सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (8) भाग दो
आओ, आज हम नैतिक आचरण के बारे में अगले कथन पर संगति और विश्लेषण करना जारी रखें : “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो”। यह लोगों के साथ बातचीत करने के उस तरीके को बयाँ करता है, जो शैतान ने लोगों के मन में बिठा दिया है। इसका मतलब है कि जब तुम लोगों से बातचीत करते हो, तो तुम्हें उन्हें कुछ छूट देनी चाहिए। तुम्हें दूसरों के साथ बहुत कठोर नहीं होना चाहिए, तुम उनके पिछले दोष उजागर नहीं कर सकते, तुम्हें उनकी गरिमा बनाए रखनी होगी, तुम उनके साथ अपने अच्छे संबंध नहीं बिगाड़ सकते, तुम्हें उनके प्रति क्षमाशील होना चाहिए, इत्यादि। नैतिकता के बारे में यह कहावत मुख्य रूप से जीने के लिए एक प्रकार के सांसारिक आचरण के फलसफे का वर्णन करती है जो मनुष्यों के बीच बातचीत को निर्धारित करती है। सांसारिक आचरण के फलसफों में एक सिद्धांत है, जो कहता है, “अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है।” इसका मतलब है कि मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए अपने मित्र की समस्याओं के बारे में चुप रहना चाहिए, भले ही वे स्पष्ट दिखें—उन्हें लोगों के चेहरे पर वार न करने या उनकी कमियों की आलोचना न करने के सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। लोगों को एक-दूसरे को धोखा देना चाहिए, एक-दूसरे से छिपाना चाहिए, एक दूसरे के साथ साजिश करने में लिप्त होना चाहिए; और हालाँकि वे स्पष्ट रूप से जानते हैं कि दूसरा व्यक्ति किस तरह का है, पर वे इसे सीधे तौर पर नहीं कहते, बल्कि अपना मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए शातिर तरीके अपनाते हैं। ऐसे संबंध व्यक्ति क्यों बनाए रखना चाहेगा? यह इस समाज में, अपने समूह के भीतर दुश्मन न बनाना चाहने के लिए होता है, जिसका अर्थ होगा खुद को अक्सर खतरनाक स्थितियों में डालना। यह जानकर कि किसी की कमियाँ बताने या उसे चोट पहुँचाने के बाद वह तुम्हारा दुश्मन बन जाएगा और तुम्हें नुकसान पहुँचाएगा, और खुद को ऐसी स्थिति में न डालने की इच्छा से तुम सांसारिक आचरण के ऐसे फलसफों का इस्तेमाल करते हो, “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो।” इसके आलोक में, अगर दो लोगों का संबंध ऐसा है, तो क्या वे सच्चे दोस्त माने जा सकते हैं? (नहीं।) वे सच्चे दोस्त नहीं होते, एक-दूसरे के विश्वासपात्र तो बिल्कुल नहीं होते। तो, यह वास्तव में किस तरह का संबंध है? क्या यह एक मूलभूत सामाजिक संबंध नहीं है? (हाँ, है।) ऐसे सामाजिक संबंधों में लोग अपनी भावनाएँ जाहिर नहीं कर सकते, न ही गहन विचार-विनिमय कर सकते हैं, न यह बता सकते हैं कि वे क्या चाहते हैं। वे अपने दिल की बात, या जो समस्याएँ वे दूसरे में देखते हैं, या ऐसे शब्द जो दूसरे के लिए लाभदायक हों, जोर से नहीं कह सकते। इसके बजाय, वे अच्छी-अच्छी बातें कहते हैं ताकि औरों का समर्थन मिलता रहे। वे सच बोलने या सिद्धांतों का पालन करने की हिम्मत नहीं करते, कि कहीं लोगों के साथ उनकी दुश्मनी न हो जाए। जब किसी व्यक्ति को कोई भी धमका नहीं रहा होता, तो क्या वह व्यक्ति अपेक्षाकृत आराम और शांति से नहीं रहता? क्या “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” को प्रचारित करने में लोगों का यही लक्ष्य नहीं है? (हाँ, है।) स्पष्ट रूप से, यह अस्तित्व का एक शातिर, कपटपूर्ण तरीका है, जिसमें रक्षात्मकता का तत्त्व है, जिसका लक्ष्य आत्म-संरक्षण है। इस तरह जीने वाले लोगों का कोई विश्वासपात्र नहीं होता, कोई करीबी दोस्त नहीं होता, जिससे वे जो चाहें कह सकें। वे एक-दूसरे के साथ रक्षात्मक होते हैं, हिसाब लगाते और रणनीतिक होते हैं, दोनों ही उस रिश्ते से जो चाहते हैं, वह लेते हैं। क्या ऐसा नहीं है? मूल रूप से “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” का लक्ष्य दूसरों को ठेस पहुँचाने और दुश्मन बनाने से बचना है, किसी को चोट न पहुँचाकर अपनी रक्षा करना है। यह व्यक्ति द्वारा खुद को चोट पहुँचने से बचाने के लिए अपनाई जाने वाली तकनीक और तरीका है। इसके सार के इन विभिन्न पहलुओं को देखते हुए, क्या लोगों के नैतिक आचरण से यह माँग कि “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” नेक है? क्या यह सकारात्मक माँग है? (नहीं।) तो फिर यह लोगों को क्या सिखा रहा है? कि तुम्हें किसी को परेशान नहीं करना चाहिए या किसी को चोट नहीं पहुँचानी चाहिए, वरना तुम खुद चोट खाओगे; और यह भी, कि तुम्हें किसी पर भरोसा नहीं करना चाहिए। अगर तुम अपने किसी अच्छे दोस्त को चोट पहुँचाते हो, तो दोस्ती धीरे-धीरे बदलने लगेगी : वे तुम्हारे अच्छे, करीबी दोस्त न रहकर अजनबी या तुम्हारे दुश्मन बन जाएँगे। लोगों को ऐसा करना सिखाने से कौन-सी समस्याएँ हल हो सकती हैं? भले ही इस तरह से कार्य करने से, तुम शत्रु नहीं बनाते और कुछ शत्रु कम भी हो जाते हैं, तो क्या इससे लोग तुम्हारी प्रशंसा और अनुमोदन करेंगे और हमेशा तुम्हारे मित्र बने रहेंगे? क्या यह नैतिक आचरण के मानक को पूरी तरह से हासिल करता है? अपने सर्वोत्तम रूप में, यह सांसारिक आचरण के एक फलसफे से अधिक कुछ नहीं है। क्या इस कथन और अभ्यास का पालन करना अच्छा नैतिक आचरण माना जा सकता है? बिल्कुल नहीं। कुछ माता-पिता इसी तरह से अपने बच्चों को शिक्षित करते हैं। अगर उनका बच्चा बाहर कहीं पिट जाता है, तो वे बच्चे से कहते हैं, “तुम कायर हो। तुमने पलटवार क्यों नहीं किया? अगर वह तुम्हें घूँसा मारे, तो तुम उसे लात मारो!” क्या यह सही तरीका है? (नहीं।) इसे क्या कहा जाता है? इसे उकसाना कहा जाता है। उकसाने का क्या उद्देश्य होता है? नुकसान से बचना और दूसरों का फायदा उठाना। अगर कोई तुम्हें घूँसा मारता है, तो ज्यादा से ज्यादा, कुछ दिनों के लिए दर्द होगा; लेकिन अगर तुम उसे लात मारते हो, तो क्या इसके ज्यादा गंभीर परिणाम नहीं होंगे? और ऐसा किसके कारण होगा? (माता-पिता के कारण, जिन्होंने उकसाया था।) तो क्या “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” कथन का चरित्र कुछ हद तक इसके समान ही नहीं है? क्या इस कथन के अनुसार दूसरे लोगों से व्यवहार करना सही है? (नहीं।) नहीं, यह सही नहीं है। इसे इस कोण से देखने पर, क्या यह लोगों को उकसाने का एक तरीका नहीं है? (हाँ, है।) क्या यह लोगों को दूसरों के साथ बातचीत करते समय बुद्धिमान होना, लोगों में अंतर कर पाना, लोगों और चीजों को सही तरीके से देखना, और लोगों के साथ बुद्धिमानी से बातचीत करना सिखाता है? क्या यह तुम्हें सिखाता है कि अगर तुम अच्छे लोगों से, मानवता वाले लोगों से मिलते हो, तो तुम्हें उनके साथ ईमानदारी से व्यवहार करना चाहिए, कर पाओ तो उनकी मदद करनी चाहिए, और अगर न कर पाओ तो सहिष्णु होकर उनके साथ ठीक से व्यवहार करना चाहिए, अपने बारे में उनकी गलतफहमियाँ और आलोचनाएँ झेलनी चाहिए, और उनकी खूबियों और सद्गुणों से सीखना चाहिए? क्या यह लोगों को यही सिखाता है? (नहीं।) तो, जो यह कहावत लोगों को सिखाती है, उससे अंत में क्या होता है? यह लोगों को ज्यादा ईमानदार बनाता है या ज्यादा कपटी? इसके परिणामस्वरूप लोग और ज्यादा कपटी हो जाते हैं; लोगों के दिल और ज्यादा दूर हो जाते हैं, लोगों के बीच की दूरी बढ़ जाती है, और लोगों के रिश्ते जटिल हो जाते हैं; यह लोगों के सामाजिक संबंधों में एक जटिलता के बराबर है। लोगों के बीच दिली संवाद खो जाता है, और आपस में सँभलकर बोलने की मानसिकता पैदा हो जाती है। क्या इस तरह लोगों के रिश्ते अभी भी सामान्य रह सकते हैं? क्या इससे सामाजिक माहौल में सुधार होगा? (नहीं।) इसलिए “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” कहावत स्पष्ट रूप से गलत है। लोगों को ऐसा करना सिखाने से वे सामान्य मानवता नहीं जी सकते; इतना ही नहीं, यह लोगों को निष्कपट, खरा या स्पष्टवादी नहीं बना सकता। यह कुछ भी सकारात्मक प्राप्त नहीं कर सकता।
“अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” ये कहावत दो कार्यों को संदर्भित करती है : एक तो वार करने का कार्य, और दूसरा आलोचना करने का। दूसरों के साथ लोगों की सामान्य बातचीत में, किसी पर वार करना सही है या गलत? (गलत।) क्या किसी पर वार करना दूसरों के साथ बातचीत में सामान्य मानवता का प्रदर्शन और व्यवहार है? (नहीं।) लोगों पर वार करना निश्चित रूप से गलत है, चाहे तुम उनके चेहरे पर वार करो या कहीं और। इसलिए, “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो” कथन सहज रूप से गलत है। इस कहावत के अनुसार किसी के चेहरे पर वार करना जाहिर तौर पर सही नहीं है, लेकिन कहीं और वार करना सही है, क्योंकि चेहरे पर वार करने के बाद वह लाल हो जाता है, सूज जाता है और जख्मी हो जाता है। इससे व्यक्ति खराब और अनाकर्षक दिखने लगता है, और यह ये भी दिखाता है कि तुम लोगों के साथ बहुत असभ्य, अपरिष्कृत और हेय तरीके से व्यवहार करते हो। तो, क्या लोगों पर अन्यत्र प्रहार करना उत्तम है? नहीं—वह भी उत्तम नहीं है। वास्तव में, इस कहावत का केंद्र-बिंदु किसी पर वार करना नहीं है, बल्कि खुद “वार” शब्द है। दूसरों के साथ बातचीत करते समय, अगर तुम समस्याओं से निपटने के तरीके के रूप में हमेशा दूसरों पर वार करते हो, तो तुम्हारा तरीका ही गलत है। यह उग्रता से किया जाता है और व्यक्ति की मानवता के जमीर और विवेक पर आधारित नहीं होता, और निश्चित रूप से, यह सत्य का अभ्यास या सत्य सिद्धांतों का पालन करना तो बिल्कुल भी नहीं है। कुछ लोग दूसरों की उपस्थिति में उनकी गरिमा पर हमला नहीं करते—वे जो कहते हैं, उसमें सावधान रहते हैं और दूसरे के चेहरे पर वार करने से बचते हैं, लेकिन हमेशा उनकी पीठ पीछे गंदी हरकतें करते रहते हैं, मेज के ऊपर तो हाथ मिलाते हैं लेकिन नीचे से उन्हें लात मारते हैं, उनके सामने अच्छी बातें कहते हैं लेकिन उनकी पीठ पीछे उनके खिलाफ साजिश करते हैं, उनकी कमी निकालकर उसका उनके खिलाफ इस्तेमाल करते हैं, बदला लेने, फँसाने और कुचक्र रचने, अफवाहें फैलाना, या झगड़ा करवाने और उनकी आलोचना करने के लिए अन्य लोगों का उपयोग करने के मौकों की ताक में रहते हैं। किसी के चेहरे पर वार करने की तुलना में ये कपटपूर्ण तरीके कितने बेहतर हैं? क्या ये किसी के चेहरे पर वार करने से भी ज्यादा गंभीर नहीं हैं? क्या ये और भी कपटपूर्ण, शातिर, और मानवता से रहित नहीं हैं? (हाँ, हैं।) तो फिर, “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो” कथन सहज रूप से अर्थहीन है। यह दृष्टिकोण अपने आप में एक गलती है, इसमें झूठे दिखावे भी हैं। यह एक पाखंडी तरीका है, जो इसे और भी गर्हित, घिनौना और वीभत्स बना देता है। अब हम स्पष्ट हैं कि लोगों पर वार उग्रता से किया जाता है। तुम किस आधार पर किसी पर वार करते हो? क्या यह कानून द्वारा अधिकृत है, या यह तुम्हारा परमेश्वर-प्रदत्त अधिकार है? यह इनमें से कुछ नहीं है। तो, लोगों पर वार क्यों करना? अगर तुम किसी के साथ सामान्य रूप से मिलजुलकर रह सकते हो, तो तुम उसके साथ मिलजुलकर रहने और बातचीत करने के लिए सही तरीकों का उपयोग कर सकते हो। अगर तुम उनके साथ मिलजुलकर नहीं रह सकते, तो उग्रता से काम किए बिना या मारपीट न करते हुए अपने अलग रास्ते पर जा सकते हो। मानवता के जमीर और विवेक के दायरे में, यह ऐसी चीज होनी चाहिए जिसे लोग करते हैं। जैसे ही तुम उग्रता से काम करते हो, भले ही तुम उस व्यक्ति के चेहरे पर वार न करो बल्कि कहीं और करो, यह एक गंभीर समस्या है। यह बातचीत करने का सामान्य तरीका नहीं है। ऐसा तो दुश्मन करते हैं, यह सामान्य लोगों की बातचीत का तरीका नहीं है। यह मानवता की भावना के दायरे से बाहर है। “अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” कहावत में “आलोचना करना” वाक्यांश अच्छा है या बुरा? क्या “आलोचना करना” वाक्यांश का वह स्तर है, जिसे यह परमेश्वर के वचनों में लोगों के प्रकट या उजागर होने को संदर्भित करता है? (नहीं।) मेरी समझ से “आलोचना करना” वाक्यांश का, जिस रूप में यह इंसानी भाषा में मौजूद है, यह अर्थ नहीं है। इसका सार उजागर करने के एक दुर्भावनापूर्ण रूप का है : इसका अर्थ है लोगों की समस्याएँ और कमियाँ, या कुछ ऐसी चीजें और व्यवहार जो दूसरों को ज्ञात नहीं हैं, या पृष्ठभूमि में चल रहे षड्यंत्रकारी विचार या दृष्टिकोण प्रकट करना। “अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” कहावत में “आलोचना करना” वाक्यांश का यही अर्थ है। अगर दो लोगों में अच्छी बनती है और वे विश्वासपात्र हैं, उनके बीच कोई बाधा नहीं है और उनमें से प्रत्येक को दूसरे के लिए फायदेमंद और मददगार होने की आशा है, तो उनके लिए सबसे अच्छा होगा यही कि वे एक-साथ बैठें, खुलेपन और ईमानदारी से एक-दूसरे की समस्याएँ सामने रखें। यह उचित है और यह दूसरे की कमियों की आलोचना करना नहीं है। अगर तुम्हें किसी व्यक्ति में समस्याएँ दिखती हैं, लेकिन दिख रहा है कि वह व्यक्ति अभी तुम्हारी सलाह मानने को तैयार नहीं है, तो झगड़े या संघर्ष से बचने के लिए उससे कुछ न कहो। अगर तुम उसकी मदद करना चाहते हो, तो तुम उसकी राय माँग सकते हो और पहले उससे पूछ सकते हो, “मुझे लगता है कि तुम में कुछ समस्या है और मैं तुम्हें थोड़ी सलाह देना चाहता हूँ। पता नहीं, तुम इसे स्वीकार पाओगे या नहीं। अगर स्वीकार पाओ, तो मैं तुम्हें बताऊँगा। अगर न स्वीकार पाओ, तो मैं फिलहाल इसे अपने तक ही रखूंगा और कुछ नहीं बोलूंगा।” अगर वह कहता है, “मुझे तुम पर भरोसा है। तुम्हें जो भी कहना हो, वह अस्वीकार्य नहीं होगा; मैं उसे स्वीकार सकता हूँ,” तो इसका मतलब है कि तुम्हें अनुमति मिल गई है और तुम एक-एक कर उसे उसकी समस्याएँ बता सकते हो। वह न केवल तुम्हारा कहा पूरी तरह से मानेगा, बल्कि इससे उसे फायदा भी होगा तुम दोनों अभी भी एक सामान्य संबंध बनाए रख पाओगे। क्या यह एक-दूसरे के साथ ईमानदारी से व्यवहार करना नहीं है? (बिल्कुल है।) यह दूसरों के साथ बातचीत करने का सही तरीका है; यह दूसरे की कमियों की आलोचना करना नहीं है। इस कहावत के अनुसार “दूसरों की कमियों की आलोचना न करने” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है दूसरों की कमियों के बारे में बात न करना, उनकी सबसे निषिद्ध समस्याओं के बारे में बात न करना, उनकी समस्या का सार उजागर न करना और आलोचना करने में ज्यादा मुखर न होना। इसका अर्थ है सिर्फ सतही टिप्पणी करना, वही बातें कहना जो सभी लोगों द्वारा सामान्य रूप से कही जाती हैं, वही बातें कहना जो वह व्यक्ति पहले से ही खुद भी समझता है और उन गलतियों को प्रकट नहीं करना जो व्यक्ति पहले कर चुका है या जो संवेदनशील मुद्दे हैं। अगर तुम इस तरह से कार्य करते हो, तो इससे व्यक्ति को क्या लाभ होता है? शायद तुमने उसका अपमान नहीं किया होगा या उसे अपना दुश्मन नहीं बनाया होगा, लेकिन तुमने जो किया है, उससे उसे कोई मदद या लाभ नहीं हुआ है। इसलिए, यह वाक्यांश कि “दूसरों की कमियों की आलोचना मत करो” अपने आपमें टालमटोल और कपट का एक रूप है, जो लोगों के एक-दूसरे के साथ व्यवहार में ईमानदारी नहीं रहने देते। यह कहा जा सकता है कि इस तरह से कार्य करना बुरे इरादों को आश्रय देना है; यह दूसरों के साथ बातचीत करने का सही तरीका नहीं है। गैर-विश्वासी तो “अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” को ऐसे देखते हैं, जैसे उच्च आदर्शों वाले व्यक्ति को यही करना चाहिए। यह स्पष्ट रूप से दूसरों के साथ बातचीत करने का एक कपटपूर्ण तरीका है, जिसे लोग अपनी रक्षा के लिए अपनाते हैं; यह बातचीत का बिल्कुल भी उचित तरीका नहीं है। दूसरों की कमियों की आलोचना न करना अपने आप में कपट है, और दूसरों की कमियों की आलोचना करने में कोई गुप्त इरादा हो सकता है। किन परिस्थितियों में तुम आम तौर पर लोगों को एक-दूसरे की कमियों की आलोचना करते देख सकते हो? एक उदाहरण यह रहा : समाज में, अगर दो उम्मीदवार किसी पद पर चुने जाने के लिए अभियान चलाते हैं, तो वे एक-दूसरे की कमियाँ गिनाएँगे। एक कहेगा, “तुमने कुछ बुरा काम किया है, और तुमने बहुत पैसों का गबन किया,” और दूसरा कहेगा, “तुमने कई लोगों को नुकसान पहुँचाया है।” वे एक-दूसरे के बारे में ऐसी चीजें उजागर करते हैं। क्या यह दूसरों की कमियों की आलोचना करना नहीं है? (हाँ, है।) जो लोग राजनीतिक मंच पर एक-दूसरे की कमियों की आलोचना करते हैं, वे राजनीतिक विरोधी होते हैं, लेकिन जब आम लोग ऐसा करते हैं, तो वे दुश्मन होते हैं। सरल शब्दों में, कहा जा सकता है कि इन दोनों में बनती नहीं। जब भी वे मिलते हैं, बहस करना शुरू कर देते हैं, एक-दूसरे की कमियाँ गिनाने लगते हैं, एक-दूसरे की आलोचना और निंदा करते हैं, यहाँ तक कि तिल का ताड़ बना देते हैं और झूठे आरोप लगाते हैं। अगर दूसरे व्यक्ति के मामलों के बारे में कुछ भी संदिग्ध है, तो वे उसे उजागर करेंगे और उसके लिए दूसरे व्यक्ति की निंदा करेंगे। अगर लोग एक-दूसरे के बारे में कई बातें कहते हैं, लेकिन दूसरों की कमियों की आलोचना नहीं करते, तो क्या यह कोई उत्कृष्ट चीज है? (नहीं।) यह उत्कृष्ट चीज नहीं है, लेकिन लोग फिर भी इस सिद्धांत को महान नैतिक आचरण समझकर इसकी प्रशंसा करते हैं, जो वास्तव में घृणित है! “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” कहावत अपने आप में किसी सकारात्मक चीज का समर्थन करने में विफल है। यह “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए,” “बुराई का बदला भलाई से चुकाओ,” और “महिला को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना चाहिए,” जैसी कहावतों से अलग है, जो कम से कम प्रशंसनीय नैतिक आचरण का समर्थन करती हैं। “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” उस नैतिक आचरण पर कथन है, जो नकारात्मक व्यवहार को उकसाता है और लोगों पर कोई सकारात्मक कार्य बिल्कुल नहीं करता। यह लोगों को यह नहीं बताता कि इस दुनिया में जीवन में आचरण करने के सही तरीके या सिद्धांत क्या हैं। यह ऐसी कोई जानकारी नहीं देता। यह बस इतना करता है कि लोगों से दूसरों के चेहरे पर वार न करने के लिए कहता है, मानो चेहरे के अलावा और कहीं भी वार करना ठीक हो। उन पर अन्यत्र जहाँ जी चाहे वार करो; चाहे उनके शरीर पर नील पड़ जाएँ, वे लुंज-पुंज हो जाएँ, बस उनकी साँस चलती रहे। और जब लोग एक-दूसरे से लड़ रहे होते हैं, जब दुश्मन या राजनीतिक विरोधी मिलते हैं, तो वे एक-दूसरे के बारे में जो चाहें कह सकते हैं, बस वे एक-दूसरे की कमियाँ न कहें। यह क्या तरीका है? क्या तुम लोग पहले इस कहावत को अनुमोदित नहीं करते थे? (हाँ।) मान लो, दो महिलाऐं विवाद में पड़ जाती हैं और बहस करने लगती हैं। उनमें से एक कहती है, “मुझे पता है, तुम्हारा पति तुम्हारे बच्चे का बाप नहीं है,” और दूसरी कहती है, “मुझे पता है, तुम्हारा पारिवारिक व्यवसाय पैसा बनाने के लिए क्या तरकीबें अपनाता है।” कुछ लोग उनके झगड़े की विषयवस्तु पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं, “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो। उन्हें एक-दूसरे की कुछ कमियाँ और आपराधिक रहस्य उभारते और तिल का ताड़ बनाते देखो। क्या क्षुद्र व्यवहार है! शराफत भी कितनी कम है। तुम कम से कम लोगों को थोड़ा सम्मान दिखा सकते हो, वरना वे भविष्य में कैसे अच्छा आचरण कर पाएँगे?” इस तरह की टिप्पणियाँ करना सही है या गलत? (यह गलत है।) क्या इसका थोड़ा-सा भी सकारात्मक प्रभाव है? क्या इसमें से कोई सत्य के जरा भी अनुरूप है? (नहीं।) ऐसी टिप्पणियाँ करने के लिए व्यक्ति में किस तरह के विचार और दृष्टिकोण होने चाहिए? क्या ऐसी टिप्पणियाँ किसी ऐसे व्यक्ति से आती हैं, जिसमें न्यायप्रियता की भावना है और जिसने सत्य समझा है? (नहीं।) इस तरह की टिप्पणियाँ किस आधार से उत्पन्न होती है? क्या वे इसलिए बनाई गई थीं कि वे परंपरागत संस्कृति के “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” के विचार से पूरी तरह से प्रभावित हैं? (हाँ।) ये टिप्पणियाँ पूरी तरह से परंपरागत संस्कृति के इसी विचार और दृष्टिकोण पर आधारित हैं।
दो लोगों के बीच जिस विवाद के बारे में हमने अभी बात की, अगर तुम इस मामले को किसी ऐसे व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य से देखो जो परमेश्वर में विश्वास करता है, तो परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को कसौटी मानकर इसे कैसे लिया जाना चाहिए? क्या यह ऐसा मुद्दा नहीं है, जिस पर लोगों को विचार करना चाहिए? (हाँ, है।) यह ऐसी चीज है, जिस पर तुम लोगों को विचार करना चाहिए। विश्वासियों को किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए? उन्हें पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना चाहिए। अगर भाई-बहनों के बीच कोई विवाद होता है, तो उन्हें एक-दूसरे के प्रति सहिष्णु और धैर्यवान होना चाहिए, और एक-दूसरे के साथ प्रेम से पेश आना चाहिए। उन्हें पहले चिंतन करके आत्म-जागरूकता प्राप्त करनी चाहिए, फिर परमेश्वर के वचनों के सत्य के अनुसार समस्या का इस तरह समाधान करना चाहिए कि वे अपनी गलतियाँ पहचान सकें और देह-सुख के प्रति विद्रोह कर सकें, और दूसरों के साथ सत्य-सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार कर सकें। इस तरह वे समस्या का जड़ से समाधान कर लेंगे। तुम लोगों को इस समस्या की पूरी समझ हासिल करनी चाहिए। “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” कहावत मानवता को मापने का मानक नहीं, बल्कि सिर्फ सांसारिक लेनदेनों के लिए एक आधारभूत दर्शन है, जो लोगों के भ्रष्ट व्यवहार को बिल्कुल भी रोक नहीं सकती। यह कहावत एकदम अर्थहीन है, और विश्वासियों को ऐसे नियम का पालन करने की कोई आवश्यकता नहीं है। लोगों को एक-दूसरे से परमेश्वर के वचनों और सत्य-सिद्धांतों के अनुसार मेलजोल करना चाहिए। यही चीजें हैं, जिनका विश्वासियों को पालन करना चाहिए। अगर लोग परमेश्वर में विश्वास करने के बावजूद परंपरागत संस्कृति के विचारों और शैतानी फलसफों में विश्वास करते हैं, और लोगों को मापने और दूसरों को रोकने, या खुद से अपेक्षाएँ रखने के लिए परंपरागत संस्कृति के “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” जैसे विचारों का उपयोग करते हैं, तो वे बेतुके और हास्यास्पद हैं, और वे छद्म-विश्वासी हैं। “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” कहावत अपने दोस्तों के साथ मेलजोल करने का एक शैतानी फलसफा है, जो आपसी संबंधों की अनिवार्य, मूल समस्याएँ हल नहीं कर सकती। इसलिए, यह कहावत एक सबसे उथला नियम, सांसारिक लेनदेनों के लिए सबसे उथला फलसफा है। यह सत्य-सिद्धांतों के मानकों से बहुत कम है, और ऐसे सतही नियम का पालन करने से कुछ भी हासिल नहीं हो सकता और यह बिल्कुल अर्थहीन है। क्या इसे कहने का यह उचित तरीका है? (हाँ, है।) जब भाई-बहनों के बीच कोई विवाद होता है, तो इस मामले को समझने और सुलझाने का क्या सिद्धांत होना चाहिए? परंपरागत संस्कृति के नियमों का पालन करना, या परमेश्वर के वचनों के सत्य को सिद्धांत मानना चाहिए? मुझे अपना विचार बताओ। (सबसे पहले, हमें परमेश्वर के वचनों के अनुसार उनके विवाद की प्रकृति और एक-दूसरे के खिलाफ उनके प्रबल आरोपों का विश्लेषण करके उन्हें जानना चाहिए और यह समझना चाहिए कि वे भ्रष्ट स्वभावों के उद्गार हैं। फिर, हमें उनके साथ अभ्यास के प्रासंगिक मार्ग पर संगति करनी चाहिए। उन्हें एक-दूसरे के साथ प्रेम से व्यवहार करना चाहिए, उनमें जमीर और विवेक होना चाहिए, और वे जो कहते और करते हैं उससे दूसरे को चोट पहुँचने के बजाय उसका आत्मविश्वास बढ़ना चाहिए। अगर दूसरे में कमियाँ हैं या उसने गलतियाँ की हैं, तो उन्हें उस पर हमला करने, उसकी आलोचना या निंदा करने के बजाय, जहाँ तक संभव हो तो उसकी मदद करते हुए, इससे सही ढंग से निपटना चाहिए।) यह लोगों की मदद करने का एक तरीका है। तो, उनकी मदद करने और उनका विवाद सुलझाने के लिए क्या कहा जा सकता है? (वे कलीसिया में बहस कर रहे हैं, और यह अपने आप में संतों के काम का नहीं है और परमेश्वर की अपेक्षाओं के विपरीत है। इसलिए हम उनके साथ यह कहकर संगति कर सकते हैं, “जब तुम लोगों को पता चले कि किसी में समस्याएँ हैं, तो जहाँ तक संभव हो उसकी मदद करो। अगर तुम मदद नहीं कर सकते, तो बहस करने की कोई आवश्यकता नहीं, अन्यथा इससे कलीसियाई जीवन गड़बड़ा जाएगा, और अगर तुम बार-बार चेतावनी दिए जाने के बावजूद अड़े रहते हो, तो कलीसिया अपने प्रशासनिक आदेशों के अनुसार इसे सँभालेगी।”) ऐसा लगता है कि तुम सब उन लोगों से सिद्धांतों के अनुसार निपटना जानते हो, जो कलीसियाई जीवन में बाधा डालते हैं, लेकिन तुम अभी भी यह बिल्कुल नहीं जानते कि लोगों के बीच विवाद कैसे सुलझाने हैं, या उन्हें सुलझाने के लिए परमेश्वर के कौन-से वचनों का उपयोग करना चाहिए—तुम अभी भी नहीं जानते कि समस्याएँ हल करने के लिए परमेश्वर के वचन और सत्य-सिद्धांत कैसे इस्तेमाल करने हैं। इस मामले में प्रत्येक पक्ष की क्या समस्याएँ हैं? क्या उन दोनों में भ्रष्ट स्वभाव हैं? (हाँ।) यह देखते हुए कि उन दोनों में भ्रष्ट स्वभाव हैं, यह देखो कि विवाद होने पर प्रत्येक व्यक्ति ने कौन-से भ्रष्ट स्वभाव दिखाए थे, और उनके स्रोत क्या थे। दिखाए गए भ्रष्ट स्वभावों का पता लगाओ और फिर उन्हें उजागर कर उनका विश्लेषण करने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग करो, ताकि वे दोनों वापस परमेश्वर के सामने आ जाएँ और परमेश्वर के वचनों के अनुसार आत्म-जागरूकता प्राप्त कर लें। तो, तुम्हें उनके साथ किन मुख्य चीजों पर संगति करनी चाहिए? तुम ऐसा कुछ कह सकते हो : “अगर तुम दोनों यह स्वीकारते हो कि तुम परमेश्वर के अनुयायी हो, तो बहस मत करो, क्योंकि बहस से समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। परमेश्वर में विश्वास और उसका अनुसरण करने वाले लोगों के साथ इस तरह से व्यवहार मत करो, और भाई-बहनों के साथ वैसा व्यवहार मत करो जैसा गैर-विश्वासी अन्य लोगों के साथ करते हैं। ऐसा करना परमेश्वर के इरादों के अनुरूप नहीं है। परमेश्वर लोगों से दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करने की अपेक्षा करता है? परमेश्वर के वचन बहुत स्पष्ट हैं : क्षमाशील, सहनशील और धैर्यवान बनो, और एक-दूसरे से प्रेम करो। अगर तुम देखो कि दूसरे व्यक्ति में गंभीर समस्याएँ हैं और उसने जो किया है, तुम उससे असंतुष्ट हो, तो तुम्हें क्षमाशील, सहनशील और धैर्यपूर्ण रवैये के साथ उचित और प्रभावी तरीके से इस बारे में संगति करनी चाहिए। बेहतर होगा, अगर व्यक्ति इसे ग्रहण कर ले और परमेश्वर से आया समझकर स्वीकार ले। अगर वह इसे परमेश्वर से आया समझकर स्वीकार नहीं कर पाता, तो भी तुम अपनी जिम्मेदारी पूरी कर चुके होगे, और तुम्हें उसके खिलाफ तेज हमले शुरू करने की जरूरत नहीं। जब भाई-बहन बहस करते हैं और एक-दूसरे की कमियाँ गिनाते हैं, तो यह ऐसा व्यवहार है जो संतों के काम का नहीं है, और यह परमेश्वर के इरादों के अनुरूप नहीं है। विश्वासियों को इस तरह व्यवहार नहीं करना चाहिए। और जहाँ तक उस व्यक्ति का सवाल है जिस पर आरोप लगाया जा रहा है, भले ही तुम्हें लगता हो कि तुमने यथोचित कार्य किया है और दूसरे व्यक्ति द्वारा तुम्हारी आलोचना नहीं की जानी चाहिए, फिर भी, तुम्हें अपने व्यक्तिगत पूर्वाग्रह छोड़ देने चाहिए, और समस्या और दूसरे पक्ष के आरोपों का शांति और खुलेपन से सामना करना चाहिए। तुम्हें कभी जल्दबाजी में पलटवार नहीं करना चाहिए। अगर तुम दोनों उतावलेपन की स्थिति में पड़ गए हो और खुद को नियंत्रित नहीं कर सकते, तो तुम्हें उस स्थिति से हटने का प्रयास शुरू करना चाहिए। शांत हो जाओ और मुद्दे के पीछे मत पड़े रहो, ताकि शैतान के जाल में न फँसो और उसके प्रलोभन में न पड़ो। तुम अकेले में प्रार्थना कर सकते हो, परमेश्वर के सामने आकर उससे मदद माँग सकते हो, और अपनी समस्याएँ हल करने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग करने का प्रयास कर सकते हो। जब तुम दोनों उतावलेपन से काम किए या बोले बिना शांत होकर एक-दूसरे के साथ शांतिपूर्वक और औचित्यपूर्ण ढंग से व्यवहार करने में सक्षम होते हो, तब तुम विवादित मुद्दों पर तब तक संगति करने के लिए एक-साथ आ सकते हो, जब तक कि आम सहमति पर नहीं पहुँच जाते, परमेश्वर के वचनों में एक नहीं हो जाते, और समस्या का समाधान प्राप्त नहीं कर लेते।” क्या यह कहना उचित नहीं होगा? (बिल्कुल होगा।) तथ्य यह है कि जब दो लोग बहस करते हैं, तो वे दोनों अपना भ्रष्ट स्वभाव दिखाते हैं, और वे दोनों अपना उतावलापन जाहिर करते हैं। यह सब शैतानी व्यवहार है। कोई भी व्यक्ति सही या गलत नहीं होता, और किसी का भी व्यवहार सत्य के अनुरूप नहीं होता। अगर तुम समस्या को परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुसार समझ और सँभाल पाते, तो तुम लोगों का विवाद ही न हुआ होता। अगर एक भी पक्ष परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को देख पाता, आचरण और कार्य कर पाता, तो विवाद ही न हुआ होता। इसलिए, अगर दो व्यक्ति एक-दूसरे की कमियों की आलोचना और एक-दूसरे के चेहरे पर वार करते हैं, तो वे दोनों लोग उतावले कठोर व्यक्ति हैं। उनके बारे में कुछ भी अच्छा नहीं है; उनमें से कोई भी सही नहीं है, और उनमें से कोई भी गलत नहीं है। सही-गलत को मापने का क्या आधार है? यह उस परिप्रेक्ष्य और रुख पर निर्भर करता है जिसे तुम इस मामले में अपनाते हो, तुम्हारी मंशाएँ क्या हैं, क्या तुम्हारे पास परमेश्वर के वचनों का आधार है, और क्या तुम जो करते हो वह सत्य के अनुरूप है। जाहिर है, तुम लोगों के विवाद के पीछे की मंशा दूसरे व्यक्ति को वशीभूत और अभिभूत करना है। तुम लोग गंदे शब्दों से एक-दूसरे को उजागर करते और चोट पहुँचाते हो। चाहे तुम जो उजागर करते हो वह सही हो या नहीं, और चाहे तुम लोगों के विवाद का आधार सही हो या नहीं—चूँकि तुम लोग इस मामले को परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर नहीं सँभालते, और तुम लोग जो स्वभाव दिखाते हो वह तुम्हारा उतावलापन होता है, और तुम लोगों के कार्यों के तरीके और सिद्धांत पूरी तरह से उतावलेपन पर आधारित होते हैं, तुम्हें भ्रष्ट शैतानी स्वभावों द्वारा ऐसा करने के लिए मजबूर किया गया होता है, इसलिए, चाहे जो भी सही हो, और चाहे जो भी फायदे में हो और जो भी नुकसान में, तथ्य यह है कि तुम दोनों ही गलत और जिम्मेदार हो। जिस तरह से तुम लोग मामले को सँभाल रहे हो, वह परमेश्वर के वचनों पर आधारित नहीं है। तुम दोनों को शांत होकर अपनी समस्याओं पर सावधानीपूर्वक विचार करना चाहिए। जब तुम दोनों परमेश्वर के सामने शांत हो पाते हो और ठंडे दिमाग से समस्या का समाधान कर पाते हो, तभी तुम बैठकर शांत और स्थिरचित्त होकर उस पर संगति कर सकते हो। अगर लोगों और चीजों के बारे में दोनों लोगों के विचार और उनके आचरण और कार्य परमेश्वर के वचनों और सत्य-सिद्धांतों पर आधारित होते हैं, तो किसी विशेष मामले पर उनके विचार और दृष्टिकोण चाहे कितने भी भिन्न क्यों न हों, वास्तव में कोई उल्लेखनीय वास्तविक भिन्नता और कोई समस्या नहीं होती। अगर वे अपने मतभेद परमेश्वर के वचनों और सत्य को अपना सिद्धांत मानकर सँभालते हैं, तो वे अंततः निश्चित रूप से आपस में मेलजोल कर अपने मतभेद सुलझा पाएँगे। क्या तुम लोग इसी तरह से समस्याओं से निपटते हो? (नहीं।) प्रशासनिक प्रतिबंधों का सहारा लेने के अपने तरीके को छोड़कर, तुम लोग समस्याएँ हल करने के लिए सत्य का उपयोग करना जानते ही नहीं। तो, मामले को पूरी समग्रता में सँभालने का मुख्य बिंदु क्या है? वह लोगों से अपने मतभेद भुला देने की अपेक्षा करना नहीं है, बल्कि उन्हें सही तरीके से हल करके एकता हासिल करना है। मतभेद दूर करने का क्या आधार है? (परमेश्वर के वचन।) यह सही है : परमेश्वर के वचनों में आधार ढूँढ़ो। यह इस बात का विश्लेषण करने के बारे में नहीं है कि कौन सही है और कौन गलत, कौन बड़ा है और कौन छोटा, या कौन उचित है और कौन नहीं। बल्कि, यह लोगों के विचारों और दृष्टिकोणों की समस्या हल करने के बारे में है, जिसका अर्थ है लोगों के गलत विचारों और दृष्टिकोणों और किसी विशेष मामले से निपटने के गलत तरीकों का समाधान करना। सिर्फ परमेश्वर के वचनों में आधार खोजकर, और सिर्फ सत्य सिद्धांत समझकर ही समस्याओं का वास्तव में समाधान किया जा सकता है और लोग वास्तव में एक-दूसरे के साथ सद्भाव से रहकर एकता प्राप्त कर सकते हैं। अन्यथा, अगर तुम चीजें सँभालने के लिए परंपरागत संस्कृति के “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” जैसे कथनों और विधियों का उपयोग करते हो, तो समस्याएँ कभी हल नहीं होंगी, या कम से कम, लोगों के विचारों और दृष्टिकोणों के बीच का अंतर दूर नहीं होगा। इसलिए, सभी को परमेश्वर के वचनों में आधार खोजना सीखना चाहिए। परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं, और उनमें कुछ भी विरोधाभासी नहीं है। वे सभी लोगों, मामलों और चीजों को मापने की एकमात्र कसौटी हैं। अगर सभी परमेश्वर के वचनों में एक आधार पा लें, और चीजों के बारे में उनके नजरिये परमेश्वर के वचनों में एकता प्राप्त कर लें, तो क्या लोगों के लिए आम सहमति पर पहुँचना आसान नहीं है? अगर सभी लोग सत्य स्वीकार सकते हों, तो क्या तब भी लोगों के बीच मतभेद होंगे? क्या तब भी विवाद होंगे? क्या तब भी लोगों के बीच प्रतिबंधों के रूप में “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” जैसे विचारों, दृष्टिकोणों और कथनों का उपयोग करने की आवश्यकता होगी? नहीं होगी, क्योंकि परमेश्वर के वचन सभी समस्याओं का समाधान कर सकते हैं। लोगों में चाहे जो भी असहमतियाँ हों, या जितने भी भिन्न दृष्टिकोण हों, उन सभी को परमेश्वर के सामने लाया जाना चाहिए, और परमेश्वर के वचनों के अनुसार उन्हें परखा और उनका विश्लेषण किया जाना चाहिए। तब यह निश्चित करना संभव होगा कि वे सत्य के अनुरूप हैं या नहीं। जब लोग सत्य समझ लेते हैं, तो वे देख पाते हैं कि भ्रष्ट मानवजाति के अधिकांश विचार और दृष्टिकोण परंपरागत संस्कृति से, और उन दिग्गजों और महान हस्तियों से आते हैं, जिनकी लोग पूजा करते हैं—लेकिन अपने मूल में, वे शैतानी फलसफों से आते हैं। इसलिए, इन भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों का समाधान करना वास्तव में आसान है। मैं क्यों कहता हूँ कि इनका समाधान करना आसान है? क्योंकि अगर तुम इन मानवीय विचारों और दृष्टिकोणों को परमेश्वर के वचनों से मापते हो, तो तुम पाओगे कि वे सभी विकृत, अपुष्ट और अव्यावहारिक हैं। अगर लोग सत्य स्वीकार सकें, तो इन चीजों को छोड़ना आसान है, और इसी के अनुसार सभी समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। समस्याओं के समाधान के बाद क्या हासिल होता है? सभी अपने मत और व्यक्तिगत, व्यक्तिपरक विचार और दृष्टिकोण छोड़ सकते हैं। चाहे तुम उन्हें कितना भी नेक और सही समझो, चाहे वे कितने भी समय से लोगों के बीच प्रसारित हो रहे हों, अगर वे सत्य के अनुरूप नहीं हैं, तो तुम्हें उन्हें नकार और त्याग देना चाहिए। अंत में, जब सभी लोग परमेश्वर के वचनों को अपने आधार के रूप में ले लेते हैं और लोगों से आने वाली हर चीज को नकार देते हैं, तो क्या उनके विचार और दृष्टिकोण एकीकृत नहीं हो जाएँगे? (बिल्कुल हो जाएँगे।) जब लोगों और चीजों के बारे में लोगों के दृष्टिकोणों को, और साथ ही उनके आचरण और कार्यों को भी, निश्चित करने वाले सभी विचार और दृष्टिकोण एकीकृत हो जाते हैं, तब लोगों के बीच क्या अंतर होंगे? अधिक से अधिक, खान-पान और रहन-सहन की आदतों में कुछ अंतर होंगे। लेकिन जब उन मुद्दों की बात आती है, जो वास्तव में लोगों के भ्रष्ट स्वभावों, उनके चलने के मार्ग, और मानवजाति के सार से संबंधित होते हैं, अगर सभी लोग परमेश्वर के वचनों को अपना आधार और सत्य को अपनी कसौटी मान लेते हैं, तो वे एक-दूसरे के साथ एकमत हो जाएँगे। चाहे तुम पूर्वी हो या पश्चिमी, बूढ़े हो या जवान, पुरुष हो या महिला, या चाहे तुम कोई बुद्धिजीवी हो, या कार्यकर्ता या किसान : अगर तुम दूसरों के साथ परमेश्वर के वचनों के सत्य के अनुसार मेलजोल कर सकते हो, तो क्या फिर भी लोगों के बीच लड़ाई-झगड़े होंगे? नहीं होंगे। तो, क्या “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” जैसी बचकानी अपेक्षाएँ फिर भी लोगों के विवादों के समाधान के रूप में सामने लाई जा सकती हैं? क्या वे अभी भी ऐसे सूत्र-वाक्य हो सकते हैं, जिनका लोग एक-दूसरे के साथ मेलजोल में पालन करते हैं? इस तरह के सतही नियमों का मानवजाति के लिए कोई मूल्य नहीं है, और वे लोगों के दैनिक जीवन में लोगों और चीजों के बारे में उनके विचारों, और साथ ही उनके आचरण और कार्यों को भी, प्रभावित नहीं कर सकते। इसके बारे में सोचो : क्या ऐसा नहीं है? (हाँ, है।) चूँकि वे सत्य से बहुत दूर हैं, और लोगों और चीजों के बारे में उनके विचारों, या उनके आचरण और कार्यों पर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता, इसलिए उन्हें हमेशा के लिए त्याग देना चाहिए।
हमने ऊपर जिस बारे में संगति की है, उसे देखते हुए क्या यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि परमेश्वर के वचन और सत्य वे कसौटियाँ हैं, जिनके अनुसार सभी लोगों, घटनाओं और चीजों को मापा जाना है, और मानवता की परंपरागत संस्कृति और नैतिक शास्त्र परमेश्वर के वचनों और सत्य के सामने अपुष्ट और अनुल्लेखनीय हैं? (हाँ।) जहाँ तक “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” की उस “नेक” नैतिक अपेक्षा की बात है, जिसका मानवजाति आदर करती है, लोगों को अब उसे किस प्रकार के दृष्टिकोण और परिप्रेक्ष्य से देखना चाहिए? क्या लोगों को ऐसे शब्दों की पूजा और उनका पालन करते रहना चाहिए? (नहीं।) तो फिर उनका त्याग कैसे किया जाए? जब चीजें तुम पर आ पड़ें, तो उतावले या आवेगी न होने से शुरुआत करो। सभी लोगों और चीजों के साथ सही तरह से व्यवहार करो, शांत हो जाओ, परमेश्वर के सामने आओ, परमेश्वर के वचनों में सत्य-सिद्धांत खोजो, और अभ्यास का मार्ग ढूँढ़ो, ताकि तुम लोगों और घटनाओं के साथ एकदम परमेश्वर के वचनों के आधार पर व्यवहार कर सको, न कि नैतिक आचरण संबंधी उस कहावत से जकड़े जाओ या बाध्य हो जाओ, जो इस प्रकार है, “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो।” क्या इस तरह से जीना तुम्हारे लिए आसान और अधिक आनंदमय नहीं होगा? अगर लोग सत्य नहीं स्वीकारते, तो उनके पास भ्रष्ट स्वभावों की बाध्यता से मुक्त होने का कोई उपाय नहीं होता, और उनके लिए उस समूह में दूसरों के साथ मेलजोल करना मुश्किल होता है, जिसमें वे रहते हैं। कोई ऐसा हो सकता है, जिसे तुम धौंस नहीं देते, लेकिन वह तुम्हें धौंस देना चाहता है। तुम किसी के साथ मिलजुलकर रहना चाहते हो, लेकिन वह हमेशा तुम्हारे लिए परेशानी खड़ी करता है। तुम कुछ लोगों से सतर्क रहते और बचते हो, लेकिन वे बेपरवाही से तुम्हें सताते और परेशान करते रहते हैं। अगर तुम सत्य नहीं समझते और तुम्हारे पास परमेश्वर के वचनों में कोई आधार नहीं है, तो तुम बस इतना कर सकते हो कि अंत तक उनके साथ संघर्ष करते रहो। अगर ऐसा होता है कि तुम्हारा सामना किसी विकट दबंग से होता है, तो तुम महसूस करोगे कि तुम्हारे पास इस कहावत का पालन करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है, “सज्जन के बदला लेने में देर क्या और सबेर क्या।” तुम उससे बदला लेने के लिए सही मौके का इंतजार करोगे, उसे गिराने के लिए चतुर तरीकों का इस्तेमाल करोगे। तुम न सिर्फ अपनी शिकायत जाहिर करने में सक्षम होगे, बल्कि तुम हर व्यक्ति को अपनी न्याय की भावना को लेकर अपनी सराहना करने के लिए भी प्रेरित करोगे, और उसे यह सोचने पर मजबूर करोगे कि तुम सज्जन हो और वह खलनायक। तुम इस रवैये के बारे में क्या सोचते हो? क्या दुनिया में व्यवहार करने का यह सही तरीका है? (नहीं।) अब तुम लोग समझते हो। तो, अच्छा आदमी कौन है : सज्जन या खलनायक? (कोई भी अच्छा नहीं है।) जो सज्जन गैर-विश्वासियों द्वारा पूजे जाते हैं, उनके वर्णन में एक शब्द की कमी रहती है : “नकली।” वे “नकली सज्जन” हैं। इसलिए, तुम लोग चाहे जो कुछ भी करो, सज्जन मत बनना, क्योंकि सभी सज्जन ऐसा होने का दिखावा कर रहे होते हैं। तो, सही मार्ग पर बने रहने के लिए व्यक्ति को कैसा आचरण करना चाहिए? क्या एक “सच्चे सज्जन” की तरह व्यवहार करना ठीक है, जो “अगर दूसरों पर वार करता है, तो उनके चेहरे पर वार नहीं करता; अगर वह दूसरों की आलोचना करता है, तो उनकी कमियों की आलोचना नहीं करता”? (नहीं।) वे सभी सज्जन और प्रसिद्ध लोग पाखंडी और धोखेबाज हैं, और वे नकली सज्जन हैं। वे सब नरक में जा सकते हैं! तो फिर, व्यक्ति को कैसे आचरण करना चाहिए? ऐसा व्यक्ति बनकर, जो सत्य का अनुसरण करता है, जो पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखता और आचरण और कार्य करता है। सिर्फ इस तरह के आचरण से ही कोई सच्चा व्यक्ति होता है। यह सही तरीका है या नहीं? (बिल्कुल है।) अगर कोई तुम्हारी कमियों की आलोचना करता रहता है, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम कह सकते हो, “अगर तुम मेरी आलोचना करते हो, तो मैं भी तुम्हारी आलोचना करूँगा!” क्या एक-दूसरे को इस तरह निशाना बनाना सही है? क्या लोगों को इसी तरह से आचरण, कार्य और दूसरों के साथ व्यवहार करना चाहिए? (नहीं।) हो सकता है, लोग जानते हों कि उन्हें सिद्धांत के तौर पर ऐसा नहीं करना चाहिए, फिर भी बहुत-से लोग ऐसे प्रलोभनों और फंदों से बचकर निकल नहीं पाते। हो सकता है, तुमने किसी को अपनी कमियों की आलोचना करते हुए, या खुद को निशाना बनाते हुए, या अपनी पीठ पीछे अपनी आलोचना करते हुए न सुना हो—लेकिन जब तुम किसी को ऐसी बातें कहते हुए सुनते हो, तो तुम इसे सहन नहीं कर पाओगे। तुम्हारा दिल जोरों से धड़केगा और तुम्हारा गुस्सा बाहर आ जाएगा; तुम कहोगे, “तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरी आलोचना करने की? अगर तुम मेरे प्रति निष्ठुर रहोगे तो मैं तुम्हारा बुरा करूँगा! अगर तुम मेरी कमियों की आलोचना करते हो, तो यह मत सोचना कि मैं तुम्हारे जख्मों पर नमक नहीं छिड़कूँगा!” दूसरे कहते हैं, “एक कहावत है, ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो,’ इसलिए मैं तुम्हारी कमियों की आलोचना नहीं करूँगा, लेकिन मैं तुम्हें देख लेने और तुम्हारी औकात दिखाने के दूसरे तरीके ढूँढूँगा। देखते हैं, किसमें कितना दम है!” ये तरीके अच्छे हैं या नहीं? (नहीं।) यह पता चलने पर कि किसी ने उनकी कमियाँ गिनाई हैं, उनकी आलोचना की है या उनकी पीठ पीछे उनके बारे में कुछ बुरा कहा है, लगभग सभी लोगों की पहली प्रतिक्रिया गुस्से की होगी। वे आगबबूला हो जाएँगे, उनका खाना या सोना दूभर हो जाएगा—और अगर किसी तरह सो भी गए, तो अपने सपनों में भी गाली-गलौज कर रहे होंगे! उनकी उतावलेपन की कोई सीमा नहीं होगी! यह इतनी मामूली बात है, फिर भी वे इससे उबर नहीं पाते। लोगों पर उतावलेपन का यही प्रभाव होता है, भ्रष्ट स्वभावों के बुरे परिणाम ऐसे ही हैं। जब कोई भ्रष्ट स्वभाव किसी का जीवन बन जाता है, तो यह मुख्यतः कहाँ प्रदर्शित होता है? यह तब प्रदर्शित होता है जब कोई व्यक्ति किसी ऐसी चीज का सामना करता है जो उसे अप्रिय लगती है, वह चीज पहले उसकी भावनाओं को प्रभावित करती है, और फिर उस व्यक्ति का उतावलापन फूट पड़ता है। और ऐसा होने पर व्यक्ति अपने उतावलेपन में रहेगा और मामले को अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार देखेगा। उसके दिल में शैतान के दार्शनिक विचार उठेंगे, और वह इस बात पर विचार करना शुरू कर देगा कि वह अपना बदला लेने के लिए किन तरीकों और साधनों का उपयोग करे, और इस तरह वह अपना भ्रष्ट स्वभाव उजागर कर देगा। इस तरह की समस्याओं से निपटने के बारे में लोगों के विचार और दृष्टिकोण, और उनके द्वारा अपनाए जाने वाले तरीके और साधन, यहाँ तक कि उनकी भावनाएँ और उतावलापन, सभी भ्रष्ट स्वभावों से आते हैं। तो, इस मामले में कौन-से भ्रष्ट स्वभाव सामने आते हैं? पहला निश्चित रूप से द्वेष है, जिसके बाद आते हैं अहंकार, छल, दुष्टता, हठधर्मिता, सत्य से विमुखता और सत्य से घृणा। इन भ्रष्ट स्वभावों में से अहंकार सबसे कम प्रभावशाली हो सकता है। तो फिर, वे कौन-से भ्रष्ट स्वभाव हैं, जो व्यक्ति की भावनाओं और विचारों पर हावी होने में सबसे अधिक सक्षम हैं, और यह निर्धारित करते हैं कि वे अंततः इस मामले से कैसे निपटेंगे? वे हैं द्वेष, हठधर्मिता, सत्य से विमुखता और सत्य से घृणा। ये भ्रष्ट स्वभाव व्यक्ति को मौत के शिकंजे में जकड़ देते हैं, और यह स्पष्ट है कि वे शैतान के मकड़जाल में जी रहे हैं। शैतान का मकड़जाल कैसे उत्पन्न होता है? क्या ये भ्रष्ट स्वभाव ही नहीं हैं, जो उसे जन्म देते हैं? तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों ने तुम्हारे लिए हर तरह के शैतानी मकड़जाल बुन दिए हैं। उदाहरण के लिए, जब तुम सुनते हो कि कोई तुम्हारी आलोचना जैसी चीज कर रहा है, तुम्हें कोस रहा है, या तुम्हारी पीठ पीछे तुम्हारी कमियाँ बता रहा है, तो तुम शैतानी फलसफों और भ्रष्ट स्वभावों को अपना जीवन बनने देकर उन्हें अपने विचारों, दृष्टिकोणों और भावनाओं पर हावी होने देते हो, और इस प्रकार क्रियाकलापों का एक क्रम उत्पन्न कर देते हो। ये भ्रष्ट क्रियाकलाप मुख्य रूप से तुम्हारी शैतानी प्रकृति और स्वभाव का परिणाम हैं। चाहे तुम्हारी परिस्थितियाँ कुछ भी हों, जब तक तुम शैतान के भ्रष्ट स्वभाव से बंधे हो, उससे नियंत्रित और शासित हो, तुम जो कुछ भी जीते हो, जो कुछ भी प्रकट करते हो और जो कुछ भी प्रदर्शित करते हो—या फिर तुम्हारी भावनाएँ, विचार, दृष्टिकोण, और तुम्हारे काम करने के तरीके और साधन—सभी शैतानी हैं। ये सभी चीजें सत्य का उल्लंघन करती हैं, परमेश्वर के वचनों और सत्य के प्रति शत्रुतापूर्ण हैं। तुम परमेश्वर के वचनों और सत्य से जितने दूर होते हो, उतने ही अधिक तुम शैतान के जाल से नियंत्रित होते और उसमें फँसते हो। इसके बजाय, अगर तुम अपने भ्रष्ट स्वभावों की बेड़ियों और नियंत्रण से मुक्त हो पाओ, और उनके खिलाफ विद्रोह कर पाओ, परमेश्वर के सामने आ सको, और उन तरीकों और सिद्धांतों से कार्य और समस्याओं का समाधान कर पाओ जिनके बारे में परमेश्वर के वचन तुम्हें बताते हैं, तो तुम धीरे-धीरे शैतान के मकड़जाल से मुक्त हो जाओगे। मुक्त होने के बाद, फिर तुम उसी पुराने शैतानी व्यक्ति के समान नहीं जीते हो जो अपने भ्रष्ट स्वभावों द्वारा नियंत्रित होता है, बल्कि एक नए व्यक्ति के समान जीते हो जो परमेश्वर के वचनों को अपना जीवन समझता है। तुम्हारे जीने का पूरा तरीका बदल जाता है। लेकिन अगर तुम उन भावनाओं, विचारों, दृष्टिकोणों और अभ्यासों के आगे झुक जाते हो जिन्हें शैतानी स्वभाव जन्म देते हैं, तो तुम शैतानी फलसफों और विभिन्न तकनीकों की स्तुति-माला जपने लगोगे, जैसे कि “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो,” “सज्जन के बदला लेने में देर क्या और सबेर क्या,” “नकली सज्जन की तुलना में सच्चा खलनायक बनना बेहतर है,” “जो बदला नहीं लेता वह मर्द नहीं है।” ये तुम्हारे दिल में होंगे, तुम्हारे क्रियाकलापों को निर्देशित करेंगे। अगर तुम इन शैतानी फलसफों को अपने क्रियाकलापों का आधार समझ लेते हो, तो तुम्हारे क्रियाकलापों का चरित्र बदल जाएगा, और तुम बुराई और परमेश्वर का विरोध कर रहे होगे। अगर तुम इन नकारात्मक विचारों और दृष्टिकोणों को अपने क्रियाकलापों का आधार समझ लेते हो, तो यह स्पष्ट है कि तुम परमेश्वर की शिक्षाओं और वचनों से बहुत दूर भटक गए हो, और शैतान के मकड़जाल में गिर गए हो और खुद को छुड़ा नहीं सकते। तुम लोग व्यावहारिक रूप से अपना पूरा दैनिक जीवन शैतानी स्वभावों के बीच जीते हो—तुम शैतान के मकड़जाल में जीते हो। लोगों की पीड़ा की जड़ यह है कि वे अपने शैतानी स्वभावों द्वारा इस तरह नियंत्रित किए जाते हैं कि खुद को छुड़ा नहीं सकते। वे पाप में जीते और पीड़ित होते हैं, फिर चाहे कुछ भी करें। अपने दुश्मन को हराकर भी तुम पीड़ित महसूस करते हो, क्योंकि तुम नहीं जानते कि तुम्हारा अगला दुश्मन कौन होगा, न ही यह जानते हो कि तुम उसे उसी तरह हरा पाओगे या नहीं। तुम भयभीत और पीड़ित रहते हो। और जो हार गया, उसका क्या? बेशक, वह भी इसी तरह पीड़ित रहता है। धौंस में आने के बाद, उसे लगता है कि जीवन में उसकी कोई गरिमा या निष्ठा नहीं है। धौंस सह पाना मुश्किल है, इसलिए वह लगातार हमला करने के लिए उपयुक्त मौके की प्रतीक्षा करता है और बदला लेने की ताक में रहता है—आँख के बदले आँख, और दाँत के बदले दाँत—वह अपने दुश्मन को धूल चटाने का मौका ढूँढ़ता है। ऐसी मानसिकता भी पीड़ा है। संक्षेप में, जो बदला लेता है और जिससे बदला लिया जाता है, दोनों समान रूप से शैतान के मकड़जाल में जीते हैं, लगातार बुराई करते हैं, लगातार अपनी अनिश्चित स्थिति से बाहर निकलने के तरीके ढूँढ़ते हैं, और शांति, खुशी और सुरक्षा पाने की कामना करते हैं। एक ओर तो लोग भ्रष्ट स्वभावों से नियंत्रित होते हैं और शैतान के मकड़जाल में जीते हैं, अपने आसपास होने वाली समस्याओं को हल करने के लिए खुद को शैतान द्वारा दिए गए विभिन्न तरीकों, विचारों और दृष्टिकोणों को अपनाते हैं। वहीं दूसरी ओर लोग आज भी परमेश्वर से सुख-शांति पाने की आशा रखते हैं। लेकिन चूँकि वे हमेशा शैतान के भ्रष्ट स्वभाव से बंधे रहते हैं और उसके मकड़जाल में फँस जाते हैं, होशपूर्वक उसके खिलाफ विद्रोह करने और उससे उभरने में असमर्थ होते हैं, और चूँकि वे परमेश्वर के वचनों और सत्य-सिद्धांतों से दूर हो जाते हैं, इसलिए वे कभी भी परमेश्वर से आने वाला सुख, आनंद, शांति और प्रसन्नता प्राप्त नहीं कर पाते। लोग आखिर में, किस अवस्था में जीते हैं? वे चाहकर भी सत्य का अनुसरण करने के कार्य के लिए उठकर खड़े नहीं हो सकते, और वे परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर पाते, हालाँकि वे अपने कर्तव्य ठीक से निभाना चाहते हैं। वे जहाँ हैं, वहीं अटके रह जाते हैं। यह बहुत ही पीड़ादायक स्थिति है। लोग न चाहते हुए भी शैतान के भ्रष्ट स्वभाव में जीते हैं। वे इंसानों से ज्यादा पिशाचों की तरह होते हैं, और अक्सर अंधेरे कोनों में रहते हैं, शर्मनाक और दुष्ट हथकंडे तलाशते हैं ताकि अपनी कठिनाइयों का समाधान कर सकें। सच तो यह है कि अपनी आत्मा की गहराई में, लोग अच्छा बनने के इच्छुक होते हैं और प्रकाश की आकांक्षा करते हैं। वे आदर के साथ मनुष्य के रूप में जीने की उम्मीद करते हैं। वे सत्य का अनुसरण करने और जीने के लिए परमेश्वर के वचनों पर भरोसा करने, परमेश्वर के वचनों को अपना जीवन और वास्तविकता बनाने की उम्मीद भी करते हैं, लेकिन सत्य को कभी अभ्यास में नहीं ला पाते, और कई सिद्धांतों को समझने के बावजूद कभी अपनी समस्याओं का समाधान नहीं कर पाते। लोग इस दुविधा में आगे-पीछे डोलते रहते हैं, आगे जा नहीं पाते और पीछे जाना नहीं चाहते। वे जहाँ होते हैं, वहीं अटके रहते हैं। और “अटके” रहने का एहसास एक पीड़ा होती है—जबरदस्त पीड़ा। लोग प्रकाश की आकांक्षा रखते हैं, वे परमेश्वर के वचनों और सही मार्ग को छोड़ने के अनिच्छुक होते हैं। मगर वे सत्य नहीं स्वीकारते, और परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में नहीं ला सकते, और अपने भ्रष्ट शैतानी स्वभाव के बंधनों और नियंत्रण से मुक्त होने में असमर्थ बने रहते हैं। अंततः, वे बिना किसी वास्तविक प्रसन्नता के, केवल पीड़ा में ही जी पाते हैं। क्या चीजें ऐसी ही नहीं हैं? (ऐसी ही हैं।) किसी भी स्थिति में, अगर लोग सत्य का अभ्यास करना और सत्य प्राप्त करना चाहते हैं, तो उन्हें छोटी-छोटी चीजों से शुरू करते हुए, परमेश्वर के वचनों का थोड़ा-थोड़ा अनुभव करना चाहिए, ताकि उनके विचारों और दृष्टिकोणों, और सत्य के उनके अनुसरण पर नैतिक आचरण संबंधी इन कहावतों का प्रभाव दूर हो सके। यह महत्वपूर्ण है; ये मुद्दे हल किए ही जाने चाहिए।
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