सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (5) भाग एक
अपनी पिछली सभा में हमने किस पर संगति की थी? (परमेश्वर ने पहले शाओशाओ और शाओजी की कहानियों पर संगति की। उसके बाद तुमने इस पर संगति की कि वे व्यवहार, जिन्हें मनुष्य अच्छा मानता है, क्या दर्शाते हैं, तुमने उन कुछ अपेक्षाओं के बारे में भी बात की जो परमेश्वर को मनुष्य से हैं, और उन सत्य-सिद्धांतों पर विशेष जोर दिया गया था, जो अपने माता-पिता का सम्मान करने के संबंध में हमें समझने चाहिए।) पिछली बार, हमने सत्य के अनुसरण से संबंधित एक ऐसे विषय पर संगति की थी, जो मनुष्य की धारणाओं के लिए सबसे उपयुक्त था। यह एक नकारात्मक विषय भी था, अर्थात् ऐसे व्यवहार जिन्हें मनुष्य की धारणाओं के अनुसार सही और अच्छा माना जाता है। हमने इस विषय से जुड़े कुछ उदाहरण दिए, और फिर हमने उन माँगों के कुछ और उदाहरण दिए, जो परमेश्वर ने मनुष्य का व्यवहार विनियमित करने के लिए की हैं। कमोबेश यही वे विशिष्ट चीजें थीं, जिन पर हमने संगति की। इस संगति में बहुत सारे बड़े खंड नहीं थे, लेकिन हमने लोगों के ज्ञान, अभ्यास और सत्य की उनकी समझ के बारे में कई विवरणों पर चर्चा की। आज हम इन्हीं चीजों पर एक संक्षिप्त नजर डालेंगे। आम तौर पर, मनुष्य किन्हें अच्छे व्यवहार मानता है? क्या हमारे पास इसका कोई निष्कर्ष या मोटी परिभाषा नहीं होनी चाहिए? क्या तुम लोग किसी निष्कर्ष पर पहुँचे हो? क्या तुमने सभाओं में इन चीजों पर संगति की है? (की है। परमेश्वर द्वारा कई बार हमारे साथ संगति करने के बाद, हम यह देख पाए कि अच्छे व्यवहार, जिन्हें मनुष्य सही मानता है, सिर्फ एक प्रकार के व्यवहार हैं। वे सत्य नहीं दर्शाते, वे सिर्फ लोगों के खुद को छिपाने के तरीके हैं।) बाहरी व्यवहारों के संबंध में मनुष्य ने जो कथन सारांशित किए हैं, उन के आधार पर—वास्तव में, इन व्यवहारों का सार क्या है? क्या मनुष्य के सार और उसके बाहरी अच्छे व्यवहारों के बीच कोई संबंध है? इन बाहरी अच्छे व्यवहारों के कारण लोग बहुत सभ्य और सम्मानित दिखते हैं; ऐसे व्यवहार करने वाले लोगों का दूसरे लोग सम्मान और प्रशंसा करते हैं, वे उच्च माने जाते हैं और अच्छा प्रभाव छोड़ते हैं। क्या यह अच्छा प्रभाव मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव के सार के अनुरूप है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) तो, इस दृष्टिकोण से, मनुष्य के अच्छे व्यवहारों की प्रकृति क्या है? क्या वे सिर्फ सतही स्तर के दृष्टिकोण और पैकेजिंग नहीं हैं? (हाँ, हैं।) क्या ये सतही स्तर के दृष्टिकोण और पैकेजिंग सामान्य मानवता की उचित अभिव्यक्तियाँ हैं? (नहीं, वे नहीं हैं।) यही कारण है कि जिन व्यवहारों को लोग अपनी धारणाओं के भीतर सही और अच्छा मानते हैं, वे वास्तव में सिर्फ मनुष्य के सतही स्तर के दृष्टिकोण और पैकेजिंग हैं। यही उन व्यवहारों की प्रकृति है। वे सामान्य मानवता को जीना नहीं हैं, न ही वे सामान्य मानवता के प्रकाशन हैं; वे सिर्फ बाहरी दृष्टिकोण हैं। ये दृष्टिकोण मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों पर पर्दा डालते हैं, ये मनुष्य के शैतानी प्रकृति-सार पर पर्दा डालते हैं, और ये दूसरे लोगों की आँखों में धूल झोंकते हैं। लोग दूसरों की कृपा, सम्मान और आदर पाने के लिए इन अच्छे व्यवहारों का अभ्यास करते हैं—ऐसे व्यवहार लोगों को एक-दूसरे के साथ ईमानदारी से व्यवहार करने या एक-दूसरे के साथ ईमानदारी से बातचीत करने में मदद नहीं कर सकते, इंसान की तरह जीने की तो बात ही छोड़ दो। ये अच्छे व्यवहार वे दृष्टिकोण नहीं हैं जो हार्दिक ईमानदारी से उत्पन्न होते हैं, न ही ये सामान्य मानवता के प्रकाशन हैं। ये किसी भी तरह से मनुष्य का सार नहीं दर्शाते; ये विशुद्ध रूप से वह स्वाँग और फर्जी मुखौटा हैं, जिन्हें मनुष्य पहनता है—ये भ्रष्ट मनुष्य के गहने हैं। ये मनुष्य का दुष्ट सार छिपा देते हैं। यही मनुष्य के अच्छे व्यवहारों का सार है, यही उनके पीछे का सत्य है। तो, उन व्यवहारों का सार क्या है, जिनकी परमेश्वर मनुष्य से माँग करता है? पिछली दो बार की संगति में हमने कुछ ऐसे दृष्टिकोणों का उल्लेख किया, जिनकी परमेश्वर मनुष्य के व्यवहार के संबंध में माँग करता है, और उन कुछ चीजों का उल्लेख किया, जिन्हें जीने की वह लोगों से अपेक्षा करता है। उनमें क्या शामिल था? (लोग धूम्रपान नहीं करेंगे, शराब नहीं पीएँगे और दूसरों के साथ मारपीट या मौखिक गाली-गलौज नहीं करेंगे। वे अपने माता-पिता का सम्मान करेंगे, और संतों जैसी शालीनता रखेंगे। वे मूर्ति-पूजा नहीं करेंगे, व्यभिचार, चोरी, दूसरों की संपत्ति का गबन नहीं करेंगे, या झूठी गवाही नहीं देंगे, इत्यादि।) इन माँगों का सार क्या है? दूसरे शब्दों में, परमेश्वर किस आधार पर ये माँगें करता है? ये किस मूलभूत शर्त पर आधारित हैं? क्या ये माँगें इस संदर्भ के भीतर और इस आधार पर नहीं रखी गईं कि मनुष्य शैतान द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया है और मनुष्य की प्रकृति पापपूर्ण है? और क्या ये माँगें सामान्य मानवता के दायरे में नहीं हैं? क्या ये ऐसी चीजें नहीं हैं, जिन्हें सामान्य मानवता वाले लोग प्राप्त कर सकते हैं? (हाँ, हैं।) ये माँगें पूरी तरह से इस मूलभूत शर्त के आधार पर रखी जाती हैं कि सामान्य मानवता वाला व्यक्ति इन्हें प्राप्त कर सकता है। तो, इस संबंध में, उन व्यवहारों का सार क्या है, जिनकी परमेश्वर मनुष्य से माँग करता है? क्या हम कह सकते हैं कि यह सामान्य मानवता द्वारा जी गई सच्ची समानता और साथ ही वह न्यूनतम चीज है, जो सामान्य मानवता में होनी चाहिए? हमने जो उदाहरण दिए हैं : कि लोगों में संतों जैसी शालीनता होनी चाहिए, और वे संयम रखेंगे और आवारागर्दी नहीं करेंगे, दूसरों के साथ मारपीट या गाली-गलौज नहीं करेंगे, या धूम्रपान नहीं करेंगे, शराब नहीं पिएँगे, व्यभिचार, चोरी या मूर्ति-पूजा नहीं करेंगे, और वे अपने माता-पिता का सम्मान करेंगे, और अनुग्रह के युग में, लोगों को धैर्यवान, सहिष्णु, इत्यादि बनने के लिए भी कहा गया था—क्या ये माँगें जो परमेश्वर ने रखी हैं, सिर्फ एक तरह के दृष्टिकोण तक सीमित हैं? नहीं, परमेश्वर ने मानदंड निर्धारित किया है कि कैसे लोगों को सामान्य मानवता को जीना चाहिए। “मानदंड” से मेरा क्या मतलब है? मेरा मतलब है परमेश्वर की अपेक्षाओं के मानक। एक व्यक्ति के नाते, सामान्य मानवता से युक्त होने के लिए तुम्हें किस चीज को जीने की आवश्यकता है? तुम्हें वे अपेक्षाएँ पूरी करनी चाहिए, जिन्हें परमेश्वर ने सामने रखा है। हमने उन माँगों के सिर्फ एक हिस्से को सूचीबद्ध किया है, जो परमेश्वर ने मनुष्य से की हैं। दूसरों के साथ मारपीट या गाली-गलौज न करने, धूम्रपान न करने, शराब न पीने, व्यभिचार न करने, या चोरी न करने, इत्यादि जैसी माँगें ऐसी चीजें हैं, जिन्हें सामान्य मानवता वाले लोग प्राप्त कर सकते हैं। हालाँकि ये चीजें सत्य से कमतर हैं और सत्य के स्तर तक नहीं पहुँचतीं, फिर भी ये इस बात का मूल्यांकन करने के कुछ बुनियादी मानक हैं कि व्यक्ति में मानवता है या नहीं।
उन व्यवहारों का सार क्या था, जिनकी परमेश्वर मनुष्य से माँग करता है और जिन्हें हमने अभी सारांशित किया है? सामान्य मानवता को जीना। यदि व्यक्ति परमेश्वर की माँगों के अनुसार जी सकता या व्यवहार कर सकता है, तो परमेश्वर की नजरों में उस व्यक्ति में सामान्य मानवता है। सामान्य मानवता होने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति पहले से ही वह व्यवहार संबंधी मापदंड रखता है, जिसकी परमेश्वर माँग करता है, और अपने व्यवहार, दृष्टिकोणों, और जिसे वह जीता है उसके संदर्भ में, सामान्य मानवता के मानक पर खरा उतरता है, क्योंकि वह उस तरह से सामान्य मानवता को उत्सर्जित करता और जीता है, जिस तरह से परमेश्वर माँग करता है। क्या इसे ऐसे कहा जा सकता है? (हाँ।) चाहे व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास करता हो या नहीं, चाहे उसमें सच्ची आस्था हो या नहीं, अगर वह दूसरे लोगों के यहाँ चोरी करता है, उनके साथ छल करता है या उनका फायदा उठाता है; या अगर वह अक्सर गंदी भाषा का प्रयोग करता है; या अगर वह अपनी प्रतिष्ठा, हैसियत, छवि या अन्य हित दाँव पर लगने पर बेहिचक दूसरे लोगों को मारता और चोट पहुँचाता है; या अगर वह व्यभिचार का पाप करने की हद तक भी चला जाता है—अगर उसके मानवता को जीने के तरीके में अभी भी ये समस्याएँ हैं, खासकर उसके परमेश्वर में विश्वास करना शुरू करने के बाद, तो क्या उसकी मानवता सामान्य है? (नहीं, वह सामान्य नहीं है।) चाहे तुम गैर-विश्वासियों का मूल्यांकन कर रहे हो या विश्वासियों का, ये व्यवहार संबंधी मानक, जो परमेश्वर ने निर्धारित किए हैं, व्यक्ति की मानवता का मूल्यांकन करने के सिर्फ निम्नतम और न्यूनतम मानक हैं। कुछ लोग हैं, जो विश्वासी बनने के बाद, खुद को थोड़ा त्यागते और खपाते हैं, और थोड़ी कीमत चुकाने में सक्षम होते हैं, लेकिन वे व्यवहार संबंधी मानक पर कभी खरे नहीं उतरते जो परमेश्वर ने निर्धारित किए हैं। स्पष्ट है कि इस तरह के लोग सामान्य मानवता को नहीं जीते—वे सबसे बुनियादी मानवीय समानता तक को नहीं जीते। व्यक्ति के सामान्य मानवता को न जीने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि उसमें सामान्य मानवता नहीं है। क्योंकि वह उन अपेक्षाओं के मानक भी पूरे नहीं कर सकता, जो मानवता को जीने के संदर्भ में परमेश्वर ने मनुष्य के व्यवहार के लिए रखे हैं, उनकी मानवता बहुत खराब है, और उन्हें सिर्फ एक खराब मूल्यांकन ही दिया जा सकता है। व्यक्ति की मानवता के मूल्यांकन के लिए न्यूनतम मानक यह देखना है कि क्या उसका व्यवहार उन अपेक्षाओं के मानक पूरे करता है, जिन्हें परमेश्वर ने मनुष्य के व्यवहार के लिए निर्धारित किया है। देखो कि क्या परमेश्वर में विश्वास करने के बाद वह खुद को संयमित करता है; क्या उसकी कथनी और करनी में संतों जैसी शालीनता है; दूसरों के साथ बातचीत करते हुए वह उनका लाभ उठाता है या नहीं; क्या वह अपने परिवार के सदस्यों और कलीसिया में भाई-बहनों के साथ प्रेम, सहनशीलता और धैर्य से पेश आता है; क्या वह अपने माता-पिता के प्रति अपने उत्तरदायित्व भरसक पूरे करता है; क्या वह अब भी मूर्ति-पूजा करता है जब कोई नहीं देख रहा होता, इत्यादि। हम व्यक्ति की मानवता का मूल्यांकन करने के लिए इन चीजों का उपयोग कर सकते हैं। व्यक्ति सत्य से प्रेम और उसका अनुसरण करता है या नहीं, इसे एक तरफ रखकर, पहले मूल्यांकन करो कि क्या उसमें सामान्य मानवता है—क्या उसके शब्द और व्यवहार उन व्यवहार संबंधी मानकों को पूरा करते हैं, जो परमेश्वर ने निर्धारित किए हैं। अगर वे उन व्यवहार संबंधी मानकों को पूरा नहीं करते, तो तुम उनकी मानवता का मूल्यांकन इसके अनुसार कर सकते हो कि जिसे वह जीता है उसका दर्जा क्या है चाहे वह औसत, खराब, बहुत खराब, या भयानक इस क्रम में हो—यह सटीक है। अगर कोई विश्वासी सुपरमार्केट या सार्वजनिक स्थानों पर जाकर दुकानों से चोरी करता है और लोगों की जेब काटता है, अगर वह चोरी करने का आदी है, तो उसमें किस तरह की मानवता है? (बुरी मानवता।) कुछ लोग हैं, जो किसी बात से गुस्सा होने पर दूसरों को गाली देते हैं, यहाँ तक कि उन्हें मारते भी हैं। उनके द्वारा किया गया अपमान दूसरे के सार का उचित आकलन नहीं होता, बल्कि वे मनमाने आरोप होते हैं और गंदी भाषा से भरे होते हैं। ऐसे लोग अपनी नफरत निकालने के लिए जो चाहे कह देते हैं, कुछ बाकी नहीं रखते। कुछ लोग, खास तौर से, अपने माता-पिता से, अपने भाई-बहनों से, अपने गैर-विश्वासी रिश्तेदारों से, यहाँ तक कि अपने गैर-विश्वासी मित्रों से भी ऐसी बातें कह देते हैं, जिन्हें तुम सुनना नहीं चाहोगे, कि कहीं वे तुम्हारे कान दूषित न कर दें। इस तरह के व्यक्ति में किस तरह की मानवता होती है? (बुरी मानवता।) तुम यह भी कह सकते हो कि उसमें मानवता नहीं है। फिर कुछ ऐसे भी हैं, जिनकी निगाहें हमेशा पैसे पर टिकी रहती हैं। जब ये लोग किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हैं जिसके पास पैसा होता है, जो अच्छा खाता है और अच्छे कपड़े पहनता है, और जिसका जीवन समृद्ध है, तो वे हमेशा उसका फायदा उठाना चाहते हैं। वे हमेशा उससे अप्रत्यक्ष रूप से चीजें माँगते रहते हैं, या उसका खाना खाते और उसकी चीजें इस्तेमाल करते रहते हैं, या उससे चीजें उधार लेते रहते हैं पर लौटाते नहीं। हालाँकि उन्होंने किसी बड़े तरीके से दूसरों का लाभ नहीं उठाया होता, और उनके कार्य गबन या रिश्वतखोरी की श्रेणी में नहीं आते, लेकिन उनके ये चोरी के व्यवहार वास्तव में नीच और घृणित हैं, और वे दूसरों के तिरस्कार के भागी होते हैं। अधिक गंभीर बात यह है कि ऐसे लोग भी हैं जो विपरीत लिंग की सुंदरता पर फिदा रहते हैं। वे अक्सर विपरीत लिंग पर नजरें गड़ाए रहते हैं, और व्यभिचार तक करते हैं, पुरुषों और महिलाओं के बीच पाप करते हैं। इनमें से कुछ लोग अविवाहित होते हैं, जबकि अन्य के परिवार होते हैं—कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो बहुत अधिक उम्र के होने के बावजूद व्यभिचार में संलग्न रहते हैं। इससे भी गंभीर बात यह है कि कुछ लोग समान लिंग के लोगों को फुसलाकर उनके साथ शारीरिक संबंध बनाने की कोशिश करते हैं। यह वास्तव में घृणित है। इससे भी ज्यादा अविश्वसनीय बात यह है कि ऐसे लोग भी हैं, जो वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते हैं, लेकिन यह नहीं मानते कि सत्य अन्य सभी से श्रेष्ठ है या यह कि परमेश्वर के वचन सब-कुछ पूरा करते हैं। ये लोग अक्सर अपना भाग्य जानने के लिए गुप्त रूप से ज्योतिषियों के पास जाते हैं, अगरबत्ती जलाकर बुद्ध या अन्य मूर्तियों की पूजा करते हैं, और कुछ तो अन्य लोगों को शाप देने के लिए जादुई गुड़ियों का उपयोग तक करते हैं, या मृतात्माओं से बात करने के लिए बैठकें तक बुलाते हैं, इत्यादि। इस तरह का काला जादू करना और भी गंभीर मुद्दा है; ऐसे लोग छद्म-विश्वासी हैं, और वे गैर-विश्वासियों से अलग नहीं हैं। भले ही परिस्थितियाँ मामूली हों या गंभीर, जब व्यक्ति में ये अभिव्यक्तियाँ होती हैं, तो हम कह सकते हैं कि वे मानवता को इस तरह से जी रहे हैं जो असामान्य और दूषित है, कि उनके कुछ व्यवहार गलत या बेतुके तक हैं—कि वे वास्तव में पापपूर्ण व्यवहार हैं। परमेश्वर में विश्वास करने के बाद कुछ लोग बहुत उत्तेजक कपड़े पहनते हैं, वे सेक्सी दिखने को गैर-विश्वासियों जितना ही महत्व देते हैं, और वे सांसारिक चलन के पीछे भागते हैं। वे संतों के समान बिल्कुल नहीं हैं। कुछ लोग सभाओं में तो ज्यादा सुरुचिपूर्ण कपड़े पहनकर जाते हैं, लेकिन घर आकर गैर-विश्वासियों जैसे फैशनेबल कपड़े पहन लेते हैं। अपने पहनावे से वे विश्वासियों जैसे नहीं दिखते; उनमें और गैर-विश्वासियों में कोई अंतर नहीं है। वे खीसें निपोरकर चीजों का मजाक उड़ाते हैं; वे अत्यंत आत्म-निरत होते हैं और कोई संयम नहीं दिखाते। क्या इस तरह के लोग सामान्य मानवता को जी रहे हैं? (नहीं, वे नहीं जी रहे।) वे सांसारिक चलन के पीछे भागते हैं, सेक्सी होना चाहते हैं, और दूसरों को आकर्षित और प्रभावित करना चाहते हैं। विपरीत लिंग को आकर्षित करने की कोशिश में वे पूरा दिन अच्छी तरह से सजने-सँवरने और भारी मेकअप करने में बिता देते हैं। ये लोग जिस चीज को जीते हैं, वह अपेक्षाकृत खराब होती है। वे अपने पहनावे, बोलचाल और व्यवहार में संयम भी नहीं रख पाते, और उनमें संतों जैसी शालीनता भी नहीं होती, इसलिए जब हम उनका मूल्यांकन उन व्यवहार संबंधी मानदंडों के अनुसार करते हैं, जिनकी परमेश्वर माँग करता है, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि वे जिस मानवता को जीते हैं, वह बहुत खराब है। इन ठोस उदाहरणों से हम देख सकते हैं कि लोगों के व्यवहार और वे जिसे जीते हैं उसके बारे में परमेश्वर की माँगें पूरी तरह से सामान्य मानवता की माँगों के अनुरूप हैं—इसलिए, स्वाभाविक रूप से, सामान्य मानवता वाले उन्हें प्राप्त करने में सक्षम हैं। इस कथन का क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि अगर तुम इन चीजों को जीते हो, तो ही तुममें मानवीय समानता होती है, तुम एक सामान्य व्यक्ति दिखते हो, और तुममें सामान्य मानवता का न्यूनतम स्तर होता है। परमेश्वर की माँगों के विशिष्ट विवरण पर नजर डालकर हम देख सकते हैं कि इस तरह से मानवता को जीना नकली होना या दिखावा करना नहीं है, न ही यह दूसरों को चकमा देना है। बल्कि, यह वह तरीका है जिससे सामान्य मानवता प्रकट होनी चाहिए, और वह वास्तविकता है जो उसमें होनी चाहिए। जो लोग सामान्य मानवता के इन उद्गारों को जीते हैं, जरा-सी भी चालाकी नहीं दिखाते, सिर्फ उन्हीं में मानवीय समानता होती है। सिर्फ इस तरह से सामान्य मानवता को जीकर ही लोग दूसरों का सम्मान प्राप्त कर सकते हैं और गरिमा के साथ जी सकते हैं। और सिर्फ इस तरह से सामान्य मानवता को जीने और संतों जैसी शालीनता रखने से ही लोगों के सामान्य उद्गार परमेश्वर के लिए महिमा लाते हैं। क्योंकि तब, तुम जो कुछ भी जीते हो वह सकारात्मक होगा, और सकारात्मक चीजों की वास्तविकता होगी, और यह कोई अभिनय नहीं होगा। तुम परमेश्वर की माँगों के अनुसार मानवीय समानता को जी रहे होगे।
मनुष्य के अच्छे व्यवहार का सार और उस व्यवहार का सार जिसकी परमेश्वर माँग करता है, दोनों स्पष्ट और सुबोध ढंग से समझा दिए गए हैं। इसलिए, लोगों को कैसे अभ्यास करना चाहिए, और कैसे सामान्य मानवता को जीना चाहिए, यह भी स्पष्ट होना चाहिए, है न? सामान्य मानवता को जीने के सवालों पर लोग अति नहीं करेंगे या बाल की खाल नहीं निकालेंगे। क्या सामान्य मानवता को जीने का लोगों के जीवन में ऐसी तुच्छ चीजों से संबंध है, जिनका मानवता से कोई लेना-देना नहीं है? कुछ हास्यास्पद लोग हैं, जो इस मामले को स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते। वे कहते हैं, “चूँकि परमेश्वर की संगति इतनी विस्तृत है, इसलिए हमें भी अपने जीवन के हर छोटे पहलू के बारे में सावधान रहना चाहिए। उदाहरण के लिए, क्या उबालने या भूनने से शकरकंद अधिक पौष्टिक हो जाता है?” क्या यह सामान्य मानवता को जीने से संबंधित है? बिल्कुल नहीं। लोगों को क्या खाना चाहिए और कैसे खाना चाहिए, यह सामान्य ज्ञान है, जो अब सभी लोगों के पास है। अगर कोई चीज खाने में दिक्कत न हो, तो तुम उसे जैसे चाहो खा सकते हो। अगर कोई सोचता है कि सामान्य ज्ञान के ऐसे सरल मामलों में भी उसे सत्य खोजने की आवश्यकता है, और ऐसी चीजों का अभ्यास इस तरह करने की आवश्यकता है मानो वे सत्य हों, तो क्या वह व्यक्ति हास्यास्पद और बेतुका नहीं है? अब कुछ लोग ऐसे हैं, जो उस तरह के मामलों में बहुत सावधानी बरतते हैं, जिनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। ये लोग सोचते हैं कि वे सत्य का अनुसरण कर रहे हैं, और वे छोटे-छोटे मामलों की छानबीन और जाँच भी इस तरह करते हैं, मानो वे सत्य हों। इन चीजों पर बहस करते हुए कुछ के चेहरे लाल हो जाते हैं। यह किस तरह की समस्या है? क्या यह आध्यात्मिक समझ के घोर अभाव का मामला नहीं है? यह तथ्य कि शकरकंद खाने के मामले में भी कुछ लोग इस तरह खोजते हैं, मानो वह सत्य हो, वास्तव में हास्यास्पद और चिढ़ दिलाने वाला है। ऐसे लोगों से कोई आशा नहीं है, क्योंकि वे परमेश्वर के वचनों को नहीं समझते, और वे नहीं जानते कि सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है। वे जीवन में सामान्य ज्ञान के सरलतम मामले भी नहीं समझ सकते, और वे ये मुद्दे हल नहीं कर सकते—तो उनके इतने वर्षों तक जीने का क्या मतलब है? ये लोग ऐसे महत्वहीन मामले सभाओं में कैसे ला सकते हैं और कैसे उन पर इस तरह चर्चा और संगति कर सकते हैं, मानो वे ऐसे विषय हों जिनमें सत्य खोजा जा सकता है? इसका मुख्य कारण यह है कि इन लोगों की समझ विकृत है और इनमें आध्यात्मिक समझ की कमी है। वे किस संदर्भ में सावधानी बरत रहे हैं? उनमें ये विचार और भाव क्यों उत्पन्न हुए? सभाओं में वे शकरकंद खाने के बारे में चर्चा और संगति कैसे कर सकते हैं? क्या ऐसा इसलिए है कि जिन मुद्दों पर मैं संगति कर रहा हूँ, वे बहुत ठोस हैं, और इससे उन लोगों के बीच कुछ भ्रांतियाँ पैदा हो गई हैं, जो शब्दों को तोड़ना-मरोड़ना और बाल की खाल निकालना पसंद करते हैं? जब ये समस्याएँ और स्थितियाँ सामने आती हैं, तो मुझे लगता है कि इन लोगों से बात करना बंदरों के साथ इंसानों-सा व्यवहार करना है। बंदर ऐसे जीव हैं, जो पहाड़ों और जंगलों में रहते हैं। हालाँकि वे मनुष्यों जैसे दिखते हैं, और उनके कई व्यवहार और आदतें मनुष्यों जैसी होती हैं, और हालाँकि एक समय था जब मनुष्य बंदरों को अपने पूर्वजों के रूप में देखते थे, पर जो भी हो, बंदर फिर भी बंदर ही हैं। उन्हें जंगलों और पहाड़ों में ही रहना चाहिए। क्या उन्हें इंसानों के साथ रहने के लिए घर में रखना गलती नहीं होगी? क्या हमें बंदरों के साथ ऐसा व्यवहार करना चाहिए, जैसे कि वे इंसान हों? (नहीं, हमें ऐसा नहीं करना चाहिए।) तो, तुम लोग बंदर हो या इंसान? अगर तुम लोग इंसान हो, तो मुझे चाहे कितना भी बोलना पड़े या कितनी भी मेहनत से काम करना पड़े, मेरे लिए यह उचित और सार्थक है कि मैं तुम लोगों से ये चीजें कहूँ। अगर तुम लोग बंदर हो, तो क्या मेरे लिए यह उचित है कि मैं तुम लोगों के साथ इंसानों की तरह व्यवहार करूँ, और तुम लोगों के साथ सत्य और परमेश्वर के इरादों पर चर्चा करके भैंस के आगे बीन बजाऊँ? क्या यह सार्थक है? (नहीं, यह सार्थक नहीं है।) तो फिर तुम लोग इंसान हो या बंदर? (हम इंसान हैं।) उम्मीद है, तुम इंसान हो। तुम लोग सभाओं में, शकरकंद कैसे खाएँ, इस पर संगति करने को कैसे देखते हो? क्या तुम ऐसे मामलों में भी सावधान रहोगे? उदाहरण के लिए, कुछ लोग पूछते हैं : “मुझे नीले कपड़े पहनने चाहिए या सफेद? अगर मैं सफेद कपड़े पहनूँ, तो किस तरह का सफेद? किस तरह का सफेद पवित्रता दर्शाता है और संत के उपयुक्त होता है? अगर मेरे लिए नीला उपयुक्त है, तो कौन-सा नीला? कौन-सा नीला उन माँगों और कसौटियों पर खरा उतरता है, जो परमेश्वर मनुष्य से करता है, और जो परमेश्वर के लिए सबसे ज्यादा महिमा ला सकता है?” क्या तुम लोग कभी इन मामलों में सावधान रहे हो? क्या कभी किसी ने विचार किया है कि संत को कौन-सा केश-विन्यास, बोलचाल का कौन-सा तरीका और वाणी का कौन-सा लहजा शोभा देता है? क्या तुम लोग कभी इन चीजों के बारे में सावधान रहे हो? कुछ लोग इन चीजों में सावधान रहे हैं और इन पर मेहनत करते हैं। कुछ लोग हैं, जो अपने बाल सुनहरे, लाल या दूसरे अजीब रंगों से रँगना पसंद करते थे, लेकिन जब वे परमेश्वर में विश्वास करने लगे, तो उन्होंने देखा कि कलीसिया के अन्य भाई-बहन अपने बाल नहीं रँगते, इसलिए उन्होंने भी बाल रँगने बंद कर दिए। कई वर्षों के बाद ही वे पूरी तरह से समझ पाए कि बालों का रंग या केश-विन्यास महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि व्यक्ति सामान्य मानवता को जी रहा है या नहीं, और वह सत्य से प्रेम करता है या नहीं। जिन मामलों का सामान्य मानवता से कोई लेना-देना नहीं है, उनमें सावधानी बरतने वाले लोग, धीरे-धीरे यह समझने लगे हैं कि इन चीजों पर मेहनत करना बेकार है, क्योंकि ये मामले सत्य से बिल्कुल भी संबंधित नहीं हैं। ये बस सामान्य मानवता के दायरे के भीतर कुछ मुद्दे हैं, और ये सत्य के स्तर तक नहीं पहुँचते। जिस मानवता को तुम जी रहे हो, अगर वह परमेश्वर की माँगों और मानकों को पूरा करती है, तो यह पर्याप्त है। क्या तुम सभी लोग अतीत में इन मुद्दों से कुछ हद तक परेशान और भ्रमित नहीं हुए हो? (हाँ, हुए हैं।) सभाओं के दौरान शकरकंद खाने के बारे में बहस करने जितने चरम मुद्दे न सही, लेकिन जीवन के कुछ छोटे, महत्वहीन मामलों से परेशान तो तुम भी हुए हो। ये तथ्य हैं। तो, क्या इन मामलों पर कोई निश्चित निष्कर्ष नहीं निकाला जाना चाहिए? क्या तुम लोग इस बारे में स्पष्ट हो कि परमेश्वर की माँगों और मानकों के अनुसार सामान्य मानवता को जीते समय लोगों को किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए? क्या तुम जानते हो कि अगली बार कुछ विशेष परिस्थितियों का सामना करने पर तुम्हें सत्य कैसे खोजना है? कुछ लोग कहते हैं, “हालाँकि मैं ऐसी अति नहीं करता, जैसे यह पूछना कि शकरकंद कैसे खाएँ, लेकिन अगर मेरे दैनिक जीवन में कुछ मुद्दे उठते हैं, तो मैं भी थोड़ी देर के लिए भ्रमित महसूस करूँगा।” तो, मुझे एक उदाहरण दो—कौन-सा मुद्दा तुम लोगों को थोड़ी देर के लिए भ्रमित कर देगा? क्या तुम लोग कहोगे कि महिलाओं के लिए मेकअप करना गलत है? क्या यह सामान्य मानवता को जीने के लिए परमेश्वर की माँगों के अनुरूप है? (यह गलत नहीं है।) यहाँ “यह गलत नहीं है” का क्या अर्थ है? (अगर मेकअप संतों के उपयुक्त हो और भारी न हो, तो ठीक है।) अगर मेकअप भारी न हो, तो उचित है। कुछ लोग हैं, जो पूछते हैं, “अगर बहुत भारी न होने पर मेकअप करना उचित है, तो क्या इसका मतलब यह है कि तुम चाहते हो कि हम मेकअप करें?” क्या मैंने यह कहा? (नहीं, तुमने यह नहीं कहा।) मेकअप करना कोई समस्या नहीं है, यह सामान्य मानवता को जीने के अनुरूप है। इसके लिए निर्धारक सिद्धांत यह है कि अगर मेकअप बहुत भारी न हो, तो ठीक है। यह मानक है। तो, सामान्य मानवता को जीने के अनुरूप होने के लिए महिलाओं को अपना मेकअप किस दायरे में रखना चाहिए? सीमा-रेखा कहाँ है? “भारी मेकअप” का क्या अर्थ है? किस तरह का मेकअप भारी माना जाता है? अगर सीमा स्पष्ट रूप से खींच दी जाए, तो लोगों को पता चल जाएगा कि क्या करना है। क्या यह विवरण नहीं है? भारी मेकअप का क्या मतलब है, यह समझाने के लिए मुझे एक उदाहरण दो। (यह तब होता है, जब चेहरा रँगकर बहुत सफेद कर लिया जाता है, होंठ बहुत लाल होते हैं, और आँखें बहुत काली होती हैं, जिससे वह देखने में बेहद अप्राकृतिक और असुविधाजनक लगता है।) उसे देखकर लोग उछल पड़ते हैं मानो भूत देख लिया हो, और दूसरे उसका प्राकृतिक रूप या चेहरा नहीं देख पाते। कुछ देशों और जातियों में, और साथ ही कुछ व्यवसायों में भी, लोग विशेष रूप से भारी मेकअप करते हैं। उदाहरण के लिए, क्या बार और नाइट-क्लबों में लोगों द्वारा किया जाने वाला मेकअप इसका निरूपण नहीं है? ये सभी लोग भारी मेकअप करते हैं, और यह शिक्षाप्रद नहीं है—उनके मेकअप का उद्देश्य दूसरों को लुभाना है। इस तरह का मेकअप भारी मेकअप होता है। तब, किस तरह का मेकअप सामान्य मानवता को जीने के अनुरूप है? हल्का मेकअप, जैसा महिलाएँ कार्यस्थल पर करती हैं, जो बहुत ही गरिमापूर्ण और सुरुचिपूर्ण दिखता है। अगर तुम्हारा मेकअप इस सीमा से बाहर नहीं जाता, तो ठीक है। चीन में, पुरानी पीढ़ियों के बीच मेकअप करना फैशनेबल नहीं है। अगर कोई आम, बूढ़ी महिला जिसकी समाज में कोई खास हैसियत या प्रतिष्ठा नहीं है, हमेशा घर से बाहर निकलते समय अच्छे कपड़े पहनती और मेकअप करती है, तो लोग कहेंगे कि वह अपनी उम्र के हिसाब से सम्मानपूर्वक काम नहीं कर रही। हालाँकि, पश्चिम में मामला अलग है। वहाँ अगर तुम किसी से मिल रहे हो या काम पर जा रहे हो और थोड़ा-सा मेकअप नहीं करते और थोड़ा सजते-सँवरते नहीं, तो लोग कहेंगे कि तुम अपनी नौकरी का सम्मान नहीं करते, कि तुम पेशेवर नहीं हो, और तुम दूसरे लोगों के प्रति अशिष्ट हो। यह एक तरह की संस्कृति है। स्वाभाविक रूप से, इस तरह की स्थिति में, मेकअप करना उस स्तर तक सीमित होना चाहिए, जिसमें तुम दूसरे लोगों को प्रतिष्ठित, सीधे-सरल और सम्मानित व्यक्ति जैसे दिखाई दो। इसे एक वाक्य में सारांशित करें तो : अगर तुम मेकअप करते हो, तो उससे तुम्हें एक सम्मानित व्यक्ति की तरह दिखना चाहिए, उससे लोगों के दिलों में वासना नहीं जगनी चाहिए—इस तरह का मेकअप उचित है। यही सिद्धांत है, और यह सीधी-सी बात है। कुछ लोग पूछते हैं, “अगर मैं घर से निकलते समय मेकअप न करूँ, तो क्या यह ठीक है? मुझे मेकअप करने की आदत नहीं है।” तुम लोगों को परमेश्वर के वचनों के भीतर खोजना चाहिए। क्या परमेश्वर ने कहा कि मेकअप न करना गलत है? परमेश्वर ने यह नहीं कहा। परमेश्वर के घर ने कभी लोगों से मेकअप करने की अपेक्षा नहीं की। अगर तुम मेकअप करना पसंद करते हो, तो मैंने तुम्हें यह मानदंड और सीमा दी है, और तुम्हें बताया है कि तुम्हें क्या करना चाहिए कि तुम्हारा मेकअप उचित हो। अगर तुम मेकअप करना पसंद नहीं करते, तो परमेश्वर का घर इसकी अपेक्षा नहीं करता। लेकिन तुम्हें एक बात याद रखनी चाहिए : हालाँकि तुम्हारा मेकअप करना आवश्यक नहीं है, लेकिन तुम घर से भिखारी की तरह गंदे और मैले-कुचैले नहीं निकल सकते। उदाहरण के लिए, जब तुम सुसमाचार साझा करने बाहर जाते हो, तो अगर तुम घर से निकलने से पहले खुद को सुदर्शन नहीं बनाते या अपना चेहरा नहीं धोते, और यह कहते हुए मैले-कुचैले कपड़े पहनते हो, “यह ठीक है। अगर हम सत्य समझते हैं, तो फर्क नहीं पड़ता कि हम कैसे कपड़े पहनते हैं!” क्या यह रचनात्मक है? परमेश्वर में विश्वास करने वाला व्यक्ति होने के नाते, तुम्हारे पास अपने पहनावे और वेश के भी सिद्धांत होने चाहिए। इस सिद्धांत का न्यूनतम मानक यह है कि तुम्हें सामान्य मानवता को जीना चाहिए, और तुम्हें परमेश्वर को अपमानित करने वाला, या अपना चरित्र और गरिमा गिराने वाला कोई काम नहीं करना चाहिए। कम से कम, तुम्हें ऐसा करना चाहिए कि दूसरे तुम्हारा सम्मान करें। अगर तुम धर्मपरायणता के स्तर तक नहीं भी पहुँचते, तो भी तुम्हें कम से कम खुद को संयमित करने में सक्षम होना चाहिए, और गरिमामय और सीधा-सरल होना चाहिए, और संतों जैसी शालीनता रखनी चाहिए। अगर तुम लोगों को यह आभास दे सको, तो यही काफी है। सामान्य मानवता को जीने के लिए यह सबसे बुनियादी अपेक्षा है।
जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उनके लिए लोगों के बाहरी व्यवहारों और उनके द्वारा सामान्य मानवता को जीने के बारे में ये प्रश्न बोझ या कठिनाइयाँ नहीं होने चाहिए, क्योंकि ये सबसे बुनियादी चीजें हैं, एक सामान्य व्यक्ति के पास कम से कम ये तो होनी ही चाहिए। इन मुद्दों को समझना आसान होना चाहिए; ये अमूर्त नहीं हैं। इसलिए, लोगों के बाहरी व्यवहारों और उनके द्वारा सामान्य मानवता को जीने के बारे में ये प्रश्न ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दे नहीं बनने चाहिए, जिन पर कलीसियाई जीवन में अक्सर चर्चा की जाती है। इनके बारे में कभी-कभी बात करना ठीक है, लेकिन अगर तुम इन्हें सत्य की खोज के विषय समझते हो और इन्हें अक्सर उठाते हो, इन पर मन लगाकर और गंभीरता से चर्चा करते हो, तो तुम कुछ हद तक अपने उचित कर्तव्यों की उपेक्षा कर रहे हो। कौन-से लोग आम तौर पर अपने उचित कर्तव्यों की उपेक्षा करते हैं? शकरकंद कैसे खाएँ जैसे सवाल उठाना, और इन सवालों के साथ इस तरह पेश आना मानो वे ऐसे विषय हों जिन पर सत्य खोजा जाना है, सभाओं में और कभी-कभी अनेक सभाओं में उनकी जाँच और उन पर संगति करना, जबकि कलीसिया-अगुआ इसे रोकने के लिए कुछ नहीं करते—क्या ये सब उन लोगों की अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं, जो विकृतियों से ग्रस्त हो सकते हैं और जिनमें आध्यात्मिक समझ की कमी होती है? (हाँ, बिल्कुल।) सभाओं में किन सवालों पर सबसे ज्यादा चर्चा की जानी चाहिए? जो सत्य और लोगों के भ्रष्ट स्वभावों से संबंधित हों। सत्य और परमेश्वर के वचन कलीसियाई जीवन के अपरिवर्तनीय विषय हैं; सामान्य मानवता के बाहरी व्यवहारों के सबसे बुनियादी और साधारण विषय से संबंधित मामले कलीसियाई जीवन और सभाओं में संगति का मुख्य विषय नहीं होने चाहिए। अगर भाई-बहन इन चीजों के बारे में सभाओं के बाहर एक-दूसरे को सलाह दें, याद दिलाएँ और संगति करें, तो यह इन समस्याओं को हल करने के लिए पर्याप्त है। इन पर संगति और चर्चा करने में बहुत ज्यादा समय खर्च करना आवश्यक नहीं है। यह लोगों के सामान्य रूप से एकत्र होकर परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने को प्रभावित करेगा, और इसका उनके जीवन-प्रवेश पर असर पड़ेगा। कलीसियाई जीवन परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने का जीवन है। इसका जोर सत्य के बारे में संगति करने और व्यावहारिक समस्याएँ हल करने पर होना चाहिए, इस तरह, किसी के जीवन प्रगति में देरी नहीं होगी। अगर तुममें सामान्य मानवता की भावना है, तो तुम्हें यह स्पष्ट होना चाहिए कि सिद्धांतों के अनुसार इन मामलों का अभ्यास कैसे करना है। अगर तुम हमेशा उन छोटे-छोटे मामलों और चीजों के बारे में मीन-मेख निकालते हो, जिनका सत्य-सिद्धांतों से कोई लेना-देना नहीं है, अगर तुम हमेशा बाल की खाल निकालते हो, फिर भी तुम्हें लगता है कि तुम ज्ञानी और विद्वान हो, तो क्या इस मुद्दे का विश्लेषण नहीं किया जाना चाहिए? उदाहरण के लिए, कुछ लोग अपने पहनावे पर बहुत ज्यादा जोर देते हैं, और हमेशा पूछते हैं कि क्या विश्वासी असामान्य कपड़े पहन सकते हैं; कुछ लोग, जो हाल ही में परमेश्वर में विश्वास करने लगे हैं, हमेशा पूछते हैं कि क्या विश्वासियों को शराब पीनी चाहिए; कुछ लोग व्यवसाय करना पसंद करते हैं और हमेशा पूछते हैं कि क्या विश्वासियों को बहुत पैसा कमाना चाहिए; और कुछ लोग हमेशा पूछते हैं कि परमेश्वर का दिन कब आएगा। ये लोग सही उत्तर ढूँढ़ने के लिए इन मामलों में सत्य खोजने को तैयार नहीं होते। हालाँकि इन विषयों पर कोई सटीक वचन नहीं हैं, फिर भी परमेश्वर ने इन मुद्दों से निपटने के सिद्धांत बहुत स्पष्ट रूप से समझाए हैं। अगर व्यक्ति परमेश्वर के वचनों को पढ़ने का प्रयास नहीं करता, तो उसे उत्तर नहीं मिलेंगे। वास्तव में, परमेश्वर में विश्वास करने का उद्देश्य, और इससे क्या प्राप्त करना है, इसे सभी जानते हैं। बात बस इतनी है कि कुछ लोग ऐसे हैं जो सत्य से प्रेम नहीं करते, फिर भी आशीष प्राप्त करना चाहते हैं। यहीं उनकी कठिनाई है। इसलिए, सबसे महत्वपूर्ण चीज यह है कि व्यक्ति सत्य स्वीकार सकता है या नहीं। कुछ लोग ऐसे हैं, जिन्होंने परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने या सत्य के बारे में संगति करने को कभी महत्व नहीं दिया है। वे बस महत्वहीन सवालों पर अटके रहते हैं, और सभाओं में हमेशा इन सवालों पर संगति करके इनके निश्चित उत्तर प्राप्त करना चाहते हैं, और अगुआ और कार्यकर्ता उन्हें रोक नहीं पाते। यह किस तरह की समस्या है? क्या ये लोग अपने उचित कर्तव्यों की उपेक्षा नहीं कर रहे? अगर तुम सत्य का अभ्यास नहीं करते और हमेशा गलत मार्ग पर चलना चाहते हो, तो तुम आत्मचिंतन कर खुद को जानते क्यों नहीं और आत्मविश्लेषण क्यों नहीं करते? तुम हमेशा लोगों को खुश करने में लगे रहते हो, अपने कर्तव्य के प्रति जिम्मेदार नहीं हो, जिद्दी हो, अपने आप में कानून, मनमाने और लापरवाह हो। तुम इस मामले में कर्तव्यनिष्ठ कैसे नहीं हो सकते? तुम जाँच और विश्लेषण कर यह पता कैसे नहीं लगा सकते कि वास्तव में क्या चल रहा है? जब भी तुम पर कुछ आ पड़ता है, तो तुम परमेश्वर को दोष क्यों देते हो और उसे गलत क्यों समझते हो? तुम हमेशा अपने बारे में फैसले पर क्यों पहुँच जाते हो, और शिकायत क्यों करते हो कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है और कलीसिया अन्यायी है? क्या ये समस्याएँ नहीं हैं? क्या तुम्हें कलीसियाई जीवन में इन मुद्दों पर संगति और विश्लेषण नहीं करना चाहिए? जब परमेश्वर का घर कलीसिया को विभाजित कर लोगों का सफाया करता है, तो तुम कभी समर्पण नहीं करते और कभी संतुष्ट नहीं होते, तुम्हारे मन में हमेशा धारणाएँ होती हैं और तुम नकारात्मकता फैलाते हो। क्या यह कोई समस्या नहीं है? क्या तुम्हें इस मुद्दे की जाँच और विश्लेषण नहीं करना चाहिए? तुम हमेशा हैसियत के पीछे भागते हो, राजनीति करते हो और अपनी हैसियत का प्रबंधन करते हो। क्या यह कोई समस्या नहीं है? क्या तुम्हें इन मुद्दों पर संगति और इनका विश्लेषण नहीं करना चाहिए? कलीसिया वर्तमान में सफाई का कार्य कर रही है, और कुछ लोग कहते हैं, “अगर लोग अपने कर्तव्यों में कुछ हद तक प्रभावी हैं, तो उन्हें हटाया नहीं जाएगा, इसलिए अगर मैं बस अपने कर्तव्य में कुछ हद तक प्रभावी बना रहता हूँ और हटाया नहीं जाता, तो यह काफी है।” यहाँ क्या समस्या है? क्या ये लोग निष्क्रिय विरोध में नहीं हैं? अगर कोई इस तरह का कपटपूर्ण स्वभाव दिखा सकता है, तो क्या इसे हल करने की आवश्यकता नहीं है? क्या भ्रष्ट स्वभावों और मनुष्य के प्रकृति-सार से जुड़ी समस्याएँ इससे ज्यादा गंभीर नहीं हैं कि शकरकंद कैसे खाएँ? क्या वे सभाओं और कलीसियाई जीवन में उठाए जाने, संगति और विश्लेषण किए जाने लायक मुद्दे नहीं हैं, ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोग विवेक प्राप्त कर सकें? क्या ये नकारात्मक व्यवहारों के अच्छे, विशिष्ट उदाहरण नहीं हैं? भ्रष्ट स्वभावों से संबंधित समस्याएँ सीधे तौर पर मनुष्य के स्वभावगत बदलाव से संबंधित हैं, और वे मनुष्य के उद्धार को छूती हैं। ये छोटे मामले नहीं हैं, तो फिर तुम लोग सभाओं में इन मुद्दों पर संगति और विश्लेषण क्यों नहीं करते? अगर तुम सभाओं में इस तरह के महत्वपूर्ण मामले हल करने के लिए कभी सत्य नहीं खोजते, बल्कि निरंतर तुच्छ और उबाऊ चीजों पर संगति करते रहते हो, पूरी सभा किसी छोटे-से मुद्दे पर संगति करने में व्यतीत कर देते हो, कोई वास्तविक समस्या हल करने में असमर्थ रहते हो और समय भी बरबाद करते हो—क्या तुम अपने उचित कर्तव्यों की उपेक्षा नहीं कर रहे हो? अगर तुम इस तरह से करते रहे, तो तुम सभी लोग कम क्षमता वाले बेकार व्यक्ति बन जाओगे, जो भ्रमित हैं, और अपने कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभाते, और सत्य तक नहीं पहुँच पाते। तुम लोग सभाओं में उन चीजों पर संगति नहीं करते, जिन पर तुम्हें संगति करनी चाहिए, बल्कि निरंतर उन चीजों पर संगति करते हो, जिन पर नहीं करनी चाहिए। तुम सभाओं में हमेशा उन चीजों पर संगति करते हो जिनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है, जो तुम्हारी अपनी विकृत समझ और तुच्छ व्यक्तिगत मुद्दों से संबंधित हैं, अपने साथ बाकी सबसे भी उनकी जाँच-पड़ताल करवाते हो और व्यर्थ समय बरबाद करते हो। यह न सिर्फ परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश को प्रभावित करता है, बल्कि कलीसिया के कार्य की सामान्य प्रगति में भी देरी करता है। क्या यह कलीसिया के कार्य को बाधित करना और उसमें गड़बड़ी पैदा करना नहीं है? इस तरह के व्यवहार को बाधा का नाम दिया जाना चाहिए। यह जानबूझकर खड़ी की जाने वाली बाधा है, और इस तरह से कार्य करने वाले लोगों को प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। भविष्य में, सभाएँ परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने, सत्य पर संगति करने, भ्रष्ट स्वभावों से संबंधित मुद्दे हल करने, और लोगों के कर्तव्यों में आने वाली कठिनाइयाँ और समस्याएँ सुलझाने तक सीमित होनी चाहिए। सभाओं में तुच्छ और अप्रासंगिक मामलों या दैनिक सामान्य ज्ञान से संबंधित मुद्दों पर संगति नहीं की जानी चाहिए। भाई-बहन आपस में संगति करके ये मुद्दे सुलझा सकते हैं; इन पर सभाओं में संगति करने की आवश्यकता नहीं है।
कलीसिया में हमेशा परमेश्वर के वचनों के बारे में विकृत समझ रखने वाले ऐसे लोग होते हैं, जो बाल की खाल निकाला करते हैं। जब मैं मनुष्य के अच्छे व्यवहारों के बारे में संगति करता हूँ, तो ये लोग वास्तव में अपने व्यवहार पर मेहनत करते हैं। वे नहीं जानते कि हमें इन चीजों पर संगति क्यों करनी चाहिए। मुझे बताओ, हमें इस मुद्दे पर संगति करने की आवश्यकता क्यों है? हम इस मुद्दे पर संगति करके क्या हासिल करना चाहते हैं? आओ, पहले इस बारे में बात करें कि हमें इस मुद्दे पर संगति क्यों करनी चाहिए। मनुष्य के अच्छे व्यवहारों का विषय और जिन व्यवहारों की परमेश्वर माँग करता है, उनके मानदंडों का विषय किस संदर्भ में उठाया गया था? इसे तब उठाया गया था, जब हम “सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है” विषय पर संगति कर रहे थे। यह मुद्दा सीधे तौर पर इस बात से संबंधित है कि मनुष्य को सत्य का अनुसरण कैसे करना चाहिए। सत्य का अभ्यास करने के परिणामस्वरूप लोग जो अच्छे व्यवहार प्रदर्शित करते हैं, वे सत्य से सरोकार रखते हैं और सत्य से संबंधित होते हैं। कोई भी व्यवहार मनुष्य को कितना भी अच्छा क्यों न लगे, अगर उसमें सत्य का अभ्यास करना शामिल नहीं है, तो यह सत्य से संबंधित नहीं है। कुछ लोग कहेंगे, “यह गलत है! क्या तुमने यह नहीं कहा कि अच्छे व्यवहार सत्य के स्तर तक नहीं पहुँचते? मुझे समझ नहीं आ रहा।” क्या तुम लोग इस मुद्दे को स्पष्ट कर सकते हो? “सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है” पर संगति करने के संदर्भ में, मैंने उन व्यवहारों का विश्लेषण किया, जिन्हें लोग अपनी धारणाओं के अनुसार अच्छा मानते हैं, और मैंने उनकी आलोचना और निंदा की। साथ ही, मैंने लोगों को बताया कि मनुष्य के व्यवहार के संबंध में परमेश्वर ने कौन-से मानदंड निर्धारित किए हैं, और मैंने उन्हें सामान्य मानवता को जीने का एक सही मार्ग दिया, जिससे उन्हें सामान्य मानवता को जीने का मूल्यांकन करने के मानदंड मिले। इस नींव पर, अंततः मैंने जो प्रभाव हासिल किया, वह लोगों को यह सूचित करना था कि अपनी धारणाओं के अनुसार वे जिन व्यवहारों को अच्छा समझते हैं, वे सत्य की कसौटी नहीं हैं, न ही उनमें सत्य शामिल है, और न ही वे सत्य से संबंधित हैं, और इस तरह लोगों को गलत ढंग से यह मानने से रोकना था कि इन अच्छे व्यवहारों का पालन करना ही सत्य का अनुसरण है। साथ ही, मैंने लोगों को सूचित किया कि वे सामान्य मानवता को जीने के मानक सिर्फ तभी पूरे करते हैं, जब वे व्यवहार के वे मानदंड पूरे करते हैं जिनकी परमेश्वर माँग करता है। चूँकि मैंने लोगों से कहा है कि मनुष्य जिन अच्छे व्यवहारों की वकालत करता है, वे सब दिखावे और झूठ हैं, कि वे सब नाटक और दिखावा हैं, और वे सब गलत हैं, कि उन सबमें शैतान की चालों की मिलावट है, अब जबकि ये चीजें छीन ली गई हैं और लोगों को उनसे वंचित कर दिया गया है, तो वे नहीं जानते कि अभ्यास कैसे किया जाए। वे मन ही मन सोचते हैं, “तो फिर मुझे किसके अनुसार जीना चाहिए? परमेश्वर जिस व्यवहार की माँग करता है, उसके वास्तविक मानदंड क्या हैं?” मनुष्य के व्यवहार के बारे में परमेश्वर की जो माँगें, मानदंड और ठोस कथन हैं—वे बहुत ही सरल हैं। अगर लोग उन वास्तविकताओं को जीते हैं जिनकी परमेश्वर माँग करता है, तो वे सामान्य मानवता को जीने के मानक पूरे कर चुके होते हैं। वे इस मामले में बाल की खाल नहीं निकालेंगे, भ्रमित नहीं होंगे या उलझन में नहीं पड़ेंगे। जब व्यक्ति वे मानक पूरे करता है जिन्हें सामान्य मानवता को जीना चाहिए, तो क्या उन्होंने सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर एक व्यावहारिक समस्या का समाधान नहीं कर लिया है? क्या उन्होंने सामान्य मानवता को जीने में एक बाधा दूर नहीं कर ली है और एक अवरोध नहीं हटा लिया है? कम से कम, अब तक, ऐसे बाहरी दृष्टिकोण जिनकी मानवता द्वारा प्रशंसा की जाती है, जैसे कि सुशिक्षित और समझदार, मिलनसार और सुलभ होना, अब मनुष्य के अनुसरण के लक्ष्य नहीं हैं। या इसे ज्यादा सटीक शब्दों में कहें तो, यह अब कोई ऐसा लक्ष्य नहीं है जिसे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग बाहरी रूप से जीने का प्रयास करते हों, न ही यह ऐसा मानक है जिसे सामान्य मानवता को जीना चाहिए। इसे संयमित रहने, संतों जैसी शालीनता रखने, इत्यादि की आवश्यकता से बदल दिया गया है। परमेश्वर की ये माँगें मनुष्य के लिए सामान्य मानवता को जीने का मानदंड हैं; ये वह समानता है, जिसे सामान्य मानवता को जीना चाहिए। इस तरह, क्या सत्य का अनुसरण करने की सबसे बुनियादी शर्त, लक्ष्य और दिशा की पुष्टि नहीं हुई है? सबसे आधारभूत, बुनियादी बात की पुष्टि हुई है, जो यह है कि सामान्य मानवता को जीने का लक्ष्य यह नहीं है कि लोग सुशिक्षित और समझदार, सौम्य और परिष्कृत, मिलनसार, विनम्र, बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने वाले हों। बल्कि, उन्हें सामान्य मानवता को जीना है, जैसा कि परमेश्वर माँग करता है। इसमें न तो कोई स्वाँग है और न ही शैतान की कोई चाल है; इसके बजाय, यह सामान्य मानवता को वास्तव में जीना, उसका वास्तविक उद्गार और व्यवहार है। क्या ऐसा ही नहीं है? (हाँ, है।) इस परिप्रेक्ष्य से, जब हम मनुष्य के अच्छे व्यवहारों पर संगति करते हैं, जो उन चीजों के विषय के अंतर्गत आते हैं जिन्हें मनुष्य अपनी धारणाओं में सही और अच्छा समझता है, और साथ ही उस व्यवहार के मानदंडों पर संगति करते हैं जिसकी परमेश्वर माँग करता है—तो क्या ये चीजें सत्य का अनुसरण करने से संबंधित हैं? (हाँ, हैं।) हाँ, ये संबंधित हैं। एक निश्चित सीमा तक, यह मनुष्य के सत्य के अनुसरण की मूल दिशा और लक्ष्य की पुष्टि करता है। इसका मतलब यह है कि, कम से कम, तुम्हारे सत्य का अनुसरण शुरू करने से पहले सामान्य मानवता को जीने का तुम्हारा लक्ष्य सही होगा। यह लक्ष्य मानव-निर्मित दृष्टिकोण नहीं है, यह पैकेजिंग या स्वाँग नहीं है। बल्कि, यह उस मानवता को सामान्य रूप से जीना है, जिसकी परमेश्वर माँग करता है। हालाँकि यह विषय अभी भी सत्य के वास्तविक अनुसरण से कुछ हद तक दूर है, फिर भी यह सत्य के अनुसरण की अति महत्वपूर्ण दिशा के लिए आवश्यक है। यह व्यवहार का सबसे सरल और सबसे बुनियादी मानदंड है, जिसे मनुष्य को समझना चाहिए। संगति का यह विषय सत्य का अनुसरण करने और सत्य की कसौटी से चाहे कितना भी दूर हो, चूँकि यह परमेश्वर की उन माँगों और व्यवहार संबंधी कसौटियों से जुड़ा है जो परमेश्वर ने मनुष्य को दी हैं, इसलिए, स्वाभाविक रूप से, एक निश्चित सीमा तक यह सत्य की कसौटी से भी संबंधित है। इसलिए लोगों को इन मुद्दों को समझना चाहिए। मनुष्य के व्यवहार के लिए परमेश्वर की ये माँगें वे मानदंड हैं, जिनका लोगों को पालन करना चाहिए, और जिन्हें नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। इन मुद्दों को समझने के बाद लोग, कम से कम, सामान्य मानवता को जीने में, और अपने बाहरी दृष्टिकोणों में एक सुशिक्षित और समझदार, सौम्य और परिष्कृत, विनम्र, सुलभ या मिलनसार व्यक्ति बनने की कोशिश नहीं करेंगे—जैसे पश्चिमी लोग, खास तौर से, पुरुषों से सज्जन होने, महिलाओं के लिए दरवाजे खोलने, महिला के बैठते समय उसके लिए कुर्सी खींचने, और सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं को प्राथमिकता देने की उम्मीद करते हैं—जब लोग इन अच्छे व्यवहारों को अच्छे से समझ लेते हैं, तो वे, कम से कम, सामान्य मानवता को जीने का प्रयास करते हुए या सामान्य मानवता के व्यवहारों का अनुसरण करते हुए इन्हें अपने मानकों के रूप में तो नहीं लेंगे। इसके बजाय, वे इन चीजों को अपने दिलो-दिमाग से त्याग देंगे; वे अब इनसे प्रभावित और बाध्य नहीं होंगे। यह ऐसी चीज है, जिसे तुम लोगों को करना चाहिए। अगर कोई है जो अभी भी कहता है, “अच्छा, वह व्यक्ति सुशिक्षित और समझदार नहीं है,” तो तुम्हारी क्या प्रतिक्रिया होगी? तुम उस पर नजर डालोगे, और उससे कहोगे, “तुमने गलत कहा। यह परमेश्वर का घर है। ‘सुशिक्षित और समझदार’ से तुम्हारा क्या मतलब है? यह सत्य नहीं है, और यह वो मानवीय समानता नहीं है जिसे जीना हमारे लिए अभीष्ट है।” कुछ लोग कहते हैं, “हमारी अगुआ बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह नहीं करती। मैं उम्र में पहले से ही बड़ी हूँ, फिर भी वह मुझे आंटी नहीं कहती, बस मुझे मेरे नाम से बुलाती है। उसे ऐसा नहीं करना चाहिए। मेरे पोते-पोतियाँ उससे बड़े हैं! ऐसा करके क्या वह मेरा अनादर नहीं करती? वह लोगों के साथ भी मैत्रीपूर्ण या अच्छी नहीं है। उसके व्यवहार को देखते हुए, वह अगुआ बनने के लायक नहीं लगती।” तुम इस दृष्टिकोण के बारे में क्या सोचते हो? बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करना सत्य नहीं है। तुम्हें लोगों का मूल्यांकन उनके बाहरी व्यवहारों और अभिव्यक्तियों के आधार पर नहीं, बल्कि परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर करना चाहिए। केवल यही लोगों का मूल्यांकन करने के सिद्धांत हैं। तो फिर, हमें अगुआओं और कार्यकर्ताओं का मूल्यांकन कैसे करना चाहिए? तुम्हें यह देखना चाहिए कि क्या वे व्यावहारिक कार्य करते हैं, क्या वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने और सत्य समझने की ओर ले जा सकते हैं, क्या वे कलीसिया की समस्याएँ हल करने और कुछ महत्वपूर्ण कार्य पूरे करने के लिए सत्य का उपयोग कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, सुसमाचार का कार्य कैसा चल रहा है? कलीसियाई जीवन कैसा है? क्या परमेश्वर के चुने हुए लोग अपना कर्तव्य ठीक से निभा रहे हैं? सभी विभिन्न विशेषज्ञ-कार्य किस तरह आगे बढ़ रहे हैं? क्या छद्म-विश्वासियों, दुष्ट लोगों और मसीह-विरोधियों को हटा दिया गया है? ये कलीसिया के महत्वपूर्ण कार्य हैं। अगुआओं और कार्यकर्ताओं का मूल्यांकन मुख्य रूप से यह देखकर किया जाता है कि वे इन कार्यों को कितनी अच्छी तरह करते हैं। अगर वे इन सभी क्षेत्रों में प्रभावी हैं, तो वे सक्षम अगुआ हैं। अगर उनके व्यवहार में थोड़ी कमी भी है, तो यह कोई बड़ी बात नहीं है। सिर्फ बाहरी व्यवहारों को देखना यह मूल्यांकन करने का मानक नहीं है कि कोई अगुआ या कार्यकर्ता उपयुक्त है या नहीं। अगर कोई व्यक्ति इसे मनुष्य के नजरिये से देखे, तो ऐसा लगेगा कि अगुआ असभ्य है, क्योंकि उसने कभी बड़ी उम्र की महिला को आंटी या दादी नहीं कहा। लेकिन अगर वह उसका मूल्यांकन करने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग करे, तो यह अगुआ संतोषजनक है, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों ने सही व्यक्ति का चुनाव किया, क्योंकि वह कलीसिया के काम के हर पहलू को सँभाल सकती है, वह परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से हर एक के जीवन प्रवेश में मददगार और लाभप्रद है, और वह सुसमाचार का काम अच्छे से करती है। सभी को उसकी अगुआई स्वीकारनी चाहिए और उसके काम में सहयोग करना चाहिए। अगर कोई इस अगुआ के काम में सहयोग नहीं करता, या उसके लिए चीजें कठिन बना देता है, या अगर वह उसका फायदा उठाने की कोशिश करता है ताकि उसकी सिर्फ इसलिए आलोचना कर सके कि इस अगुआ में अच्छे बाहरी व्यवहार नहीं हैं जैसे कि बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करना, तो यह कलीसिया के काम के लिए फायदेमंद नहीं है। यह अगुआ और कार्यकर्ता के प्रति सिद्धांतहीन तरीके से कार्य करना है, और यह कलीसिया के कार्य को अस्तव्यस्त और बाधित करने की अभिव्यक्ति है। इस तरह के लोग सही नहीं हैं; वे बुराई कर रहे हैं। अगर तुम किसी ऐसे अगुआ या कार्यकर्ता को देखते हो जो अपने बड़ों का सम्मान नहीं करता, और इस कारण तुम सोचते हो कि वह बहुत अच्छा व्यक्ति नहीं है, और तुम उसकी अगुआई स्वीकार नहीं करते, यहाँ तक कि उसकी निंदा भी करते हो, तो तुम कौन-सी गलती कर रहे हो? यह परंपरागत संस्कृति के विचारों के अनुसार मनुष्य के मानकों का उपयोग करके लोगों का मूल्यांकन करने का दुष्परिणाम है। अगर सभी परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुसार लोगों का मूल्यांकन और अगुआओं और कार्यकर्ताओं का चुनाव कर सकें, तो यह सटीक और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप होगा। लोग दूसरों के साथ निष्पक्ष व्यवहार करने और कलीसिया के काम की सामान्य प्रगति बनाए रखने, दोनों में सक्षम होंगे। परमेश्वर संतुष्ट होगा और मनुष्य भी संतुष्ट होगा। क्या यही बात नही है?
जबसे मैंने मनुष्य के तथाकथित “अच्छे व्यवहारों” का विश्लेषण किया है और मनुष्य के व्यवहार के लिए परमेश्वर की माँगों के मानकों पर संगति की है, वह परिप्रेक्ष्य जिससे लोग एक व्यक्ति को देखते हैं, और जिन मानकों से वे उनका मूल्यांकन करते हैं, वे बदल गए हैं; चूँकि दृष्टि का वह क्षेत्र, जिसमें लोग एक व्यक्ति को देखते हैं, भिन्न होता है, इसलिए लोगों के मूल्यांकन के परिणाम भी भिन्न होते हैं। अगर लोग परमेश्वर के वचनों को अपने मूल्यांकन के आधार के रूप में उपयोग करें, तो परिणाम निश्चित रूप से सही, न्यायसंगत, वस्तुनिष्ठ और सबके हित में होगा। अगर लोगों के मूल्यांकन का परिप्रेक्ष्य, पद्धति और आधार ऐसी चीजें हैं, जिन्हें मनुष्य सही और अच्छी मानता है, तो परिणाम क्या होगा? हो सकता है, कोई व्यक्ति अच्छे लोगों पर गलत तरीके से आरोप लगा बैठे या उनकी निंदा कर डाले, या पाखंडियों द्वारा गुमराह हो जाए, और न्यायपूर्ण ढंग से व्यक्ति का मूल्यांकन और उसके साथ व्यवहार करने में असमर्थ रहे। चूँकि मनुष्य का आधार गलत है, इसलिए अंतिम परिणाम निश्चित रूप से गलत, अन्यायपूर्ण और परमेश्वर के इरादों के विपरीत होगा। तो, क्या अच्छे व्यवहार के बारे में लोगों की धारणाओं के सार का विश्लेषण करना और उसके बारे में संगति करना आवश्यक है? क्या इसका सत्य के अनुसरण से कोई संबंध है? ये बहुत घनिष्ठ रूप से संबंधित हैं! भले ही यह विषय सिर्फ सामान्य मानवता को जीने वाले लोगों, और मनुष्य के बाहरी नजरियों और उद्गारों को छूता है, लेकिन जब लोगों के पास सामान्य मानवता को जीने के लिए सही मानदंड होंगे, जिनकी परमेश्वर माँग करता है, तो उनके पास दूसरों का मूल्यांकन करने, लोगों और चीजों को देखने और आचरण और कार्य करने के लिए सही और मानकीकृत आधार और मानदंड होंगे। तो, इस संबंध में, क्या सत्य के उनके अनुसरण की दिशा, मार्ग और लक्ष्य ज्यादा सटीक नहीं होंगे? (हाँ, होंगे।) वे ज्यादा सटीक और ज्यादा मानकीकृत होंगे। हालाँकि ये विषय कुछ हद तक सरल हैं, फिर भी ये लोगों और चीजों पर मनुष्य के विचारों से, और मनुष्य के आचरण और कार्यकलापों से सबसे व्यावहारिक, वास्तविक और करीब से संबंधित हैं—ये बिल्कुल भी खोखले नहीं हैं।
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