सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (6) भाग दो

“उठाए गए धन को जेब में मत रखो” नैतिक आचरण के बारे में परंपरागत संस्कृति की सबसे सतही अपेक्षा है। भले ही सभी मानव-समाजों ने इस प्रकार के विचार को बढ़ावा दिया और सिखाया है, क्योंकि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव हैं, और मनुष्य की बुरी प्रवृत्तियों की प्रबलता के कारण, भले ही लोग कुछ समय के लिए “उठाए गए धन को जेब में मत रखो” का अभ्यास कर सकते हों या उनमें इस प्रकार का अच्छा नैतिक आचरण हो, इससे यह तथ्य नहीं बदलता कि लोगों के भ्रष्ट स्वभाव लगातार उनके विचारों और व्यवहारों पर, और साथ ही उनके आचरण और अनुसरण पर भी हावी हो रहे हैं और उन्हें नियंत्रित कर रहे हैं। अच्छे नैतिक आचरण के क्षणिक उदाहरणों का व्यक्ति के अनुसरण पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, और वे निश्चित रूप से व्यक्ति द्वारा बुरी प्रवृत्तियों की खुशामद, प्रशंसा और अनुपालन किए जाने को नहीं बदल सकते। क्या यही मामला नहीं है? (बिल्कुल है।) तो, वह गीत जो लोग अतीत में गाते थे, “सड़क के किनारे, मैंने जमीन से एक सेंट उठाया,” अब एक नर्सरी की कविता से ज्यादा कुछ नहीं है। वह एक याद बन गया है। लोग उठाए गए धन को जेब में न रखने के बुनियादी अच्छे व्यवहार का भी पालन नहीं कर सकते। लोग अच्छे नैतिक आचरण को बढ़ावा देकर मनुष्य के अनुसरणों और भ्रष्ट स्वभावों को बदलना चाहते हैं और मनुष्य की अधोगति और समाज के दिन-ब-दिन होते पतन को रोकने की कोशिश करते हैं, लेकिन वे अंततः इन उद्देश्यों को पूरा करने में विफल रहे हैं। “उठाए गए धन को जेब में मत रखो” का नैतिक सिद्धांत सिर्फ मनुष्य की आदर्श दुनिया में ही मौजूद हो सकता है। लोग इस नैतिकता को एक प्रकार के आदर्श के रूप में, एक बेहतर दुनिया की आकांक्षा के रूप में देखते हैं। यह नैतिकता मनुष्य की आध्यात्मिक दुनिया के भीतर मौजूद है। यह एक प्रकार की आशा है, जिसे मनुष्य भविष्य की दुनिया से रखता है, लेकिन यह मानव-जीवन की वास्तविकता और लोगों की वास्तविक मानवता के साथ असंगत है। यह मनुष्य के आचरण के सिद्धांतों और उन मार्गों के विपरीत है जिन पर लोग चलते हैं, और साथ ही उसके भी विपरीत है जिसका वे अनुसरण करते हैं और जो उनमें होना और जो उन्हें हासिल करना चाहिए। यह सामान्य मानवता की अभिव्यक्तियों और उद्गारों, और अंतर्वैयक्तिक संबंधों और मामलों को सँभालने के सिद्धांतों के साथ असंगत है। इसलिए, प्राचीन काल से लेकर आज तक, मनुष्य के नैतिक आचरण को परखने का यह मानक हमेशा अमान्य रहा है। मनुष्य द्वारा प्रचारित “उठाए गए धन को जेब में मत रखो” का यह विचार और दृष्टिकोण विशेष रूप से निरर्थक है और अधिकांश लोग इसे अनदेखा करते हैं, क्योंकि यह उनके आचरण या उनके अनुसरणों की दिशा नहीं बदल सकता, और यह निश्चित रूप से लोगों की भ्रष्टता, स्वार्थपरता, खुदगर्जी या बुराई की ओर बढ़ने की उनकी बढ़ती प्रवृत्ति को नहीं बदल सकता। “उठाए गए धन को जेब में मत रखो” की यह सबसे सतही अपेक्षा एक मनोरंजक, व्यंग्यपूर्ण मजाक बन चुकी है। अब तो बच्चे भी नहीं गाना चाहते, “सड़क के किनारे, मैंने जमीन से एक सेंट उठाया”—इसका दूर-दूर तक कोई मतलब नहीं है। भ्रष्ट राजनेताओं से भरी दुनिया में यह गाना बेहद व्यंग्यात्मक बन गया है। वास्तविकता, जिससे लोग अच्छी तरह से अवगत हैं, यह है कि व्यक्ति खोया हुआ एक सेंट तो पुलिस को सौंप सकता है, लेकिन अगर वह दस लाख युआन या एक करोड़ युआन उठाता है, तो वे सीधे उसकी जेब में चले जाएँगे। इस घटना से हम देख सकते हैं कि मनुष्यों में नैतिक आचरण से संबंधित इस अपेक्षा को बढ़ावा देने के लोगों के प्रयास विफल रहे हैं। इसका मतलब यह है कि लोग बुनियादी अच्छे व्यवहार का अभ्यास करने में भी असमर्थ हैं। बुनियादी अच्छे व्यवहार का अभ्यास करने में असमर्थ होने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि लोग उन बुनियादी चीजों का भी अभ्यास करने में असमर्थ हैं, जो उन्हें करना चाहिए—जैसे कि उठाई गई चीज, जो किसी और की है, न लेना। इसके अलावा, जब लोग कुछ गलत करते हैं, तो वे उसके बारे में एक भी सच्चा शब्द नहीं बोलेंगे, वे अपना गलत काम स्वीकारने के बजाय मर जाना पसंद करेंगे। वे झूठ न बोलने जैसी बुनियादी बात पर भी अमल नहीं कर सकते, इसलिए वे निश्चित रूप से नैतिकता के बारे में बात करने लायक नहीं हैं। वे जमीर और विवेक तक नहीं रखना चाहते, तो वे नैतिकता के बारे में कैसे बात कर सकते हैं? अधिकारी और अधिकार-संपन्न लोग दूसरे लोगों से अधिक लाभ ऐंठने और झटकने के साथ ही, जो चीजें उनकी नहीं हैं, उन्हें हथियाने के तरीकों के बारे में सोचने में अपना दिमाग लड़ाते हैं। यहाँ तक कि कानून भी उन्हें नहीं रोक सकता—ऐसा क्यों है? मनुष्य इस स्तर तक कैसे आ गया है? यह सब लोगों के भ्रष्ट शैतानी स्वभावों और उन पर उनकी शैतानी प्रकृति के नियंत्रण और वर्चस्व के कारण है, जो तमाम तरह के धोखेबाज, हानिकारक व्यवहारों को जन्म देता है। ये पाखंडी लोग “जन-सेवा” की आड़ में कई घृणित और शर्मनाक काम करते हैं। क्या उनमें शर्म की सारी भावना समाप्त नहीं हो गई है? आजकल बहुत सारे पाखंडी लोग हैं। ऐसी दुनिया में, जहाँ बुरे लोग निरंकुश हो गए हैं और अच्छे लोगों पर अत्याचार किया जाता है, “उठाए गए धन को जेब में मत रखो” जैसा सिद्धांत लोगों के भ्रष्ट स्वभावों पर लगाम लगाने में एकदम असमर्थ है, और वह उनके प्रकृति-सार या उस मार्ग को नहीं बदल सकता, जिस पर वे चलते हैं।

क्या तुम लोग वे चीजें समझ गए हो, जो मैंने “उठाए गए धन को जेब में मत रखो” विषय पर इस संगति में कही हैं? भ्रष्ट मनुष्यों के लिए इस कहावत का क्या अर्थ है? व्यक्ति को इस नैतिकता को कैसे समझना चाहिए? (“उठाए गए धन को जेब में मत रखो” का लोगों के आचरण या उस मार्ग से कोई संबंध नहीं, जिस पर वे चलते हैं। यह उस मार्ग को नहीं बदल सकता, जिस पर मनुष्य चलता है।) यह सही है, लोगों का “उठाए गए धन को जेब में मत रखो” कहावत के आधार पर व्यक्ति की मानवता का मूल्यांकन करना उपयुक्त नहीं है। इस कहावत का उपयोग व्यक्ति की मानवता को मापने के लिए नहीं किया जा सकता, और किसी के आचार-विचार को मापने के लिए इसका उपयोग करना भी गलत है। यह मनुष्य के क्षणिक व्यवहार से अधिक कुछ नहीं है। इसका उपयोग व्यक्ति के सार का मूल्यांकन करने के लिए बिल्कुल नहीं किया जा सकता। जिन लोगों ने नैतिक आचरण के बारे में “उठाए गए धन को जेब में मत रखो” कहावत प्रस्तावित की—वे तथाकथित विचारक और शिक्षक—आदर्शवादी हैं। वे मनुष्य की मानवता या सार नहीं समझते, और वे यह भी नहीं समझते कि मनुष्य किस हद तक चरित्रहीन और भ्रष्ट हो गया है। इसलिए, नैतिक आचरण के बारे में उनके द्वारा प्रतिपादित यह कहावत बहुत ही खोखली है, बिल्कुल अव्यावहारिक है, और मनुष्य की वास्तविक परिस्थितियों के अनुरूप नहीं है। नैतिक आचरण संबंधी इस कहावत का मनुष्य के सार से या लोगों द्वारा दिखाए जाने वाले विभिन्न भ्रष्ट स्वभावों से, या उन धारणाओं, विचारों और व्यवहारों से, जिन्हें लोग भ्रष्ट स्वभावों के वर्चस्व के दौरान उत्पन्न कर सकते हैं, थोड़ा-सा भी संबंध नहीं है। यह एक बात है। दूसरी बात यह है कि उठाए गए धन को जेब में न रखना एक ऐसी चीज है, जो सामान्य इंसान को करनी ही चाहिए। उदाहरण के लिए, तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें जन्म दिया और तुम्हारा पालन-पोषण किया, लेकिन जब तुम अबोध और अपरिपक्व ही थे, तब तुम बस अपने माता-पिता से ही भोजन और कपड़े माँगा करते थे। लेकिन जब तुम परिपक्व हो गए और तुम्हें चीजों की बेहतर समझ हो गई, तो तुम स्वाभाविक रूप से अपने माता-पिता से बहुत प्यार करना, उन्हें चिंतित या क्रोधित करने से बचना, उनके काम का बोझ या पीड़ा न बढ़ाने की कोशिश करना और वह सब-कुछ करना सीख गए, जो तुम खुद कर सकते थे। तुम स्वाभाविक रूप से इन चीजों को समझ गए और किसी को तुम्हें सिखाने की जरूरत नहीं पड़ी। तुम एक इंसान हो, तुम्हारे पास जमीर और विवेक है, इसलिए तुम ये चीजें करने में सक्षम हो और तुम्हें इन्हें करना ही चाहिए—इसमें से कोई चीज उल्लेख करने लायक भी नहीं है। “उठाए गए धन को जेब में मत रखो” को उत्कृष्ट नैतिक चरित्र के स्तर तक ऊपर उठाकर लोग तिल का ताड़ बना रहे हैं और चीजों को बहुत खींच रहे हैं; इस व्यवहार को उस तरह से परिभाषित नहीं किया जाना चाहिए, क्या ऐसा नहीं है? (ऐसा ही है।) इससे क्या सीखा जा सकता है? सामान्य मानवता के दायरे के भीतर वह करना, जो व्यक्ति को करना चाहिए और जो वह करने में सक्षम है, उस व्यक्ति में सामान्य मानवता होने का संकेत है। इसका मतलब यह है कि अगर व्यक्ति में सामान्य विवेक है, तो वह वे काम कर सकता है जिनके बारे में सामान्य मानवता वाले लोग सोचते होंगे और महसूस करते होंगे कि उन्हें करने चाहिए—क्या यह बहुत सामान्य घटना नहीं है? अगर तुम कुछ ऐसा करते हो, जिसे सामान्य मानवता वाला कोई भी व्यक्ति करने में सक्षम है, तो क्या इसे वास्तव में अच्छा नैतिक आचरण कहा जा सकता है? क्या इसे प्रोत्साहित करना जरूरी है? (नहीं, जरूरी नहीं है।) क्या इसे वास्तव में उत्कृष्ट मानवता माना जाता है? क्या इसे मानवता होना माना जाता है? (नहीं, ऐसा नहीं माना जाता।) ऐसे व्यवहार प्रदर्शित करने से कोई व्यक्ति मानवता से युक्त होने के स्तर तक उन्नत नहीं हो जाता। अगर तुम कहते हो कि किसी व्यक्ति में मानवता है, तो इसका मतलब यह है कि जिस परिप्रेक्ष्य और रुख से वह समस्याओं को देखता है, वह अपेक्षाकृत सकारात्मक और सक्रिय है, और ऐसे ही समस्याओं से निपटने के उसके उपाय और तरीके भी हैं। सकारात्मकता और सक्रियता का संकेतक क्या है? उस व्यक्ति में जमीर और शर्म की भावना होगी। सकारात्मकता और सक्रियता का एक और संकेतक न्याय की भावना है। हो सकता है कि इस व्यक्ति में कुछ बुरी आदतें हों, जैसे देर से सोना और जागना, खाना खाने में नखरे करना, या तेज स्वाद वाले खाद्य पदार्थों को प्राथमिकता देना, लेकिन इन बुरी आदतों के अलावा, उसमें कुछ अच्छे गुण भी होंगे। जब उसके आचरण और क्रियाकलापों की बात आती है, तो उसमें सिद्धांत और सीमाएँ होंगी; उसमें शर्म और न्याय की भावना होगी; और उसमें सकारात्मक लक्षण ज्यादा और नकारात्मक लक्षण कम होंगे। अगर वह सत्य स्वीकार कर उसका अभ्यास कर सके, तो यह और भी बेहतर होगा और उसके लिए सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना आसान होगा। इसके विपरीत, अगर व्यक्ति बुराई से प्रेम करता है; प्रसिद्धि, लाभ और रुतबा चाहता है; पैसे से प्यार करता है; विलासिता का जीवन जीना पसंद करता है; और सुख-सुविधा की तलाश में अपना समय बरबाद करने में आनंद लेता है, तो जिस परिप्रेक्ष्य से वह लोगों और चीजों को देखता है, और जीवन और मूल्य-व्यवस्था पर उसका दृष्टिकोण नकारात्मक और अंधकारमय होगा, और उसमें शर्म और न्याय की भावना का अभाव होगा। इस प्रकार के व्यक्ति में मानवता नहीं होगी, और उसके लिए सत्य स्वीकारना या परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करना निश्चित रूप से आसान नहीं होगा। लोगों के मूल्यांकन का यह एक सरल सिद्धांत है। व्यक्ति के नैतिक आचरण का मूल्यांकन कोई ऐसा मानक नहीं है, जिससे यह मापा जा सके कि उसमें मानवता है या नहीं। यह मूल्यांकन करने के लिए कि कोई व्यक्ति अच्छा है या बुरा, तुम्हें उसका मूल्यांकन उसकी मानवता के आधार पर करना चाहिए, न कि उसके नैतिक आचरण के आधार पर। नैतिक आचरण सतही होता है और वह व्यक्ति के सामाजिक माहौल, पृष्ठभूमि और परिवेश से प्रभावित होता है। कुछ नजरिये और अभिव्यक्तियाँ लगातार बदलती रहती हैं, इसलिए व्यक्ति की मानवता की गुणवत्ता सिर्फ उसके नैतिक आचरण के आधार पर निर्धारित करना कठिन है। उदाहरण के लिए, कोई व्यक्ति सामाजिक शिष्टाचार का बहुत सम्मान कर सकता है, और जहाँ भी जाता है, नियमों का पालन करता है। वह अपने हर काम में संयम दिखा सकता है, सरकारी कानूनों का पालन कर सकता है और सार्वजनिक रूप से हंगामा करने या अन्य लोगों के हितों का उल्लंघन करने से बच सकता है। वह आदरपूर्ण और मददगार भी हो सकता है और युवाओं और बुजुर्गों की देखभाल भी कर सकता है। क्या इस तथ्य का कि इस व्यक्ति में इतने सारे अच्छे लक्षण हैं, यह मतलब है कि वह सामान्य मानवता को जी रहा है और वह एक अच्छा इंसान है? (ऐसा नहीं है।) व्यक्ति “उठाए गए धन को जेब में मत रखो” का बहुत अच्छी तरह अभ्यास कर सकता है, वह लगातार इस नैतिकता का पालन कर सकता है जिसे मानवजाति बढ़ावा देती है और जिसकी वकालत करती है, लेकिन उसकी मानवता कैसी है? यह तथ्य कि वह उठाए गए धन को जेब में न रखने का अभ्यास करता है, उसकी मानवता के बारे में कुछ नहीं कहता—इस नैतिक आचरण का उपयोग यह मूल्यांकन करने के लिए नहीं किया जा सकता कि उसकी मानवता अच्छी है या बुरी। अब उसकी मानवता कैसे मापी जाए? तुम्हें उसे इस नैतिक आचरण की पैकेजिंग से मुक्त करना होगा, और उन व्यवहारों और नैतिक आचरण को हटाना होगा जिन्हें मनुष्य अच्छा मानता है, और ये न्यूनतम चीजें हैं जिन्हें सामान्य मानवता वाला कोई भी व्यक्ति प्राप्त करने में सक्षम है। उसके बाद, उसकी सबसे महत्वपूर्ण अभिव्यक्तियाँ देखो, जैसे कि उसके आचरण के सिद्धांत, और वे सीमाएँ जिन्हें वह अपने आचरण में पार नहीं करेगा, और साथ ही सत्य और परमेश्वर के प्रति उसका रवैया भी। उसके मानवता-सार और उसकी आंतरिक प्रकृति को देखने का यही एकमात्र तरीका है। लोगों को इस तरह से देखना अपेक्षाकृत वस्तुनिष्ठ और सटीक है। इस नैतिकता : “उठाए गए धन को जेब में मत रखो” पर हमारी चर्चा के लिए यह काफी होगा। क्या तुम सभी इस संगति को समझ गए हो? (हाँ।) मुझे अक्सर चिंता होती है कि मैंने जो कहा है, उसे तुम लोगों ने वास्तव में नहीं समझा है, कि तुम इसके बारे में सिर्फ थोड़ा-सा सिद्धांत ही समझते हो, लेकिन अभी भी इसके सार से संबंधित हिस्सों को नहीं समझते। इसलिए, मैं इतना ही कर सकता हूँ कि इस विचार पर थोड़ा और विस्तार से बोलूँ। मैं तभी सहज महसूस करूँगा, जब मुझे यह एहसास होगा कि तुम लोग समझ गए हो। मैं कैसे बता सकता हूँ कि तुम समझ गए हो? जब मैं तुम लोगों के चेहरों पर खुशी की झलक देखता हूँ, तो तुम शायद मेरे कहे को समझ गए होते हो। अगर मैं इसे हासिल कर सकूँ, तो इस विषय पर थोड़ा और बोलना सार्थक होगा।

मैंने “उठाए गए धन को जेब में मत रखो” विषय पर अपनी संगति कमोबेश पूरी कर ली है। भले ही मैंने तुम्हें सीधे तौर पर यह नहीं बताया है कि यह नैतिकता सत्य से कैसे टकराती है, या इसे सत्य के स्तर तक क्यों नहीं उठाया जा सकता, या परमेश्वर लोगों के व्यवहार और नैतिक आचरण के बारे में क्या अपेक्षा रखता है, फिर भी क्या मैंने इन सभी चीजों को शामिल नहीं किया है? (किया है।) क्या परमेश्वर का घर “उठाए गए धन को जेब में मत रखो” जैसी नैतिकताओं को बढ़ावा देता है? (नहीं।) तो फिर परमेश्वर का घर इस कहावत को कैसे देखता है? तुम लोग अपनी समझ साझा कर सकते हो। (“उठाए गए धन को जेब में मत रखो” एक ऐसी चीज है जिसका सामान्य मानवता वाले किसी भी व्यक्ति को पालन करना चाहिए, इसलिए इसे बढ़ावा देने की आवश्यकता नहीं है। साथ ही, “उठाए गए धन को जेब में मत रखो” सिर्फ मनुष्य की नैतिकता की एक अभिव्यक्ति है, इसका लोगों के आचरण के सिद्धांतों से, अपने अनुसरणों के बारे में उनके विचारों से, उन रास्तों से जिन पर वे चलते हैं, या उनकी मानवता की गुणवत्ता से कोई संबंध नहीं है।) क्या नैतिक आचरण मानवता का संकेत है? (यह मानवता का संकेत नहीं है। नैतिक आचरण के कुछ पहलू ऐसी चीजें हैं जो सामान्य मानवता वाले लोगों के पास होनी चाहिए।) जब परमेश्वर का घर मानवता और लोगों को पहचानने के बारे में बात करता है, तो वह सत्य के अनुसरण के प्रमुख संदर्भ में ऐसा करता है। सामान्य रूप से कहूँ, तो परमेश्वर का घर यह मूल्यांकन नहीं करेगा कि व्यक्ति का नैतिक आचरण कैसा है—कम से कम, परमेश्वर का घर यह मूल्यांकन नहीं करेगा कि क्या व्यक्ति इस कहावत का पालन करने में सक्षम है : “उठाए गए धन को जेब में मत रखो।” परमेश्वर का घर इसकी जाँच नहीं करेगा। इसके बजाय, परमेश्वर का घर उस व्यक्ति की मानवता की गुणवत्ता की जाँच करेगा, कि वह सकारात्मक चीजों और सत्य से प्रेम करता है या नहीं, और सत्य और परमेश्वर के प्रति उसका रवैया किस प्रकार का है। हो सकता है, धर्मनिरपेक्ष समाज में रहते हुए व्यक्ति उठाए गए धन को जेब में न रखे, लेकिन अगर वह विश्वासी बनने के बाद परमेश्वर के घर के हितों की बिल्कुल भी रक्षा नहीं करता—अगर वह प्रबंधन करने का मौका दिए जाने पर भेंटें चुराने, उन्हें बरबाद करने, यहाँ तक कि बेचने में भी सक्षम है—अगर वह तमाम तरह की बुरी चीजें करने में सक्षम है, तो वह क्या है? (एक बुरा व्यक्ति।) समस्या उत्पन्न होने पर वह कभी परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा के लिए अपना रुख जाहिर नहीं करता। क्या ऐसे लोग नहीं हैं? (हैं।) तो, क्या उनकी मानवता का मूल्यांकन करने के लिए “उठाए गए धन को जेब में मत रखो” कहावत का उपयोग करना उपयुक्त होगा? यह उपयुक्त नहीं होगा। कुछ लोग कहते हैं : “वे अच्छे इंसान हुआ करते थे। उनका नैतिक चरित्र उत्तम था और सभी लोग उनका अनुमोदन करते थे। तो परमेश्वर के घर में आने के बाद वे बदल क्यों गए?” क्या वे सचमुच बदल गए? सच तो यह है कि वे बदले नहीं। उनमें थोड़ा नैतिक आचरण और अच्छा व्यवहार था, लेकिन इसे छोड़कर, यही हमेशा उनका मानवता-सार था—जो बिल्कुल भी नहीं बदला है। वे जहाँ भी जाते हैं, हमेशा इसी तरह से आचरण करते हैं। बात बस इतनी-सी है कि पहले लोग उनकी मानवता परखने के लिए सत्य का उपयोग करने के बजाय नैतिक आचरण की कसौटी पर उनका मूल्यांकन करते थे। लोगों को लगता है कि उनमें किसी तरह का बदलाव आया है, लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं हुआ है। कुछ लोग कहते हैं, “वे पहले ऐसे नहीं थे।” वे पहले ऐसे इसलिए नहीं थे, क्योंकि उन्हें पहले ऐसी स्थितियों का सामना नहीं करना पड़ा था और उन्होंने खुद को पहले इस तरह के परिवेश में नहीं पाया था। इसके अलावा, लोग सत्य नहीं समझते थे और उन्हें पहचानने में असमर्थ थे। लोगों द्वारा दूसरों को उनके मानवता-सार के बजाय उनके एक अच्छे व्यवहार के आधार पर देखने और परखने का अंतिम परिणाम क्या होता है? न सिर्फ लोग दूसरों को स्पष्ट रूप से देखने में असमर्थ होंगे, बल्कि वे दूसरों के बाहरी अच्छे नैतिक आचरण के धोखे में आकर गुमराह भी हो जाएँगे। जब लोग दूसरों को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते, तो वे गलत लोगों पर भरोसा करेंगे, उन्हें बढ़ावा देंगे और नियुक्त करेंगे, और वे दूसरे लोगों द्वारा गुमराह किए जाएँगे और धोखा खाएँगे। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता लोगों को चुनते और नियुक्त करते समय अक्सर यह गलती करते हैं। वे ऐसे लोगों के धोखे में आ जाते हैं, जिनमें बाहरी तौर पर कुछ अच्छे व्यवहार और अच्छा नैतिक आचरण होता है, और उनके लिए महत्वपूर्ण कार्य संभालने या कुछ महत्वपूर्ण वस्तुएँ रखने की व्यवस्था कर देते हैं। नतीजतन, कुछ गलत हो जाता है और इससे परमेश्वर के घर को कुछ नुकसान उठाना पड़ता है। कुछ गलत क्यों हुआ? यह गलत इसलिए हुआ, क्योंकि अगुआ और कार्यकर्ता इन लोगों का प्रकृति सार नहीं समझ पाए। वे उनका प्रकृति सार समझने में असमर्थ क्यों रहे? क्योंकि ये अगुआ और कार्यकर्ता सत्य नहीं समझते, और वे लोगों का मूल्यांकन करने और उन्हें समझने में सक्षम नहीं हैं। वे लोगों के प्रकृति सार को नहीं समझ सकते, और वे नहीं जानते कि लोगों का परमेश्वर, सत्य और परमेश्वर के घर के हितों के प्रति किस तरह का रवैया है। ऐसा क्यों है? क्योंकि ये अगुआ और कार्यकर्ता लोगों और चीजों को गलत परिप्रेक्ष्य से देखते हैं। वे लोगों को सिर्फ मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर देखते हैं, वे उनके सार को परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के अनुसार नहीं देखते—इसके बजाय, वे लोगों को उनके नैतिक आचरण, बाहरी व्यवहार और अभिव्यक्तियों के आधार पर देखते हैं। चूँकि लोगों के बारे में उनके विचारों में सिद्धांतों का अभाव है, इसलिए उन्होंने गलत लोगों पर भरोसा किया, गलत लोगों को नियुक्त किया, और नतीजतन वे धोखा खा गए, ठगे गए और उन लोगों द्वारा इस्तेमाल किए गए, और अंततः परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान हुआ। ये लोगों को समझने या उनकी असलियत पहचानने में असमर्थ होने के परिणाम हैं। इसलिए, जब कोई सत्य का अनुसरण करना चाहता है, तो उसे पहला सबक यह सीखना चाहिए कि लोगों को कैसे पहचाना और देखा जाए—इस सबक को सीखने में लंबा समय लगता है, और यह उन सबसे बुनियादी सबकों में से एक है जिन्हें लोगों को सीखना चाहिए। अगर तुम किसी व्यक्ति को स्पष्ट रूप से देखना चाहते हो और उसे पहचानना सीखना चाहते हो, तो तुम्हें पहले यह समझना होगा कि परमेश्वर लोगों का मूल्यांकन करने के लिए किन मानकों का उपयोग करता है, कौन-से भ्रामक विचार और दृष्टिकोण लोगों के दूसरों को देखने और उनका मूल्यांकन करने के तरीके को नियंत्रित करते और उन पर हावी होते हैं, और क्या वे उन मानकों से टकराते हैं जिनका उपयोग परमेश्वर लोगों का मूल्यांकन करने के लिए करता है, और वे कैसे टकराते हैं। क्या वे तरीके और कसौटियाँ, जिनके जरिये तुम लोगों का मूल्यांकन करते हो, परमेश्वर की अपेक्षाओं पर आधारित हैं? क्या वे परमेश्वर के वचनों पर आधारित हैं? क्या उनका सत्य में कोई आधार है? अगर नहीं, और तुम दूसरों का मूल्यांकन करने के लिए पूरी तरह से अपने अनुभवों और कल्पनाओं पर भरोसा करते हो, या अगर तुम इस हद तक जाते हो कि अपने मूल्यांकन समाज के भीतर प्रचारित सामाजिक नैतिकताओं पर या उस पर आधारित करते हो जो तुम अपनी दोनों आँखों से देखते हो, तो वह व्यक्ति, जिसे तुम पहचानने की कोशिश कर रहे हो, तुम्हारे लिए अस्पष्ट रहेगा। तुम उसकी असलियत समझ पाने में सक्षम नहीं होगे। अगर तुम उन पर भरोसा करके उन्हें कर्तव्य सौंपते हो, तो तुम एक निश्चित स्तर का जोखिम उठा रहे होगे, और अनिवार्य रूप से, ऐसी संभावना है कि इससे परमेश्वर की भेंटों, कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन-प्रवेश को नुकसान पहुँचेगा। अगर तुम सत्य का अनुसरण करना चाहते हो, तो लोगों को पहचानना पहला सबक है, जो तुम्हें अवश्य सीखना चाहिए। बेशक, यह सत्य के उन सबसे बुनियादी पहलुओं में से भी एक है, जो लोगों में होने चाहिए। लोगों को पहचानना सीखना आज की संगति के विषय का अभिन्न हिस्सा है। तुम्हें मनुष्य के अच्छे नैतिक आचरण और गुणों के साथ-साथ उन चीजों के बीच अंतर करने में सक्षम होना चाहिए जो सामान्य मानवता वाले व्यक्ति में होनी चाहिए। इन दो चीजों के बीच अंतर करने में सक्षम होना बहुत महत्वपूर्ण है। सिर्फ तभी तुम किसी व्यक्ति के सार को पहचानने और सटीक रूप से समझने, और अंततः यह निर्धारित करने में सक्षम होगे कि किसमें मानवता है और किसमें नहीं। इन चीजों को समझने के लिए पहले व्यक्ति को किस चीज से सुसज्जित होना चाहिए? व्यक्ति को परमेश्वर के वचनों के साथ-साथ सत्य के इस पहलू को भी समझना चाहिए, और उस बिंदु तक पहुँचना चाहिए जहाँ वह लोगों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर देखता है। क्या यह वही सत्य सिद्धांत नहीं है, जिसका अभ्यास सत्य का अनुसरण करते समय व्यक्ति को करना चाहिए और जो उसमें होना चाहिए? (बिल्कुल।) इसलिए, हमारे लिए इन विषयों पर संगति करना अनिवार्य है।

मैंने अभी पहली कहावत, “उठाए गए धन को जेब में मत रखो,” पर संगति की, जो स्पष्ट रूप से एक प्रकार का मानवीय नैतिक आचरण है। यह एक प्रकार का नैतिक चरित्र और क्षणिक व्यवहार है, जो लोगों पर अच्छा प्रभाव डालता है, लेकिन दुर्भाग्य से, यह उस मानक के रूप में काम नहीं कर सकता, जिसके द्वारा यह मूल्यांकन किया जा सके कि व्यक्ति के पास मानवता है या नहीं। दूसरी कहावत, “दूसरों की मदद करने में खुशी पाओ,” भी वैसी ही है। इस कथन के शब्दों के आधार पर, यह स्पष्ट है कि यह भी ऐसी ही चीज है, जिसे लोग पसंद करते हैं और एक अच्छा व्यवहार मानते हैं। इस अच्छे व्यवहार को प्रदर्शित करने वाले लोगों को अच्छे नैतिक आचरण और उत्कृष्ट चरित्र वाले लोगों के रूप में अत्यधिक सम्मान दिया जाता है—संक्षेप में, उन्हें ऐसे लोगों के रूप में लिया जाता है, जो दूसरों की मदद करने में खुशी पाते हैं और उत्कृष्ट नैतिक चरित्र रखते हैं। “दूसरों की मदद करने में खुशी पाओ” में कुछ “उठाए गए धन को जेब में मत रखो” जैसी ही समानताएँ हैं। यह भी एक अच्छा व्यवहार है, जो लोगों में कुछ सामाजिक परिवेशों के भीतर उत्पन्न होता है। “दूसरों की मदद करने में खुशी पाओ” का शाब्दिक अर्थ है दूसरे लोगों की मदद करने में खुशी पाना। इसका अर्थ यह नहीं है कि लोगों की मदद करना व्यक्ति का कर्तव्य है—कहावत यह नहीं है कि “दूसरों की मदद करना तुम्हारी जिम्मेदारी है”—बल्कि यह है कि “दूसरों की मदद करने में खुशी पाओ।” इससे हम देख सकते हैं कि क्या चीज लोगों को दूसरों की मदद करने के लिए प्रेरित करती है। वे ऐसा दूसरे लोगों की खातिर नहीं, बल्कि अपने लिए करते हैं। लोग चिंता और पीड़ा से भरे हुए हैं, इसलिए वे दूसरों को ढूँढ़ते हैं जिन्हें मदद की जरूरत है और उन्हें दान और सहायता प्रदान करते हैं; वे मदद के लिए हाथ बढ़ाते हैं और जो भी अच्छी चीजें करने में सक्षम होते हैं, करते हैं, ताकि खुश, प्रसन्न, शांत और आनंदित महसूस कर सकें और अपने जीवन में अर्थ भर सकें, जिससे कि वे इतने खोखले और पीड़ित महसूस न करें—वे अपने दिल और दिमाग के दायरे को शुद्ध कर ऊँचा उठाने का अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए अपना नैतिक आचरण सुधारते हैं। यह कैसा व्यवहार है? अगर तुम इस स्पष्टीकरण के परिप्रेक्ष्य से उन लोगों को देखो, जो दूसरों की मदद करने में खुशी पाते हैं, तो वे अच्छे लोग नहीं हैं। कम से कम, वे अपनी नैतिकता, जमीर या मानवता से वह कार्य करने के लिए, जो उन्हें करना चाहिए, या अपनी सामाजिक और पारिवारिक जिम्मेदारियाँ पूरी करने के लिए प्रेरित नहीं होते; बल्कि वे आनंद, आध्यात्मिक सांत्वना, भावनात्मक सुख प्राप्त करने और खुशी से जीने के लिए लोगों की मदद करते हैं। इस प्रकार के नैतिक आचरण के बारे में क्या राय बनानी चाहिए? अगर तुम इसकी प्रकृति देखो, तो यह “उठाए गए धन को जेब में मत रखो” से भी बदतर है। कम से कम “उठाए गए धन को जेब में मत रखो” का कोई स्वार्थी पहलू नहीं है। फिर इसके बारे में क्या खयाल है : “दूसरों की मदद करने में खुशी पाओ”? “खुशी” शब्द दर्शाता है कि इस व्यवहार में स्वार्थ और घटिया इरादों के तत्त्व शामिल हैं। यह लोगों की खातिर या निस्स्वार्थ प्रस्ताव के रूप में उनकी मदद करने से संबंधित नहीं है, बल्कि यह अपनी खुशी की खातिर किया जाता है। यह कतई प्रोत्साहित करने लायक नहीं है। उदाहरण के लिए, मान लो, तुम किसी बुजुर्ग व्यक्ति को मुख्य सड़क पर गिरते हुए देखते हो और मन ही मन सोचते हो : “मैं इन दिनों उदास महसूस कर रहा हूँ। इस बुजुर्ग व्यक्ति का गिरना एक बड़ा अवसर है—मैं दूसरों की मदद करने में खुशी पाने जा रहा हूँ!” तुम जाकर बुजुर्ग व्यक्ति की मदद करते हो, और जब वह अपने पैरों पर खड़ा हो जाता है, तो वह तुम्हारी प्रशंसा करते हुए कहता है : “तुम वाकई एक अच्छे इंसान हो, बेटे। सुरक्षित और प्रसन्न रहो और दीर्घायु हो!” वह तुम पर इन मधुर वचनों की वर्षा करता है, जिन्हें सुनने के बाद तुम्हारी सारी चिंताएँ दूर हो जाती हैं और तुम प्रसन्न हो जाते हो। तुम्हें लगता है कि लोगों की मदद करना अच्छा है, और तुम अपने खाली समय में सड़कों पर जाकर गिरने वाले किसी भी व्यक्ति को उसके पैरों पर खड़े होने में मदद करने का संकल्प लेते हो। लोग इस प्रकार की सोच के प्रभाव में कुछ अच्छे व्यवहार प्रदर्शित करते हैं, और मानव-समाज ने इसे दूसरों की मदद करने में खुशी पाने की अच्छी परंपरा और उस महान परंपरा को आगे बढ़ाने वाले एक प्रकार के उत्कृष्ट नैतिक चरित्र के रूप में वर्गीकृत किया है। दूसरों की मदद करने में खुशी पाने का उप-संदर्भ यह है कि मदद करने वाले आम तौर पर खुद को नैतिकता का शिखर मानते हैं। वे खुद को महान परोपकारी के रूप में प्रस्तुत करते हैं, और जितनी अधिक लोग उनकी प्रशंसा करते हैं, उतना ही वे दूसरों की मदद करने, दान देने और उनके लिए और अधिक करने के इच्छुक होते हैं। यह नायक और मानवता का रक्षक बनने की उनकी इच्छा और साथ ही दूसरों के लिए अपने जरूरी होने से एक प्रकार की संतुष्टि प्राप्त करने की उनकी इच्छा भी पूरी करता है। क्या सभी मनुष्य अपना जरूरी होना महसूस नहीं करना चाहते? जब लोग दूसरों के लिए अपना जरूरी होना महसूस करते हैं, तो उन्हें लगता है कि वे विशेष रूप से उपयोगी हैं और उनका जीवन सार्थक है। क्या यह महज एक तरह का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास नहीं है? ध्यान आकर्षित करना ही एकमात्र ऐसी चीज है जो लोगों को खुशी देती है—यह उनके जीने का तरीका है। दरअसल, दूसरों की मदद करने में खुशी पाने के मामले को हम चाहे किसी भी परिप्रेक्ष्य से देखें, यह मनुष्य की नैतिकता के मूल्यांकन का कोई मानक नहीं है। अक्सर, दूसरों की मदद करने में खुशी पाने के लिए वास्तव में सिर्फ थोड़े से प्रयास की आवश्यकता होती है। अगर तुम ऐसा करने के इच्छुक होते हो, तो तुम अपनी सामाजिक जिम्मेदारी पूरी कर लोगे; अगर तुम ऐसा करने के इच्छुक नहीं होते, तो कोई तुम्हें जिम्मेदार नहीं ठहराएगा और तुम सार्वजनिक निंदा के पात्र नहीं बनोगे। जब उन अच्छे व्यवहारों की बात आती है जिनकी मनुष्य सराहना करता है, तो व्यक्ति उनका अभ्यास करना या वैसा करने से बचना चुन सकता है, दोनों ही विकल्प ठीक हैं। लोगों को इस कहावत से बाध्य करने या उन्हें यह सीखने के लिए विवश करने की जरूरत नहीं कि “दूसरों की मदद करने में खुशी” कैसे पाएँ, क्योंकि यह अपने आप में एक क्षणिक अच्छा व्यवहार है। चाहे कोई व्यक्ति अपनी सामाजिक जिम्मेदारी पूरी करने की इच्छा से प्रेरित हो या नागरिक-गुण की भावना से इस अच्छे व्यवहार का अभ्यास करता हो, अंतिम परिणाम क्या होगा? वह बस एक अच्छा इंसान बनने और इस एक उदाहरण में लेई फेंग की भावना को मूर्त रूप देने की अपनी इच्छा पूरी कर रहा होगा; ऐसा करने से वह कुछ खुशी और सुकून पाएगा, और इस तरह अपनी सोच का दायरा ऊँचे स्तर पर ले जाएगा। बस, इतना ही। उसके कार्य का यही सार है। तो, इस संगति से पहले “दूसरों की मदद करने में खुशी पाओ” कहावत के बारे में तुम लोगों की क्या समझ थी? (मैं पहले इसके पीछे के स्वार्थपूर्ण और घृणित इरादे नहीं पहचान पाया था।) एक परिदृश्य लो, जिसमें कुछ करना तुम्हारा कर्तव्य है, एक जिम्मेदारी जिससे तुम्हें बचना नहीं चाहिए, ऐसी चीज जो काफी कठिन है, और तुम्हें उसे पूरा करने के लिए थोड़ा कष्ट सहना होगा, कुछ चीजें त्यागनी होंगी और एक कीमत चुकानी होगी, लेकिन तुम फिर भी यह जिम्मेदारी पूरी करने में सक्षम हो। इसे करते हुए तुम उतना प्रसन्न महसूस नहीं करोगे, और कीमत चुकाने और यह जिम्मेदारी पूरी करने के बाद तुम्हारे श्रम के परिणाम तुम्हें कोई खुशी या सुकून नहीं देंगे, लेकिन चूँकि यह तुम्हारी जिम्मेदारी और कर्तव्य था, तुमने फिर भी इसे निभाया। अगर हम इसकी तुलना दूसरों की मदद करने में खुशी पाने से करें, तो कौन अधिक मानवता प्रदर्शित करता है? (अपनी जिम्मेदारियाँ और कर्तव्य पूरे करने वाले लोगों में अधिक मानवता होती है।) दूसरों की मदद करने में खुशी पाना कोई जिम्मेदारी पूरी करना नहीं है—यह सिर्फ लोगों के नैतिक आचरण और सामाजिक जिम्मेदारियों को लेकर एक अपेक्षा है, जो कुछ सामाजिक संदर्भों में मौजूद रहती है; यह लोकप्रिय राय, सामाजिक नैतिकताओं, या यहाँ तक कि किसी देश के कानूनों से आती है, और यह व्यक्ति में नैतिकताओं के होने या न होने और उसकी मानवता की गुणवत्ता का मूल्यांकन करने के काम आती है। दूसरे शब्दों में, “दूसरों की मदद करने में खुशी पाओ” सिर्फ एक कहावत है जो लोगों के व्यवहार को सीमित करती है, जिसे मानव-समाज ने मनुष्य की सोच के दायरे को ऊँचा उठाने के लिए आगे रखा है। ऐसी कहावत का उपयोग सिर्फ लोगों से कुछ अच्छे व्यवहारों का अभ्यास कराने के लिए किया जाता है, और उन अच्छे व्यवहारों के मूल्यांकन के मानक सामाजिक नैतिकताएँ, सार्वजनिक राय, यहाँ तक कि कानून भी हैं। उदाहरण के लिए, अगर तुम सार्वजनिक स्थान पर किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हो जिसे मदद की जरूरत है और तुम पहले व्यक्ति हो जिसे उसकी मदद करने जाना चाहिए, लेकिन तुम नहीं जाते, तो दूसरे तुम्हारे बारे में क्या सोचेंगे? वे तुममें शिष्टाचार की कमी होने को लेकर तुम्हें फटकारेंगे—क्या जनमत से हमारा यही तात्पर्य नहीं है? (हाँ, यही है।) तो फिर सामाजिक नैतिकताएँ क्या हैं? वे वो सकारात्मक और उर्ध्वमुखी चीजें और आदतें हैं जिन्हें समाज बढ़ावा देता और प्रोत्साहित करता है। स्वाभाविक रूप से, उनमें कई विशिष्ट अपेक्षाएँ शामिल हैं, उदाहरण के लिए : कमजोर लोगों का समर्थन करना, दूसरों के कठिनाइयों का सामना करने पर मदद के लिए हाथ बढ़ाना, और सिर्फ हाथ पर हाथ धरे न बैठे रहना। लोगों से ऐसे नैतिक आचरण का अभ्यास करने की अपेक्षा की जाती है, यही सामाजिक नैतिकताएँ होने का अर्थ है। अगर तुम किसी को पीड़ित देखते हो और इससे आँखें मूँद लेते हो, उसे अनदेखा कर देते हो और कुछ नहीं करते, तो तुममें सामाजिक नैतिकताओं की कमी है। तो, कानून मनुष्य के नैतिक आचरण से क्या अपेक्षा करता है? चीन इस संबंध में एक विशेष मामला है : चीनी कानून में सामाजिक जिम्मेदारियों और सामाजिक नैतिकताओं के संबंध में कोई स्पष्ट नियम नहीं हैं। लोग इन चीजों के बारे में अपने पारिवारिक लालन-पालन, स्कूली शिक्षा, और जो कुछ वे समाज से सुनते और देखते हैं, उसके माध्यम से थोड़ा-बहुत सीखते हैं। इसके विपरीत, पश्चिमी देशों में ये चीजें कानून में निहित हैं। उदाहरण के लिए, अगर तुम देखते हो कि कोई सड़क पर गिर गया है, तो कम से कम तुम्हें उसके पास जाकर पूछना चाहिए, “क्या तुम ठीक हो? क्या तुम्हें मदद की जरूरत है?” अगर वह व्यक्ति उत्तर देता है, “मैं ठीक हूँ, धन्यवाद,” तो तुम्हें उसकी मदद करने की जरूरत नहीं है, तुमसे वह जिम्मेदारी निभाना अपेक्षित नहीं है। अगर वह कहता है, “मुझे मदद की जरूरत है,” तो तुम्हें उसकी मदद करनी होगी। अगर तुम उसकी मदद नहीं करते, तो तुम्हें कानूनी रूप से जिम्मेदार ठहराया जाएगा। यह एक विशेष अपेक्षा है, जो कुछ देशों ने लोगों के नैतिक आचरण के संबंध में रखी है; वे अपने कानूनों में स्पष्ट व्यवस्थाओं के माध्यम से लोगों से यह अपेक्षा रखते हैं। जनमत, सामाजिक नैतिकताओं, और यहाँ तक कि कानून के अनुसार भी लोगों के नैतिक आचरण से की गई ये अपेक्षाएँ सिर्फ लोगों के व्यवहार तक ही सीमित हैं, और ये बुनियादी व्यवहारगत कसौटियाँ वे मानक हैं जिनके द्वारा व्यक्ति के नैतिक आचरण का मूल्यांकन किया जाता है। सतही तौर पर, ये नैतिक मानक लोगों के व्यवहार का मूल्यांकन करते प्रतीत होते हैं—दूसरे शब्दों में, लोगों ने अपनी सामाजिक जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं या नहीं—लेकिन अपने सार में, वे लोगों की आंतरिक गुणवत्ता का मूल्यांकन कर रहे होते हैं। चाहे जनमत हो, सामाजिक नैतिकताएँ हो या कानून, ये चीजें सिर्फ उन चीजों को मापती या उनके बारे में अपेक्षाएँ रखती हैं जो लोग करते हैं, और ये माप और अपेक्षाएँ लोगों के व्यवहार तक ही सीमित हैं। वे व्यक्ति की गुणवत्ता और नैतिक आचरण का मूल्यांकन उसके व्यवहार के आधार पर करती हैं—यही उनके मूल्यांकन का दायरा है। यही इस कथन की प्रकृति है : “दूसरों की मदद करने में खुशी पाओ।” जब दूसरों की मदद करने में खुशी पाने की बात आती है, तो पश्चिमी देश कानून की व्यवस्थाओं के माध्यम से लोगों से अपेक्षाएँ रखते हैं, जबकि चीन में इन विचारों से लोगों को शिक्षित और अनुकूलित करने के लिए परंपरागत संस्कृति का उपयोग किया जाता है। हालाँकि पूरब और पश्चिम के बीच यह अंतर है, फिर भी प्रकृति में वे समान हैं—दोनों ही लोगों के व्यवहार और नैतिकता को संयमित और विनियमित करने के लिए कहावतों का उपयोग करते हैं। लेकिन, चाहे पश्चिमी देशों के कानून हों या पूरब की परंपरागत संस्कृति, ये सभी मनुष्य के व्यवहार और नैतिक आचरण से की गई अपेक्षाएँ और विनियम हैं, और ये कसौटियाँ सिर्फ लोगों के व्यवहार और नैतिक आचरण को नियंत्रित करती हैं—लेकिन क्या इनमें से कोई भी मनुष्य की मानवता को लक्ष्य बनाती है? जो नियम सिर्फ यह निर्धारित करते हैं कि व्यक्ति को कौन-से व्यवहार करने चाहिए, क्या उनका उपयोग उसकी मानवता के मूल्यांकन के लिए मानकों के रूप में किया जा सकता है? (नहीं।) अगर हम “दूसरों की मदद करने में खुशी पाओ” कहावत को देखें, तो कुछ बुरे लोग दूसरों की मदद करने में खुशी पाने में सक्षम होते हैं, लेकिन वे अपने इरादों और लक्ष्यों से प्रेरित होते हैं। जब शैतान कोई छोटा-मोटा अच्छा कर्म करते हैं, तो ऐसा करने में उनके इरादे और लक्ष्य होने की संभावना और भी अधिक होती है। क्या तुम लोगों को लगता है कि दूसरों की मदद करने में खुशी पाने वाला हर व्यक्ति सत्य का प्रेमी होता है जिसमें न्याय की भावना होती है? उन लोगों को लो, जो चीन में कथित रूप से दूसरों की मदद करने में खुशी पाते हैं, जैसे शूरवीर लोग, या वे लोग जो अमीरों से लूटकर गरीबों को दे देते हैं, या वे जो अक्सर कमजोर वर्गों और विकलांगों की सहायता के लिए आगे आते हैं, इत्यादि—क्या उन सबमें मानवता होती है? क्या वे सभी सकारात्मक चीजें पसंद करते हैं और उनमें न्याय की भावना होती है? (नहीं।) ज्यादा से ज्यादा, वे न्यायसंगत लोग हैं, जिनका चरित्र अपेक्षाकृत बेहतर है। चूँकि वे दूसरों की मदद करने में खुशी पाने की इस भावना से नियंत्रित होते हैं, इसलिए वे कई अच्छे कर्म करते हैं, जो उन्हें खुशी और सुकून देते हैं और उन्हें पूरी तरह से खुशी की भावना का आनंद लेने देते हैं, लेकिन ऐसे व्यवहारों का अभ्यास करने का मतलब यह नहीं कि उनमें मानवता है, क्योंकि उनकी आस्था और जो कुछ वे आध्यात्मिक स्तर पर करते हैं, दोनों अस्पष्ट होते हैं, वे अज्ञात परिवर्तनशील वस्तुएँ हैं। तो, क्या उन्हें इस अच्छे नैतिक आचरण के आधार पर मानवता और जमीर वाले लोग माना जा सकता है? (नहीं।) कमजोर वर्गों और विकलांगों की सहायता करने वाली, फाउंडेशन और कल्याण एजेंसियों जैसी कुछ संस्थाएँ, जो कथित रूप से दूसरों की मदद करने में खुशी पाती हैं, ज्यादा से ज्यादा, अपनी सामाजिक जिम्मेदारी का कुछ हिस्सा पूरा कर रही होती हैं। वे जनता की नजरों में अपनी छवि सुधारने, अपनी पहुँच बढ़ाने और दूसरों की मदद करने में खुशी पाने की मानसिकता को संतुष्ट करने के लिए ये चीजें करती हैं—यह बिल्कुल भी यह दर्शाने के स्तर तक नहीं पहुँचता कि उनमें “मानवता है।” इसके अलावा, जिन लोगों की मदद करने में वे खुशी पाते हैं, क्या उन्हें वाकई मदद की जरूरत होती है? क्या दूसरों की मदद करने में खुशी पाना अपने आप में उचित है? आवश्यक रूप से नहीं। अगर तुम लंबे समय तक पूरे समाज में होने वाली विभिन्न छोटी-बड़ी घटनाओं का सर्वेक्षण करो, तो तुम देखोगे कि उनमें से कुछ तो पूरी तरह से लोगों के दूसरों की मदद करने में खुशी पाने का मामला है, जबकि लोगों के दूसरों की मदद करने में खुशी पाने के कई अन्य उदाहरणों में समाज के और भी अनकहे रहस्य और काले पहलू छिपे हैं। जो भी हो, दूसरों की मदद करने में खुशी पाने के पीछे इरादे और लक्ष्य होते हैं, चाहे वह प्रसिद्ध होना और बाकी लोगों से ऊपर उठना हो या सामाजिक नैतिकताओं का पालन करना और कानून न तोड़ना या बड़े पैमाने पर समाज से ज्यादा सकारात्मक मूल्यांकन प्राप्त करना। चाहे व्यक्ति इसे जैसे भी देखे, दूसरों की मदद करने में खुशी पाना सिर्फ मनुष्य के बाहरी व्यवहारों में से एक है और ज्यादा से ज्यादा यह एक प्रकार का अच्छा नैतिक आचरण है। इसका उस सामान्य मानवता से कोई लेना-देना नहीं है, जिसकी अपेक्षा परमेश्वर करता है। जो लोग दूसरों की मदद करने में खुशी पाने में सक्षम हैं, वे कोई वास्तविक महत्वाकांक्षा न रखने वाले औसत लोग हो सकते हैं, या वे समाज में प्रमुख व्यक्ति हो सकते हैं; वे अपेक्षाकृत दयालु लोग हो सकते हैं, लेकिन वे हृदय से दुर्भावनापूर्ण भी हो सकते हैं। वे किसी भी प्रकार के व्यक्ति हो सकते हैं, और सभी लोग क्षणिक रूप से इस व्यवहार का अभ्यास करने में सक्षम हैं। इसलिए, नैतिक आचरण के बारे में यह कथन, “दूसरों की मदद करने में खुशी पाओ,” निश्चित रूप से लोगों की मानवता का मूल्यांकन करने का मानक होने लायक नहीं है।

“दूसरों की मदद करने में खुशी पाओ”—नैतिक आचरण के बारे में यह कहावत वास्तव में लोगों की मानवता का सार नहीं दर्शाती, और लोगों के प्रकृति-सार से इसका बहुत कम संबंध है। इसलिए, किसी की मानवता की गुणवत्ता का मूल्यांकन करने के लिए इसका उपयोग करना अनुचित है। तो, किसी की मानवता का मूल्यांकन करने का उचित तरीका क्या है? कम से कम, जिस व्यक्ति में मानवता है, उसे किसी की मदद करने या अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने या न करने का निर्णय इस आधार पर नहीं करना चाहिए कि ऐसा करने से उसे खुशी महसूस होगी या नहीं; इसके बजाय, उसका निर्णय उसके जमीर और विवेक पर आधारित होना चाहिए, और उसे इस बात पर विचार नहीं करना चाहिए कि उसे क्या हासिल होगा, या उस व्यक्ति की मदद करने से उसे क्या परिणाम प्राप्त होंगे, या भविष्य में उस पर इसका क्या प्रभाव पड़ सकता है। उसे इनमें से किसी भी चीज पर विचार नहीं करना चाहिए, और उसे अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए, दूसरों की मदद करनी चाहिए और दूसरों को पीड़ा अनुभव करने से बचाना चाहिए। उसे बिना किसी स्वार्थपूर्ण उद्देश्य के, शुद्ध तरीके से लोगों की मदद करनी चाहिए—जिस व्यक्ति में वास्तव में मानवता है, वह यही करेगा। अगर दूसरों की मदद करने में व्यक्ति का लक्ष्य खुद को खुश करना या अपने लिए अच्छी प्रतिष्ठा बनाना है, तो इसमें एक स्वार्थपूर्ण और निम्न गुणवत्ता है—जिन लोगों में वास्तव में जमीर और विवेक है, वे इस तरह से कार्य नहीं करेंगे। जिन लोगों में दूसरों के प्रति सच्चा प्यार होता है, वे सिर्फ एक निश्चित ढंग से महसूस करने की अपनी इच्छा पूरी करने के लिए कार्य नहीं करते, बल्कि वे अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने और दूसरों की मदद करने के लिए यथाशक्ति सब-कुछ करने के मकसद से ऐसा करते हैं। वे इनाम पाने के लिए लोगों की मदद नहीं करते और उनका कोई अन्य इरादा या मकसद नहीं होता। भले ही इस तरह से कार्य करना कठिन हो सकता है, और भले ही दूसरे उनकी आलोचना कर सकते हैं, या यहाँ तक कि उन्हें थोड़े खतरे का भी सामना करना पड़ सकता है, फिर भी वे मानते हैं कि यह वह कर्तव्य है जिसे लोगों को पूरा करना चाहिए, कि यह लोगों की जिम्मेदारी है, और अगर वे इस तरह कार्य नहीं करते तो वे दूसरों और परमेश्वर के प्रति अपना कर्ज नहीं चुका पाएँगे और उन्हें जीवन भर पछताना पड़ेगा। इस प्रकार, वे बिना किसी हिचकिचाहट के आगे बढ़ते हैं, भरसक प्रयास करते हैं, स्वर्ग की इच्छा का पालन करते हैं और अपनी जिम्मेदारी पूरी करते हैं। चाहे दूसरे उनका कैसे भी मूल्यांकन करें, या दूसरे उनके प्रति कृतज्ञता दिखाएँ या नहीं और उनका सम्मान करें या नहीं, अगर वे उस व्यक्ति की मदद करने के लिए वह सब कर पाते हैं जो उन्हें करने की जरूरत है, और पूरे दिल से ऐसा कर पाते हैं, तो वे संतुष्ट महसूस करेंगे। जो लोग इस तरह से कार्य करने में सक्षम हैं, उनमें जमीर और विवेक है, उनमें मानवता की अभिव्यक्तियाँ हैं, न कि सिर्फ एक प्रकार का व्यवहार, जो नैतिक चरित्र और नैतिक आचरण के दायरे तक सीमित है। दूसरों की मदद करने में खुशी पाना सिर्फ एक प्रकार का व्यवहार है और कभी-कभी यह सिर्फ एक ऐसा व्यवहार होता है जो कुछ विशिष्ट संदर्भों में उत्पन्न होता है; व्यक्ति का इस प्रकार के क्षणिक व्यवहार में संलग्न होने का निर्णय उसकी मनोदशा, भावनाओं, सामाजिक परिवेश और साथ ही तात्कालिक संदर्भ और उस तरह से कार्य करने से हो सकने वाले फायदों या कमियों के आधार पर लिया गया होता है। मानवता वाले लोग दूसरों की मदद करते समय इन बातों पर विचार नहीं करते—वे न्याय के ऐसे मानक के आधार पर अपना निर्णय लेते हैं जो ज्यादा सकारात्मक और सामान्य मानवता के जमीर और विवेक के अनुरूप होता है। कभी-कभी वे तब भी लोगों की मदद करने में सक्षम होते हैं, जब ऐसा करना नैतिकता के मानकों के विपरीत और विरुद्ध होता है। नैतिकता की कसौटियाँ, विचार और दृष्टिकोण सिर्फ लोगों के क्षणिक व्यवहार को रोक सकते हैं। और ये व्यवहार अच्छे हैं या बुरे, यह व्यक्ति की मनोदशा, भावनाओं, उनके भीतर की अच्छाई और बुराई, और उनके क्षणिक अच्छे या बुरे इरादों के आधार पर बदल जाएगा; स्वाभाविक रूप से, सामाजिक माहौल और परिवेश का भी इस पर प्रभाव पड़ेगा। इन व्यवहारों के भीतर अनेक अशुद्धियाँ हैं; ये सब सतही व्यवहार हैं, और लोग इनका इस्तेमाल करके यह निर्णय नहीं कर सकते कि किसी व्यक्ति में मानवता है या नहीं। इसके विपरीत, व्यक्ति में मानवता है या नहीं, इसका निर्णय उसके मानवता-सार, वह किसका अनुसरण करता है, जीवन के प्रति उसके दृष्टिकोण और उसकी मूल्य-व्यवस्था, जिस मार्ग पर वह चलता है, और उसके आचरण और क्रियाकलापों के आधार पर करना कहीं ज्यादा सटीक और व्यावहारिक है। मुझे बताओ, सत्य के अनुरूप क्या है : मानवता के मूल्यांकन के आधार या नैतिक आचरण के मूल्यांकन के आधार? नैतिक आचरण के मूल्यांकन के मानक सत्य के अनुरूप हैं, या यह मूल्यांकन करने के मानक कि व्यक्ति में मानवता है या नहीं? इनमें से कौन-सा मानक सत्य के अनुरूप है? वास्तव में, यह मूल्यांकन करने के मानक कि व्यक्ति में मानवता है या नहीं, सत्य के अनुरूप हैं। यह एक निर्विवाद तथ्य है। लोगों के नैतिक आचरण का मूल्यांकन करने के लिए उपयोग की जाने वाली चीजें कसौटी के रूप में काम क्यों नहीं कर सकतीं, इसका कारण यह है कि वे अस्थिर हैं। वे कई अशुद्धियों से भरी हुई हैं, जैसे कि लोगों के लेन-देन, रुचियाँ, प्राथमिकताएँ, अनुसरण, भावनाएँ, बुरे विचार, भ्रष्ट स्वभाव इत्यादि। उनके भीतर बहुत सारी गलतियाँ और अशुद्धियाँ हैं—वे सीधी-सच्ची नहीं हैं। इसलिए, वे लोगों को परखने की कसौटी के रूप में काम नहीं कर सकतीं। वे उन तमाम तरह की चीजों से, जो शैतान मनुष्य में डालता है, और उन अतिरिक्त स्थितियों से भरी हुई हैं, जो मनुष्य के भ्रष्ट शैतानी स्वभाव के कारण उत्पन्न होती हैं, और इस तरह, वे सत्य नहीं हैं। संक्षेप में, चाहे लोग नैतिक आचरण की इन कसौटियों को पूरा करना सरल मानें या कठिन, या चाहे लोग उन्हें उच्च मूल्य का मानें या निम्न या औसत मूल्य का, हर हाल में वे सब सिर्फ कहावतें हैं, जो लोगों के व्यवहार को संयमित और नियंत्रित करती हैं। वे सिर्फ मनुष्य की नैतिक गुणवत्ता के स्तर तक ऊपर उठती हैं; उनका परमेश्वर की इस अपेक्षा से थोड़ा-सा भी संबंध नहीं है कि व्यक्ति की मानवता का आकलन करने के लिए सत्य का उपयोग किया जाए। उनमें वे सबसे बुनियादी मानक भी शामिल नहीं हैं, जो मानवता वाले लोगों में होने चाहिए और जो उन्हें पूरे करने चाहिए; वे उन सभी चीजों से कम रह जाती हैं। लोगों को देखते समय मनुष्य सिर्फ उनके नैतिक आचरण के प्रदर्शन का मूल्यांकन करने पर ही ध्यान केंद्रित करता है; वह लोगों को पूरी तरह से परंपरागत संस्कृति की अपेक्षाओं के अनुसार देखता और उनका मूल्यांकन करता है। परमेश्वर लोगों को सिर्फ उनके नैतिक आचरण के प्रदर्शन के आधार पर नहीं देखता—वह उनके मानवता-सार पर ध्यान केंद्रित करता है। व्यक्ति के मानवता-सार में क्या शामिल है? उसकी प्राथमिकताएँ, चीजों के बारे में उसके विचार, जीवन के प्रति उसका दृष्टिकोण और उसकी मूल्य-व्यवस्था, वह किसका अनुसरण करता है, क्या उसमें न्याय की भावना है, क्या वह सत्य और सकारात्मक चीजों से प्रेम करता है, सत्य स्वीकारने और उसके प्रति समर्पित होने की उसकी क्षमता, वह मार्ग जो वह चुनता है, इत्यादि। व्यक्ति के मानवता-सार का आकलन इन चीजों के अनुसार करना सटीक है। यह दूसरों की मदद करने में खुशी पाने के विषय पर मेरी संगति का कमोबेश समापन करता है। नैतिक आचरण के बारे में इन दो अपेक्षाओं पर इस संगति के माध्यम से क्या अब तुम्हें नैतिक आचरण का मूल्यांकन करने के तरीके, और साथ ही लोगों का मूल्यांकन करने के परमेश्वर के मानकों और मनुष्य जिस नैतिक आचरण के बारे में बात करता है उनके बीच अंतर को लेकर विवेक के बुनियादी सिद्धांतों की समझ है? (हाँ।)

मैंने अभी परंपरागत संस्कृति द्वारा मनुष्य के नैतिक आचरण पर रखी गई दो माँगों के बारे में संगति की है, “उठाए गए धन को जेब में मत रखो,” और “दूसरों की मदद करने में खुशी पाओ।” इन दो कहावतों पर मेरी संगति से तुम लोगों ने क्या सीखा है? (मैंने सीखा कि लोगों का नैतिक आचरण उनकी मानवता सार से जुड़ा नहीं है। ज्यादा से ज्यादा, इस तरह का नैतिक आचरण प्रदर्शित करने वाले लोगों में अपनी नैतिकता की गुणवत्ता के संदर्भ में कुछ अच्छे व्यवहार और अभिव्यक्तियाँ होती हैं। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि उनमें मानवता है या वे इंसान की तरह जीते हैं। मुझे इस मुद्दे की कुछ हद तक स्पष्ट समझ प्राप्त हुई है।) अच्छे नैतिक आचरण का प्रदर्शन करने वाले लोगों में मानवता होना अनिवार्य नहीं—सभी इसे पहचान सकते हैं, और बेशक, चीजें ऐसी ही हैं। सभी लोग समाज की बुरी प्रवृत्तियों का अनुसरण करते हैं और वे सभी धीरे-धीरे अपना जमीर और विवेक खो चुके हैं—कुछ ही लोग इंसानों की तरह जी पाते हैं। क्या हर वह व्यक्ति, जिसने कभी फुटपाथ पर मिला एक सिक्का तक पुलिस को सौंप दिया था, अच्छा इंसान बन गया? आवश्यक रूप से नहीं। जिनकी कभी नायक के रूप में प्रशंसा की जाती थी, उनका बाद में क्या हश्र हुआ? अपने हृदय में सभी लोग इन प्रश्नों के उत्तर जानते हैं। सामाजिक नैतिकता के उन आदर्श लोगों और भव्य परोपकारियों का क्या हुआ, जो अक्सर दूसरों की मदद करने में खुशी पाया करते थे, जो लाल फूलों से सुशोभित किए जाते थे और जिन्हें मनुष्य सराहता था? उनमें से अधिकांश लोग अच्छे नहीं निकले। उन्होंने मशहूर होने के लिए जानबूझकर कुछ अच्छे काम किए। वास्तव में, उनका अधिकांश वास्तविक व्यवहार, जीवन और चरित्र बिल्कुल भी अच्छा नहीं है। एकमात्र चीज, जिसमें वे वास्तव में अच्छे हैं, वह है चापलूसी और चाटुकारिता। जब वे अपने लाल फूलों और सामाजिक नैतिकता के आदर्श होने का सतही मुलम्मा उतार देते हैं, तो उन्हें यह भी नहीं पता होता कि आचरण कैसे करना है या उन्हें अपना जीवन कैसे जीना चाहिए। यहाँ क्या समस्या है? क्या वे समाज द्वारा दिए गए “नैतिक आदर्श” के ताज के कारण फँस नहीं गए हैं? वे वास्तव में नहीं जानते कि वे क्या हैं—उनकी इतनी ज्यादा चापलूसी की गई है कि वे खुद को बहुत महान समझने लगे हैं और अब सामान्य व्यक्ति नहीं हो सकते। अंत में, वे यह भी नहीं जानते कि कैसे जीना है, उनका दिन-प्रतिदिन का जीवन पूरी तरह से अस्त-व्यस्त हो जाता है, और कुछ को शराब की लत लग जाती है, वे अवसादग्रस्त हो जाते हैं और आत्महत्या कर लेते हैं। निश्चित रूप से ऐसे लोग हैं, जो इस श्रेणी में आते हैं। वे हमेशा एक भावना का पीछा करते रहते हैं, नायक और मिसाल बनने, प्रसिद्ध होने या नैतिक उत्कृष्टता के शिखर होने की कामना करते हैं। वे कभी वास्तविक दुनिया में नहीं लौट सकते; वास्तविक जीवन की दैनिक आवश्यकताएँ उनके लिए परेशानी और पीड़ा का एक सतत स्रोत होती हैं। वे नहीं जानते कि इस दर्द से कैसे छुटकारा पाया जाए या जीवन में सही मार्ग कैसे चुना जाए। रोमांच की तलाश में कुछ लोग नशे की ओर मुड़ जाते हैं, जबकि दूसरे लोग खोखलेपन की भावनाओं से बचने के लिए अपनी जिंदगी खत्म करने का विकल्प चुन लेते हैं। उनमें से कुछ, जो आत्महत्या नहीं करते, अक्सर अवसाद से मर जाते हैं। क्या इसके कई उदाहरण नहीं हैं? (हैं।) परंपरागत संस्कृति लोगों को इसी तरह की क्षति पहुँचाती है। यह न सिर्फ लोगों को मानवता की सटीक समझ प्राप्त नहीं करने देती, न ही उन्हें उस सही मार्ग पर ले जाती है जिसका उन्हें अनुसरण करना चाहिए—यही नहीं—यह वास्तव में उन्हें भटकाती है, उन्हें भ्रम और कल्पना के क्षेत्र की ओर ले जाती है। यह लोगों को नुकसान पहुँचाती है और काफी गहरे तरीके से पहुँचाती है। कुछ लोग कह सकते हैं : “यह सभी मामलों में सच नहीं है! हमारा सब-कुछ बिल्कुल अच्छा चल रहा है, है न?” क्या यह तथ्य कि तुम लोग अभी अच्छे हाल में हो, सिर्फ परमेश्वर की सुरक्षा का परिणाम नहीं है? सिर्फ इसलिए कि परमेश्वर ने तुम लोगों को चुना और तुम लोगों को उसकी सुरक्षा प्राप्त है, तुम इतने भाग्यशाली रहे कि तुमने उसका कार्य स्वीकारा, और तुम उसके वचन पढ़ सकते हो, सभाओं में भाग ले सकते हो, संगति का आदान-प्रदान कर सकते हो और यहाँ अपना कर्तव्य निभा सकते हो; यह सिर्फ उसकी सुरक्षा के कारण है कि तुम एक सामान्य इंसान का जीवन जी सकते हो और अपने दैनिक जीवन के सभी पहलुओं से निपटने के लिए सामान्य विवेक रख सकते हो। हालाँकि, यह निर्विवाद है कि तुम लोगों के दिमाग की गहराइयों में अभी भी ऐसे विचार और दृष्टिकोण हैं : “उठाए गए धन को जेब में मत रखो” और “दूसरों की मदद करने में खुशी पाओ।” साथ ही, तुम लोग अभी भी मनुष्य से आने वाले इन वैचारिक और नैतिक मानदंडों की कैद में हो। मैं यह क्यों कहता हूँ कि तुम लोग इन चीजों की कैद में हो? क्योंकि तुम लोग जीवन में जो मार्ग चुनते हो; तुम्हारे क्रियाकलापों और आचरण के सिद्धांत और दिशा; और वे सभी सिद्धांत, तरीके और मानदंड जिनके द्वारा तुम लोगों और चीजों को देखते हो; इत्यादि, अभी भी अलग-अलग सीमा तक इन वैचारिक और नैतिक मानदंडों से प्रभावित हैं, यहाँ तक कि उनसे बँधे हुए और नियंत्रित भी हैं। जबकि परमेश्वर के वचन और सत्य अभी भी लोगों और चीजों को देखने, और तुम्हारे आचरण और कार्यकलापों का आधार और कसौटी नहीं बन पाए हैं। अभी तक, तुम लोगों ने जीवन में सिर्फ सही दिशा चुनी है और तुम लोगों में सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलने की इच्छा, आकांक्षा और आशा है। लेकिन वास्तव में, तुम लोगों में से अधिकांश ने इस मार्ग पर बिल्कुल भी कदम नहीं रखा है—दूसरे शब्दों में, तुम लोगों ने अभी तक उस सही मार्ग पर कदम तक नहीं रखा है, जो परमेश्वर ने मनुष्य के लिए तैयार किया है। कुछ लोग कहेंगे : “अगर हमने सही मार्ग पर कदम नहीं रखा है, तो हम फिर भी अपने कर्तव्य निभाने में सक्षम क्यों हैं?” यह मनुष्य के चुनाव, सहयोग, जमीर और संकल्प का परिणाम है। अभी, तुम परमेश्वर की माँगों के साथ सहयोग कर रहे हो और सुधरने की पूरी कोशिश कर रहे हो, लेकिन सिर्फ इसलिए कि तुम सुधरने की कोशिश कर रहे हो, इसका यह मतलब नहीं कि तुम पहले ही सत्य के अनुसरण के मार्ग पर कदम रख चुके हो। इसका एक कारण यह है कि तुम लोग अभी भी उन विचारों से प्रभावित हो, जो परंपरागत संस्कृति ने तुम लोगों के मन में बैठाए हैं। उदाहरण के लिए, मुझे इन कथनों के बारे में संगति कर इन्हें उजागर करते सुनने के बाद तुम लोगों को इन कथनों के सार की अच्छी समझ हो सकती है, “उठाए गए धन को जेब में मत रखो,” और “दूसरों की मदद करने में खुशी पाओ,” लेकिन कुछ ही दिनों में तुम अपना मन बदल सकते हो। तुम सोचने लग सकते हो : “‘उठाए गए धन को जेब में मत रखो’ में ऐसा क्या बुरा है? मैं ऐसे लोगों को पसंद करता हूँ, जो उठाए गए धन को जेब में नहीं रखते। कम से कम वे लालची नहीं हैं। ‘दूसरों की मदद करने में खुशी पाओ’ में क्या गलत है? कम से कम, जब तुम्हें जरूरत हो, तब तुम ऐसे व्यक्ति पर भरोसा कर सकते हो, जो तुम्हारी मदद के लिए हाथ बढ़ाता है। यह एक अच्छी बात है और यह ऐसी चीज है, जिसकी हर किसी को जरूरत पड़ती है! इसके अलावा, चाहे तुम इसे कैसे भी देखो, लोगों का दूसरों की मदद करने में खुशी पाना एक अच्छी, सकारात्मक चीज है। यह हमारा आवश्यक कर्तव्य है और इसकी आलोचना नहीं की जानी चाहिए!” देखो, जागने के कुछ ही दिनों बाद, एक रात की नींद भी तुम्हें बदलने के लिए पर्याप्त होगी; यह तुम्हें वापस वहीं भेज देगी जहाँ तुम पहले थे, और तुम्हें एक बार फिर परंपरागत संस्कृति की कैद में लौटा देगी। दूसरे शब्दों में, तुम्हारे मन की गहराइयों में दर्ज ये चीजें समय-समय पर तुम्हारे विचारों और दृष्टिकोणों को, और साथ ही तुम्हारे द्वारा चुने गए मार्गों को भी प्रभावित करती हैं। और अनिवार्य रूप से, जब वे तुम्हें प्रभावित कर रही होती हैं, तब वे तुम्हें लगातार पीछे खींच भी रही होती हैं, तुम्हें जीवन में सही मार्ग पर कदम रखने, सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलने, और जीवन में वह मार्ग अपनाने की अपनी इच्छा पूरी करने से रोक भी रही होती हैं, जहाँ परमेश्वर के वचन तुम्हारा आधार और सत्य तुम्हारी कसौटी हो। भले ही तुम इस मार्ग पर चलने के लिए बहुत इच्छुक हो, भले ही तुम ऐसा करने के लिए लालायित हो, और इसके बारे में चिंतित महसूस करो, और अपने दिन इसके लिए सोचने और योजना बनाने, संकल्प लेने और प्रार्थना करने में बिताओ, तो भी चीजें वैसी नहीं होंगी, जैसी तुम चाहते हो। इसका कारण यह है कि परंपरागत संस्कृति के ये पहलू तुम्हारे दिल की गहराइयों में बहुत गहराई तक जड़ें जमाए हुए हैं। कुछ लोग कह सकते हैं : “यह सही नहीं है! तुम कहते हो कि परंपरागत संस्कृति लोगों के दिलों में बहुत गहराई तक जड़ें जमाए हुए है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि यह सच है। मैं अभी सिर्फ बीसेक वर्ष का हूँ, सत्तर या अस्सी वर्ष का नहीं, तो ये चीजें मेरे दिल में पहले से ही गहरी जड़ें कैसे जमाए हो सकती हैं?” मैं यह क्यों कहता हूँ कि ये विचार पहले से ही तुम्हारे दिलों में गहराई से जड़ें जमा चुके हैं? इसके बारे में सोचो : अपनी शुरुआती यादों के समय से ही तुम क्या हमेशा एक नेक इंसान बनने की आकांक्षा नहीं रखते थे, भले ही तुम्हारे माता-पिता ने तुममें ऐसे विचार न डाले हों? उदाहरण के लिए, अधिकांश लोग फिल्में देखना और नायकों के बारे में उपन्यास पढ़ना पसंद करते हैं, और वे इन कहानियों में पीड़ितों के प्रति गहरी सहानुभूति रखते हैं, जबकि खलनायकों और दूसरे लोगों को चोट पहुँचाने वाले क्रूर पात्रों से घृणा करते हैं। जब तुम इस प्रकार की पृष्ठभूमि में बड़े होते हो, तो तुम अनजाने ही वे चीजें स्वीकार लेते हो, जिन पर सामान्य समाज सामूहिक रूप से सहमत होता है। तो, तुमने वे चीजें क्यों स्वीकारीं? क्योंकि लोग सत्य धारण किए हुए पैदा नहीं होते और उनमें चीजों को समझने की जन्मजात क्षमता नहीं होती। तुममें यह प्रवृत्ति नहीं है—मनुष्यों में जो प्रवृत्ति होती है, वह कुछ अच्छी, सकारात्मक और सक्रिय चीजों को पसंद करने की अंतर्निहित प्रवृत्ति है। ये सक्रिय और सकारात्मक चीजें तुमसे बेहतर करने, एक अच्छा, वीर और महान व्यक्ति बनने की आकांक्षा रखवाती हैं। जब तुम सार्वजनिक राय और सामाजिक नैतिकताओं से उपजी कहावतों के संपर्क में आते हो, तो ये चीजें धीरे-धीरे तुम्हारे दिल में आकार लेने लगती हैं। जब परंपरागत संस्कृति की नैतिकता से आने वाले कथन तुम्हारे मन में आकर तुम्हारी आंतरिक दुनिया में प्रवेश करते हैं, तो वे तुम्हारे दिल में जड़ें जमा लेते हैं और तुम्हारे जीवन पर हावी होने लगते हैं। जब ऐसा होता है, तो तुम इन चीजों को नहीं समझते, इनका विरोध नहीं करते या इन्हें नकारते नहीं, इसके बजाय तुम गहराई से महसूस करते हो कि तुम्हें उनकी जरूरत है। तुम्हारा पहला कदम इन कहावतों को बढ़ावा देना होता है। ऐसा क्यों होता है? चूँकि ये कहावतें लोगों की रुचियों और धारणाओं के बहुत अनुकूल होती हैं, इसलिए वे लोगों की आध्यात्मिक दुनिया की जरूरतों के अनुरूप होती हैं। नतीजतन, तुम इन कथनों को स्वाभाविक रूप से स्वीकार लेते हो और उनसे बिल्कुल भी सावधान नहीं रहते। धीरे-धीरे, अपने पारिवारिक लालन-पालन, स्कूली शिक्षा और समाज के अनुकूलन और शिक्षण के साथ-साथ अपनी कल्पनाओं के माध्यम से तुम गहराई से आश्वस्त हो जाते हो कि ये कहावतें सकारात्मक चीजें हैं। समय के शोधन के माध्यम से, और जैसे-जैसे तुम धीरे-धीरे बड़े होते जाते हो, तुम तमाम तरह के संदर्भों और स्थितियों में इन कहावतों का पालन करने का प्रयास करते हो, और इन चीजों का पालन करते हो, जिन्हें मनुष्य सहज रूप से पसंद करते और अच्छा मानते हैं। वे तेजी से तुम्हारे भीतर आकार ले लेती हैं और तुम्हारे भीतर ज्यादा से ज्यादा मोरचेबंदी कर लेती हैं। साथ ही, ये चीजें जीवन के प्रति तुम्हारे दृष्टिकोण और तुम्हारे द्वारा अनुसरण किए जाने वाले लक्ष्यों पर हावी हो जाती हैं और वे मानक बन जाती हैं जिनके द्वारा तुम लोगों और चीजों का आकलन करते हो। जब परंपरागत संस्कृति की ये कहावतें लोगों के भीतर आकार ले लेती हैं, तो वे बुनियादी स्थितियाँ जो उन्हें परमेश्वर और सत्य का विरोध करने के लिए प्रेरित करती हैं, निर्मित हो जाती हैं; यह ऐसा है, मानो लोग ऐसा करने के लिए अपने कारण और अपना आधार ढूँढ़ लेते हों। इसलिए, जब परमेश्वर लोगों के भ्रष्ट स्वभाव और उनका सार उजागर करता है और उन पर ताड़ना और न्याय की वर्षा करता है, तो लोग उसके बारे में तमाम तरह की धारणाएँ बना लेते हैं। वे सोचते हैं : “लोग अक्सर कहते हैं, ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो,’ और ‘मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो,’ तो परमेश्वर वैसा कैसे बोल सकता है? क्या वह सचमुच परमेश्वर है? परमेश्वर इस तरह से नहीं बोलेगा—उसे नैतिकता से काम लेना चाहिए और लोगों से सौम्य स्वर में बात करनी चाहिए, बुद्ध के स्वर में, जो सभी मनुष्यों को पीड़ा से मुक्ति दिलाता है, बोधिसत्व के स्वर में। परमेश्वर ऐसा ही होता है—बेहद सौम्य और भव्य हस्ती।” विचारों, दृष्टिकोणों और धारणाओं की यह शृंखला लगातार बढ़ती मात्रा में तुम्हारे हृदय से निकलती रहती है, और अंततः, तुम इसे और सहन नहीं कर पाते और न चाहते हुए भी परमेश्वर के प्रति विद्रोह और उसका विरोध करने के लिए कुछ करते हो। इस तरह, तुम अपनी धारणाओं और कल्पनाओं से बरबाद हो जाते हो। इससे हम देख सकते हैं कि चाहे तुम्हारी उम्र कितनी भी हो, अगर तुमने परंपरागत संस्कृति की शिक्षा प्राप्त की है और तुम एक वयस्क की मानसिक क्षमता रखते हो, तो तुम्हारा दिल परंपरागत संस्कृति की नैतिकता के इन पहलुओं से भरा रहेगा और वे धीरे-धीरे तुम्हारे भीतर मोरचेबंदी कर लेंगे। वे पहले ही तुम पर हावी हो चुके हैं और तुम पहले ही कई वर्षों से इन चीजों के अनुसार जीते रहे हो। तुम्हारे जीवन और तुम्हारी प्रकृति पर लंबे समय से परंपरागत संस्कृति की नैतिकता के इन पहलुओं द्वारा कब्जा किया जा चुका है। उदाहरण के लिए, पाँच-छह साल की उम्र से तुमने दूसरों की मदद करने में खुशी पाना और उठाए गए धन को जेब में नहीं रखना सीख लिया है। इन चीजों ने तुम्हें प्रभावित किया और तुम्हारे व्यवहार करने के तरीके को पूरी तरह से निर्धारित किया। अब, एक मध्यम आयु-वर्ग के व्यक्ति के रूप में, तुम पहले ही कई वर्षों से इन चीजों के अनुसार जी चुके हो; इसका मतलब यह है कि तुम उन मानकों से बहुत दूर हो, जिनकी माँग परमेश्वर मनुष्य से करता है। जबसे तुमने परंपरागत संस्कृति द्वारा प्रचारित नैतिक आचरण संबंधी ये कहावतें स्वीकार की हैं, तबसे तुम परमेश्वर की माँगों से और भी ज्यादा भटक गए हो। तुम्हारे मानवता के मानकों और परमेश्वर द्वारा अपेक्षित मानवता के मानकों के बीच का अंतर और भी बड़ा हो गया है। नतीजतन, तुम परमेश्वर से और भी ज्यादा दूर भटक गए हो। क्या ऐसा नही है? इन वचनों पर विचार करने में समय लगाओ।

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