सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (8) भाग एक

पिछली बार हमने नैतिक आचरण के बारे में परंपरागत संस्कृति के चार कथनों पर संगति की। मुझे बताओ कि वे क्या थे। (“दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए,” “दूसरों की खातिर अपने हित त्याग दो,” “महिला को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना चाहिए,” और “कुएँ का पानी पीते हुए यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि इसे किसने खोदा था।”) क्या तुम लोगों को स्पष्ट समझ है कि इनमें से प्रत्येक कथन में क्या विश्लेषण किया और समझा जाना चाहिए? परंपरागत संस्कृति में प्रत्येक कथन लोगों के वास्तविक जीवन और इस बात से निकटता से संबंधित है कि वे कैसे आचरण करते हैं। इस बात में कोई संदेह नहीं कि परंपरागत संस्कृति के इन कथनों का लोगों के वास्तविक जीवन पर और जिस तरह से वे आचरण करते हैं, उस पर एक निश्चित प्रभाव होता है। वास्तविक जीवन में लोगों के शब्द, कार्य और आचरण के सिद्धांत मूल रूप से परंपरागत संस्कृति के इन कथनों और दृष्टिकोणों से ही निकले होते हैं। जाहिर है, लोगों पर परंपरागत संस्कृति का प्रभाव और उनमें उसकी पैठ काफी गहरी होती है। पिछली सभा में मेरे संगति पूरी करने के बाद क्या तुम लोग एक-दूसरे के साथ और चिंतन और संगति में संलग्न हुए थे? (हमने संगति कर नैतिक आचरण के इन कथनों को थोड़ा समझा, और हम इस प्रकार की चीजों पर अपने विचार और दृष्टिकोण बदलने में थोड़े सक्षम रहे, लेकिन हमें अभी भी इनकी पूरी समझ नहीं है।) पूरी समझ प्राप्त करने का एक भाग यह है कि तुम्हें अपनी समझ का आधार उसे बनाना चाहिए, जिसके बारे में मैंने संगति की थी; दूसरा भाग यह है कि तुम्हें उसे उन दृष्टिकोणों के प्रकाश में समझना चाहिए, जो तुम वास्तविक जीवन में रखते हो, और साथ ही उन विचारों और कार्यों के प्रकाश में, जो तब होते हैं जब तुम्हारे साथ कुछ होता है। सिर्फ उपदेश सुनना पर्याप्त नहीं है। उपदेश सुनने का उद्देश्य वास्तविक जीवन में नकारात्मक चीजें पहचानने, नकारात्मक चीजों को अधिक सटीक रूप से अलग कर पाने और फिर सकारात्मक चीजें समझने में सक्षम होना और उनकी शुद्ध समझ रखना है, ताकि परमेश्वर के वचन वास्तविक जीवन में तुम्हारे व्यवहार और आचरण करने के मानदंड बन जाएँ। एक लिहाज से, इन नकारात्मक चीजों की पहचान करने से लोगों के व्यवहार और आचरण पर इस हद तक सुधारात्मक प्रभाव पड़ता है, यहाँ तक कि वह लोगों के गलत विचार, दृष्टिकोण, और घटनाओं और चीजों के प्रति उनके रवैये ठीक कर सकता है; इसके अलावा, अपनी सकारात्मक भूमिका में, यह लोगों और चीजों के बारे में उनके विचारों की बात आने पर, और उनके आचरण और कार्यों में, लोगों को सही उपायों और तरीकों के साथ-साथ अभ्यास के सटीक सिद्धांत अपनाने के लिए प्रेरित कर सकता है। यह नैतिक आचरण संबंधी इन कथनों पर संगति कर इनका विश्लेषण करने का उद्देश्य और अभीष्ट परिणाम है।

अब दो बार, हम परंपरागत चीनी संस्कृति में नैतिक आचरण संबंधी कथनों पर संगति कर चुके हैं, जो मूल रूप से लोगों के नैतिक आचरण की वे अपेक्षाएँ हैं, जो एक बड़े सामाजिक संदर्भ में उत्पन्न हुई हैं। व्यक्तिगत स्तर पर, ये कथन कुछ हद तक लोगों के व्यवहार को प्रतिबंधित और नियंत्रित कर सकते हैं; एक ज्यादा बड़े दृष्टिकोण से, इनका उद्देश्य अच्छा सामाजिक लोकाचार बनाना, और निश्चित रूप से, शासकों को लोगों पर बेहतर तरीके से शासन करने में सक्षम बनाना था। अगर लोगों के पास अपने विचार हों, वे स्वतंत्र रूप से सोच सकते हों, और आचरण के अपने नैतिक मानक खोज सकते हों, या अगर वे अपनी राय व्यक्त कर सकते हों, अपने विचारों से जी सकते हों, जैसा ठीक समझें वैसा आचरण कर सकते हों, और चीजों, लोगों और अपने समाज को, और जिस देश में वे रहते हैं, उसे देखने के अपने तरीके अपना सकते हों, तो निस्संदेह शासकों के लिए यह कोई अच्छी बात या अच्छा संकेत नहीं है, क्योंकि यह सीधे उनकी प्रभुत्व की स्थिति खतरे में डालता है। संक्षेप में, नैतिक आचरण के ये कथन मूल रूप से तथाकथित नैतिकतावादियों, विचारकों और शिक्षकों द्वारा शासकों को खुश करने और उनकी मदद करने के लिए पेश किए गए थे, यह दिखाने के उद्देश्य से कि वे शासकों की सेवा करने के लिए इन विचारों और सिद्धांतों का, और साथ ही अपनी ख्याति और प्रतिष्ठा का उपयोग कर सकते हैं। यह मूल रूप से नैतिक आचरण के इन सभी कथनों की प्रकृति है, जिसके बारे में हमने संगति की; इनका उद्देश्य लोगों के विचारों, नैतिक आचरण, और चीजों के बारे में उनके दृष्टिकोणों को उस नैतिक सीमा के भीतर प्रतिबंधित करने के अलावा और कुछ नहीं था जिसे लोग थोड़ा बेहतर, अधिक सकारात्मक और अधिक श्रेष्ठ मानते थे, ताकि लोगों के बीच होने वाले संघर्ष कम किए जा सके, उनकी बातचीत में सद्भाव आए और शांति उत्पन्न हो, इससे लोगों पर शासकों के प्रभुत्व को लाभ हुआ, और साथ ही, सत्तारूढ़ वर्ग की स्थिति सुदृढ़ हुई और सामाजिक सद्भाव और स्थिरता कायम रही। इस प्रकार, नैतिक आचरण के मानक प्रस्तुत करने वाले इन सभी लोगों ने वह सब प्राप्त कर लिया जिसकी वे कामना करते थे, जो शासक वर्ग द्वारा सराहा जाकर महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया जाना था। यह बहुत हद तक आजीविका का वह मार्ग था, जिसकी वे आकांक्षा और आशा करते थे, और अगर वे उच्च-पदस्थ अधिकारी न भी हो पाते, तो भी कम से कम आने वाली पीढ़ियों द्वारा याद किए जाते और इतिहास में आ जाते। इसके बारे में सोचो—नैतिक आचरण के ये कथन प्रस्तुत करने वाले लोगों में से कौन इस समाज द्वारा सम्मानित नहीं है? किसे मानवजाति द्वारा सराहा नहीं गया? आज भी, चीनी लोगों के बीच ये तथाकथित विचारक, शिक्षक और नैतिकतावादी, जैसे कि कन्फ्यूशियस, मेंसियस, लाओजी, हान फीजी आदि, स्थायी रूप से लोकप्रिय, अत्यधिक सम्मानित और आराध्य हैं। बेशक, हमने नैतिक आचरण के कुछ सीमित कथन ही सूचीबद्ध किए हैं, और दिए गए उदाहरण कुछ अधिक प्रतिनिधिक हैं। हालाँकि नैतिक आचरण के ये कथन कई लोगों से आते हैं, लेकिन इन तथाकथित दिग्गजों द्वारा प्रतिपादित विचार और दृष्टिकोण पूरी तरह से शासकों और शासक वर्ग की इच्छा के अनुरूप हैं, और शासन की उनकी सभी अवधारणाएँ और केंद्रीय विचार समान हैं : मनुष्यों के अनुपालन के लिए आचरण और कार्यों के कुछ नैतिक मानदंड निरूपित करना, ताकि वे अच्छा व्यवहार करें, नम्रता से समाज और अपने देश के लिए योगदान करें, और अपने साथियों के बीच नम्रता से रहें—मूल रूप से यही सब-कुछ है। चाहे नैतिक आचरण के इन कथनों की किसी भी वंश या व्यक्ति से उत्पत्ति हुई हो, उनके विचारों और दृष्टिकोणों का एक ही उद्देश्य है : शासक वर्ग की सेवा करना, और मानवजाति को गुमराह कर नियंत्रित करना।

हम नैतिक आचरण के लगभग आठ कथनों पर पहले ही संगति कर चुके हैं। इन आठ कथनों की प्रकृति मूल रूप से यह अपेक्षा है कि लोग अपनी स्वार्थपूर्ण अभिलाषाएँ और अपनी इच्छा त्याग दें, और इसके बजाय समाज, मानवजाति और अपने देश की सेवा करें, और निस्स्वार्थता हासिल करें। उदाहरण के लिए, चाहे नैतिक आचरण के बारे में इस तरह के कथन कि “दूसरों की खातिर अपने हित त्याग दो,” “महिला को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना चाहिए,” और “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो” किसी भी समूह को प्रस्तुत किए जाएँ, इन सभी में लोगों को आत्म-संयम—अपनी इच्छाओं और अनैतिक आचरण पर संयम—रखना और अनुकूल वैचारिक और नैतिक दृष्टिकोण रखना होता है। चाहे ये कथन मानवजाति को कितना भी प्रभावित करते हों, और चाहे वह प्रभाव सकारात्मक हो या नकारात्मक, सारगर्भित ढंग से इन तथाकथित नैतिकतावादियों का उद्देश्य, इस तरह के कथन प्रस्तुत करके लोगों के नैतिक आचरण को प्रतिबंधित और विनियमित करना था, ताकि लोगों के पास इस बात के लिए एक बुनियादी संहिता हो कि उन्हें कैसे आचरण और कार्य करना चाहिए, लोगों और चीजों को कैसे देखना चाहिए, और अपने समाज और देश को कैसे लेना चाहिए। सकारात्मक पक्ष देखें तो, नैतिक आचरण के इन कथनों के आविष्कार ने कुछ हद तक मानवजाति के नैतिक आचरण को प्रतिबंधित और विनियमित करने में एक भूमिका निभाई है। लेकिन वस्तुगत तथ्यों को देखें तो, इसके कारण लोगों ने कुछ कुटिल और दिखावटी विचार और दृष्टिकोण अपनाए हैं, जिससे परंपरागत संस्कृति से प्रभावित और उसके द्वारा शिक्षित होने वाले लोग, अधिक कपटी, अधिक चालाक, दिखावा करने में बेहतर और अपनी सोच में अधिक सीमित बन गए। परंपरागत संस्कृति के प्रभाव और सीख के कारण लोगों ने धीरे-धीरे परंपरागत संस्कृति के इन गलत विचारों और कथनों को सकारात्मक चीजों के रूप में अपना लिया है, और वे लोगों को गुमराह करने वाले इन दिग्गजों और महान हस्तियों की संतों के रूप में पूजा करते हैं। जब लोग गुमराह हो जाते हैं, तो उनके दिमाग भ्रमित, सुन्न और कुंठित हो जाते हैं। वे नहीं जानते कि सामान्य मानवता क्या होती है, या सामान्य मानवता वाले लोगों को किस चीज का अनुसरण और पालन करना चाहिए। वे नहीं जानते कि लोगों को इस दुनिया में कैसे रहना चाहिए या उन्हें अस्तित्व के किस तरह के तरीके या नियमों को अपनाना चाहिए, और यह तो वे बिल्कुल भी नहीं जानते कि मानव-अस्तित्व का उचित उद्देश्य क्या है। परंपरागत संस्कृति के प्रभाव, सीख, यहाँ तक कि अवरोध के कारण भी, परमेश्वर से आने वाली सकारात्मक चीजें, अपेक्षाएँ और नियम दबा दिए गए हैं। इस अर्थ में, परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण के विभिन्न कथनों ने बहुत हद तक, लोगों की सोच को गहराई से गुमराह और प्रभावित किया है, उनके विचारों को प्रतिबंधित कर भटका दिया है, उन्हें जीवन में सही मार्ग से दूर, और परमेश्वर की अपेक्षाओं से अधिकाधिक दूर कर दिया है। इसका मतलब यह है कि तुम परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण के विभिन्न विचारों और दृष्टिकोणों से जितनी गहराई से प्रभावित होते हो, और जितनी देर तक तुम उनके द्वारा शिक्षित होते हो, उतना ही तुम अनुसरण करने योग्य विचारों, आकांक्षाओं और लक्ष्य से, और अस्तित्व के उन नियमों से दूर भटक जाते हो, जो सामान्य मानवता वाले लोगों के पास होने चाहिए, और उतना ही तुम उस मानक से दूर भटक जाते हो जिसकी परमेश्वर लोगों से अपेक्षा करता है। परंपरागत संस्कृति से आए इन विचारों से संक्रमित, मतारोपित और शिक्षित होने के बाद लोग इन्हें संहिताओं के रूप में अपनाते हैं, यहाँ तक कि इन्हें सत्य, व लोगों और चीजों को देखने तथा आचरण और कार्य करने का मानदंड समझते हैं। लोग अब यह नहीं सोचते या संदेह नहीं करते कि ये चीजें सही हैं या नहीं, और न ही इस बारे में सोचने के लिए कि उन्हें कैसे जीना चाहिए, वे परोपकार, धार्मिकता, उपयुक्तता, बुद्धिमत्ता और विश्वसनीयता के बारे में परंपरागत संस्कृति के विभिन्न कथनों से परे जाते हैं। लोग यह नहीं जानते और न ही इसके बारे में सोचते हैं। वे इसके बारे में क्यों नहीं सोचते? क्योंकि लोगों के विचारों को परोपकार, धार्मिकता, उपयुक्तता, बुद्धिमत्ता और विश्वसनीयता का उपदेश देने वाले इन नैतिक शास्त्रों द्वारा भरकर उन पर कब्जा कर लिया गया है। भले ही बहुत-से लोग सच्चे परमेश्वर में विश्वास करते और बाइबल पढ़ते हों, फिर भी वे परमेश्वर के वचनों और सत्य तथा नैतिक आचरण के ऐसे कई कथनों के बीच अंतर नहीं कर पाते जो परोपकार, धार्मिकता, उपयुक्तता, बुद्धिमत्ता और विश्वसनीयता से उपजते हैं। कुछ लोग तो परंपरागत संस्कृति के इन कथनों में से कई कथनों को सकारात्मक चीजों के शास्त्र तक मानते हैं और उन्हें सत्य के रूप में आगे बढ़ाते हैं, उसी रूप में उनका प्रचार करते और बढ़ावा देते हैं, और उन्हें दूसरों को निर्देश देने के तरीके के रूप में उद्धृत करने की हद तक चले जाते हैं। यह एक बहुत ही गंभीर समस्या है; यह ऐसी चीज है जिसे परमेश्वर देखना नहीं चाहता, ऐसी चीज जिससे वह घृणा करता है। तो, क्या अंत के दिनों का परमेश्वर का कार्य स्वीकारने वाले सभी लोग परंपरागत संस्कृति की चीजों की असलियत देखकर उन्हें स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं? जरूरी नहीं कि ऐसा हो। कुछ लोग अवश्य होंगे, जो परंपरागत संस्कृति की चीजों को काफी पूजनीय समझकर उनका अनुमोदन करते हैं। अगर ये शैतानी जहर अच्छी तरह से साफ न किए गए, तो लोगों के लिए सत्य समझना और हासिल करना मुश्किल होगा। परमेश्वर के चुने हुए लोगों को एक तथ्य समझना चाहिए : परमेश्वर का वचन परमेश्वर का वचन है, सत्य सत्य है, और मनुष्य के शब्द मनुष्य के शब्द हैं। परोपकार, धार्मिकता, उपयुक्तता, बुद्धिमत्ता और विश्वसनीयता मनुष्य के शब्द हैं, और परंपरागत संस्कृति मनुष्य के शब्द हैं। मनुष्य के शब्द कभी सत्य नहीं होते, न ही वे कभी सत्य होंगे। यह एक तथ्य है। चाहे लोग अपने विचारों और दृष्टिकोणों में परोपकार, धार्मिकता, उपयुक्तता, बुद्धिमत्ता और विश्वसनीयता से कितना भी तादात्मय महसूस करें, ये चीजें परमेश्वर के वचनों का स्थान नहीं ले सकतीं; चाहे इस तरह के मूल्यों को मानव-अस्तित्व के हजारों वर्षों में कितना भी सही सत्यापित और पुष्ट किया गया हो, वे परमेश्वर के वचन नहीं बन सकते या उनकी जगह नहीं ले सकते, वे परमेश्वर के वचन तो बिल्कुल भी नहीं समझे जा सकते। यहाँ तक कि अगर परोपकार, धार्मिकता, उपयुक्तता, बुद्धिमत्ता और विश्वसनीयता संबंधी कथन लोगों के जमीर और विवेक के अनुरूप भी हों, तो भी वे परमेश्वर के वचन नहीं हैं, न ही वे उसके वचनों का स्थान ले सकते हैं, सत्य तो वे बिल्कुल भी नहीं कहे जा सकते। परंपरागत संस्कृति में परोपकार, धार्मिकता, उपयुक्तता, बुद्धिमत्ता और विश्वसनीयता से संबंधित कथन और अपेक्षाएँ केवल समाज और शासक वर्ग के काम आती हैं। इन कथनों और अपेक्षाओं का उद्देश्य केवल बेहतर सामाजिक लोकाचार हासिल करने के लिए लोगों के व्यवहार को प्रतिबंधित और विनियमित करना है, जो सत्तारूढ़ वर्ग की सत्ता स्थिर करने में सहायक होता है। स्वाभाविक रूप से, चाहे तुम कितनी भी अच्छी तरह से परोपकार, धार्मिकता, उपयुक्तता, बुद्धिमत्ता और विश्वसनीयता के मूल्यों का पालन करो, तुम सत्य नहीं समझ पाओगे, और तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं कर पाओगे, और न ही अंततः तुम एक स्वीकार्य सृजित प्राणी बन पाओगे। चाहे तुम इन चीजों का कितनी भी अच्छी तरह से पालन करो, अगर तुम सत्य नहीं समझते, तो तुम स्वीकार्य मानक के अनुसार अपना कर्तव्य नहीं निभा सकते। फिर तुम परमेश्वर की नजर में क्या होगे? तुम अभी भी एक गैर-विश्वासी और शैतान के होगे। क्या कथित रूप से असाधारण नैतिक गुणवत्ता और महान नैतिकता वाले किसी व्यक्ति में सामान्य मानवता का जमीर और भावना होती है? क्या वे सच में सत्य स्वीकार कर सकते हैं? क्या वे परमेश्वर में विश्वास और उसका अनुसरण कर सकते हैं? बिल्कुल नहीं! क्योंकि वे जिन्हें पूजते हैं, वे शैतान, दानव, दिखावटी संत और नकली पवित्र लोग होते हैं। अपने दिल की गहराई और हड्डियों में वे सत्य से विमुख होते हैं और उससे नफरत करते हैं। इसलिए, वे ऐसे लोग होंगे, जो परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं और उसके दुश्मन हैं। जो लोग दानवों और शैतान की आराधना करते हैं, वे सबसे घमंडी, दंभी और मूर्ख लोग होते हैं—वे मानवजाति के पतित लोग हैं, जिनकी हड्डियाँ शैतानी जहर, शैतानी पाखंडों और भ्रांतियों से भरी हैं। जैसे ही वे परमेश्वर के वचनों और सत्य को देखते हैं, उनकी आँखें लाल हो जाती हैं और वे आगबबूला होकर दानव का घृणित चेहरा दिखा देते हैं। इसलिए, जो कोई भी परंपरागत संस्कृति का सम्मान करता है और आँख मूँदकर परोपकार, धार्मिकता, उपयुक्तता, बुद्धिमत्ता और विश्वसनीयता जैसी परंपरागत भ्रांतियों में विश्वास करता है, वह सत्य से विमुख होता और उससे नफरत करता है। उनमें सामान्य मानवता की भावना बिल्कुल नहीं होती, और वे सत्य कभी नहीं स्वीकारेंगे। परंपरागत संस्कृति की बातें और परोपकार, धार्मिकता, उपयुक्तता, बुद्धिमत्ता और विश्वसनीयता से संबंधित नैतिक आचरण पर कथन सत्य या परमेश्वर के वचनों से बिल्कुल भी मेल नहीं खाते। चाहे लोग इन मूल्यों को कितनी भी ईमानदारी से व्यवहार में लाते हों या उन्हें कितनी भी अच्छी तरह से बनाए रखते हों, यह सामान्य मानवता को जीने के समान नहीं है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव हैं। यह मामले का तथ्य है। वे तमाम तरह की शैतानी शिक्षाओं से भरे हुए हैं, और “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए” लोगों का प्रकृति सार बन गया है। चाहे तुम उन्हें कितनी भी अच्छी तरह से क्यों न कहो, तुम्हारी भाषा कितनी भी उत्कृष्ट क्यों न हो, या तुम्हारे सिद्धांत कितने भी भव्य क्यों न हों, नैतिक आचरण के बारे में परंपरागत संस्कृति के इन कथनों को व्यवहार में नहीं लाया जा सकता। यहाँ तक कि अगर तुम परंपरागत संस्कृति में परोपकार, धार्मिकता, उपयुक्तता, बुद्धिमत्ता और विश्वसनीयता के मूल्यों के आधार पर लागू किए गए नियमों में से प्रत्येक का पालन भी करो, तो भी तुम सतही रूप से शिष्ट व्यक्ति से अधिक नहीं होते। लेकिन जब परमेश्वर में विश्वास करने, उसका अनुसरण करने और अपना कर्तव्य निभाने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने के साथ-साथ उसके और सत्य के प्रति तुम्हारे रवैये और विचारों की बात आती है, तो परंपरागत संस्कृति के ये मूल्य बिल्कुल भी काम नहीं आते। ये तुम्हारे विद्रोह पर लगाम नहीं लगा सकते, न ही परमेश्वर के बारे में तुम्हारी धारणाएँ बदल सकते हैं, न ही लोगों के भ्रष्ट स्वभाव ठीक कर सकते हैं, लोगों द्वारा अपने कर्तव्य के प्रदर्शन में अनमने होने का मुद्दा हल करने की बात तो दूर है। ये मूल्य लोगों के भ्रष्ट व्यवहार को किसी भी तरह से प्रतिबंधित करने में बिल्कुल भी मदद नहीं करते, और लोगों को सामान्य मानवता को जीने के लिए प्रेरित करने में मूलभूत रूप से असमर्थ हैं।

ज्यादातर लोग, जब उन्होंने परमेश्वर में विश्वास करना शुरू ही किया होता है, सोचते हैं कि आस्था बहुत सरल है। वे सोचते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने और परमेश्वर का अनुसरण करने का अर्थ है धैर्यवान और सहिष्णु होना सीखना, स्वेच्छा से दान देना, दूसरों की मदद करने के लिए तैयार रहना, अपनी कथनी-करनी में मापा जाना, ज्यादा अहंकारी या दूसरों पर बहुत कठोर न होना। उन्हें लगता है कि अगर वे इस तरह से आचरण करते हैं, तो परमेश्वर संतुष्ट होगा, और कर्तव्य निभाते हुए उनकी काट-छाँट नहीं की जाएगी। अगर वे अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में काम करते हैं, तो वे मानते हैं कि उन्हें बदला या हटाया नहीं जाएगा। वे मानते हैं कि उनके उद्धार प्राप्त करने की गारंटी है। क्या परमेश्वर में विश्वास करना वाकई ऐसा सरल मामला है? (नहीं।) यह दृष्टिकोण रखने वालों की संख्या कम नहीं है, लेकिन अंततः उनके विचार, दृष्टिकोण, और जिस तरह से वे जीवन में आचरण करते हैं, उन सबका अंत विफलता में होता है। अंत में, कुछ लोग जो ब्रह्मांड में अपनी जगह नहीं जानते, एक ही वाक्य में सबका सार प्रस्तुत कर देते हैं : “मैं एक मनुष्य के रूप में विफल रहा हूँ!” वे सोचते हैं कि एक मनुष्य के रूप में आचरण करने का अर्थ परोपकार, धार्मिकता, उपयुक्तता, बुद्धिमत्ता और विश्वसनीयता के मूल्यों का पालन करना है। लेकिन क्या इसे एक मनुष्य के रूप में आचरण करना कहा जा सकता है? यह एक मनुष्य के रूप में आचरण करना नहीं है; यह एक दानव का आचरण है। उन लोगों से, जो कहते हैं, “मैं एक मनुष्य के रूप में विफल रहा हूँ,” मैं पूछूँगा, क्या तुमने एक मनुष्य के रूप में आचरण किया है? तुमने एक मनुष्य के रूप में आचरण करने की कोशिश तक नहीं की है, तो तुम कैसे कह सकते हो, “मैं एक मनुष्य के रूप में विफल रहा हूँ”? यह परंपरागत सांस्कृतिक मूल्यों, जैसे कि परोपकार, धार्मिकता, उपयुक्तता, बुद्धिमत्ता और विश्वसनीयता की लोगों पर अपना कार्य कर पाने में विफलता है, न कि एक मनुष्य के रूप में आचरण कर पाने में तुम्हारी विफलता। जब लोग परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो परोपकार, धार्मिकता, उपयुक्तता, बुद्धिमत्ता और विश्वसनीयता जैसी चीजें बिल्कुल भी काम नहीं आतीं और उपयोगी नहीं रहतीं। अनजाने ही लोग निष्कर्ष निकाल लेते हैं, “ओह, परोपकार, धार्मिकता, उपयुक्तता, बुद्धिमत्ता और विश्वसनीयता—ये काम नहीं करते! मैं सोचता था कि अच्छा आचरण करना सरल है, और परमेश्वर में विश्वास करना भी बहुत सरल है, उतना जटिल नहीं है। अब जाकर मुझे पता चला है कि मैं परमेश्वर में विश्वास का अति सरलीकरण कर रहा हूँ।” लंबे समय तक उपदेश सुनने के बाद, अंततः उन्हें पता चलता है कि सत्य न समझने से लोगों का काम नहीं चलेगा। अगर लोग सत्य का कुछ क्षेत्र नहीं समझते, तो उनके उस क्षेत्र में गलतियाँ करने, काट-छाँट किए जाने, विफल होने, न्याय और ताड़ना किए जाने की संभावना है। जिन चीजों को वे पहले सही, अच्छी, सकारात्मक और श्रेष्ठ मानते थे, वे सत्य के सामने तुच्छ लगने लगती हैं और बेकार हो जाती हैं। परोपकार, धार्मिकता, उपयुक्तता, बुद्धिमत्ता और विश्वसनीयता के बारे में तमाम विभिन्न कथनों का लोगों के विचारों और दृष्टिकोणों के साथ-साथ उन तरीकों और साधनों पर भी कुछ प्रभाव रहा है, जिनके द्वारा वे अपने कार्य करते हैं। अगर मनुष्य को बचाने का परमेश्वर का प्रबंधन-कार्य शामिल न होता, और मनुष्य शैतान की सत्ता के तहत जैसे जी रहा है वैसे ही जीता रहता, तो अपेक्षाकृत सकारात्मक चीजें होने के कारण परोपकार, धार्मिकता, उपयुक्तता, बुद्धिमत्ता और विश्वसनीयता लोगों की सोच और सामाजिक लोकाचार और परिवेश में एक छोटी-सी सकारात्मक भूमिका निभा देतीं। कम से कम, ये चीजें लोगों को बुराई, हत्या और आगजनी करने, या बलात्कार और लूटपाट करने के लिए तो नहीं उकसातीं। लेकिन जब लोगों को बचाने के परमेश्वर के कार्य की बात आती है, तो इन चीजों—परोपकार, धार्मिकता, उपयुक्तता, बुद्धिमत्ता और विश्वसनीयता—में से एक भी उस सत्य, मार्ग और जीवन के लिए प्रासंगिक नहीं है, जो परमेश्वर मानवजाति को देना चाहता है। इतना ही नहीं : परोपकार, धार्मिकता, उपयुक्तता, बुद्धिमत्ता और विश्वसनीयता के मूल्यों द्वारा समर्थित विभिन्न विचारों को देखें तो, उनके द्वारा लोगों के नैतिक आचरण से की जाने वाली अपेक्षाओं और लोगों के नैतिक आचरण पर उनके प्रभावों और अवरोधों में से किसी ने भी लोगों का वापस परमेश्वर की ओर जाने में मार्गदर्शन करने या उन्हें जीवन में सही रास्ते पर ले जाने में कोई भूमिका नहीं निभाई। इसके बजाय, वे लोगों को सत्य का अनुसरण करने और उसे स्वीकारने से रोकने वाली मुख्य बाधाएँ बन गए हैं। नैतिक आचरण के बारे में जिन कथनों पर हमने पहले संगति कर उनका विश्लेषण किया—उठाए गए धन को जेब में मत रखो; दूसरों की मदद करने में खुशी पाओ; अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो; बुराई का बदला भलाई से चुकाओ; दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए; दूसरों की खातिर अपने हित त्याग दो; महिला को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना चाहिए; कुएँ का पानी पीते हुए यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि इसे किसने खोदा था—हमने मूल रूप से उन्हें संगति में स्पष्ट कर दिया है, और हर व्यक्ति कम से कम उनका व्यापक अर्थ समझता है। तथ्य यह है कि इस तरह के कथन नैतिक आचरण के जिस भी पहलू से संबंधित हों, वे लोगों की सोच सीमित करते हैं। अगर तुम इस तरह की चीजें नहीं पहचान सकते, और इन कथनों का सार स्पष्ट रूप से नहीं समझ सकते, और ये भ्रामक विचार नहीं बदल सकते, तो तुम इन नैतिक आचरण के कथनों को त्याग नहीं सकते, न ही खुद पर इनके प्रभाव से छुटकारा पा सकते हो। अगर तुम ये चीजें त्याग नहीं सकते, तो तुम्हारे लिए परमेश्वर से सत्य स्वीकारना, परमेश्वर के वचनों का मानदंड और लोगों के नैतिक आचरण के लिए सृष्टिकर्ता की विशिष्ट अपेक्षाएँ स्वीकारना, और परमेश्वर के वचनों का सत्य के सिद्धांतों और मानदंडों के रूप में पालन और अभ्यास करना मुश्किल होगा। क्या यह गंभीर समस्या नहीं है?

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