कर रहा है, और परमेश्वर इस मानवजाति को शैतान के प्रभाव से बचाने आया है। बेशक, यह सबसे बुनियादी सबक है, जिसे तुम्हें सीखना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उससे सत्य माँगना चाहिए, और उससे मार्गदर्शन करने के लिए कहना चाहिए—मार्गदर्शन उसके प्रासंगिक वचन पढ़ने की दिशा में, मार्गदर्शन प्रासंगिक प्रबुद्धता और रोशनी प्राप्त करने में, ताकि तुम्हारे सामने जो कुछ भी हो रहा है, तुम उसका सार समझ लो, और यह भी कि तुम्हें उसे कैसे देखना चाहिए और उससे कैसे निपटना चाहिए। फिर, उस तरीके का उपयोग करो, जिसे परमेश्वर ने तुम्हें मामले का सामना करने और उसे सँभालने के लिए सिखाया और बताया है। तुम्हें पूरी तरह से और समग्र रूप से परमेश्वर पर भरोसा करना चाहिए। परमेश्वर को शासन करने दो; परमेश्वर को मालिक रहने दो। जब तुम शांत हो जाते हो, तो यह विचारने के लिए कि कौन-सी तकनीक या तरीके का उपयोग करना है, अपने दिमाग का उपयोग करने का प्रश्न ही नहीं है, न ही यह अपने अनुभव या शैतानी फलसफों और तरकीबों के अनुसार कार्य करने का प्रश्न है। बल्कि, यह परमेश्वर की प्रबुद्धता और उसके वचनों के मार्गदर्शन की प्रतीक्षा करने के बारे में है। तुम्हें जो करना चाहिए, वह यह है कि अपनी इच्छा छोड़ दो, अपने विचार और दृष्टिकोण एक तरफ रख दो, श्रद्धापूर्वक परमेश्वर के सामने आओ, और वे वचन सुनो जो वह तुमसे कहता है, वह सत्य सुनो जो वह तुम्हें बताता है, और वे शिक्षाएँ सुनो जो वह तुम्हें दिखाता है। फिर, तुम्हें खुद को शांत करके उन वचनों पर विस्तार से चिंतन और उनकी बार-बार प्रार्थना और पाठ करना चाहिए, जो परमेश्वर ने तुम्हें सिखाए हैं, ताकि तुम यह समझ सको कि वास्तव में परमेश्वर तुमसे क्या चाहता है और तुम्हें क्या करना चाहिए। अगर तुम स्पष्ट रूप से समझ सको कि परमेश्वर का वास्तव में क्या आशय है और उसकी शिक्षाएँ क्या हैं, तो तुम्हें पहले परमेश्वर का धन्यवाद करना चाहिए कि उसने इस परिवेश की व्यवस्था की और तुम्हें अपने वचनों को सत्यापित करने, उन्हें हकीकत बनाने और जीने का अवसर दिया, ताकि वे तुम्हारे हृदय में जीवन बन जाएँ, और तुम जो जीते हो, वह इस बात की गवाही दे सके कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं। स्वाभाविक रूप से, जब तुम इन समस्याओं से निपटते हो, तो कई उतार-चढ़ाव, कठिनाइयाँ और मुश्किलें आ सकती हैं; साथ ही कुछ लड़ाइयाँ, और विभिन्न लोगों के कुछ दावे और टिप्पणियाँ हो सकती हैं। लेकिन अगर तुम आश्वस्त हो कि परमेश्वर के वचन ऐसी समस्याओं पर बहुत स्पष्ट हैं, और जिन्हें तुम समझते और जिनका पालन करते हो, वे परमेश्वर की शिक्षाएँ हैं, तो तुम्हें उन्हें बेहिचक अमल में लाना चाहिए। तुम्हें अपने परिवेश या किसी व्यक्ति, घटना या चीज से बाधित नहीं होना चाहिए। तुम्हें अपने रुख पर कायम रहना चाहिए। सत्य-सिद्धांतों का पालन करना अहंकार या आत्म-तुष्टि नहीं है। जब तुम परमेश्वर के वचनों को समझ लेते हो और उनके अनुसार लोगों और चीजों को देखते, और आचरण और कार्य करते हो, और बिना कभी बदले सिद्धांतों का पालन करने में सक्षम हो जाते हो, तो तुम सत्य का अभ्यास कर रहे होते हो। सत्य का अभ्यास और अनुसरण करने वालों में इसी तरह का रवैया और दृढ़ निश्चय होना चाहिए।

हमने “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” अभिव्यक्ति से संबंधित समस्याओं पर पर्याप्त संगति की है। क्या तुम लोगों को अभी भी ऐसी समस्याएँ समझने में कठिनाई होती है? क्या तुम लोगों ने आज की संगति और विश्लेषण के माध्यम से परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण के बारे में इस कहावत की पूरी तरह से नई समझ प्राप्त की है? (हाँ।) अपनी इस पूरी तरह से नई समझ के आधार पर, क्या तुम अब भी इस कहावत को सत्य और एक सकारात्मक चीज मानोगे? (नहीं।) हो सकता है कि लोगों के मन की गहराई और अवचेतन में इस कहावत का प्रभाव अभी भी मौजूद हो, लेकिन आज की संगति के माध्यम से, लोगों ने अपने विचारों और चेतना से नैतिक आचरण के बारे में इस कहावत को त्याग दिया है। तो, क्या तुम अब भी दूसरों के साथ अपने मेलजोल में इसका पालन करोगे? जब तुम्हारा सामना किसी विवाद से होता है, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? (सबसे पहले, हमें इस शैतानी फलसफे को त्याग देना चाहिए कि “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो।” हमें प्रार्थना करने और सत्य खोजने के लिए चुपचाप परमेश्वर के सामने आना चाहिए और परमेश्वर के वचनों में वे सत्य-सिद्धांत तलाशने चाहिए, जिन्हें अभ्यास में लाया जाना चाहिए।) अगर हमने इन चीजों पर संगति न की होती, तो तुम लोग यह महसूस करते कि तुमने कभी “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” की नैतिक कसौटी के अनुसार लोगों और चीजों को नहीं देखा या आचरण या कार्य नहीं किया है। अब जब यह समस्या उजागर हो गई है, तो तुम खुद यह देखना कि आगे ऐसी ही कोई मुसीबत आने पर तुम इस तरह के विचारों और दृष्टिकोणों से प्रभावित होते हो या नहीं, यानी ये चीजें तुम्हारे विचारों और दृष्टिकोणों में मौजूद हैं या नहीं। उस समय, तुम स्वाभाविक रूप से पाओगे कि ऐसे कई मामले हैं जिनमें तुम ऐसे विचारों और दृष्टिकोणों से प्रभावित होते हो, जिसका अर्थ है कि कई परिवेशों में और जब कई चीजें होती हैं तब, तुम अभी भी ऐसे विचारों और दृष्टिकोणों से प्रभावित होते हो, और उन्होंने तुम्हारी आत्मा में गहरी जड़ें जमा ली हैं, और वे तुम्हारे शब्दों और कर्मों और तुम्हारे विचारों को निर्देशित करना जारी रखे हुए हैं। अगर तुम्हें यह एहसास नहीं हुआ, और तुम इस मुद्दे पर ध्यान नहीं देते या इसके पीछे नहीं लगे रहते हो, तो तुम निश्चित रूप से इसके बारे में जागरूक नहीं होंगे, और तुम नहीं जान पाओगे कि तुम ऐसे विचारों और दृष्टिकोणों से प्रभावित होते हो या नहीं। जब तुम वास्तव में इस मुद्दे के पीछे पड़ते हो और इसके साथ सावधानी बरतते हो, तो तुम पाओगे कि परंपरागत संस्कृति के जहर अक्सर तुम्हारे मन में बैठने लगते हैं। ऐसा नहीं है कि वे तुममें नहीं है, बस इतना है कि तुमने पहले उन्हें गंभीरता से नहीं लिया, या तुम यह महसूस करने में पूरी तरह विफल रहे कि परंपरागत संस्कृति की इन कहावतों का सार क्या है। तो, अपने मन की गहराइयों में मौजूद ऐसी समस्याओं से अवगत होने के लिए तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम लोगों को चिंतन और विचार करना सीखना चाहिए। चिंतन और विचार कैसे करना चाहिए? ये दो शब्द बहुत सरल लगते हैं; तो, इन्हें कैसे समझना चाहिए? उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम सच्चा मार्ग खोजने वाले कुछ लोगों के सामने सुसमाचार का प्रसार कर रहे हो और परमेश्वर की गवाही दे रहे हो। शुरू में, वे सुनने के लिए तैयार हो सकते हैं, लेकिन तुम्हारे कुछ समय तक संगति करने के बाद, उनमें से कुछ लोग अब और नहीं सुनना चाहते। उस समय तुम्हें सोचना चाहिए, “यहाँ क्या हो रहा है? क्या मेरी संगति इनकी धारणाओं और समस्याओं के अनुरूप नहीं है? या मैंने सत्य पर स्पष्ट और व्यापक रूप से संगति नहीं की है? या ये किसी ऐसी अफवाह या झूठ से परेशान हैं, जो इन्होंने सुनी है? इनमें से कुछ लोग खोज करना जारी क्यों नहीं रखेंगे? वास्तव में समस्या क्या है?” यही चिंतन है, है न? एक भी विवरण छोड़े बिना, हर पहलू को ध्यान में रखते हुए मामले के बारे में सोचना। इन चीजों पर विचार करने का तुम्हारा लक्ष्य क्या है? समस्या की जड़ और सार खोजना और फिर उसका समाधान करना। जितना चाहे सोचने के बावजूद, अगर तुम इन समस्याओं का उत्तर नहीं खोज पाते, तो तुम्हें कोई ऐसा व्यक्ति ढूँढ़ना चाहिए जो सत्य समझता हो, और उनसे पता करना चाहिए। देखो कि वे कैसे सुसमाचार का प्रसार करते और परमेश्वर के बारे में गवाही देते हैं, और कैसे वे उन लोगों की मुख्य धारणाओं के बारे में सटीक अनुभव प्राप्त करते हैं जो सच्चा मार्ग खोज रहे हैं, और फिर कैसे वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य पर संगति करके उनका समाधान करते हैं। क्या इससे कार्य शुरू नहीं हो जाता? विचार करना पहला कदम है; कार्य करना दूसरा कदम है। कार्य करने का कारण यह सत्यापित करना है कि तुम जिस समस्या पर विचार कर रहे हो, वह सही है या नहीं, कहीं तुम मार्ग से भटक तो नहीं गए। जब तुम्हें पता चलता है कि समस्या कहाँ से उत्पन्न होती है, तो तुम यह सत्यापित करना शुरू कर दोगे कि तुम जिस समस्या पर विचार कर रहे हो, वह सही है या गलत। फिर, उस समस्या को हल करने में जुट जाओ, जिसका तुमने सही होना सत्यापित किया है। उदाहरण के लिए, जब सच्चे मार्ग की खोज करने वाले लोग अफवाहें और झूठ सुनते हैं और धारणाएँ विकसित कर लेते हैं, तो उन्हें परमेश्वर के वचन उस तरह से पढ़कर सुनाओ, जो उनकी धारणाओं को लक्षित करता हो। सत्य पर स्पष्ट रूप से संगति करते हुए, उनकी धारणाओं का पूरी तरह से विश्लेषण और समाधान करो, और उनके हृदय की बाधाएँ दूर करो। फिर वे अपनी खोज जारी रखने के लिए तैयार होंगे। यह समस्या हल करने की शुरुआत करना है, है न? समस्या हल करने में पहला कदम है उस पर विचार करना, उस पर चिंतन करना, और अपने मन में उसके सार और मूल कारण को गहराई से समझना। जब तुम सत्यापित कर लेते हो कि यह क्या है, तो परमेश्वर के वचनों के अनुसार समस्या का समाधान करना शुरू कर दो। अंत में, समस्या का समाधान होने पर लक्ष्य प्राप्त हो जाएगा। तो, नैतिक आचरण पर “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” जैसे कथन अभी भी तुम्हारे विचारों और दृष्टिकोणों में मौजूद हैं या नहीं? (हाँ, हैं।) ऐसी समस्याओं का समाधान कैसे किया जाए? तुम्हें हर उस मुसीबत पर विचार करना चाहिए, जो आम तौर पर तुम पर पड़ती है। यह एक महत्वपूर्ण कदम है। पहले, इस बारे में सोचो कि जब ऐसी मुसीबतें तुम पर पहले पड़ी थीं, तो तुमने कैसे व्यवहार किया था। क्या तुम पर “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” जैसी कहावतें हावी थीं? अगर हाँ, तो तुम्हारे क्या इरादे थे? तुमने क्या कहा? तुमने क्या किया? तुमने कैसे कार्य किया? तुमने कैसे व्यवहार किया? जब तुम शांत होकर इन चीजों पर विचार करोगे, तो तुम अनजाने ही कुछ समस्याओं का पता लगा लोगे। उस समय, तुम्हें सत्य खोजना चाहिए और दूसरों के साथ संगति करनी चाहिए, और परमेश्वर के प्रासंगिक वचनों के अनुसार इन समस्याओं का समाधान करना चाहिए। अपने वास्तविक जीवन में पूरी तरह से उन गलत विचारों को त्यागने का प्रयास करो, जिनका परंपरागत संस्कृति समर्थन करती है, और फिर लोगों के साथ मेलजोल करने के लिए परमेश्वर के वचनों और सत्य को सिद्धांतों के रूप में अपनाओ, और लोगों, घटनाओं और चीजों के साथ सत्य-सिद्धांतों के अनुसार पेश आओ। परंपरागत संस्कृति के विभिन्न विचारों, दृष्टिकोणों और कहावतों का परमेश्वर के वचनों के अनुसार विश्लेषण करना, फिर मानवजाति द्वारा इन गलत विचारों के पालन के परिणामों के आधार पर पूरी स्पष्टता के साथ देखना कि क्या परंपरागत संस्कृति वास्तव में सकारात्मक और सही है, यह समस्याएँ हल करने का तरीका है। तब तुम स्पष्ट रूप से देखोगे कि “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” सिर्फ एक कपटपूर्ण व्यवहार की तकनीक है, जिसे लोग आपसी संबंध बनाए रखने के लिए अपनाते हैं। लेकिन अगर लोगों का प्रकृति सार नहीं बदलता है, तो क्या लोग लंबे समय तक मिलजुलकर रह सकते हैं? देर-सबेर संबंध टूट ही जाएँगे। इसलिए, मानव-संसार में कोई सच्चा दोस्त नहीं है—बस, भौतिक संबंध बनाए रखने में सक्षम होना ही अपने आप में बहुत अच्छा है। अगर लोगों में थोड़ा-सा जमीर और समझ हो, और वे दयालु हों, तो वे दूसरों के साथ सतही संबंध बनाए रख सकते हैं, वह भी बिना एक-दूसरे से अलग हुए; अगर वे अपनी मानवता में दुष्ट, कपटी और शातिर हैं, तो उनके पास दूसरों के साथ जुड़ने का कोई उपाय नहीं होगा, और वे सिर्फ एक-दूसरे का लाभ उठा सकते हैं। इन चीजों को स्पष्ट रूप से देखने के बाद—अर्थात्, लोगों का प्रकृति-सार स्पष्ट रूप से देखने के बाद—वह तरीका, जिसे लोगों को एक-दूसरे के साथ अपने मेलजोल में अपनाना चाहिए, मूल रूप से निर्धारित किया जा सकता है, और वह सही, त्रुटिहीन और सत्य के अनुसार हो सकता है। परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के अपने अनुभव के साथ, परमेश्वर के चुने हुए लोग अब मानवता के सार को थोड़ा-सा देख सकते हैं। इसलिए, लोगों के बीच मेलजोल में—अर्थात्, सामान्य पारस्परिक संबंधों में—वे एक ईमानदार व्यक्ति होने का महत्व देख सकते हैं, और यह भी कि लोगों के साथ परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुसार व्यवहार करना सर्वोच्च सिद्धांत और सबसे बुद्धिमत्तापूर्ण तरीका है। यह लोगों को कभी संकट में नहीं डालेगा या पीड़ा नहीं देगा। हालाँकि, जब लोग परमेश्वर के वचनों का अनुभव और सत्य का अभ्यास करेंगे, तो अनिवार्य रूप से उनकी आत्मा में कुछ संघर्ष होगा, इस अर्थ में कि भ्रष्ट स्वभाव अक्सर उन्हें परेशान करने और सत्य का अभ्यास करने से रोकने के लिए उभरेंगे। मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों द्वारा उत्पन्न वे बहुआयामी विचार, भावनाएँ और दृष्टिकोण तुम्हें अलग-अलग मात्रा में सत्य और परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाने से रोकेंगे, और जब वे ऐसा करेंगे, तो सत्य का अभ्यास करने में तुम्हें प्रभावी रूप से बहुत-सी रुकावटों और बाधाओं का सामना करना पड़ेगा। जब ये बाधाएँ सामने आएँगी, तब तुम यह नहीं कहोगे कि सत्य का अभ्यास करना आसान है, जैसा कि तुम अभी कहते हो। तुम इतनी तत्परता से नहीं कहोगे। तब, तुम पीड़ित और दुखी होगे, तुम अच्छी तरह से खा और सो भी नहीं पाओगे। कुछ लोगों को परमेश्वर में विश्वास करना बहुत कठिन भी लग सकता है और हो सकता है, वे इसे छोड़ना भी चाहेंगे। मुझे विश्वास है कि बहुत-से लोगों ने सत्य का अभ्यास और वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए बहुत कष्ट उठाए हैं, और अनगिनत बार उनकी काट-छाँट की गई है, और अपने दिलों में उन्होंने अनगिनत लड़ाइयाँ लड़ी हैं, और अनगिनत आँसू बहाए हैं। क्या ऐसा नहीं है? (बिल्कुल है।) इन पीड़ाओं से गुजरना एक अनिवार्य प्रक्रिया है, और बिना किसी अपवाद के सभी को इससे गुजरना चाहिए। व्यवस्था के युग में, दाऊद ने एक गलती की, और बाद में पश्‍चात्ताप किया और परमेश्वर के सामने कबूल किया। वह कितना रोया? मूल पाठ में इसका वर्णन कैसे किया गया था? (“मैं अपनी खाट आँसुओं से भिगोता हूँ; प्रति रात मेरा बिछौना भीगता है” (भजन संहिता 6:6)।) अपने बिछौने को भिगोने के लिए उसने कितने आँसू बहाए होंगे! यह उस समय उसके द्वारा महसूस किए गए पछतावे और पीड़ा की तीव्रता और गहराई को दर्शाता है। क्या तुम लोगों ने इतने आँसू बहाए हैं? तुम लोगों द्वारा बहाए गए आँसुओं की संख्या उसके आँसुओं का सौवाँ हिस्सा भी नहीं है, जो दर्शाता है कि जिस मात्रा में तुम लोग अपने भ्रष्ट स्वभावों, देह-सुख और अपराधों से घृणा करते हो, वह पर्याप्त नहीं है, और सत्य का अभ्यास करने में तुम लोगों का निश्चय और दृढ़ता अपर्याप्त है। तुम अभी मानक पर खरे नहीं उतरे हो; तुम पतरस और दाऊद के स्तर तक पहुँचने से बहुत दूर हो। खैर, आज की संगति यहीं समाप्त करते हैं।

16 अप्रैल 2022

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